He is just Existing / Present
- year
- 1968
- notes
- 2 sheets.
- Not found in books yet. We have designated that writing as event Wah To Bas Hai ~ 01.
- see also
- Osho's Manuscripts
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Hindi transcript
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- 2 वह तो बस है!
- धर्म हारता हुआ प्रतीत होता है।
- अधर्म जीतता हुआ प्रतीत होता है।
- क्यों?
- शायद इसलिए ही कि धर्म की शक्तियां आपस में ही विभाजित हैं।
- धर्म अनेक हैं। अधर्म एक है। शायद इसलिए ही धर्म पराजित है।
- धर्म भी एक हो तो यह पराजय असंभव है। लेकिन धर्मों के कारण धर्म एक कैसे हो सकता है?
- धर्मों का अंत ही धर्म का जन्म बन सकता है।
- फिर मुसलमान, ईसाई, जैन, बौद्ध; इन शब्दों और संप्रदायों के कारण ही उसका जन्म नहीं हो पाता है जो कि धर्म है।
- धर्म-संगठन ही धर्म के मार्ग में अवरोध हैं। क्या धर्म की संगठनों (अॅार्गनाइजेशन) से मुक्ति नहीं हो सकती है?
- वैसे धर्म का संगठन से संबंध ही क्या है?
- धर्म तो अत्यंत वैयक्तिक अनुभूति है। वह तो साधना है, संघठना वह नहीं है।
- धर्मशास्त्र भी धर्म के लिए जंजीर हैं। उनकी सीमाओं में असीम को बांधने की कोशिश व्यर्थ तो है ही, अनर्थ भी है।
- शब्द में निशब्द को कैसे बांधा जा सकता है? और बोलते ही उसकी हत्या हो जाती है तो इसमें आश्चर्य क्या है!
- धर्म का न कोई शास्त्र है, न हो सकता है।
- धर्मानुभूति का द्वार शब्द तो नहीं है, उस का द्वार है मौन। जहां सब शब्द शून्य हो जाते हैं, शब्द की लहरें जहां नहीं हैं, वहीं धर्म का सागर है।
- धर्मगुरु धर्म के शत्रु हैं।
- धर्म जिसे उपलब्ध होता है, उससे वह वैसे ही विकीर्ण होता है जैसे सूर्य से प्रकाश या फूल से सुगंध। वह किसी का गुरु नहीं बनता है। गुरु होने का अहंकार उसमें नहीं हो सकता है क्योंकि जहां अहंकार है वहां धर्म कहां?
- धर्मतीर्थ कहीं भी नहीं है क्योंकि जो भी है सभी में प्रभु का वास है। इसलिए सभी कुछ तीर्थ है और सब जगह उस का मंदिर है। उसके इस विशाल मंदिर के प्रति जो अंधे हैं, वही अपने-अपने छोटे-छोटे मंदिर निर्मित करने के पागलपन में पड़ते हैं। फिर इन मंदिरों में झगड़ा स्वाभाविक है क्योंकि उनके निर्माताओं का अहंकार यह स्वीकार नहीं कर सकता है कि उनके मंदिर के अतिरिक्त भी कोई और मंदिर परमात्मा का है।
- मित्रो, मैं प्रार्थना करता हूं कि मंदिरों को छोड़ो ताकि उसके मंदिर के तुम्हें दर्शन हो सकें। शास्त्रों को छोड़ो ताकि उसका शास्त्र तुम्हें दिखाई पड़ सके। और संप्रदायों को छोड़ो ताकि तुम धर्म को पा सको।
- वह तो अत्यंत निकट है लेकिन हम अपने ही हाथों स्वयं को उससे दूर किए हुए हैं।
- वह निकट ही नहीं--निकट से भी निकट है।
- वह हमारी सत्ता है।
- वह हम स्वयं हैं।
- लेकिन हम उसे दूर खोजते हैं और इसलिए खो देते हैं।
- काशी में या काबा में, राम में या कृष्ण में, बुद्ध में या महावीर में; लेकिन कोई भी उसे स्वयं में नहीं खोजता है।
- कैसी विडंबना है!
- वह काबा में भी है काशी में भी, राम में भी कृष्ण में भी, लेकिन जो उसे स्वयं में ही नहीं पाता है, वह उसे कहीं भी नहीं पा सकता है।
- और जो उसे स्वयं में पा लेता है वह उसे अनिवार्यतः सब में पा लेता है। लेकिन उसे स्वयं में पाने के लिए राम और कृष्ण से, बुद्ध और महावीर से मुक्त होना अत्यंत आवश्यक है।
- यह उनके प्रति अनादर नहीं है बल्कि यही आदर है। क्योंकि ऐसे ही उन जैसा होने की संभावना का द्वार खुलता है।
- धर्म सबको छोड़ स्वयं पर आता है।
- और स्वयं पर आते ही आश्चर्यों का आश्चर्य घटित होता है। क्योंकि स्वयं पर आते ही स्व मिट जाता है। फिर जो बचता है वही सत्य है। वह न स्व है, न पर है। वह तो बस है।
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