Arvind Jain Notebooks, Vol 2: Difference between revisions
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:[[Arvind Kumar Jain]] | |||
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:41 pages | :41 pages | ||
: | :The second book in a series of five. | ||
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:[[Notebooks Timeline Extraction]] | |||
:[[Arvind Jain Notebooks, Vol 1]] | |||
:[[Arvind Jain Notebooks, Vol 3]] | |||
:[[Arvind Jain Notebooks, Vol 4]] | |||
:[[Arvind Jain Notebooks, Vol 5]] | |||
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: | :40 Pages | ||
:Notes on Life Awakening Talks | |||
:By OSHO | |||
:Oct 62 To Nov 62 | |||
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: | :१६ अक्टूबर ६२ से - ३१ अक्टूबर' ६२ तक. | ||
:[१६ से २३ तक जबलपुर * २४ से ३१ तक गाडरवारा *] | |||
:जीवन के समग्र दर्शन कितने रहस्य और आनंद को अपने से व्यक्त करता है कि जीवन की परिपूर्ण सार्थकता अपने से दृष्टिगत हो जाती है | इस गहराई पर जाकर ही जो दीखता है -- उससे जीवन में समग्रता अपने से आती है | फिर मूलतः जो भी दीखना प्रारंभ होता है ---- उससे जीवन का दुख अपने से विसर्जित हो जाता है | इसके पूर्व तक जो भी जीवन के संबंध में जाना जाता है -— उससे मूल कारण जो दुख के होते हैं, वे विसर्जित हो ही नहीं सकते हैं | जो भी कारण जीवन को बिना देखे जाने जाते हैं, वे बहुत बाहरी और गौण होते हैं | उनसे कोई भी दुख के विसर्जन का प्रश्न नहीं उठता है | | |||
:यह इस कारण लिखा कि आचार्य श्री की जीवन-दृष्टि से संबंधित कुछ इस तरह के प्रसंग उठे कि लगा --- जो देखा गया है उससे मानव जीवन के शाश्वत प्रश्न अपने से हल हो जाते हैं | | |||
:प्रसंग आया था : ' किसी स्व-जन के मर जाने से जो दुख होता है, उससे मुक्त कैसे | |||
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: | :हुआ जा सकता है ? ' | ||
:जब किसी की मृत्यु होती है, तो लगता है कि बाहर कोई केंद्र टूट गया है और उसके चले जाने से दुख हो रहा है | यह समान्यतः प्रचलित बात है | इससे ही जो समझाया जाता है --- उसमें सब पुर्ववत ही जो Stock होता है, उसी में से समझाया जाता है | लेकिन जाना जाता है कि उनके समझाए गए से, मृत्यु का दुख विसर्जित नहीं होता है ---- वह बना ही रहता है | | |||
:भीतर -- अन्तर्द्रिष्टि से जब जाना जाता है -- तो स्पष्ट होता है कि मन हमारा खाली है -- वह भरना चाहता है | इससे ही सारे जीवन भर - भरने का काम चलता रहता है | कहीं धन से, मकान से, वस्तुओं से, संबंधियों से ---- ( पुत्र, पत्नी, मित्र, माँ, भाई, बहिन ), सबसे मन भरा रहना चाहता है | उसमें किसी भी प्रकार से कहीं भी न्यूनता मन को दुःखद लगती है | भरने में सुख है | वह हमेशा अतृप्त है | इससे नये-नये संबधों का और नये- | |||
:नये प्रकार का सुख मन निर्मित करता रहता है -- सोचता है कि कहीं तृप्ति होगी -- लेकिन पाया जाता है कि मन ठीक उतना का उतना ही अतृप्त बना हुआ है जितना पहिले था | | |||
:जब कोई स्व-जन मरता है, तो भीतर से उसके प्रति जो भरापन था - वह टूटता है | उस भरेपन में - सुरक्षा, संबंधित होता, सुविधाएँ प्राप्त थीं -- अब मृत्यु से असुरक्षा, एकाकीपन, असुविधाएँ -- निर्मित होती हैं -- इस कारण दुख है | दुख उसके चले जाने से नहीं है -- वह तो बाहर दिखता भर है --- मूलतः तो जो उसके चले जाने से ख़ालीपन आ गया है -- उसका दुख है | लेकिन भ्रम होता है कि -- सब दुख उसके चले जाने से ही होता है | जो भीतर, उसके रहने से सुख था -- और बाहर कारण था, जब चला जाता है तो भीतर के केंद्रों से टूट जाने के कारण दुख प्रतीत होता है --- और बाहर कारण वह दिखता है | यह बाहर का कारण दिखना स्वाभाविक है, लेकिन भ्रम है | इससे ही बाहर से जो भी समझाया जाता है | |||
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: | :वह सब दुख को नहीं मिटा पाता है | पश्चात जब खाली मन फिर कहीं भर जाता है -- तो मन को सुख होता है और फिर सब कुछ ठीक सामान्यतः चलता रहता है | .... | ||
:इससे मुक्त होना हो तो जानना चाहिए कि सारे संबंधों के बीच जागरूक हो रहना है -- और इससे जो बोध प्रारंभ होता है, वह व्यक्ति को आनंद तथा शांति के केंद्र से संयुक्त कर देता है | ध्यान के प्रयोग भी व्यक्ति को अपने स्वरूप से परिचित करा देते हैं -- और वह मन से पृथक खड़ा हो जाता है | वह अपने में समग्र हो जाता है -- परिपूर्ण हो आता है -- उसमें व्यक्तियों के संबंध में अपने को भरने का जो सुख होता है -- उसकी व्यर्तता दीख आती है -- तब ही पहिली बार व्यक्ति अकेला ही अपने में आनंद के परिपूर्ण बोध से भर जाता है और 'स्व-जन' की मृत्यु पर सहज करुणा से भरा होता है | इसमें सहज उसके प्रति प्रेम होता है और इस कारण उसकी आत्मा की आनंद और शांति | |||
:की शुभकामनाएँ करता है | यही वास्तविक जीवन-दृष्टि है, जो व्यक्ति को सहज जीवन के बीच मुक्त कर देती है | ... | |||
:इस दृष्टिकोण को आचार्य श्री ने एक दिवस कमला जी जैन के समक्ष रखा | आप प्रिंसिपल मुखर्जी की मृत्यु पर -- उनकी श्रीमती जी से मिलने गईं थीं -- उनको आपने बहुत दुखी पाया -- इससे सहानुभूति से भरीं थीं | आचार्य श्री ने कहा : ' अभी आप उनके मन का ख़ालीपन विसर्जित हो जाय - इसके लिए सुझाव का प्रयोग कीजिए -- बाद आप ध्यान को लाएँ -- तो सहज में सब ठीक हो जाएगा | ' | |||
:बीच में कोई प्रसंग उपस्थित हुआ तो श्रीमती जी ने कहा : ' अचानक जब परिवार के सभी जन मृत हो जाते हैं -- तब भी व्यक्ति अपने से शांत हो जाता है -- तो क्या ध्यान से जो शांति आती है -- वह भी एसी ही होती है ? ' | |||
:जब मन गहरे शोक में होता है, तो उससे भी मन में गहरे दुख के कारण | |||
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: | :शांति आ जाती है | लेकिन यह मन की सीमा में ही होता है | मन उपस्थित होता है | यह शांति कभी भी तोड़ी जा सकती है -- यह किसी कारण से आ गई थी -- यह अपने से नहीं थी | अपने में नहीं थी | यह शांति व्यक्तित्व को तोड़कर आती है | इसमें सृजन नहीं होता है | | ||
:ध्यान के माध्यम से व्यक्ति अपने केंद्र से संयुक्त होकर जब शांत होता है तो यह शांति भीतर केंद्र में हो आने से - होती है | यह किसी कारण से नहीं है, यह तो अपने से है | अब सारी घटनाएँ बाहर जगत में घटती रहेंगी - लेकिन यह भीतर का केंद्र अछूता और अप्रभावित - परिपूर्ण शांत रहेगा | | |||
* | |||
:एक दिवस पाठक जी (C.P.T.S.) आ उपस्थित थे | रात्रि के सुखद क्षण थे | सब कुछ अपने में - परिपूर्ण आनंद से भरा - स्तब्ध और शांत था | महापुरुषों के जीवन से संबंधित घटनाओं का उल्लेख पाठक जी ने किया | आपने संत एकनाथ और लोकमान्य तिलक के जीवन की घटनाओं का उल्लेख किया | | |||
:संत एकनाथ के जीवन में एक प्रसंग आता है -- एक समय आप उत्तर भारत से यात्री-दल के साथ थे और गंगा का पानी ले जाकर दक्षिण में शिव भगवान को चढ़ाने को लिए ले जाने को थे | राजस्थान के किसी स्थान तक आए कि बीच में एक गधा प्यास के कारण - छटपटा कर प्राण छोड़ रहा था | एकनाथ ने अपनी गंगाजली का पानी बड़े आनंद में भरकर पिलाया और आनंद से भर आए | लोगों ने समझाया - अरे यह क्या करते हो ! भगवान का पानी साधारण गधे को पिलाते हो | एकनाथ ने कहा : भगवान शिव गधे के रूप में आ गये हैं -- इससे अधिक आनंद की बात और क्या हो सकती है कि साक्षात | |||
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: | :भगवान की मैं सेवा कर पाया हूँ | यह है जीवन की संपूर्णता और एक का ही समस्त जगत में विस्तार है - उसकी प्रत्यक्ष अनुभूति | | ||
:आचार्य श्री ने कहा : एकनाथ बहुत ही अलौकिक व्यक्ति थे और प्रभु चेतना से एक हो आए थे | | |||
:बाद आपने लोकमान्य तिलक के जीवन से एक घटना कही | पाठक जी ने कहा : महात्मा तिलक का बच्चा बीमार था | तिलक जी उस समय पत्र के लिए अग्रलेख लिख रहे थे | बीच संदेश दिया कि बच्चा काफ़ी अस्वस्थ है - गंभीर - चिंता जनक हालत है | लेकिन लोकमान्य तिलक अपने कार्य में व्यस्त थे | बाद - कुछ समय पश्चात बच्चा मर भी गया - लेकिन तिलक जी शांति से समाचार सुन लिया और फिर अपने कार्य में लग गए | | |||
:आचार्य श्री ने कहा : यह घटना दिखने में महान दिखती है और लोकमान्य की प्रशंसा के लिए कही जाती है | लेकिन इसका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करें -- तो स्पष्ट होगा कि लोकमान्य तिलक का | |||
:रस - अग्रलेख लिखकर अपने अहं को तृप्त करने का है | इस अमानवीय तल्लिनता में मन तृप्त होता है | अग्रलेख केवल सामयिक था और उसे बाद में भी लिखकर पूरा किया जा सकता था - आज कौन तिलक जी के अग्रलेख को जानता है | लेकिन उस पुत्र के मन में तिलक जी के न देखने जाने पर कितनी पीड़ा हुई होगी और पिता के प्रति उसके क्या भाव बने होंगे ? सहज जागरूकता और एक दिव्य जीवन दृष्टि के अभाव में ही यह संभव होता है | इस घटना को जानकार कोई यह कह सकता है कि लोकमान्य तिलक ने मृत्यु को कितनी शांति से स्वीकार किया -- लेकिन अग्रलेख यदि जला दिया जाता तो तिलक जी क्रुद्ध हो आते| घटनाओं का महत्व उनके लिए बना हुआ है -- और भीतर एक शांत जीवन का निर्माण नहीं हुआ है जिसके अभाव में ही उनके मन में एकांगी जीवन दृष्टि का निर्माण संभव हुआ | | |||
:गाँधीजी के जीवन में भी एसा ही देखने में आता है | आगा ख़ान जेल में - कस्तूरबा का निधन हुआ | बापू को यह समाचार देने कौन जाता -- अंत में | |||
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: | :सरोजिनी ने बापू को -- 'बा' के निधन का समाचार दिया | गाँधीजी ने कहा ठीक, मैं उससे कहता ही था कि ' तू मेरे से पहीले ही चली जायगी | ' इतने शांत भाव से बापू मृत्यु को स्वीकार करेंगे -- इससे सभी को आश्चर्य था | यह तो बापू के मृत्यु को स्वीकार करने की घटना थी -- जिसमें उनकी शांति बनी रहती है, लेकिन गाँधीजी को सुबह उठाने में देर होती या थोड़ी भी असावधानी होती - तो नाराजई हो आती थी | अब देखेंगे तो वीदित होगा कि अभी मन में अशांति के बीज मौजूद हैं --- और अवसर आने पर वह प्रगट हो आता है | | ||
:लेकिन बुद्ध के जीवन में जो प्रसंग आ उपस्थित हुये हैं -- उनमें बुद्ध सहज संबंधों के बीच प्रेम से भरे हुये हैं और भीतर एक अखंड शांति का स्त्रोत प्रवाहित हो रहा है | कहीं कोई बैचेनी या जीवन दृष्टि में अंधापन नहीं है | | |||
:बुद्ध अपने में बुद्धत्व पाकर और सारे देश में अपने संदेश को प्रसारित कर -- गाँव लौटने को थे | रास्ते में आनंद से बोले : आनंद, गाँव पहुँच रहे हैं, | |||
:बहुत से लोग साथ के हैं --- स्वाभाविक है गले लगेंगे - तो तू उन्हें हटाना मत, पत्नि व्यंग से भारी होगी - थोड़ा एकांत भी चाहेगी -- तो तू दूर ही रहना | अब आनंद सोच सकता था कि एक साधु और इस तरह का व्यवहार | लेकिन आनंद जानता था | | |||
:बुद्ध गाँव पहुँचे तो पत्नि के पास भी गए | पत्नि बोली नहीं - बुद्ध ने बड़े प्रेम से कहा : ' यशोधरा, मैं जानता हूँ - तेरा मन | " अब यह सहज एक मानवीय जीवन दृष्टिकोण है | इसमें बुद्ध का क्या गया ? सहज में उन्हें अपने से सारा कुछ मिल आया था | जीवन में व्यक्ति शांत हो आया हो -- तो फिर बाहर की घटनाएँ -- अपने से शांति और आनंद से भर आती हैं | लेकिन पहली बात यही है कि क्या वह जीवन की अतुल गहराइयों में प्रवेश पा गया है ? यदि प्रवेश हो चुका है तो कहीं भी जीवन् में ग़लत घटित नहीं होता है | | |||
:लेकिन मैं आपसे कहूँ पाठक जी कि हमने महापुरुषों के जीवन की घटनाओं का विश्लेषण | |||
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: | :करना ही छोड़ दिया है -- और इस कारण ठीक तथ्यों से हम परिचित ही नहीं हो पाते हैं | होता यह है कि हम केवल नाम पर ही रुक जाते हैं -- उसके आगे सोचने-समझने का क्रम ही समाप्त हो जाता है | इससे कोई राष्ट्र विकसित नहीं होता, वरन रुक जाता है |.... | ||
:जीवन के इस उलझाव के बीच - आचार्य श्री की मुक्त साधना गत वाणी - हृदय में एक गहरा आत्म विश्वास का संचार करती है | न जाने कितनी भटकी, अशांत और अतृप्त आत्माओं को आचार्य श्री की वाणी का अमृत पान करने का अवसर आता है कि उससे अपने से जीवन में आनंद और शांति अवतरित होती है | | |||
:सब कुछ सूचनाएँ जान ली जायें, लेकिन जब तक अपने को न जाना जाय -- तब तक सब व्यर्थ है | हमने सारी सूचनाओं को इकट्ठा कर रखा है --- और धीरे-धीरे सूचनाएँ ही यह भ्रम देने लगती हैं कि वे सब तथ्य जो सूचनाओं के हैं --- वे ज्ञात हैं | इससे बड़ा भ्रम और कुछ भी नहीं है | इससे सबसे पहिली बात व्यक्ति को अपने संबंध में यह जानना है कि जितनी भी सूचनाएँ उसने इकट्ठी कर रखी हैं, उसमें से कितनी वह जानता है | ठीक से विश्लेषण करना आवश्यक है | बिना उचित विश्लेषण के एक भ्रम पाला जा सकता है -- और भ्रम में ही जीवन काटा जा सकता है | | |||
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: | :पहिली बार जब विश्लेषण से बोध होता है कि जो कुछ भी इकट्ठा किया था -- उसमें से कुछ भी जाना नहीं गया है, तो यह गहरी पीड़ा ही व्यक्ति को आत्म ज्ञान की ओर ले जाती है | ठीक से अपने से परिचित हो जाना -- जीवन में क्रांति को जन्म देना है | | ||
:इतना सब पान्डित्य, ग्रंथ और विशाल व्यवस्था व्यक्ति ने की है कि सबमें व्यक्ति को उलझ जाना एकदम स्वाभाविक है | इस सबमें उलझकर ' जो है ' उससे व्यक्ति एकदम दूर होता जाता है | आज पहिली बार व्यक्ति भीतर से इतना दरिद्र हुआ है --- बाकी बाहर से इतना सब इकट्ठा किया है कि बोध भी नहीं होता कि जो कुछ इकट्ठा किया है --- वह व्यक्ति को समृद्धि देता है कि दरिद्रता | लेकिन व्यक्ति की दरिद्रता को अब और छुपाया नहीं जा सकता, क्योंकि जो परिणाम दृष्टिगत होते हैं, उसमें सारी उलझनें अपने से स्पष्ट हो आती हैं | साफ है कि व्यक्ति दरिद्र होता जा रहा है | | |||
:एसा ज्ञान जो आपको कहीं नहीं पहुँचाता है, व्यर्थ है | जो आपको भीतर तक ले चलता है -- | |||
:बस केवल उतना थोड़ा सा ही आपके लिए सार्थक है | उससे आपको असीम का बोध होता है | शेष बहुत कुछ भी व्यर्थ का केवल कचरा है | उससे कुछ भी संभव नहीं है | | |||
:लेकिन विचारों को इकट्ठा कर लेना एकदम आसान है -- उन्हें कहीं से भी इकट्ठा किया जा सकता है | और उसमें ' अहं ' की तृप्ति का भी मज़ा है | समस्त विचार प्रक्रिया ' अहं ' का जोड़ है | इससे विचारों से मुक्ति - अहं से मुक्ति है | जैसे ही विचार प्रवाह विसर्जित हुआ कि व्यक्ति अपने से ' जो है ' उससे परिचित होना शुरू होता है | यह परिचित होना भर कीमती है, शेष सब व्यर्थ है | परिचित होते ही जो व्यक्तित्व होता है - वह दूसरा हो आता है | सारा कुछ अपने से बदल आता है | ठीक इसी जगत के बीच, हम दूसरे आदमी होकर खड़े हो जाते हैं -- और जीवन तथा जगत का महत्व पहिली बार दृष्टिगत होता है | | |||
:इससे में नहीं कहता कि आप कुछ भी एसा पढ़ें, जिससे केवल बुद्धि और तर्क की संतुष्टि | |||
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| 16 - 17 | | 16 - 17 | ||
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: | :हो -- वरन एसा कुछ पढ़ें और उस दिशा की ओर उन्मुख हों -- जो आपमें कुछ शांत और आनंद पूर्ण व्यक्तित्व का निर्माण करे | यह बौद्धिक परिधि के बाहर की सीमा है --- जिसका केवल साधना से संबंध है, बुद्धि से इसका दूर का भी संबंध नहीं है | इससे ही, केवल साधना से सारा कुछ संबंध है -- और मेरा भी मन आपको साधना के लिए ही कहना है -- जिससे जीवन में गहरी शांति का अवतरण होता है | | ||
:[ इन महत्व के जीवन-क्रांति के तथ्यों को आचार्य श्री ने -- श्री स्व. भागीरथ प्रसाद जी द्विवेदी की छै - मासी के अवसर पर उपस्थित श्री शर्मा जी वैद्य, पूना और अन्य बाहर से उपस्थित व्यक्तियों के साथ ही साथ गाडरवारा के तरुण युवकों के बीच -- व्यक्त किया | पूछा गया था : श्री अरविंद, स्वामी विवेकानंद इनके ग्रंथों को पढ़ने के संबंध में आपकी क्या धारणा है ? इसी अवसर पर बौद्धिक पहुँच और साधनागत जीवन दृष्टि को आपने स्पष्ट किया | ] | |||
:इसी अवसर पर पूछा गया : ' मैहर बाबा के संबंध में आप क्या कहते हैं " ' | |||
:मैहर बाबा ने निश्चित कुछ शक्तियों को उपलब्ध किया है -- और उसका प्रभाव होता है | बाकी जो और संपूर्ण भगवान होने की बात है - मैहर बाबा ने संयुक्त कर ली है -- वह केवल एक ' अहं ' को पालना मात्र है | इस प्रभुता का उपयोग है | भक्तगण जो अनन्य श्रद्धा से करीब पहुँचते हैं --- उनको निश्चित लाभ होता है | लेकिन कितनी दूर तक और किस सीमा तक -- भक्तगणो को लाभ होता है, यह जानना दुरूह है | बाकी मैहर बाबा स्वयं 36 वर्षों से मौन हैं -- और प्रतिवर्ष यह घोषणा करवाते हैं कि जिस दिवस उनकी वाणी मुखरित होगी - सारे विश्व में धार्मिक क्रांति घटित होगी | यह घोषणा की तिथि उनकी प्रत्येक वर्ष बढ़ती चली जाती है -- इस ‘ Postponement ’ से उनकी बात की संदिग्धता स्पष्ट हो जाती है | यश दावा ही उनका इतना भ्रमित है कि कोई भी शांत चेतना की स्थिति में हो आया व्यक्ति -- कर ही नहीं सकता | |||
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| 18 - 19 | | 18 - 19 | ||
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: | :हैं | स्पष्टता तो यही है - बाकी अंधी श्रद्धा में तो फिर जो भी कुछ प्रचलित हो जाता है -- वही ठीक माना जाने लगता है | मेरा अपना देखना साफ है | और जितनी सीमा तक वैज्ञानिक तथ्य है, उसे ही भर स्वीकार करता हूँ | | ||
:एक नवयुवक उत्सुक हैं, आत्मिक जीवन में आ रहने को | जब भी आपको अवकाश मिलता है, आचार्य श्री के चरण कमलों में आ उपस्थित होते हैं | आपकी अपनी वास्तविक जीवन की कठिनाइयाँ हैं और उनसे विलग होने को उत्सुक हैं | ध्यान के लिए भी आपका आना होता है | | |||
:पूछा था आपने : ' क्रोध को किस प्रकार दूर किया जा सकता है ? ' | |||
:क्रोध को लोग जैसा चलता है, चलने देते हैं या फिर उसे दमन करते - दबाते चले जाते हैं | लेकिन दमन से या संयम करने से -- मालूम होता है कि क्रोध नहीं आता है | लेकिन भीतर ही भीतर अचेतन में दमित क्रोध का वेग बढ़ता रहता है और अवसर पाकर जब फूटता है -- तो फिर मनुष्य की कोई ताक़त उस पर नियंत्रण नहीं पा सकती है | उसका आवेग व्यक्तित्व को तोड़ देता है, विकृत कर जाता है | | |||
:इससे क्रोध को विसर्जित करने का वैज्ञानिक मार्ग है } आप सोने के पूर्व यह सुझाव देकर सोएँ कि | |||
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| 20 - 21 | | 20 - 21 | ||
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: | :' क्रोध विसर्जित होता जा रहा है - किसी भी स्थिति में क्रोध आने को नहीं है " इसे १०-१५ बार कहकर सोएँ और कहें कि ' कल दिन भर मान शांत बना रहेगा | ' इस तरह आप १५ दिन तक प्रयोग चलने दें -- आप पाएँगे कि वर्षों का क्रोध अपने से विसर्जित हो गया है | | ||
:सुलभतम मार्ग है -- क्रोध को विसर्जित करने का और जीवन में आनंद में हो रहने का | | |||
:[ मान के अचेतन में जो भी सुझाव व्यक्ति को पकड़ लेते हैं -- उनका स्पष्ट प्रभाव होता है और व्यक्ति निखार पता है -- यह वैज्ञानिक तथ्य आचार श्री ने श्री कोमल भाई के समक्ष व्यक्त किया | ] | |||
:हमने बहुत बाह्य मूल्यों को पूजा है | सारा मूल्य लक्षणों में स्थापित कर रखा है | पैसे का मूल्य हमारी दृष्टि में है | इससे जो पैसा छोड़ता है -- उसे हम पूजते हैं मान-सम्मान भी उसे ही देने लगते हैं | इससे बाह्य स्वरूप को साध लेना एकदम सरल है और मान-सम्मान जब हम उसे देने लगते है - तब तो एकदम सरल हो जाता है | मन के रास्ते बहुत सूक्ष्म है और कहाँ से वह तृप्ति का मार्ग खोज लेता है, इसे जानना बहुत मुश्किल कार्य है | सब छोड़ा जा सकता है और भीतर मन में रस ठीक वैसा का वैसा ही बना रह सकता है, जैसा पूर्व में था | | |||
:बचपन में दो साथी - साथ पढ़े थे | उनमें से एक बड़ा होकर राजकुमार बना -- बड़ा वैभव बढ़ाया और समृद्धि के अंतिम चरण छुने लगा | दूसरे ने सब छोड़ा - और प्रतिष्ठित साधु हुआ | एक समय साधु पास के गाँव में था | राजा ने यह जानकार उसे सम्मानित करना चाहा | सम्मान की सारी व्यवस्था की -- राजपथ पर ईरानी कालीन बिछाए और शानदार स्वागत का आयोजन किया | | |||
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| 22 - 23 | | 22 - 23 | ||
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: | :साधु सुबह-सुबह गाँव में प्रवेश किया | राजा उसके स्वागत को गाँव के बाहर लेने आया | लेकिन राजा देखकर आश्चर्य में था कि साधु के पैर कीचड़ से डूबे हुए थे | कहा गया : आज तो बरसा भी नहीं हुई -- लेकिन आपके ये पैर कीचड़ से कैसे डूबे हैं ? साधु बोला : तुम अपना इतना वैभव दिखा सकते हो, तो मैं भी लात मार सकता हूँ | राजा बोला : तब मित्र अभी तुम वही बने हो जहाँ मैं हूँ -- सब छोड़के भी तुम ठीक वैसे के वैसे ही बने हुए हो | | ||
:मन की तृप्ति के मार्ग बदले जा सकते हैं — और इसमें एक भ्रम पाला जा सकता है | और अधिकाँशतः जो भी साधक देखने में आते है — उन्होंने अपने मन को विरोधी दिशा में ले जाकर तृप्त किया है | सब सुख केवल ' अहं ' की तृप्ति का है | आचार्य श्री ने उद्धरणों से यह स्पष्ट किया और कहा : कि मिलना हुआ अभी देश के बड़े साधुओं से - और पाया कि जिसके लिए सब छोड़ा था - वह तो मिला ही नहीं -परिणाम में और ज़्यादा अशांत मन हो गया | | |||
:अब बेचारे साधुओं को जो रोज-रोज कहना पड़ता है कि 'सब छोड़ो - ताकि मुक्ति हो - शांति मिले; उसमें तक आत्म विश्वास खो गया है | ' क्योंकि कुछ मिलता तो है ही नहीं है |... | |||
:पकड़ने और छोड़ने के पार की जो अवस्था है -- जहाँ न राग है और न विराग -- केवल वीतराग की अवस्था है -- ऐसे व्यक्ति मिल भी जाएँ तो उन्हें पहचानना बड़ा मुश्किल है | उनको तो उस स्थिति में होके ही जाना जा सकता है | इस संबंध में एक उद्धरण देते हुए कहा : कबीर का लड़का था - कमाल | एकदम मुक्त अवस्था में था | लेकिन कबीर की उससे मेल न खाती | क्योंकि कमाल बेचारा जो भी आता उसे सहज स्वीकार कर लेता | कबीर ने सोचकर कि लोभी है - अलग कर दिया | काशी नरेश एक समय कबीर से मिलने आए | बोले : कमाल कहाँ है ? कहा गया : कमाल कपूत है - लोभी है -- नहीं बनती थी -- इससे बाहर कर दिया है | नरेश को | |||
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| [[image:man1341.jpg|400px]] | | [[image:man1341.jpg|400px]] | ||
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| 24 - 25 | | 24 - 25 | ||
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: | :कमाल से प्रेम था | इससे मिलने पहुँचे | कमाल बैठा था | काशी नरेश ने एक बड़ा हीरा भेंट किया | कमाल बोला : अरे! लाए भी तो पत्थर भेंट करने लाए ! नरेश ने उसे ले लिया - जाने को थे | तो कमाल बोला : अरे! पत्थर को अब कहाँ ढोओगे व्यर्थ ही - छोड़ जाओ | नरेश ने सोचा -- अजीब मालूम होता है - लोभी जो है | पर नरेश ने पूछा : कहाँ रख दूं |कमाल बोला : कहीं भी रखिए - नरेश ने उसे कमाल की झोपड़ी में एक स्थान पर सनोली के बीच रख विदा ली | | ||
:अचानक छै माह पश्चात राजा लौटा | पूछा: हीरे का क्या हुआ ? कमाल बोला : यदि किसी ने न उठाया होगा तो जहाँ आपने खोंसा था - वहीं हीरा होगा | राजा ने देखा तो हीरा ख़ुसा पाया गया - जहाँ खोंसा था | | |||
:ठीक से भीतर चेतना की गहराई में हो रहने पर पाया जाता है कि अब तक जो मूल्य जाने थे - वे व्यर्थ हो आए | इस सम्यक अवस्था | |||
:में ही व्यक्ति को ठीक तथ्यों का दिखना विदित होता है -- और तब ही केवल रस तथा विरस के पार की अवस्था में व्यक्ति हो आता है | | |||
:इससे एक तो सही व्यक्ति मिलना मुश्किल होता है और मिल भी जाय तो उसे पहचान पाना मुश्किल होता है | ..... | |||
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:[ इन तथ्यों को आचार्य श्री ने मध्यान्ह बेला में पूज्य बड़े मामाजी, एक अन्य गाडरवारा में ठाकुर साब से संबंधित वृद्ध सज्जन, परिवार के अन्य सदस्यागण के समक्ष व्यक्त किये | ] | |||
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| 26 - 27 | | 26 - 27 | ||
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: | :गाडरवारा आचार्य श्री का घर है | इसी नगर में आपने शिक्षण पाया और जीवन को विकास के पथ पर अग्रसर किया | यहाँ पर इस बार कुछ साथियों के सौजन्य से -- श्री ज़मनादास जी के बगीचे में ५ दिवस तक ध्यान पर प्रयोग दिए गए | समस्त नगर में एक वातावरण का निर्माण हुआ और बहुत ही अच्छे परिणाम घटित हुए | रात्रि ९ से १० तक यह कार्यक्रम रखा जाता था | | ||
:पूर्व ध्यान के आवश्यक बातों को आचार्य श्री उल्लिखित करते - बाद ध्यान में हो आने के लिए - सुझाव दिया करते | | |||
:जो भी कुछ यहाँ कहा गया - वह जीवन-मुक्ति के लिए पर्याप्त है | कुछ मूल बातें जो स्मृति में हैं -- उनका विवरण यहाँ दे रहा हूँ | | |||
:आचार्य श्री ने कहा : | |||
:इस ध्यान की प्रक्रिया | |||
:में आपको अपना कुछ भी नहीं जोड़ना हैं | जो भी आप ध्यान के संबंध में जानते हैं -- उस सबको ज़रा भी इस प्रक्रिया के साथ संयुक्त न करें | | |||
:आपको अपनी तरफ से सब करना छोड़ के ... बैठ जाना है | सारे प्रयास छोड़कर ही -- केवल सरल मन से सुझावों को आप गृहण करें -- तो शीघ्रता से घटना हो जाती है } ध्यान एकदम अप्रत्याशित घटना है -- किसी भी क्षण घटित हो जाती है | | |||
:आप यहाँ ' न करने ' की स्थिति में हो रहे हैं | जब सब करना छूट जाता है -- तो ' जो है ' वह अपने से दिखता है | | |||
:इस ध्यान की प्रक्रिया में -- मैं अपनी ओर से कुछ भी नहीं कर रहा हूँ | आप ही केवल सुझाव के माध्यम से -- मन के बाहर हो रहे हैं | और पहीले ही दिवस -- अधिकांश व्यक्तियों को यह हो जाता है | अभी आप यहाँ बैठे हैं -- बाद घर आप सोने के पूर्व इसे कर लिया करें -- | |||
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| 28 - 29 | | 28 - 29 | ||
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: | :तो शीघ्रगामी परिणाम घटित होंगे | कारण कि आपकी नींद में भी ध्यान सरकता रहेगा -- और इस तरह नींद आपकी ध्यान में परिवर्तित हो रहेगी | यह आज के युग की व्यस्तता को देखते हुए अत्यंत आवश्यक है | समय के अभाव के कारण यदि आप अतिरिक्त समय न दे सकें — तो नींद को तो आसानी से ध्यान में परिवर्तित किया जा सकता है | | ||
:इन महत्व की सूचनाओं को देकर आचार्य श्री ध्यान में हो आने के लिए सुझाव देते | शीघ्र इतने सुखद परिणाम प्राप्त हुए -- जिनकी कोई कल्पना भी नहीं की जा सकती थी | १५० - २०० व्यक्ति इस बीच ध्यान में सम्मिलित हुए -- उनमें से १०० व्यक्तियों पर आश्चर्यजनक परिणाम घटित हुए | शरीर तो शिथिल होकर गिर ही जाते थे | और काफ़ी गहराई में जाना हुआ | | |||
:सबसे बड़ी घटना तो जो घटी वह | |||
:यह कि परिवार से भी सभी जनों ने गहरी मनोभावनाओं के साथ भाग लिया | पूज्य बड़े मामाजी, छोटे मामाजी, बड़ी माई जी, छोटी माई जी, पूज्य रसा जीजी, विजय बाबू, अकलंक बाबू, पूज्य भाभी जी, निकलॅंक बाबू, राकेश बाबू, प्रफुल्ल जी, पूज्य नानी जी, निशा, राका, निशी, अनुराग बहिन -- सभी ने पूरी लगन से भाग लिया -- और जो सूर्य विश्व में प्रकाशित हो -- प्रकाश देने को है -- उसका पहीले प्रकाश परिवार ही ले-ले, इससे बड़े सौभाग्य की बात और क्या हो सकती है | सभी कुछ परिपूर्ण आनंदित था | एक नयी लहर गाडरवारा में तरंगित हो उठी | जो जोशीली, तीव्रता लिए हुए और शक्तिशाली रही | | |||
:आचार्य श्री ने अन्य दिवसों में कहा : ध्यान की यह सुलभतम विधि है | और एक साप्ताह यहाँ करने के बाद आप घर करते रहें; ठीक से यदि तीन माह तक आपने इसे कर लिया तो जो परिणाम घटित होना शुरू होंगे -- उसकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते हैं | चेतना | |||
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| 30 - 31 | | 30 - 31 | ||
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: | :की गहराइयों में आपका उतरना एकदम आसान हो जाएगा | आपको केवल आँख बंद करने की देर है कि आप अपने भीतर हो रहेंगे | धीरे-धीरे यह चित्त की अवस्था बढ़ती चली जाती है -- और दिन के प्रत्येक क्षण में जब भीतर शून्यता बनी रहे -- तो सब कुछ फिर ध्यान में होगा | अभी अन्य कार्यों के बीच ध्यान भी आपको करना पड़ता है, लेकिन परिपूर्ण अवस्था मैं फिर सारे कार्य ध्यान में होंगे | तब फिर अलग से ध्यान की आवश्यकता नहीं रह जाती है | जब ध्यान की आवश्यकता न रह जाय -- तब ही ध्यान आता है | | ||
:बायजीद नाम का एक बहुत मस्त फकीर हुआ | छुटपन से वह नियमित ठीक 5 समय नमाज़ पढ़ने जाता था | वर्षा हो या कुछ भी हो, उसका नमाज़ पढ़ना निश्चित था | यहाँ तक कि बायजीद बुखार तक की हालत | |||
:में - नमाज़ पढ़ने गया था | पर एक दिन अचानक बायजीद नमाज़ को न पहुँचा -- बड़ी फिकर हुई - क्योंकि एसा तो कभी भी नहीं हुआ था | बायजीद का बुढ़ापा आ गया था - नमाज़ पढ़ते-पढ़ते, आज जब बायजीद नहीं पहुँचा तो लोग उसके घर पहुँचे -- देखा तो सभी आश्चर्य में थे -- बायजीद मस्त हंसता हुआ बात करता था | पूछने पर बताया : ' जिसके लिए नमाज़ थी - वह घट आया है -- अब सब व्यर्थ है | ' लोग तो आश्चर्य में थे | | |||
:ठीक जब ध्यान भी व्यर्थ हो जाये, तो व्यक्ति परिपूर्ण ध्यान में हो आया है | यह अंतिम ध्यान की सहज परिणिति है | तब सब बाहर घटित होता रहता है, भीतर असीम शांति अपने से बनी रहती है | इसमें हो आना अदभुत आनंद है | पहिली बार समस्त क्रियाएँ आनंद में हो आती हैं और होना कितनी कृतज्ञता की बात हो जाती है -- इसे होकर ही जाना जाता है | | |||
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| 32 - 33 | | 32 - 33 | ||
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: | :भारतीय उत्तरी पूर्वी सीमा क्षेत्र में जो चीनी आक्रमण हुआ -- उससे सारा देश -- भाव में, जोश में, तनाव में, विवाद और क्रोध के आवेश में उबल उठा | आचार्य श्री के पास भी - लोग - भाषण के लिए कहने आए | आचार्य श्री ने कहा : - | ||
:युद्ध से, हिंसा से आज तक -- शांति नहीं हो सकी है - और न हो सकती है | क्यों आज देश में इतनी तीव्रता है - इसके पीछे भी कारण है | आदमी के भीतर प्रतिकार के बीज उपस्थित हैं - घृणा, क्रोध, प्रतिकार, हिंसा, जोश -- यह सब कुछ भीतर विद्यमान है | यह सब प्रकट होने के लिए अवसर - की खोज रहती है | जब कभी अवसर आता है -- तो यह सब बाहर सामूहिक उग्रता लिए प्रगट हो जाता है | संजोय हुए शब्दों में -- आदमी अपना उफान निकालता है, और प्रशंसा, मान-सम्मान इस सबकी दौड़ में अंधी राहों पर चलता जाता है | इसमें मज़ा आता है -- और नाम भी होता है | ठीक से इस सबका मानो विश्लेषण करें - तो स्पष्ट होता है कि -- आदमी की चेतना की | |||
:स्थिति बहुत निम्न स्तर की है | उसके केंद्र निम्न स्तर के हैं | इससे निकृष्टता से वह प्रभावित होता है और शीघ्रता से हवा में विष फैल जाता है | भीतर से आदमी अशांत है --- अपनी इस अशांत अवस्था का प्रकाटिकरण करने के लिए उसे अवसर चाहिए | फिर, राष्ट्र की स्वतंत्रता की रक्षा का प्रश्न जब सामने आ जाता है, तो इससे अच्छा अवसर और क्या हो सकता है | देश-भक्ति के नाम पर जो भी हो जाय - वही उचित मान लिया जाता है | खूब खुलकर मौका मिलता है, अपने को शोर-गुल में उलझा लेने का -- और चेतना की बहुत निम्न वृत्तियाँ कार्यशील ही जाती हैं | यह एक बहुत ही असंस्कृत राष्ट्र का होना है | | |||
:मेरा अपना देखना है -- चेतना को श्रेष्ठ स्थिति में ले आने का मार्ग हो - तो लाख में से १०-१५ लोग पूरी तरह से तैयार होंगे | इससे युद्ध में प्रत्यक्ष भाग लेना या अप्रत्यक्ष उसे सहयोग देना -- अपने आप में छोटी बात है | मेरा कोई भी झुकाव उस तरह का नहीं है | | |||
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: | :फिर - भारत की सैनिक और युद्ध संबंधी पक्ष को हम लें -- तो जितनी प्रगती U.S.S.R. ने आज तक की है --- उतनी हम १०० वर्ष में कर सकेंगे -- संदेह आता है | यह भी उनके सहयोग पर ही निर्भर है | हमारा कोई उनसे मुकाबला ही नहीं है | | ||
:और सबसे बड़ा मज़ा यह है कि यदि भारत भी अब हिंसा में विश्वास रखने लगता है -- तो विश्व में अहिंसा से भी कुछ हो सकता है -- यह मार्ग ही समाप्त हो जाता है | भारत के किसी भी व्यक्ति ने यह कहने का साहस ही नहीं किया -- कि अहिंसा भी एक मार्ग है -- और भारत उस पर चले -- तो ही केवल हल संभव हो सकता है | | |||
:मेरा देखना है कि आपके यदि १,००० - शांति के प्रतिनिधि -- शस्त्रों से लैस सेना के समक्ष हों -- तो कोई भी व्यक्ति उनको मारने का साहस नहीं कर | |||
:सकता है | और में कहता हूँ कि कल्पना करिए -हमारे लोग उनकी हिंसा के आगे शब्द भी नहीं बोलते हैं -- तो कोई भी सैनिक आगे नहीं आ सकता है | बस केवल यही मार्ग है -- जिससे हल संभव है -- और जो कुछ हो रहा है -- उससे जो उलझनें होंगी, वह सब तो सामने आने को हैं -- ही | | |||
:हमने शांति और अहिंसा से कार्य किया होता तो विश्व की सहानुभूति हमारे साथ थी | अब और अधिक युद्ध का विस्तार होता है -- तो हमने जो अमरीका का पक्ष ग्रहण किया है -- फ़ौजी सामान लेने का -- उससे हमारी तटस्थता समाप्त होती है और हमने अमरीका का पक्ष ग्रहण कर लिया - यह स्पष्ट हो जाता है | और विश्व-युद्ध का स्थल भारत बन जाये --- इस बात की आशंका बन जाती है | साथ ही -- राशिया की सहायता -- आपसी मतभेदों के बाद भी चीन के साथ होती है -- तो स्पष्ट है कि ' भारत और चीन ' का युद्ध न होकर ' अमरीका | |||
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: | :और राशिया ' का युद्ध हो जाता है | इससे जो विनाश संभव है -- वह तो दृष्टिगत ही है | उससे बचा जाना संभव नहीं हो सकता है | फिर भारत ने रक्षार्थ कदम उठाए हैं -- इससे भारत की भूमि तो जितनी चीनी ले लेते हैं -- उसे केवल छीना भर जा सकता है -- और अपनी सीमा की रक्षा भारत कर सकता है | दोनो ओर के जो ग़रीब सैनिक मारे जा रहे हैं --- उनकी भर क्षति अंततः शेष रह जायगी | दोनों राष्ट्रों के ' अहं ' पूर्ति के लिए -- हिंसा का सहारा लिया गया है -- जो एकदम ग़लत है | | ||
:बड़ा आश्चर्य तो मुल्क के अहिंसक, सरल चित्त और सात्विक कहलाने वाले लोगों पर होता है -- जो कहते हैं ( डा. राजेन्द्र प्रसाद द्वारा कहा गया ) : ' चीनी सैनिक -- बंदी बनाए जाएँ -- तो उन्हें एक बूँद पानी भी न दिया जाए और चीनी आक्रमण का डटकर मुकाबला किया जाये | ' अब इस सबसे स्पष्ट है कि यह अहिंसा केवल | |||
:उपर से थोपी गई है -- और जब भी मन में अच्छे सिद्धांतों के पीछे कुछ विपरीत करने का या कहने का अवसर आता है -- हिंसा की दबी भावना उग्र रूप में फूट पड़ती है | इतना आसान कार्य था कि मुल्क में कुछ लोग कहते ; ' हम किसी भी कीमत पर युद्ध के लिए तैयार नहीं हैं ' चीनी भाइयों ने जो ज़मीन लेने के लिए आक्रमण किया है यह ना-समझी है -- इसके लिए उचित है कि हम एक निष्पक्ष कमीशन बिठाएँ -- और जो निर्णय हो - उसे मानें | ; --- यह एक अहिंसक राष्ट्र का विवेकपूर्ण कदम होता -- जिससे दुनियाँ में एक विशाल मानवीय जीवन दृष्टि से भी कार्य - आसानी से संभव हैं - यह उदाहरण ' भारत और चीन ' मिलकर उपस्थित कर सकते | | |||
: तो, आज पूरे मुल्क में निष्पक्ष दृष्टि से कुछ कहना आवश्यक है | लेकिन निष्पक्ष होना तो दूर रहा -- सारे लोग प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष रूप से युद्ध में सहयोगी हो रहे हैं | दान दिया जाता है - | |||
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: | :' राष्ट्रीय सुरक्षा कोष ' में .... इसका अर्थ होता है कि हम चीनीयों की हत्या चाहते हैं -- इसी तरह चीनी यदि द्रव्य इकट्ठा करते हैं -- तो वे भारतीयों की हत्या चाहते हैं | यदि इस तरह के कुछ लोग - निष्पक्ष होकर बात को कहते है -- तो उसका स्पष्ट प्रभाव होता है -- कारण कि यह ' सत्य ' है -- ' मानवीय ' है | इससे ही केवल विश्व में एकात्म बोध का होना संभव है --- शेष सब अपने में निरर्थक है | | ||
:लेकिन राष्ट्र में इतनी दरिद्रता होगी कि एक भी व्यक्ति गहराई से --- चेतना की श्रेष्ठ स्थिति में होकर -- कुछ कहता --- यह देखने में पहिली बार भारत में आया है | अन्यथा -- घोर हिंसा की संभावनाओं के बीच भी भारत में अहिंसा का दीप जलता रहा है -- जिससे ही थोड़ी - बहुत रोशनी सामूहिक क्षेत्र में अहिंसा की थी | लेकिन अब तो वह रोशनी भी बुझ गई -- जो स्पष्ट इस देश की | |||
:वर्तमान नीति से हो जाता है | | |||
:श्री नामदेव मा- साब के छोटे भाई - उत्साही और परिश्रमी नवयुवक हैं | एक दिवस आपने आचार्य श्री से पूछा : ' क्या विश्व की केंद्रीय सत्ता -- समस्त राष्ट्र मिलकर बना लें -- तो दुनियाँ का भला न हो ? ' | |||
:आप अंतरराष्ट्रीय सरकार की बात कर रहे थे | आचार्य श्री ने कहा : आज दुनिया में केवल दो ही वर्ग हैं -- पूंजीवादी के समर्थक और साम्यवाद के समर्थक | इसके विपरीत और कोई वर्ग नहीं हैं | और तटस्थ होने का कोई भी अर्थ ही नहीं होता है | लेनिन ने कहा है : सर्वहारा दुनियाँ के किसी भी कोने में हो -- वह एक ही है | उसके जीवन की एक ही अवस्था है | इससे कुछ लोगों के खून से -- यदि समस्त मानवता का उद्धार होता है तो इस तरह की हिंसा उचित है | पूरी अर्थ व्यवस्था परिवर्तित होती है -- और समाज में खुशहाली अपने से आती है | भारत में तेलंगाना | |||
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: | :और वारंगल में साम्यवादियों ने २ माह तक राज्य किया इस बीच वहाँ जो हुआ -- मानवीय जीवन-स्तर उठा - उससे बाद में जो जिसे मिल चुका था - वह लेना संभव ही न हो सका | आज तक आधी दुनिया साम्यवादी प्रभाव में है | | ||
:और उनकी ताक़त बढ़ती हुई है | इससे वे युद्ध तो चाहते ही नहीं हैं -- उसे केवल आगे करते रहना चाहते हैं | उनका विश्वास है कि केवल ' साम्यवाद ' ही अब आने वाला है | और आने वाली दुनिया ' साम्यवादी ' होने को है | | |||
:इसके विपरीत - पूंजीवाद गिरती हुई अवस्था में है | उसे घबड़ाहट है और अब युद्ध हुआ तो केवल अमरीका की ओर से होने को है | भारत - एक बड़ी ग़लती अपने से कर रहा है कि वह डूबते हुए सूरज के साथ है | | |||
:बाकी जैसे ही शक्तिशाली होकर कोई ' वाद ' आए -- भविष्य में शासन-सूत्र को विश्व के हित में चलाया जा सकता है | | |||
:जानना होगा कि साम्यवाद अपनी | |||
:व्यवस्था को बढ़ाना चाहते हैं | उनकी वफ़ादारी कम्यूनिज़्म में है | पूंजीवादी अपने विस्तार को चाहता है, लेकिन अब यह संभव नहीं है | इससे युद्ध अब ' साम्यवाद ' और ' पूंजीवाद ' के बीच है --- वह दुनिया के किसी भी क्षेत्र में क्यों न हो | ... | |||
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Latest revision as of 16:55, 27 July 2020
- author
- Arvind Kumar Jain
- year
- Oct - Nov 1962
- notes
- 41 pages
- The second book in a series of five.
- see also
- Notebooks Timeline Extraction
- Arvind Jain Notebooks, Vol 1
- Arvind Jain Notebooks, Vol 3
- Arvind Jain Notebooks, Vol 4
- Arvind Jain Notebooks, Vol 5