Arvind Jain Notebooks, Vol 1: Difference between revisions
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:84 Pages Notes of Public Meetings Address & Personal Meetings of OSHO with Dignitaries | :84 Pages Notes of Public Meetings Address & Personal Meetings of OSHO with Dignitaries | ||
:April 61 to July 61. | :April 61 to July 61. | ||
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:बोधिसत्व बाबा साहब अम्बेद्कर के पवित्र जन्म-दिवस पर आकर मैं आपका अनुग्रहित हूँ | वे ज़मीन पर शरीर की तरह जन्मे लेकिन उनका असली जन्म तब हुआ, जब उन्होंने भगवान बुद्ध के धर्म में दीक्षा ली | इससे प्रत्येक मनुष्य के दो जन्म होते हैं - एक शरीर का सामान्य जन्म और दूसरा धर्म में होकर - सच्चा जन्म | दूसरे जीवन से ही - जीवन में महत्ता और गरिमा प्रगट होती है | इससे मैं डा. साहब के सामान्य जीवन पर विचार न कर, भगवान बुद्ध के संदेश से वे क्यों प्रभावित हुए - इस पर ही विचार करता हूँ | | :बोधिसत्व बाबा साहब अम्बेद्कर के पवित्र जन्म-दिवस पर आकर मैं आपका अनुग्रहित हूँ | वे ज़मीन पर शरीर की तरह जन्मे लेकिन उनका असली जन्म तब हुआ, जब उन्होंने भगवान बुद्ध के धर्म में दीक्षा ली | इससे प्रत्येक मनुष्य के दो जन्म होते हैं - एक शरीर का सामान्य जन्म और दूसरा धर्म में होकर - सच्चा जन्म | दूसरे जीवन से ही - जीवन में महत्ता और गरिमा प्रगट होती है | इससे मैं डा. साहब के सामान्य जीवन पर विचार न कर, भगवान बुद्ध के संदेश से वे क्यों प्रभावित हुए - इस पर ही विचार करता हूँ | | ||
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:विचारक ने प्रवचन करते हुये कहा था : हमारा युग आस्था से हीन हो गया है | पर मुझे लगता है कि पहले अधार्मिक को ईश्वर के न होने में और धार्मिक को ईश्वर के होने में आस्था थी | पर आज का युग दोनों ओर से उपेक्षा में भर गया है | इससे, अनास्था को आस्था में पहले बदलना आसान था, लेकिन अब उपेक्षा को विचार में बदलना कठिन है | मुझे जो शांति यहाँ रखी भगवान बुद्ध की मूर्ति में दिख रही है, आज कोई भी व्यक्ति वैसा शांत नहीं दीखता | इससे जीवन भर का होना महत्व का नहीं है, कैसे शांत हुआ जाय - बैचेनी, परेशानी, दुख और गहरी पीड़ा से मुक्त हुआ जाय - इसकी जीवन-साधना 2500 वर्ष पूर्व भारत में भगवान बुद्ध से उदित हुई | यह गंभीर वैज्ञानिक साधना हमारे आस्था शून्य, मूल्य विहीन समाज में पुनः शांति स्थापित करे - इसकी बात मैं आपसे करूँगा | | :विचारक ने प्रवचन करते हुये कहा था : हमारा युग आस्था से हीन हो गया है | पर मुझे लगता है कि पहले अधार्मिक को ईश्वर के न होने में और धार्मिक को ईश्वर के होने में आस्था थी | पर आज का युग दोनों ओर से उपेक्षा में भर गया है | इससे, अनास्था को आस्था में पहले बदलना आसान था, लेकिन अब उपेक्षा को विचार में बदलना कठिन है | मुझे जो शांति यहाँ रखी भगवान बुद्ध की मूर्ति में दिख रही है, आज कोई भी व्यक्ति वैसा शांत नहीं दीखता | इससे जीवन भर का होना महत्व का नहीं है, कैसे शांत हुआ जाय - बैचेनी, परेशानी, दुख और गहरी पीड़ा से मुक्त हुआ जाय - इसकी जीवन-साधना 2500 वर्ष पूर्व भारत में भगवान बुद्ध से उदित हुई | यह गंभीर वैज्ञानिक साधना हमारे आस्था शून्य, मूल्य विहीन समाज में पुनः शांति स्थापित करे - इसकी बात मैं आपसे करूँगा | | ||
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:तो हम अपने से अपरिचित रह जायेंगे | परिणामतः जीवन दुखी रहता है | सब मार्गों पर भगवान बुद्ध ने चल के देखा; खुद परखा | 6 - 7 वर्षों तक शरीर की तपश्चर्या की - मार्ग न मिला | कहा कि : दो प्रकार की परंपरा - एक भोग के मार्ग पर चलकर - सुख पाना; पर एक क्षण भी भोग में शांति नहीं | जिनके पास बहुत धन है - वे भी दुखी हैं | प्रश्न यह नहीं कि हमारे पास कितना है ? हमारी भूख कितनी है - इससे दरिद्रता बढ़ती है | हमारे पास एक रुपया है और अब इच्छा नहीं है - पर एक करोड़ हैं और ज़्यादा चाहते की माँग बनी है - तो हम बड़े भिखमंगे - साबित होंगे | इससे तृष्णा कभी नहीं होती | इसके दूसरी ओर कुछ लोग - सब छोड़ने की बात करते हैं | एक और भोग की तो दूसरी त्याग की अति रहती है | मन की शांत स्थिति जब सब पकड़ छूट जाती है - तब आती है | | :तो हम अपने से अपरिचित रह जायेंगे | परिणामतः जीवन दुखी रहता है | सब मार्गों पर भगवान बुद्ध ने चल के देखा; खुद परखा | 6 - 7 वर्षों तक शरीर की तपश्चर्या की - मार्ग न मिला | कहा कि : दो प्रकार की परंपरा - एक भोग के मार्ग पर चलकर - सुख पाना; पर एक क्षण भी भोग में शांति नहीं | जिनके पास बहुत धन है - वे भी दुखी हैं | प्रश्न यह नहीं कि हमारे पास कितना है ? हमारी भूख कितनी है - इससे दरिद्रता बढ़ती है | हमारे पास एक रुपया है और अब इच्छा नहीं है - पर एक करोड़ हैं और ज़्यादा चाहते की माँग बनी है - तो हम बड़े भिखमंगे - साबित होंगे | इससे तृष्णा कभी नहीं होती | इसके दूसरी ओर कुछ लोग - सब छोड़ने की बात करते हैं | एक और भोग की तो दूसरी त्याग की अति रहती है | मन की शांत स्थिति जब सब पकड़ छूट जाती है - तब आती है | | ||
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:इससे अंतिम निर्वाण संभव होगा | | :इससे अंतिम निर्वाण संभव होगा | | ||
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:पर यहाँ पता नहीं ? पहुँचा श्राविका के यहाँ - तो भोजन में वही मिला जो सोचा था | - सोचा शायद संयोग हो | पर भोजन उपरांत विश्राम की इच्छा हुई - श्राविका ने विश्राम कर लेने को कहा | अब तो साधक आश्चर्य में था - पूछा -तो उत्तर मिला कि : भगवान के चरणों में रहकर मैंने — मन-पर्याय ज्ञान प्राप्त किया है | अब तो साधक घबड़ाया - सोचा कहीं और भी गंदे विचार न पढ़ लिए जाएं | भागा पहुँचा - भगवान के पास और कहा वहाँ मैं न जाऊँगा | भगवान ने कहा : जाना होगा | <u>साथ ही एक बात उससे कही कि जाना पर, एक -एक विचार देख कर जाना</u> | कथा कहती है : 3 माह में वह अर्हत पद पर दीक्षित हुआ | अपने भीतर के शत्रु को जीत लिया | उससे मुक्त कर लिया | | :पर यहाँ पता नहीं ? पहुँचा श्राविका के यहाँ - तो भोजन में वही मिला जो सोचा था | - सोचा शायद संयोग हो | पर भोजन उपरांत विश्राम की इच्छा हुई - श्राविका ने विश्राम कर लेने को कहा | अब तो साधक आश्चर्य में था - पूछा -तो उत्तर मिला कि : भगवान के चरणों में रहकर मैंने — मन-पर्याय ज्ञान प्राप्त किया है | अब तो साधक घबड़ाया - सोचा कहीं और भी गंदे विचार न पढ़ लिए जाएं | भागा पहुँचा - भगवान के पास और कहा वहाँ मैं न जाऊँगा | भगवान ने कहा : जाना होगा | <u>साथ ही एक बात उससे कही कि जाना पर, एक -एक विचार देख कर जाना</u> | कथा कहती है : 3 माह में वह अर्हत पद पर दीक्षित हुआ | अपने भीतर के शत्रु को जीत लिया | उससे मुक्त कर लिया | | ||
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| 10 - 11 || [[image:man1288.jpg|400px]] | | 10 - 11 || [[image:man1288.jpg|400px]] [[image:man1288-2.jpg|200px]] [[image:man1288-3.jpg|200px]] || | ||
:सूख गया - खून बंद हो गया जैसे - देखा वह एक बड़ा हीरा था | झोली भर व्यर्थ गवाँ दिए | हमारा जीवन भी समय के अनंत हीरों को खोता चला जाता है, जब एक क्षण शेष रहे जीवन का तब शायद हीरा-हीरा समझ में आता है | अप्राप्त की इच्छा में - प्राप्त हीरे हम फेंकते चले जाते हैं | सारे धर्म- दुख के कारण मिटाने को हैं | ये मिट जाते हैं | ध्यान योग से - समतुलित या सम-जीवन दृष्टि से | भगवान बुद्ध सबके शास्ता हैं : वे हों या न हों | कोई उनके धर्म को माने या न माने | सबको उनके मार्ग से आनंद मिलने को ही है | सबके लिए सूरज का प्रकाश उपलब्ध है | सबके लिए उनका द्वार खुला है | डा. अम्बेद्कर ने पुनः भारत में द्वार खोला, इससे उनके द्वारा महान उद्द्घोश को जो बुद्ध धर्म-भारत में उनने लाया - और आप सब नव्य दीक्षित बौद्धों को में हृदय से बधाई देता हूँ | | :सूख गया - खून बंद हो गया जैसे - देखा वह एक बड़ा हीरा था | झोली भर व्यर्थ गवाँ दिए | हमारा जीवन भी समय के अनंत हीरों को खोता चला जाता है, जब एक क्षण शेष रहे जीवन का तब शायद हीरा-हीरा समझ में आता है | अप्राप्त की इच्छा में - प्राप्त हीरे हम फेंकते चले जाते हैं | सारे धर्म- दुख के कारण मिटाने को हैं | ये मिट जाते हैं | ध्यान योग से - समतुलित या सम-जीवन दृष्टि से | भगवान बुद्ध सबके शास्ता हैं : वे हों या न हों | कोई उनके धर्म को माने या न माने | सबको उनके मार्ग से आनंद मिलने को ही है | सबके लिए सूरज का प्रकाश उपलब्ध है | सबके लिए उनका द्वार खुला है | डा. अम्बेद्कर ने पुनः भारत में द्वार खोला, इससे उनके द्वारा महान उद्द्घोश को जो बुद्ध धर्म-भारत में उनने लाया - और आप सब नव्य दीक्षित बौद्धों को में हृदय से बधाई देता हूँ | | ||
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| 12 - 13 || [[image:man1289.jpg|400px]] | | 12 - 13 || [[image:man1289.jpg|400px]] [[image:man1289-2.jpg|200px]] [[image:man1289-3.jpg|200px]] || | ||
:तुम्हें नहीं है, पर सामने से आते व्यक्ति को प्रकाश दिखेगा - तो टक्कर न हो सकेगी | अंधे ने बात मान ली और लालटेन साथ लेकर 100 कदम ही आगे बढ़ा होगा कि सामने से आते व्यक्ति से टक्कर हुई | अंधे ने कहा : भई ! मैं तो अँधा हूँ, पर क्या प्रकाश तुम्हें भी दिखाई नहीं पड़ता | जवाब मिला : लालटेन का प्रकाश ही बुझ गया है -- तो टक्कर होना स्वाभाविक थी | आज के युग में भी गहरी टक्कर, राष्ट्र-राष्ट्र, पति-पत्नी, मित्र-मित्र, बच्चे-पिता-माँ --- सबमें दिख पड़ती है, लेकिन क्या कारण है ? प्रकाश बुझ गया है --- मानव-मूल्य विनष्ट हो गये है | इससे टक्कर तो स्पष्ट दिखती है, पर मूल में कारण क्या है ? इसकी खोज करना है | स्पष्ट है कि प्रकाश फैलाने वाली चीज़ें बुझ गई हैं | शांत व्यक्तित्व का निर्माण मुश्किल बात हो गई है, सारे जगत का मानव परेशान है | अभी एक निज़िन्स्की नमक प्रसिद्द चित्रकार ने आत्म-हत्या की | मृत्यु के पूर्व उसने गहरे काले और लाल रंग के चित्र अपने कमरे में लगा रखे | :तुम्हें नहीं है, पर सामने से आते व्यक्ति को प्रकाश दिखेगा - तो टक्कर न हो सकेगी | अंधे ने बात मान ली और लालटेन साथ लेकर 100 कदम ही आगे बढ़ा होगा कि सामने से आते व्यक्ति से टक्कर हुई | अंधे ने कहा : भई ! मैं तो अँधा हूँ, पर क्या प्रकाश तुम्हें भी दिखाई नहीं पड़ता | जवाब मिला : लालटेन का प्रकाश ही बुझ गया है -- तो टक्कर होना स्वाभाविक थी | आज के युग में भी गहरी टक्कर, राष्ट्र-राष्ट्र, पति-पत्नी, मित्र-मित्र, बच्चे-पिता-माँ --- सबमें दिख पड़ती है, लेकिन क्या कारण है ? प्रकाश बुझ गया है --- मानव-मूल्य विनष्ट हो गये है | इससे टक्कर तो स्पष्ट दिखती है, पर मूल में कारण क्या है ? इसकी खोज करना है | स्पष्ट है कि प्रकाश फैलाने वाली चीज़ें बुझ गई हैं | शांत व्यक्तित्व का निर्माण मुश्किल बात हो गई है, सारे जगत का मानव परेशान है | अभी एक निज़िन्स्की नमक प्रसिद्द चित्रकार ने आत्म-हत्या की | मृत्यु के पूर्व उसने गहरे काले और लाल रंग के चित्र अपने कमरे में लगा रखे | ||
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| 14 - 15 || [[image:man1290.jpg|400px]] | | 14 - 15 || [[image:man1290.jpg|400px]] [[image:man1290-2.jpg|200px]] [[image:man1290-3.jpg|200px]] || | ||
:सुना होगा | जब वे छोटे थे - माँ ने एक सुंदर बगिया लगा रखी थी | पर उन्हें पता न था - कैसे फूल-पौधे विकास पाते हैं | माँ एक बार बीमार पड़ी -- उन्होंने बगिया के संभाल का काम हाथ लिया | 15 दिन तक खूब - पत्तों और फूलों को नहलाते - पर सारे पौधे उदास और उजाड़ हो गये | माँ ठीक हुई तो देखा - बगिया में प्राण न थे | पूछा : तो हाल विदित हुआ | तब माँ ने कहा: जो उपर दिखता है -- उस पर ही फूल और पत्ते नहीं टीके हैं, जो कुछ दिखता नहीं है - उस पर दिखने की सत्ता कायम है | इससे चरित्र निर्माण भी, कुछ कारण है, जिन पर टिका है | मैं आपसे मूल कारणों की - प्राण की बात करना पसंद करूँगा | | :सुना होगा | जब वे छोटे थे - माँ ने एक सुंदर बगिया लगा रखी थी | पर उन्हें पता न था - कैसे फूल-पौधे विकास पाते हैं | माँ एक बार बीमार पड़ी -- उन्होंने बगिया के संभाल का काम हाथ लिया | 15 दिन तक खूब - पत्तों और फूलों को नहलाते - पर सारे पौधे उदास और उजाड़ हो गये | माँ ठीक हुई तो देखा - बगिया में प्राण न थे | पूछा : तो हाल विदित हुआ | तब माँ ने कहा: जो उपर दिखता है -- उस पर ही फूल और पत्ते नहीं टीके हैं, जो कुछ दिखता नहीं है - उस पर दिखने की सत्ता कायम है | इससे चरित्र निर्माण भी, कुछ कारण है, जिन पर टिका है | मैं आपसे मूल कारणों की - प्राण की बात करना पसंद करूँगा | | ||
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| 16 - 17 || [[image:man1291.jpg|400px]] | | 16 - 17 || [[image:man1291.jpg|400px]] [[image:man1291-2.jpg|200px]] [[image:man1291-3.jpg|200px]] || | ||
:यह आज सच हो रहा है | हमारा जीवन कुछ पाने को नहीं; व्यर्थ खो जाने को है --- मृत्यु में समा जाने को | इससे आज मूल्य-विहीन समाज है -- तो कोई आश्चर्य नहीं | जीवन के मूल्य कैसे आयें | चरित्र को इससे अलग से नहीं पाया जा सकता - प्रभु - निष्ठा के साथ ही चरित्र के सारे मूल्य आ जाते हैं | इससे कैसे प्रभु तक पहुँचे -- इस पर पहुँचने की तीन सीढियाँ है | पूरा समूचा विज्ञान है, जो जीवन को बदलता है | | :यह आज सच हो रहा है | हमारा जीवन कुछ पाने को नहीं; व्यर्थ खो जाने को है --- मृत्यु में समा जाने को | इससे आज मूल्य-विहीन समाज है -- तो कोई आश्चर्य नहीं | जीवन के मूल्य कैसे आयें | चरित्र को इससे अलग से नहीं पाया जा सकता - प्रभु - निष्ठा के साथ ही चरित्र के सारे मूल्य आ जाते हैं | इससे कैसे प्रभु तक पहुँचे -- इस पर पहुँचने की तीन सीढियाँ है | पूरा समूचा विज्ञान है, जो जीवन को बदलता है | | ||
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| 18 - 19 || [[image:man1292.jpg|400px]] | | 18 - 19 || [[image:man1292.jpg|400px]] [[image:man1292-2.jpg|200px]] [[image:man1292-3.jpg|200px]] || | ||
:होकर ही -- उसका मूल्य होता है | हमारा जीवन भी अपने में अलग होकर कोई मूल्य का नहीं; प्रभु के विराट अंग में अपना स्थान बना लेने में है | इससे पहला चरण होगा - प्रभु आस्था का, भीतर अपने प्यास को जगाने का | | :होकर ही -- उसका मूल्य होता है | हमारा जीवन भी अपने में अलग होकर कोई मूल्य का नहीं; प्रभु के विराट अंग में अपना स्थान बना लेने में है | इससे पहला चरण होगा - प्रभु आस्था का, भीतर अपने प्यास को जगाने का | | ||
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:हम तो पढ़ते ही हैं, इसमें क्या बात है | गुरुनानक साथ गये नमाज़ पढ़ने, पर खड़े रहे -- उनके साथी बड़े गुस्से में भर आए और सोचते यह कितना धोखा दे रहा है | नमाज़ ख़त्म होते ही वे उनसे नाराज़ हुये | गुरुनानक ने कहा : मैं तो नमाज़ पढ़ता, पर तुम कहाँ नमाज़ पढ़ रहे थे -- तुम तो मेरे प्रति क्रोध से भरे थे -- शर्त टूटी -- इससे में नमाज़ न पढ़ सका | इससे प्रार्थना में बैठ जाने की बात नहीं है -- क्षण भर को मन शांत और प्रभु के साथ कर लेने की बात है | एक क्षण भी शांत रहें -- तो अमृत मिलेगा | एक छोटा सा दिया जला लेने की बात है : अंधेरा दूर हो जायगा | इससे अपने को भूल जा सकें और पूर्ण शांत बने रह सकें | आज समाज में घरों से यह सब उपलब्धि दूर हो गई है -- इससे समाज अशांत दीख पड़ता है | एक समय अकबर शिकार खेलने वन में थे | संध्या घिर आई तो नमाज़ पढ़ने बैठ गये -- नमाज़ के पाबंद थे | एक युवती दूर से अपने प्रेमी से मिलने भागी चली आ रही थी | उसके पैर राजा पर पड़ गए, राजा को बड़ा क्रोध आया | सोचा -- एक तो प्रार्थना में दखल करना ठीक नहीं, फिर मैं तो राजा हूँ | लड़की लौटती | :हम तो पढ़ते ही हैं, इसमें क्या बात है | गुरुनानक साथ गये नमाज़ पढ़ने, पर खड़े रहे -- उनके साथी बड़े गुस्से में भर आए और सोचते यह कितना धोखा दे रहा है | नमाज़ ख़त्म होते ही वे उनसे नाराज़ हुये | गुरुनानक ने कहा : मैं तो नमाज़ पढ़ता, पर तुम कहाँ नमाज़ पढ़ रहे थे -- तुम तो मेरे प्रति क्रोध से भरे थे -- शर्त टूटी -- इससे में नमाज़ न पढ़ सका | इससे प्रार्थना में बैठ जाने की बात नहीं है -- क्षण भर को मन शांत और प्रभु के साथ कर लेने की बात है | एक क्षण भी शांत रहें -- तो अमृत मिलेगा | एक छोटा सा दिया जला लेने की बात है : अंधेरा दूर हो जायगा | इससे अपने को भूल जा सकें और पूर्ण शांत बने रह सकें | आज समाज में घरों से यह सब उपलब्धि दूर हो गई है -- इससे समाज अशांत दीख पड़ता है | एक समय अकबर शिकार खेलने वन में थे | संध्या घिर आई तो नमाज़ पढ़ने बैठ गये -- नमाज़ के पाबंद थे | एक युवती दूर से अपने प्रेमी से मिलने भागी चली आ रही थी | उसके पैर राजा पर पड़ गए, राजा को बड़ा क्रोध आया | सोचा -- एक तो प्रार्थना में दखल करना ठीक नहीं, फिर मैं तो राजा हूँ | लड़की लौटती | ||
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| 22 - 23 || [[image:man1294.jpg|400px]] | | 22 - 23 || [[image:man1294.jpg|400px]] [[image:man1294-2.jpg|200px]] [[image:man1294-3.jpg|200px]] || | ||
:मौत आई, उसने मौत को धोखा देने के लिए 11 ठीक अपने जैसी ही मूर्तियाँ बनाई और उनके बीच वह भी खड़ा हो गया | मौत हैरान थी -- ठीक एक जैसे 12 लोग हैं - किसे ले जाय | मौत अपने लोक वापस लौटी -- वहाँ से एक सूत्र लेकर आई | कमरे में आकर कहा : मूर्तियाँ - बहुत-बहुत सुंदर बनी हैं, एक छोटी सी भूल रह गई है | मूर्तिकार बोल उठा : कौन सी भूल | मौत ने कहा : बस यही भूल कि तुम अपने को नहीं भूल सके कि मूर्ति तुमने बनाई हैं | कहानी कहती है : मूर्तिकार अपने अहं को विसर्जित नहीं कर सका - ( यह कि वह सृश्टा है ) इससे वह दुख-पीड़ा और मृत्यु के पार न जा सका, उसकी मौत हुई | इससे केवल इस न कुछ को दूर कर सब कुछ को पाया जा सकता है | 10 जीवन में भी हम यदि इसे मिटा पाएं --- तो हमें बहुत कुछ मिल जायगा | | :मौत आई, उसने मौत को धोखा देने के लिए 11 ठीक अपने जैसी ही मूर्तियाँ बनाई और उनके बीच वह भी खड़ा हो गया | मौत हैरान थी -- ठीक एक जैसे 12 लोग हैं - किसे ले जाय | मौत अपने लोक वापस लौटी -- वहाँ से एक सूत्र लेकर आई | कमरे में आकर कहा : मूर्तियाँ - बहुत-बहुत सुंदर बनी हैं, एक छोटी सी भूल रह गई है | मूर्तिकार बोल उठा : कौन सी भूल | मौत ने कहा : बस यही भूल कि तुम अपने को नहीं भूल सके कि मूर्ति तुमने बनाई हैं | कहानी कहती है : मूर्तिकार अपने अहं को विसर्जित नहीं कर सका - ( यह कि वह सृश्टा है ) इससे वह दुख-पीड़ा और मृत्यु के पार न जा सका, उसकी मौत हुई | इससे केवल इस न कुछ को दूर कर सब कुछ को पाया जा सकता है | 10 जीवन में भी हम यदि इसे मिटा पाएं --- तो हमें बहुत कुछ मिल जायगा | | ||
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:करके -- उठाया जा सकता है | | :करके -- उठाया जा सकता है | | ||
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| 26 - 27 || [[image:man1296.jpg|400px]] | | 26 - 27 || [[image:man1296.jpg|400px]] [[image:man1296-2.jpg|200px]] [[image:man1296-3.jpg|200px]] || | ||
:मेरे मित्रों, | :मेरे मित्रों, | ||
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| 28 - 29 || [[image:man1297.jpg|400px]] | | 28 - 29 || [[image:man1297.jpg|400px]] [[image:man1297-2.jpg|200px]] [[image:man1297-3.jpg|200px]] || | ||
:माँगने को कहा : तो उत्तर मिला, कि जमी से अमरीका का निशान मिट जाए - तो मुझे वर मिल गया समझिये | अमरीका के प्रतिनिधि ने वर में चाहा कि रूस की सत्ता विनष्ट हो जाए - तो मुझे वर मिल गया समझिये | ब्रिटेन ने चाहा कि भगवन् ! इन दोनों की मनोकामना पूरी हो जाए तो मेरी मनोकामना पूरी हुई समझिये | आज ये नक्शा दुनियाँ का हो गया है | इससे विचारणीय है कि बाहर कैसे मार्ग मिले | दुनियाँ से आत्मिक जीवन की उपलब्धि समाप्त हो गई है, परिणामतः व्यक्ति समाज और राष्ट्रों की चेतना में - अशांति व्याप्त है | व्यक्ति अशांत है - इससे जगत भी क्योंकि व्यक्ति से फैलकर जगत बनता है - और इससे समस्या व्यक्ति के शांत होने की है | इससे सर्वप्रथम हमें शांत हो आना है | एसी ही पीड़ा - परेशानी - अशांति और अज्ञान का अंधेरा - बुद्ध ने देखा और जाना | कहा जाता है : बुद्ध समाज और वस्तुओं को छोड़कर भाग गये - पलायानवादी हैं | पर, मैं तो कहता हूँ कि किसी के घर में आग लगी | :माँगने को कहा : तो उत्तर मिला, कि जमी से अमरीका का निशान मिट जाए - तो मुझे वर मिल गया समझिये | अमरीका के प्रतिनिधि ने वर में चाहा कि रूस की सत्ता विनष्ट हो जाए - तो मुझे वर मिल गया समझिये | ब्रिटेन ने चाहा कि भगवन् ! इन दोनों की मनोकामना पूरी हो जाए तो मेरी मनोकामना पूरी हुई समझिये | आज ये नक्शा दुनियाँ का हो गया है | इससे विचारणीय है कि बाहर कैसे मार्ग मिले | दुनियाँ से आत्मिक जीवन की उपलब्धि समाप्त हो गई है, परिणामतः व्यक्ति समाज और राष्ट्रों की चेतना में - अशांति व्याप्त है | व्यक्ति अशांत है - इससे जगत भी क्योंकि व्यक्ति से फैलकर जगत बनता है - और इससे समस्या व्यक्ति के शांत होने की है | इससे सर्वप्रथम हमें शांत हो आना है | एसी ही पीड़ा - परेशानी - अशांति और अज्ञान का अंधेरा - बुद्ध ने देखा और जाना | कहा जाता है : बुद्ध समाज और वस्तुओं को छोड़कर भाग गये - पलायानवादी हैं | पर, मैं तो कहता हूँ कि किसी के घर में आग लगी | ||
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| 30 - 31 || [[image:man1298.jpg|400px]] | | 30 - 31 || [[image:man1298.jpg|400px]] [[image:man1298-2.jpg|200px]] [[image:man1298-3.jpg|200px]] || | ||
:आती है | वे अपनी साधना में थे - धन -वैभव - विलास - सबको छोड़ा था | एक सांझ उन्होंने देखा कि सामने बड़ा हीरा पड़ा है | उठा लेने को मन हुआ | पर सोचा - हीरा अब भी आकर्षित करता है - इससे आँखें बंद कर लीं | इस बीच दो युवक वहाँ से निकले - कौन पहले हीरा उठाये - इस पर लड़ाई हो उठी - तलवारें चल निकलीं | दोनों का जीवन समाप्त हो गया - और हीरा वहीं पड़ा रह गया | इससे व्यर्थ में हमारे जीवन चले जाते हैं - और बहुमूल्य ज्ञान, हीरा सब कुछ यहीं पड़ा रह जाता है | मेरी जीवन-ज्योति बुझे - मैं चला जाउँ - इसके पूर्व जाग लेना है | बुद्ध सब कुछ छोड़के गये - लेकिन आनंद पाया | हम सोचेंगे तो कहेंगे - बुद्ध ने कष्टपूर्ण, त्याग का जीवन अपनाया | लेकिन बुद्ध की तरफ से सोचिए - आप तो उनने विराट को पाकर - क्षुद्र को छोड़ा था, मृत्यु की जगह - अमृत को पाया | इससे - बुद्ध और महावीर - त्यागी नहीं - त्यागी तो हम हैं - जो निकृष्ट को ही पकड़े रहते हैं - और अमृत को | :आती है | वे अपनी साधना में थे - धन -वैभव - विलास - सबको छोड़ा था | एक सांझ उन्होंने देखा कि सामने बड़ा हीरा पड़ा है | उठा लेने को मन हुआ | पर सोचा - हीरा अब भी आकर्षित करता है - इससे आँखें बंद कर लीं | इस बीच दो युवक वहाँ से निकले - कौन पहले हीरा उठाये - इस पर लड़ाई हो उठी - तलवारें चल निकलीं | दोनों का जीवन समाप्त हो गया - और हीरा वहीं पड़ा रह गया | इससे व्यर्थ में हमारे जीवन चले जाते हैं - और बहुमूल्य ज्ञान, हीरा सब कुछ यहीं पड़ा रह जाता है | मेरी जीवन-ज्योति बुझे - मैं चला जाउँ - इसके पूर्व जाग लेना है | बुद्ध सब कुछ छोड़के गये - लेकिन आनंद पाया | हम सोचेंगे तो कहेंगे - बुद्ध ने कष्टपूर्ण, त्याग का जीवन अपनाया | लेकिन बुद्ध की तरफ से सोचिए - आप तो उनने विराट को पाकर - क्षुद्र को छोड़ा था, मृत्यु की जगह - अमृत को पाया | इससे - बुद्ध और महावीर - त्यागी नहीं - त्यागी तो हम हैं - जो निकृष्ट को ही पकड़े रहते हैं - और अमृत को | ||
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| 32 - 33 || [[image:man1299.jpg|400px]] | | 32 - 33 || [[image:man1299.jpg|400px]] [[image:man1299-2.jpg|200px]] [[image:man1299-3.jpg|200px]] || | ||
:नहीं, इस और उस पार दोनों से मुक्ति का है | न तो भोग और न त्याग - न तो हिंसा और न अहिंसा - बहुत कांत द्रष्टा थे - बहगवान बुद्ध | एक काँटा हमें लगता है - तो दूसरे काँटे को भी चुभाया नहीं जा सकता | दूसरे काँटे को तो हम पहले काँटे के निकालने में उपयोग करते हैं | लेकिन - इस दूसरे काँटे को भी हम घाव में नहीं रखते - उसे भी निकालकर फेंक देना होता है | इससे बुद्ध का मार्ग कहता है कि ब्रह्मचर्य तो हो, लेकिन ब्रह्मचर्य को पकड़ मन में न बैठ रहे - इस पकड़ को भी निकल देना है | मनुष्य का स्वाभाव - दोनों से मुक्त | कुछ भी पकड़ रखने को नहीं | न तो राग और न विराग - वरन वीतराग का मार्ग बुद्ध का है | इस माध्यमिक प्रतिपदा की साधना से होकर बुद्ध गुज़रे | 6 वर्ष की लंबी शरीर की तपश्चर्या से बुद्ध का कोई वास्ता नहीं | | :नहीं, इस और उस पार दोनों से मुक्ति का है | न तो भोग और न त्याग - न तो हिंसा और न अहिंसा - बहुत कांत द्रष्टा थे - बहगवान बुद्ध | एक काँटा हमें लगता है - तो दूसरे काँटे को भी चुभाया नहीं जा सकता | दूसरे काँटे को तो हम पहले काँटे के निकालने में उपयोग करते हैं | लेकिन - इस दूसरे काँटे को भी हम घाव में नहीं रखते - उसे भी निकालकर फेंक देना होता है | इससे बुद्ध का मार्ग कहता है कि ब्रह्मचर्य तो हो, लेकिन ब्रह्मचर्य को पकड़ मन में न बैठ रहे - इस पकड़ को भी निकल देना है | मनुष्य का स्वाभाव - दोनों से मुक्त | कुछ भी पकड़ रखने को नहीं | न तो राग और न विराग - वरन वीतराग का मार्ग बुद्ध का है | इस माध्यमिक प्रतिपदा की साधना से होकर बुद्ध गुज़रे | 6 वर्ष की लंबी शरीर की तपश्चर्या से बुद्ध का कोई वास्ता नहीं | | ||
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:पड़ीं | इस तरह बहुत से लोग हैं, जो दमन के मार्ग पर चलते हैं | चाहे तो आप इसे प्रयोग करके देख सकते हैं | मन में आप सोचिये कि आपको 'राम' का नाम या ध्यान के समय 'बंदर' का स्मरण न आए - तो आप पाएँगे कि जितनी ताक़त से आप इसे - इनकारी करेंगे - उसकी दुगनी ताक़त से वह याद आएगा | इससे अब्रह्मचर्य, असत्य - इनको दमन से नहीं - विसर्जन करके जीतना होगा | बुद्ध ने मन से विसर्जन करने के विज्ञान का मार्ग बताया | बिना इसके जीवन की कोई उपलब्धि नहीं है | भोग और त्याग के विसर्जन से बुद्ध को 'सम्यक-संबोधि' प्राप्त हुई | इसे ज्ञान, शील और समाधि की तीन सीढ़ियों में जाना जा सकता है | | :पड़ीं | इस तरह बहुत से लोग हैं, जो दमन के मार्ग पर चलते हैं | चाहे तो आप इसे प्रयोग करके देख सकते हैं | मन में आप सोचिये कि आपको 'राम' का नाम या ध्यान के समय 'बंदर' का स्मरण न आए - तो आप पाएँगे कि जितनी ताक़त से आप इसे - इनकारी करेंगे - उसकी दुगनी ताक़त से वह याद आएगा | इससे अब्रह्मचर्य, असत्य - इनको दमन से नहीं - विसर्जन करके जीतना होगा | बुद्ध ने मन से विसर्जन करने के विज्ञान का मार्ग बताया | बिना इसके जीवन की कोई उपलब्धि नहीं है | भोग और त्याग के विसर्जन से बुद्ध को 'सम्यक-संबोधि' प्राप्त हुई | इसे ज्ञान, शील और समाधि की तीन सीढ़ियों में जाना जा सकता है | | ||
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:पत्तों को खूब नहलाता था - पर पता नहीं क्यों बगिया सूख गई ? तब माँ ने जो कहा : उसे माओ त्से तुंग जीवन की प्रत्येक समस्याओं पर उपयोग करते हैं | माँ ने कहा था : कि जो जड़ें दिखतीं नहीं - उन पर बगिया के फूल-पत्ते टीके हैं | जो उपलब्ध है - वह अनुपलब्ध पर - जो दिखता नहीं - उस पर टीका है | इससे ज्ञान मूल जड़ या आधार है | ज्ञानवान - चरित्रहीन नहीं हो सकता | किताब और शास्त्रीय ज्ञान से - ज्ञान नहीं या पूस्तकालय की हिफ़ाज़त करने वाले को ज्ञान नहीं आता | अपनी मेहनत से केवल, अपना देखा ज्ञान है | ज्ञान से शील अपने आप आता है और समाधि बाद की उपलब्धि है | एक के बाद एक का क्रमिक विकास है | यह विकास ज़बरदस्ती नहीं लाया जा सकता | जैसे कलियाँ - फूल - अनायास एक दिन खिल उठती हैं - वैसे ही ज्ञान में हो आने से उपलब्धियाँ - सरल और अपने आप आती हैं | ज्ञान में हो आने का बहुत सरल और आसान मार्ग है | व्यर्थ की कष्ट-शरीर साधना पर ज़ोर नहीं है | जीवन की दुश्चरित्रता | :पत्तों को खूब नहलाता था - पर पता नहीं क्यों बगिया सूख गई ? तब माँ ने जो कहा : उसे माओ त्से तुंग जीवन की प्रत्येक समस्याओं पर उपयोग करते हैं | माँ ने कहा था : कि जो जड़ें दिखतीं नहीं - उन पर बगिया के फूल-पत्ते टीके हैं | जो उपलब्ध है - वह अनुपलब्ध पर - जो दिखता नहीं - उस पर टीका है | इससे ज्ञान मूल जड़ या आधार है | ज्ञानवान - चरित्रहीन नहीं हो सकता | किताब और शास्त्रीय ज्ञान से - ज्ञान नहीं या पूस्तकालय की हिफ़ाज़त करने वाले को ज्ञान नहीं आता | अपनी मेहनत से केवल, अपना देखा ज्ञान है | ज्ञान से शील अपने आप आता है और समाधि बाद की उपलब्धि है | एक के बाद एक का क्रमिक विकास है | यह विकास ज़बरदस्ती नहीं लाया जा सकता | जैसे कलियाँ - फूल - अनायास एक दिन खिल उठती हैं - वैसे ही ज्ञान में हो आने से उपलब्धियाँ - सरल और अपने आप आती हैं | ज्ञान में हो आने का बहुत सरल और आसान मार्ग है | व्यर्थ की कष्ट-शरीर साधना पर ज़ोर नहीं है | जीवन की दुश्चरित्रता | ||
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| 38 - 39 || [[image:man1302.jpg|400px]] | | 38 - 39 || [[image:man1302.jpg|400px]] [[image:man1302-2.jpg|200px]] [[image:man1302-3.jpg|200px]] || | ||
:कोई आश्चर्य की बात नहीं मानना चाहिए | बुद्ध ने ज्ञान को सूचनात्मक और दूसरा अनुभूति से उपलब्ध - इन दो श्रेणियों में रखा है | खुद के प्रयास और चेष्टा से उपलब्ध अनुभूति ही ज्ञान दे सकती है | किसी दूसरे का ज्ञान व्यर्थ है | इससे बुद्ध ने कहा : कि मैं किसी का शास्ता या गुरु नहीं हूँ | वे किसी के मार्ग-दृष्ता नहीं थे | अहंकार की बात है यह कि : ' मेरी शरण में आओ |' मैं पैगंबर हूँ, मैं ही अंतिम हूँ - जिससे तुम पा सकोगे - लेकिन आपको जानना है कि प्रत्येक को अपने भीतर - अपना प्रकाश स्वयं पाना है | इससे उस युग में जो 8 बड़े तीर्थंकर हुये - मक्खली गोशाल, अजीत केस-कंबल, आदि उनके द्वारा अपने को सदगुरु कहा जाना या शास्ता कहा जाना - केवल अहंकार है | कोई किसी का गुरु नहीं, अपना दीपक स्वयं बनाना होता है | | :कोई आश्चर्य की बात नहीं मानना चाहिए | बुद्ध ने ज्ञान को सूचनात्मक और दूसरा अनुभूति से उपलब्ध - इन दो श्रेणियों में रखा है | खुद के प्रयास और चेष्टा से उपलब्ध अनुभूति ही ज्ञान दे सकती है | किसी दूसरे का ज्ञान व्यर्थ है | इससे बुद्ध ने कहा : कि मैं किसी का शास्ता या गुरु नहीं हूँ | वे किसी के मार्ग-दृष्ता नहीं थे | अहंकार की बात है यह कि : ' मेरी शरण में आओ |' मैं पैगंबर हूँ, मैं ही अंतिम हूँ - जिससे तुम पा सकोगे - लेकिन आपको जानना है कि प्रत्येक को अपने भीतर - अपना प्रकाश स्वयं पाना है | इससे उस युग में जो 8 बड़े तीर्थंकर हुये - मक्खली गोशाल, अजीत केस-कंबल, आदि उनके द्वारा अपने को सदगुरु कहा जाना या शास्ता कहा जाना - केवल अहंकार है | कोई किसी का गुरु नहीं, अपना दीपक स्वयं बनाना होता है | | ||
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| 40 - 41 || [[image:man1303.jpg|400px]] | | 40 - 41 || [[image:man1303.jpg|400px]] [[image:man1303-2.jpg|200px]] [[image:man1303-3.jpg|200px]] || | ||
:कि बौद्ध धर्म का भारत से लोप हुआ | कुछ न मिलने का - मिलने की जगह पीठ मोड़ लेने का - मात्र अकेले आदमी का अकेले अपने में रह जाना - यह अनासक्तका उपलब्धि का संदेश बुद्ध का है | मोक्ष पाने के लिए भी मोक्ष को छोड़ देना | | :कि बौद्ध धर्म का भारत से लोप हुआ | कुछ न मिलने का - मिलने की जगह पीठ मोड़ लेने का - मात्र अकेले आदमी का अकेले अपने में रह जाना - यह अनासक्तका उपलब्धि का संदेश बुद्ध का है | मोक्ष पाने के लिए भी मोक्ष को छोड़ देना | | ||
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| 42 - 43 || [[image:man1304.jpg|400px]] | | 42 - 43 || [[image:man1304.jpg|400px]] [[image:man1304-2.jpg|200px]] [[image:man1304-3.jpg|200px]] || | ||
:माँ - अब मुझे अपना कुछ इकट्ठा नहीं करना है | वह तो क्रमशः धूलेगा - और एक क्षण आएगा - जब सब ज्ञान की रोशनी से - अपने आप विलीन हो जायेगा | पूज्य बड़े भैयाजी - जो कुछ विचारते - अनुभूतिगत ज्ञान पाते उसी को लिपि बद्द करने का मन है - इससे अपनी कम समझ से ही सही : जो कुछ भी दिन प्रतिदिन जीवन में भैयाजी से सुनने - समझने को मिलता है - उसे यहाँ बाँध रहा हूँ | इस आशा में कि कहीं कुछ प्रकाश किसी को भी मिल पाया - तो अपना मार्ग बना पाएगा | | :माँ - अब मुझे अपना कुछ इकट्ठा नहीं करना है | वह तो क्रमशः धूलेगा - और एक क्षण आएगा - जब सब ज्ञान की रोशनी से - अपने आप विलीन हो जायेगा | पूज्य बड़े भैयाजी - जो कुछ विचारते - अनुभूतिगत ज्ञान पाते उसी को लिपि बद्द करने का मन है - इससे अपनी कम समझ से ही सही : जो कुछ भी दिन प्रतिदिन जीवन में भैयाजी से सुनने - समझने को मिलता है - उसे यहाँ बाँध रहा हूँ | इस आशा में कि कहीं कुछ प्रकाश किसी को भी मिल पाया - तो अपना मार्ग बना पाएगा | | ||
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| 44 - 45 || [[image:man1305.jpg|400px]] | | 44 - 45 || [[image:man1305.jpg|400px]] [[image:man1305-2.jpg|200px]] [[image:man1305-3.jpg|200px]] || | ||
:रूप से व्यक्ति अपने को बड़ा बना लेता है | जैसे कि मुझे यह सिद्ध करना हो कि मैं बड़ा आदमी हूँ तो मैं कह सकता हूँ कि ' मेरी संस्कृति महान है और मैं उस संस्कृति का मानने वाला हूँ |' अर्थात मैं महान हूँ | इस तरह संगठन के मूल में गहरा अहंकार बैठा होता है | | :रूप से व्यक्ति अपने को बड़ा बना लेता है | जैसे कि मुझे यह सिद्ध करना हो कि मैं बड़ा आदमी हूँ तो मैं कह सकता हूँ कि ' मेरी संस्कृति महान है और मैं उस संस्कृति का मानने वाला हूँ |' अर्थात मैं महान हूँ | इस तरह संगठन के मूल में गहरा अहंकार बैठा होता है | | ||
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| 46 - 47 || [[image:man1306.jpg|400px]] | | 46 - 47 || [[image:man1306.jpg|400px]] [[image:man1306-2.jpg|200px]] [[image:man1306-3.jpg|200px]] || | ||
:दोनों पर मुझे दया आती है | इनको जैसे कहा जा रहा है कि मैं तुम्हें 1 करोड़ की निधि देता हूँ लेकिन ये तो केवल 1 हज़ार की ही निधि लेने चलते हैं - इससे गहरी दया के पात्र और कौन हो सकते हैं | | :दोनों पर मुझे दया आती है | इनको जैसे कहा जा रहा है कि मैं तुम्हें 1 करोड़ की निधि देता हूँ लेकिन ये तो केवल 1 हज़ार की ही निधि लेने चलते हैं - इससे गहरी दया के पात्र और कौन हो सकते हैं | | ||
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:भेद - शुक्ल जी का बना हुआ है | इससे उन्हें वासना का दिखना स्वाभाविक था | हर व्यक्ति बस मात्र - जैसा वह दर्पण लिए होता है - उसमें उसे वैसा दिखता है - यही स्वाभाविक भी है | | :भेद - शुक्ल जी का बना हुआ है | इससे उन्हें वासना का दिखना स्वाभाविक था | हर व्यक्ति बस मात्र - जैसा वह दर्पण लिए होता है - उसमें उसे वैसा दिखता है - यही स्वाभाविक भी है | | ||
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| 50 - 51 || [[image:man1308.jpg|400px]] | | 50 - 51 || [[image:man1308.jpg|400px]] [[image:man1308-2.jpg|200px]] [[image:man1308-3.jpg|200px]] || | ||
:घोषणा की कि - ' ईश्वर मरणासन्न है| ' बाद नीत्से ने कहा : ' God is now dead. ’ इस तरह की घोषणाएँ इसके पूर्व कभी किसी ने नहीं कीं | ईश्वर तो पूरे जीवन की सार्थकता है | जीवन होगा तो ईश्वर मीं होकर ही होगा | रवींद्रनाथ ने ईश्वर-आस्था को पुनः स्थापित किया | ईश्वर पर समर्पण करने का विज्ञान दिया | व्यक्ति को समष्टि के साथ संयुक्त किया | इससे निरंतर एक-एक कदम कवि के साथ रखने पर ही उनके काव्य को जाना जा सकता है | रवींद्रनाथ कोरे कवि नहीं थे - काव्य तो बाहर था पर भीतर उपलब्धियाँ थीं | भीतर की उपलब्धियों से बाहर के जीवन में सजीवता व्यक्त हुई | कुछ भीतर उपलब्ध हुआ था, जो बहुत-बहुत महान था | पर, रवींद्रनाथ कहते : प्रभु लोग कहते हैं मैं गीत गाता हूँ, लेकिन मेरा तो सारा जीवन साज़ सजाने में ही बीत गया - गीत तो निकल ही नहीं पाये | स्पष्ट है कि अनुभूति को पूरे शब्दों में नहीं या अंतः को दूसरों तक मात्र शब्दों से नहीं पहुँचाया जा सकता | | :घोषणा की कि - ' ईश्वर मरणासन्न है| ' बाद नीत्से ने कहा : ' God is now dead. ’ इस तरह की घोषणाएँ इसके पूर्व कभी किसी ने नहीं कीं | ईश्वर तो पूरे जीवन की सार्थकता है | जीवन होगा तो ईश्वर मीं होकर ही होगा | रवींद्रनाथ ने ईश्वर-आस्था को पुनः स्थापित किया | ईश्वर पर समर्पण करने का विज्ञान दिया | व्यक्ति को समष्टि के साथ संयुक्त किया | इससे निरंतर एक-एक कदम कवि के साथ रखने पर ही उनके काव्य को जाना जा सकता है | रवींद्रनाथ कोरे कवि नहीं थे - काव्य तो बाहर था पर भीतर उपलब्धियाँ थीं | भीतर की उपलब्धियों से बाहर के जीवन में सजीवता व्यक्त हुई | कुछ भीतर उपलब्ध हुआ था, जो बहुत-बहुत महान था | पर, रवींद्रनाथ कहते : प्रभु लोग कहते हैं मैं गीत गाता हूँ, लेकिन मेरा तो सारा जीवन साज़ सजाने में ही बीत गया - गीत तो निकल ही नहीं पाये | स्पष्ट है कि अनुभूति को पूरे शब्दों में नहीं या अंतः को दूसरों तक मात्र शब्दों से नहीं पहुँचाया जा सकता | | ||
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| 52 - 53 || [[image:man1309.jpg|400px]] | | 52 - 53 || [[image:man1309.jpg|400px]] [[image:man1309-2.jpg|200px]] [[image:man1309-3.jpg|200px]] || | ||
:का कोई अधिकार नहीं | अपने व्यक्तिगत अहंकार को विसर्जित कर - सागर में मिल जाने पर - अनंत की, आनंद की या सौंदर्य की उपलब्धि होती है | | :का कोई अधिकार नहीं | अपने व्यक्तिगत अहंकार को विसर्जित कर - सागर में मिल जाने पर - अनंत की, आनंद की या सौंदर्य की उपलब्धि होती है | | ||
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| 54 - 55 || [[image:man1310.jpg|400px]] | | 54 - 55 || [[image:man1310.jpg|400px]] [[image:man1310-2.jpg|200px]] [[image:man1310-3.jpg|200px]] || | ||
:भी क्षुद्र अहं ने प्रभु और प्रभु के राज्य से हमें वंचित रखा है | पूरी भारतीय इतिहास की संस्कृति ने पुराने 5,000 वर्षों में अपने ' अहं ' को विसर्जित किया है - इसके विपरीत पश्चिम इसे जोड़ने में लगा रहा | रवींद्रनाथ ने भी भारत में और सारी दुनियाँ में इस ' प्रभु-चेतना ' को पुनरुज्जिवित किया | | :भी क्षुद्र अहं ने प्रभु और प्रभु के राज्य से हमें वंचित रखा है | पूरी भारतीय इतिहास की संस्कृति ने पुराने 5,000 वर्षों में अपने ' अहं ' को विसर्जित किया है - इसके विपरीत पश्चिम इसे जोड़ने में लगा रहा | रवींद्रनाथ ने भी भारत में और सारी दुनियाँ में इस ' प्रभु-चेतना ' को पुनरुज्जिवित किया | | ||
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| 56 - 57 || [[image:man1311.jpg|400px]] | | 56 - 57 || [[image:man1311.jpg|400px]] [[image:man1311-2.jpg|200px]] [[image:man1311-3.jpg|200px]] || | ||
:पर जो अनदेखा-भीतर का है - वह दिख आता है | | :पर जो अनदेखा-भीतर का है - वह दिख आता है | | ||
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| 58 - 59 || [[image:man1312.jpg|400px]] | | 58 - 59 || [[image:man1312.jpg|400px]] [[image:man1312-2.jpg|200px]] [[image:man1312-3.jpg|200px]] || | ||
:रथ आगे बढ़ गया | एक अजीब सा उपहास करते हुये | सांझ घर लौटा, झोली पलटी तो उसमें एक दाना सोने का था - देखकर रोया कि क्यों न मैने सब दे डाला - इतना कृपण निकाला मैं - कि केवल एक दाना भर दे पाया | इससे जितना मैं दे डालता हूँ, उतना ही प्रभु मेरे में आता है | अवसर बीत गया -- तो फिर पश्चाताप भर रह जाता है | | :रथ आगे बढ़ गया | एक अजीब सा उपहास करते हुये | सांझ घर लौटा, झोली पलटी तो उसमें एक दाना सोने का था - देखकर रोया कि क्यों न मैने सब दे डाला - इतना कृपण निकाला मैं - कि केवल एक दाना भर दे पाया | इससे जितना मैं दे डालता हूँ, उतना ही प्रभु मेरे में आता है | अवसर बीत गया -- तो फिर पश्चाताप भर रह जाता है | | ||
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| 60 - 61 || [[image:man1313.jpg|400px]] | | 60 - 61 || [[image:man1313.jpg|400px]] [[image:man1313-2.jpg|200px]] [[image:man1313-3.jpg|200px]] || | ||
:देखा -- और भीतरी अनुभूति में काव्य को जाना | बावल (बंगाल के घुमक्कड़ संत, लालन फकीर के अनुयायी) कवि कहते हैं कि : प्रेम के संश्लेषण से ' उसे ' पाया जा सकता है | एक समय एक वैष्णव पंडित - बावल कवि से मिलने आया | वैष्णव पंडित ने पूछा प्रेम कितने प्रकार का ? बावल कवि हैरान था --- कि प्रेम में भी और प्रकार | मैं इससे प्रकारों को तो नहीं जानता पर प्रेम को भर जानता हूँ | इस पर वैष्णव ने 5 प्रकार प्रेम के गिनाए - बाद बावल कवि ने जो कहा वह दिल पर खोद लेने योग्य है | कहा था, बावल कवि ने -- कि मुझे ऐसा लगा कि कोई सुनार अपने सोने कसने की कसनी को लेकर, फूलों की बगिया में -- फूलों को कसने आया हो | इससे सोने कसने के पत्थर से बगिया के फूलों को तो नहीं कसा जा सकता | बुद्धि से भी -- इससे गीतों को नहीं जाना जा सकता | रवींद्रनाथ की हमारी पूरी सदी ऋणी है, और उनके गीत हमारे जीवन् में आनंद और सौंदर्य बोध से भर सकें -- इस कामना के साथ सावन के वे बरसे बदल जैसे झुक आते हैं - वैसे ही | :देखा -- और भीतरी अनुभूति में काव्य को जाना | बावल (बंगाल के घुमक्कड़ संत, लालन फकीर के अनुयायी) कवि कहते हैं कि : प्रेम के संश्लेषण से ' उसे ' पाया जा सकता है | एक समय एक वैष्णव पंडित - बावल कवि से मिलने आया | वैष्णव पंडित ने पूछा प्रेम कितने प्रकार का ? बावल कवि हैरान था --- कि प्रेम में भी और प्रकार | मैं इससे प्रकारों को तो नहीं जानता पर प्रेम को भर जानता हूँ | इस पर वैष्णव ने 5 प्रकार प्रेम के गिनाए - बाद बावल कवि ने जो कहा वह दिल पर खोद लेने योग्य है | कहा था, बावल कवि ने -- कि मुझे ऐसा लगा कि कोई सुनार अपने सोने कसने की कसनी को लेकर, फूलों की बगिया में -- फूलों को कसने आया हो | इससे सोने कसने के पत्थर से बगिया के फूलों को तो नहीं कसा जा सकता | बुद्धि से भी -- इससे गीतों को नहीं जाना जा सकता | रवींद्रनाथ की हमारी पूरी सदी ऋणी है, और उनके गीत हमारे जीवन् में आनंद और सौंदर्य बोध से भर सकें -- इस कामना के साथ सावन के वे बरसे बदल जैसे झुक आते हैं - वैसे ही | ||
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| 62 - 63 || [[image:man1314.jpg|400px]] | | 62 - 63 || [[image:man1314.jpg|400px]] [[image:man1314-2.jpg|200px]] [[image:man1314-3.jpg|200px]] || | ||
:9 मई सन 1961 ............ | :9 मई सन 1961 ............ | ||
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| 64 - 65 || [[image:man1315.jpg|400px]] | | 64 - 65 || [[image:man1315.jpg|400px]] [[image:man1315-2.jpg|200px]] [[image:man1315-3.jpg|200px]] || | ||
:दूर तक फैला रखा है | दूर कुछ अंधकार की गंभीरता बढ़ाने - कीड़ों आदि का स्वर सुनाई दे रहा ही | श्री देवकीनंदन जी सपत्नीक - आचार्य जी के पास आकर बैठ रहे हैं | साधारणतः प्रासंगवश मंदिरों की उपयोगिता पर थोड़ी चर्चा हुई | | :दूर तक फैला रखा है | दूर कुछ अंधकार की गंभीरता बढ़ाने - कीड़ों आदि का स्वर सुनाई दे रहा ही | श्री देवकीनंदन जी सपत्नीक - आचार्य जी के पास आकर बैठ रहे हैं | साधारणतः प्रासंगवश मंदिरों की उपयोगिता पर थोड़ी चर्चा हुई | | ||
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| 66 - 67 || [[image:man1316.jpg|400px]] | | 66 - 67 || [[image:man1316.jpg|400px]] [[image:man1316-2.jpg|200px]] [[image:man1316-3.jpg|200px]] || | ||
:मैं बहुत आनंदित हूँ - कविन्द्र रवीन्द्र के शताब्दी समारोह में आकर | रवींद्रनाथ 100 वर्ष पूर्व जन्मे - और भारत तथा सारे विश्व में - एक स्थायी ऋण छोड़ गये हैं - अब बहुत मुश्किल है - एसे व्यक्तित्व का अपने देश में जन्म लेना | गाँधीजी ने उनकी 80 वीं वर्षगाँठ पर कहा था - आप 4 बी.सी. जी लिए भगवान करे - 5 वीं बी.सी. भी जी लें | रवींद्रनाथ ने कहा था उत्तर में - अब 5 वीं बी.सी. जीने की इच्छा नहीं है - बहुत दुख उठा चुका हूँ | गाँधी जी की इच्छा थी - ५ बी.सी. के आगे भी जीने की पर हमने उन्हें 4 बी.सी. के पूर्व ही संसार से उठा दिया | हमने अपनी संस्कृति के 100 वर्ष में आज दोनों महान व्यक्तियों को खो दिया | अमित छाप इन महापुरुषों की हमारी संस्कृति पर है | पर रवींद्रानाथ का ऋण गाँधीजी से ज़्यादा समय तक रहने वाला है | यह मैं बहुत साहस से कह रहा हूँ | क्योंकि गाँधीजी साधक की तरह जिए पर रवींद्रनाथ जन्म से सिद्ध थे | प्रभु उन्हें सदा उपलब्ध था और उनके काव्य में ईश्वरीय छाप है | किसी दूसरे व्यक्तित्व में रवींद्रनाथ | :मैं बहुत आनंदित हूँ - कविन्द्र रवीन्द्र के शताब्दी समारोह में आकर | रवींद्रनाथ 100 वर्ष पूर्व जन्मे - और भारत तथा सारे विश्व में - एक स्थायी ऋण छोड़ गये हैं - अब बहुत मुश्किल है - एसे व्यक्तित्व का अपने देश में जन्म लेना | गाँधीजी ने उनकी 80 वीं वर्षगाँठ पर कहा था - आप 4 बी.सी. जी लिए भगवान करे - 5 वीं बी.सी. भी जी लें | रवींद्रनाथ ने कहा था उत्तर में - अब 5 वीं बी.सी. जीने की इच्छा नहीं है - बहुत दुख उठा चुका हूँ | गाँधी जी की इच्छा थी - ५ बी.सी. के आगे भी जीने की पर हमने उन्हें 4 बी.सी. के पूर्व ही संसार से उठा दिया | हमने अपनी संस्कृति के 100 वर्ष में आज दोनों महान व्यक्तियों को खो दिया | अमित छाप इन महापुरुषों की हमारी संस्कृति पर है | पर रवींद्रानाथ का ऋण गाँधीजी से ज़्यादा समय तक रहने वाला है | यह मैं बहुत साहस से कह रहा हूँ | क्योंकि गाँधीजी साधक की तरह जिए पर रवींद्रनाथ जन्म से सिद्ध थे | प्रभु उन्हें सदा उपलब्ध था और उनके काव्य में ईश्वरीय छाप है | किसी दूसरे व्यक्तित्व में रवींद्रनाथ | ||
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| 68 - 69 || [[image:man1317.jpg|400px]] | | 68 - 69 || [[image:man1317.jpg|400px]] [[image:man1317-2.jpg|200px]] [[image:man1317-3.jpg|200px]] || | ||
:एक-एक गीत से यह भाव आपको उभरता दिखेगा | एक-एक गीत ईश्वरानुभूति से पूर्ण है | पश्चिम उनके गीतों पर पागल हो उठा | उनके गीतों को पढ़कर - प्राचीन ऋषियों का स्मरण हो आता है और सत्य-साक्षात की गहरी अनुभूतियाँ उनके गीतों से प्रगट होती हैं | रवींद्रनाथ - सामान्य कवि की कोटि में नहीं आते, वरन वे भारत के 3,000 वर्ष पूर्व के उपनिषद् के ऋषियों के साथ अपना स्थान रखते हैं | उनके गीतों में वैसा ही सौंदर्य, आनंद, गरिमा और अनुपात है | ममहाकाव्य उनके जीवन में था - इससे बाहर भी सुंदर फूटा | भीतर यदि सुंदर हो तो बाहर तो मात्र उसकी अभिव्यक्ति है | आज तो पूरी सदी की आत्मा टेडी-मेडी हो गई है | हमारी स्थिति एक ध्वंस वीणा के समान है - इससे हमारा जीवन दुख से भरा है | रवींद्रनाथ के जीवन में कैसे यह सब आया - इस पर मैं चर्चा आपसे करना पसंद करूँगा ताकि हमारे खुद के जीवन में भी कुछ उतर सके :- | :एक-एक गीत से यह भाव आपको उभरता दिखेगा | एक-एक गीत ईश्वरानुभूति से पूर्ण है | पश्चिम उनके गीतों पर पागल हो उठा | उनके गीतों को पढ़कर - प्राचीन ऋषियों का स्मरण हो आता है और सत्य-साक्षात की गहरी अनुभूतियाँ उनके गीतों से प्रगट होती हैं | रवींद्रनाथ - सामान्य कवि की कोटि में नहीं आते, वरन वे भारत के 3,000 वर्ष पूर्व के उपनिषद् के ऋषियों के साथ अपना स्थान रखते हैं | उनके गीतों में वैसा ही सौंदर्य, आनंद, गरिमा और अनुपात है | ममहाकाव्य उनके जीवन में था - इससे बाहर भी सुंदर फूटा | भीतर यदि सुंदर हो तो बाहर तो मात्र उसकी अभिव्यक्ति है | आज तो पूरी सदी की आत्मा टेडी-मेडी हो गई है | हमारी स्थिति एक ध्वंस वीणा के समान है - इससे हमारा जीवन दुख से भरा है | रवींद्रनाथ के जीवन में कैसे यह सब आया - इस पर मैं चर्चा आपसे करना पसंद करूँगा ताकि हमारे खुद के जीवन में भी कुछ उतर सके :- | ||
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:कभी कोई संपर्क न आया था - उनसे गले मिले, घरवालों को गले लगाया | बाहर सड़क पर निकलकर राहगीरों से गले मिले - जब सब चुक गये - तब वृक्षों से लिपटे रहे | इस तरह 3 दिन बाद रवींद्रनाथ ने नया जन्म लिया | सब ओर एक ही महाप्रभु के दर्शन किए | बाद उनसे जो महाकाव्य निकाला - वह एक सिद्ध के जीवन में होकर आया - एक स्थाई मूल्य ' उसका ' आया | बुरा-भला - क्षुद्र और विराट में एक ही प्रीतम दिखा | उनने कहा : मैं ‘ उसे ‘ अपने हाथों से तो नहीं, वरन अपने स्वरों के पंखों से छू लेता हूँ | गीतों को आप उनके पढ़ेंगे - बहुत-बहुत मीठे है | उनने कहा - बरसात की मेधा भरी रातों में तेरी चरणों की ध्वनि सुन पड़ती है | छोटे कंकड़-पत्थर में प्रभु तेरे दर्शन मैं करता हूँ | युग-युग से प्रभु तू मेरे निकट था - मिलने को बैचेन था - पर मैं ही अपने द्वार बंद किए था | मनुष्य अपने-अपने द्वार बंद किए बैठा है | इससे प्रयास से कुछ न उपलब्ध होगा | सूरज जैसे उगाता - खिड़की-दरवाजे खोलने | :कभी कोई संपर्क न आया था - उनसे गले मिले, घरवालों को गले लगाया | बाहर सड़क पर निकलकर राहगीरों से गले मिले - जब सब चुक गये - तब वृक्षों से लिपटे रहे | इस तरह 3 दिन बाद रवींद्रनाथ ने नया जन्म लिया | सब ओर एक ही महाप्रभु के दर्शन किए | बाद उनसे जो महाकाव्य निकाला - वह एक सिद्ध के जीवन में होकर आया - एक स्थाई मूल्य ' उसका ' आया | बुरा-भला - क्षुद्र और विराट में एक ही प्रीतम दिखा | उनने कहा : मैं ‘ उसे ‘ अपने हाथों से तो नहीं, वरन अपने स्वरों के पंखों से छू लेता हूँ | गीतों को आप उनके पढ़ेंगे - बहुत-बहुत मीठे है | उनने कहा - बरसात की मेधा भरी रातों में तेरी चरणों की ध्वनि सुन पड़ती है | छोटे कंकड़-पत्थर में प्रभु तेरे दर्शन मैं करता हूँ | युग-युग से प्रभु तू मेरे निकट था - मिलने को बैचेन था - पर मैं ही अपने द्वार बंद किए था | मनुष्य अपने-अपने द्वार बंद किए बैठा है | इससे प्रयास से कुछ न उपलब्ध होगा | सूरज जैसे उगाता - खिड़की-दरवाजे खोलने | ||
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| 72 - 73 || [[image:man1319.jpg|400px]] | | 72 - 73 || [[image:man1319.jpg|400px]] [[image:man1319-2.jpg|200px]] [[image:man1319-3.jpg|200px]] || | ||
:हैं | रवींद्रनाथ के पूरे गीतों में एक ही बात का प्रावधान है अपने ' मैं ' को जला दें | इस ' मैं ' के जलाने की बात को सबने स्वीकार किया है | बिना इसके संगीत पैदा नहीं हो सकता | रवींद्रनाथ ने कहा : हम एक गीत की टूटी पंक्ति के समान अलग हैं - जैसे गीत में न होने से पंक्ति निर्मुल्य है - वैसे ही हम विराट में न होने से - कोई अर्थ के नहीं हैं | अलग होने से - संगीत में हम नहीं बँध पाते | रवींद्रनाथ कहते : “ मैं तो धरती का कवि हूँ - मैं चाहता हूँ जगत को ही मोक्ष जैसा प्रिय क्यों न बना लूँ |" जगत के अनंत-अनंत बंधन मुझे प्रिय हैं - मैं मुक्ति नहीं चाहता | यह बात एक सौंदर्य-दृष्टा ही कह सकता है | सबके भीतर एक प्रभु को देख पाने से ही यह रवींद्रनाथ के लिए संभव हुआ | शरीर तो मात्र प्रगटिकरण का माध्यम है | उन्होने कहा -- भोगना और छोड़ना नहीं -- वरन शरीर को सीढ़ी बनाकर - ' उसे ' पा लेना होता है | | :हैं | रवींद्रनाथ के पूरे गीतों में एक ही बात का प्रावधान है अपने ' मैं ' को जला दें | इस ' मैं ' के जलाने की बात को सबने स्वीकार किया है | बिना इसके संगीत पैदा नहीं हो सकता | रवींद्रनाथ ने कहा : हम एक गीत की टूटी पंक्ति के समान अलग हैं - जैसे गीत में न होने से पंक्ति निर्मुल्य है - वैसे ही हम विराट में न होने से - कोई अर्थ के नहीं हैं | अलग होने से - संगीत में हम नहीं बँध पाते | रवींद्रनाथ कहते : “ मैं तो धरती का कवि हूँ - मैं चाहता हूँ जगत को ही मोक्ष जैसा प्रिय क्यों न बना लूँ |" जगत के अनंत-अनंत बंधन मुझे प्रिय हैं - मैं मुक्ति नहीं चाहता | यह बात एक सौंदर्य-दृष्टा ही कह सकता है | सबके भीतर एक प्रभु को देख पाने से ही यह रवींद्रनाथ के लिए संभव हुआ | शरीर तो मात्र प्रगटिकरण का माध्यम है | उन्होने कहा -- भोगना और छोड़ना नहीं -- वरन शरीर को सीढ़ी बनाकर - ' उसे ' पा लेना होता है | | ||
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| 74 - 75 || [[image:man1320.jpg|400px]] | | 74 - 75 || [[image:man1320.jpg|400px]] [[image:man1320-2.jpg|200px]] [[image:man1320-3.jpg|200px]] || | ||
:दूसरा व्यक्ति हंसकर बोला : - इसी जल में अमृतमयी तारों के प्रतिबिंब भी तो हैं | कीचड़ भी - और कमल भी - दोनों हैं - प्रश्न है कि हम क्या देख लेते - वही हमें दिखता है | | :दूसरा व्यक्ति हंसकर बोला : - इसी जल में अमृतमयी तारों के प्रतिबिंब भी तो हैं | कीचड़ भी - और कमल भी - दोनों हैं - प्रश्न है कि हम क्या देख लेते - वही हमें दिखता है | | ||
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| 76 - 77 || [[image:man1321.jpg|400px]] | | 76 - 77 || [[image:man1321.jpg|400px]] [[image:man1321-2.jpg|200px]] [[image:man1321-3.jpg|200px]] || | ||
:मात्र इतना कहने के लिए उसने अपनी ज़बान खोली | | :मात्र इतना कहने के लिए उसने अपनी ज़बान खोली | | ||
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:Sent to | :Sent to | ||
:Jain Jagat in | :Jain Jagat in | ||
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| 80 - 81 || [[image:man1323.jpg|400px]] | | 80 - 81 || [[image:man1323.jpg|400px]] [[image:man1323-2.jpg|200px]] [[image:man1323-3.jpg|200px]] || | ||
:चलता है | हम पर हमारा वश है | इससे साधक को यह स्पष्ट प्रतीति होना चाहिए कि दूर भविष्य में कुछ नही किया जा सकता | प्रत्येक कार्य को आगे के लिए रख देना - (Postponement) - समय पर निर्भर हो रहना है | इससे - बड़ी भूल हम सबसे प्रतिदिन घटती है | हर सांझ तक हम जो भी करना चाहें - कर लें - पता नहीं दूसरी आने वाली सुबह हमारी हो या नहो | इससे साधक को आज के दिन पर जीना चाहिए और गहरे साधक तो केवल क्षणों में जीते है | जिस क्षण में हम होते हैं - उतने भर में हम जिंदा हैं -- इससे अपने पर तो हमारा वश है -- लेकिन समय पर वश न होने से -- प्रत्येक कार्य को इसे दिन से शुरू कर देना चाहिए | | :चलता है | हम पर हमारा वश है | इससे साधक को यह स्पष्ट प्रतीति होना चाहिए कि दूर भविष्य में कुछ नही किया जा सकता | प्रत्येक कार्य को आगे के लिए रख देना - (Postponement) - समय पर निर्भर हो रहना है | इससे - बड़ी भूल हम सबसे प्रतिदिन घटती है | हर सांझ तक हम जो भी करना चाहें - कर लें - पता नहीं दूसरी आने वाली सुबह हमारी हो या नहो | इससे साधक को आज के दिन पर जीना चाहिए और गहरे साधक तो केवल क्षणों में जीते है | जिस क्षण में हम होते हैं - उतने भर में हम जिंदा हैं -- इससे अपने पर तो हमारा वश है -- लेकिन समय पर वश न होने से -- प्रत्येक कार्य को इसे दिन से शुरू कर देना चाहिए | | ||
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:Sent to | :Sent to | ||
:Jain Jagat | :Jain Jagat | ||
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| 84 -85 || [[image:man1325.jpg|400px]] | | 84 -85 || [[image:man1325.jpg|400px]] [[image:man1325-2.jpg|200px]] [[image:man1325-3.jpg|200px]] || | ||
:सरल और उदार -गंभीर तथा चेतना की अटूट गहराइयों से जब बात करते - तो उसमें सहज ही चेतना लोक का व्यापक प्रभाव अपने आप साथ आता | मानसिक स्वास्थ आज के युग में खो गया है -- बहुत क्षुब्ध, पीड़ित, अपने में खींचा हुआ और परेशान आज का युग है | इससे मेरा सबको एक ही कहना है कि इस खिंचाव को ढीला होने दिया जाय - तो शांति धीरे-धीरे आती और एक क्षण आता जब कि सारा खिंचाव विसर्जित होकर शांत मनःस्थिति में व्यक्ति आ जाता और वह मानसिक स्वास्थ उपलब्ध कर लेता | | :सरल और उदार -गंभीर तथा चेतना की अटूट गहराइयों से जब बात करते - तो उसमें सहज ही चेतना लोक का व्यापक प्रभाव अपने आप साथ आता | मानसिक स्वास्थ आज के युग में खो गया है -- बहुत क्षुब्ध, पीड़ित, अपने में खींचा हुआ और परेशान आज का युग है | इससे मेरा सबको एक ही कहना है कि इस खिंचाव को ढीला होने दिया जाय - तो शांति धीरे-धीरे आती और एक क्षण आता जब कि सारा खिंचाव विसर्जित होकर शांत मनःस्थिति में व्यक्ति आ जाता और वह मानसिक स्वास्थ उपलब्ध कर लेता | | ||
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:<u>1 जुलाई से 10 जुलाई तक का चर्चा सार</u> | :<u>1 जुलाई से 10 जुलाई तक का चर्चा सार</u> | ||
:... (text in brackets not yet transcribed) .... | |||
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| 86 || [[image:man1326.jpg|400px]] | | 86 || [[image:man1326.jpg|400px]] [[image:man1326-2.jpg|200px]] || | ||
:<u>एक जीवन संस्मरण</u> | :<u>एक जीवन संस्मरण</u> | ||
Revision as of 09:02, 20 March 2018
- year
- Apr - Jul 1961
- notes
- 86 pages
- Notes of Public Meetings Address & Personal Meetings of Osho with Dignitaries
- Collected by Arvind Jain.