Arvind Jain Notebooks, Vol 4: Difference between revisions
Jump to navigation
Jump to search
mNo edit summary |
mNo edit summary |
||
Line 20: | Line 20: | ||
| style="width:410px" | cover | | style="width:410px" | cover | ||
| rowspan="3" | | | rowspan="3" | | ||
: | :(4) | ||
:9 pages | |||
:Notes of Gadarwara Visit | |||
:16th May to 23rd May, 63 | |||
: ------x ------ | |||
:Regarding OSHO - Life Philosophy | |||
|- | |- | ||
| [[image:man1386.jpg|400px]] | | [[image:man1386.jpg|400px]] | ||
Line 29: | Line 34: | ||
| 1 | | 1 | ||
| rowspan="3" | | | rowspan="3" | | ||
: | :गाडरवारा 16 मई से 23 मई ' 63 तक | ||
:(मातृ - पितृ छाया ) | |||
:जगत के इस अंधे क्रम में - सारा कुछ अँधा है | जब तक यह अंधापन है, तभी तक आदमी की दौड़ है | ठीक से -- आचार्य श्री की सम्यक वैज्ञानिक जीवन साधना से अभिभूत वाणी की दिव्यता जब व्यक्ति अनुभूत करता है -- तो पहिली बार उसे अपनी मृत अवस्था का बोध होता है और एक झलक उसे अमृत - दिव्य जीवन की दिखाई पड़ती है | आज के युग में एक बड़ा अभाव ऐसे महान व्यक्तित्वों का हो गया है जिन्हें देखकर आदमी - आनंद और शांति की ओर उन्मुख हो सके | सारी ताकतें - एक आँधी दौड़ में चलती हैं और जब एक सामान्य व्यक्ति इस सबको देखता है -- तो वह भी स्वभावतः इसी ओर बढ़ता है | उस पर सारे प्रभाव बाहर के होते हैं और परिणामतः वह बाहरी दौड़ में ही उलझ जाता है | सारा कुछ परिधि पर ही होता रहता है और आदमी प्रतिक्षण अपनी अंतरात्मा की हत्या करता चलता है | यह क्रम अनंत है और इस दौड़ का कोई अंत नहीं है, जब तक व्यक्ति इस दौड़ के बाहर नहीं हो जाता है | बस एक महान जीवन-दिशा में आचार्य श्री का दिव्य योग है |जब सारी ताकतें एक ओर लगीं हों और उसमें | |||
|- | |- | ||
| [[image:man1387.jpg|400px]] | | [[image:man1387.jpg|400px]] | ||
Line 38: | Line 47: | ||
| 2 | | 2 | ||
| rowspan="3" | | | rowspan="3" | | ||
: | :अमृत शाश्वत वैज्ञानिक जीवन प्रकाश का पुंज हो - तो जगत का अंधेरा विसर्जित होता है | बुद्ध, ईसा, महावीर, जरथुस्त, लाओत्से आदि महान व्यक्तित्व अपने युग के और बाद के युग के इसी प्रकाश पुंज के स्त्रोत हैं | आचार्य श्री अपने युग के पार इस युग के प्रकाश पुंज के स्त्रोत हैं |... | ||
:अनेक प्रसंग थे गाडरवारा के साप्ताह भर के कार्यक्रमों में | उनमें से अपनी सन्जोयी स्मृति के कुछ अंश आचार्य श्री के जीवन-स्वरों के संबंध में उल्लेख करता हूँ | | |||
:' आनंद में हो आने के बाद फिर क्या जीवन बनाये रखने की आकांक्षा शेष रहती है ? ' | |||
:वह व्यक्ति की पूर्णता है | उसके पार अब कुछ और नहीं होता— जिसे पाना शेष रहता है | पूर्ण तृप्त - जैसे ही व्यक्ति अपने को पाता है कि फिर जीवन से उसके संबंध टूट जाते हैं | कोई अर्थ नहीं छूटता - जिसके लिए अब वह जीवित रहे | शुद्ध चेतना में होकर वह जो भी जानता उससे वह अपने को जीवन के पार पाता है | अभी तक जो यंत्रवत जीवन था, उससे सहज ही में संबंध विलग हो जाते हैं | | |||
|- | |- | ||
| [[image:man1388.jpg|400px]] | | [[image:man1388.jpg|400px]] | ||
Line 47: | Line 62: | ||
| 3 | | 3 | ||
| rowspan="3" | | | rowspan="3" | | ||
: | :इससे जो भी जीवन -- अपने ' स्व ' में होकर आनंद और शांति में हो आये -- उनके जीने का अब कोई कारण न था | सहज होता कि जीवन से संबंध तोड़ लें | बुद्ध को बुद्धत्व हुआ तो सात दिन मौन थे - जीने की इच्छा शेष न थी | तब कथा है कि देवताओं ने कहा : ' बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय ' जो आपको मिला औरों को भी मिल जाय - बुद्ध 40 वर्षों तक घूम-घूम कर अपनी बात पहुँचाते रहे | | ||
:' क्या हर स्थिति और प्रवृत्ति के व्यक्ति जीवन-मुक्त हो आ सकते हैं ? ' | |||
:स्थिति और प्रवृति किसी भी प्रकार बाधा नहीं है |सारे व्यक्तियों में संभावना है -- लेकिन उस अवस्था को सारे व्यक्ति नहीं पाते -- इसके मूल में व्यक्ति स्वयं ही कारण है | व्यक्ति कुछ भी न करे - मात्र अपने में सम्यक जागरूकता बनाए रखे - तो अपने से एक गहरी क्रांति उसके जीवन में घटित हो जाने को हैं | सदप्रायास - मुक्ति तक ले आते हैं | उसमें कोई स्थिति और प्रवृत्ति को स्थान नहीं है | | |||
|- | |- | ||
| [[image:man1389.jpg|400px]] | | [[image:man1389.jpg|400px]] | ||
Line 56: | Line 75: | ||
| 4 | | 4 | ||
| rowspan="3" | | | rowspan="3" | | ||
: | :व्यक्ति ही केवल रुकावट न बने - तो कोई कारण नहीं है कि जीवन-मुक्त अवस्था में व्यक्ति न हो रहे | | ||
:प्रश्न : ' ध्यान योग से क्या व्यक्ति निष्क्रिय हो जाता है ? ' | |||
:अभी जो दौड़ है, वह अंधी है | उसमें हम कुछ अशांत चित्त से - भागे चले जाते हैं और जीवन में हम कर रहे हैं - एसा बोध प्रत्येक को होता है | इस करने के पीछे एक गहरा भूलाना है | करना ज़रा भी आप छोड़ें - तो एक बैचेनी प्रतीत होती है - सारा जीवन का दुख उभर आता है | इसे भूलने के लिए सारा करना चलता रहता है | ' ध्यान योग ' के परिणाम में व्यक्ति भीतर शांत होता चलता है और एक तनाव और दौड़ के पार हो जाता है | तो व्यर्थ का भागना अपने से छूट जाता है | केवल सम्यक कर्म शेष रहते है और तब व्यर्थ की दौड़ से व्यक्ति अपने से मुक्त हो रहता है | यह सम्यक सक्रियता है और गहरे आनंद में होकर - व्यक्ति के कर्म निकलते हैं | आनंद में वह है और उस आनंद से, उसके कर्म निकलते हैं | कबीर कपड़ा बिनते, तो गीतों की और | |||
|- | |- | ||
| [[image:man1390.jpg|400px]] | | [[image:man1390.jpg|400px]] | ||
Line 65: | Line 88: | ||
| 5 | | 5 | ||
| rowspan="3" | | | rowspan="3" | | ||
: | :नाच की मस्ती में होते | सांझ कपड़ा बेचते, तो बड़ी भीड़ होती -- और जिसे कपड़ा देते -- उसे नमस्कार करते | सब आनंद में होता और कोई परेशानी न होती | सारे कार्यों में आनंद बिखरता था | ध्यान योग से अपने से यह होगा | कर्म कुशल होंगे, आनंद में होकर होंगे, सम्यक कर्म होंगे - बाद कोई आक़ांक्षा फल पाने की न होगी, निष्काम कर्म अपने से होंगे | जीवन अपने में पूर्ण सार्थक होगा | | ||
:अभी सामान्यतः हम काम में आनंद में नहीं होते, बाद जो मिलेगा -- उसमें हमारा आनंद होता है | परिणाम में भाग-दौड़ में, काम ही काम में व्यक्ति उलझा रहता है - और गहरे तनाव में, फल की बाद में आकांक्षा से प्रेरित होकर, एक विषाक्त मनःस्थिति में चलता रहता है | | |||
:ध्यान योग से केवल शुद्ध कर्म होगा और शांति चेतना की गहराई में व्यक्ति अपने से होगा | सारे कार्यों में होकर - केंद्र पर वह पृथक होगा | यह होगा निष्क्रियता नहीं, वरन पहिली बार असम्यक सक्रियता विसर्जित होकर - व्यक्ति, सम्यक सक्रियता में | |||
|- | |- | ||
| [[image:man1391.jpg|400px]] | | [[image:man1391.jpg|400px]] | ||
Line 74: | Line 101: | ||
| 6 | | 6 | ||
| rowspan="3" | | | rowspan="3" | | ||
: | :हो रहेगा | .. | ||
:' जीवन में व्यक्ति पैसे की दौड़ में क्यों उलझ जाता है? जिनके पास पर्याप्त निधि है, वे भी तीव्रता से उलझे होते हैं ? एसा क्यों ? ' | |||
:व्यक्ति की सारी दौड़ अंधी चलती है | जब व्यक्ति उपार्जन करता है - तो पहीले उसका उपार्जन मात्र साधन होता है | जीवन ठीक चले, यश-प्रतिष्ठा मिले, वैभव और संपन्नता हो -- इस सबकी आकांक्षा में दौड़ चलती है -- सारा कुछ उपलब्ध होता चलता है - लेकिन धीरे-धीरे व्यक्ति का जो केवल साधन था, वह समझ भी नहीं पाता और साधन - साध्य में परिणित हो जाता है | जब पैसा साध्य होता तब और कुछ शेष नहीं होता है | वही जीवन का उद्देश्य हो जाता है | यह क्रम अँधा होता है | इसमें वह कब उलझ जाता, इसका उसे कोई बोध नहीं होता है | वह पाता है कि दौड़ में वह उलझ गया है | फिर निकलना आसान नहीं होता है | इस मनःस्थिति में आज सारा युग है | इस मनःस्थिति को ठीक से वैज्ञानिक विश्लेषण देकर स्पष्ट | |||
|- | |- | ||
| [[image:man1392.jpg|400px]] | | [[image:man1392.jpg|400px]] | ||
Line 83: | Line 114: | ||
| 7 | | 7 | ||
| rowspan="3" | | | rowspan="3" | | ||
: | :किया जाय और मनुष्य को और बड़े आनंद के केंद्रों से संयुक्त किए जाने के वैज्ञानिक मार्ग सुझाए जाएँ, तब फिर यदि वह अपने को आनंद में हुआ अनुभूत करता है - तो अपने से जो अभी तक सुख का कारण था - लगे उसे कि मिट्टी था - तो सब अपने से विसर्जित हो रहता है | यह सम्यक वैज्ञानिक मार्ग है, जिसके अभाव में कुछ भी संभव नहीं है |... | ||
|- | |- | ||
| [[image:man1393.jpg|400px]] | | [[image:man1393.jpg|400px]] | ||
Line 92: | Line 123: | ||
| 8 | | 8 | ||
| rowspan="3" | | | rowspan="3" | | ||
: | :आज जन-मानस गहरे तनाव में चलता है | सभ्यता ने मनुष्य को और भी ज़्यादा तनाव-ग्रस्त कर दिया है | इस विषाक्त स्थिति को व्यक्ति आज स्पष्ट देख पा रहा है | सारे मानवीय मूल्य तिरस्कृत होकर, व्यक्ति पहिली बार अपनी नग्नता में खड़ा हुआ है | इससे एक उलझी हुई स्थिति का बोध सबको है -- लेकिन निकलने का ठीक कोण विदित नहीं है | जो भी मार्ग हैं -- वे समस्या को सुलझाने की अपेक्षा एक नये रूप में समस्या को उलझा कर खड़े कर देते हैं | इस युग की जटिलता में गहरे मनॉदृष्टा ही, मनीषी ही, दृष्टा ही -- केवल मार्ग-दर्शन कर सकते हैं -- जो मूल्य का होगा और युग को एक सुलझी जीवन-दृष्टि में जीने का अवसर मिलेगा | .. | ||
:सारे प्रसंगों में -- मूल केंद्र - अंतः को (जो) लेकर चलता है, इससे अंतरदृष्टि में व्यक्ति का हो आना स्वाभाविक है | आज से 2,500 वर्ष पूर्व जो महावीर ने कहा था : ' अंतरदृष्टा को कोई उपदेश नहीं है ‘— तो केवल अंतरदृष्टा की चेतना में हो आना ही उपादेय है, इस ओर ही आचार्य श्री की जीवन | |||
|- | |- | ||
| [[image:man1394.jpg|400px]] | | [[image:man1394.jpg|400px]] | ||
Line 101: | Line 134: | ||
| 9 | | 9 | ||
| rowspan="3" | | | rowspan="3" | | ||
: | :अभिव्यक्ति है, और सारे संबंधित जनों को एक अंतरदृष्टि उपलब्ध होती है | सारे चर्चा-प्रसंगों में उपस्थित होकर व्यक्ति इसे जान पाता है और एक सहज अंतरदृष्टि में व्यक्ति हो आता है | तब फिर अपने से - जो भी जीवन में उपादेय है - वह व्यक्ति करता चलता है और सहज पूर्ण चैतन्य में गति होती चलती है | यह एक जीवंत-सर्व-सुलभ-विज्ञान है - जो प्रत्येक मानव-जीवन में अपने से होता चलता है | सहज एक स्पष्ट मार्ग-दर्शन होता है, साधक प्रयोग करता है और उद्दात्त चेतना के लोक में प्रविष्ट होता जाता है | इसमें होकर ही - जीवन की विकृतियाँ अपने से विसर्जित होती हैं और व्यक्ति सृजन में हो आता है | अपने से सृजन में वह हो आता है | भीतर सृजन होता चलता है और अनायास कभी अपने से पूर्ण हो जाता है | | ||
:इन दिवसों अनेक निकट के संबंधियों ने - गाडरवारा में चर्चा का लाभ लिया और एक सहज दिव्य जीवन-दृष्टि को अनुभूत किया | | |||
|- | |- | ||
| [[image:man1395.jpg|400px]] | | [[image:man1395.jpg|400px]] |
Revision as of 04:02, 24 March 2018
- year
- 16 - 23 May 1963
- notes
- 9 pages
- Notes of Gadarwara Visit.
- Regarding Osho - Life Philosophy
- Collected by Arvind Jain.