प्यारी मौनू,
प्रेम| चाह नहीं जहां सुख की, वहां भय भी नहीं है दुख का|
सुख की चाह ही दुख के भय की जननी है।
ईसा गुजर रहे थे एक गांव से।
देखा उन्होंने राह के किनारे दीवार के सहारे बैठे कुछ अत्यंत ही दुखी लोगों को।
ऐसे थे वे संतापग्रस्त कि जैसे मौत ही उनके सामने हो।
भय से कंपित - भय से पीले हुए - मरणासन्न।
ईसा ने पूछा उनसे - "यह हालत कैसे हुई तुम्हारी?"
उन्होंने कहा: "नर्क के भय के कारण।"
और थोड़ा आगे जाने पर ईसा ने फिर कुछ लोगों को वैसी ही स्थिति में देखा|
आंखें उनकी पथरा गईं थीं और भिन्न भिन्न आसनों और मुद्राओं में वे ऐसे बैठे थे कि जैसे मर ही गये हों।
ईसा ने उनसे भी पूछा: "तुम्हारा क्या है दुख ?"
बोले वे : "स्वर्ग की आकांक्षा !"
और आगे बढ़ने पर ईसा ने कुछ लोगों को वृक्षों की छाया में नाचते भी देखा|
आनंद मग्न - भाव विभोर|
कौन सा खज़ाना मिल गया था उन्हें ?
या किस नर्क से बच गये थे वे ?
या कौन से स्वर्ग का द्वार खुल गया था उनके लिये ?
उनके चेहरों पर चिह्न थे लंबी यात्रा के - लेकिन थकान नहीं थी, वरन् उपलब्धिका विश्राम था।
और उनकी आंखों में तपश्चर्या का सौंदर्य था - लेकिन अहंकार की कोई भी रेखा न थी।
उनकी आत्मा में आनंद की वर्षा हो रही थी और उनके चारों ओर किसी अलौकिक ही प्रकाश के आभा-मंडल थे|
ईसा ने उनसे भी पूछा: "मित्रों! तुम्हारे इस अपूर्व आनंद का राज़ क्या है - रहस्य क्या है ?
बोले वे: "आकांक्षा नहीं सुख की - भय नहीं दुख का। चाह नहीं स्वर्ग की-चिन्ता नहीं नर्ककी। और जबसे चाह और चिन्ता छूटी है तभी से जो है उसे ही जानकर और पा कर हम आनंदित और अनुगृहीत हैं।"
ईसा ने कहा: "यही हैं वे लोग जो कि सत्य को उपलब्ध होते हैं - यही हैं वे लोग जो कि सदा ही प्रभु की उपस्थिति में जीते हैं।"