प्यारी मौनू,
प्रेम। झेन फकीर एक प्यारी कहानी कहते हैं।
कहते हैं वे कि एक वृद्धा स्त्री थी बुद्ध के समय में।
बुद्ध के ही गांव में जन्मी।
बुद्ध के ही जन्मदिन पर जन्मी।
लेकिन वह सदा ही बुद्ध के सामने आने से डरती रही।
तभी से जब कि वह छोटी-सी थी।
युवा हो गई फिर भी डरती ही रही।
और बृद्धा हो गई फिर भी।
लोग उसे समझाते भी कि बुद्ध परम पवित्र हैं।
साधु हैं - सिद्ध हैं।
उनसे भय का कोई भी कारण नहीं है।
उनका दर्शन मंगलदायी है - वरदान स्वरूप है।
लेकिन उस वृद्धा की कुछ भी समझ में न आता।
यदि कभी भूल से वह बुद्ध की राह में पड़ भी जाती तो भाग खड़ी होती।
अव्वल तो बुद्ध गांव में होते तो वह किसी और गांव चली जाती।
लेकिन एक दिन कुछ भूल हो गई।
वह कुछ अपनी धुन में डूबी राह से गुजरती थी कि अचानक बुद्ध सामने पड़ गये।
मागने का समय ही न मिला।
और फिर वह बुद्ध को सामने ही पा इतनी भयभीत हो गई कि पैरों ने भागने से जवाब ही दे दिया।
उसे तो लगा कि जैसे उसकी मृत्यु ही सामने आ गई है।
भाग तो वह न सकी पर आंखें उसने जरूर ही बंद कर लीं।
पर यह क्या - बंद आंखों में भी बुद्ध दिखाई ही पड़ रहे हैं।
और गैरिक बस्त्रों में स्वर्ण-सा दीप्त उनका चेहरा सामने है।
उसने दोनों हाथों से आंखें ढंक लीं।
पर आश्चर्यों का आश्चर्य ही उस क्षण घटित होने लगा!
जितना ही करती है, वह बंद आंखों को बुद्ध उतने ही सुस्पष्ट प्रगट होते हैं!
आह! जितना ही ढंकती है वह आंखों को बुद्ध उतने ही भीतर आ गये मालूम होते हैं!
नहीं - अब कोई बचाव नहीं है।
मृत्यु निश्चित है - और ऐसी प्रतीति के साथ ही वह वृद्धा खो जाती है और बुद्ध ही शेष रह जाते हैं!
और झेन फकीर सदियों से पूछते रहे हैं : "बताओ - वह वृद्धा कौन है?"