Arvind Jain Notebooks, Vol 1: Difference between revisions

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:बोधिसत्व बाबा साहब अम्बेद्कर के पवित्र जन्म-दिवस पर आकर मैं आपका अनुग्रहित हूँ | वे ज़मीन पर शरीर की तरह जन्मे लेकिन उनका असली जन्म तब हुआ, जब उन्होंने भगवान बुद्ध के धर्म में दीक्षा ली | इससे प्रत्येक मनुष्य के दो जन्म होते हैं - एक शरीर का सामान्य जन्म और दूसरा धर्म में होकर - सच्चा जन्म | दूसरे जीवन से ही - जीवन में महत्ता और गरिमा प्रगट होती है | इससे मैं डा. साहब के सामान्य जीवन पर विचार न कर, भगवान बुद्ध के संदेश से वे क्यों प्रभावित हुए - इस पर ही विचार करता हूँ |
:बोधिसत्व बाबा साहब अम्बेद्कर के पवित्र जन्म-दिवस पर आकर मैं आपका अनुग्रहित हूँ | वे ज़मीन पर शरीर की तरह जन्मे लेकिन उनका असली जन्म तब हुआ, जब उन्होंने भगवान बुद्ध के धर्म में दीक्षा ली | इससे प्रत्येक मनुष्य के दो जन्म होते हैं - एक शरीर का सामान्य जन्म और दूसरा धर्म में होकर - सच्चा जन्म | दूसरे जीवन से ही - जीवन में महत्ता और गरिमा प्रगट होती है | इससे मैं डा. साहब के सामान्य जीवन पर विचार न कर, भगवान बुद्ध के संदेश से वे क्यों प्रभावित हुए - इस पर ही विचार करता हूँ |
:उनने भारत में बौद्ध धर्म को पुनः 1,000 वर्ष बाद स्थापित किया और भारत में इस धर्म के अभाव से विलुप्त नैतिक और धार्मिक समृद्धता को जगाया | कौन सा मार्ग है ? उस संबंध की थोड़ी सी बातें मैं - आपसे करूँगा - ताकि जीवन सार्थक हो सके |
:उनने भारत में बौद्ध धर्म को पुनः 1,000 वर्ष बाद स्थापित किया और भारत में इस धर्म के अभाव से विलुप्त नैतिक और धार्मिक समृद्धता को जगाया | कौन सा मार्ग है ? उस संबंध की थोड़ी सी बातें मैं - आपसे करूँगा - ताकि जीवन सार्थक हो सके |
:हमारा युग - गहरे अंधेरे का युग है | हम आध्यात्मिक दृष्टि से अंधे हो चुके हैं | न्यूयार्क में एक
:हमारा युग - गहरे अंधेरे का युग है | हम आध्यात्मिक दृष्टि से अंधे हो चुके हैं | न्यूयार्क में एक


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:विचारक ने प्रवचन करते हुये कहा था : हमारा युग आस्था से हीन हो गया है | पर मुझे लगता है कि पहले अधार्मिक को ईश्वर के न होने में और धार्मिक को ईश्वर के होने में आस्था थी | पर आज का युग दोनों ओर से उपेक्षा में भर गया है | इससे, अनास्था को आस्था में पहले बदलना आसान था, लेकिन अब उपेक्षा को विचार में बदलना कठिन है | मुझे जो शांति यहाँ रखी भगवान बुद्ध की मूर्ति में दिख रही है, आज कोई भी व्यक्ति वैसा शांत नहीं दीखता | इससे जीवन भर का होना महत्व का नहीं है, कैसे शांत हुआ जाय - बैचेनी, परेशानी, दुख और गहरी पीड़ा से मुक्त हुआ जाय - इसकी जीवन-साधना 2500 वर्ष पूर्व भारत में भगवान बुद्ध से उदित हुई | यह गंभीर वैज्ञानिक साधना हमारे आस्था शून्य, मूल्य विहीन समाज में पुनः शांति स्थापित करे - इसकी बात मैं आपसे करूँगा |  
:विचारक ने प्रवचन करते हुये कहा था : हमारा युग आस्था से हीन हो गया है | पर मुझे लगता है कि पहले अधार्मिक को ईश्वर के न होने में और धार्मिक को ईश्वर के होने में आस्था थी | पर आज का युग दोनों ओर से उपेक्षा में भर गया है | इससे, अनास्था को आस्था में पहले बदलना आसान था, लेकिन अब उपेक्षा को विचार में बदलना कठिन है | मुझे जो शांति यहाँ रखी भगवान बुद्ध की मूर्ति में दिख रही है, आज कोई भी व्यक्ति वैसा शांत नहीं दीखता | इससे जीवन भर का होना महत्व का नहीं है, कैसे शांत हुआ जाय - बैचेनी, परेशानी, दुख और गहरी पीड़ा से मुक्त हुआ जाय - इसकी जीवन-साधना 2500 वर्ष पूर्व भारत में भगवान बुद्ध से उदित हुई | यह गंभीर वैज्ञानिक साधना हमारे आस्था शून्य, मूल्य विहीन समाज में पुनः शांति स्थापित करे - इसकी बात मैं आपसे करूँगा |  
:एक छोटी सी कहानी से मैं अपनी चर्चा प्रारंभ करता हूँ | एक जापानी बौद्ध कथा है | एक अँधा - अपने मित्र से मिलने गया | रात लौटने लगा तो मित्र ने एक लालटेन साथ लेने को कहा | पर अंधे ने कहा : मुझे   
:एक छोटी सी कहानी से मैं अपनी चर्चा प्रारंभ करता हूँ | एक जापानी बौद्ध कथा है | एक अँधा - अपने मित्र से मिलने गया | रात लौटने लगा तो मित्र ने एक लालटेन साथ लेने को कहा | पर अंधे ने कहा : मुझे   
:प्रकाश और अंधेरा समान है लेकिन मित्र के कहने पर कि : लालटेन के प्रकाश से तुम्हें तो सहारा मिलेगा  नहीं लेकिन जो सामने से आएगा, वह प्रकाश में तुम्हें देख लेगा - और टक्कर नहीं होगी | अँधा लालटेन लेकर बढ़ चला | कोई 100 - 200 कदम चला होगा कि उसकी टक्कर सामने आते एक व्यक्ति से हुई | अंधे ने कहा : बात क्या है, लालटेन के प्रकाश में भी तुम नहीं देख सके | जवाब मिला : लालटेन ही बुझ गई है, उसकी ज्योति समाप्त हो गई है - इससे टक्कर होना स्वाभाविक था | हमारे युग में भी आज राष्ट्र-राष्ट्र में, पति-पत्नी में,माँ-पिता-पुत्र में - चारों ओर गहरी टकराहट है, और शांति, धर्म, आनंद की ज्योति बुझ गई है | प्रकाश बुझ गया है | इसे पुनरुज्जीवित करना है | धर्म चला जायगा - तो आदमी बहुत समय तक अब ज़मीन पर जिंदा नहीं रह सकता | डा. साहब की देन - बौद्ध धर्म को पुनः भारत में पुनरुज्जीवित करने में है |
:प्रकाश और अंधेरा समान है लेकिन मित्र के कहने पर कि : लालटेन के प्रकाश से तुम्हें तो सहारा मिलेगा  नहीं लेकिन जो सामने से आएगा, वह प्रकाश में तुम्हें देख लेगा - और टक्कर नहीं होगी | अँधा लालटेन लेकर बढ़ चला | कोई 100 - 200 कदम चला होगा कि उसकी टक्कर सामने आते एक व्यक्ति से हुई | अंधे ने कहा : बात क्या है, लालटेन के प्रकाश में भी तुम नहीं देख सके | जवाब मिला : लालटेन ही बुझ गई है, उसकी ज्योति समाप्त हो गई है - इससे टक्कर होना स्वाभाविक था | हमारे युग में भी आज राष्ट्र-राष्ट्र में, पति-पत्नी में,माँ-पिता-पुत्र में - चारों ओर गहरी टकराहट है, और शांति, धर्म, आनंद की ज्योति बुझ गई है | प्रकाश बुझ गया है | इसे पुनरुज्जीवित करना है | धर्म चला जायगा - तो आदमी बहुत समय तक अब ज़मीन पर जिंदा नहीं रह सकता | डा. साहब की देन - बौद्ध धर्म को पुनः भारत में पुनरुज्जीवित करने में है |
:भगवान बुद्ध को एक बुनियादी बात दिखी : अपने स्वरूप को जानना - अज्ञान - मूर्छा नहीं मिटेगी   
:भगवान बुद्ध को एक बुनियादी बात दिखी : अपने स्वरूप को जानना - अज्ञान - मूर्छा नहीं मिटेगी   


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:तो हम अपने से अपरिचित रह जायेंगे | परिणामतः जीवन दुखी रहता है | सब मार्गों पर भगवान बुद्ध ने चल के देखा; खुद परखा | 6 - 7 वर्षों तक शरीर की तपश्चर्या की - मार्ग न मिला | कहा कि : दो प्रकार की परंपरा - एक भोग के मार्ग पर चलकर - सुख पाना; पर एक क्षण भी भोग में शांति नहीं | जिनके पास बहुत धन है - वे भी दुखी हैं | प्रश्न यह नहीं कि हमारे पास कितना है ? हमारी भूख कितनी है - इससे दरिद्रता बढ़ती है | हमारे पास एक रुपया है और अब इच्छा नहीं है - पर एक करोड़ हैं और ज़्यादा चाहते की माँग बनी है - तो हम बड़े भिखमंगे - साबित होंगे | इससे तृष्णा कभी नहीं होती | इसके दूसरी ओर कुछ लोग - सब छोड़ने की बात करते हैं | एक और भोग की तो दूसरी त्याग की अति रहती है | मन की शांत स्थिति जब सब पकड़ छूट जाती है - तब आती है |  
:तो हम अपने से अपरिचित रह जायेंगे | परिणामतः जीवन दुखी रहता है | सब मार्गों पर भगवान बुद्ध ने चल के देखा; खुद परखा | 6 - 7 वर्षों तक शरीर की तपश्चर्या की - मार्ग न मिला | कहा कि : दो प्रकार की परंपरा - एक भोग के मार्ग पर चलकर - सुख पाना; पर एक क्षण भी भोग में शांति नहीं | जिनके पास बहुत धन है - वे भी दुखी हैं | प्रश्न यह नहीं कि हमारे पास कितना है ? हमारी भूख कितनी है - इससे दरिद्रता बढ़ती है | हमारे पास एक रुपया है और अब इच्छा नहीं है - पर एक करोड़ हैं और ज़्यादा चाहते की माँग बनी है - तो हम बड़े भिखमंगे - साबित होंगे | इससे तृष्णा कभी नहीं होती | इसके दूसरी ओर कुछ लोग - सब छोड़ने की बात करते हैं | एक और भोग की तो दूसरी त्याग की अति रहती है | मन की शांत स्थिति जब सब पकड़ छूट जाती है - तब आती है |  
:राजा श्रौण - खूब भोगकर - पूर्ण त्याग के जीवन में उतरा | पत्थरों पर चलता - तो खूब खून झरता | सोचा क्यों न ग्रहस्थी सुख में वापस लौटू | पर भगवान बुद्ध से मिला ; पूछा सितार या वीणा बजाते  
:राजा श्रौण - खूब भोगकर - पूर्ण त्याग के जीवन में उतरा | पत्थरों पर चलता - तो खूब खून झरता | सोचा क्यों न ग्रहस्थी सुख में वापस लौटू | पर भगवान बुद्ध से मिला ; पूछा सितार या वीणा बजाते  
:थे, कहा : बहुत शौक था | फिर भगवान बुद्ध ने पूछा : सितार के तार ढीले हों - तो संगीत निकलेगा - कहा : स्वर ही नहीं निकलेगा, यदि तार खींचे हों तो - संगीत बेसुरा हो जाएगा | तब फिर : कहा कि तार सम होना चाहिए | इससे सम मार्ग ही - शांत व्यक्तित्व लता है | यह मार्ग दो अतियों के बीच का मध्‍यम प्रतिपदा का मार्ग है | इसमें संतुलित जीवन : दृष्टि की बात है | इसके 8 अंग हैं - जो आर्य आष्टाँगिक योग में समाहित है | ये मार्ग मनुष्य के निखार के लिए हैं - इनका वैज्ञानिक प्रयोग है | मनुष्य के विकास के लिए संतुलित मार्ग है | सम्यक दृष्टि का | इस बीच और विचारक, उपदेशक, धर्म-प्रवर्तक यथा : महावीर, अर्जित केस कंबल, मक्खली गोशाल - हुए, जिन्होंने अपने मार्ग रखे | पर अति पर ज़ोर था | इससे अति के जीवन से बचें - तो जीवन शांत बनेगा | क्या करें ?  
:थे, कहा : बहुत शौक था | फिर भगवान बुद्ध ने पूछा : सितार के तार ढीले हों - तो संगीत निकलेगा - कहा : स्वर ही नहीं निकलेगा, यदि तार खींचे हों तो - संगीत बेसुरा हो जाएगा | तब फिर : कहा कि तार सम होना चाहिए | इससे सम मार्ग ही - शांत व्यक्तित्व लता है | यह मार्ग दो अतियों के बीच का मध्‍यम प्रतिपदा का मार्ग है | इसमें संतुलित जीवन : दृष्टि की बात है | इसके 8 अंग हैं - जो आर्य आष्टाँगिक योग में समाहित है | ये मार्ग मनुष्य के निखार के लिए हैं - इनका वैज्ञानिक प्रयोग है | मनुष्य के विकास के लिए संतुलित मार्ग है | सम्यक दृष्टि का | इस बीच और विचारक, उपदेशक, धर्म-प्रवर्तक यथा : महावीर, अर्जित केस कंबल, मक्खली गोशाल - हुए, जिन्होंने अपने मार्ग रखे | पर अति पर ज़ोर था | इससे अति के जीवन से बचें - तो जीवन शांत बनेगा | क्या करें ?  
:ध्यान योग : एक विशिष्ट प्रयोग : सम्यक स्मृति
:ध्यान योग : एक विशिष्ट प्रयोग : सम्यक स्मृति
:::::::::सम्यक व्यायाम
 
:::::::::सम्यक समाधि का |
:सम्यक व्यायाम
 
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:इससे अंतिम निर्वाण संभव होगा |  
:इससे अंतिम निर्वाण संभव होगा |  
:हम अपने मन की स्थिति को देखें - हर क्षण एक स्वप्न चल रहा है - आप तक मेरी बात पूरी नहीं - पहुँच पा रही है | भीतर आपके विचारों की प्रक्रिया जारी है | इच्छाओं के पर्दे से बात नहीं पहुँचेगी | हम जाग नहीं पाते | जहाँ होते हैं - वहाँ नहीं होते | ठीक से जागरूक अवस्था : बुद्धत्व की है | मन और कर्म के बीच एका किया |  
:हम अपने मन की स्थिति को देखें - हर क्षण एक स्वप्न चल रहा है - आप तक मेरी बात पूरी नहीं - पहुँच पा रही है | भीतर आपके विचारों की प्रक्रिया जारी है | इच्छाओं के पर्दे से बात नहीं पहुँचेगी | हम जाग नहीं पाते | जहाँ होते हैं - वहाँ नहीं होते | ठीक से जागरूक अवस्था : बुद्धत्व की है | मन और कर्म के बीच एका किया |  
:कोरिया में बोकोजू एक साधु हुआ | कहता था : धर्म क्या है - इसके उत्तर में कि जब मैं ख़ाता हूँ, तब केवल ख़ाता हूँ | जब चलता हूँ - तब केवल चलता हूँ | हम खाते हैं - तो न जाने किन कल्पनाओं में उलझे होते हैं - और अपने व्यक्तित्व की आत्म-हत्या करते होते हैं | आज अमरीकी देशों - का करोड़पति रात्रि को शांत नहीं सो पाता | मनोवैज्ञानिकों ने कहा है : उच्च सभ्यता के कारण - निद्रा तक लेना मुश्किल बात है | अल्डस हक्सले ने कहा : कि धर्म-शांति यदि विनष्ट हो गई तो पता नहीं जीवन का क्या होगा | एक बहुत बड़े रूसी विचारक : मायकोवस्की और अन्य विचारकों   
:कोरिया में बोकोजू एक साधु हुआ | कहता था : धर्म क्या है - इसके उत्तर में कि जब मैं ख़ाता हूँ, तब केवल ख़ाता हूँ | जब चलता हूँ - तब केवल चलता हूँ | हम खाते हैं - तो न जाने किन कल्पनाओं में उलझे होते हैं - और अपने व्यक्तित्व की आत्म-हत्या करते होते हैं | आज अमरीकी देशों - का करोड़पति रात्रि को शांत नहीं सो पाता | मनोवैज्ञानिकों ने कहा है : उच्च सभ्यता के कारण - निद्रा तक लेना मुश्किल बात है | अल्डस हक्सले ने कहा : कि धर्म-शांति यदि विनष्ट हो गई तो पता नहीं जीवन का क्या होगा | एक बहुत बड़े रूसी विचारक : मायकोवस्की और अन्य विचारकों   
:में स्टीविन्स ज्युग ने अभी आत्म-हत्याएँ कीं और कहा कि जीवन भी मृत्यु से बहुत सुखी नहीं था, इससे मृत्यु कर लेना ही ठीक है |   
:में स्टीविन्स ज्युग ने अभी आत्म-हत्याएँ कीं और कहा कि जीवन भी मृत्यु से बहुत सुखी नहीं था, इससे मृत्यु कर लेना ही ठीक है |   
:मन की शांति के लिए, विचार रिक्त मनःस्थिति चाहिए | मन को दबाने से  नहीं - विसर्जित करके ही शांत - स्वरूप में आना होगा | दमन करने से - फोड़े के रूप में कहीं ओर से निकल आता है | मनोवैज्ञानिक भी इस बात से सहमत हैं | जो भी इच्छाएँ, विचार उठती हैं - उन पर दृष्टि को बांधें, सम्यक स्मरण ( Awareness ) के रहने पर ग़लत विचार हट जाते हैं | अंधेरे को जैसे आप कितना भी दबाइए, धक्का दीजिए, वह इंच भी नहीं हट सकता | उसकी सत्ता नकारात्मक है | पर एक छोटा सा दिया जला लेने से अंधेरा चला जाता है | इससे सम्यक-स्मृति ( Right Mindfulness ) का आचरण करके, अपने अंधेरे को दूर किया जा सकता है |
:मन की शांति के लिए, विचार रिक्त मनःस्थिति चाहिए | मन को दबाने से  नहीं - विसर्जित करके ही शांत - स्वरूप में आना होगा | दमन करने से - फोड़े के रूप में कहीं ओर से निकल आता है | मनोवैज्ञानिक भी इस बात से सहमत हैं | जो भी इच्छाएँ, विचार उठती हैं - उन पर दृष्टि को बांधें, सम्यक स्मरण ( Awareness ) के रहने पर ग़लत विचार हट जाते हैं | अंधेरे को जैसे आप कितना भी दबाइए, धक्का दीजिए, वह इंच भी नहीं हट सकता | उसकी सत्ता नकारात्मक है | पर एक छोटा सा दिया जला लेने से अंधेरा चला जाता है | इससे सम्यक-स्मृति ( Right Mindfulness ) का आचरण करके, अपने अंधेरे को दूर किया जा सकता है |
:बुद्ध ने एक नव-दीक्षित साधक को एक विशेष श्राविका के यहाँ भोजन को भेजा | रास्ते में साधक सोंचता था : घर था तो मन का भोजन मिलता था -     
:बुद्ध ने एक नव-दीक्षित साधक को एक विशेष श्राविका के यहाँ भोजन को भेजा | रास्ते में साधक सोंचता था : घर था तो मन का भोजन मिलता था -     


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:पर यहाँ पता नहीं ? पहुँचा श्राविका के यहाँ - तो भोजन में वही मिला जो सोचा था | - सोचा शायद संयोग हो | पर भोजन उपरांत विश्राम की इच्छा हुई - श्राविका ने विश्राम कर लेने को कहा | अब तो साधक आश्चर्य में था - पूछा -तो उत्तर मिला कि : भगवान के चरणों में रहकर मैंने — मन-पर्याय ज्ञान प्राप्त किया है | अब तो साधक घबड़ाया - सोचा कहीं और भी गंदे विचार न पढ़ लिए जाएं | भागा पहुँचा - भगवान के पास और कहा वहाँ मैं न जाऊँगा | भगवान ने कहा : जाना होगा | <u>साथ ही एक बात उससे कही कि जाना पर, एक -एक विचार देख कर जाना</u> | कथा कहती है : 3 माह में वह अर्हत पद पर दीक्षित हुआ | अपने भीतर के शत्रु को जीत लिया | उससे मुक्त कर लिया |  
:पर यहाँ पता नहीं ? पहुँचा श्राविका के यहाँ - तो भोजन में वही मिला जो सोचा था | - सोचा शायद संयोग हो | पर भोजन उपरांत विश्राम की इच्छा हुई - श्राविका ने विश्राम कर लेने को कहा | अब तो साधक आश्चर्य में था - पूछा -तो उत्तर मिला कि : भगवान के चरणों में रहकर मैंने — मन-पर्याय ज्ञान प्राप्त किया है | अब तो साधक घबड़ाया - सोचा कहीं और भी गंदे विचार न पढ़ लिए जाएं | भागा पहुँचा - भगवान के पास और कहा वहाँ मैं न जाऊँगा | भगवान ने कहा  
 
: जाना होगा | <u>साथ ही एक बात उससे कही कि जाना पर, एक -एक विचार देख कर जाना</u> | कथा कहती है : 3 माह में वह अर्हत पद पर दीक्षित हुआ | अपने भीतर के शत्रु को जीत लिया | उससे मुक्त कर लिया |  
 
:मनोवैज्ञानिक : मन का विश्लेषण करते हुये कहते हैं कि हमारे भीतर - जो गंदा है - सारे को यदि प्रगट किया जाय - तो 10 बार भी फाँसी की सज़ा का होना कम है | इससे मन के प्रति जागरूक होने का मार्ग है | एक-एक क्षण की निंद्रा या बेहोशी - ठीक नहीं है | मनुष्य को दुखी होने का कोई कारण नहीं है : ना सम-
:मनोवैज्ञानिक : मन का विश्लेषण करते हुये कहते हैं कि हमारे भीतर - जो गंदा है - सारे को यदि प्रगट किया जाय - तो 10 बार भी फाँसी की सज़ा का होना कम है | इससे मन के प्रति जागरूक होने का मार्ग है | एक-एक क्षण की निंद्रा या बेहोशी - ठीक नहीं है | मनुष्य को दुखी होने का कोई कारण नहीं है : ना सम-
:झि में - हमारे कारण - हम दुखी हैं | ध्यान योग से शांत हुआ जा सकता है | शांत-सागर के किनारे हम व्यर्थ ही प्यासे खड़े हैं |
:झि में - हमारे कारण - हम दुखी हैं | ध्यान योग से शांत हुआ जा सकता है | शांत-सागर के किनारे हम व्यर्थ ही प्यासे खड़े हैं |
:सारी तृष्णाएँ विसर्जित-अन्यथा दुख के अनंत आवर्तों में भटकना होता है | तृष्णा का चुक जाना -दिये की लौ का विसर्जित हो जाना - वैसे ही मनुष्य का जीवन भी अनंत में विसर्जित - एक-एक क्षण की सम्यक जागरूकता से |  
:सारी तृष्णाएँ विसर्जित-अन्यथा दुख के अनंत आवर्तों में भटकना होता है | तृष्णा का चुक जाना -दिये की लौ का विसर्जित हो जाना - वैसे ही मनुष्य का जीवन भी अनंत में विसर्जित - एक-एक क्षण की सम्यक जागरूकता से |  
:एक छोटी सी कथा कहकर अपनी बात को पूरी करूँगा | एक इटालियन मछुआ - सुबह-सुबह --- नदी -तट पर भोर के तारों में पहुँचा | नदी तट पर एक कंकड़-पत्थर की झोली थी - उसे उठाकर - नाव पर वह चल दिया | बीच सोचता था - उस चट्टान के पास एक मकान बनाऊंगा - खूब मछली लाकर - धन इकट्ठा करूँगा - भिक्षा में यों मुट्ठी भर-भर दान दूँगा और अपनी मौज में वह झोली से मुट्ठी - भर-भर के कंकड़-पत्थर — फेंकता जाता था | इस तरह फेंकता गया, फेंकता गया, आख़िर में केवल एक कंकड़ बचा- सुबह सूरज की किरणें फूटी तो वह
:एक छोटी सी कथा कहकर अपनी बात को पूरी करूँगा | एक इटालियन मछुआ - सुबह-सुबह --- नदी -तट पर भोर के तारों में पहुँचा | नदी तट पर एक कंकड़-पत्थर की झोली थी - उसे उठाकर - नाव पर वह चल दिया | बीच सोचता था - उस चट्टान के पास एक मकान बनाऊंगा - खूब मछली लाकर - धन इकट्ठा करूँगा - भिक्षा में यों मुट्ठी भर-भर दान दूँगा और अपनी मौज में वह झोली से मुट्ठी - भर-भर के कंकड़-पत्थर — फेंकता जाता था | इस तरह फेंकता गया, फेंकता गया, आख़िर में केवल एक कंकड़ बचा- सुबह सूरज की किरणें फूटी तो वह


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:सूख गया - खून बंद हो गया जैसे - देखा वह एक बड़ा हीरा था | झोली भर व्यर्थ गवाँ दिए | हमारा जीवन भी समय के अनंत हीरों को खोता चला जाता है, जब एक क्षण शेष रहे जीवन का तब शायद हीरा-हीरा समझ में आता है | अप्राप्त की इच्छा में - प्राप्त हीरे हम फेंकते चले जाते हैं | सारे धर्म- दुख के कारण मिटाने को हैं | ये मिट जाते हैं | ध्यान योग से - समतुलित या सम-जीवन दृष्टि से | भगवान बुद्ध सबके शास्ता हैं : वे हों या न हों | कोई उनके धर्म को माने या न माने | सबको उनके मार्ग से आनंद मिलने को ही है | सबके लिए सूरज का प्रकाश उपलब्ध है | सबके लिए उनका द्वार खुला है | डा. अम्बेद्कर ने पुनः भारत में द्वार खोला, इससे उनके द्वारा महान उद्द्घोश को जो बुद्ध धर्म-भारत में उनने लाया - और आप सब नव्य दीक्षित बौद्धों को में हृदय से बधाई देता हूँ |
:सूख गया - खून बंद हो गया जैसे - देखा वह एक बड़ा हीरा था | झोली भर व्यर्थ गवाँ दिए | हमारा जीवन भी समय के अनंत हीरों को खोता चला जाता है, जब एक क्षण शेष रहे जीवन का तब शायद हीरा-हीरा समझ में आता है | अप्राप्त की इच्छा में - प्राप्त हीरे हम फेंकते चले जाते हैं | सारे धर्म- दुख के कारण मिटाने को हैं | ये मिट जाते हैं | ध्यान योग से - समतुलित या सम-जीवन दृष्टि से | भगवान बुद्ध सबके शास्ता हैं : वे हों या न हों | कोई उनके धर्म को माने या न माने | सबको उनके मार्ग से आनंद मिलने को ही है | सबके लिए सूरज का प्रकाश उपलब्ध है | सबके लिए उनका द्वार खुला है | डा. अम्बेद्कर ने पुनः भारत में द्वार खोला, इससे उनके द्वारा महान उद्द्घोश को जो बुद्ध धर्म-भारत में उनने लाया - और आप सब नव्य दीक्षित बौद्धों को में हृदय से बधाई देता हूँ |
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:डा. अम्बेद्कर जयंती
:डा. अम्बेद्कर जयंती
:14.04.1961
:14.04.1961
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:मैं आपका बड़ा अनुग्रहित हूँ | आज की सुबह आपके बीच आकर --  आनंदित हूँ | आपके मनों तक मेरे विचार पहुँचे -- इससे भी मैं आनंदित हूँ | में अभी आप तक आया -- तो सुबह पूरी तरह फूट आई है, पेड़-पेड़, गली-गली, फूल-फूल सब कुछ अपने पूरे आनंद से भर आये हैं | पर मनुष्य के अंतः में गहरा काँटा चुभा है --- उसकी प्रसन्नता विलीन हो गई है, गहरे तम से आज का मानव गुजर रहा है, गहरी पीड़ा, परेशानी और चिंता व्याप्त है | इससे जीवन के अंधेरे को तोड़ने का प्रयास ही -- मन के अंधेरे को दूर कर सकेगा और चरित्र-निर्माण हो सकेगा |  
:मैं आपका बड़ा अनुग्रहित हूँ | आज की सुबह आपके बीच आकर --  आनंदित हूँ | आपके मनों तक मेरे विचार पहुँचे -- इससे भी मैं आनंदित हूँ | में अभी आप तक आया -- तो सुबह पूरी तरह फूट आई है, पेड़-पेड़, गली-गली, फूल-फूल सब कुछ अपने पूरे आनंद से भर आये हैं | पर मनुष्य के अंतः में गहरा काँटा चुभा है --- उसकी प्रसन्नता विलीन हो गई है, गहरे तम से आज का मानव गुजर रहा है, गहरी पीड़ा, परेशानी और चिंता व्याप्त है | इससे जीवन के अंधेरे को तोड़ने का प्रयास ही -- मन के अंधेरे को दूर कर सकेगा और चरित्र-निर्माण हो सकेगा |  
:आज की चर्चा को मैं - जापान की एक प्रचलित कहानी से प्रारंभ करता हूँ | एक अँधा व्यक्ति अपने मित्र से मिलने गया | रात लौटता था - तो उसके मित्र ने प्रकाश रहे; इसके लिए लालटेन - साथ लेने को कहा | अंधे ने कहा : मुझे तो प्रकाश और अंधेरे में कोई भेद नहीं - इस पर उसके मित्र ने कहा : भेद तो   
:आज की चर्चा को मैं - जापान की एक प्रचलित कहानी से प्रारंभ करता हूँ | एक अँधा व्यक्ति अपने मित्र से मिलने गया | रात लौटता था - तो उसके मित्र ने प्रकाश रहे; इसके लिए लालटेन - साथ लेने को कहा | अंधे ने कहा : मुझे तो प्रकाश और अंधेरे में कोई भेद नहीं - इस पर उसके मित्र ने कहा : भेद तो   


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:तुम्हें नहीं है, पर सामने से आते व्यक्ति को प्रकाश दिखेगा - तो टक्कर न हो सकेगी | अंधे ने बात मान ली और लालटेन साथ लेकर 100 कदम ही आगे बढ़ा होगा कि सामने से आते व्यक्ति से टक्कर हुई | अंधे ने कहा : भई ! मैं तो अँधा हूँ, पर क्या प्रकाश तुम्हें भी दिखाई नहीं पड़ता | जवाब मिला : लालटेन का प्रकाश ही बुझ गया है -- तो टक्कर होना स्वाभाविक थी | आज के युग में भी गहरी टक्कर, राष्ट्र-राष्ट्र, पति-पत्नी, मित्र-मित्र, बच्चे-पिता-माँ --- सबमें दिख पड़ती है, लेकिन क्या कारण है ? प्रकाश बुझ गया है --- मानव-मूल्य विनष्ट हो गये है | इससे टक्कर तो स्पष्ट दिखती है, पर मूल में कारण क्या है ? इसकी खोज करना है | स्पष्ट है कि प्रकाश फैलाने वाली चीज़ें बुझ गई हैं | शांत व्यक्तित्व का निर्माण मुश्किल बात हो गई है, सारे जगत का मानव परेशान है | अभी एक निज़िन्स्की नमक प्रसिद्द चित्रकार ने आत्म-हत्या की | मृत्यु के पूर्व उसने गहरे काले और लाल रंग के चित्र अपने कमरे में लगा रखे   
:तुम्हें नहीं है, पर सामने से आते व्यक्ति को प्रकाश दिखेगा - तो टक्कर न हो सकेगी | अंधे ने बात मान ली और लालटेन साथ लेकर 100 कदम ही आगे बढ़ा होगा कि सामने से आते व्यक्ति से टक्कर हुई | अंधे ने कहा : भई ! मैं तो अँधा हूँ, पर क्या प्रकाश तुम्हें भी दिखाई नहीं पड़ता | जवाब मिला : लालटेन का प्रकाश ही बुझ गया है -- तो टक्कर होना स्वाभाविक थी | आज के युग में भी गहरी टक्कर, राष्ट्र-राष्ट्र, पति-पत्नी, मित्र-मित्र, बच्चे-पिता-माँ --- सबमें दिख पड़ती है, लेकिन क्या कारण है ? प्रकाश बुझ गया है --- मानव-मूल्य विनष्ट हो गये है | इससे टक्कर तो स्पष्ट दिखती है, पर मूल में कारण क्या है ? इसकी खोज करना है | स्पष्ट है कि प्रकाश फैलाने वाली चीज़ें बुझ गई हैं | शांत व्यक्तित्व का निर्माण मुश्किल बात हो गई है, सारे जगत का मानव परेशान है | अभी एक निज़िन्स्की नमक प्रसिद्द चित्रकार ने आत्म-हत्या की | मृत्यु के पूर्व उसने गहरे काले और लाल रंग के चित्र अपने कमरे में लगा रखे   
:थे | देखकर कमरा कब्रिस्तान जैसा प्रतीत होता | पूछने पर वह कहता - दुनियाँ कुछ एसी ही हो गयी है; में क्या करूँ ? प्रकाश बुझता जाता है, इससे मनुष्य और उसके ज्ञान की मृत्यु के पूर्व ही, मैं अपने को समाप्त कर लेना उचित समझता हूँ |  
:थे | देखकर कमरा कब्रिस्तान जैसा प्रतीत होता | पूछने पर वह कहता - दुनियाँ कुछ एसी ही हो गयी है; में क्या करूँ ? प्रकाश बुझता जाता है, इससे मनुष्य और उसके ज्ञान की मृत्यु के पूर्व ही, मैं अपने को समाप्त कर लेना उचित समझता हूँ |  
:आज के युग-उपदेष्टा देखते हैं - हिंसा है, चोरी है, असत्या है, चरित्र-हीनता है, तो कहते हैं : अहिंसा, सत्य, शील, चरित्र का निर्माण करो | लेकिन यह मात्र उपर की अभिव्यक्ति है — उससे रास्ता मिलने वाला नहीं है | मूल में कुछ एसा करो, वैसा करो - यह नहीं है | मैं इससे - आपको सकारण ही - सत्य बोलो, अहिंसा व्रत लो, शील बनो -- एसा कुछ भी कहने नहीं आया | पत्तों और फूलों को नहीं - जड़ों को सींचकर ही --पेड़ को हरा-भरा रखा जा सकता है | आज समाज में ऐसे स्त्रोत खो गये, जिनसे व्यक्तित्व का विकास संभव हो | इससे चरित्र के निर्माण में उपर की अभिव्यक्ति मात्र काम नहीं देगी, मूल में तो कुछ और है |  
:आज के युग-उपदेष्टा देखते हैं - हिंसा है, चोरी है, असत्या है, चरित्र-हीनता है, तो कहते हैं : अहिंसा, सत्य, शील, चरित्र का निर्माण करो | लेकिन यह मात्र उपर की अभिव्यक्ति है — उससे रास्ता मिलने वाला नहीं है | मूल में कुछ एसा करो, वैसा करो - यह नहीं है | मैं इससे - आपको सकारण ही - सत्य बोलो, अहिंसा व्रत लो, शील बनो -- एसा कुछ भी कहने नहीं आया | पत्तों और फूलों को नहीं - जड़ों को सींचकर ही --पेड़ को हरा-भरा रखा जा सकता है | आज समाज में ऐसे स्त्रोत खो गये, जिनसे व्यक्तित्व का विकास संभव हो | इससे चरित्र के निर्माण में उपर की अभिव्यक्ति मात्र काम नहीं देगी, मूल में तो कुछ और है |  
:माओत्सेतुंग चीन के राष्ट्रपति है, बच्चों ने नाम
:माओत्सेतुंग चीन के राष्ट्रपति है, बच्चों ने नाम


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| 14 - 15 || [[image:man1290.jpg|400px]] || [[image:man1290-2.jpg|200px]] || [[image:man1290-3.jpg|200px]] ||  
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:सुना होगा | जब वे छोटे थे - माँ ने एक सुंदर बगिया लगा रखी थी | पर उन्हें पता न था - कैसे फूल-पौधे विकास पाते हैं | माँ एक बार बीमार पड़ी -- उन्होंने बगिया के संभाल का काम हाथ लिया | 15 दिन तक खूब - पत्तों और फूलों को नहलाते - पर सारे पौधे उदास और उजाड़ हो गये | माँ ठीक हुई तो देखा - बगिया में प्राण न थे | पूछा : तो हाल विदित हुआ | तब माँ ने कहा: जो उपर दिखता है -- उस पर ही फूल और पत्ते नहीं टीके हैं, जो कुछ दिखता नहीं है - उस पर दिखने की सत्ता कायम है | इससे चरित्र निर्माण भी, कुछ कारण है, जिन पर टिका है | मैं आपसे मूल कारणों की - प्राण की बात करना पसंद करूँगा |  
:सुना होगा | जब वे छोटे थे - माँ ने एक सुंदर बगिया लगा रखी थी | पर उन्हें पता न था - कैसे फूल-पौधे विकास पाते हैं | माँ एक बार बीमार पड़ी -- उन्होंने बगिया के संभाल का काम हाथ लिया | 15 दिन तक खूब - पत्तों और फूलों को नहलाते - पर सारे पौधे उदास और उजाड़ हो गये | माँ ठीक हुई तो देखा - बगिया में प्राण न थे | पूछा : तो हाल विदित हुआ | तब माँ ने कहा: जो उपर दिखता है -- उस पर ही फूल और पत्ते नहीं टीके हैं, जो कुछ दिखता नहीं है - उस पर दिखने की सत्ता कायम है | इससे चरित्र निर्माण भी, कुछ कारण है, जिन पर टिका है | मैं आपसे मूल कारणों की - प्राण की बात करना पसंद करूँगा |  
:पुराने युग की आस्था ईश्वर-निष्ठा थी | आज यह मूल्य खो गया | 200 वर्ष पूर्व वोल्टेयर एक प्रसिद्द विचारक हुआ - उसने कहा : 'ईश्वर मरणासन्न है |' इसके बाद जर्मनी के विचारक नीत्से ने कहा : ' जो ईश्वर मरणासन्न था, अब वह मर गया |' पर नीत्से को पता नहीं था : कि ईश्वर मरणासन्न होगा तो आदमी को  
:पुराने युग की आस्था ईश्वर-निष्ठा थी | आज यह मूल्य खो गया | 200 वर्ष पूर्व वोल्टेयर एक प्रसिद्द विचारक हुआ - उसने कहा : 'ईश्वर मरणासन्न है |' इसके बाद जर्मनी के विचारक नीत्से ने कहा : ' जो ईश्वर मरणासन्न था, अब वह मर गया |' पर नीत्से को पता नहीं था : कि ईश्वर मरणासन्न होगा तो आदमी को  
:भी मारना होगा | केवल ईश्वर आस्था पर हम जीते और पलते हैं | ये आस्था आ जाय - तो कुछ उपर से लाने को नहीं | फिर कोई अब्रह्मचारी नहीं होगा - क्योंकि जो भीतर आया है - उससे ब्रह्मचर्य ही फूटेगा | बिना ईश्वर-आस्था के सब कुछ ग़लत है |  ईश्वर तो सारे श्रेष्ठ मानव-मूल्यों का इकट्ठा जोड़ है | कोई आकाश में बैठी सत्ता-ईश्वर नहीं है; सारे निराकार मूल्य - ईश्वर में समाहित हैं | ये मूल्य खो जाने से -- जीवन विकृत और शून्य दिखने लगा है | मनोवैज्ञानिकों में मायकोवस्की ने अभी आत्महत्या की और कहा : जीवन में कोई अर्थ नहीं दिखता | किसलिए और क्यों जी रहे हैं ? इससे उसने जीवन खो दिया | आज श्रेष्ठतम लक्ष्य विलीन हो गये हैं --- इससे जीवन कोरा हो गया है | जीवन अर्थकारी केवल ईश्वर आस्था से ही बन सकता है | अन्यथा शेक्सपियर ने जो जीवन के बाबत कहा : वह सच होगा :  
:भी मारना होगा | केवल ईश्वर आस्था पर हम जीते और पलते हैं | ये आस्था आ जाय - तो कुछ उपर से लाने को नहीं | फिर कोई अब्रह्मचारी नहीं होगा - क्योंकि जो भीतर आया है - उससे ब्रह्मचर्य ही फूटेगा | बिना ईश्वर-आस्था के सब कुछ ग़लत है |  ईश्वर तो सारे श्रेष्ठ मानव-मूल्यों का इकट्ठा जोड़ है | कोई आकाश में बैठी सत्ता-ईश्वर नहीं है; सारे निराकार मूल्य - ईश्वर में समाहित हैं | ये मूल्य खो जाने से -- जीवन विकृत और शून्य दिखने लगा है | मनोवैज्ञानिकों में मायकोवस्की ने अभी आत्महत्या की और कहा : जीवन में कोई अर्थ नहीं दिखता | किसलिए और क्यों जी रहे हैं ? इससे उसने जीवन खो दिया | आज श्रेष्ठतम लक्ष्य विलीन हो गये हैं --- इससे जीवन कोरा हो गया है | जीवन अर्थकारी केवल ईश्वर आस्था से ही बन सकता है | अन्यथा शेक्सपियर ने जो जीवन के बाबत कहा : वह सच होगा :  
:“ Our life is such that a tale told by an ediot, with full of fary & noise, signifies nothing. “
 
:“Our life is such that a tale told by an ediot, with full of fary & noise, signifies nothing.“


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| 16 - 17 || [[image:man1291.jpg|400px]] || [[image:man1291-2.jpg|200px]] || [[image:man1291-3.jpg|200px]] ||  
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:यह आज सच हो रहा है | हमारा जीवन कुछ पाने को नहीं; व्यर्थ खो जाने को है --- मृत्यु में समा जाने को | इससे आज मूल्य-विहीन समाज है -- तो कोई आश्चर्य नहीं | जीवन के मूल्य कैसे आयें | चरित्र को इससे अलग से नहीं पाया जा सकता - प्रभु - निष्ठा के साथ ही चरित्र के सारे मूल्य आ जाते हैं | इससे कैसे प्रभु तक पहुँचे -- इस पर पहुँचने की तीन सीढियाँ है | पूरा समूचा विज्ञान है, जो जीवन को बदलता है |
:यह आज सच हो रहा है | हमारा जीवन कुछ पाने को नहीं; व्यर्थ खो जाने को है --- मृत्यु में समा जाने को | इससे आज मूल्य-विहीन समाज है -- तो कोई आश्चर्य नहीं | जीवन के मूल्य कैसे आयें | चरित्र को इससे अलग से नहीं पाया जा सकता - प्रभु - निष्ठा के साथ ही चरित्र के सारे मूल्य आ जाते हैं | इससे कैसे प्रभु तक पहुँचे -- इस पर पहुँचने की तीन सीढियाँ है | पूरा समूचा विज्ञान है, जो जीवन को बदलता है |
:1) -- प्रभु की प्यास को जगाना : इसे योग की भाषा में कहें तो एक धारणा बनाना | एक उद्दात्त जीवन की महत्वाकांक्षा पैदा करना | नदी पहाड़ से निकलकर मैदानों तक आती है | पर यहीं विस्तार पूरा नहीं होता | समुद्र से मिलने तक विकास शेष रहता है | एक ही कल्पना और विचार सागर से मिलने का रहता है | एक दूसरी ओर तालाब है -- कुंठित और अपने में सीमित -- कोई उद्दात्त कल्पना नहीं | इससे समाज भी दो तरह के होते हैं : एक जीवित और महत्वाकांक्षा से भरा समाज -- कुछ करने का पागलपन और दूसरा मृत समाज -- महत्वाकांक्षाहीन | योग की  
:1) -- प्रभु की प्यास को जगाना : इसे योग की भाषा में कहें तो एक धारणा बनाना | एक उद्दात्त जीवन की महत्वाकांक्षा पैदा करना | नदी पहाड़ से निकलकर मैदानों तक आती है | पर यहीं विस्तार पूरा नहीं होता | समुद्र से मिलने तक विकास शेष रहता है | एक ही कल्पना और विचार सागर से मिलने का रहता है | एक दूसरी ओर तालाब है -- कुंठित और अपने में सीमित -- कोई उद्दात्त कल्पना नहीं | इससे समाज भी दो तरह के होते हैं : एक जीवित और महत्वाकांक्षा से भरा समाज -- कुछ करने का पागलपन और दूसरा मृत समाज -- महत्वाकांक्षाहीन | योग की  
:भाषा में कहें : धारणापूर्ण जीवन -- प्यास न हो तो कुछ नहीं पा सकते | शेख फरीद एक सूफ़ी संत हुआ : उसके जीवन में एक घटना आती है | एक समय -- एक व्यक्ति उससे मिलने आया | पूछा : प्रभु मिलन कैसे हो ? शेख फरीद उसे नदी-स्नान कराने ले गया | नहाते समय (पीछे से) ज़ोर की गर्दन पकड़ कर शेख फरीद ने दबा दी (पानी के अंदर) | वह व्यक्ति खूब छटपटाया -- पर शेख फरीद - छोड़ने को कहाँ | आख़िरी सीमा पर उसने छोड़ा | तो वह व्यक्ति कह उठा : तुम तो हत्यारे हो, शेख फरीद हंसा और कहा : मैं तो तुम्हारी बात का उत्तर दे रहा था | एक बात बताओ : जब तुम पानी में भीतर थे, तब कितनी इच्छाएँ थी | उसने कहा : पानी के भीतर और कितनी इच्छाएँ ? बस केवल एक इच्छा थी कि <u>एक सांस हवा</u> मिल जाय | शेख फरीद तपाक से बोला : बस एसी प्यास जीवन में जग जाय तो प्रभु-मिलन को कोई नहीं रोक सकता | उसके बिना -- जीवन अंधेरा, कोरा और तम से भरा हुआ है | साथ ही गीत की एक-एक पंक्ति -- अपने में अलग-अलग -- कोई महत्व की नहीं होती -- गीत में     
 
:भाषा में कहें : धारणापूर्ण जीवन -- प्यास न हो तो कुछ नहीं पा सकते | शेख फरीद एक सूफ़ी संत हुआ : उसके जीवन में एक घटना आती है | एक समय -- एक व्यक्ति उससे मिलने आया | पूछा : प्रभु मिलन कैसे हो ? शेख फरीद उसे नदी-स्नान कराने ले गया | नहाते समय (पीछे से) ज़ोर की गर्दन पकड़ कर शेख फरीद ने दबा दी (पानी के अंदर) | वह व्यक्ति खूब छटपटाया -- पर शेख फरीद - छोड़ने को कहाँ | आख़िरी सीमा पर उसने छोड़ा | तो वह व्यक्ति कह उठा  
 
: तुम तो हत्यारे हो, शेख फरीद हंसा और कहा : मैं तो तुम्हारी बात का उत्तर दे रहा था | एक बात बताओ : जब तुम पानी में भीतर थे, तब कितनी इच्छाएँ थी | उसने कहा : पानी के भीतर और कितनी इच्छाएँ ? बस केवल एक इच्छा थी कि <u>एक सांस हवा</u> मिल जाय | शेख फरीद तपाक से बोला : बस एसी प्यास जीवन में जग जाय तो प्रभु-मिलन को कोई नहीं रोक सकता | उसके बिना -- जीवन अंधेरा, कोरा और तम से भरा हुआ है | साथ ही गीत की एक-एक पंक्ति -- अपने में अलग-अलग -- कोई महत्व की नहीं होती -- गीत में     


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:होकर ही -- उसका मूल्य होता है | हमारा जीवन भी अपने में अलग होकर कोई मूल्य का नहीं; प्रभु के विराट अंग में अपना स्थान बना लेने में है | इससे पहला चरण होगा - प्रभु आस्था का, भीतर अपने प्यास को जगाने का |  
:होकर ही -- उसका मूल्य होता है | हमारा जीवन भी अपने में अलग होकर कोई मूल्य का नहीं; प्रभु के विराट अंग में अपना स्थान बना लेने में है | इससे पहला चरण होगा - प्रभु आस्था का, भीतर अपने प्यास को जगाने का |  
:2) -- मन की एकाग्रता: आज कुछ भी एकाग्र नहीं है | हम यहाँ इतने लोग हैं -- पर सबका मन न मालूम कहाँ-कहाँ होगा | जीतने हम लोग हैं, इतनी ही जगह हमारा मन होगा | कुछ भी एक क्षण को रुका नहीं है | हमारा कुछ भी अधिकार नहीं है | सब कुछ पराया है | इतने विचारों और इच्छओं से भरा हैं कि एक क्षण को भी खाली नहीं है | जापान में एक साधु हुआ नानइन | इसके पास एक समय विश्वविद्यालय का प्रोफ़ेसर -- प्रभु-धर्म आदि के संबंध में जानने पहुँचा | साधु ने कहा : थोड़ी देर आप विश्राम करें -- थक जो गये हैं | बाद साधु ने कहा : इस बीच मैं आपकी थकान मिटाने के लिए चाय बना लाता हूँ और बहुत संभव है कि चाय पीने में ही उत्तर छुपा हो | नानइन चाय लाया, प्याली में ढालता गया, प्याली भर गई, पर वह चाय ढालता ही रहा |
:2) -- मन की एकाग्रता: आज कुछ भी एकाग्र नहीं है | हम यहाँ इतने लोग हैं -- पर सबका मन न मालूम कहाँ-कहाँ होगा | जीतने हम लोग हैं, इतनी ही जगह हमारा मन होगा | कुछ भी एक क्षण को रुका नहीं है | हमारा कुछ भी अधिकार नहीं है | सब कुछ पराया है | इतने विचारों और इच्छओं से भरा हैं कि एक क्षण को भी खाली नहीं है | जापान में एक साधु हुआ नानइन | इसके पास एक समय विश्वविद्यालय का प्रोफ़ेसर -- प्रभु-धर्म आदि के संबंध में जानने पहुँचा | साधु ने कहा : थोड़ी देर आप विश्राम करें -- थक जो गये हैं | बाद साधु ने कहा : इस बीच मैं आपकी थकान मिटाने के लिए चाय बना लाता हूँ और बहुत संभव है कि चाय पीने में ही उत्तर छुपा हो | नानइन चाय लाया, प्याली में ढालता गया, प्याली भर गई, पर वह चाय ढालता ही रहा |
:इस पर प्रोफेससार ने कहा : रूकिए ! अब एक बूँद और चाय प्याली में नहीं समा सकेगी | इस पर साधु ने कहा : ठीक, तुम्हारे प्रश्न का उत्तर मिल गया | तुम भी विचारों से इतने भरे हुए हो -- कि कोई भी नया विचार अब उसमें प्रवेश नहीं कर सकता | तुम्हारे मन में कहाँ एक सदविचार रखने को (जगह) है | तुम्हारा मन भागता, दौड़ता रहता है | इस मन को खाली करना होगा -- तब प्रभु प्रकाश प्रवेश कर सकेगा | मन की चंचलता को रोकना होगा | तब फिर एकाग्र मान में प्रभु मिलन होगा | इस बात में सारी क्षुद्र वासनाएँ आपसे विसरजित हो रहेंगी | इससे मैं नहीं कहता : अच्छे नागरिक बनो -- मन को शांत कर लो -- बुराई अपने आप निकल जायगी | अच्छी नागरिकता स्वयं आयगी | आज तो हमारा हाल यह है : हम कहीं भी हों -- मंदिर में भी हों, तो मन एकाग्र नहीं होता | गुरुनानक के जीवन में एक घटना आती है | गुरुनानक के कुछ मुसलमान साथी कहते -- आपको तो संप्रदायों से कोई विरोध नहीं -- तो चलिए आप हमारे साथ नमाज़ पढ़िए | गुरुनानक ने कहा : मैं चलूँगा, लेकिन एक शर्त है कि आप नमाज़ पढ़ेंगे -- तो मैं पढ़ूंगा | उनके साथियों ने कहा ठीक है,  
:इस पर प्रोफेससार ने कहा : रूकिए ! अब एक बूँद और चाय प्याली में नहीं समा सकेगी | इस पर साधु ने कहा : ठीक, तुम्हारे प्रश्न का उत्तर मिल गया | तुम भी विचारों से इतने भरे हुए हो -- कि कोई भी नया विचार अब उसमें प्रवेश नहीं कर सकता | तुम्हारे मन में कहाँ एक सदविचार रखने को (जगह) है | तुम्हारा मन भागता, दौड़ता रहता है | इस मन को खाली करना होगा -- तब प्रभु प्रकाश प्रवेश कर सकेगा | मन की चंचलता को रोकना होगा | तब फिर एकाग्र मान में प्रभु मिलन होगा | इस बात में सारी क्षुद्र वासनाएँ आपसे विसरजित हो रहेंगी | इससे मैं नहीं कहता : अच्छे नागरिक बनो -- मन को शांत कर लो -- बुराई अपने आप निकल जायगी | अच्छी नागरिकता स्वयं आयगी | आज तो हमारा हाल यह है : हम कहीं भी हों -- मंदिर में भी हों, तो मन एकाग्र नहीं होता | गुरुनानक के जीवन में एक घटना आती है | गुरुनानक के कुछ मुसलमान साथी कहते -- आपको तो संप्रदायों से कोई विरोध नहीं -- तो चलिए आप हमारे साथ नमाज़ पढ़िए | गुरुनानक ने कहा : मैं चलूँगा, लेकिन एक शर्त है कि आप नमाज़ पढ़ेंगे -- तो मैं पढ़ूंगा | उनके साथियों ने कहा ठीक है,  


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:हम तो पढ़ते ही हैं, इसमें क्या बात है | गुरुनानक साथ गये नमाज़ पढ़ने, पर खड़े रहे -- उनके साथी बड़े गुस्से में भर आए और सोचते यह कितना धोखा दे रहा है | नमाज़ ख़त्म होते ही वे उनसे नाराज़ हुये | गुरुनानक ने कहा : मैं तो नमाज़ पढ़ता, पर तुम कहाँ नमाज़ पढ़ रहे थे -- तुम तो मेरे प्रति क्रोध से भरे थे -- शर्त टूटी -- इससे में नमाज़ न पढ़ सका | इससे प्रार्थना में बैठ जाने की बात नहीं है -- क्षण भर को मन शांत और प्रभु के साथ कर लेने की बात है | एक क्षण भी शांत रहें -- तो अमृत मिलेगा | एक छोटा सा दिया जला लेने की बात है : अंधेरा दूर हो जायगा | इससे अपने को भूल जा सकें और पूर्ण शांत बने रह सकें | आज समाज में घरों से यह सब उपलब्धि दूर हो गई है -- इससे समाज अशांत दीख पड़ता है | एक समय अकबर शिकार खेलने वन में थे | संध्या घिर आई तो नमाज़ पढ़ने बैठ गये -- नमाज़ के पाबंद थे | एक युवती दूर से अपने प्रेमी से मिलने भागी चली आ रही थी | उसके पैर राजा पर पड़ गए, राजा को बड़ा क्रोध आया | सोचा -- एक तो प्रार्थना में दखल करना ठीक नहीं, फिर मैं तो राजा हूँ | लड़की लौटती  
:हम तो पढ़ते ही हैं, इसमें क्या बात है | गुरुनानक साथ गये नमाज़ पढ़ने, पर खड़े रहे -- उनके साथी बड़े गुस्से में भर आए और सोचते यह कितना धोखा दे रहा है | नमाज़ ख़त्म होते ही वे उनसे नाराज़ हुये | गुरुनानक ने कहा : मैं तो नमाज़ पढ़ता, पर तुम कहाँ नमाज़ पढ़ रहे थे -- तुम तो मेरे प्रति क्रोध से भरे थे -- शर्त टूटी -- इससे में नमाज़ न पढ़ सका | इससे प्रार्थना में बैठ जाने की बात नहीं है -- क्षण भर को मन शांत और प्रभु के साथ कर लेने की बात है | एक क्षण भी शांत रहें -- तो अमृत मिलेगा | एक छोटा सा दिया जला लेने की बात है : अंधेरा दूर हो जायगा | इससे अपने को भूल जा सकें और पूर्ण शांत बने रह सकें | आज समाज में घरों से यह सब उपलब्धि दूर हो गई है -- इससे समाज अशांत दीख पड़ता है | एक समय अकबर शिकार खेलने वन में थे | संध्या घिर आई तो नमाज़ पढ़ने बैठ गये -- नमाज़ के पाबंद थे | एक युवती दूर से अपने प्रेमी से मिलने भागी चली आ रही थी | उसके पैर राजा पर पड़ गए, राजा को बड़ा क्रोध आया | सोचा -- एक तो प्रार्थना में दखल करना ठीक नहीं, फिर मैं तो राजा हूँ | लड़की लौटती  
:थी -- तो राजा बोल उठा : अशिष्ट तुझे यह पता भी नहीं कि एक राजा प्रार्थना में है और तूने मुझे पैर मारा | युवती बोली मैं तो अपने साधारण प्रेमी से मिलने जा रही थी -- मुझे पता नहीं है -- मैं तो अपने को भूल चुकी थी, पर आप तो सर्वोच्च प्रेमी से मिलने बैठे थे, लेकिन अपने को भूल न सके | इससे बैठना मात्र प्रार्थना के लिये औपचारिक होगा -- जब तक मन भी प्रार्थना में न बैठे -- तब तक प्रार्थना पूरी नहीं होती | इससे दूसरा चरण प्रभु-मिलन का है : एकाग्रता |  
:थी -- तो राजा बोल उठा : अशिष्ट तुझे यह पता भी नहीं कि एक राजा प्रार्थना में है और तूने मुझे पैर मारा | युवती बोली मैं तो अपने साधारण प्रेमी से मिलने जा रही थी -- मुझे पता नहीं है -- मैं तो अपने को भूल चुकी थी, पर आप तो सर्वोच्च प्रेमी से मिलने बैठे थे, लेकिन अपने को भूल न सके | इससे बैठना मात्र प्रार्थना के लिये औपचारिक होगा -- जब तक मन भी प्रार्थना में न बैठे -- तब तक प्रार्थना पूरी नहीं होती | इससे दूसरा चरण प्रभु-मिलन का है : एकाग्रता |  
:३) -- अंतस के सिंहासन को खाली करना : यह सामान्य बात है कि जब भी कोई अतिथि आता है, तो हम अपना सिंहासन उसे दे देते हैं | लेकिन प्रभु-मिलन के लिये : हम अपने सिंहासन पर स्वयं बैठे रहते हैं | अपने 'अहंकार' को बिठाए रखते हैं -- 'मैं' से भरे रहते हैं | इस 'मैं' से अपने को खाली करना है | जब तक यह भीतर बैठा है, प्रभु मिलन नहीं हो सकता | इस दुख से छुटकारा लेने की बात है  | यूनान में एक मूर्तिकार हुआ : लोग कहते, वह सजीव मूर्ति गढ़ता था -- असली भी मूर्ति में आ जाता था | यह बात बिल्कुल झूठ ही हो -- लेकिन बहुत-बहुत अर्थ से भरी है | मूर्तिकार की   
:३) -- अंतस के सिंहासन को खाली करना : यह सामान्य बात है कि जब भी कोई अतिथि आता है, तो हम अपना सिंहासन उसे दे देते हैं | लेकिन प्रभु-मिलन के लिये : हम अपने सिंहासन पर स्वयं बैठे रहते हैं | अपने 'अहंकार' को बिठाए रखते हैं -- 'मैं' से भरे रहते हैं | इस 'मैं' से अपने को खाली करना है | जब तक यह भीतर बैठा है, प्रभु मिलन नहीं हो सकता | इस दुख से छुटकारा लेने की बात है  | यूनान में एक मूर्तिकार हुआ : लोग कहते, वह सजीव मूर्ति गढ़ता था -- असली भी मूर्ति में आ जाता था | यह बात बिल्कुल झूठ ही हो -- लेकिन बहुत-बहुत अर्थ से भरी है | मूर्तिकार की   



Revision as of 01:30, 20 March 2018

year
Apr - Jul 1961
notes
86 pages
Notes of Public Meetings Address & Personal Meetings of Osho with Dignitaries
Collected by Arvind Jain.



page no original photo enhanced photo (left) enhanced photo (right) Hindi transcript
cover
84 Pages Notes of Public Meetings Address & Personal Meetings of OSHO with Dignitaries
April 61 to July 61.
1
बोधिसत्व बाबा साहब अम्बेद्कर के पवित्र जन्म-दिवस पर आकर मैं आपका अनुग्रहित हूँ | वे ज़मीन पर शरीर की तरह जन्मे लेकिन उनका असली जन्म तब हुआ, जब उन्होंने भगवान बुद्ध के धर्म में दीक्षा ली | इससे प्रत्येक मनुष्य के दो जन्म होते हैं - एक शरीर का सामान्य जन्म और दूसरा धर्म में होकर - सच्चा जन्म | दूसरे जीवन से ही - जीवन में महत्ता और गरिमा प्रगट होती है | इससे मैं डा. साहब के सामान्य जीवन पर विचार न कर, भगवान बुद्ध के संदेश से वे क्यों प्रभावित हुए - इस पर ही विचार करता हूँ |
उनने भारत में बौद्ध धर्म को पुनः 1,000 वर्ष बाद स्थापित किया और भारत में इस धर्म के अभाव से विलुप्त नैतिक और धार्मिक समृद्धता को जगाया | कौन सा मार्ग है ? उस संबंध की थोड़ी सी बातें मैं - आपसे करूँगा - ताकि जीवन सार्थक हो सके |
हमारा युग - गहरे अंधेरे का युग है | हम आध्यात्मिक दृष्टि से अंधे हो चुके हैं | न्यूयार्क में एक
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विचारक ने प्रवचन करते हुये कहा था : हमारा युग आस्था से हीन हो गया है | पर मुझे लगता है कि पहले अधार्मिक को ईश्वर के न होने में और धार्मिक को ईश्वर के होने में आस्था थी | पर आज का युग दोनों ओर से उपेक्षा में भर गया है | इससे, अनास्था को आस्था में पहले बदलना आसान था, लेकिन अब उपेक्षा को विचार में बदलना कठिन है | मुझे जो शांति यहाँ रखी भगवान बुद्ध की मूर्ति में दिख रही है, आज कोई भी व्यक्ति वैसा शांत नहीं दीखता | इससे जीवन भर का होना महत्व का नहीं है, कैसे शांत हुआ जाय - बैचेनी, परेशानी, दुख और गहरी पीड़ा से मुक्त हुआ जाय - इसकी जीवन-साधना 2500 वर्ष पूर्व भारत में भगवान बुद्ध से उदित हुई | यह गंभीर वैज्ञानिक साधना हमारे आस्था शून्य, मूल्य विहीन समाज में पुनः शांति स्थापित करे - इसकी बात मैं आपसे करूँगा |
एक छोटी सी कहानी से मैं अपनी चर्चा प्रारंभ करता हूँ | एक जापानी बौद्ध कथा है | एक अँधा - अपने मित्र से मिलने गया | रात लौटने लगा तो मित्र ने एक लालटेन साथ लेने को कहा | पर अंधे ने कहा : मुझे
प्रकाश और अंधेरा समान है लेकिन मित्र के कहने पर कि : लालटेन के प्रकाश से तुम्हें तो सहारा मिलेगा नहीं लेकिन जो सामने से आएगा, वह प्रकाश में तुम्हें देख लेगा - और टक्कर नहीं होगी | अँधा लालटेन लेकर बढ़ चला | कोई 100 - 200 कदम चला होगा कि उसकी टक्कर सामने आते एक व्यक्ति से हुई | अंधे ने कहा : बात क्या है, लालटेन के प्रकाश में भी तुम नहीं देख सके | जवाब मिला : लालटेन ही बुझ गई है, उसकी ज्योति समाप्त हो गई है - इससे टक्कर होना स्वाभाविक था | हमारे युग में भी आज राष्ट्र-राष्ट्र में, पति-पत्नी में,माँ-पिता-पुत्र में - चारों ओर गहरी टकराहट है, और शांति, धर्म, आनंद की ज्योति बुझ गई है | प्रकाश बुझ गया है | इसे पुनरुज्जीवित करना है | धर्म चला जायगा - तो आदमी बहुत समय तक अब ज़मीन पर जिंदा नहीं रह सकता | डा. साहब की देन - बौद्ध धर्म को पुनः भारत में पुनरुज्जीवित करने में है |
भगवान बुद्ध को एक बुनियादी बात दिखी : अपने स्वरूप को जानना - अज्ञान - मूर्छा नहीं मिटेगी
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तो हम अपने से अपरिचित रह जायेंगे | परिणामतः जीवन दुखी रहता है | सब मार्गों पर भगवान बुद्ध ने चल के देखा; खुद परखा | 6 - 7 वर्षों तक शरीर की तपश्चर्या की - मार्ग न मिला | कहा कि : दो प्रकार की परंपरा - एक भोग के मार्ग पर चलकर - सुख पाना; पर एक क्षण भी भोग में शांति नहीं | जिनके पास बहुत धन है - वे भी दुखी हैं | प्रश्न यह नहीं कि हमारे पास कितना है ? हमारी भूख कितनी है - इससे दरिद्रता बढ़ती है | हमारे पास एक रुपया है और अब इच्छा नहीं है - पर एक करोड़ हैं और ज़्यादा चाहते की माँग बनी है - तो हम बड़े भिखमंगे - साबित होंगे | इससे तृष्णा कभी नहीं होती | इसके दूसरी ओर कुछ लोग - सब छोड़ने की बात करते हैं | एक और भोग की तो दूसरी त्याग की अति रहती है | मन की शांत स्थिति जब सब पकड़ छूट जाती है - तब आती है |
राजा श्रौण - खूब भोगकर - पूर्ण त्याग के जीवन में उतरा | पत्थरों पर चलता - तो खूब खून झरता | सोचा क्यों न ग्रहस्थी सुख में वापस लौटू | पर भगवान बुद्ध से मिला ; पूछा सितार या वीणा बजाते
थे, कहा : बहुत शौक था | फिर भगवान बुद्ध ने पूछा : सितार के तार ढीले हों - तो संगीत निकलेगा - कहा : स्वर ही नहीं निकलेगा, यदि तार खींचे हों तो - संगीत बेसुरा हो जाएगा | तब फिर : कहा कि तार सम होना चाहिए | इससे सम मार्ग ही - शांत व्यक्तित्व लता है | यह मार्ग दो अतियों के बीच का मध्‍यम प्रतिपदा का मार्ग है | इसमें संतुलित जीवन : दृष्टि की बात है | इसके 8 अंग हैं - जो आर्य आष्टाँगिक योग में समाहित है | ये मार्ग मनुष्य के निखार के लिए हैं - इनका वैज्ञानिक प्रयोग है | मनुष्य के विकास के लिए संतुलित मार्ग है | सम्यक दृष्टि का | इस बीच और विचारक, उपदेशक, धर्म-प्रवर्तक यथा : महावीर, अर्जित केस कंबल, मक्खली गोशाल - हुए, जिन्होंने अपने मार्ग रखे | पर अति पर ज़ोर था | इससे अति के जीवन से बचें - तो जीवन शांत बनेगा | क्या करें ?
ध्यान योग : एक विशिष्ट प्रयोग : सम्यक स्मृति
सम्यक व्यायाम
सम्यक समाधि का |
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इससे अंतिम निर्वाण संभव होगा |
हम अपने मन की स्थिति को देखें - हर क्षण एक स्वप्न चल रहा है - आप तक मेरी बात पूरी नहीं - पहुँच पा रही है | भीतर आपके विचारों की प्रक्रिया जारी है | इच्छाओं के पर्दे से बात नहीं पहुँचेगी | हम जाग नहीं पाते | जहाँ होते हैं - वहाँ नहीं होते | ठीक से जागरूक अवस्था : बुद्धत्व की है | मन और कर्म के बीच एका किया |
कोरिया में बोकोजू एक साधु हुआ | कहता था : धर्म क्या है - इसके उत्तर में कि जब मैं ख़ाता हूँ, तब केवल ख़ाता हूँ | जब चलता हूँ - तब केवल चलता हूँ | हम खाते हैं - तो न जाने किन कल्पनाओं में उलझे होते हैं - और अपने व्यक्तित्व की आत्म-हत्या करते होते हैं | आज अमरीकी देशों - का करोड़पति रात्रि को शांत नहीं सो पाता | मनोवैज्ञानिकों ने कहा है : उच्च सभ्यता के कारण - निद्रा तक लेना मुश्किल बात है | अल्डस हक्सले ने कहा : कि धर्म-शांति यदि विनष्ट हो गई तो पता नहीं जीवन का क्या होगा | एक बहुत बड़े रूसी विचारक : मायकोवस्की और अन्य विचारकों
में स्टीविन्स ज्युग ने अभी आत्म-हत्याएँ कीं और कहा कि जीवन भी मृत्यु से बहुत सुखी नहीं था, इससे मृत्यु कर लेना ही ठीक है |
मन की शांति के लिए, विचार रिक्त मनःस्थिति चाहिए | मन को दबाने से नहीं - विसर्जित करके ही शांत - स्वरूप में आना होगा | दमन करने से - फोड़े के रूप में कहीं ओर से निकल आता है | मनोवैज्ञानिक भी इस बात से सहमत हैं | जो भी इच्छाएँ, विचार उठती हैं - उन पर दृष्टि को बांधें, सम्यक स्मरण ( Awareness ) के रहने पर ग़लत विचार हट जाते हैं | अंधेरे को जैसे आप कितना भी दबाइए, धक्का दीजिए, वह इंच भी नहीं हट सकता | उसकी सत्ता नकारात्मक है | पर एक छोटा सा दिया जला लेने से अंधेरा चला जाता है | इससे सम्यक-स्मृति ( Right Mindfulness ) का आचरण करके, अपने अंधेरे को दूर किया जा सकता है |
बुद्ध ने एक नव-दीक्षित साधक को एक विशेष श्राविका के यहाँ भोजन को भेजा | रास्ते में साधक सोंचता था : घर था तो मन का भोजन मिलता था -
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पर यहाँ पता नहीं ? पहुँचा श्राविका के यहाँ - तो भोजन में वही मिला जो सोचा था | - सोचा शायद संयोग हो | पर भोजन उपरांत विश्राम की इच्छा हुई - श्राविका ने विश्राम कर लेने को कहा | अब तो साधक आश्चर्य में था - पूछा -तो उत्तर मिला कि : भगवान के चरणों में रहकर मैंने — मन-पर्याय ज्ञान प्राप्त किया है | अब तो साधक घबड़ाया - सोचा कहीं और भी गंदे विचार न पढ़ लिए जाएं | भागा पहुँचा - भगवान के पास और कहा वहाँ मैं न जाऊँगा | भगवान ने कहा
जाना होगा | साथ ही एक बात उससे कही कि जाना पर, एक -एक विचार देख कर जाना | कथा कहती है : 3 माह में वह अर्हत पद पर दीक्षित हुआ | अपने भीतर के शत्रु को जीत लिया | उससे मुक्त कर लिया |
मनोवैज्ञानिक : मन का विश्लेषण करते हुये कहते हैं कि हमारे भीतर - जो गंदा है - सारे को यदि प्रगट किया जाय - तो 10 बार भी फाँसी की सज़ा का होना कम है | इससे मन के प्रति जागरूक होने का मार्ग है | एक-एक क्षण की निंद्रा या बेहोशी - ठीक नहीं है | मनुष्य को दुखी होने का कोई कारण नहीं है : ना सम-
झि में - हमारे कारण - हम दुखी हैं | ध्यान योग से शांत हुआ जा सकता है | शांत-सागर के किनारे हम व्यर्थ ही प्यासे खड़े हैं |
सारी तृष्णाएँ विसर्जित-अन्यथा दुख के अनंत आवर्तों में भटकना होता है | तृष्णा का चुक जाना -दिये की लौ का विसर्जित हो जाना - वैसे ही मनुष्य का जीवन भी अनंत में विसर्जित - एक-एक क्षण की सम्यक जागरूकता से |
एक छोटी सी कथा कहकर अपनी बात को पूरी करूँगा | एक इटालियन मछुआ - सुबह-सुबह --- नदी -तट पर भोर के तारों में पहुँचा | नदी तट पर एक कंकड़-पत्थर की झोली थी - उसे उठाकर - नाव पर वह चल दिया | बीच सोचता था - उस चट्टान के पास एक मकान बनाऊंगा - खूब मछली लाकर - धन इकट्ठा करूँगा - भिक्षा में यों मुट्ठी भर-भर दान दूँगा और अपनी मौज में वह झोली से मुट्ठी - भर-भर के कंकड़-पत्थर — फेंकता जाता था | इस तरह फेंकता गया, फेंकता गया, आख़िर में केवल एक कंकड़ बचा- सुबह सूरज की किरणें फूटी तो वह
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सूख गया - खून बंद हो गया जैसे - देखा वह एक बड़ा हीरा था | झोली भर व्यर्थ गवाँ दिए | हमारा जीवन भी समय के अनंत हीरों को खोता चला जाता है, जब एक क्षण शेष रहे जीवन का तब शायद हीरा-हीरा समझ में आता है | अप्राप्त की इच्छा में - प्राप्त हीरे हम फेंकते चले जाते हैं | सारे धर्म- दुख के कारण मिटाने को हैं | ये मिट जाते हैं | ध्यान योग से - समतुलित या सम-जीवन दृष्टि से | भगवान बुद्ध सबके शास्ता हैं : वे हों या न हों | कोई उनके धर्म को माने या न माने | सबको उनके मार्ग से आनंद मिलने को ही है | सबके लिए सूरज का प्रकाश उपलब्ध है | सबके लिए उनका द्वार खुला है | डा. अम्बेद्कर ने पुनः भारत में द्वार खोला, इससे उनके द्वारा महान उद्द्घोश को जो बुद्ध धर्म-भारत में उनने लाया - और आप सब नव्य दीक्षित बौद्धों को में हृदय से बधाई देता हूँ |
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डा. अम्बेद्कर जयंती
14.04.1961
पूर्वी धमापुर (जबलपुर)
मैं आपका बड़ा अनुग्रहित हूँ | आज की सुबह आपके बीच आकर -- आनंदित हूँ | आपके मनों तक मेरे विचार पहुँचे -- इससे भी मैं आनंदित हूँ | में अभी आप तक आया -- तो सुबह पूरी तरह फूट आई है, पेड़-पेड़, गली-गली, फूल-फूल सब कुछ अपने पूरे आनंद से भर आये हैं | पर मनुष्य के अंतः में गहरा काँटा चुभा है --- उसकी प्रसन्नता विलीन हो गई है, गहरे तम से आज का मानव गुजर रहा है, गहरी पीड़ा, परेशानी और चिंता व्याप्त है | इससे जीवन के अंधेरे को तोड़ने का प्रयास ही -- मन के अंधेरे को दूर कर सकेगा और चरित्र-निर्माण हो सकेगा |
आज की चर्चा को मैं - जापान की एक प्रचलित कहानी से प्रारंभ करता हूँ | एक अँधा व्यक्ति अपने मित्र से मिलने गया | रात लौटता था - तो उसके मित्र ने प्रकाश रहे; इसके लिए लालटेन - साथ लेने को कहा | अंधे ने कहा : मुझे तो प्रकाश और अंधेरे में कोई भेद नहीं - इस पर उसके मित्र ने कहा : भेद तो
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तुम्हें नहीं है, पर सामने से आते व्यक्ति को प्रकाश दिखेगा - तो टक्कर न हो सकेगी | अंधे ने बात मान ली और लालटेन साथ लेकर 100 कदम ही आगे बढ़ा होगा कि सामने से आते व्यक्ति से टक्कर हुई | अंधे ने कहा : भई ! मैं तो अँधा हूँ, पर क्या प्रकाश तुम्हें भी दिखाई नहीं पड़ता | जवाब मिला : लालटेन का प्रकाश ही बुझ गया है -- तो टक्कर होना स्वाभाविक थी | आज के युग में भी गहरी टक्कर, राष्ट्र-राष्ट्र, पति-पत्नी, मित्र-मित्र, बच्चे-पिता-माँ --- सबमें दिख पड़ती है, लेकिन क्या कारण है ? प्रकाश बुझ गया है --- मानव-मूल्य विनष्ट हो गये है | इससे टक्कर तो स्पष्ट दिखती है, पर मूल में कारण क्या है ? इसकी खोज करना है | स्पष्ट है कि प्रकाश फैलाने वाली चीज़ें बुझ गई हैं | शांत व्यक्तित्व का निर्माण मुश्किल बात हो गई है, सारे जगत का मानव परेशान है | अभी एक निज़िन्स्की नमक प्रसिद्द चित्रकार ने आत्म-हत्या की | मृत्यु के पूर्व उसने गहरे काले और लाल रंग के चित्र अपने कमरे में लगा रखे
थे | देखकर कमरा कब्रिस्तान जैसा प्रतीत होता | पूछने पर वह कहता - दुनियाँ कुछ एसी ही हो गयी है; में क्या करूँ ? प्रकाश बुझता जाता है, इससे मनुष्य और उसके ज्ञान की मृत्यु के पूर्व ही, मैं अपने को समाप्त कर लेना उचित समझता हूँ |
आज के युग-उपदेष्टा देखते हैं - हिंसा है, चोरी है, असत्या है, चरित्र-हीनता है, तो कहते हैं : अहिंसा, सत्य, शील, चरित्र का निर्माण करो | लेकिन यह मात्र उपर की अभिव्यक्ति है — उससे रास्ता मिलने वाला नहीं है | मूल में कुछ एसा करो, वैसा करो - यह नहीं है | मैं इससे - आपको सकारण ही - सत्य बोलो, अहिंसा व्रत लो, शील बनो -- एसा कुछ भी कहने नहीं आया | पत्तों और फूलों को नहीं - जड़ों को सींचकर ही --पेड़ को हरा-भरा रखा जा सकता है | आज समाज में ऐसे स्त्रोत खो गये, जिनसे व्यक्तित्व का विकास संभव हो | इससे चरित्र के निर्माण में उपर की अभिव्यक्ति मात्र काम नहीं देगी, मूल में तो कुछ और है |
माओत्सेतुंग चीन के राष्ट्रपति है, बच्चों ने नाम
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सुना होगा | जब वे छोटे थे - माँ ने एक सुंदर बगिया लगा रखी थी | पर उन्हें पता न था - कैसे फूल-पौधे विकास पाते हैं | माँ एक बार बीमार पड़ी -- उन्होंने बगिया के संभाल का काम हाथ लिया | 15 दिन तक खूब - पत्तों और फूलों को नहलाते - पर सारे पौधे उदास और उजाड़ हो गये | माँ ठीक हुई तो देखा - बगिया में प्राण न थे | पूछा : तो हाल विदित हुआ | तब माँ ने कहा: जो उपर दिखता है -- उस पर ही फूल और पत्ते नहीं टीके हैं, जो कुछ दिखता नहीं है - उस पर दिखने की सत्ता कायम है | इससे चरित्र निर्माण भी, कुछ कारण है, जिन पर टिका है | मैं आपसे मूल कारणों की - प्राण की बात करना पसंद करूँगा |
पुराने युग की आस्था ईश्वर-निष्ठा थी | आज यह मूल्य खो गया | 200 वर्ष पूर्व वोल्टेयर एक प्रसिद्द विचारक हुआ - उसने कहा : 'ईश्वर मरणासन्न है |' इसके बाद जर्मनी के विचारक नीत्से ने कहा : ' जो ईश्वर मरणासन्न था, अब वह मर गया |' पर नीत्से को पता नहीं था : कि ईश्वर मरणासन्न होगा तो आदमी को
भी मारना होगा | केवल ईश्वर आस्था पर हम जीते और पलते हैं | ये आस्था आ जाय - तो कुछ उपर से लाने को नहीं | फिर कोई अब्रह्मचारी नहीं होगा - क्योंकि जो भीतर आया है - उससे ब्रह्मचर्य ही फूटेगा | बिना ईश्वर-आस्था के सब कुछ ग़लत है | ईश्वर तो सारे श्रेष्ठ मानव-मूल्यों का इकट्ठा जोड़ है | कोई आकाश में बैठी सत्ता-ईश्वर नहीं है; सारे निराकार मूल्य - ईश्वर में समाहित हैं | ये मूल्य खो जाने से -- जीवन विकृत और शून्य दिखने लगा है | मनोवैज्ञानिकों में मायकोवस्की ने अभी आत्महत्या की और कहा : जीवन में कोई अर्थ नहीं दिखता | किसलिए और क्यों जी रहे हैं ? इससे उसने जीवन खो दिया | आज श्रेष्ठतम लक्ष्य विलीन हो गये हैं --- इससे जीवन कोरा हो गया है | जीवन अर्थकारी केवल ईश्वर आस्था से ही बन सकता है | अन्यथा शेक्सपियर ने जो जीवन के बाबत कहा : वह सच होगा :
“Our life is such that a tale told by an ediot, with full of fary & noise, signifies nothing.“
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यह आज सच हो रहा है | हमारा जीवन कुछ पाने को नहीं; व्यर्थ खो जाने को है --- मृत्यु में समा जाने को | इससे आज मूल्य-विहीन समाज है -- तो कोई आश्चर्य नहीं | जीवन के मूल्य कैसे आयें | चरित्र को इससे अलग से नहीं पाया जा सकता - प्रभु - निष्ठा के साथ ही चरित्र के सारे मूल्य आ जाते हैं | इससे कैसे प्रभु तक पहुँचे -- इस पर पहुँचने की तीन सीढियाँ है | पूरा समूचा विज्ञान है, जो जीवन को बदलता है |
1) -- प्रभु की प्यास को जगाना : इसे योग की भाषा में कहें तो एक धारणा बनाना | एक उद्दात्त जीवन की महत्वाकांक्षा पैदा करना | नदी पहाड़ से निकलकर मैदानों तक आती है | पर यहीं विस्तार पूरा नहीं होता | समुद्र से मिलने तक विकास शेष रहता है | एक ही कल्पना और विचार सागर से मिलने का रहता है | एक दूसरी ओर तालाब है -- कुंठित और अपने में सीमित -- कोई उद्दात्त कल्पना नहीं | इससे समाज भी दो तरह के होते हैं : एक जीवित और महत्वाकांक्षा से भरा समाज -- कुछ करने का पागलपन और दूसरा मृत समाज -- महत्वाकांक्षाहीन | योग की
भाषा में कहें : धारणापूर्ण जीवन -- प्यास न हो तो कुछ नहीं पा सकते | शेख फरीद एक सूफ़ी संत हुआ : उसके जीवन में एक घटना आती है | एक समय -- एक व्यक्ति उससे मिलने आया | पूछा : प्रभु मिलन कैसे हो ? शेख फरीद उसे नदी-स्नान कराने ले गया | नहाते समय (पीछे से) ज़ोर की गर्दन पकड़ कर शेख फरीद ने दबा दी (पानी के अंदर) | वह व्यक्ति खूब छटपटाया -- पर शेख फरीद - छोड़ने को कहाँ | आख़िरी सीमा पर उसने छोड़ा | तो वह व्यक्ति कह उठा
तुम तो हत्यारे हो, शेख फरीद हंसा और कहा : मैं तो तुम्हारी बात का उत्तर दे रहा था | एक बात बताओ : जब तुम पानी में भीतर थे, तब कितनी इच्छाएँ थी | उसने कहा : पानी के भीतर और कितनी इच्छाएँ ? बस केवल एक इच्छा थी कि एक सांस हवा मिल जाय | शेख फरीद तपाक से बोला : बस एसी प्यास जीवन में जग जाय तो प्रभु-मिलन को कोई नहीं रोक सकता | उसके बिना -- जीवन अंधेरा, कोरा और तम से भरा हुआ है | साथ ही गीत की एक-एक पंक्ति -- अपने में अलग-अलग -- कोई महत्व की नहीं होती -- गीत में
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होकर ही -- उसका मूल्य होता है | हमारा जीवन भी अपने में अलग होकर कोई मूल्य का नहीं; प्रभु के विराट अंग में अपना स्थान बना लेने में है | इससे पहला चरण होगा - प्रभु आस्था का, भीतर अपने प्यास को जगाने का |
2) -- मन की एकाग्रता: आज कुछ भी एकाग्र नहीं है | हम यहाँ इतने लोग हैं -- पर सबका मन न मालूम कहाँ-कहाँ होगा | जीतने हम लोग हैं, इतनी ही जगह हमारा मन होगा | कुछ भी एक क्षण को रुका नहीं है | हमारा कुछ भी अधिकार नहीं है | सब कुछ पराया है | इतने विचारों और इच्छओं से भरा हैं कि एक क्षण को भी खाली नहीं है | जापान में एक साधु हुआ नानइन | इसके पास एक समय विश्वविद्यालय का प्रोफ़ेसर -- प्रभु-धर्म आदि के संबंध में जानने पहुँचा | साधु ने कहा : थोड़ी देर आप विश्राम करें -- थक जो गये हैं | बाद साधु ने कहा : इस बीच मैं आपकी थकान मिटाने के लिए चाय बना लाता हूँ और बहुत संभव है कि चाय पीने में ही उत्तर छुपा हो | नानइन चाय लाया, प्याली में ढालता गया, प्याली भर गई, पर वह चाय ढालता ही रहा |
इस पर प्रोफेससार ने कहा : रूकिए ! अब एक बूँद और चाय प्याली में नहीं समा सकेगी | इस पर साधु ने कहा : ठीक, तुम्हारे प्रश्न का उत्तर मिल गया | तुम भी विचारों से इतने भरे हुए हो -- कि कोई भी नया विचार अब उसमें प्रवेश नहीं कर सकता | तुम्हारे मन में कहाँ एक सदविचार रखने को (जगह) है | तुम्हारा मन भागता, दौड़ता रहता है | इस मन को खाली करना होगा -- तब प्रभु प्रकाश प्रवेश कर सकेगा | मन की चंचलता को रोकना होगा | तब फिर एकाग्र मान में प्रभु मिलन होगा | इस बात में सारी क्षुद्र वासनाएँ आपसे विसरजित हो रहेंगी | इससे मैं नहीं कहता : अच्छे नागरिक बनो -- मन को शांत कर लो -- बुराई अपने आप निकल जायगी | अच्छी नागरिकता स्वयं आयगी | आज तो हमारा हाल यह है : हम कहीं भी हों -- मंदिर में भी हों, तो मन एकाग्र नहीं होता | गुरुनानक के जीवन में एक घटना आती है | गुरुनानक के कुछ मुसलमान साथी कहते -- आपको तो संप्रदायों से कोई विरोध नहीं -- तो चलिए आप हमारे साथ नमाज़ पढ़िए | गुरुनानक ने कहा : मैं चलूँगा, लेकिन एक शर्त है कि आप नमाज़ पढ़ेंगे -- तो मैं पढ़ूंगा | उनके साथियों ने कहा ठीक है,
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हम तो पढ़ते ही हैं, इसमें क्या बात है | गुरुनानक साथ गये नमाज़ पढ़ने, पर खड़े रहे -- उनके साथी बड़े गुस्से में भर आए और सोचते यह कितना धोखा दे रहा है | नमाज़ ख़त्म होते ही वे उनसे नाराज़ हुये | गुरुनानक ने कहा : मैं तो नमाज़ पढ़ता, पर तुम कहाँ नमाज़ पढ़ रहे थे -- तुम तो मेरे प्रति क्रोध से भरे थे -- शर्त टूटी -- इससे में नमाज़ न पढ़ सका | इससे प्रार्थना में बैठ जाने की बात नहीं है -- क्षण भर को मन शांत और प्रभु के साथ कर लेने की बात है | एक क्षण भी शांत रहें -- तो अमृत मिलेगा | एक छोटा सा दिया जला लेने की बात है : अंधेरा दूर हो जायगा | इससे अपने को भूल जा सकें और पूर्ण शांत बने रह सकें | आज समाज में घरों से यह सब उपलब्धि दूर हो गई है -- इससे समाज अशांत दीख पड़ता है | एक समय अकबर शिकार खेलने वन में थे | संध्या घिर आई तो नमाज़ पढ़ने बैठ गये -- नमाज़ के पाबंद थे | एक युवती दूर से अपने प्रेमी से मिलने भागी चली आ रही थी | उसके पैर राजा पर पड़ गए, राजा को बड़ा क्रोध आया | सोचा -- एक तो प्रार्थना में दखल करना ठीक नहीं, फिर मैं तो राजा हूँ | लड़की लौटती
थी -- तो राजा बोल उठा : अशिष्ट तुझे यह पता भी नहीं कि एक राजा प्रार्थना में है और तूने मुझे पैर मारा | युवती बोली मैं तो अपने साधारण प्रेमी से मिलने जा रही थी -- मुझे पता नहीं है -- मैं तो अपने को भूल चुकी थी, पर आप तो सर्वोच्च प्रेमी से मिलने बैठे थे, लेकिन अपने को भूल न सके | इससे बैठना मात्र प्रार्थना के लिये औपचारिक होगा -- जब तक मन भी प्रार्थना में न बैठे -- तब तक प्रार्थना पूरी नहीं होती | इससे दूसरा चरण प्रभु-मिलन का है : एकाग्रता |
३) -- अंतस के सिंहासन को खाली करना : यह सामान्य बात है कि जब भी कोई अतिथि आता है, तो हम अपना सिंहासन उसे दे देते हैं | लेकिन प्रभु-मिलन के लिये : हम अपने सिंहासन पर स्वयं बैठे रहते हैं | अपने 'अहंकार' को बिठाए रखते हैं -- 'मैं' से भरे रहते हैं | इस 'मैं' से अपने को खाली करना है | जब तक यह भीतर बैठा है, प्रभु मिलन नहीं हो सकता | इस दुख से छुटकारा लेने की बात है | यूनान में एक मूर्तिकार हुआ : लोग कहते, वह सजीव मूर्ति गढ़ता था -- असली भी मूर्ति में आ जाता था | यह बात बिल्कुल झूठ ही हो -- लेकिन बहुत-बहुत अर्थ से भरी है | मूर्तिकार की
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