Arvind Jain Notebooks, Vol 1: Difference between revisions
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| rowspan="3" |:84 Pages Notes of Public Meetings Address & Personal Meetings of OSHO with Dignitaries | | rowspan="3" | | ||
:84 Pages Notes of Public Meetings Address & Personal Meetings of OSHO with Dignitaries | |||
:April 61 to July 61. | :April 61 to July 61. | ||
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| rowspan="3" |:बोधिसत्व बाबा साहब अम्बेद्कर के पवित्र जन्म-दिवस पर आकर मैं आपका अनुग्रहित हूँ | वे ज़मीन पर शरीर की तरह जन्मे लेकिन उनका असली जन्म तब हुआ, जब उन्होंने भगवान बुद्ध के धर्म में दीक्षा ली | इससे प्रत्येक मनुष्य के दो जन्म होते हैं - एक शरीर का सामान्य जन्म और दूसरा धर्म में होकर - सच्चा जन्म | दूसरे जीवन से ही - जीवन में महत्ता और गरिमा प्रगट होती है | इससे मैं डा. साहब के सामान्य जीवन पर विचार न कर, भगवान बुद्ध के संदेश से वे क्यों प्रभावित हुए - इस पर ही विचार करता हूँ | | | rowspan="3" | | ||
:बोधिसत्व बाबा साहब अम्बेद्कर के पवित्र जन्म-दिवस पर आकर मैं आपका अनुग्रहित हूँ | वे ज़मीन पर शरीर की तरह जन्मे लेकिन उनका असली जन्म तब हुआ, जब उन्होंने भगवान बुद्ध के धर्म में दीक्षा ली | इससे प्रत्येक मनुष्य के दो जन्म होते हैं - एक शरीर का सामान्य जन्म और दूसरा धर्म में होकर - सच्चा जन्म | दूसरे जीवन से ही - जीवन में महत्ता और गरिमा प्रगट होती है | इससे मैं डा. साहब के सामान्य जीवन पर विचार न कर, भगवान बुद्ध के संदेश से वे क्यों प्रभावित हुए - इस पर ही विचार करता हूँ | | |||
:उनने भारत में बौद्ध धर्म को पुनः 1,000 वर्ष बाद स्थापित किया और भारत में इस धर्म के अभाव से विलुप्त नैतिक और धार्मिक समृद्धता को जगाया | कौन सा मार्ग है ? उस संबंध की थोड़ी सी बातें मैं - आपसे करूँगा - ताकि जीवन सार्थक हो सके | | :उनने भारत में बौद्ध धर्म को पुनः 1,000 वर्ष बाद स्थापित किया और भारत में इस धर्म के अभाव से विलुप्त नैतिक और धार्मिक समृद्धता को जगाया | कौन सा मार्ग है ? उस संबंध की थोड़ी सी बातें मैं - आपसे करूँगा - ताकि जीवन सार्थक हो सके | | ||
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| rowspan="3" |:विचारक ने प्रवचन करते हुये कहा था : हमारा युग आस्था से हीन हो गया है | पर मुझे लगता है कि पहले अधार्मिक को ईश्वर के न होने में और धार्मिक को ईश्वर के होने में आस्था थी | पर आज का युग दोनों ओर से उपेक्षा में भर गया है | इससे, अनास्था को आस्था में पहले बदलना आसान था, लेकिन अब उपेक्षा को विचार में बदलना कठिन है | मुझे जो शांति यहाँ रखी भगवान बुद्ध की मूर्ति में दिख रही है, आज कोई भी व्यक्ति वैसा शांत नहीं दीखता | इससे जीवन भर का होना महत्व का नहीं है, कैसे शांत हुआ जाय - बैचेनी, परेशानी, दुख और गहरी पीड़ा से मुक्त हुआ जाय - इसकी जीवन-साधना 2500 वर्ष पूर्व भारत में भगवान बुद्ध से उदित हुई | यह गंभीर वैज्ञानिक साधना हमारे आस्था शून्य, मूल्य विहीन समाज में पुनः शांति स्थापित करे - इसकी बात मैं आपसे करूँगा | | | rowspan="3" | | ||
:विचारक ने प्रवचन करते हुये कहा था : हमारा युग आस्था से हीन हो गया है | पर मुझे लगता है कि पहले अधार्मिक को ईश्वर के न होने में और धार्मिक को ईश्वर के होने में आस्था थी | पर आज का युग दोनों ओर से उपेक्षा में भर गया है | इससे, अनास्था को आस्था में पहले बदलना आसान था, लेकिन अब उपेक्षा को विचार में बदलना कठिन है | मुझे जो शांति यहाँ रखी भगवान बुद्ध की मूर्ति में दिख रही है, आज कोई भी व्यक्ति वैसा शांत नहीं दीखता | इससे जीवन भर का होना महत्व का नहीं है, कैसे शांत हुआ जाय - बैचेनी, परेशानी, दुख और गहरी पीड़ा से मुक्त हुआ जाय - इसकी जीवन-साधना 2500 वर्ष पूर्व भारत में भगवान बुद्ध से उदित हुई | यह गंभीर वैज्ञानिक साधना हमारे आस्था शून्य, मूल्य विहीन समाज में पुनः शांति स्थापित करे - इसकी बात मैं आपसे करूँगा | | |||
:एक छोटी सी कहानी से मैं अपनी चर्चा प्रारंभ करता हूँ | एक जापानी बौद्ध कथा है | एक अँधा - अपने मित्र से मिलने गया | रात लौटने लगा तो मित्र ने एक लालटेन साथ लेने को कहा | पर अंधे ने कहा : मुझे | :एक छोटी सी कहानी से मैं अपनी चर्चा प्रारंभ करता हूँ | एक जापानी बौद्ध कथा है | एक अँधा - अपने मित्र से मिलने गया | रात लौटने लगा तो मित्र ने एक लालटेन साथ लेने को कहा | पर अंधे ने कहा : मुझे | ||
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| 4 - 5 | | 4 - 5 | ||
| rowspan="3" |:तो हम अपने से अपरिचित रह जायेंगे | परिणामतः जीवन दुखी रहता है | सब मार्गों पर भगवान बुद्ध ने चल के देखा; खुद परखा | 6 - 7 वर्षों तक शरीर की तपश्चर्या की - मार्ग न मिला | कहा कि : दो प्रकार की परंपरा - एक भोग के मार्ग पर चलकर - सुख पाना; पर एक क्षण भी भोग में शांति नहीं | जिनके पास बहुत धन है - वे भी दुखी हैं | प्रश्न यह नहीं कि हमारे पास कितना है ? हमारी भूख कितनी है - इससे दरिद्रता बढ़ती है | हमारे पास एक रुपया है और अब इच्छा नहीं है - पर एक करोड़ हैं और ज़्यादा चाहते की माँग बनी है - तो हम बड़े भिखमंगे - साबित होंगे | इससे तृष्णा कभी नहीं होती | इसके दूसरी ओर कुछ लोग - सब छोड़ने की बात करते हैं | एक और भोग की तो दूसरी त्याग की अति रहती है | मन की शांत स्थिति जब सब पकड़ छूट जाती है - तब आती है | | | rowspan="3" | | ||
:तो हम अपने से अपरिचित रह जायेंगे | परिणामतः जीवन दुखी रहता है | सब मार्गों पर भगवान बुद्ध ने चल के देखा; खुद परखा | 6 - 7 वर्षों तक शरीर की तपश्चर्या की - मार्ग न मिला | कहा कि : दो प्रकार की परंपरा - एक भोग के मार्ग पर चलकर - सुख पाना; पर एक क्षण भी भोग में शांति नहीं | जिनके पास बहुत धन है - वे भी दुखी हैं | प्रश्न यह नहीं कि हमारे पास कितना है ? हमारी भूख कितनी है - इससे दरिद्रता बढ़ती है | हमारे पास एक रुपया है और अब इच्छा नहीं है - पर एक करोड़ हैं और ज़्यादा चाहते की माँग बनी है - तो हम बड़े भिखमंगे - साबित होंगे | इससे तृष्णा कभी नहीं होती | इसके दूसरी ओर कुछ लोग - सब छोड़ने की बात करते हैं | एक और भोग की तो दूसरी त्याग की अति रहती है | मन की शांत स्थिति जब सब पकड़ छूट जाती है - तब आती है | | |||
:राजा श्रौण - खूब भोगकर - पूर्ण त्याग के जीवन में उतरा | पत्थरों पर चलता - तो खूब खून झरता | सोचा क्यों न ग्रहस्थी सुख में वापस लौटू | पर भगवान बुद्ध से मिला ; पूछा सितार या वीणा बजाते | :राजा श्रौण - खूब भोगकर - पूर्ण त्याग के जीवन में उतरा | पत्थरों पर चलता - तो खूब खून झरता | सोचा क्यों न ग्रहस्थी सुख में वापस लौटू | पर भगवान बुद्ध से मिला ; पूछा सितार या वीणा बजाते | ||
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| 6 - 7 | | 6 - 7 | ||
| rowspan="3" |:इससे अंतिम निर्वाण संभव होगा | | | rowspan="3" | | ||
:इससे अंतिम निर्वाण संभव होगा | | |||
:हम अपने मन की स्थिति को देखें - हर क्षण एक स्वप्न चल रहा है - आप तक मेरी बात पूरी नहीं - पहुँच पा रही है | भीतर आपके विचारों की प्रक्रिया जारी है | इच्छाओं के पर्दे से बात नहीं पहुँचेगी | हम जाग नहीं पाते | जहाँ होते हैं - वहाँ नहीं होते | ठीक से जागरूक अवस्था : बुद्धत्व की है | मन और कर्म के बीच एका किया | | :हम अपने मन की स्थिति को देखें - हर क्षण एक स्वप्न चल रहा है - आप तक मेरी बात पूरी नहीं - पहुँच पा रही है | भीतर आपके विचारों की प्रक्रिया जारी है | इच्छाओं के पर्दे से बात नहीं पहुँचेगी | हम जाग नहीं पाते | जहाँ होते हैं - वहाँ नहीं होते | ठीक से जागरूक अवस्था : बुद्धत्व की है | मन और कर्म के बीच एका किया | | ||
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| 8 - 9 | | 8 - 9 | ||
| rowspan="3" |:पर यहाँ पता नहीं ? पहुँचा श्राविका के यहाँ - तो भोजन में वही मिला जो सोचा था | - सोचा शायद संयोग हो | पर भोजन उपरांत विश्राम की इच्छा हुई - श्राविका ने विश्राम कर लेने को कहा | अब तो साधक आश्चर्य में था - पूछा -तो उत्तर मिला कि : भगवान के चरणों में रहकर मैंने — मन-पर्याय ज्ञान प्राप्त किया है | अब तो साधक घबड़ाया - सोचा कहीं और भी गंदे विचार न पढ़ लिए जाएं | भागा पहुँचा - भगवान के पास और कहा वहाँ मैं न जाऊँगा | भगवान ने कहा : जाना होगा | <u>साथ ही एक बात उससे कही कि जाना पर, एक -एक विचार देख कर जाना</u> | कथा कहती है : 3 माह में वह अर्हत पद पर दीक्षित हुआ | अपने भीतर के शत्रु को जीत लिया | उससे मुक्त कर लिया | | | rowspan="3" | | ||
:पर यहाँ पता नहीं ? पहुँचा श्राविका के यहाँ - तो भोजन में वही मिला जो सोचा था | - सोचा शायद संयोग हो | पर भोजन उपरांत विश्राम की इच्छा हुई - श्राविका ने विश्राम कर लेने को कहा | अब तो साधक आश्चर्य में था - पूछा -तो उत्तर मिला कि : भगवान के चरणों में रहकर मैंने — मन-पर्याय ज्ञान प्राप्त किया है | अब तो साधक घबड़ाया - सोचा कहीं और भी गंदे विचार न पढ़ लिए जाएं | भागा पहुँचा - भगवान के पास और कहा वहाँ मैं न जाऊँगा | भगवान ने कहा : जाना होगा | <u>साथ ही एक बात उससे कही कि जाना पर, एक -एक विचार देख कर जाना</u> | कथा कहती है : 3 माह में वह अर्हत पद पर दीक्षित हुआ | अपने भीतर के शत्रु को जीत लिया | उससे मुक्त कर लिया | | |||
:मनोवैज्ञानिक : मन का विश्लेषण करते हुये कहते हैं कि हमारे भीतर - जो गंदा है - सारे को यदि प्रगट किया जाय - तो 10 बार भी फाँसी की सज़ा का होना कम है | इससे मन के प्रति जागरूक होने का मार्ग है | एक-एक क्षण की निंद्रा या बेहोशी - ठीक नहीं है | मनुष्य को दुखी होने का कोई कारण नहीं है : ना सम- | :मनोवैज्ञानिक : मन का विश्लेषण करते हुये कहते हैं कि हमारे भीतर - जो गंदा है - सारे को यदि प्रगट किया जाय - तो 10 बार भी फाँसी की सज़ा का होना कम है | इससे मन के प्रति जागरूक होने का मार्ग है | एक-एक क्षण की निंद्रा या बेहोशी - ठीक नहीं है | मनुष्य को दुखी होने का कोई कारण नहीं है : ना सम- | ||
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| 10 - 11 | | 10 - 11 | ||
| rowspan="3" |:सूख गया - खून बंद हो गया जैसे - देखा वह एक बड़ा हीरा था | झोली भर व्यर्थ गवाँ दिए | हमारा जीवन भी समय के अनंत हीरों को खोता चला जाता है, जब एक क्षण शेष रहे जीवन का तब शायद हीरा-हीरा समझ में आता है | अप्राप्त की इच्छा में - प्राप्त हीरे हम फेंकते चले जाते हैं | सारे धर्म- दुख के कारण मिटाने को हैं | ये मिट जाते हैं | ध्यान योग से - समतुलित या सम-जीवन दृष्टि से | भगवान बुद्ध सबके शास्ता हैं : वे हों या न हों | कोई उनके धर्म को माने या न माने | सबको उनके मार्ग से आनंद मिलने को ही है | सबके लिए सूरज का प्रकाश उपलब्ध है | सबके लिए उनका द्वार खुला है | डा. अम्बेद्कर ने पुनः भारत में द्वार खोला, इससे उनके द्वारा महान उद्द्घोश को जो बुद्ध धर्म-भारत में उनने लाया - और आप सब नव्य दीक्षित बौद्धों को में हृदय से बधाई देता हूँ | | | rowspan="3" | | ||
:सूख गया - खून बंद हो गया जैसे - देखा वह एक बड़ा हीरा था | झोली भर व्यर्थ गवाँ दिए | हमारा जीवन भी समय के अनंत हीरों को खोता चला जाता है, जब एक क्षण शेष रहे जीवन का तब शायद हीरा-हीरा समझ में आता है | अप्राप्त की इच्छा में - प्राप्त हीरे हम फेंकते चले जाते हैं | सारे धर्म- दुख के कारण मिटाने को हैं | ये मिट जाते हैं | ध्यान योग से - समतुलित या सम-जीवन दृष्टि से | भगवान बुद्ध सबके शास्ता हैं : वे हों या न हों | कोई उनके धर्म को माने या न माने | सबको उनके मार्ग से आनंद मिलने को ही है | सबके लिए सूरज का प्रकाश उपलब्ध है | सबके लिए उनका द्वार खुला है | डा. अम्बेद्कर ने पुनः भारत में द्वार खोला, इससे उनके द्वारा महान उद्द्घोश को जो बुद्ध धर्म-भारत में उनने लाया - और आप सब नव्य दीक्षित बौद्धों को में हृदय से बधाई देता हूँ | | |||
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| 12 - 13 | | 12 - 13 | ||
| rowspan="3" |:तुम्हें नहीं है, पर सामने से आते व्यक्ति को प्रकाश दिखेगा - तो टक्कर न हो सकेगी | अंधे ने बात मान ली और लालटेन साथ लेकर 100 कदम ही आगे बढ़ा होगा कि सामने से आते व्यक्ति से टक्कर हुई | अंधे ने कहा : भई ! मैं तो अँधा हूँ, पर क्या प्रकाश तुम्हें भी दिखाई नहीं पड़ता | जवाब मिला : लालटेन का प्रकाश ही बुझ गया है -- तो टक्कर होना स्वाभाविक थी | आज के युग में भी गहरी टक्कर, राष्ट्र-राष्ट्र, पति-पत्नी, मित्र-मित्र, बच्चे-पिता-माँ --- सबमें दिख पड़ती है, लेकिन क्या कारण है ? प्रकाश बुझ गया है --- मानव-मूल्य विनष्ट हो गये है | इससे टक्कर तो स्पष्ट दिखती है, पर मूल में कारण क्या है ? इसकी खोज करना है | स्पष्ट है कि प्रकाश फैलाने वाली चीज़ें बुझ गई हैं | शांत व्यक्तित्व का निर्माण मुश्किल बात हो गई है, सारे जगत का मानव परेशान है | अभी एक निज़िन्स्की नमक प्रसिद्द चित्रकार ने आत्म-हत्या की | मृत्यु के पूर्व उसने गहरे काले और लाल रंग के चित्र अपने कमरे में लगा रखे | | rowspan="3" | | ||
:तुम्हें नहीं है, पर सामने से आते व्यक्ति को प्रकाश दिखेगा - तो टक्कर न हो सकेगी | अंधे ने बात मान ली और लालटेन साथ लेकर 100 कदम ही आगे बढ़ा होगा कि सामने से आते व्यक्ति से टक्कर हुई | अंधे ने कहा : भई ! मैं तो अँधा हूँ, पर क्या प्रकाश तुम्हें भी दिखाई नहीं पड़ता | जवाब मिला : लालटेन का प्रकाश ही बुझ गया है -- तो टक्कर होना स्वाभाविक थी | आज के युग में भी गहरी टक्कर, राष्ट्र-राष्ट्र, पति-पत्नी, मित्र-मित्र, बच्चे-पिता-माँ --- सबमें दिख पड़ती है, लेकिन क्या कारण है ? प्रकाश बुझ गया है --- मानव-मूल्य विनष्ट हो गये है | इससे टक्कर तो स्पष्ट दिखती है, पर मूल में कारण क्या है ? इसकी खोज करना है | स्पष्ट है कि प्रकाश फैलाने वाली चीज़ें बुझ गई हैं | शांत व्यक्तित्व का निर्माण मुश्किल बात हो गई है, सारे जगत का मानव परेशान है | अभी एक निज़िन्स्की नमक प्रसिद्द चित्रकार ने आत्म-हत्या की | मृत्यु के पूर्व उसने गहरे काले और लाल रंग के चित्र अपने कमरे में लगा रखे | |||
:थे | देखकर कमरा कब्रिस्तान जैसा प्रतीत होता | पूछने पर वह कहता - दुनियाँ कुछ एसी ही हो गयी है; में क्या करूँ ? प्रकाश बुझता जाता है, इससे मनुष्य और उसके ज्ञान की मृत्यु के पूर्व ही, मैं अपने को समाप्त कर लेना उचित समझता हूँ | | :थे | देखकर कमरा कब्रिस्तान जैसा प्रतीत होता | पूछने पर वह कहता - दुनियाँ कुछ एसी ही हो गयी है; में क्या करूँ ? प्रकाश बुझता जाता है, इससे मनुष्य और उसके ज्ञान की मृत्यु के पूर्व ही, मैं अपने को समाप्त कर लेना उचित समझता हूँ | | ||
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| 14 - 15 | | 14 - 15 | ||
| rowspan="3" |:सुना होगा | जब वे छोटे थे - माँ ने एक सुंदर बगिया लगा रखी थी | पर उन्हें पता न था - कैसे फूल-पौधे विकास पाते हैं | माँ एक बार बीमार पड़ी -- उन्होंने बगिया के संभाल का काम हाथ लिया | 15 दिन तक खूब - पत्तों और फूलों को नहलाते - पर सारे पौधे उदास और उजाड़ हो गये | माँ ठीक हुई तो देखा - बगिया में प्राण न थे | पूछा : तो हाल विदित हुआ | तब माँ ने कहा: जो उपर दिखता है -- उस पर ही फूल और पत्ते नहीं टीके हैं, जो कुछ दिखता नहीं है - उस पर दिखने की सत्ता कायम है | इससे चरित्र निर्माण भी, कुछ कारण है, जिन पर टिका है | मैं आपसे मूल कारणों की - प्राण की बात करना पसंद करूँगा | | | rowspan="3" | | ||
:सुना होगा | जब वे छोटे थे - माँ ने एक सुंदर बगिया लगा रखी थी | पर उन्हें पता न था - कैसे फूल-पौधे विकास पाते हैं | माँ एक बार बीमार पड़ी -- उन्होंने बगिया के संभाल का काम हाथ लिया | 15 दिन तक खूब - पत्तों और फूलों को नहलाते - पर सारे पौधे उदास और उजाड़ हो गये | माँ ठीक हुई तो देखा - बगिया में प्राण न थे | पूछा : तो हाल विदित हुआ | तब माँ ने कहा: जो उपर दिखता है -- उस पर ही फूल और पत्ते नहीं टीके हैं, जो कुछ दिखता नहीं है - उस पर दिखने की सत्ता कायम है | इससे चरित्र निर्माण भी, कुछ कारण है, जिन पर टिका है | मैं आपसे मूल कारणों की - प्राण की बात करना पसंद करूँगा | | |||
:पुराने युग की आस्था ईश्वर-निष्ठा थी | आज यह मूल्य खो गया | 200 वर्ष पूर्व वोल्टेयर एक प्रसिद्द विचारक हुआ - उसने कहा : 'ईश्वर मरणासन्न है |' इसके बाद जर्मनी के विचारक नीत्से ने कहा : ' जो ईश्वर मरणासन्न था, अब वह मर गया |' पर नीत्से को पता नहीं था : कि ईश्वर मरणासन्न होगा तो आदमी को | :पुराने युग की आस्था ईश्वर-निष्ठा थी | आज यह मूल्य खो गया | 200 वर्ष पूर्व वोल्टेयर एक प्रसिद्द विचारक हुआ - उसने कहा : 'ईश्वर मरणासन्न है |' इसके बाद जर्मनी के विचारक नीत्से ने कहा : ' जो ईश्वर मरणासन्न था, अब वह मर गया |' पर नीत्से को पता नहीं था : कि ईश्वर मरणासन्न होगा तो आदमी को | ||
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| 16 - 17 | | 16 - 17 | ||
| rowspan="3" |:यह आज सच हो रहा है | हमारा जीवन कुछ पाने को नहीं; व्यर्थ खो जाने को है --- मृत्यु में समा जाने को | इससे आज मूल्य-विहीन समाज है -- तो कोई आश्चर्य नहीं | जीवन के मूल्य कैसे आयें | चरित्र को इससे अलग से नहीं पाया जा सकता - प्रभु - निष्ठा के साथ ही चरित्र के सारे मूल्य आ जाते हैं | इससे कैसे प्रभु तक पहुँचे -- इस पर पहुँचने की तीन सीढियाँ है | पूरा समूचा विज्ञान है, जो जीवन को बदलता है | | | rowspan="3" | | ||
:यह आज सच हो रहा है | हमारा जीवन कुछ पाने को नहीं; व्यर्थ खो जाने को है --- मृत्यु में समा जाने को | इससे आज मूल्य-विहीन समाज है -- तो कोई आश्चर्य नहीं | जीवन के मूल्य कैसे आयें | चरित्र को इससे अलग से नहीं पाया जा सकता - प्रभु - निष्ठा के साथ ही चरित्र के सारे मूल्य आ जाते हैं | इससे कैसे प्रभु तक पहुँचे -- इस पर पहुँचने की तीन सीढियाँ है | पूरा समूचा विज्ञान है, जो जीवन को बदलता है | | |||
:1) -- प्रभु की प्यास को जगाना : इसे योग की भाषा में कहें तो एक धारणा बनाना | एक उद्दात्त जीवन की महत्वाकांक्षा पैदा करना | नदी पहाड़ से निकलकर मैदानों तक आती है | पर यहीं विस्तार पूरा नहीं होता | समुद्र से मिलने तक विकास शेष रहता है | एक ही कल्पना और विचार सागर से मिलने का रहता है | एक दूसरी ओर तालाब है -- कुंठित और अपने में सीमित -- कोई उद्दात्त कल्पना नहीं | इससे समाज भी दो तरह के होते हैं : एक जीवित और महत्वाकांक्षा से भरा समाज -- कुछ करने का पागलपन और दूसरा मृत समाज -- महत्वाकांक्षाहीन | योग की | :1) -- प्रभु की प्यास को जगाना : इसे योग की भाषा में कहें तो एक धारणा बनाना | एक उद्दात्त जीवन की महत्वाकांक्षा पैदा करना | नदी पहाड़ से निकलकर मैदानों तक आती है | पर यहीं विस्तार पूरा नहीं होता | समुद्र से मिलने तक विकास शेष रहता है | एक ही कल्पना और विचार सागर से मिलने का रहता है | एक दूसरी ओर तालाब है -- कुंठित और अपने में सीमित -- कोई उद्दात्त कल्पना नहीं | इससे समाज भी दो तरह के होते हैं : एक जीवित और महत्वाकांक्षा से भरा समाज -- कुछ करने का पागलपन और दूसरा मृत समाज -- महत्वाकांक्षाहीन | योग की | ||
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| 18 - 19 | | 18 - 19 | ||
| rowspan="3" |:होकर ही -- उसका मूल्य होता है | हमारा जीवन भी अपने में अलग होकर कोई मूल्य का नहीं; प्रभु के विराट अंग में अपना स्थान बना लेने में है | इससे पहला चरण होगा - प्रभु आस्था का, भीतर अपने प्यास को जगाने का | | | rowspan="3" | | ||
:होकर ही -- उसका मूल्य होता है | हमारा जीवन भी अपने में अलग होकर कोई मूल्य का नहीं; प्रभु के विराट अंग में अपना स्थान बना लेने में है | इससे पहला चरण होगा - प्रभु आस्था का, भीतर अपने प्यास को जगाने का | | |||
:2) -- मन की एकाग्रता: आज कुछ भी एकाग्र नहीं है | हम यहाँ इतने लोग हैं -- पर सबका मन न मालूम कहाँ-कहाँ होगा | जीतने हम लोग हैं, इतनी ही जगह हमारा मन होगा | कुछ भी एक क्षण को रुका नहीं है | हमारा कुछ भी अधिकार नहीं है | सब कुछ पराया है | इतने विचारों और इच्छओं से भरा हैं कि एक क्षण को भी खाली नहीं है | जापान में एक साधु हुआ नानइन | इसके पास एक समय विश्वविद्यालय का प्रोफ़ेसर -- प्रभु-धर्म आदि के संबंध में जानने पहुँचा | साधु ने कहा : थोड़ी देर आप विश्राम करें -- थक जो गये हैं | बाद साधु ने कहा : इस बीच मैं आपकी थकान मिटाने के लिए चाय बना लाता हूँ और बहुत संभव है कि चाय पीने में ही उत्तर छुपा हो | नानइन चाय लाया, प्याली में ढालता गया, प्याली भर गई, पर वह चाय ढालता ही रहा | | :2) -- मन की एकाग्रता: आज कुछ भी एकाग्र नहीं है | हम यहाँ इतने लोग हैं -- पर सबका मन न मालूम कहाँ-कहाँ होगा | जीतने हम लोग हैं, इतनी ही जगह हमारा मन होगा | कुछ भी एक क्षण को रुका नहीं है | हमारा कुछ भी अधिकार नहीं है | सब कुछ पराया है | इतने विचारों और इच्छओं से भरा हैं कि एक क्षण को भी खाली नहीं है | जापान में एक साधु हुआ नानइन | इसके पास एक समय विश्वविद्यालय का प्रोफ़ेसर -- प्रभु-धर्म आदि के संबंध में जानने पहुँचा | साधु ने कहा : थोड़ी देर आप विश्राम करें -- थक जो गये हैं | बाद साधु ने कहा : इस बीच मैं आपकी थकान मिटाने के लिए चाय बना लाता हूँ और बहुत संभव है कि चाय पीने में ही उत्तर छुपा हो | नानइन चाय लाया, प्याली में ढालता गया, प्याली भर गई, पर वह चाय ढालता ही रहा | | ||
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| 20 - 21 | | 20 - 21 | ||
| rowspan="3" |:हम तो पढ़ते ही हैं, इसमें क्या बात है | गुरुनानक साथ गये नमाज़ पढ़ने, पर खड़े रहे -- उनके साथी बड़े गुस्से में भर आए और सोचते यह कितना धोखा दे रहा है | नमाज़ ख़त्म होते ही वे उनसे नाराज़ हुये | गुरुनानक ने कहा : मैं तो नमाज़ पढ़ता, पर तुम कहाँ नमाज़ पढ़ रहे थे -- तुम तो मेरे प्रति क्रोध से भरे थे -- शर्त टूटी -- इससे में नमाज़ न पढ़ सका | इससे प्रार्थना में बैठ जाने की बात नहीं है -- क्षण भर को मन शांत और प्रभु के साथ कर लेने की बात है | एक क्षण भी शांत रहें -- तो अमृत मिलेगा | एक छोटा सा दिया जला लेने की बात है : अंधेरा दूर हो जायगा | इससे अपने को भूल जा सकें और पूर्ण शांत बने रह सकें | आज समाज में घरों से यह सब उपलब्धि दूर हो गई है -- इससे समाज अशांत दीख पड़ता है | एक समय अकबर शिकार खेलने वन में थे | संध्या घिर आई तो नमाज़ पढ़ने बैठ गये -- नमाज़ के पाबंद थे | एक युवती दूर से अपने प्रेमी से मिलने भागी चली आ रही थी | उसके पैर राजा पर पड़ गए, राजा को बड़ा क्रोध आया | सोचा -- एक तो प्रार्थना में दखल करना ठीक नहीं, फिर मैं तो राजा हूँ | लड़की लौटती | | rowspan="3" | | ||
:हम तो पढ़ते ही हैं, इसमें क्या बात है | गुरुनानक साथ गये नमाज़ पढ़ने, पर खड़े रहे -- उनके साथी बड़े गुस्से में भर आए और सोचते यह कितना धोखा दे रहा है | नमाज़ ख़त्म होते ही वे उनसे नाराज़ हुये | गुरुनानक ने कहा : मैं तो नमाज़ पढ़ता, पर तुम कहाँ नमाज़ पढ़ रहे थे -- तुम तो मेरे प्रति क्रोध से भरे थे -- शर्त टूटी -- इससे में नमाज़ न पढ़ सका | इससे प्रार्थना में बैठ जाने की बात नहीं है -- क्षण भर को मन शांत और प्रभु के साथ कर लेने की बात है | एक क्षण भी शांत रहें -- तो अमृत मिलेगा | एक छोटा सा दिया जला लेने की बात है : अंधेरा दूर हो जायगा | इससे अपने को भूल जा सकें और पूर्ण शांत बने रह सकें | आज समाज में घरों से यह सब उपलब्धि दूर हो गई है -- इससे समाज अशांत दीख पड़ता है | एक समय अकबर शिकार खेलने वन में थे | संध्या घिर आई तो नमाज़ पढ़ने बैठ गये -- नमाज़ के पाबंद थे | एक युवती दूर से अपने प्रेमी से मिलने भागी चली आ रही थी | उसके पैर राजा पर पड़ गए, राजा को बड़ा क्रोध आया | सोचा -- एक तो प्रार्थना में दखल करना ठीक नहीं, फिर मैं तो राजा हूँ | लड़की लौटती | |||
:थी -- तो राजा बोल उठा : अशिष्ट तुझे यह पता भी नहीं कि एक राजा प्रार्थना में है और तूने मुझे पैर मारा | युवती बोली मैं तो अपने साधारण प्रेमी से मिलने जा रही थी -- मुझे पता नहीं है -- मैं तो अपने को भूल चुकी थी, पर आप तो सर्वोच्च प्रेमी से मिलने बैठे थे, लेकिन अपने को भूल न सके | इससे बैठना मात्र प्रार्थना के लिये औपचारिक होगा -- जब तक मन भी प्रार्थना में न बैठे -- तब तक प्रार्थना पूरी नहीं होती | इससे दूसरा चरण प्रभु-मिलन का है : एकाग्रता | | :थी -- तो राजा बोल उठा : अशिष्ट तुझे यह पता भी नहीं कि एक राजा प्रार्थना में है और तूने मुझे पैर मारा | युवती बोली मैं तो अपने साधारण प्रेमी से मिलने जा रही थी -- मुझे पता नहीं है -- मैं तो अपने को भूल चुकी थी, पर आप तो सर्वोच्च प्रेमी से मिलने बैठे थे, लेकिन अपने को भूल न सके | इससे बैठना मात्र प्रार्थना के लिये औपचारिक होगा -- जब तक मन भी प्रार्थना में न बैठे -- तब तक प्रार्थना पूरी नहीं होती | इससे दूसरा चरण प्रभु-मिलन का है : एकाग्रता | | ||
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|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 22 - 23 | | 22 - 23 | ||
| rowspan="3" |:मौत आई, उसने मौत को धोखा देने के लिए 11 ठीक अपने जैसी ही मूर्तियाँ बनाई और उनके बीच वह भी खड़ा हो गया | मौत हैरान थी -- ठीक एक जैसे 12 लोग हैं - किसे ले जाय | मौत अपने लोक वापस लौटी -- वहाँ से एक सूत्र लेकर आई | कमरे में आकर कहा : मूर्तियाँ - बहुत-बहुत सुंदर बनी हैं, एक छोटी सी भूल रह गई है | मूर्तिकार बोल उठा : कौन सी भूल | मौत ने कहा : बस यही भूल कि तुम अपने को नहीं भूल सके कि मूर्ति तुमने बनाई हैं | कहानी कहती है : मूर्तिकार अपने अहं को विसर्जित नहीं कर सका - ( यह कि वह सृश्टा है ) इससे वह दुख-पीड़ा और मृत्यु के पार न जा सका, उसकी मौत हुई | इससे केवल इस न कुछ को दूर कर सब कुछ को पाया जा सकता है | 10 जीवन में भी हम यदि इसे मिटा पाएं --- तो हमें बहुत कुछ मिल जायगा | | | rowspan="3" | | ||
:मौत आई, उसने मौत को धोखा देने के लिए 11 ठीक अपने जैसी ही मूर्तियाँ बनाई और उनके बीच वह भी खड़ा हो गया | मौत हैरान थी -- ठीक एक जैसे 12 लोग हैं - किसे ले जाय | मौत अपने लोक वापस लौटी -- वहाँ से एक सूत्र लेकर आई | कमरे में आकर कहा : मूर्तियाँ - बहुत-बहुत सुंदर बनी हैं, एक छोटी सी भूल रह गई है | मूर्तिकार बोल उठा : कौन सी भूल | मौत ने कहा : बस यही भूल कि तुम अपने को नहीं भूल सके कि मूर्ति तुमने बनाई हैं | कहानी कहती है : मूर्तिकार अपने अहं को विसर्जित नहीं कर सका - ( यह कि वह सृश्टा है ) इससे वह दुख-पीड़ा और मृत्यु के पार न जा सका, उसकी मौत हुई | इससे केवल इस न कुछ को दूर कर सब कुछ को पाया जा सकता है | 10 जीवन में भी हम यदि इसे मिटा पाएं --- तो हमें बहुत कुछ मिल जायगा | | |||
:मैने आपसे प्रभु-मिलन की, इस उद्दात्त अवस्था को पाने की 3 बातें कहीं | पहली बात, प्रभु-मिलन की प्यास जगाना; दूसरी बात -- मन को एकाग्र करना और तीसरी बात, अपने स्वयं के सिंहासन को खाली करना | इसे योग की | :मैने आपसे प्रभु-मिलन की, इस उद्दात्त अवस्था को पाने की 3 बातें कहीं | पहली बात, प्रभु-मिलन की प्यास जगाना; दूसरी बात -- मन को एकाग्र करना और तीसरी बात, अपने स्वयं के सिंहासन को खाली करना | इसे योग की | ||
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|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 24 - 25 | | 24 - 25 | ||
| rowspan="3" |:करके -- उठाया जा सकता है | | | rowspan="3" | | ||
:करके -- उठाया जा सकता है | | |||
:मैं अपनी चर्चा को एक इटालियन मछुआ की कहानी - समय के विज्ञान के संबंध में कहकर - समाप्त करूँगा यह मछुआ - एक दिन सुबह जल्दी उठकर--- नदी -तट पर आया | भोर के तारे उपर थे, उसने नदी तट पर एक झोली पाई - उसे कंकड़-पत्थर की समझ वह नाव पर उसे रख - अपनी नाव पर बढ़ चला | सोचा नाव पर कि : खूब मछली लाकर खूब पैसा इकट्ठा करके - उस चट्टान के पास एक मकान बनाऊंगा और झोले से कई मुट्ठी भरकर - चट्टान पर वे कंकड़-पत्थर बरसाए कि इतना धन इकट्ठा करूँगा | और आगे बढ़ा सोचा फिर इतनी मुट्ठी भर-भर भिक्षा दूँगा - और कंकड़-पत्थर निकालकर फेंकने लगा | यों वह फेंकता गया | आख़िर में जब केवल एक कंकड़ रह गया- तो सुबह की किरणें फुट आईं थीं - देखा उसे तो खून सूख गया - वह कंकड़ नहीं - वह एक बड़ा हीरा था | खूब पश्चाताप किया - एक झोली भर व्यर्थ ही गवाँ दिए | इससे एक-एक क्षण को हम व्यर्थ भविष्य में जो अप्राप्त है - उसकी चाह में खो रहे हैं | और जो | :मैं अपनी चर्चा को एक इटालियन मछुआ की कहानी - समय के विज्ञान के संबंध में कहकर - समाप्त करूँगा यह मछुआ - एक दिन सुबह जल्दी उठकर--- नदी -तट पर आया | भोर के तारे उपर थे, उसने नदी तट पर एक झोली पाई - उसे कंकड़-पत्थर की समझ वह नाव पर उसे रख - अपनी नाव पर बढ़ चला | सोचा नाव पर कि : खूब मछली लाकर खूब पैसा इकट्ठा करके - उस चट्टान के पास एक मकान बनाऊंगा और झोले से कई मुट्ठी भरकर - चट्टान पर वे कंकड़-पत्थर बरसाए कि इतना धन इकट्ठा करूँगा | और आगे बढ़ा सोचा फिर इतनी मुट्ठी भर-भर भिक्षा दूँगा - और कंकड़-पत्थर निकालकर फेंकने लगा | यों वह फेंकता गया | आख़िर में जब केवल एक कंकड़ रह गया- तो सुबह की किरणें फुट आईं थीं - देखा उसे तो खून सूख गया - वह कंकड़ नहीं - वह एक बड़ा हीरा था | खूब पश्चाताप किया - एक झोली भर व्यर्थ ही गवाँ दिए | इससे एक-एक क्षण को हम व्यर्थ भविष्य में जो अप्राप्त है - उसकी चाह में खो रहे हैं | और जो | ||
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|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 26 - 27 | | 26 - 27 | ||
| rowspan="3" |:मेरे मित्रों, | | rowspan="3" | | ||
:मेरे मित्रों, | |||
:मैं आप सबके बीच आकर अनुग्रहित हूँ | पवित्र पूनम के दिवस अभी मैं रास्ते पर था - तो आनंद और सुख के बोध से भरा रहा | पूरे चाँद की रात खिल रही है, पूरा जगत अदभुत आनंद और सौंदर्य से भर उठा है | पर एक गहरी पीड़ा आज आदमी के मन को घेरे है, उसमें सौंदर्य और आनंद का लोप हो गया है | एसा लगता है, जैसे मनुष्य के मन के अंधेरे की फूटने की घड़ी आती ही नहीं | पूरे मानवीय इतिहास में बड़े-बड़े लोग हुए, जिनकी खोज मनुष्य को आनंद और शांति की राह बताना रहा है - दुखी होने की राह नहीं | और एक अजीब बात है कि आदमी- आनंद के केंद्र में दुखी होता रहता है | इससे मैं एक ही बात आपसे कहता हूँ कि - मनुष्य को दुखी होने का कोई अधिकार नहीं है | अपने हाथ वह दुखी बना रहता है | इससे कैसे आंतरिक शांति में आया जाय - इस पर मैं आपसे चर्चा करूँगा | आज 2,500 वर्ष के बाद भी बुद्ध के शांत | :मैं आप सबके बीच आकर अनुग्रहित हूँ | पवित्र पूनम के दिवस अभी मैं रास्ते पर था - तो आनंद और सुख के बोध से भरा रहा | पूरे चाँद की रात खिल रही है, पूरा जगत अदभुत आनंद और सौंदर्य से भर उठा है | पर एक गहरी पीड़ा आज आदमी के मन को घेरे है, उसमें सौंदर्य और आनंद का लोप हो गया है | एसा लगता है, जैसे मनुष्य के मन के अंधेरे की फूटने की घड़ी आती ही नहीं | पूरे मानवीय इतिहास में बड़े-बड़े लोग हुए, जिनकी खोज मनुष्य को आनंद और शांति की राह बताना रहा है - दुखी होने की राह नहीं | और एक अजीब बात है कि आदमी- आनंद के केंद्र में दुखी होता रहता है | इससे मैं एक ही बात आपसे कहता हूँ कि - मनुष्य को दुखी होने का कोई अधिकार नहीं है | अपने हाथ वह दुखी बना रहता है | इससे कैसे आंतरिक शांति में आया जाय - इस पर मैं आपसे चर्चा करूँगा | आज 2,500 वर्ष के बाद भी बुद्ध के शांत | ||
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|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 28 - 29 | | 28 - 29 | ||
| rowspan="3" |:माँगने को कहा : तो उत्तर मिला, कि जमी से अमरीका का निशान मिट जाए - तो मुझे वर मिल गया समझिये | अमरीका के प्रतिनिधि ने वर में चाहा कि रूस की सत्ता विनष्ट हो जाए - तो मुझे वर मिल गया समझिये | ब्रिटेन ने चाहा कि भगवन् ! इन दोनों की मनोकामना पूरी हो जाए तो मेरी मनोकामना पूरी हुई समझिये | आज ये नक्शा दुनियाँ का हो गया है | इससे विचारणीय है कि बाहर कैसे मार्ग मिले | दुनियाँ से आत्मिक जीवन की उपलब्धि समाप्त हो गई है, परिणामतः व्यक्ति समाज और राष्ट्रों की चेतना में - अशांति व्याप्त है | व्यक्ति अशांत है - इससे जगत भी क्योंकि व्यक्ति से फैलकर जगत बनता है - और इससे समस्या व्यक्ति के शांत होने की है | इससे सर्वप्रथम हमें शांत हो आना है | एसी ही पीड़ा - परेशानी - अशांति और अज्ञान का अंधेरा - बुद्ध ने देखा और जाना | कहा जाता है : बुद्ध समाज और वस्तुओं को छोड़कर भाग गये - पलायानवादी हैं | पर, मैं तो कहता हूँ कि किसी के घर में आग लगी | | rowspan="3" | | ||
:माँगने को कहा : तो उत्तर मिला, कि जमी से अमरीका का निशान मिट जाए - तो मुझे वर मिल गया समझिये | अमरीका के प्रतिनिधि ने वर में चाहा कि रूस की सत्ता विनष्ट हो जाए - तो मुझे वर मिल गया समझिये | ब्रिटेन ने चाहा कि भगवन् ! इन दोनों की मनोकामना पूरी हो जाए तो मेरी मनोकामना पूरी हुई समझिये | आज ये नक्शा दुनियाँ का हो गया है | इससे विचारणीय है कि बाहर कैसे मार्ग मिले | दुनियाँ से आत्मिक जीवन की उपलब्धि समाप्त हो गई है, परिणामतः व्यक्ति समाज और राष्ट्रों की चेतना में - अशांति व्याप्त है | व्यक्ति अशांत है - इससे जगत भी क्योंकि व्यक्ति से फैलकर जगत बनता है - और इससे समस्या व्यक्ति के शांत होने की है | इससे सर्वप्रथम हमें शांत हो आना है | एसी ही पीड़ा - परेशानी - अशांति और अज्ञान का अंधेरा - बुद्ध ने देखा और जाना | कहा जाता है : बुद्ध समाज और वस्तुओं को छोड़कर भाग गये - पलायानवादी हैं | पर, मैं तो कहता हूँ कि किसी के घर में आग लगी | |||
:हो - तो उसमें वह कैसे खड़ा रह सकता है | जापान के एक पागलख़ाने में आग लगी | नीचे की मंज़िल के लोग - बाहर आ गये - पर उपर की मंज़िल के लोग रुके रहे - गहरे पागल थे - चिल्ला रहे थे - बाहर निकले लोगों को - कायर हो - डर के कारण भाग रहे हो, भीतर ही रहो - मुकाबला करना चाहिए | इससे बुद्ध - महावीर - ईसा - सबको दिखा कि जगत लपटों से घिरा है - ये सब महापुरुष इससे शुद्ध, शांति और सौंदर्य को जानने गये | हमें इससे जानना चाहिए कि बाहर आने के क्या अर्थ है | यह बुद्ध की साधना को देखके जाना जा सकता है | | :हो - तो उसमें वह कैसे खड़ा रह सकता है | जापान के एक पागलख़ाने में आग लगी | नीचे की मंज़िल के लोग - बाहर आ गये - पर उपर की मंज़िल के लोग रुके रहे - गहरे पागल थे - चिल्ला रहे थे - बाहर निकले लोगों को - कायर हो - डर के कारण भाग रहे हो, भीतर ही रहो - मुकाबला करना चाहिए | इससे बुद्ध - महावीर - ईसा - सबको दिखा कि जगत लपटों से घिरा है - ये सब महापुरुष इससे शुद्ध, शांति और सौंदर्य को जानने गये | हमें इससे जानना चाहिए कि बाहर आने के क्या अर्थ है | यह बुद्ध की साधना को देखके जाना जा सकता है | | ||
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|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 30 - 31 | | 30 - 31 | ||
| rowspan="3" |:आती है | वे अपनी साधना में थे - धन -वैभव - विलास - सबको छोड़ा था | एक सांझ उन्होंने देखा कि सामने बड़ा हीरा पड़ा है | उठा लेने को मन हुआ | पर सोचा - हीरा अब भी आकर्षित करता है - इससे आँखें बंद कर लीं | इस बीच दो युवक वहाँ से निकले - कौन पहले हीरा उठाये - इस पर लड़ाई हो उठी - तलवारें चल निकलीं | दोनों का जीवन समाप्त हो गया - और हीरा वहीं पड़ा रह गया | इससे व्यर्थ में हमारे जीवन चले जाते हैं - और बहुमूल्य ज्ञान, हीरा सब कुछ यहीं पड़ा रह जाता है | मेरी जीवन-ज्योति बुझे - मैं चला जाउँ - इसके पूर्व जाग लेना है | बुद्ध सब कुछ छोड़के गये - लेकिन आनंद पाया | हम सोचेंगे तो कहेंगे - बुद्ध ने कष्टपूर्ण, त्याग का जीवन अपनाया | लेकिन बुद्ध की तरफ से सोचिए - आप तो उनने विराट को पाकर - क्षुद्र को छोड़ा था, मृत्यु की जगह - अमृत को पाया | इससे - बुद्ध और महावीर - त्यागी नहीं - त्यागी तो हम हैं - जो निकृष्ट को ही पकड़े रहते हैं - और अमृत को | | rowspan="3" | | ||
:आती है | वे अपनी साधना में थे - धन -वैभव - विलास - सबको छोड़ा था | एक सांझ उन्होंने देखा कि सामने बड़ा हीरा पड़ा है | उठा लेने को मन हुआ | पर सोचा - हीरा अब भी आकर्षित करता है - इससे आँखें बंद कर लीं | इस बीच दो युवक वहाँ से निकले - कौन पहले हीरा उठाये - इस पर लड़ाई हो उठी - तलवारें चल निकलीं | दोनों का जीवन समाप्त हो गया - और हीरा वहीं पड़ा रह गया | इससे व्यर्थ में हमारे जीवन चले जाते हैं - और बहुमूल्य ज्ञान, हीरा सब कुछ यहीं पड़ा रह जाता है | मेरी जीवन-ज्योति बुझे - मैं चला जाउँ - इसके पूर्व जाग लेना है | बुद्ध सब कुछ छोड़के गये - लेकिन आनंद पाया | हम सोचेंगे तो कहेंगे - बुद्ध ने कष्टपूर्ण, त्याग का जीवन अपनाया | लेकिन बुद्ध की तरफ से सोचिए - आप तो उनने विराट को पाकर - क्षुद्र को छोड़ा था, मृत्यु की जगह - अमृत को पाया | इससे - बुद्ध और महावीर - त्यागी नहीं - त्यागी तो हम हैं - जो निकृष्ट को ही पकड़े रहते हैं - और अमृत को | |||
:नहीं पा पाते | | :नहीं पा पाते | | ||
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|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 32 - 33 | | 32 - 33 | ||
| rowspan="3" |:नहीं, इस और उस पार दोनों से मुक्ति का है | न तो भोग और न त्याग - न तो हिंसा और न अहिंसा - बहुत कांत द्रष्टा थे - बहगवान बुद्ध | एक काँटा हमें लगता है - तो दूसरे काँटे को भी चुभाया नहीं जा सकता | दूसरे काँटे को तो हम पहले काँटे के निकालने में उपयोग करते हैं | लेकिन - इस दूसरे काँटे को भी हम घाव में नहीं रखते - उसे भी निकालकर फेंक देना होता है | इससे बुद्ध का मार्ग कहता है कि ब्रह्मचर्य तो हो, लेकिन ब्रह्मचर्य को पकड़ मन में न बैठ रहे - इस पकड़ को भी निकल देना है | मनुष्य का स्वाभाव - दोनों से मुक्त | कुछ भी पकड़ रखने को नहीं | न तो राग और न विराग - वरन वीतराग का मार्ग बुद्ध का है | इस माध्यमिक प्रतिपदा की साधना से होकर बुद्ध गुज़रे | 6 वर्ष की लंबी शरीर की तपश्चर्या से बुद्ध का कोई वास्ता नहीं | | | rowspan="3" | | ||
:नहीं, इस और उस पार दोनों से मुक्ति का है | न तो भोग और न त्याग - न तो हिंसा और न अहिंसा - बहुत कांत द्रष्टा थे - बहगवान बुद्ध | एक काँटा हमें लगता है - तो दूसरे काँटे को भी चुभाया नहीं जा सकता | दूसरे काँटे को तो हम पहले काँटे के निकालने में उपयोग करते हैं | लेकिन - इस दूसरे काँटे को भी हम घाव में नहीं रखते - उसे भी निकालकर फेंक देना होता है | इससे बुद्ध का मार्ग कहता है कि ब्रह्मचर्य तो हो, लेकिन ब्रह्मचर्य को पकड़ मन में न बैठ रहे - इस पकड़ को भी निकल देना है | मनुष्य का स्वाभाव - दोनों से मुक्त | कुछ भी पकड़ रखने को नहीं | न तो राग और न विराग - वरन वीतराग का मार्ग बुद्ध का है | इस माध्यमिक प्रतिपदा की साधना से होकर बुद्ध गुज़रे | 6 वर्ष की लंबी शरीर की तपश्चर्या से बुद्ध का कोई वास्ता नहीं | | |||
:बुद्ध ने कहा : मन को दमन करके नहीं जीता जा सकता | इस सिद्धांत को आज के युग के सारे मनोवैज्ञानिक मानते हैं - और आज से २,500 | :बुद्ध ने कहा : मन को दमन करके नहीं जीता जा सकता | इस सिद्धांत को आज के युग के सारे मनोवैज्ञानिक मानते हैं - और आज से २,500 | ||
Line 268: | Line 286: | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 34 - 35 | | 34 - 35 | ||
| rowspan="3" |:पड़ीं | इस तरह बहुत से लोग हैं, जो दमन के मार्ग पर चलते हैं | चाहे तो आप इसे प्रयोग करके देख सकते हैं | मन में आप सोचिये कि आपको 'राम' का नाम या ध्यान के समय 'बंदर' का स्मरण न आए - तो आप पाएँगे कि जितनी ताक़त से आप इसे - इनकारी करेंगे - उसकी दुगनी ताक़त से वह याद आएगा | इससे अब्रह्मचर्य, असत्य - इनको दमन से नहीं - विसर्जन करके जीतना होगा | बुद्ध ने मन से विसर्जन करने के विज्ञान का मार्ग बताया | बिना इसके जीवन की कोई उपलब्धि नहीं है | भोग और त्याग के विसर्जन से बुद्ध को 'सम्यक-संबोधि' प्राप्त हुई | इसे ज्ञान, शील और समाधि की तीन सीढ़ियों में जाना जा सकता है | | | rowspan="3" | | ||
:पड़ीं | इस तरह बहुत से लोग हैं, जो दमन के मार्ग पर चलते हैं | चाहे तो आप इसे प्रयोग करके देख सकते हैं | मन में आप सोचिये कि आपको 'राम' का नाम या ध्यान के समय 'बंदर' का स्मरण न आए - तो आप पाएँगे कि जितनी ताक़त से आप इसे - इनकारी करेंगे - उसकी दुगनी ताक़त से वह याद आएगा | इससे अब्रह्मचर्य, असत्य - इनको दमन से नहीं - विसर्जन करके जीतना होगा | बुद्ध ने मन से विसर्जन करने के विज्ञान का मार्ग बताया | बिना इसके जीवन की कोई उपलब्धि नहीं है | भोग और त्याग के विसर्जन से बुद्ध को 'सम्यक-संबोधि' प्राप्त हुई | इसे ज्ञान, शील और समाधि की तीन सीढ़ियों में जाना जा सकता है | | |||
:आज हमारे युग में - चरित्र, आचरण, सत्य और न जाने क्या-क्या व्यक्ति को करना चाहिए - इस बात पर सारे उपदेशक ज़ोर देते हैं | यह सुनकर अजीब लगता है कि ज्ञान आज बहुत बढ़ा है, लेकिन चरित्र और आचरण हीनता भी उसी अनुपात | :आज हमारे युग में - चरित्र, आचरण, सत्य और न जाने क्या-क्या व्यक्ति को करना चाहिए - इस बात पर सारे उपदेशक ज़ोर देते हैं | यह सुनकर अजीब लगता है कि ज्ञान आज बहुत बढ़ा है, लेकिन चरित्र और आचरण हीनता भी उसी अनुपात | ||
Line 282: | Line 301: | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 36 - 37 | | 36 - 37 | ||
| rowspan="3" |:पत्तों को खूब नहलाता था - पर पता नहीं क्यों बगिया सूख गई ? तब माँ ने जो कहा : उसे माओ त्से तुंग जीवन की प्रत्येक समस्याओं पर उपयोग करते हैं | माँ ने कहा था : कि जो जड़ें दिखतीं नहीं - उन पर बगिया के फूल-पत्ते टीके हैं | जो उपलब्ध है - वह अनुपलब्ध पर - जो दिखता नहीं - उस पर टीका है | इससे ज्ञान मूल जड़ या आधार है | ज्ञानवान - चरित्रहीन नहीं हो सकता | किताब और शास्त्रीय ज्ञान से - ज्ञान नहीं या पूस्तकालय की हिफ़ाज़त करने वाले को ज्ञान नहीं आता | अपनी मेहनत से केवल, अपना देखा ज्ञान है | ज्ञान से शील अपने आप आता है और समाधि बाद की उपलब्धि है | एक के बाद एक का क्रमिक विकास है | यह विकास ज़बरदस्ती नहीं लाया जा सकता | जैसे कलियाँ - फूल - अनायास एक दिन खिल उठती हैं - वैसे ही ज्ञान में हो आने से उपलब्धियाँ - सरल और अपने आप आती हैं | ज्ञान में हो आने का बहुत सरल और आसान मार्ग है | व्यर्थ की कष्ट-शरीर साधना पर ज़ोर नहीं है | जीवन की दुश्चरित्रता | | rowspan="3" | | ||
:पत्तों को खूब नहलाता था - पर पता नहीं क्यों बगिया सूख गई ? तब माँ ने जो कहा : उसे माओ त्से तुंग जीवन की प्रत्येक समस्याओं पर उपयोग करते हैं | माँ ने कहा था : कि जो जड़ें दिखतीं नहीं - उन पर बगिया के फूल-पत्ते टीके हैं | जो उपलब्ध है - वह अनुपलब्ध पर - जो दिखता नहीं - उस पर टीका है | इससे ज्ञान मूल जड़ या आधार है | ज्ञानवान - चरित्रहीन नहीं हो सकता | किताब और शास्त्रीय ज्ञान से - ज्ञान नहीं या पूस्तकालय की हिफ़ाज़त करने वाले को ज्ञान नहीं आता | अपनी मेहनत से केवल, अपना देखा ज्ञान है | ज्ञान से शील अपने आप आता है और समाधि बाद की उपलब्धि है | एक के बाद एक का क्रमिक विकास है | यह विकास ज़बरदस्ती नहीं लाया जा सकता | जैसे कलियाँ - फूल - अनायास एक दिन खिल उठती हैं - वैसे ही ज्ञान में हो आने से उपलब्धियाँ - सरल और अपने आप आती हैं | ज्ञान में हो आने का बहुत सरल और आसान मार्ग है | व्यर्थ की कष्ट-शरीर साधना पर ज़ोर नहीं है | जीवन की दुश्चरित्रता | |||
:नकारात्मक है | अंधेरा भरा हुआ है - जिसकी भी सत्ता नकारात्मक है - इसे लाख गाँव के पहलवान निकालने का प्रयत्न करें - कितने ही धक्के दें - तो अंधेरा निकालने वाला नहीं है | अंधेरे की कोई सत्ता नहीं है -- केवल ज्ञान का एक छोटा सा दिया जला लें -- तो अंधेरे की सत्ता -- अपने आप समाप्त हो जायगी | यह अंधेरा चाहे एक रात का हो या हज़ार वर्ष का - प्रकाश को अंधेरे की लंबाई से कोई संबंध नहीं | इससे यह प्रश्न फ़िजूल है कि जन्म-जन्मान्तर में पापों की या अंधेरे की समाप्ति होगी ? तात्कालिक और एक क्षण में - मुक्ति बुद्ध के मार्ग से पाई जा सकती है | प्रकाश - तत्काल ही अंधेरे को समाप्त कर देता है | पश्चिम में सुकरात एक विचारक हुआ - कहता था वह - ज्ञान ही चरित्र है | ज्ञान तो हमें सबको उपलब्ध है - केवल उसे जानना है | मुझे यदि पता हो कि आग में हाथ डालने से - वह जलेगा - तो आग में हाथ कभी नहीं जायेगा | लेकिन आज पंडित के जीवन में भी पाप दिखता है - पर इसे | :नकारात्मक है | अंधेरा भरा हुआ है - जिसकी भी सत्ता नकारात्मक है - इसे लाख गाँव के पहलवान निकालने का प्रयत्न करें - कितने ही धक्के दें - तो अंधेरा निकालने वाला नहीं है | अंधेरे की कोई सत्ता नहीं है -- केवल ज्ञान का एक छोटा सा दिया जला लें -- तो अंधेरे की सत्ता -- अपने आप समाप्त हो जायगी | यह अंधेरा चाहे एक रात का हो या हज़ार वर्ष का - प्रकाश को अंधेरे की लंबाई से कोई संबंध नहीं | इससे यह प्रश्न फ़िजूल है कि जन्म-जन्मान्तर में पापों की या अंधेरे की समाप्ति होगी ? तात्कालिक और एक क्षण में - मुक्ति बुद्ध के मार्ग से पाई जा सकती है | प्रकाश - तत्काल ही अंधेरे को समाप्त कर देता है | पश्चिम में सुकरात एक विचारक हुआ - कहता था वह - ज्ञान ही चरित्र है | ज्ञान तो हमें सबको उपलब्ध है - केवल उसे जानना है | मुझे यदि पता हो कि आग में हाथ डालने से - वह जलेगा - तो आग में हाथ कभी नहीं जायेगा | लेकिन आज पंडित के जीवन में भी पाप दिखता है - पर इसे | ||
Line 292: | Line 312: | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 38 - 39 | | 38 - 39 | ||
| rowspan="3" |:कोई आश्चर्य की बात नहीं मानना चाहिए | बुद्ध ने ज्ञान को सूचनात्मक और दूसरा अनुभूति से उपलब्ध - इन दो श्रेणियों में रखा है | खुद के प्रयास और चेष्टा से उपलब्ध अनुभूति ही ज्ञान दे सकती है | किसी दूसरे का ज्ञान व्यर्थ है | इससे बुद्ध ने कहा : कि मैं किसी का शास्ता या गुरु नहीं हूँ | वे किसी के मार्ग-दृष्ता नहीं थे | अहंकार की बात है यह कि : ' मेरी शरण में आओ |' मैं पैगंबर हूँ, मैं ही अंतिम हूँ - जिससे तुम पा सकोगे - लेकिन आपको जानना है कि प्रत्येक को अपने भीतर - अपना प्रकाश स्वयं पाना है | इससे उस युग में जो 8 बड़े तीर्थंकर हुये - मक्खली गोशाल, अजीत केस-कंबल, आदि उनके द्वारा अपने को सदगुरु कहा जाना या शास्ता कहा जाना - केवल अहंकार है | कोई किसी का गुरु नहीं, अपना दीपक स्वयं बनाना होता है | | | rowspan="3" | | ||
:कोई आश्चर्य की बात नहीं मानना चाहिए | बुद्ध ने ज्ञान को सूचनात्मक और दूसरा अनुभूति से उपलब्ध - इन दो श्रेणियों में रखा है | खुद के प्रयास और चेष्टा से उपलब्ध अनुभूति ही ज्ञान दे सकती है | किसी दूसरे का ज्ञान व्यर्थ है | इससे बुद्ध ने कहा : कि मैं किसी का शास्ता या गुरु नहीं हूँ | वे किसी के मार्ग-दृष्ता नहीं थे | अहंकार की बात है यह कि : ' मेरी शरण में आओ |' मैं पैगंबर हूँ, मैं ही अंतिम हूँ - जिससे तुम पा सकोगे - लेकिन आपको जानना है कि प्रत्येक को अपने भीतर - अपना प्रकाश स्वयं पाना है | इससे उस युग में जो 8 बड़े तीर्थंकर हुये - मक्खली गोशाल, अजीत केस-कंबल, आदि उनके द्वारा अपने को सदगुरु कहा जाना या शास्ता कहा जाना - केवल अहंकार है | कोई किसी का गुरु नहीं, अपना दीपक स्वयं बनाना होता है | | |||
:एक बड़े नगर में एक व्यक्ति की आँखें खराब हुईं - लोग उससे ठीक कराने को कहते | वह कहता मेरे 8 पुत्र, 8 बहुएँ और मेरी पत्नी की कुल मिलाकर | :एक बड़े नगर में एक व्यक्ति की आँखें खराब हुईं - लोग उससे ठीक कराने को कहते | वह कहता मेरे 8 पुत्र, 8 बहुएँ और मेरी पत्नी की कुल मिलाकर | ||
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| 40 - 41 | | 40 - 41 | ||
| rowspan="3" |:कि बौद्ध धर्म का भारत से लोप हुआ | कुछ न मिलने का - मिलने की जगह पीठ मोड़ लेने का - मात्र अकेले आदमी का अकेले अपने में रह जाना - यह अनासक्तका उपलब्धि का संदेश बुद्ध का है | मोक्ष पाने के लिए भी मोक्ष को छोड़ देना | | | rowspan="3" | | ||
:कि बौद्ध धर्म का भारत से लोप हुआ | कुछ न मिलने का - मिलने की जगह पीठ मोड़ लेने का - मात्र अकेले आदमी का अकेले अपने में रह जाना - यह अनासक्तका उपलब्धि का संदेश बुद्ध का है | मोक्ष पाने के लिए भी मोक्ष को छोड़ देना | | |||
:आज सारे विश्व में बौद्ध धर्म पुनरुज्जिवित हो रहा है - साथ ही भारत में - यह प्रसन्नता की बात है | लेकिन - बुद्ध ने कोई धर्म और संप्रदाय नहीं बनाया | इससे हमारे नगर के नव्य-बौद्ध - यह विचार सामने रखें कि भगवान बुद्ध को सांप्रदायिकता से मुक्त रखें | बुद्ध मुक्त व्यक्ति थे | किसी की भी उनके मार्ग पर बपौती नहीं -- यदि इस बात का ध्यान रखा - तो उनकी वाणी बहुत-बहुत अर्थकारी हो सकती है | उनका मार्ग हमारे लिए भी मार्ग बन जाय - ज्ञान से शील और फिर समाधि की विकास शृंखला में हम हो रहें - तो शांति और आनंद बहेगा | इससे मैं फिर आपसे कहता हूँ कि किसी भी व्यक्ति को दुखी होने का कोई अधिकार नहीं है | | :आज सारे विश्व में बौद्ध धर्म पुनरुज्जिवित हो रहा है - साथ ही भारत में - यह प्रसन्नता की बात है | लेकिन - बुद्ध ने कोई धर्म और संप्रदाय नहीं बनाया | इससे हमारे नगर के नव्य-बौद्ध - यह विचार सामने रखें कि भगवान बुद्ध को सांप्रदायिकता से मुक्त रखें | बुद्ध मुक्त व्यक्ति थे | किसी की भी उनके मार्ग पर बपौती नहीं -- यदि इस बात का ध्यान रखा - तो उनकी वाणी बहुत-बहुत अर्थकारी हो सकती है | उनका मार्ग हमारे लिए भी मार्ग बन जाय - ज्ञान से शील और फिर समाधि की विकास शृंखला में हम हो रहें - तो शांति और आनंद बहेगा | इससे मैं फिर आपसे कहता हूँ कि किसी भी व्यक्ति को दुखी होने का कोई अधिकार नहीं है | | ||
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| 42 - 43 | | 42 - 43 | ||
| rowspan="3" |:माँ - अब मुझे अपना कुछ इकट्ठा नहीं करना है | वह तो क्रमशः धूलेगा - और एक क्षण आएगा - जब सब ज्ञान की रोशनी से - अपने आप विलीन हो जायेगा | पूज्य बड़े भैयाजी - जो कुछ विचारते - अनुभूतिगत ज्ञान पाते उसी को लिपि बद्द करने का मन है - इससे अपनी कम समझ से ही सही : जो कुछ भी दिन प्रतिदिन जीवन में भैयाजी से सुनने - समझने को मिलता है - उसे यहाँ बाँध रहा हूँ | इस आशा में कि कहीं कुछ प्रकाश किसी को भी मिल पाया - तो अपना मार्ग बना पाएगा | | | rowspan="3" | | ||
:माँ - अब मुझे अपना कुछ इकट्ठा नहीं करना है | वह तो क्रमशः धूलेगा - और एक क्षण आएगा - जब सब ज्ञान की रोशनी से - अपने आप विलीन हो जायेगा | पूज्य बड़े भैयाजी - जो कुछ विचारते - अनुभूतिगत ज्ञान पाते उसी को लिपि बद्द करने का मन है - इससे अपनी कम समझ से ही सही : जो कुछ भी दिन प्रतिदिन जीवन में भैयाजी से सुनने - समझने को मिलता है - उसे यहाँ बाँध रहा हूँ | इस आशा में कि कहीं कुछ प्रकाश किसी को भी मिल पाया - तो अपना मार्ग बना पाएगा | | |||
:Written as | :Written as | ||
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| 44 - 45 | | 44 - 45 | ||
| rowspan="3" |:रूप से व्यक्ति अपने को बड़ा बना लेता है | जैसे कि मुझे यह सिद्ध करना हो कि मैं बड़ा आदमी हूँ तो मैं कह सकता हूँ कि ' मेरी संस्कृति महान है और मैं उस संस्कृति का मानने वाला हूँ |' अर्थात मैं महान हूँ | इस तरह संगठन के मूल में गहरा अहंकार बैठा होता है | | | rowspan="3" | | ||
:रूप से व्यक्ति अपने को बड़ा बना लेता है | जैसे कि मुझे यह सिद्ध करना हो कि मैं बड़ा आदमी हूँ तो मैं कह सकता हूँ कि ' मेरी संस्कृति महान है और मैं उस संस्कृति का मानने वाला हूँ |' अर्थात मैं महान हूँ | इस तरह संगठन के मूल में गहरा अहंकार बैठा होता है | | |||
:पेरिस में एक दर्शन-शास्त्र का प्रोफेसर अपने को दुनियाँ का सबसे बड़ा आदमी सिद्ध करने को अपने विद्यार्थियों को तर्क देता कि ' दुनियाँ का सबसे कीमती शहर पेरिस और पेरिस की सबसे मूल्यवान निधि - यूनिवर्सिटी - यूनिवर्सिटी में सबसे अच्छा विषय : दर्शन-शास्त्र और मैं सबसे अच्छा - दर्शन का प्रोफ़ेसर | ' इस तरह वह अपने को दुनियाँ का सबसे बड़ा आदमी बताता | | :पेरिस में एक दर्शन-शास्त्र का प्रोफेसर अपने को दुनियाँ का सबसे बड़ा आदमी सिद्ध करने को अपने विद्यार्थियों को तर्क देता कि ' दुनियाँ का सबसे कीमती शहर पेरिस और पेरिस की सबसे मूल्यवान निधि - यूनिवर्सिटी - यूनिवर्सिटी में सबसे अच्छा विषय : दर्शन-शास्त्र और मैं सबसे अच्छा - दर्शन का प्रोफ़ेसर | ' इस तरह वह अपने को दुनियाँ का सबसे बड़ा आदमी बताता | | ||
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| 46 - 47 | | 46 - 47 | ||
| rowspan="3" |:दोनों पर मुझे दया आती है | इनको जैसे कहा जा रहा है कि मैं तुम्हें 1 करोड़ की निधि देता हूँ लेकिन ये तो केवल 1 हज़ार की ही निधि लेने चलते हैं - इससे गहरी दया के पात्र और कौन हो सकते हैं | | | rowspan="3" | | ||
:दोनों पर मुझे दया आती है | इनको जैसे कहा जा रहा है कि मैं तुम्हें 1 करोड़ की निधि देता हूँ लेकिन ये तो केवल 1 हज़ार की ही निधि लेने चलते हैं - इससे गहरी दया के पात्र और कौन हो सकते हैं | | |||
:आज के युग का ख़तरा बढ़ा है कि व्यक्ति तो भीतर से विघटित हो गया है - लेकिन समाज संघटित हो गया | गाँधीजी ने समाज के विकेंद्रित होने की बात अपनाई लेकिन और गहराई पर जाने पर व्यक्ति तो केंद्रित हो - लेकिन समाज विकेंद्रित | इससे आने वाला धर्म - व्यक्ति - केंद्रित होगा | एक बेहतर और सुखी समाज का निर्माण इससे सुलभ और स्वाभाविक होगा | | :आज के युग का ख़तरा बढ़ा है कि व्यक्ति तो भीतर से विघटित हो गया है - लेकिन समाज संघटित हो गया | गाँधीजी ने समाज के विकेंद्रित होने की बात अपनाई लेकिन और गहराई पर जाने पर व्यक्ति तो केंद्रित हो - लेकिन समाज विकेंद्रित | इससे आने वाला धर्म - व्यक्ति - केंद्रित होगा | एक बेहतर और सुखी समाज का निर्माण इससे सुलभ और स्वाभाविक होगा | | ||
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| 48 - 49 | | 48 - 49 | ||
| rowspan="3" |:भेद - शुक्ल जी का बना हुआ है | इससे उन्हें वासना का दिखना स्वाभाविक था | हर व्यक्ति बस मात्र - जैसा वह दर्पण लिए होता है - उसमें उसे वैसा दिखता है - यही स्वाभाविक भी है | | | rowspan="3" | | ||
:भेद - शुक्ल जी का बना हुआ है | इससे उन्हें वासना का दिखना स्वाभाविक था | हर व्यक्ति बस मात्र - जैसा वह दर्पण लिए होता है - उसमें उसे वैसा दिखता है - यही स्वाभाविक भी है | | |||
:लेकिन - वस्तुएँ जैसे हैं - केवल वैसी दिख आना - अपना बोध और प्रतीति का बीच में न आना - यह Objective दृष्टि होती है | जैसे में बगीचे में आया हूँ - तो कोई फूल सुंदर हो उठे कोई कम सुंदर -- या असुंदर, इस तरह अपने बोध को लगाना नहीं -- बस मात्र मैं फूलों को देखता हूँ -- और कुछ नहीं करता -- तो जैसे वे है - दीख आयेंगे -- इस दिखने की अनुभूति ही - जीवन को मुक्ति देती है | तथ्य मात्र भर दिख आते हैं - उसके अतिरिक्त और कुछ नहीं | | :लेकिन - वस्तुएँ जैसे हैं - केवल वैसी दिख आना - अपना बोध और प्रतीति का बीच में न आना - यह Objective दृष्टि होती है | जैसे में बगीचे में आया हूँ - तो कोई फूल सुंदर हो उठे कोई कम सुंदर -- या असुंदर, इस तरह अपने बोध को लगाना नहीं -- बस मात्र मैं फूलों को देखता हूँ -- और कुछ नहीं करता -- तो जैसे वे है - दीख आयेंगे -- इस दिखने की अनुभूति ही - जीवन को मुक्ति देती है | तथ्य मात्र भर दिख आते हैं - उसके अतिरिक्त और कुछ नहीं | | ||
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|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 50 - 51 | | 50 - 51 | ||
| rowspan="3" |:घोषणा की कि - ' ईश्वर मरणासन्न है| ' बाद नीत्से ने कहा : ' God is now dead. ’ इस तरह की घोषणाएँ इसके पूर्व कभी किसी ने नहीं कीं | ईश्वर तो पूरे जीवन की सार्थकता है | जीवन होगा तो ईश्वर मीं होकर ही होगा | रवींद्रनाथ ने ईश्वर-आस्था को पुनः स्थापित किया | ईश्वर पर समर्पण करने का विज्ञान दिया | व्यक्ति को समष्टि के साथ संयुक्त किया | इससे निरंतर एक-एक कदम कवि के साथ रखने पर ही उनके काव्य को जाना जा सकता है | रवींद्रनाथ कोरे कवि नहीं थे - काव्य तो बाहर था पर भीतर उपलब्धियाँ थीं | भीतर की उपलब्धियों से बाहर के जीवन में सजीवता व्यक्त हुई | कुछ भीतर उपलब्ध हुआ था, जो बहुत-बहुत महान था | पर, रवींद्रनाथ कहते : प्रभु लोग कहते हैं मैं गीत गाता हूँ, लेकिन मेरा तो सारा जीवन साज़ सजाने में ही बीत गया - गीत तो निकल ही नहीं पाये | स्पष्ट है कि अनुभूति को पूरे शब्दों में नहीं या अंतः को दूसरों तक मात्र शब्दों से नहीं पहुँचाया जा सकता | | | rowspan="3" | | ||
:घोषणा की कि - ' ईश्वर मरणासन्न है| ' बाद नीत्से ने कहा : ' God is now dead. ’ इस तरह की घोषणाएँ इसके पूर्व कभी किसी ने नहीं कीं | ईश्वर तो पूरे जीवन की सार्थकता है | जीवन होगा तो ईश्वर मीं होकर ही होगा | रवींद्रनाथ ने ईश्वर-आस्था को पुनः स्थापित किया | ईश्वर पर समर्पण करने का विज्ञान दिया | व्यक्ति को समष्टि के साथ संयुक्त किया | इससे निरंतर एक-एक कदम कवि के साथ रखने पर ही उनके काव्य को जाना जा सकता है | रवींद्रनाथ कोरे कवि नहीं थे - काव्य तो बाहर था पर भीतर उपलब्धियाँ थीं | भीतर की उपलब्धियों से बाहर के जीवन में सजीवता व्यक्त हुई | कुछ भीतर उपलब्ध हुआ था, जो बहुत-बहुत महान था | पर, रवींद्रनाथ कहते : प्रभु लोग कहते हैं मैं गीत गाता हूँ, लेकिन मेरा तो सारा जीवन साज़ सजाने में ही बीत गया - गीत तो निकल ही नहीं पाये | स्पष्ट है कि अनुभूति को पूरे शब्दों में नहीं या अंतः को दूसरों तक मात्र शब्दों से नहीं पहुँचाया जा सकता | | |||
:रवींद्रनाथ ने जो छुआ वह काव्य में बह निकला | क्या जीवन साधना थी - इस पर में आपसे चर्चा करना पसंद करूँगा -- | :रवींद्रनाथ ने जो छुआ वह काव्य में बह निकला | क्या जीवन साधना थी - इस पर में आपसे चर्चा करना पसंद करूँगा -- | ||
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|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 52 - 53 | | 52 - 53 | ||
| rowspan="3" |:का कोई अधिकार नहीं | अपने व्यक्तिगत अहंकार को विसर्जित कर - सागर में मिल जाने पर - अनंत की, आनंद की या सौंदर्य की उपलब्धि होती है | | | rowspan="3" | | ||
:का कोई अधिकार नहीं | अपने व्यक्तिगत अहंकार को विसर्जित कर - सागर में मिल जाने पर - अनंत की, आनंद की या सौंदर्य की उपलब्धि होती है | | |||
:रवीन्द्रनाथ अपनी शांति-निकेतन की कुटिया पर सांझ चाय का सारे अध्यापकों के साथ- आयोजन करते | एक सांझ जब आयोजन हुआ - तो गुरु दयाल मलिक भी उपस्थित थे | - चाँद निकल आया था - आकाश में बादल थे | गुरुदेव - चाय बनाकर लाए और प्यालियों में डाल ही रहे थे कि उनके हाथ कँपने लगे, धीरे-धीरे आँखें बंद हो गईं और गुरुदेव दूसरे लोक में पहुँच गये | सारे अध्यापक उठ कर चले आए | मलिक बाहर कुटिया के पास ही रहे | मलिक ने लिखा कि करीब आध घंटे तक गुरुदेव बेहोश रहे और गीत उनसे बह निकला | बाद आँखें खुली - तो पाया बीच के समय हम सब उनके लिए मिट गये थे | पुनः सब वापिस बुलाए गये - चाय पी - बाद गीत को रवींद्रनाथ ने लिखा | इस तारह उनके गीत अपने नहीं थे - उपनिषद् | :रवीन्द्रनाथ अपनी शांति-निकेतन की कुटिया पर सांझ चाय का सारे अध्यापकों के साथ- आयोजन करते | एक सांझ जब आयोजन हुआ - तो गुरु दयाल मलिक भी उपस्थित थे | - चाँद निकल आया था - आकाश में बादल थे | गुरुदेव - चाय बनाकर लाए और प्यालियों में डाल ही रहे थे कि उनके हाथ कँपने लगे, धीरे-धीरे आँखें बंद हो गईं और गुरुदेव दूसरे लोक में पहुँच गये | सारे अध्यापक उठ कर चले आए | मलिक बाहर कुटिया के पास ही रहे | मलिक ने लिखा कि करीब आध घंटे तक गुरुदेव बेहोश रहे और गीत उनसे बह निकला | बाद आँखें खुली - तो पाया बीच के समय हम सब उनके लिए मिट गये थे | पुनः सब वापिस बुलाए गये - चाय पी - बाद गीत को रवींद्रनाथ ने लिखा | इस तारह उनके गीत अपने नहीं थे - उपनिषद् | ||
Line 427: | Line 455: | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 54 - 55 | | 54 - 55 | ||
| rowspan="3" |:भी क्षुद्र अहं ने प्रभु और प्रभु के राज्य से हमें वंचित रखा है | पूरी भारतीय इतिहास की संस्कृति ने पुराने 5,000 वर्षों में अपने ' अहं ' को विसर्जित किया है - इसके विपरीत पश्चिम इसे जोड़ने में लगा रहा | रवींद्रनाथ ने भी भारत में और सारी दुनियाँ में इस ' प्रभु-चेतना ' को पुनरुज्जिवित किया | | | rowspan="3" | | ||
:भी क्षुद्र अहं ने प्रभु और प्रभु के राज्य से हमें वंचित रखा है | पूरी भारतीय इतिहास की संस्कृति ने पुराने 5,000 वर्षों में अपने ' अहं ' को विसर्जित किया है - इसके विपरीत पश्चिम इसे जोड़ने में लगा रहा | रवींद्रनाथ ने भी भारत में और सारी दुनियाँ में इस ' प्रभु-चेतना ' को पुनरुज्जिवित किया | | |||
:प्रभु के चरणों की प्रतीति उन्हें हर समय और हर जगह होती थी | एक जगह उनने लिखा कि : पहले मैं घर में आए मेहमानों के प्रति घृणा से भरा रहता और एसा लगता कि व्यर्थ खाने-पीने मात्र ये लोग पड़े रहते हैं | एक सुबह मैं सागर-तट पर घूमने गया | सूरज उगते ही लहर-लहर पर और सारे जगत में प्रकाश की किरणें प्रकाशित हो उठीं | मुझे लगा कि सूरज तो एक है, लेकिन उसका प्रकाश सब ओर व्याप्त है | पहली बार उन्हें इस घटना से सबमें प्रभु के प्रकाश का बोध हुआ | घर वापिस लौटे | सारे मेहमानों से आँसू में डूबकर गले मिले, आस-पड़ोस के परिचितों से मिले, जब कोई मिलने को न रहा तो वृक्षों से | :प्रभु के चरणों की प्रतीति उन्हें हर समय और हर जगह होती थी | एक जगह उनने लिखा कि : पहले मैं घर में आए मेहमानों के प्रति घृणा से भरा रहता और एसा लगता कि व्यर्थ खाने-पीने मात्र ये लोग पड़े रहते हैं | एक सुबह मैं सागर-तट पर घूमने गया | सूरज उगते ही लहर-लहर पर और सारे जगत में प्रकाश की किरणें प्रकाशित हो उठीं | मुझे लगा कि सूरज तो एक है, लेकिन उसका प्रकाश सब ओर व्याप्त है | पहली बार उन्हें इस घटना से सबमें प्रभु के प्रकाश का बोध हुआ | घर वापिस लौटे | सारे मेहमानों से आँसू में डूबकर गले मिले, आस-पड़ोस के परिचितों से मिले, जब कोई मिलने को न रहा तो वृक्षों से | ||
Line 443: | Line 472: | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 56 - 57 | | 56 - 57 | ||
| rowspan="3" |:पर जो अनदेखा-भीतर का है - वह दिख आता है | | | rowspan="3" | | ||
:पर जो अनदेखा-भीतर का है - वह दिख आता है | | |||
:मास्को में गुरुदेव के चित्रों का प्रदर्शन हुआ | लोगों ने चित्रों का विश्लेषण जानना चाहा | तब रवींद्रनाथ ने कहा विश्लेषण से सौंदर्य-बोध नहीं होगा | ( पिकासो नाम का एक अमेरिकी धनपति अपना चित्र एक कलाकार से बनवाना चाहा | मूल्य जो भी वह माँगेगा - यह कहकर - उसने सितरकार को धनपति ने चित्रकार को चित्र बनाने को कहा | — crossed) | :मास्को में गुरुदेव के चित्रों का प्रदर्शन हुआ | लोगों ने चित्रों का विश्लेषण जानना चाहा | तब रवींद्रनाथ ने कहा विश्लेषण से सौंदर्य-बोध नहीं होगा | ( पिकासो नाम का एक अमेरिकी धनपति अपना चित्र एक कलाकार से बनवाना चाहा | मूल्य जो भी वह माँगेगा - यह कहकर - उसने सितरकार को धनपति ने चित्रकार को चित्र बनाने को कहा | — crossed) | ||
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|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 58 - 59 | | 58 - 59 | ||
| rowspan="3" |:रथ आगे बढ़ गया | एक अजीब सा उपहास करते हुये | सांझ घर लौटा, झोली पलटी तो उसमें एक दाना सोने का था - देखकर रोया कि क्यों न मैने सब दे डाला - इतना कृपण निकाला मैं - कि केवल एक दाना भर दे पाया | इससे जितना मैं दे डालता हूँ, उतना ही प्रभु मेरे में आता है | अवसर बीत गया -- तो फिर पश्चाताप भर रह जाता है | | | rowspan="3" | | ||
:रथ आगे बढ़ गया | एक अजीब सा उपहास करते हुये | सांझ घर लौटा, झोली पलटी तो उसमें एक दाना सोने का था - देखकर रोया कि क्यों न मैने सब दे डाला - इतना कृपण निकाला मैं - कि केवल एक दाना भर दे पाया | इससे जितना मैं दे डालता हूँ, उतना ही प्रभु मेरे में आता है | अवसर बीत गया -- तो फिर पश्चाताप भर रह जाता है | | |||
:हम जितना अपने को दे पाते हैं, उतना उपलब्ध होता है | अपने को पूरे अर्थों में दे डालना - प्रभु को पा लेना है | जितना हम अपने को रोक रखेंगे - कृपण और कंजूस रहेंगे - प्रभु-प्रकाश न मिलेगा | एक-एक शब्द में रवींद्रनाथ ने देने की क्षमता - अपने अहंकार को विसर्जन की साधना से संयुक्त किया है | 70 वर्ष की उम्र में भी उनके गीतों और चित्रों में 5 वर्ष के बालक सी सरलता है | कुछ भी जीवन का भारीपन उनमें न आ सका | ईसा कहते थे कि मेरे प्रभु-राज्य का उत्तराधिकारी वह होगा जो इन बालकों की तरह | :हम जितना अपने को दे पाते हैं, उतना उपलब्ध होता है | अपने को पूरे अर्थों में दे डालना - प्रभु को पा लेना है | जितना हम अपने को रोक रखेंगे - कृपण और कंजूस रहेंगे - प्रभु-प्रकाश न मिलेगा | एक-एक शब्द में रवींद्रनाथ ने देने की क्षमता - अपने अहंकार को विसर्जन की साधना से संयुक्त किया है | 70 वर्ष की उम्र में भी उनके गीतों और चित्रों में 5 वर्ष के बालक सी सरलता है | कुछ भी जीवन का भारीपन उनमें न आ सका | ईसा कहते थे कि मेरे प्रभु-राज्य का उत्तराधिकारी वह होगा जो इन बालकों की तरह | ||
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|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 60 - 61 | | 60 - 61 | ||
| rowspan="3" |:देखा -- और भीतरी अनुभूति में काव्य को जाना | बावल (बंगाल के घुमक्कड़ संत, लालन फकीर के अनुयायी) कवि कहते हैं कि : प्रेम के संश्लेषण से ' उसे ' पाया जा सकता है | एक समय एक वैष्णव पंडित - बावल कवि से मिलने आया | वैष्णव पंडित ने पूछा प्रेम कितने प्रकार का ? बावल कवि हैरान था --- कि प्रेम में भी और प्रकार | मैं इससे प्रकारों को तो नहीं जानता पर प्रेम को भर जानता हूँ | इस पर वैष्णव ने 5 प्रकार प्रेम के गिनाए - बाद बावल कवि ने जो कहा वह दिल पर खोद लेने योग्य है | कहा था, बावल कवि ने -- कि मुझे ऐसा लगा कि कोई सुनार अपने सोने कसने की कसनी को लेकर, फूलों की बगिया में -- फूलों को कसने आया हो | इससे सोने कसने के पत्थर से बगिया के फूलों को तो नहीं कसा जा सकता | बुद्धि से भी -- इससे गीतों को नहीं जाना जा सकता | रवींद्रनाथ की हमारी पूरी सदी ऋणी है, और उनके गीत हमारे जीवन् में आनंद और सौंदर्य बोध से भर सकें -- इस कामना के साथ सावन के वे बरसे बदल जैसे झुक आते हैं - वैसे ही | | rowspan="3" | | ||
:देखा -- और भीतरी अनुभूति में काव्य को जाना | बावल (बंगाल के घुमक्कड़ संत, लालन फकीर के अनुयायी) कवि कहते हैं कि : प्रेम के संश्लेषण से ' उसे ' पाया जा सकता है | एक समय एक वैष्णव पंडित - बावल कवि से मिलने आया | वैष्णव पंडित ने पूछा प्रेम कितने प्रकार का ? बावल कवि हैरान था --- कि प्रेम में भी और प्रकार | मैं इससे प्रकारों को तो नहीं जानता पर प्रेम को भर जानता हूँ | इस पर वैष्णव ने 5 प्रकार प्रेम के गिनाए - बाद बावल कवि ने जो कहा वह दिल पर खोद लेने योग्य है | कहा था, बावल कवि ने -- कि मुझे ऐसा लगा कि कोई सुनार अपने सोने कसने की कसनी को लेकर, फूलों की बगिया में -- फूलों को कसने आया हो | इससे सोने कसने के पत्थर से बगिया के फूलों को तो नहीं कसा जा सकता | बुद्धि से भी -- इससे गीतों को नहीं जाना जा सकता | रवींद्रनाथ की हमारी पूरी सदी ऋणी है, और उनके गीत हमारे जीवन् में आनंद और सौंदर्य बोध से भर सकें -- इस कामना के साथ सावन के वे बरसे बदल जैसे झुक आते हैं - वैसे ही | |||
:मैं ' गुरुदेव ' के चरणों में शीश झुकाता हूँ | | :मैं ' गुरुदेव ' के चरणों में शीश झुकाता हूँ | | ||
Line 491: | Line 523: | ||
|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 62 - 63 | | 62 - 63 | ||
| rowspan="3" |:9 मई सन 1961 ............ | | rowspan="3" | | ||
:9 मई सन 1961 ............ | |||
:सांझ की पुनीत-पावन बेला | सब अपने में खोया और स्तब्ध | पक्षी भी अपने-अपने नीड़ो में वापिस हो गये | तारे दूर-दूर तक निकल आए हैं | शाम एक नव-उल्हास से घिर आई है | प्रकृति ने एक ओर से अपने पंख समेटकर - दूसरी ओर मुखरित किए हैं | श्री राम मिश्रा आ कर -- आचार्य जी की चरण-छाया में बैठे है | घर के सारे लोग और कुछ नव-आगंतुक भी बीच-बीच में आकर बैठते रहे और चर्चा में रसलीन हुए | संप्रदायों पर चर्च शुरू हुई | | :सांझ की पुनीत-पावन बेला | सब अपने में खोया और स्तब्ध | पक्षी भी अपने-अपने नीड़ो में वापिस हो गये | तारे दूर-दूर तक निकल आए हैं | शाम एक नव-उल्हास से घिर आई है | प्रकृति ने एक ओर से अपने पंख समेटकर - दूसरी ओर मुखरित किए हैं | श्री राम मिश्रा आ कर -- आचार्य जी की चरण-छाया में बैठे है | घर के सारे लोग और कुछ नव-आगंतुक भी बीच-बीच में आकर बैठते रहे और चर्चा में रसलीन हुए | संप्रदायों पर चर्च शुरू हुई | | ||
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|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 64 - 65 | | 64 - 65 | ||
| rowspan="3" |:दूर तक फैला रखा है | दूर कुछ अंधकार की गंभीरता बढ़ाने - कीड़ों आदि का स्वर सुनाई दे रहा ही | श्री देवकीनंदन जी सपत्नीक - आचार्य जी के पास आकर बैठ रहे हैं | साधारणतः प्रासंगवश मंदिरों की उपयोगिता पर थोड़ी चर्चा हुई | | | rowspan="3" | | ||
:दूर तक फैला रखा है | दूर कुछ अंधकार की गंभीरता बढ़ाने - कीड़ों आदि का स्वर सुनाई दे रहा ही | श्री देवकीनंदन जी सपत्नीक - आचार्य जी के पास आकर बैठ रहे हैं | साधारणतः प्रासंगवश मंदिरों की उपयोगिता पर थोड़ी चर्चा हुई | | |||
:साधारणतः आज का नवयुवक मंदिर जाना पसंद नहीं करता | इसके मूल में एक कारण है कि व्यक्ति वहीं जाना पसंद करता है - जहाँ उसे कुछ आकर्षण होता है | मंदिरों को आज हम आकर्षण विहीन पाते हैं | मेरे विचार में - एक विशाल दृष्टिकोण को जन-हृदयों में स्थान मिल सके -- इसके लिए -- सारे धर्मों का साहित्य मंदिरों में -- रखा जाय | पठन-पाठन की सुविधाएँ उपलब्ध हों और गहरे विचार-दर्शन की परंपराएँ पुनरुज्जिवित हों | | :साधारणतः आज का नवयुवक मंदिर जाना पसंद नहीं करता | इसके मूल में एक कारण है कि व्यक्ति वहीं जाना पसंद करता है - जहाँ उसे कुछ आकर्षण होता है | मंदिरों को आज हम आकर्षण विहीन पाते हैं | मेरे विचार में - एक विशाल दृष्टिकोण को जन-हृदयों में स्थान मिल सके -- इसके लिए -- सारे धर्मों का साहित्य मंदिरों में -- रखा जाय | पठन-पाठन की सुविधाएँ उपलब्ध हों और गहरे विचार-दर्शन की परंपराएँ पुनरुज्जिवित हों | | ||
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| 66 - 67 | | 66 - 67 | ||
| rowspan="3" |:मैं बहुत आनंदित हूँ - कविन्द्र रवीन्द्र के शताब्दी समारोह में आकर | रवींद्रनाथ 100 वर्ष पूर्व जन्मे - और भारत तथा सारे विश्व में - एक स्थायी ऋण छोड़ गये हैं - अब बहुत मुश्किल है - एसे व्यक्तित्व का अपने देश में जन्म लेना | गाँधीजी ने उनकी 80 वीं वर्षगाँठ पर कहा था - आप 4 बी.सी. जी लिए भगवान करे - 5 वीं बी.सी. भी जी लें | रवींद्रनाथ ने कहा था उत्तर में - अब 5 वीं बी.सी. जीने की इच्छा नहीं है - बहुत दुख उठा चुका हूँ | गाँधी जी की इच्छा थी - ५ बी.सी. के आगे भी जीने की पर हमने उन्हें 4 बी.सी. के पूर्व ही संसार से उठा दिया | हमने अपनी संस्कृति के 100 वर्ष में आज दोनों महान व्यक्तियों को खो दिया | अमित छाप इन महापुरुषों की हमारी संस्कृति पर है | पर रवींद्रानाथ का ऋण गाँधीजी से ज़्यादा समय तक रहने वाला है | यह मैं बहुत साहस से कह रहा हूँ | क्योंकि गाँधीजी साधक की तरह जिए पर रवींद्रनाथ जन्म से सिद्ध थे | प्रभु उन्हें सदा उपलब्ध था और उनके काव्य में ईश्वरीय छाप है | किसी दूसरे व्यक्तित्व में रवींद्रनाथ | | rowspan="3" | | ||
:मैं बहुत आनंदित हूँ - कविन्द्र रवीन्द्र के शताब्दी समारोह में आकर | रवींद्रनाथ 100 वर्ष पूर्व जन्मे - और भारत तथा सारे विश्व में - एक स्थायी ऋण छोड़ गये हैं - अब बहुत मुश्किल है - एसे व्यक्तित्व का अपने देश में जन्म लेना | गाँधीजी ने उनकी 80 वीं वर्षगाँठ पर कहा था - आप 4 बी.सी. जी लिए भगवान करे - 5 वीं बी.सी. भी जी लें | रवींद्रनाथ ने कहा था उत्तर में - अब 5 वीं बी.सी. जीने की इच्छा नहीं है - बहुत दुख उठा चुका हूँ | गाँधी जी की इच्छा थी - ५ बी.सी. के आगे भी जीने की पर हमने उन्हें 4 बी.सी. के पूर्व ही संसार से उठा दिया | हमने अपनी संस्कृति के 100 वर्ष में आज दोनों महान व्यक्तियों को खो दिया | अमित छाप इन महापुरुषों की हमारी संस्कृति पर है | पर रवींद्रानाथ का ऋण गाँधीजी से ज़्यादा समय तक रहने वाला है | यह मैं बहुत साहस से कह रहा हूँ | क्योंकि गाँधीजी साधक की तरह जिए पर रवींद्रनाथ जन्म से सिद्ध थे | प्रभु उन्हें सदा उपलब्ध था और उनके काव्य में ईश्वरीय छाप है | किसी दूसरे व्यक्तित्व में रवींद्रनाथ | |||
:जैसी उपलब्धि नहीं दिखती | रवींद्रनाथ का योग एक एसे युग में था जबकि सारी आस्थाएँ और जीवन के मूल्य विनष्ट हो चुके थे | सार्त्र एक पश्चिमी विचारक ने कहा था : ' हम नरक में जी रहे हैं, हमारे चारों ओर नरक है | ' जीवन बस दुख ही दुख है | घने दुख और पीड़ा के बीच भी रवींद्रनाथ ने आनंद, सौंदर्य के गीत गाए और अपने हाथ से वीना के स्वरों से गीत निकाले और एक अखंड आनंद को पाया | उनके काव्य, नाटक और चित्रों में सारे जगत का आनंद बोध समाया है | जीवन से दुख-निरोध का मार्ग अपनाया और आनंद को पाया | रवींद्रनाथ ने ईश्वरीय आस्था को - धर्म को पुनः मानवीय जीवन में स्थापित किया और दुख के विसर्जन से - आनंद और शांति का प्रकाश जगत को दिया | उन्होंने व्यक्ति को समष्टिगत या ईश्वरीय चेतना के साथ एक किया | बचपन से ही पूरी प्रतीति उनको ईश्वर की थी -- उनकी गुनगुनहट में ईश्वर की आंतरिक चेतना पर सब कुछ समर्पण का भाव है | गीतांजलि में उनके | :जैसी उपलब्धि नहीं दिखती | रवींद्रनाथ का योग एक एसे युग में था जबकि सारी आस्थाएँ और जीवन के मूल्य विनष्ट हो चुके थे | सार्त्र एक पश्चिमी विचारक ने कहा था : ' हम नरक में जी रहे हैं, हमारे चारों ओर नरक है | ' जीवन बस दुख ही दुख है | घने दुख और पीड़ा के बीच भी रवींद्रनाथ ने आनंद, सौंदर्य के गीत गाए और अपने हाथ से वीना के स्वरों से गीत निकाले और एक अखंड आनंद को पाया | उनके काव्य, नाटक और चित्रों में सारे जगत का आनंद बोध समाया है | जीवन से दुख-निरोध का मार्ग अपनाया और आनंद को पाया | रवींद्रनाथ ने ईश्वरीय आस्था को - धर्म को पुनः मानवीय जीवन में स्थापित किया और दुख के विसर्जन से - आनंद और शांति का प्रकाश जगत को दिया | उन्होंने व्यक्ति को समष्टिगत या ईश्वरीय चेतना के साथ एक किया | बचपन से ही पूरी प्रतीति उनको ईश्वर की थी -- उनकी गुनगुनहट में ईश्वर की आंतरिक चेतना पर सब कुछ समर्पण का भाव है | गीतांजलि में उनके | ||
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| 68 - 69 | | 68 - 69 | ||
| rowspan="3" |:एक-एक गीत से यह भाव आपको उभरता दिखेगा | एक-एक गीत ईश्वरानुभूति से पूर्ण है | पश्चिम उनके गीतों पर पागल हो उठा | उनके गीतों को पढ़कर - प्राचीन ऋषियों का स्मरण हो आता है और सत्य-साक्षात की गहरी अनुभूतियाँ उनके गीतों से प्रगट होती हैं | रवींद्रनाथ - सामान्य कवि की कोटि में नहीं आते, वरन वे भारत के 3,000 वर्ष पूर्व के उपनिषद् के ऋषियों के साथ अपना स्थान रखते हैं | उनके गीतों में वैसा ही सौंदर्य, आनंद, गरिमा और अनुपात है | ममहाकाव्य उनके जीवन में था - इससे बाहर भी सुंदर फूटा | भीतर यदि सुंदर हो तो बाहर तो मात्र उसकी अभिव्यक्ति है | आज तो पूरी सदी की आत्मा टेडी-मेडी हो गई है | हमारी स्थिति एक ध्वंस वीणा के समान है - इससे हमारा जीवन दुख से भरा है | रवींद्रनाथ के जीवन में कैसे यह सब आया - इस पर मैं चर्चा आपसे करना पसंद करूँगा ताकि हमारे खुद के जीवन में भी कुछ उतर सके :- | | rowspan="3" | | ||
:एक-एक गीत से यह भाव आपको उभरता दिखेगा | एक-एक गीत ईश्वरानुभूति से पूर्ण है | पश्चिम उनके गीतों पर पागल हो उठा | उनके गीतों को पढ़कर - प्राचीन ऋषियों का स्मरण हो आता है और सत्य-साक्षात की गहरी अनुभूतियाँ उनके गीतों से प्रगट होती हैं | रवींद्रनाथ - सामान्य कवि की कोटि में नहीं आते, वरन वे भारत के 3,000 वर्ष पूर्व के उपनिषद् के ऋषियों के साथ अपना स्थान रखते हैं | उनके गीतों में वैसा ही सौंदर्य, आनंद, गरिमा और अनुपात है | ममहाकाव्य उनके जीवन में था - इससे बाहर भी सुंदर फूटा | भीतर यदि सुंदर हो तो बाहर तो मात्र उसकी अभिव्यक्ति है | आज तो पूरी सदी की आत्मा टेडी-मेडी हो गई है | हमारी स्थिति एक ध्वंस वीणा के समान है - इससे हमारा जीवन दुख से भरा है | रवींद्रनाथ के जीवन में कैसे यह सब आया - इस पर मैं चर्चा आपसे करना पसंद करूँगा ताकि हमारे खुद के जीवन में भी कुछ उतर सके :- | |||
:रवींद्रनाथ ने लिखा - मेरे बचपन और युवा के जीवन में एक तरह की दीवारें थीं | मैं हमेशा अलग | :रवींद्रनाथ ने लिखा - मेरे बचपन और युवा के जीवन में एक तरह की दीवारें थीं | मैं हमेशा अलग | ||
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| 70 - 71 | | 70 - 71 | ||
| rowspan="3" |:कभी कोई संपर्क न आया था - उनसे गले मिले, घरवालों को गले लगाया | बाहर सड़क पर निकलकर राहगीरों से गले मिले - जब सब चुक गये - तब वृक्षों से लिपटे रहे | इस तरह 3 दिन बाद रवींद्रनाथ ने नया जन्म लिया | सब ओर एक ही महाप्रभु के दर्शन किए | बाद उनसे जो महाकाव्य निकाला - वह एक सिद्ध के जीवन में होकर आया - एक स्थाई मूल्य ' उसका ' आया | बुरा-भला - क्षुद्र और विराट में एक ही प्रीतम दिखा | उनने कहा : मैं ‘ उसे ‘ अपने हाथों से तो नहीं, वरन अपने स्वरों के पंखों से छू लेता हूँ | गीतों को आप उनके पढ़ेंगे - बहुत-बहुत मीठे है | उनने कहा - बरसात की मेधा भरी रातों में तेरी चरणों की ध्वनि सुन पड़ती है | छोटे कंकड़-पत्थर में प्रभु तेरे दर्शन मैं करता हूँ | युग-युग से प्रभु तू मेरे निकट था - मिलने को बैचेन था - पर मैं ही अपने द्वार बंद किए था | मनुष्य अपने-अपने द्वार बंद किए बैठा है | इससे प्रयास से कुछ न उपलब्ध होगा | सूरज जैसे उगाता - खिड़की-दरवाजे खोलने | | rowspan="3" | | ||
:कभी कोई संपर्क न आया था - उनसे गले मिले, घरवालों को गले लगाया | बाहर सड़क पर निकलकर राहगीरों से गले मिले - जब सब चुक गये - तब वृक्षों से लिपटे रहे | इस तरह 3 दिन बाद रवींद्रनाथ ने नया जन्म लिया | सब ओर एक ही महाप्रभु के दर्शन किए | बाद उनसे जो महाकाव्य निकाला - वह एक सिद्ध के जीवन में होकर आया - एक स्थाई मूल्य ' उसका ' आया | बुरा-भला - क्षुद्र और विराट में एक ही प्रीतम दिखा | उनने कहा : मैं ‘ उसे ‘ अपने हाथों से तो नहीं, वरन अपने स्वरों के पंखों से छू लेता हूँ | गीतों को आप उनके पढ़ेंगे - बहुत-बहुत मीठे है | उनने कहा - बरसात की मेधा भरी रातों में तेरी चरणों की ध्वनि सुन पड़ती है | छोटे कंकड़-पत्थर में प्रभु तेरे दर्शन मैं करता हूँ | युग-युग से प्रभु तू मेरे निकट था - मिलने को बैचेन था - पर मैं ही अपने द्वार बंद किए था | मनुष्य अपने-अपने द्वार बंद किए बैठा है | इससे प्रयास से कुछ न उपलब्ध होगा | सूरज जैसे उगाता - खिड़की-दरवाजे खोलने | |||
:पर प्रकाश अपने आप भीतर आता है | मान के द्वार खोल लेने पर प्रभु भी अपने आप आता है | मैं एक छोटी सी घटना आपसे कहता हूँ - बहुत बार कहता हूँ - पर जितनी बार कहता हूँ - उतनी ही प्रिय मुझे वह हो आती है | जैसे सिक्का चलके पुराना नहीं होता - वैसे ही यह घटना चिर-नवीन है | | :पर प्रकाश अपने आप भीतर आता है | मान के द्वार खोल लेने पर प्रभु भी अपने आप आता है | मैं एक छोटी सी घटना आपसे कहता हूँ - बहुत बार कहता हूँ - पर जितनी बार कहता हूँ - उतनी ही प्रिय मुझे वह हो आती है | जैसे सिक्का चलके पुराना नहीं होता - वैसे ही यह घटना चिर-नवीन है | | ||
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| 72 - 73 | | 72 - 73 | ||
| rowspan="3" |:हैं | रवींद्रनाथ के पूरे गीतों में एक ही बात का प्रावधान है अपने ' मैं ' को जला दें | इस ' मैं ' के जलाने की बात को सबने स्वीकार किया है | बिना इसके संगीत पैदा नहीं हो सकता | रवींद्रनाथ ने कहा : हम एक गीत की टूटी पंक्ति के समान अलग हैं - जैसे गीत में न होने से पंक्ति निर्मुल्य है - वैसे ही हम विराट में न होने से - कोई अर्थ के नहीं हैं | अलग होने से - संगीत में हम नहीं बँध पाते | रवींद्रनाथ कहते : “ मैं तो धरती का कवि हूँ - मैं चाहता हूँ जगत को ही मोक्ष जैसा प्रिय क्यों न बना लूँ |" जगत के अनंत-अनंत बंधन मुझे प्रिय हैं - मैं मुक्ति नहीं चाहता | यह बात एक सौंदर्य-दृष्टा ही कह सकता है | सबके भीतर एक प्रभु को देख पाने से ही यह रवींद्रनाथ के लिए संभव हुआ | शरीर तो मात्र प्रगटिकरण का माध्यम है | उन्होने कहा -- भोगना और छोड़ना नहीं -- वरन शरीर को सीढ़ी बनाकर - ' उसे ' पा लेना होता है | | | rowspan="3" | | ||
:हैं | रवींद्रनाथ के पूरे गीतों में एक ही बात का प्रावधान है अपने ' मैं ' को जला दें | इस ' मैं ' के जलाने की बात को सबने स्वीकार किया है | बिना इसके संगीत पैदा नहीं हो सकता | रवींद्रनाथ ने कहा : हम एक गीत की टूटी पंक्ति के समान अलग हैं - जैसे गीत में न होने से पंक्ति निर्मुल्य है - वैसे ही हम विराट में न होने से - कोई अर्थ के नहीं हैं | अलग होने से - संगीत में हम नहीं बँध पाते | रवींद्रनाथ कहते : “ मैं तो धरती का कवि हूँ - मैं चाहता हूँ जगत को ही मोक्ष जैसा प्रिय क्यों न बना लूँ |" जगत के अनंत-अनंत बंधन मुझे प्रिय हैं - मैं मुक्ति नहीं चाहता | यह बात एक सौंदर्य-दृष्टा ही कह सकता है | सबके भीतर एक प्रभु को देख पाने से ही यह रवींद्रनाथ के लिए संभव हुआ | शरीर तो मात्र प्रगटिकरण का माध्यम है | उन्होने कहा -- भोगना और छोड़ना नहीं -- वरन शरीर को सीढ़ी बनाकर - ' उसे ' पा लेना होता है | | |||
:रवींद्रनाथ के पास युवा-अवस्था में एक व्यक्ति आया करता | पूछता कवि से : प्रभु को देखा है ? रवीन्द्र - संकोच से हंसते और पूछते : आपने देखा है ? वह कहता - देखा है - अपनी आखों के सामने किलबिलाते देखा है | रवीन्द्र विश्वास न करते - झट - नमस्कार करके उसे विदा देते | बाद जब ईश्वर-अनुभूति कवि को हुई - तो एक दिन जब वही व्यक्ति आया - तो रवींद्रनाथ ने दोनों बाहें फैलाकर कहा - आओ-आओ! - व्यक्ति आश्चर्य में था - कभी तो कवि ने इस तरह स्वागत न किया था | पर आज कवि को सत्य-दिख आया था - उस व्यक्ति की बात साकार हुई थी | फूल-पत्तों में - सागर के रेत-कणों और लहरों में सब जगह प्रभु निरंतर उपलब्ध है | व्यर्थता में भी सार्थकता दिख आई थी | | :रवींद्रनाथ के पास युवा-अवस्था में एक व्यक्ति आया करता | पूछता कवि से : प्रभु को देखा है ? रवीन्द्र - संकोच से हंसते और पूछते : आपने देखा है ? वह कहता - देखा है - अपनी आखों के सामने किलबिलाते देखा है | रवीन्द्र विश्वास न करते - झट - नमस्कार करके उसे विदा देते | बाद जब ईश्वर-अनुभूति कवि को हुई - तो एक दिन जब वही व्यक्ति आया - तो रवींद्रनाथ ने दोनों बाहें फैलाकर कहा - आओ-आओ! - व्यक्ति आश्चर्य में था - कभी तो कवि ने इस तरह स्वागत न किया था | पर आज कवि को सत्य-दिख आया था - उस व्यक्ति की बात साकार हुई थी | फूल-पत्तों में - सागर के रेत-कणों और लहरों में सब जगह प्रभु निरंतर उपलब्ध है | व्यर्थता में भी सार्थकता दिख आई थी | | ||
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| 74 - 75 | | 74 - 75 | ||
| rowspan="3" |:दूसरा व्यक्ति हंसकर बोला : - इसी जल में अमृतमयी तारों के प्रतिबिंब भी तो हैं | कीचड़ भी - और कमल भी - दोनों हैं - प्रश्न है कि हम क्या देख लेते - वही हमें दिखता है | | | rowspan="3" | | ||
:दूसरा व्यक्ति हंसकर बोला : - इसी जल में अमृतमयी तारों के प्रतिबिंब भी तो हैं | कीचड़ भी - और कमल भी - दोनों हैं - प्रश्न है कि हम क्या देख लेते - वही हमें दिखता है | | |||
:उपनिषदों में वीक्षण और अणुवीक्षण मात्र देखना और गहरे देखने की चर्चा है | गहरे देखने से भीतर का दिखता और बाहर प्रगटीकरण होता | जैसे जड़ें दिखतीं नहीं लेकिन वृक्ष टिका हुआ होता है | प्राण जड़ में होते हैं - इस तरह जगत में जो सारा कुछ दिखता - वह भीतर के अनदेखे पर टिका है | जगत के नियम में - वीक्षण पर विज्ञान का जन्म हुआ - उपर की आकृति और रंग आदि के देखने से | अणुवीक्षण से : धर्म दर्शन और कला का जन्म हुआ | रवींद्रनाथ का समग्र काव्य भीतर गहरे देखने पर - अणुवीक्षण पर - बाहर प्रगटीकरण हुआ है | प्रत्येक व्यक्ति के भीतर कवि है - भीतर जितने गहरे - शांति, सौंदर्य और अभय में हम उतरते जाते - कवित्व हमारा बाहर फूटता आता है | | :उपनिषदों में वीक्षण और अणुवीक्षण मात्र देखना और गहरे देखने की चर्चा है | गहरे देखने से भीतर का दिखता और बाहर प्रगटीकरण होता | जैसे जड़ें दिखतीं नहीं लेकिन वृक्ष टिका हुआ होता है | प्राण जड़ में होते हैं - इस तरह जगत में जो सारा कुछ दिखता - वह भीतर के अनदेखे पर टिका है | जगत के नियम में - वीक्षण पर विज्ञान का जन्म हुआ - उपर की आकृति और रंग आदि के देखने से | अणुवीक्षण से : धर्म दर्शन और कला का जन्म हुआ | रवींद्रनाथ का समग्र काव्य भीतर गहरे देखने पर - अणुवीक्षण पर - बाहर प्रगटीकरण हुआ है | प्रत्येक व्यक्ति के भीतर कवि है - भीतर जितने गहरे - शांति, सौंदर्य और अभय में हम उतरते जाते - कवित्व हमारा बाहर फूटता आता है | | ||
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|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 76 - 77 | | 76 - 77 | ||
| rowspan="3" |:मात्र इतना कहने के लिए उसने अपनी ज़बान खोली | | | rowspan="3" | | ||
:मात्र इतना कहने के लिए उसने अपनी ज़बान खोली | | |||
:रवीन्द्र मानते कि मृत्यु भी तो उसकी संदेश वाहक है | अपनी मृत्यु के तीन दिन पूर्व भी कवि वही आनंद और सौंदर्य से भरे रहे | आधे-आधे घंटे तक बेहोश रहते - पर जब बेहोशी खुलती - तो 1 - 2 मिनिट तक - पूर्व अधूरी रह गई गीतों की पंक्तियों को लिखवाते | बहुत मुश्किल है -- इतना गहरा सौंदर्य-दृष्टा का जन्म लेना - जिसे मृत्यु में भी उस सुंदर के दर्शन हुए | | :रवीन्द्र मानते कि मृत्यु भी तो उसकी संदेश वाहक है | अपनी मृत्यु के तीन दिन पूर्व भी कवि वही आनंद और सौंदर्य से भरे रहे | आधे-आधे घंटे तक बेहोश रहते - पर जब बेहोशी खुलती - तो 1 - 2 मिनिट तक - पूर्व अधूरी रह गई गीतों की पंक्तियों को लिखवाते | बहुत मुश्किल है -- इतना गहरा सौंदर्य-दृष्टा का जन्म लेना - जिसे मृत्यु में भी उस सुंदर के दर्शन हुए | | ||
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|- style="vertical-align:top;" | |- style="vertical-align:top;" | ||
| 78 - 79 | | 78 - 79 | ||
| rowspan="3" |:Sent to | | rowspan="3" | | ||
:Sent to | |||
:Jain Jagat in | :Jain Jagat in | ||
:16 Nover. 61. | :16 Nover. 61. | ||
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| 80 - 81 | | 80 - 81 | ||
| rowspan="3" |:चलता है | हम पर हमारा वश है | इससे साधक को यह स्पष्ट प्रतीति होना चाहिए कि दूर भविष्य में कुछ नही किया जा सकता | प्रत्येक कार्य को आगे के लिए रख देना - (Postponement) - समय पर निर्भर हो रहना है | इससे - बड़ी भूल हम सबसे प्रतिदिन घटती है | हर सांझ तक हम जो भी करना चाहें - कर लें - पता नहीं दूसरी आने वाली सुबह हमारी हो या नहो | इससे साधक को आज के दिन पर जीना चाहिए और गहरे साधक तो केवल क्षणों में जीते है | जिस क्षण में हम होते हैं - उतने भर में हम जिंदा हैं -- इससे अपने पर तो हमारा वश है -- लेकिन समय पर वश न होने से -- प्रत्येक कार्य को इसे दिन से शुरू कर देना चाहिए | | | rowspan="3" | | ||
:चलता है | हम पर हमारा वश है | इससे साधक को यह स्पष्ट प्रतीति होना चाहिए कि दूर भविष्य में कुछ नही किया जा सकता | प्रत्येक कार्य को आगे के लिए रख देना - (Postponement) - समय पर निर्भर हो रहना है | इससे - बड़ी भूल हम सबसे प्रतिदिन घटती है | हर सांझ तक हम जो भी करना चाहें - कर लें - पता नहीं दूसरी आने वाली सुबह हमारी हो या नहो | इससे साधक को आज के दिन पर जीना चाहिए और गहरे साधक तो केवल क्षणों में जीते है | जिस क्षण में हम होते हैं - उतने भर में हम जिंदा हैं -- इससे अपने पर तो हमारा वश है -- लेकिन समय पर वश न होने से -- प्रत्येक कार्य को इसे दिन से शुरू कर देना चाहिए | | |||
:एक बड़ी बात और कि Postponement हम क्यों चाहते हैं ? मूल कारण है कि अभी रस बना हुआ है -- और आगे भी वह कम न होकर बढ़ने ही वाला है | इससे महावीर ने | :एक बड़ी बात और कि Postponement हम क्यों चाहते हैं ? मूल कारण है कि अभी रस बना हुआ है -- और आगे भी वह कम न होकर बढ़ने ही वाला है | इससे महावीर ने | ||
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| 82 - 83 | | 82 - 83 | ||
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:Sent to | |||
:Jain Jagat | :Jain Jagat | ||
:Nov. 61. | :Nov. 61. | ||
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| 84 - 85 | | 84 - 85 | ||
| rowspan="3" |:सरल और उदार -गंभीर तथा चेतना की अटूट गहराइयों से जब बात करते - तो उसमें सहज ही चेतना लोक का व्यापक प्रभाव अपने आप साथ आता | मानसिक स्वास्थ आज के युग में खो गया है -- बहुत क्षुब्ध, पीड़ित, अपने में खींचा हुआ और परेशान आज का युग है | इससे मेरा सबको एक ही कहना है कि इस खिंचाव को ढीला होने दिया जाय - तो शांति धीरे-धीरे आती और एक क्षण आता जब कि सारा खिंचाव विसर्जित होकर शांत मनःस्थिति में व्यक्ति आ जाता और वह मानसिक स्वास्थ उपलब्ध कर लेता | | | rowspan="3" | | ||
:सरल और उदार -गंभीर तथा चेतना की अटूट गहराइयों से जब बात करते - तो उसमें सहज ही चेतना लोक का व्यापक प्रभाव अपने आप साथ आता | मानसिक स्वास्थ आज के युग में खो गया है -- बहुत क्षुब्ध, पीड़ित, अपने में खींचा हुआ और परेशान आज का युग है | इससे मेरा सबको एक ही कहना है कि इस खिंचाव को ढीला होने दिया जाय - तो शांति धीरे-धीरे आती और एक क्षण आता जब कि सारा खिंचाव विसर्जित होकर शांत मनःस्थिति में व्यक्ति आ जाता और वह मानसिक स्वास्थ उपलब्ध कर लेता | | |||
:मानसिक स्वास्थ कैसे उपलब्ध हो ? इसकी बहुत सहज आज ध्यान की प्रक्रियाएँ हैं | रात्रि सोने के पूर्व और प्रातः जगाने के बाद 15 मिनिट तक जो हम सारे शरीर को मृत अवस्था में बिल्कुल ढीला छोड़ दें - एसा प्रतीत हो कि मैं इस शरीर में ही नहीं - यह किसी और का शरीर पड़ा हुआ है | फिर जो स्वांस आती - जाती उस पर ध्यान को लगालें - हम पायेंगे कि हमारे विचार विसर्जित हो गये और सहज शांति उपलब्ध हो | :मानसिक स्वास्थ कैसे उपलब्ध हो ? इसकी बहुत सहज आज ध्यान की प्रक्रियाएँ हैं | रात्रि सोने के पूर्व और प्रातः जगाने के बाद 15 मिनिट तक जो हम सारे शरीर को मृत अवस्था में बिल्कुल ढीला छोड़ दें - एसा प्रतीत हो कि मैं इस शरीर में ही नहीं - यह किसी और का शरीर पड़ा हुआ है | फिर जो स्वांस आती - जाती उस पर ध्यान को लगालें - हम पायेंगे कि हमारे विचार विसर्जित हो गये और सहज शांति उपलब्ध हो | ||
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| rowspan="3" |:<u>एक जीवन संस्मरण</u> | | rowspan="3" | | ||
:<u>एक जीवन संस्मरण</u> | |||
:आज सांध्य कौन्सा देवी जी का आना हुआ | बीती स्मृतियाँ साकार हो उठीं | कौन्सा जी जैन महिला लायब्रेरी की व्यवस्थपिका हैं -- आप बहुत लगनशील, परिश्रमी और एक आदर्श महिला हैं | पूज्य स्व. मौशी ( श्रीमती शीलवती जी समैया ) जी ने अपने जीवन-काल में कौन्सा जी का लायब्रेरी बढ़ने में बहुत सहयोग दिया | कौन्सा जी की ग़रीबी और श्रम पर मौशी जी की बड़ी सद-इच्छाएँ थीं -- आज भी मौशी जी के वे सारे सेवा कार्य - याद आ रहे हैं और एक अमिट छाप छोड़ जा रहे हैं कि ' सबमें वही प्रभु विध्यमान है | ' चारों ओर सबमें वह बैठा हुआ है | बाह्य जगत में हम जो कुछ भी इस क्षणवत शरीर से कर सकें - कर ही लेना चाहिए और बाद पछताने का अवसर न रहे - एसा सोचके जितना वर्तमान में बन सके - अवश्य ही कर लेना | | :आज सांध्य कौन्सा देवी जी का आना हुआ | बीती स्मृतियाँ साकार हो उठीं | कौन्सा जी जैन महिला लायब्रेरी की व्यवस्थपिका हैं -- आप बहुत लगनशील, परिश्रमी और एक आदर्श महिला हैं | पूज्य स्व. मौशी ( श्रीमती शीलवती जी समैया ) जी ने अपने जीवन-काल में कौन्सा जी का लायब्रेरी बढ़ने में बहुत सहयोग दिया | कौन्सा जी की ग़रीबी और श्रम पर मौशी जी की बड़ी सद-इच्छाएँ थीं -- आज भी मौशी जी के वे सारे सेवा कार्य - याद आ रहे हैं और एक अमिट छाप छोड़ जा रहे हैं कि ' सबमें वही प्रभु विध्यमान है | ' चारों ओर सबमें वह बैठा हुआ है | बाह्य जगत में हम जो कुछ भी इस क्षणवत शरीर से कर सकें - कर ही लेना चाहिए और बाद पछताने का अवसर न रहे - एसा सोचके जितना वर्तमान में बन सके - अवश्य ही कर लेना | |
Revision as of 20:21, 20 March 2018
- year
- Apr - Jul 1961
- notes
- 86 pages
- Notes of Public Meetings Address & Personal Meetings of Osho with Dignitaries
- Collected by Arvind Jain.