Manuscripts ~ Jeevan Ki Adrashya Jaden (जीवन की अदृश्य जड़ें): Difference between revisions
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:हम प्रवास में थे। दोपहर थी। कुछ लोग आचार्य श्री से कह रहे थे कि हम स्वयं तो कुछ कर नहीं सकते हैं। गुरुकृपा हो या प्रभुकृपा हो तो ही कुछ हो सकता है। हम स्वयं तो अज्ञानी हैं और शक्तिहीन हैं। क्या हम भी प्रभु को पाने की आशा कर सकते हैं? | |||
:आचार्य श्री उनकी बातें सुन कर हंसने लगे और बोलेः 'एक कहानी सुनो। एक बादशाह किसी युद्ध में हार गया था। | |||
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:अभी अभी उसे हारने की खबर दी गई थी। खबर सुनते ही उसका खून सूख गया था और आंखों की रोशनी खो गई। उसे सब ओर अंधकार प्रतीत हो रहा था। अपने महल में वह ऐसा बैठा था जैसे कि कब्रिस्तान में बैठा हो। तभी उसकी रानी उसके पास आई। उसने पूछा कि महाराज इतने उदास क्यों हैं? राजा से कुछ कहते भी नहीं बन रहा था। किसी भांति उसने कहाः 'बहुत बुरी खबर है। युद्ध में मेरी सेना हार गई हैं। मैं पराजित हो गया हूं।' यह सुन रानी ने कहाः 'यह खबर तो मुझे भी ज्ञात है, लेकिन मेरे पास तो इससे भी बुरी खबर है।' राजा ने कहाः 'इससे भी बुरी? इससे भी बुरी खबर और क्या हो सकती है?' रानी ने कहाः 'महाराज आप युद्ध हार गए हैं लेकिन युद्ध पुन जीता जा सकता है। पर मैं तो देख रही हूं कि आप साहस भी हार चुके हैं। वह हार बड़ी कि यह? यह खबर ज्यादा बुरी कि यह? निश्चय ही साहस खोने से बड़ी और कोई पराजय नहीं है। जो उसे खो देता है, वह तो भविष्य ही खो देता है।' | |||
:--कुछ ज्योतिर्मय क्षण-6 | |||
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:पूर्णिमा की रात है। नदी पर रेत में हम बैठे हैं। आचार्य श्री कभी कभी अपने से ही कुछ कहने लगते हैं। निश्चय ही हमारे भीतर छिपी किसी प्यास का ही वह उत्तर होता है। शायद हमें भी जिस प्यास का पता नहीं है, उसे भी वे अवश्य ही जानते हैं। | |||
:उन्होंने आज अनायास ही कहना शुरू कियाः 'मैं जगत में विचार का ह्वास होते देखता हूं। विचार से मेरा अर्थ विचारों से नहीं है। विचारों की तो बाढ़ आई हुई है और विचार उस बाढ़ में बिलकुल ही डूब गया है। विचारों में, विचार को डूबने से बचाना है।' | |||
:हममें किसी ने पूछाः 'विचार से आपका क्या अभिप्राय है? क्या अर्थ है?' | |||
:'विचार का क्या अर्थ है? विचार का अर्थ है यह जानना कि क्या क्षणिक है और क्या शाश्वत है? क्या मत्र्य है और क्या अमृत है? क्या वस्तुतः नहीं है और क्या वस्तुतः है? जो विचारहीन है, वे क्षणिक के पीछे जीवन को व्यय कर देते हैं और जिनका विचार जाग्रत है वे क्षणिक को नहीं, शाश्वत को खोजते हैं क्योंकि जो क्षणिक से वह है ही नहीं। जो शाश्वत है वस्तुतः वहीं है। और जो है 'उसमें ही जीवन है,' 'जो नहीं है', उसमें तो केवल अपव्यय है और मृत्यु है। विचारहीन स्वप्न के पीछे भागते हैं और स्वप्नों के लिए निद्रा आवश्यक है इसीलिए वे सब भांति की मूर्च्छाओं को खोजते हैं। मूर्च्छा की खोज अविचार का लक्षण है। विचारशील सत्य का अनुसंधान करते हैं। निश्चय ही अनुसंधान के लिए भागना नहीं, रुकना आवश्यक है और सोना नहीं जागना जरूरी है। इसीलिए वे अमूर्च्छा को साधते हैं और निद्रा को तोड़ते हैं। अमूचर््िछत जीवन विचार का प्रतीक है। अमूर्च्छा विचार है।' | |||
:फिर थोड़ी देर बाद उन्होंने एक घटना बताईः | |||
:'सिद्धार्थ गौतमी के द्वार से निकल रहे थे। उन्हें देखकर गौतमी ने कहाः 'धन्य है वह माता जिसका ऐसा पुत्र है, धन्य है वह पिता जिसका ऐसा प्रतिबिंब है और धन्य है वह पत्नी जिसका ऐसा स्वामी है।' सिद्धार्थ ने सोचाः 'यह धन्यता और आनंद तो क्षणिक है लेकिन क्या ऐसी भी कोई धन्यता है जो कि क्षणिक न हो? क्या ऐसा कोई मार्ग नहीं है, जिससे | |||
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:कि शाश्वत धन्यता मिल सके और मिल सके अक्षुण्ण शांति और आनंद? क्योंकि जो आज है और कल नहीं है वह वस्तुतः आज भी नहीं है।' इसे मैं विचार कहता हूं। इसे मैं बोध कहता हूं। इसे मैं विवेक कहता हूं। और जहां विचार है, वहां द्वार भी है। सिद्धार्थ के हृदय में विचार की बिजली कौंधी तो उन्हें स्पष्ट दिखाई दिया कि जब तक वासना है तब तक शांति कैसे संभव है? तृष्णा की अग्नि जब तक प्रज्वलित है तब तक सत्य की शीतलता को कैसे पाया जा सकता है? विचार से द्वार मिलता है और द्वार मिले तो स्वयं में सोई हुई चेतना गंतव्य की ओर गति भी करती है। सिद्धार्थ के हृदय में एक अभिनव संकल्प सघन हो गयाः 'मैं तृष्णा की आग को बुझा कर उसे जानूंगा जो कि सत्य है। मैं क्षण के जीवन से जाग कर उसके दर्शन करूंगा जो कि शाश्वत है।' उन्होंने अपने गले का बहुमूल्य हार उतार कर गौतमी को गुरु दक्षिणा दी। उनके जीवन में निश्चय ही एक मोड़ आ गया था। विचार से मोड़ आता है और विचार से क्रांति आती है। सोचो क्या तुम्हारे भीतर विचार है? | |||
:--कुछ ज्योतिर्मय क्षण-19 | |||
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:एक विचारक आए हैं। पहले भी कई बार आ चुके हैं। ईश्वर पर निरंतर ही उनका चिंतन चलता रहता है। बहुत से शास्त्रों के अध्येता हैं और बातें करने में कुशल हैं। आचार्य श्री हमेशा ही उनसे कहते हैं कि मात्र विचार करते रहने का कोई मूल्य नहीं है। बातचीत का मूल्य हो भी क्या सकता है? फिर वह बातचीत चाहे दूसरों से हो या कि स्वयं से। शब्द को सत्य मत मान लेना। सत्य की खोज मात्र शब्द से नहीं, वरन समग्र जीवन से ही करनी होती है। आज भी कुछ ऐसी ही बातें चल पड़ी हैं। | |||
:आचार्य श्री एक कथा कहते हैंः | |||
:'एक कवि ने किसी सम्राट के दरबार में उसकी प्रशंसा में बहुत गीत गाए। बड़े सुंदर उसके शब्द थे और बड़ी मोहक उसकी शैली थी। सम्राट खूब प्रसन्न हुआ और उसने अपने आमात्य को कहा कि महाकवि को कल पुरस्कार में पांच हजार स्वर्ण- मुद्राएं भेंट की जाएं। | |||
:कवि स्वयं को महाकवि मानकर आनंदित हो अपने झोंपड़े में लौटा। आज उसके पैर भूमि पर नहीं पड़ते थे। पांच हजार स्वर्ण-मुद्राओं ने उसके सोए स्वप्नों को जगा दिया था रात्रि भर वह सो भी नहीं सका। बहुत कल्पनाएं बनी और मिटीं। बहुत योजनाएं उसके समक्ष थीं। बस कल की ही प्रतीक्षा थी। किसी भांति बड़ी कठिनाई से रात्रि बीती। लेकिन मन ही मन मुद्राएं गिनने का काम चलता ही था। सुबह होते ही वह राज दरबार पहुंच गया। सम्राट उसपर हंसने लगा और बोलाः 'क्या चाहते हैं? कैसे आना हुआ?' कवि हैरान हुआ। चिंतित हो बोलाः 'क्या आप भूल गए? आपने पांच हजार स्वर्ण-मुद्राएं देने का आश्वासन दिया था?' सम्राट ने कहाः 'बहुत भोले हैं। आप। बातों से आपने मुझे खुश किया था, सो मैंने भी बात ही बात में आपको खुश कर दिया था। लेने देने की इसमें क्या बात है? | |||
:यह कथा कह कर आचार्य श्री हंसने लगे और बोलेः 'ऐसी ही स्थिति हमारे और प्रभु के बीच है। विचार नहीं, जीवन का ही प्रतिफल और पुरस्कार मिलता है।' | |||
:--कुछ ज्योतिर्मय क्षण-3 | |||
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:रात्रि के सन्नाटे में हम आचार्य श्री के निकट बैठे हैं। बाहर घना अंधकार है। भीतर धीमी सी रोशनी जल रही है और धूप का धुंआं उठ कर वातावरण को सुवास से भर रहा है। हम जहां बैठे हैं, वह एक छोटे से गांव का छोटा सा मंदिर है। | |||
:किसी ने पूछाः 'क्या ज्ञान की खोज में किसी को गुरु बनाना आवश्यक है?' | |||
:आचार्य श्री ने कहाः 'नहीं। किसी को नहीं, सभी को गुरु बनाना आवश्यक है। आंखें खुली हों और सीखने को मन मुक्त और सहज हो तो सारा जगत ही गुरु है।' | |||
:फिर थोड़ी देर वे चुप रहे और पुनः कहने लगेः 'संत मलूक ने कहा है कि उन्हें एक शराबी, एक छोटे से बालक और प्रेम में पागल एक युवती के समक्ष बहुत लज्जित होना पड़ा था। पर फिर ये तीनों ही उनके गुरु भी बन गए थे। उन तीनों घटनाओं का बड़ा मधुर इतिहास है। एक दिन एक शराबी नशे में चूर लड़खड़ाता जा रहा था। मलूक ने उससे कहाः 'मित्र, पांव सम्हाल कर रखो, देखो कहीं गिर न जाना।' शराबी जोर से हंसने लगा। उत्तर में बोलाः 'भले मानस! पहले अपने पैर तो सम्हाल। मैं गिरा भी तो शरीर धोने भर से साफ हो जाऊंगा लेकिन तू गिरा तो शुद्धि कठिन है।' मलूक ने सुना और सोचा तो पाया कि बात ठीक ही थी। दूसरी बार एक बालक दीया लिए जा रहा था। मलूक ने उससे पूछाः 'यह दीया कहां से लाए हो?' इतने में ही हवा का एक झोंका आया और दीये को बुझा गया। वह बालक बोलाः 'अब तुम्हीं पहले बताओ कि दीया कहां चला गया है? तब मैं बताऊं कि दीया कहां से लाया था?' मलूक ने अपने अज्ञान को जाना और पहचाना और ज्ञान के भ्रम को विदा दे दी। तीसरी घटना ऐसे हुई कि एक युवती अपने प्रेमी को ढूंढती हुई मलूक के पास आई। उसके वस्त्र अस्त-व्यस्त थे और उसने घूंघट भी नहीं निकाला था। मलूक उसे इस प्रकार निर्लज्ज देख कर बोलेः 'पहले अपने कपड़े तो सम्हाल, मुंह तो ढंक फिर जो कहना हो सो कहना।' वह युवती बोलीः 'बंधु, मैं प्रभु के हाथों रचे एक प्राणी के प्रेम में मुग्ध होकर बेहोश हो रही हूं। मुझे अपनी देह का भी भान नहीं रहा है और आप मुझे सचेत न कर देते तो मैं ऐसे ही उसे खोजने बाजार में भी निकल जाती। पर यह कितने आश्चर्य की बात है कि प्रभु के | |||
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:प्रेम में पागल होकर भी आपको इतनी सुधि है कि आप यह जान गए कि मेरा मुख खुला है या ढंका और वस्त्र मेरे सुव्यवस्थित हैं या नहीं? प्रभु में लगी दृष्टि क्या यह सब भी जान सकती है?' मलूक जैसे नींद से जागे और देखा कि निश्चय ही जो क्षुद्र को देख रहा है। उसके समक्ष विराट कैसे हो सकता है।' | |||
:--कुछ ज्योतिर्मय क्षण-10 | |||
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:रात्रि बीत गई है। हम विदा होने को हैं। गांव के लोग विदा देने एकत्रित हो गए हैं। | |||
:एक युवक पूछता हैः 'मैं बहुत दुखी और चिंतित हूं। कारण खोजता हूं, तो स्पष्टतः कुछ समझ में नहीं आता। अपनी परिस्थितियों से ऊब गया हूं। उन्हें बदलना चाहता हूं। शायद, नई परिस्थितियों में बदल हो जावे और मैं शांति पा सकंू?' | |||
:आचार्य श्री ने कहाः 'सुख या दुख बाह्य घटनाएं नहीं हैं। बाहर जो है उससे कोई सुखी या दुखी नहीं होता। बाहर तो मात्र तथ्य है। उनमें न सुख है, न दुख। सुख और दुख तो उनके प्रति हमारी प्रतिक्रियाओं में छिपे होते हैं। वस्तुतः तथ्यों की कोई महता नहीं है। महता है उनके प्रति हमारे रुख की। उनके प्रति हमारी दृष्टि की। हमारी दृष्टि पर ही सब निर्भर होता है। तथ्य नहीं, व्यक्ति महत्वपूर्ण है। वह जो तुम्हारे पास है, वह नहीं, तुम जो हो, वही अंततः निर्धारक है। सुख या दुख हममें बैठे हुए हैं। इपिक्टेक्टस का वचन हैः 'यदि कोई मनुष्य दुखी हो तो वह जाने कि अपने ही कारण वैसा है।' यही मैं तुमसे कहता हूं। मित्र, कोई और नहीं, हम ही कारण हैं। जो भी हम हैं, उसके लिए हम ही कारण हैं। इस सत्य को ठीक से समझना, क्योंकि इस समझ पर ही जीवन का परिवर्तन निर्भर करता है। दुख हो, तो जानो कि दृष्टि में कोई भूल है। दुखी जीवन भ्रांत दृष्टि का ही परिणाम होता है। और सुखी जीवन सम्यक दृष्टि का। परिस्थिति को बदल कर भी मन स्थिति वही रही तो बहुत भेद नहीं पड़ता है। स्मरण रखना कि जब दुख हो तो स्वयं में ही कारण खोजना। बाहर नहीं। स्वयं में ही दोष देखना। अन्य में नहीं। और तब क्रमशः तुम्हें अपनी ही प्रतिक्रियाओं में छिपे कारण मिलने लगेंगे और एक नये जीवन का प्रारंभ हो जावेगा। जो बाहर दोष देखता है, वह भटक जाता है, और जो दोष स्वयं में खोजता है, वह उनके अतिक्रिमण में निश्चय ही सफल होता है।' | |||
:--कुछ ज्योतिर्मय क्षण-18 | |||
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:सर्दियों की सुबह है। सूर्य की किरणें सुखद लग रही हैं। हम धूप में बैठे हैं और पक्षियों के गीत सुन रहे हैं। तभी कुछ लोग मिलने आ गए हैं। उनमें एक संन्यासी भी हैं। वे पूछते हैंः 'क्या सत्य को पाने का कोई अत्यंत सरल और सुगम मार्ग नहीं है?' | |||
:आचार्य श्री ने उनसे कहाः 'जीवन का नियम है कि प्रत्येक वस्तु का मूल्य चुकाना होता है। बिना मूल्य कुछ भी नहीं मिलता। और फिर जितनी बहुमूल्य वस्तु हो उतना ही अधिक मूल्य भी चुकाना होता है। सत्य के लिए तो स्वयं को ही देना होता है। उससे कम मूल्य पर सत्य की प्राप्ति असंभव है। सत्य को पाना यानी स्वयं को खोना। लेकिन स्वयं को खोकर ही स्वयं की उपलब्धि भी होती है, जो स्वयं को बचाता है वह सत्य को तो खोता ही है, स्वयं को भी खो देता है। क्या आपको कभी यह अनुभव नहीं होता है कि 'मैं' अभी वस्तुतः 'मैं' नहीं हूं? जिस 'मैं' को हम स्वयं मान कर चल रहे हैं यदि वह वास्तविक होता तो सत्य की खोज का प्रश्न ही नहीं था। | |||
:'वह सत्य नहीं है, इसीलिए तो सत्य को पाने की प्यास है। लेकिन स्वयं के भीतर किसी न किसी चेतन अचेतन तल पर हमें सत्य का भी धुंधला अनुभव हो रहा है, अन्यथा इस 'मैं' को असत्य अनुभव करने का भी कोई कारण नहीं था। इस तथाकथित 'मैं' को खोना होता है। उसके ही नीचे तो सत्य है। वह सत्य इस 'मैं' से ही आवृत है। स्वयं की सतह पर यह 'मैं' है, स्वयं की गहराई में वह 'मैं' है। स्वयं की आत्यंतिक गहराई में जो 'मैं' है, वही सत्य है क्योंकि वह गहराई स्वयं की ही नहीं, सर्व की भी है। जो स्वयं के भीतर जितना गहरा जाता है, वह सर्व के भीतर भी उतना ही गहरा पहुंच जाता है। स्वयं के केंद्र पर ही सत्य का, परमात्मा का वास है। मित्र, केंद्र को पाने के लिए परिधि को खोना ही पड़ता है। इस मूल्य को चुकाए बिना कोई मार्ग नहीं। और यह मूल्य चुकाना सर्वाधिक कठिन तप है क्योंकि स्वयं को | |||
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:खोने से अधिक कठिन और क्या हो सकता है?' | |||
:--कुछ ज्योतिर्मय क्षण-14 | |||
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:रात्रि पड़ोस में कोई मर गया है। सुबह ही हमने आचार्य श्री को खबर दी। वे बोलेः 'मृत्यु तो निश्चित है। उसके अतिरिक्त और कुछ भी निश्चित नहीं है। जन्म में ही मृत्यु छिपी है। जो इस सत्य को नहीं जानता है, वह जीवन को व्यर्थ ही खो देता है और जो इस सत्य को जान लेता है उसका जीवन अमृत को उपलब्ध हो जाता है।' | |||
:हम चुपचाप बैठे रहे। आचार्य श्री पुनः कहने लगेः 'मैं मृत्यु से नहीं, लेकिन किसी के जीवन को व्यर्थ जाते देख जरूर ही दुखी होता हूं। वही वास्तविक मृत्यु है। शरीर का अंत नहीं, जीवन का व्यर्थ जाना ही वस्तुतः मृत्यु है।' | |||
:फिर उन्होंने एक बोधकथा कहीः 'राजा जनक को विदेह कहा जाता था। किसी दिन उनके एक युवक आमात्य ने पूछाः 'महाराज, आप देह रहते विदेह कैसे हैं?' जनक हंसे और चुप रह गए। कुछ दिनों बाद उन्होंने उस युवक को भोजन पर आमंत्रित किया। यह सौभाग्य मुश्किल से ही किसी को मिलता था। उस युवक की खुशी का ठिकाना नहीं था। लेकिन दूसरे दिन उसके विषाद का भी अंत न रहा उसने भोजन के लिए राजमहल जाते समय चैराहे पार ढिंढोरा सुना कि उसी दिन संध्या किसी राज अपराध के लिए उसे फांसी दी जाने वाली है। यह कैसा उपहास! दोपहर राजमहल में आतिथ्य और संध्या राजाज्ञा से मृत्यु! वह फिर भी किसी भांति भोजन को गया। राजा ने रसोइयों को कहा था कि भोजन में नमक बिलकुल भी न डाला जावे। भोजन के समय जनक स्वयं उपस्थित थे और बहुत प्रेम से उन्होंने युवक को भोजन कराया। वह युवक भोजन तो करता रहा लेकिन मन उसका वहां उपस्थित नहीं था। होता भी कैसे? एक एक क्षण बीत रहा था और मृत्यु निकट आ रही थी। राजा ने भोजनोपरांत पूछाः 'बंधु, भोजन में किसी प्रकार की कमी तो न थी?' वह युवक आमात्य जैसे निद्रा से जागा और बोलाः 'भोजन? हां, भोजन मैंने किया तो, पर स्मरण नहीं है। मृत्यु के भय ने स्वाद छीन लिया है। सुधि भी छीन ली है। मैं जहां हूं वहां नहीं हूं।' राजा जनक यह सुन हंसने लगे थे और कहा था कि वह आपके प्रश्न का उत्तर है। घबड़ाएं नहीं, संध्या आपको मरना नहीं है। यह सब मेरी योजना थी। मृत्यु जिसे दिखती है, वह देह रहते भी विदेह हो जाता है और विदेह हो जाता है उसके लिए मृत्यु विलीन हो जाती है। वैसी चेतना में व्यक्ति उसको उपलब्ध हो जाता है जो कि अमृत है।' | |||
:--कुछ ज्योतिर्मय क्षण-15 | |||
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Revision as of 01:39, 27 February 2018
Invisible Roots of Life
- year
- 1967
- notes
- 15 sheets. One half sheet. Plus 7 written on reverse.
- Page numbers showing "R" and "V" refer to "Recto and Verso".