Manuscripts ~ Bodh Kathayen, Bhag 1 (बोध कथाएं, भाग 1)

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Wisdom Tales of Inner Revolution / Tales of Enlightenment

year
1966
notes
46 sheets (incl 6 photocopies). 2 sheets are half-size.
Published as Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये) (new edition with 60 chapters), chapters: 31-34, 3, 35-37, 21, 38, 43-45, 48, 54-59; and ch.20 of Kuchh Jyotirmaya Kshan (कुछ ज्योतिर्मय क्षण).
The transcripts below are not true transcripts, but copies from Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये) and Kuchh Jyotirmaya Kshan (कुछ ज्योतिर्मय क्षण).
see also
Category:Manuscripts


sheet no original photo enhanced photo Hindi

(photocopy)
Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), chapter 31
कैसा आश्चर्य है कि मनुष्य जन्म को तो स्वीकार करता है, किंतु मृत्यु को नहीं, जबकि जन्म और मृत्यु एक ही घटना के दो छोर हैं। जन्म में ही मृत्यु छिपी है। क्या जन्म मृत्यु का ही प्रारंभ नहीं है? फिर मृत्यु की अस्वीकृति से भय पैदा होता है। भय से पलायन। भयभीत और भागा हुआ चित्त मृत्यु को समझने में असमर्थ हो जाता है। किंतु कोई कितना ही भागे मृत्यु से तो भागना असंभव है। वह तो जन्म में ही उपस्थित हो गई है। मृत्यु से भागा नहीं जा सकता, वरन सब भांति भाग कर अंत में पाया जाता है कि मृत्यु में ही पहुंचना हो गया है।
एक पुरानी कथा है। विष्णु शिव से मिलने कैलाश आए थे। उनके वाहन हैं गरुड। वे विष्णु को उतार कर द्वार पर बाहर ही रुके थे, तभी उनकी दृष्टि तोरण पर बैठे भय से कांपते एक कपोत पर पडी। उन्होंने उससे भय का कारण पूछा। वह कपोत रोने लगा और बोलाः "अभी-अभी यमराज भीतर गए हैं। वे मुझे देख ठिठके, विस्मयपूर्वक निहारा और फिर मुस्कुरा कर गदा हिलाते हुए आगे ब.ढ गए। उनकी यह भेद-भरी हंसी मेरी मृत्यु की निश्चित सूचना के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। मेरा अंत निकट है।" वह कपोत और जोर-जोर से रोने लगा। गरुड ने कहाः "छिः छिः! तू व्यर्थ ही इतना भयातुर है। तू अभी युवा है, इसलिए रोग से मरने की तेरी संभावना नहीं। रहा शत्रु का भय, सो आ मेरी पीठ पर बैठ। निमिष मात्र में तुझे यहां से करोड-करोड योजन दूर लोकालोक पर्वत पर पहुंचा देता हूं, जहां तेरे किसी शत्रु के होने की कोई संभावना ही नहीं है।" यह आश्वासन पा कपोत की जान में जान आई और निमिष मात्र में ही गरुड ने उसे ऐसी निर्जन उपत्यका में पहुंचा दिया, जहां वह अजातशत्रु हो विचरण कर सकता था। किंतु गरुड के लौटते ही उनकी भेंट द्वार से निकलते यमराज से हुई। यमराज की दृष्टि तोरण पर थोडी ही देर पहले बैठे कपोत को खोज रही थी। गरुड ने हंस कर कहाः "महाराज, वह कपोत अब यहां नहीं है। वह तो करोडों योजन दूर लोकालोक पर्वत पर निर्भय हो विचरण कर रहा है। मैं उसे अभी-अभी वहां छोड कर लौटा हूं!" यह सुन यमराज खूब हंसने लगे और बोलेः "तो आखिर वहां पहुंचा ही दिया? मैं यही सोच कर और उसे यहां देख विस्मित हुआ कि वह यहां कैसे? उसे तो थोडे ही क्षणों बाद लोकालोक पर्वत पर मृत्यु के मुंह में जाना है!"
1 Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), chapter 32
एक युवक आए थे। वे संन्यासी होने की तैयारी में हैं। सब भांति तैयार होकर जल्दी ही वे संन्यास लेंगे। बहुत प्रसन्न थे, क्योंकि तैयारी करीब-करीब पूरी ही हो रही है। उनकी बातें सुनीं तो मैं हंसने लगा और उनसे कहाः ‘‘संसार की तैयारियां मैंने सुनी थीं। यह संन्यास की तैयारी क्या बला है? क्या संन्यास के लिए भी कोई तैयारी और आयोजना करनी है? और ऐसा सुनियोजित संन्यास भी क्या संन्यास होगा? क्या वह भी संसारी मन का ही विस्तार नहीं है? क्या संसार और संन्यास एक ही मन के आयाम नहीं हैं? संसारी मन संन्यासी नहीं हो सकता है। संसार से संन्यास की ओर संपरिवर्तन, चित्त की आमूल क्रांति के बिना नहीं हो सकता। यह आमूल क्रांति ही संन्यास है। संन्यास न तो वेष-परिवर्तन है, न नाम-परिवर्तन, न गृह-परिवर्तन। वह तो है दृष्टि-परिवर्तन। वह तो है स्वयं के चित्त का समग्र परिवर्तन। उस क्रांति के लिए विचार की वे सरणियां काम नहीं देती हैं, जो संसार में सफल हैं। संसार का गणित उस क्रांति के लिए न केवल व्यर्थ है, अपितु विघ्न भी है। स्वप्न की नियमावलियां जैसे जागरण में नहीं चलती हैं, वैसे ही संसार के सत्य संन्यास में सत्य नहीं रह जाते हैं। संन्यास संसार के स्वप्न से जागरण ही तो है।’’
फिर मैंने रुक कर उस युवक की ओर देखा। वे कुछ दुखी से मालूम होते थे। शायद मैंने उनकी तैयारियों को धक्का दे दिया था और वे ऐसी आशा लेकर मेरे पास नहीं आए थे। बिना कुछ कहे ही वे जाने लगे तो मैंने उनसे कहाः सुनो! एक कहानी और सुनो। एक संत थे आजर कैवान। एक व्यक्ति आधी रात में उनके पास आया और बोलाः ‘‘हजरत, मैंने कसम खाई है कि फानी दुनिया के सारे ऐशो-इशरत छोड दूंगा। संसार के फंदे को तोडने का मैंने निश्चय ही कर लिया है।’’ मैं होता तो उससे कहताः ‘‘पागल, जो कसम खाता है, वह कमजोर होता है और जो छोडने का निश्चय करता है, वह कभी नहीं छोडता और छोड भी दे तो फिर छोडने को ही पकड लेता है। त्याग अज्ञानी चित्त का संकल्प नहीं है, वह तो ज्ञान की सहज छाया है।’’ लेकिन मैं तो वहां था नहीं। थे कैवान। उन्होंने उस व्यक्ति से कहाः ‘‘तुमने ठीक सोचा है।’’ वह व्यक्ति प्रसन्न होकर चला गया फिर कुछ दिनों बाद आया और बोलाः ‘‘मैं अभी गुदडी और फकीरी पोशाक बना रहा हूं। सरो-सामान तैयार होते ही फकीर हो जाना है।’’ किंतु इस बार कैवान भी न कह सके कि तुमने ठीक सोचा है! उन्होंने कहाः ‘‘मित्र, सरो-सामान छोडने के लिए ही कोई दरवेश होता है और तू उसी को जुटाने के लिए परेशान है! जा अपनी दुनिया में लौट जा, तू अभी फकीरी के काबिल नहीं है।’’
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3 Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), chapter 33
मैं परमात्मा की प्रार्थना के लिए तुम्हें मंदिरों में जाते देखता हूं तो सोचता हूं कि क्या परमात्मा केवल मंदिरों में ही है? क्योंकि मंदिरों के बाहर न तो तुम्हारी आंखों में पवित्रता की झलक होती है और न तुम्हारी श्वासों में प्रार्थना की ध्वनि। मंदिरों के बाहर तो तुम ठीक वैसे ही होते हो, जैसे वे लोग जो कभी भी मंदिरों में नहीं गए हैं! क्या इससे तुम्हारा मंदिरों में जाना व्यर्थ सिद्ध नहीं हो जाता है? क्या यह संभव है कि मंदिर की सी.िढयों के बाहर तुम कठोर और भीतर करुण हो जाते होगे? क्या यह विश्वासयोग्य है कि मंदिरों के द्वारों में प्रविष्ट होते ही हिंसक चित्त प्रेम से भर जाते हों? जिन हृदयों में सर्व के प्रति प्रेम नहीं है, उनमें परमात्मा के प्रति प्रार्थनाओं का जन्म ही कैसे हो सकता है?
जीवन ही जिसका प्रेम नहीं है, उस जीवन में प्रार्थना असंभव है।
और कण-कण में ही जिसके लिए परमात्मा नहीं है, उसके लिए कहीं भी परमात्मा नहीं हो सकता है।
एक रात्रि की घटना है। कोई अजनबी यात्री मक्का के मंदिर में थका-मांदा पहुंचा है और सो गया है। उसके अपवित्र पैर काबा के पवित्र पत्थर की ओर देख कर पुरोहित क्रोध से भर जाते हैं। वे उसके पैरों को पकड कर घसीटते हैं और कहते हैंः ‘‘यह तुमने कैसा अपराध किया? पवित्र पत्थर के मंदिर का अपमान करने का साहस? यह सोने का ढंग है? परमात्मा के मंदिर की ओर पैर तो निश्चय ही कोई नास्तिक ही कर सकता है!’’ उनकी क्रोध-भरी मुद्राएं देख कर और उनके अपमान भरे कटु सुन कर भी वह यात्री हंसने लगता है और कहता हैः ‘‘मेरे प्यारे, मैं तो वहीं पैर कर लूं जहां परमात्मा न हो! आप कृपा करें और मेरे पैर वहीं कर दें! मैं स्वयं तो उसके मंदिर को सभी ओर और सभी दिशाओं में पाता हूं।’’ ये अजनबी यात्री थे नानक। उन्होंने जो कहा वह कितना सत्य है। परमात्मा निश्चय ही सब ओर है। लेकिन मैं पूछता हूं कि क्या पैरों में भी वही नहीं है? वही तो है। उसके सिवाय और क्या है? अस्तित्व--समग्र अस्तित्व--ही तो वह है। लेकिन मंदिरों में, मूर्तियों में, तीर्थों में उसे देखने वाली आंखें, अक्सर ही उसे उसकी समग्रता में देखने में अंधी हो जाती हैं।
4 Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), chapter 34
मैं एक दिन एक वन में था। वर्षा के दिन थे और वृक्षों से आनंद फूटा पडता था। जो साथ थे उनसे मैंने कहाः ‘‘देखते हो वृक्ष, कितने आनंदित हैं! क्यों? क्योंकि जो जो है, वह वही हो गया है। बीज हो कुछ, और वृक्ष कुछ और होना चाहे तो फिर वन में इतना आनंद न रहे। वृक्षों को आदर्शों का कुछ पता नहीं, इसीलिए उनकी प्रकृति ने जो चाहा है, वे वही हो गए हैं। और धन्यता वहीं है, जहां स्वरूप और स्वभाव के अनुकूल विकास है। मनुष्य पीडा में है, क्योंकि मनुष्य स्वयं के ही विरोध में है। वह अपनी जडों से ही लडता है और वह जो है, सदा उससे अन्य होने के संघर्ष में लगा रहता है। इस प्रकार वह स्वयं को तो खोता ही है, उस स्वर्ग को भी खो देता है जो सबका स्वरूपसिद्ध अधिकार है।’’
मित्र, क्या यह उचित नहीं है कि तुम वही होना चाहो जो तुम हो सकते हो? क्या यह उचित नहीं है कि तुम स्वयं के अतिरिक्त और कुछ भी होने के सारे प्रयत्न छोड दो? क्या उस वासना में ही सारे दुखों का मूलस्रोत नहीं है? स्वयं से अन्य होने की वासना से असंभव और अर्थहीन क्या कोई और चेष्टा है? प्रत्येक वही हो सकता है जो हो सकता है। बीज में ही वृक्ष का पूरा होना छिपा होता है, अन्यथा होने की आकांक्षा विफलता ही ला सकती है। विफलता इसीलिए क्योंकि जो पूर्व से ही स्वयं में छिपा नहीं है, वह प्रकट कैसे होगा? जीवन तो उसकी ही अभिव्यक्ति है जो जन्म में ढंका और अप्रकट होता है। विकास मात्र अनावरण है। और जहां अप्रकट प्रकट नहीं हो पाता, वहीं पीडा का आविर्भाव हो जाता है। जैसे कोई भी मां अपने बच्चे को जीवन भर गर्भ में ही लिए रहे तो असह्य और अवर्णनीय पीडा में पड जाएगी, वैसे ही वे लोग दुख में पड जाते हैं, जो वह नहीं हो पाते जो होना उनकी नियति था। लेकिन मैं तो प्रत्येक को ऐसी ही दौड में देखता हूं। सभी वह होना चाहते हैं जो वे नहीं हैं, और नहीं हो सकते हैं। अंततः परिणाम क्या होता है? परिणाम होता है कि वे जो हो सकते थे, वही नहीं हो पाते हैं। व्यक्ति जो नहीं हो सकता, वह तो नहीं हो सकता है, किंतु जो हो सकता था, उससे वंचित अवश्य रह जा सकता है।
आदिवासियों का एक राजा पहली बार किसी बडे शहर में गया था। वह अपना चित्र उतरवाना चाहता था। उसे एक स्टूडियो में ले जाया गया। उस फोटोग्राफर ने अपने द्वार पर एक तख्ती लगा रखी थी। उस पर लिखा हुआ थाः ‘‘मनपसंद चित्र उतरवाएं। जैसे आप हैं--10 रुपये; जैसे आप सोचते हैं कि आप हैं--15 रुपये; जैसे आप दूसरों को दिखाना चाहते हैं--20 रुपये; और जैसे आप सोचते हैं कि आप होते--25 रुपये।’’ वह सीधा-सादा राजा इससे बहुत हैरान हुआ और पूछने लगा कि क्या पहले चित्र के अतिरिक्त दूसरे चित्रों को उतरवाने वाले व्यक्ति भी यहां आते हैं? उसे बतलाया गया कि पहले चित्र को उतरवाने वाला व्यक्ति तो आज तक यहां नहीं आया है।
क्या मैं पूछ सकता हूं कि आपने कौन सा चित्र उस फोटोग्राफर से उतरवाना पसंद किया होता? आपका मन क्या कहता है? क्या अंतिम चित्र की कामना को आप स्वयं में नहीं पकड पाते हैं? हां, पास में उतने पैसे न हों तो बात दूसरी है! मजबूरी की बात और है, अन्यथा पहले चित्र को उतरवाना कौन पसंद करेगा? लेकिन उस गंवार राजा ने पहला चित्र ही उतरवाया था और कहा थाः ‘‘मैं किसी और का नहीं, अपना ही चित्र उतरवाने यहां आया हूं।’’
जीवन के द्वार पर भी ऐसी ही तख्ती सदा से लगी हुई है। मनुष्य बनाने के बहुत पहले ही ईश्वर ने उसे वहां टांग दिया था।
संसार में जो भी पाखंड है, वह स्वयं से अन्य होने की रुग्ण वासना से ही पैदा होता है। जब स्वयं से अन्य होने में विफलता हाथ आती है तो व्यक्ति फिर स्वयं से अन्य दीखने में ही संलग्न हो जाता है। क्या यही पाखंड नहीं है? और यदि वह इसमें भी सफल न हो सका तो फिर विक्षिप्त हो जाता है। तब वह स्वयं को जो भी और जैसा भी मानना चाहता है, वैसा मानने को मुक्त होता है। लेकिन पाखंड हो या पागलपन--दोनों की उत्पत्ति स्वयं को अस्वीकार करने से ही होती है। स्वस्थ व्यक्ति का पहला लक्षण स्वयं की स्वीकृति है। जीवन में वह अपना ही चित्र उतरवाने आता है, किसी और का नहीं! अन्यों के ढांचों में स्वयं को ढालने के सब प्रयास अस्वस्थ चित्त की सूचनाएं हैं। मनुष्य को सिखाए गए तथाकथित आदर्श और दूसरों के अनुकरण के लिए दी गई प्रेरणाएं उसे स्वयं को स्वीकार ही नहीं करने देतीं और तब उसकी यात्रा प्रारंभ से ही गलत दिशा में गतिमान हो जाती है। इस भांति की सभ्यता ने मनुष्य को एक महारोग की भांति जकड लिया है। मनुष्य कितना कुरूप और अपंग हो गया है! उसमें कुछ भी स्वस्थ और सहज नहीं है। क्यों? क्योंकि संस्कृति, सभ्यता और शिक्षा के नाम पर उसकी प्रकृति की निरंतर हत्या की गई है। इस षड्यंत्र से यदि मनुष्य सजग न हुआ तो वह आमूलतः ही नष्ट हो सकता है। संस्कृति प्रकृति की हत्या नहीं है। वह तो उसका ही विकास है। संस्कृति प्रकृति का विरोध नहीं, विकास है। मानव का भविष्य किसी बाह्य आदर्श से नहीं, वरन अंतरस्थ प्रकृति से ही निर्धारित हो सकता है। और तब एक ऐसे सहज और आंतरिक अनुशासन का जन्म होता है, जो स्वरूप को उस सीमा तक खोलता और उघाडता है, जहां सत्य का साक्षात हो सके। इसलिए मैं कहता हूंः स्वयं को चुनें। स्वयं को स्वीकारें। स्वयं को खोजें और विकसित करें। स्वयं के अतिरिक्त कोई अन्य न किसी का आदर्श है, न हो सकता है। अनुकरण आत्मघात है। और स्मरण रखें कि परतंत्रता में परमात्मा कभी भी नहीं पाया जा सकता है।
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7 Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), chapter 3
एक सम्राट की बहुत कीर्ति थी। उसके दान के सुसमाचार चारों दिशाओं में परिव्याप्त हो गए थे। उसकी विनम्रता, उसके त्याग, उसकी सादगी, उसकी सरलता, सभी की प्रशंसा लोगों के मंुह पर थी; और परिणाम यह था कि उसके अहंकार का अंत नहीं था। परमात्मा से जितनी दूरी पर कोई मनुष्य हो सकता है, उतनी ही दूरी पर वह था। मनुष्य की दृष्टि में ऊपर उठना कितना आसान है, किंतु परमात्मा के निकट पहुंचना कितना कठिन है! जो मनुष्यों की दृष्टि में ऊपर उठने का आकांक्षी होता है, वह तो अनिवार्यतः परमात्मा की दृष्टि में नीचे गिर जाता है, क्योंकि जो उसके बाहर दीखता है, ठीक उसके विपरीत ही वह अंतस में होता है। मनुष्य के चर्मचक्षु वहां तक प्रवेश नहीं कर पाते हैं, इससे ही वह आत्मवंचना में पड जाता है। लेकिन क्या उसकी स्वयं की अंतर्दृष्टि भी वहां तक नहीं पहुंचती है? अंततः मनुष्यों की आंखों में बनने वाली प्रतिच्छवि का कोई भी मूल्य नहीं है। मूल्य तो है उसी प्रतिच्छवि का जो स्वयं की अंतर्दृष्टि के समक्ष अनावरित होती है। व्यक्ति की वही मूर्ति और भी निम्नतर रूपों में परमात्मा के दर्पण में प्रतिबिंबित होती है। आत्यंतिक रूप से व्यक्ति जो स्वयं के समक्ष है, वही वह परमात्मा के समक्ष भी है।
उस सम्राट का यश ब.ढता गया और आत्मा डूबती गई। कीर्ति फैलती गई और आत्मा सिकुडती गई। उसकी शाखाएं फैल रही थीं और जडें निर्बल हो रही थीं।
उसका एक मित्र भी था। वह मित्र उस समय का कुबेर ही था। दूर-दूर से जैसे नदी-नाले सागर से आ मिलते हैं, वैसे ही धन की सरिताएं उसकी तिजोरियों में आ गिरती थीं। वह अपने सम्राट मित्र से बिल्कुल ही विपरीत था। दान के नाम पर एक कानीकौडी भी उससे नहीं छूटती थी। उसकी बडी अपकीर्ति थी।
सम्राट और धनपति, दोनों बू.ढे हुए। एक अभिमान से भरा था, दूसरा आत्मग्लानि से। अभिमान सुख दे रहा था, आत्मग्लानि प्राणों को छेदे डालती थी। जैसे-जैसे सम्राट को मृत्यु निकट जान पडती थी, वह अपने अहंकार को और तीव्रता से पकड रहा था। उसके पास तो सहारा था। लेकिन धनपति की आत्मग्लानि अंततः आत्मक्रांति बन गई। वह तो सहारा नहीं थी। उसे तो छोडना जरूरी था। लेकिन स्मरण रहे कि आत्मग्लानि भी अहंकार का ही उल्टा रूप है, और इसीलिए वह भी छूटती कठिनाई से ही है। अक्सर तो वह सीधी होकर स्वयं ही अहंकार बन जाती है। इसी कारण भोगी योगी हो जाते हैं और लोभी दानी, क्रूर करुणावान। लेकिन बुनियादी रूप से उनकी आत्माओं में कोई क्रांति कभी नहीं होती है।
वह धनपति एक सदगुरु के पास गया। उसने वहां जाकर कहाः ‘‘मैं अशांत हूं। मैं अग्नि में जल रहा हूं। मुझे शांति चाहिए।’’
सदगुरु ने पूछाः ‘‘क्या इतना धन, वैभव, शक्ति-सामथ्र्य होने पर भी तुम्हें शांति नहीं मिली? ’’
उसने कहाः ‘‘नहीं। मैंने भलीभांति अनुभव कर लिया, धन में शांति नहीं है।’’
सदगुरु ने तब कहाः ‘‘जाओ और अपना सर्वस्व उन्हें लुटा दो, जिनसे वह छीना गया है। फिर मेरे पास आओ। दीन और दरिद्र होकर आओ।’’
धनपति ने वैसा ही किया। वह लौटा तो सदगुरु ने पूछाः ‘‘अब? ’’
उसने कहाः ‘‘अब आपके अतिरिक्त और कोई आश्रय नहीं है।’’
लेकिन बडा अदभुत था वह सदगुरु। कहें कि पागल ही था। उसने धक्के देकर उस दरिद्र धनपति को झोपडे के बाहर निकाल दिया और द्वार बंद कर लिए। अंधेरी रात्रि थी और बियावान जंगल था। उस जंगल में उस झोपडे के अतिरिक्त कोई आश्रय भी नहीं था।
धनपति ने सोचा था कि वह बहुत बडा कार्य करके लौट रहा है। लेकिन यह कैसा स्वागत--यह कैसा व्यवहार?
धन का संग्रह व्यर्थ पाया था। लेकिन धन का त्याग भी व्यर्थ ही हो गया था।
वह उस रात्रि निराश्रय एक वृक्ष के नीचे सो रहा। उसका अब कोई न सहारा था, न साथी, न घर। न उसके पास संपदा थी, न शक्ति थी। न संग्रह था, न त्याग था। सुबह जाग कर उसने पाया कि वह एक अनिर्वचनीय शांति में डूबा हुआ है। निराश्रय चित्त अनायास ही परमात्मा के आश्रय को पा लेता है।
वह भागा हुआ सदगुरु के चरणों में गिरने को गया, लेकिन देखा कि स्वयं सदगुरु ही उसके चरणों में गिर पडा है।
उस सदगुरु ने उसे हृदय से लगाया और कहा--‘‘धन छोडना आसान है, त्याग छोडना कठिन है। किंतु जो त्याग का त्याग करता है, वही वस्तुतः धन भी छोडता है। संसार छोडना सरल है, पर गुरु छोडना कठिन है। लेकिन जो गुरु को भी छोड देता है, वही परमगुरु को पाता है। धन का हो आश्रय या त्याग का, आत्मग्लानि का हो आश्रय या अभिमान का, संसार का हो आश्रय या संन्यास का, वस्तुतः जहां आश्रय है, वहीं परमात्मा तक पहुंचने में अवरोध है। अन्याश्रय टूटते ही परम आश्रय उपलब्ध होता है। मैं धन में आश्रय खोजूं या धर्म में, जब तक मैं आश्रय खोजता हूं, तब तक मैं अहंकार की रक्षा ही खोजता हूं। आश्रय मात्र छोडते ही, निराश्रय और असुरक्षित होते ही, चित्त स्वयं की मूल सत्ता में निमज्जित हो ही जाता है। यही है शांति। यही है मोक्ष। यही है निर्वाण। क्या तुम्हें कुछ और भी पाना है? ’’
वह व्यक्ति, जो न अब धनपति था, न दरिद्र था, बोलाः ‘‘नहीं। पाने के ख्याल में ही भूल थी। उसके कारण ही खोया था। जो पाना है, वह पाया ही हुआ है। पाने की दौड में यही नित्य-प्राप्त खो गया था। शांति भी अब मुझे नहीं चाहिए। परमात्मा भी नहीं। मैं ही अब नहीं हूं और जो है वही शांति है, वही परमात्मा है, वही मोक्ष है।’’
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10 Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), chapter 35
सुबह-सुबह ही एक मित्र आए। उनकी आंखों में क्रोध और घृणा की लपटें थीं। किसी के प्रति बहुत ही तीखे और विषाक्त अग्नि-उदगार प्रकट कर रहे थे। शांति से मैंने उनकी बातें सुनीं और उनसे कहाः ‘‘क्या आपने एक घटना सुनी है? ’’ वे तो कुछ भी सुनने की स्थिति में नहीं थे। फिर भी बोलेः ‘‘कौन सी घटना? ’’ मैं हंसने लगा तो वे कुछ शिथिल हुए। फिर मैंने उनसे कहाः ‘‘एक मनोचिकित्सक प्र्रेम और घृणा पर शोध कर रहा था। उसने विश्वविद्यालय की एक कक्षा के 15 विद्यार्थियों से कहा कि वे शेष युवकों में से जिन्हें भी घृणित पाते हों, 30 सेकेंड में उनके नामों के प्रथमाक्षरों को लिख दें। एक युवक किसी का भी नाम नहीं लिख सका। कुछ ने कुछ नाम लिखे। एक ने अधिकतम अर्थात 13 नाम लिखे। इस प्रयोग से जो तथ्य सामने आया वह बहुत आश्चर्यजनक था। जिन युवकों ने अधिकतम व्यक्तियों को घृणित माना था, वे स्वयं भी अधिकतम व्यक्तियों द्वारा घृणित माने गए थे। और सबसे अदभुत और रहस्य की बात तो यह थी कि जिस युवक ने किसी का भी नाम नहीं लिखा था, उसका नाम भी किसी ने नहीं लिखा था।’’
जीवन-पथ पर मनुष्य जिनसे मिलता है, वे अक्सर दर्पण ही सिद्ध होते हैं। क्या हम स्वयं को ही अन्यों में नहीं झांक लेते हैं? स्वयं में घृणा हो तभी अन्यों में घृणित के दर्शन होते हैं। वह घृणा ही घृणित का निर्माण और आविष्कार करती है। यह निर्माण और आविष्कार भी निष्प्रयोजन नहीं है। इस भांति व्यक्ति स्वयं में जो घृणित है, उसके साक्षात की पीडा से बच जाता है। दूसरों में राई का पर्वत बना कर देखने से स्वयं में जो पर्वत की भांति है, वह राई जैसा प्रतीत होने लगता है। स्वयं के कानेपन की पीडा से बचने के दो ही मार्ग हैं--या तो अपनी ही एक आंख ठीक की जाए या दूसरों की दोनों ही आंखें फूटी मान ली जाएं। निश्चय ही दूसरा मार्ग ही सुगम मालूम होता है, क्योंकि उसमें कुछ करना नहीं है, बस मान लेना ही पर्याप्त है।
स्मरण रहे कि जब भी दूसरों से हम मिलें तो उन्हें दर्पण ही समझें और जो हमें उनमें दिखाई पडे, उसे सर्वप्रथम स्वयं में ही खोजें। इस भांति दैनंदिन संबंधों के दर्पण में ही व्यक्ति आत्मानुसंधान में संलग्न हो जाता है। संसार और उसके संबंधों को छोड कर भागना कायरता तो है ही, व्यर्थ भी है। उचित तो यही है कि उन संबंधों को हम स्वयं की खोज का अवसर बनावें। उनके अभाव में स्वयं को खोजना वैसे ही असंभव है, जैसे दर्पण के अभाव में स्वयं के ही दर्शन करना असंभव है। दूसरों के रूप में हम निरंतर स्वयं से ही मिलते रहते हैं। जो हृदय प्रेम से भर जाता है, वह सब में प्र्रेम के दर्शन करता है। अंततः इसी अनुभूति की पूर्णता परमात्मा का साक्षात बन जाती है। इसी पृथ्वी पर ऐसे लोग हैं जो नरक में हैं और ऐसे लोग भी हैं जो स्वर्ग में हैं। दुख और सुख, नरक और स्वर्ग का मूल स्रोत हमारे भीतर है, और जो भीतर है वही बाह्य के पर्दे पर प्रक्षेपित हो जाता है। मनुष्य की ही आंखें हैं, जो जगत में पदार्थ और मृृत्यु के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं देखतीं और मनुष्य की ही आंखें हैं जो जगत में परमात्मा के अमित सौंदर्य और संगीत को भी अनुभव करती हैं। इसलिए जो बाहर प्रतीत होता है, वह नहीं, वरन जो भीतर उपस्थित है, वही जीवन में मौलिक और आधारभूत है। इस सत्य पर सतत जिनकी दृष्टि है, वे बाह्य से मुक्त हो अंतरस्थ में प्रतिष्ठित हो जाते हैं। सुख और दुख में, घृणा और प्रेम में, मित्र और शत्रु में, जो इस मूलस्रोत पर ध्यान रखते हैं वे अंततः पाते हैं कि मेरे स्वयं के अतिरिक्त न कोई सुख है, न दुख; न कोई शत्रु है, न मित्र। मैं ही अपना शत्रु हूं और मैं ही अपना मित्र हूं।
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12 Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), first part of chapter 36
मैं पहाडों में था। कुछ मित्र साथ थे। एक दिन हम एक ऐसी घाटी में गए, जहां पहाडियां बहुत स्पष्ट प्रतिध्वनि करती थीं। एक मित्र ने कुत्ते की आवाज की तो पहाड में कुत्ते बोलने लगे और फिर किसी ने कोयल की आवाज की तो घाटी कुहू-कुहू से गूंजने लगी। मैंने कहाः ‘‘संसार भी ऐसा ही है। उसकी ओर हम जो फेंकते हैं, वही हम पर वापस लौट आता है। फूल फूल ले आते हैं और कांटे कांटे। प्रेमपूर्ण हृदय के लिए सारा जगत प्रेम की वर्षा करने लगता है और घृणा से भरे व्यक्ति के लिए सब ओर पीडादायी लपटें जलने लगती हैं।’’
फिर मैंने उन मित्रों से एक कहानी कहीः एक छोटा सा लडका पहली बार अपने गांव के पास के जंगल में गया था। वह एकांत से भयभीत और बहुत चैकन्ना था। तभी उसे झाडियों में कुछ सरसराहट सुनाई पडी। निश्चय ही कोई व्यक्ति छिपा हुआ उसका पीछा कर रहा था। उसने जोर से चिल्ला कर पूछाः ‘‘कौन है? ’’ और भी जोर से पहाडियों ने पूछाः ‘‘कौन है? ’’ अब तो किसी के छिपे होने का उसे पूर्ण निश्चय हो गया। भयभीत तो वह वैसे ही था। उसके हाथ-पैर कांपने लगे और हृदय जोर-जोर से धडकने लगा। लेकिन स्वयं को साहस देने के लिए उसने छिपे हुए आदमी से कहाः ‘‘डरपोक!’’ प्रतिध्वनि हुईः ‘‘डरपोक!’’ अंतिम बार उसने शक्ति जुटाई और चिल्लायाः ‘‘मैं मार डालूंगा!’’ पहाड और जंगल भी जोर से चिल्लाएः ‘‘मैं मार डालूंगा!’’ तब वह लडका सिर पर पैर रख कर गांव की ओर भागा। उसके ही पैरों की प्रतिध्वनि उसे ऐसी लगती थी जैसे वह आदमी उसका पीछा कर रहा है। अब उसमें लौट कर देखने का भी साहस नहीं था। वह घर के द्वार पर जाकर गिर पडा और बेहोश हो गया। होश में आने पर सारी बात पता चली। सुन कर उसकी मां खूब हंसी और बोलीः ‘‘कल फिर वहीं जाना और जो मैं बताऊं वह उस रहस्यमय व्यक्ति से कहना। मैं तो उससे भलीभांति परिचित हूं। वह तो बहुत ही भला और प्यारा आदमी है।’’ वह लडका कल फिर वहां गया। उसने जाकर कहाः ‘‘मेरे मित्र!’’ प्रतिध्वनि हुईः ‘‘मेरे मित्र!’’ इस मैत्रीपूर्ण ध्वनि ने उसे आश्वस्त किया। उसने कहाः ‘‘मैं तुम्हें प्रेम करता हूं!’’ पहाडों ने, जंगलों ने, सभी ने दुहरायाः ‘‘मैं 6म्हें :प्रेम करता हूं!’’
14 Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), second part of chapter 36 (Please note that the original sheet labels are out of sync.)
क्या प्रतिध्वनि की कथा ही हमारे तथाकथित जीवन की कथा नहीं है?
और क्या हम सब संसार के जंगल में ऐसे बाल अजनबी ही नहीं हैं, जो अपनी ही प्रतिध्वनियों को सुनते हैं, भयभीत होते हैं और भागते हैं?
क्या सच ही स्थिति ऐसी ही नहीं है?
लेकिन स्मरण रहे कि ‘‘मैं मार डालूंगा!’’ यह प्रतिध्वनि है, तो ‘‘मैं तुम्हें प्रेम करता हूं!’’ यह भी प्रतिध्वनि ही है। पहली प्रतिध्वनि से मुक्त होकर दूसरी के प्रेम में पड जाना बालपन से छुटकारा नहीं है। कुछ पहली प्रतिध्वनि से भयभीत होते हैं, कुछ दूसरी प्रतिध्वनि में मोहग्रस्त। लेकिन बुनियादी रूप से उन दोनों में कोई भेद नहीं है। अप्रौढ़ता दोनों में ही छिपी है। जो जानता है, वह दोनों भ्रमों से मुक्त होकर जीता है। जीवन का सत्य प्रतिध्वनियों में नहीं, वरन स्वयं में ही अंतर्निहित है।
13 Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), chapter 37
मैं सोकर उठा ही था कि खबर मिली कि पडोस में किसी की हत्या कर दी गई है। सभी उस चर्चा में व्यस्त हैं। वातावरण में सनसनी है और लोगों की सदा फीकी बनी रहनेवाली आंखों में भी चमक है। न तो किसी को दुख है, न सहानुभूति, बस एक रुग्ण और गर्हित रस ही दिखाई पडता है। मृत्यु और हत्या भी क्या सुख देती है? विनाश भी क्या सुख लाता है? लाता ही होगा, नहीं तो युद्धों में जन-मन का इतना उत्साह नहीं हो सकता था।
जीवन-ऊर्जा जब सृजन की राह पर गतिशील नहीं हो पाती है, तो वही अनायास ही विध्वंस में संलग्न हो जाती है। फिर उसकी अभिव्यक्ति के लिए विनाश ही विकल्प है। जो स्वयं को सृजनात्मक नहीं बनाता है, वह न चाहे तो भी उसकी जीवन-दिशा विनाशोन्मुख हो जाती है।
व्यक्ति में, समाज में, राष्ट्र में--सभी में विनाश के लिए आकुलता है। यह विनाशोन्मुखता अंततः आत्मघात भी बन जाती है। विनाश का रस पैदा हो तो अंततः वह स्वयं को ही नष्ट करके मानता है। हत्यारे में और आत्मघाती में बहुुत फासला नहीं है। हिंसा की चरम परिणति आत्म-हिंसा है।
उस व्यक्ति को मैं जानता था, रात जिसकी हत्या की गई है और उसे भी जिसने हत्या की है। दोनों पुराने शत्रु थे और वर्षों से एक दूसरे को समाप्त करने की टोह में थे। शायद इस महत कार्य के अतिरिक्त उनके जीवन का और कोई लक्ष्य ही नहीं था। शायद इसीलिए हत्यारे ने हत्या करने के बाद, स्वयं को स्वयं ही न्याय के हाथों में सौंप दिया है। उसे जीकर अब क्या करना है? जिसके लिए वह जीता था, वह समाप्त ही हो गया है। क्या यह आश्चर्यजनक नहीं है कि हममें से अधिक अपने शत्रुओं के लिए ही जीते हैं? मित्रों के लिए जीने और मरने वाले लोग तो बहुत कम हैं। अधिकतम लोग तो शत्रुओं के लिए ही जीते और मरते हैं। प्रेम नहीं, घृणा ही जीवन का आधार बन गई है। और तब स्वाभाविक ही है कि मृत्यु में एक गर्हित रस हो और विनाश के प्रति हमारे प्राण, एक विवश आकुलता और आकर्षण का अनुभव करें। व्यक्ति हिंसा में और राष्ट्र युद्धों में अकारण ही नहीं खिंच जाते हैं।
यह घृणा क्या है? क्या यह स्वयं के जीवन को आनंद के शिखरों तक न पहुंचा पाने का दूसरों से प्रतिशोध ही तो नहीं है? निश्चय ही जो हम उपलब्ध नहीं कर पाते हैं, उसके लिए दूसरों को उत्तरदायी ठहरा कर आत्मग्लानि से बचने का सहज और सीधा मार्ग मिल जाता है।
और यह शत्रुता क्या है? क्या स्वयं के मित्र होने की असफलता की ही वह घोषणा नहीं है?
और क्या शत्रु को समाप्त करने से शत्रुता समाप्त हो सकती है?
शत्रुता से शत्रु उत्पन्न होता है, इसलिए शत्रु तो मिट सकता है, लेकिन
शत्रुता शेष ही रह जाती है। मित्र के मरने से क्या मित्रता नष्ट होती है? नहीं। तो फिर शत्रु के मिटने से शत्रुता कैसे नष्ट हो सकती है? मित्र और शत्रु बाहर दिखाई पडते हैं, किंतु उनका उदगम स्वयं के ही भीतर है। जीवन की गंगा बाहर है, किंतु गंगोत्री सदा ही भीतर है। मैं तो प्रत्येक व्यक्ति में स्वयं की प्रतिध्वनि ही पाता हूं। जो मैं होता हूं, वही दूसरे में झलक आता है।
एक घटना स्मरण आती हैः
अमावस की अंधेरी रात्रि थी। एक व्यक्ति किसी की हत्या करने के लिए उसके घर में घुसा। चारों ओर कोई भी नहीं था, लेकिन उसके भीतर बहुत भय था। सब ओर सन्नाटा था, किंतु उसके भीतर बहुत कोलाहल और अशांति थी। भयभीत कांपते हाथों से उसने द्वार खोला। आश्चर्य कि द्वार भीतर से बंद नहीं था। बस अटका ही था। लेकिन यह क्या? द्वार खोलते ही उसने देखा कि एक मजबूत और खूंखार आदमी बंदूक लिए सामने खडा है। संभवतः पहरेदार था। लौटने का कोई उपाय नहीं। मृत्यु सामने थी। विचार का भी तो समय नहीं था। आत्मरक्षा के लिए उसने गोली दाग दी। एक क्षण में ही सब हो गया। गोली की आवाज से सारा भवन गूंज उठा और गोली से कोई चीज चूर-चूर होकर बिखर गई। यह क्या? गोली चलानेवाला व्यक्ति हैरान रह गया। सामने तो कोई भी नहीं था। गोली का धुआं था और चूर-चूर हो गया एक दर्पण था!
जीवन में भी यही दिखाई पडता है। आत्मरक्षा के ख्याल में हम दर्पणों से ही जूझ पडते हैं। भय भीतर है, इसलिए बाहर शत्रु दिखाई पडने लगते हैं। मृत्यु भीतर है, इसलिए बाहर मारनेवाला दिखाई पडने लगता है। लेकिन क्या दर्पणों के फोडने से शत्रु समाप्त हो सकते हैं?
शत्रु मित्रता में समाप्त होता है, मृत्यु में नहीं। प्रेम के अतिरिक्त और सब पराजय है।
शत्रु है स्वयं में, स्वयं की घृणा में, स्वयं के भय, द्वेष और ईष्र्या में। किंतु दिखाई पडता है वह बाहर। पांडुरोगी की आंखों में पीलापन होता है लेकिन उसे दिखाई पडता है कि सारा संसार ही पीला हो गया है। ऐसे रोग में क्या करना उचित है? क्या संसार से पीतवर्ण को मिटाने में लगना ठीक होगा या स्वयं की आंखों का उपचार? संसार तो वैसा ही है जैसी कि स्वयं की आंखें हैं। स्वयं की दृष्टि में ही शत्रु और मित्र के रंग छिपे हैं। शत्रु को तो कोई भी नहीं चाहता, लेकिन शत्रुता को हम प्रेम किए जाते हैं। शत्रु को मिटाने की आकांक्षा में भी तो यही प्रकट होता है कि हम शत्रु नहीं, मित्र चाहते हैं, लेकिन घृणा को हम अपने रक्त से सींचते रहते हैं। यह निपट मूढ़ता है। मित्र को जीवन देना चाहते हैं, लेकिन प्रेम को जन्म ही नहीं देते हैं। शत्रुओं की हत्या की जाती है, लेकिन वस्तुतः मित्रों की ही हत्या हो जाती है। बीज तो हम विष के बोते हैं और आकांक्षा अमृत के फलों की करते हैं! यह होना असंभव है।
मित्र और शत्रु-स्वयं की ही परछाइयां हैं।
मैं प्रेम हूं तो संसार भी मित्र है।
मैं घृणा हूं तो परमात्मा भी शत्रु है।
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17 Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), chapter 21
क्या प्रेम ही परमात्मा नहीं है? क्या प्रेम में डूबा हुआ हृदय ही उसका मंदिर नहीं है? और, क्या जो प्रेम को छोड उसे कहीं और खोजता है, वह व्यर्थ ही नहीं खोजता है?
एक दिन यह मैं अपने से पूछता था। आज यही आपसे भी पूछता हूं।
परमात्मा को जो खोजता है, वह घोषणा करता है कि प्रेम उसे उपलब्ध नहीं हुआ है। क्योंकि जो प्रेम को उपलब्ध होता है, वह परमात्मा को भी उपलब्ध हो जाता है।
परमात्मा की खोज प्रेम के अभाव से पैदा होती है, जब कि प्रेम के बिना परमात्मा को पाना असंभव ही है।
परमात्मा को जो खोजता है, वह परमात्मा को तो पा ही नहीं सकता, प्रेम की खोज से अवश्य ही वंचित हो जाता है। किंतु जो प्रेम को खोजता है, वह प्रेम को पाकर ही परमात्मा को भी पा लेता है।
प्रेम मार्ग है। प्रेम द्वार है। प्रेम पैरों की शक्ति है। प्रेम प्राणों की प्यास है। अंततः प्र्रेम ही प्राप्ति है। वास्तव में प्रेम ही परमात्मा है।
मैं कहता हूंः परमात्मा को छोडो। प्रेम को पाओ। मंदिरों को भूलो। हृदय को खोजो। क्योंकि, वह है तो वहीं है।
परमात्मा की यदि कोई मूर्ति है तो वह प्रेम है। लेकिन पाषाण-मूर्तियों में वह मूर्ति खो ही गई है। :परमात्मा का कोई मंदिर है, तो वह हृदय है, लेकिन मिट्टी के मंदिरों ने उसे भलीभांति ढंक लिया है।
परमात्मा उसकी ही मूर्तियों और मंदिरों के कारण खो गया है और उसके पुजारियों के कारण ही उससे मिलन कठिन है। उसके लिए गाई गई स्तुतियों और प्रार्थनाओं के कारण ही स्वयं उसकी ध्वनि को सुन पाना असंभव हो गया है।
प्रेम आवे तो उसमें ही परमात्मा भी मनुष्य के जीवन में लौट कर आ सकता है। एक पंडित एक फकीर से मिलने गया था। उसके सिर पर शास्त्रों की इतनी बडी गठरी थी कि फकीर के झोपडे तक पहुंचते-पहुंचते वह अधमरा हो गया था। उसने जाकर फकीर से पूछाः ‘‘परमात्मा को पाने के लिए मैं क्या करूं? ’’ लेकिन जिस गठरी को वह सिर पर लिए हुए था, उसे सिर पर ही लिए रहा। फकीर ने कहाः ‘‘मित्र! सबसे पहले तो इस गठरी को नीचे रख दो।’’ पंडित ने बडी कठिनाई अनुभव की। फिर भी उसने साहस किया और गठरी को नीचे रख दिया। आत्मा के बोझों को नीचे रखने के लिए निश्चय ही अदम्य साहस की जरूरत होती है। लेकिन फिर भी एक हाथ वह गठरी पर ही रखे हुए था। फकीर ने पुनः कहाः ‘‘मित्र! उस हाथ को भी दूर खींच लो!’’ वह बडा बलशाली व्यक्ति रहा होगा, क्योंकि उसने शक्ति जुटा कर अपना हाथ भी गठरी से दूर कर लिया था। तब फकीर ने उससे कहाः ‘‘क्या तुम प्रेम से परिचित हो? क्या तुम्हारे चरण प्रेम के पथ पर चले हैं? यदि नहीं तो जाओ और प्र्रेम के मंदिर में प्रवेश करो। प्रेम को जीयो और जानो और तब आना। फिर मैं तुम्हें परमात्मा तक ले चलने का आश्वासन देता हूं।’’
वह पंडित लौट गया। वह आया था तब पंडित था, लेकिन अब पंडित नहीं था। वह अपनी ज्ञान-गठरी वहीं छोड गया था।
वह व्यक्ति निश्चित ही असाधारण था और अदभुत था। क्योंकि साम्राज्य छोडना आसान है किंतु ज्ञान छोडना कठिन है। ज्ञान अहंकार का अंतिम आधार जो है।
लेकिन, प्रेम के लिए अहंकार का जाना आवश्यक है।
प्रेम का विरोधी घृणा नहीं है। प्रेम का मूल शत्रु अहंकार है। घृणा तो उसकी ही अनेक संततियों में से एक है। राग, विराग, आसक्ति, विरक्ति, मोह, घृणा, ईष्र्या, क्रोध, द्वेष, लोभ, सभी उसकी ही संतानें हैं। अहंकार का परिवार बडा है।
फकीर ने उस व्यक्ति को गांव के बाहर तक जाकर विदा दी। वह इस योग्य था भी। फकीर उसके साहस से आनंदित था। जहां साहस है, वहां धर्म के जन्म की संभावना है। साहस से स्वतंत्रता आती है और स्वतंत्रता से सत्य का साक्षात होता है।
लेकिन फिर वर्ष पर वर्ष बीत गए। फकीर उस व्यक्ति के लौटने की प्रतीक्षा करते-करते बू.ढा हो गया। लेकिन वह न आया। अंततः फकीर ही उसे खोजने निकला और उसने एक दिन उसे खोज ही लिया। एक गांव में वह आत्मविभोर हो नाच रहा था। उसे पहचानना भी कठिन था। आनंद से उसका कायाकल्प ही हो गया था। फकीर ने उसे रोका और पूछाः ‘‘आए नहीं? मैं तो प्रतीक्षा करते-करते थक ही गया और तब स्वयं ही तुम्हें खोजता यहां आया हूं। क्या परमात्मा को नहीं खोजना है? ’’ वह व्यक्ति बोलाः ‘‘नहीं। बिल्कुल नहीं। प्रेम को पाया, उसी क्षण उसे भी पा लिया है।’’
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19 Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), chapter 38
एक मित्र कभी-कभी आते हैं। उन्हें देख सदा ही सुकरात का वचन याद आ जाता है। किसी फकीर से सुकरात ने कहा थाः ‘‘बंधु, तुम्हारे फटे हुए फकीरी वस्त्रों में से सिवाय अभिमान के और कुछ भी नहीं झांकता है।’’
अहंकार के मार्ग अतिसूक्ष्म हैं। ओ.ढी हुई विनम्रता उसकी सूक्ष्मतम गति है। ऐसी विनम्रता उसे ढांकती कम, प्रकट ही ज्यादा करती है। वह उन वस्त्रों की भांति ही होती है, जो शरीर को ढांकते नहीं, अपितु उघाडते हैं। वस्तुतः न तो प्रेम को ओढ़ कर घृणा मिटाई जा सकती है और न ही विनम्रता के वस्त्रों से अहंकार की नग्नता ही ढांकी जा सकती है। राख के नीचे जैसे अंगारे छिपे और सुरक्षित होते हैं और हवा का जरा सा झोंका ही उन्हें प्रकट कर देता है, ऐसे ही आरोपित व्यक्तित्वों में यथार्थ दबा रहता है। एक धीमी सी खरोंच ही अभिनय को तोड कर उसे प्रत्यक्ष कर देती है। ऐसी परोक्ष बीमारियां प्रत्यक्ष बीमारियों से ज्यादा ही भयंकर और घातक होती हैं। लेकिन स्वयं को ही धोखा देने में मनुष्य का कौशल बहुत विकसित है और वह उस कौशल का इतना अधिक उपयोग करता है कि वह उसका स्वभाव जैसा ही बन जाता है। हजारों वर्षों से जबरदस्ती सभ्यता लाने के प्रयास में इस कौशल के अतिरिक्त और कुछ भी निर्मित नहीं हुआ है। प्रकृति को मिटाने में तो नहीं, उसे ढांकने में मनुष्य जरूर ही सफल हो गया है। और इस भांति तथाकथित सभ्यता एक महारोग सिद्ध हुई है।
संस्कृति का आविर्भाव प्रकृति के विरोध से कैसे हो सकता है? उससे तो संस्कृति नहीं, विकृति ही फूलेगी-फलेगी। वास्तविक संस्कृति तो प्रकृति का ही सम्यक निखार है। आत्मवंचनाएं मनुष्य को कहीं भी नहीं ले जा सकतीं, लेकिन आत्मक्रांति की तुलना में आत्मवंचना बहुत आसान है, और सदा ही आसान को चुनने से भूल हो जाती है। आसान सदैव ही ठीक नहीं होता। जीवन के पर्वतीय शिखर छूने के लिए उतार की सुगमता को कैसे वरण किया जा सकता है? स्वयं को धोखा देना बहुत ही सुगम है। दूसरों को धोखा देने में तो पकडे जाने का भी भय होता है। स्वयं को धोखा देने में वह भय भी नहीं। दूसरों को धोखा देनेवाले पृथ्वी पर दंड और अपमान भोगते हैं, और परलोक में भी नरक की घोर यातनाएं उनकी प्रतीक्षा करती हैं। लेकिन स्वयं को धोखा देने वाले इस लोक में भी सम्मानित होते हैं, और उस लोक में भी स्वयं को स्वर्ग का अधिकारी मानते हैं। इसीलिए तो मनुष्य निर्भय होकर स्वयं को धोखा देता है। अन्यथा सभ्यता और धार्मिकता के सारे ढोंग पैदा ही कैसे हो सकते थे?
लेकिन क्या जो यथार्थ है, उसे मात्र छिपा कर मिटाया जा सकता है?
और क्या मनुष्य स्वयं को, सबको और अंततः परमात्मा को भी धोखा देने में समर्थ हो सकता है?
क्या ऐसी सब दौड निपट मूर्खता नहीं है?
व्यक्ति जैसा है, उसे स्वयं को वैसा ही जानना उचित है, क्योंकि स्वयं के यथार्थ को स्वीकार किए बिना स्वयं का कोई भी वास्तविक रूपांतरण नहीं हो सकता। शारीरिक स्वास्थ्य के लिए जैसे रोग को उसकी शत-प्रतिशत सच्चाई में जानना होता है, वैसे ही आत्मिक स्वास्थ्य के लिए भी आंतरिक रुग्णताओं को जानना आवश्यक है। रोग को ढांकना, रोगी के नहीं, रोग के ही हित में है। उपचार के लिए निदान अनिवार्य है। जो निदान से बचना चाहते हैं, वे उपचार से भी वंचित रह जाते हैं।
एक मूर्तिकार राल्फ वाल्डो इमर्सन की मूर्ति बना रहा था। इमर्सन रोज ही पत्थर पर उभरती आकृति को बहुत गौर से देखता था। और जैसे-जैसे मूर्ति बनती जाती थी, वह वैसे-वैसे गंभीर होता जाता था। अंततः जब एक दिन मूर्ति करीब-करीब तैयार हो गई, तो इमर्सन उसे देख कर बहुत गंभीर हो गया। मूर्तिकार ने उससे गंभीर होने का कारण पूछा, तो वह बोलाः मैं देख रहा हूं कि मूर्ति जैसे-जैसे मेरे जैसी होती जा रही है वैसे-वैसे कुरूप और भद्दी होती जाती है।
मैं स्वयं की कुरूपता, नग्नता और पशुता को देखने की इस सामथ्र्य को ही आत्मक्रांति का पहला सोपान मानता हूं।
वही मनुष्य, जो स्वयं के असौंदर्य को देखने में समर्थ होता है, स्वयं को सौंदर्य दे पाने में भी समर्थ हो पाता है। पहली सामथ्र्य के बिना, दूसरी सामथ्र्य कभी भी पैदा नहीं होती। और जो स्वयं की कुरूपता को ढांक कर विस्मरण करने में लग जाता है, वह तो सदा को ही कुरूप रह जाता है। स्वयं में रावण को जानना और स्वीकार करना, राम होने की ओर अनिवार्य चरण .है। जीवन की कुरूपता, उसके प्रति मनुष्य की मूच्र्छा में ही छिपी और सुरक्षित रहती है। मैं जैसा हूं, मुझे स्वयं को सर्वप्रथम वैसा ही जानना होगा, और कोई विकल्प नहीं है। यात्रा के इस प्राथमिक बिंदु पर ही यदि असत्य को जगह दी, तो अंत में सत्य हाथ नहीं आ सकता। किंतु हम तो स्वयं की वास्तविकता को कुरूप होने के कारण ही अस्वीकार कर देते हैं और एक अयथार्थ और कल्पित व्यक्तित्व का पोषण करने लगते हैं। सौंदर्य की यह चाह तो ठीक है, लेकिन मार्ग ठीक नहीं। स्वयं के असौंदर्य को सुंदर मुखौटे पहन कर नहीं मिटाया जा सकता। इसके विपरीत इन मुखौटों के कारण वह और भी असुंदर और कुरूप होता जाता है। फिर धीरे-धीरे स्वयं के समक्ष से भी स्वयं का बोध खो जाता है और झूठे मुखौटों से ही एकमात्र परिचय और पहचान रह जाती है। खुद का ही मुखौटा खो जाए तो खुद को ही पहचानना असंभव है।
एक महिला खजाने से रुपये निकालने गई थी। खजांची ने उससे पूछाः ‘‘मैं कैसे मानूं कि आप आप ही हैं? ’’ उसने जल्दी से बैग से दर्पण निकाला, देखा और कहाः ‘‘मानिए। मैं मैं ही हूं।’’
सत्य की खोज में, स्वयं की वास्तविक सत्ता की खोज में, सबसे पहले अपने ही पहने हुए मुखौटों से लडना होता है। स्वयं के वास्तविक चेहरे को खोजे बिना न तो स्वयं का आविष्कार ही हो सकता है और न परिष्कार ही। सत्य का भवन यथार्थ की बुनियाद पर खडा होता है, और सत्य के सिवाय और कोई शक्ति संस्कृति नहीं लाती है।
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22 Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), first part of chapter 43
एक दोपहर की बात है। कुछ व्यक्ति आए और कहने लगेः ‘‘परमात्मा नहीं है। और धर्म धोखाधडी है।’’
मैं उनकी बात सुन हंसने लगा तो उन्होंने पूछाः ‘‘आप हंसते क्यों हैं? ’’ मैंने कहाः ‘‘क्योंकि अज्ञान मुखर है और ज्ञान मौन। क्या परमात्मा के होने या न होने के संबंध में कुछ भी कहना इतना आसान है? मनुष्य की क्षुद्र बुद्धि के सभी निर्णय क्या हंसने योग्य ही नहीं हैं? जो स्वयं की बुद्धि की सीमा को जानते हैं, वे निर्णय नहीं लेते, अपितु अवाक रह जाते हैं, और उस रहस्यपूर्ण क्षण में ही वे स्वयं की सीमा का अतिक्रमण भी कर जाते हैं। तब वे स्वयं को भी जानते हैं और सत्य को भी। क्योंकि सत्य स्वयं में है और सत्य में स्वयं की सत्ता है। क्या बूंद सागर में है और बूंद में सागर नहीं है? क्या यह उचित है कि बूंद स्वयं को जाने बिना सागर को जानने चले और जब न जान सके तो कहे कि सागर है ही नहीं। बूंद स्वयं को ही जान ले तो सागर को भी जान लेती है। परमात्मा का विचार व्यर्थ है। मैं आपसे पूछता हूं--क्या आप स्वयं को जानते हैं? क्या इस शर्त को पूरा किए बिना कोई भी परमात्मा के संबंध में होने या न होने का निर्णय लेने का अधिकारी है? ’’
‘‘क्या आप स्वयं को जानते हैं? ’’ यह प्रश्न सुन वे मित्र एक दूसरे की ओर देखने लगे थे। क्या आप भी यह प्रश्न सुन ऐसे ही एक दूसरे की ओर नहीं देखने लगेंगे? लेकिन स्मरण रखें कि स्वयं को जाने बिना जीवन में न कोई सार्थकता है, न धन्यता है। उन मित्रों को हजारों साल पूर्व यूनान में हुई एक वार्ता मैंने बताई थी।
एक वृद्ध ऋषि से किसी ने पूछाः ‘‘संसार की वस्तुओं में सबसे बडी वस्तु क्या है? ’’
ऋषि ने कहाः ‘‘आकाश। क्योंकि जो भी है, आकाश में है और स्वयं आकाश किसी में नहीं है।’’
उसने पूछाः ‘‘और श्रेष्ठतम? ’’
ऋषि ने कहाः ‘‘शील। क्योंकि शील पर सब कुछ न्यौछावर है, लेकिन शील किसी के लिए भी नहीं खोया जा सकता है।’’
उसने पूछाः ‘‘और सबसे गतिवान? ’’
24 Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), second part of chapter 43 (Please note that the original sheet labels are out of sync.)
ऋषि ने कहाः ‘‘विचार।’’
उसने पूछाः ‘‘और सबसे सरल? ’’
ऋषि ने कहाः ‘‘उपदेश।’’
उसने पूछाः ‘‘और सबसे कठिन? ’’
ऋषि ने कहाः ‘‘आत्मज्ञान।’’
निश्चय ही स्वयं को जानना सर्वाधिक कठिन प्रतीत होता है, क्योंकि उसे जानने के लिए शेष सब जानना छोडना पडता है। ज्ञान से शून्य हुए बिना स्वयं का ज्ञान नहीं हो सकता है।
अज्ञान आत्मज्ञान में बाधा है।
ज्ञान भी आत्मज्ञान में बाधा है।
लेकिन एक ऐसी अवस्था भी है, जब न ज्ञान है, न अज्ञान है। उस अंतराल में ही स्वयं का ज्ञान आविर्भूत होता है।
मैं उस अवस्था को ही समाधि कहता हूं।
23 Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), chapter 44
मैं धर्म पर क्या कहूं? धर्म मृत्यु की विधि से जीवन को पाने का द्वार है।
एक रात्रि मैं नाव पर था। बडी नाव थी और बहुत से मित्र साथ थे। मैंने उनसे पूछाः ‘‘यह सरिता तेजी से भागी जा रही है। लेकिन कहां? ’’ किसी ने कहाः ‘‘सागर की ओर।’’ सच ही सरिताएं सागर की ओर भागी जाती हैं, लेकिन क्या सरिता का सागर की ओर जाना अपनी ही मृत्यु की ओर जाना नहीं? सरिता सागर में मिटेगी ही तो? शायद इसीलिए सरोवर सागर की ओर नहीं जाते हैं! अपनी ही मृत्यु की ओर कौन समझदार जाना पसंद करेगा? इसीलिए तथाकथित समझदार भी धर्म की ओर नहीं जाते हैं। सरिता के लिए जो सागर है, मनुष्य के लिए वही धर्म है। धर्म है, स्वयं को, सर्व में, समग्रीभूत रूप से खो देना। अहंता के लिए वह महामृत्यु है। इसीलिए जो स्वयं को बचाना चाहते हैं, वे अहंकार का सरोवर बन कर परमात्मा के सागर में मिलने से रुके रहते हैं। सागर में मिलने की अनिवार्य शर्त तो स्वयं को मिटाना है। लेकिन वह मृत्यु वस्तुतः मृत्यु नहीं है। क्योंकि उससे होकर जो जीवन पाया जाता है, उसके समक्ष जिसे हम जीवन कहते हैं, वही मृत्यु हो जाता है। मैं स्वयं मर कर ही यह कह रहा हूं।
सत्य-जीवन में प्रवेश के लिए असत्य-जीवन में मरना ही पडता है।
विराट में प्रतिष्ठा के लिए अणु को बिखेरना ही पडता है।
किंतु एक ओर जो मृत्यु है, वही दूसरी ओर जीवन बन जाती है।
अहंकार की मृत्यु आत्मा का जीवन है। वह मिटना नहीं है, वही होना है। जो इस सत्य को नहीं जान पाते हैं, वे जीवन से ही वंचित रह जाते हैं।
सरोवर सरिता का जीवन नहीं; मृत्यु ही है। यद्यपि उस भांति वह सुरक्षित मालूम होती है। और सागर सरिता की मृत्यु नहीं, जीवन है। यद्यपि उस भांति वह मिटी मालूम होती है।
एक दिन राधा ने कृष्ण से पूछा, ‘‘मेरे प्रभु! यह बांसुरी सदा ही तुम्हारे ओंठों पर है। इससे मुझे बडी ईष्र्या होती है। तुम्हारे मधुमय ओंठों का अमृतस्पर्श इस बांस की पोंगरी को इतना अधिक मिलता है कि मैं जलन से मरी जाती हूं। यह तुम्हारे इतने निकट क्यों है? यह तुम्हें इतनी प्यारी क्यों है? कई बार मैं सोचती हूंः काश मैं कृष्ण की बांसुरी ही होती! भावी जन्मों में मैं तुम्हारे ओठों पर रखी बांसुरी ही होना चाहती हूं!’’ यह सुन कृष्ण खूब हंसने लगे और बोलेः ‘‘प्रिय! बांसुरी होना बहुत कठिन है। शायद
उससे अधिक कठिन और कुछ भी नहीं। जो स्वयं को बिल्कुल मिटा दे, वही बांसुरी हो सकता है। यह बांसुरी, बांस की पोंगरी ही नहीं, वस्तुतः प्रेमी का हृदय है। इसका स्वयं का कोई स्वर ही नहीं है। अपने प्रेमी के स्वरों को ही इसने अपना संगीत बना लिया है। मैं गाता हूं, तो वह गाती है। मैं मौन हूं, तो वह मौन है। और इससे ही मेरा जीवन उसका जीवन हो गया है।’’
मैं पास ही से निकला था और अनायास ही राधा-कृष्ण की यह बात सुन पडी थी! बांसुरी होने का रहस्य ही संगीत को पाने का रहस्य है। अस्मिता के अंत में ही आत्मा को पाने की कुंजी है।
धर्म क्या है? मृत्यु की विधि से जीवन को पाने का द्वार ही धर्म है।
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Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), chapter 45
यह विचारणीय नहीं है कि विचारों में धर्म है या नहीं। विचार नहीं, धर्म जब प्राण ही बनता है, तभी सार्थक है। विचारों में तो धर्म बहुत है। वह धर्म उबारता कहां है? वह तो डुबोता ही है। विचारों की नाव में क्या सागर की यात्रा पर कोई निकलता है? लेकिन सत्य के सागर में तो व्यक्ति विचारों की नाव को लेकर ही निकल जाते हैं। फिर यदि वे किनारों पर ही डूबते देखे जाते हों तो कोई आश्चर्य नहीं। विचारों की नाव से तो कागज की नाव भी कहीं दूर ले जा सकती है। वह भी कहीं ज्यादा वास्तविक है। विचार तो स्वप्न की भांति हैं, उन पर भरोसा उचित नहीं है।
धर्म विचार में ही हो, तो उससे ज्यादा असत्य और कुछ भी नहीं है।
धर्म शास्त्रों में ही है, इसीलिए तो मृत है।
धर्म शब्दों में ही है, इसीलिए तो निष्क्रिय है।
धर्म संप्रदायों में ही है, इसीलिए तो धर्म धर्म ही नहीं है।
धर्म तो जीवन में हो, तभी जीवित बनता है। धर्म तो प्राणों के प्राण में हो, तभी सत्य बनता है। और जहां सत्य है, वहां शक्ति है, वहां गति है। जहां गति है, वहां जीवन है।
एक कैदी की मृत्यु हो गई थी। उसकी मृत देह के पास लोग इकट्ठे थे और रो नहीं, हंस रहे थे। यह देख मैं भी उस भीड में रुक गया था। बहुत बार उस कैदी ने सजाएं काटी थीं और शायद ही कोई जुर्म हो जो उसने न किया हो। उसके जीवन का अधिकांश कारागृहों में ही व्यतीत हुआ था। लेकिन आदमी वह बडे धार्मिक विचारों का था! धर्म की रक्षा के लिए, एक लट्ठ तो सदा ही उसके हाथों में रहता था। जब वह गालियां नहीं बकता था तो मूछों पर ताव देता हुआ राम-राम ही जपता रहता था। वह सदा कहा करता थाः "अनादर से मृत्यु भली!" यह उसका जीवन-सिद्धांत था। एक कागज में धार्मिक विधि से लिखवा कर उसने अपने इस मंत्र को ताबीज में बंद करवा कर भुजा में बांध रखा था। फिर जब उसे इतने से ही तृप्ति न हुई तो अंतिम बार जब वह कारागृह से छूटा तो उसने वे शब्द अपनी दोनों भुजाओं पर गुदवा भी लिए थे। रामनाम तो उसके शरीर में अनेक जगह गुदा ही हुआ था! उसका मृत शरीर सुबह की धूप में पडा था। उसका जीवन उसके जीवन की और उसकी दोनों बाहें उसके जीवन-दर्शन की घोषणा कर रही थीं! और तभी मैं समझ सका कि लोग रो क्यों नहीं रहे थे, और
हंस क्यों रहे थे।
धर्म के नाम पर मनुष्य की जो स्थिति है, वह भी ठीक ऐसी ही है।
मैं आपसे यह जरूर पूछना चाहता हूं कि उस स्थिति पर रोना उचित है या कि हंसना उचित है?

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26 Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), chapter 48
एक मित्र साधु हो गए हैं। साधु होने के बाद आज पहली बार ही मिलने आए थे। उन्हें गैरिक वस्त्रों में देखा तो मैंने कहाः ‘‘मैं तो सोचता था कि सच ही तुम साधु हो गए हो! लेकिन यह क्या? ये वस्त्र क्यों रंग डाले हैं? ’’
मेरे अज्ञान पर मुस्कुराते हुए वे बोलेः ‘‘साधु का अपना वेश होता है।’’ यह सुन मैं सोच में पड गया तो उन्होंने कहाः ‘‘इसमें सोच की क्या बात है? ’’ मैंने कहाः ‘‘बहुत सोच की बात है। क्योंकि साधु का कोई वेश नहीं है और जहां वेश है, वहां साधु नहीं है।’’ शायद मेरी बात वे समझे नहीं और उन्होंने पूछाः ‘‘साधु कुछ तो पहनेगा ही, या आप चाहते हैं, साधु नग्न ही रहे? ’’ मैंने कहाः ‘‘पहनने की मनाही नहीं है, न पहनने की शर्त नहीं है। प्रश्न कुछ विशेष पहनने या कुछ भी न पहनने के आग्रह का है। मित्र, वेश वस्त्रों में नहीं, आग्रह में है।’’ वे बोलेः ‘‘वेश से स्मृति रहती है कि मैं साधु हूं।’’
अब हंसने की मेरी बारी थी। मैंने कहाः ‘‘मैं जो हूं, उसकी स्मृति रखनी ही नहीं होती है। मैं जो नहीं हूं, उसकी ही स्मृति को सम्हालना पडता है। और फिर जो साधुता वस्त्रों से याद रहे, क्या वह भी साधुता है? वस्त्र तो बहुत ऊपर हैं और उथले हैं। चमडी भी गहरी नहीं है। मांस-मज्जा भी बहुत गहरी नहीं है। मन भी गहरा नहीं है। आत्मा के अतिरिक्त और कोई ऐसी गहराई नहीं है, जो साधुता का आवास बन सके। और स्मरण रहे कि ऊपर जिनकी दृष्टि है, वे भीतर से वंचित रह जाते हैं। वस्त्रों पर जिनका ध्यान है, वे उस ध्यान के कारण ही आत्मा के ध्यान में नहीं हो पाते हैं। संसार और क्या है? वस्त्रों पर केंद्रित चित्त ही तो संसार है। जो वस्त्रों से मुक्त हो जाता है, वही साधु है।’’
फिर उनसे मैंने एक कहानी कही। एक बहुरुपिए ने किसी सम्राट के द्वार पर जाकर कहाः ‘‘पांच रुपये दान में चाहिए।’’ सम्राट बोलाः ‘‘मैं कलाकार को पुरस्कार तो दे सकता हूं, लेकिन दान नहीं।’’ बहुरुपिया मुस्कुराया और वापस लौट गया। लेकिन जाते-जाते कह गयाः ‘‘महाराज, मैं भी दान ले सका तभी पुरस्कार लूंगा। कृपा कर इसे स्मरण रखिए।’’
बात आई और गई। कुछ दिनों के बाद राजधानी में एक अदभुत साधु के आगमन की खबर विद्युत की भांति फैली। नगर के बाहर एक युवा साधु समाधि-मुद्रा में बैठा था। न तो कुछ बोलता था, न आंखें ही खोलता था। और न हिलता-डुलता था। लोगों के झुंड के झुंड उसके दर्शन को पहुंच रहे थे। फूलों के, फलों के, मेवा-मिष्ठान के ढेर उसके पास लग गए थे, लेकिन वह तो समाधि में था और उसे कुछ भी पता नहीं था। एक दिन बीत गया। दूसरा दिन भी बीत गया। भीड रोज बढ़ती ही जाती थी। तीसरे दिन सुबह स्वयं सम्राट भी साधु के दर्शन को गए। उन्होंने एक लाख स्वर्ण मुद्राएं साधु के चरण में रख आशीर्वाद की प्रार्थना की। किंतु साधु तो पर्वत की भांति अचल था। कोई भी प्रलोभन उसे डिगाने में असमर्थ था। सम्राट भी असफल होकर राजमहल लौट गए। साधु का चारों ओर जय-जयकार हो रहा था। लेकिन चैथे दिन लोगों ने देखा कि रात्रि में साधु विलीन हो गया था। उस दिन सम्राट के दरबार में वह बहुरुपिया उपस्थित हुआ और बोलाः ‘‘एक लाख स्वर्ण-मुद्राओं का दान तो आप मेरे सामने कर ही चुके हैं, अब मेरा पांच रुपये का पुरस्कार मुझे मिल जाए!’’
सम्राट तो हैरान हो गया। उसने बहुरुपिए से कहाः ‘‘पागल, तूने एक लाख स्वर्ण-मुद्राएं क्यों छोडीं? और अब पांच रुपये मांग रहा है!’’ बहुरुपिए ने कहाः ‘‘महाराज, जब आपने दान नहीं दिया था, तो मैं भी दान कैसे स्वीकार करता? बस अपने श्रम का पुरस्कार ही पर्याप्त है। फिर तब मैं साधु था। झूठा ही सही, तो भी साधु था। और साधु के वेश की लाज रखनी आवश्यक थी!’’
इस कहानी पर विचार करने से बहुत सी बातें ख्याल में आती हैं। बहुरुपिए साधु हो सकते हैं। क्यों? क्योंकि साधुओं के तथाकथित वेश में बहुरुपियों को सुविधा है। वेश जहां महत्वपूर्ण है, वहां सहज ही बहुरुपियों को सुविधा है। फिर वह बहुरुपिया तो साधु-चित्त था, इसलिए एक लाख स्वर्ण-मुद्राएं छोड कर पांच रुपये लेने को राजी हुआ, लेकिन सभी बहुरुपियों से इतने साधु-चित्त होने की आशा करनी उचित नहीं है। सम्राट धोखे में पडा, वेश के कारण। वेश धोखा दे सकता है, इसीलिए धोखा देने वालों ने वेश को प्रधान बना लिया है। और जब व्यक्ति दूसरों को धोखा देने में सफल हो जाता है, तो फिर वह सफलता स्वयं को भी धोखा देने का सुदृढ़ आधार बन जाती है।
कहते हैंः ‘‘सत्यमेव जयते।’’ सत्य विजयी होता है। यह बडा खतरनाक मान-दंड है, क्योंकि इसके कारण जो जीत जाता है, उसे सत्य मान लेने का विचार पैदा हो जाता है। सत्य सफल होता है तो फिर जो सफल होता है वही सत्य है, इस निष्पत्ति तक पहुंचने में मन को देर नहीं लगती है। ऐसी साधुता सत्य नहीं है, जिसे बहुरुपिए भी साध सकते हों, क्योंकि फिर बहुरुपियों के लिए इससे सुगम साधना और कोई नहीं हो सकती है। बहुरुपिए साधु हो सकते हैं, तो साधु भी बहुरुपिए हो सकते हैं!
वस्तुतः साधु का कोई वेश नहीं है। वेश तो बहुरुपिए का ही हो सकता है। और जब साधु का वेश ही नहीं है, तो वेश की लाज का तो अस्तित्व ही कहां है? वह स्मृति भी साधु की नहीं, बहुरुपिए की ही है। लेकिन ऐसी स्मृति भी उस बहुरुपिए की ही होगी जो स्वयं को बहुरुपिया ही जानता है। जिन्होंने स्वयं को बाह्य वेश के आधार पर साधु ही मान लिया है, वे तो रामलीला के ऐसे राम हैं, जिन्होंने स्वयं को राम ही मान लिया है।
ऐसे एक राम को मैं जानता हूं। रामलीला में राम बनने के बाद उन्होंने फिर राम का वेश कभी उतारा ही नहीं! किंतु लोग उन्हें पागल कहते थे। बहुरुपिए साधु बन सकते हैं, किंतु जब वे स्वयं को साधु ही समझने भी लगते हैं, तब वे बहुरुपिए ही नहीं, विक्षिप्त भी हो जाते हैं।
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29 Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), chapter 54
सत्य की खोज में पहला सत्य क्या है? व्यक्ति जो है, जैसा है उसे स्वयं को वैसा ही जानना पहला सत्य है। यह सी.ढी का पहला पाया है। किंतु अधिकांशतः सी.िढयों में यह पहला पाया ही नहीं होता है और इसलिए वे केवल देखने मात्र के लिए सी.िढयां रह जाती हैं। उनसे चढ़ना नहीं हो सकता है। कोई चाहे तो उन्हें कंधों पर ढो सकता है, लेकिन उनसे चढ़ना असंभव है।
मनुष्य औरों को धोखा देता है, स्वयं को धोखा देता है, और परमात्मा को भी धोखा देना चाहता है। फिर इस धोखे में वह स्वयं ही खो जाता है। जिस धुएं से उसकी आंखें अंधी हो जाती हैं, उसे वह स्वयं ही पैदा करता है।
क्या हमारी सभ्यता, संस्कृति और धर्म ऐसे ही धोखों के सुंदर नाम नहीं हैं? क्या इन सब धुओं के भीतर हमने अपनी असभ्यता, असंस्कृति और अधर्म को ही छिपाने की असफल चेष्टा नहीं की है? और परिणाम क्या हुआ है? परिणाम यह है कि सभ्यता के कारण ही हम सभ्य नहीं हो पाते हैं, और धर्म के कारण ही धार्मिक नहीं हो पाते हैं। क्योंकि असत्य कभी सत्य तक ले जानेवाला मार्ग नहीं बन सकता है। सत्य ही सत्य का द्वार है। स्वयं के प्रति सारी वंचनाओं को छोडने से ही सत्य का मार्ग निष्कंटक और निर्विरोध हो सकता है। यह स्मरण रखना आवश्यक है कि अंततः स्वयं को धोखा नहीं दिया जा सकता है। एक न एक दिन धोखे टूट ही जाते हैं और सत्य प्रकट होते हैं। इसीलिए आत्म-वंचना अंततः आत्मग्लानि में परिणत होती है। किंतु पूर्व-बोध जो कर सकता है, वह पश्चात्ताप नहीं कर सकता है।
मैं क्यों धोखा देना चाहता हूं?
क्या सब धोखों के पीछे भय ही नहीं है?
लेकिन क्या धोखों से भय की मूल जड नष्ट होती है? धोखे से उलटे वे जडें और दब जाती हैं, और गहरी हो जाती हैं। इस भांति वे मरती नहीं, और सप्राण और सशक्त होती हैं। इसीलिए फिर उन्हें ढांकने और छिपाने को और भी बडे धोखे आविष्कार करने होते हैं। और फिर धोखों का एक अंतहीन सिलसिला शुरू होता है, जिससे भीरुता बढ़ती ही चली जाती है और व्यक्ति दीनता और कायरता का पुंज मात्र रह जाता है। फिर तो वह स्वयं से भी भय खाने लगता है। वह भय नरक बन जाता है।
जीवन में भय के कारण वंचनाएं ओढ़ना उचित नहीं है। उचित है भय के मूल कारण को खोजना। भय को दबाना नहीं, उघाडना आवश्यक है। दबे हुए भय से मुक्ति असंभव है। भय को जानकर, उघाड कर ही उससे मुक्त हुआ जा सकता है।
इसलिए ही साहस को मैं सबसे बडा धार्मिक गुण मानता हूं। जीवन के मंदिर में पीछे से घुसने के लिए कोई द्वार नहीं है। परमात्मा केवल उसका ही स्वागत करता है जो साहसपूर्वक संघर्ष करता है।
इंग्लैंड के एक महानगर में शेक्सपियर का कोई नाटक चल रहा था। बहुत वर्षों पहले की बात है। तब सज्जनों के लिए नाटक देखना पाप समझा जाता था और धर्म-पुरोहितों के तो देखने का सवाल ही नहीं था। धर्म का तो ठेका ही उन्हीं का है। लेकिन एक पादरी नाटक देखने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा था। उसने वही विधि खोजी, जो हम सब जीवन में खोजते हैं। उसने थियेटर हाल के मैनेजर को लिख कर पूछाः ‘‘क्या आप नाटक के पिछले द्वार से मेरे प्रवेश का इंतजाम कर सकेंगे, ताकि कोई मुझे न देख सके? ’’ मैनेजर का जवाब आयाः ‘‘खेद है, यहां कोई ऐसा दरवाजा नहीं है, जो ईश्वर को नजर न आता हो!’’
मैं भी यही आपसे कहना चाहता हूं। सत्य के प्रवेश के लिए पीछे का कोई द्वार नहीं है। परमात्मा सब द्वारों पर खडा है।
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31 Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), chapter 55
एक यात्रा की बात है। कुछ वृद्ध स्त्री-पुरुष तीर्थ जा रहे थे। एक संन्यासी भी उनके साथ थे। मैं उनकी बात सुन रहा था। संन्यासी उन्हें समझा रहे थेः ‘‘मनुष्य अंत समय में जैसे विचार करता है, वैसी ही उसकी गति होती है। जिसने अंत सम्हाल लिया, उसने सब सम्हाल लिया। मृत्यु के क्षण में परमात्मा का स्मरण होना चाहिए। ऐसे पापी हुए हैं, जिन्होंने भूल से अंत समय में परमात्मा का नाम ले लिया था और आज वे मोक्ष का आनंद लूट रहे हैं।’’
संन्यासी की बात अपेक्षित प्रभाव पैदा कर रही थी। वे वृद्धजन अपने अंत समय में तीर्थ जा रहे थे और मनचाही बात सुन उनके हृदय फूले नहीं समाते थे। सच ही सवाल जीवन का नहीं, मृत्यु का ही है और जीवन भर के पापों से छूटने को भूल से ही सही, बस परमात्मा का नाम लेना ही पर्याप्त है। फिर वे तो भूल से नहीं, जान-बूझ कर तीर्थ जा रहे थे। उनकी प्रसन्नता स्वाभाविक ही थी। इसी प्रसन्नता में वे संन्यासी की सेवा भी कर रहे थे।
मैं उनके सामने ही बैठा था। संन्यासी की बात सुन कर हंसने लगा तो संन्यासी ने सक्रोध पूछाः ‘‘क्या आप धर्म पर विश्वास नहीं करते हैं? ’’
मैंने कहाः ‘‘धर्म कहां है? अधर्म के सिक्के ही धर्म बन कर चल रहे हैं। खोटे सिक्के ही विश्वास मांगते हैं, असली सिक्के तो आंख चाहते हैं। विश्वास की उन्हें आवश्यकता ही नहीं। विवेक जहां अनुकूल नहीं है, वहीं विश्वास मांगा जाता है। विवेक की हत्या ही तो विश्वास है। लेकिन न तो अंधे मानने को राजी होते हैं कि अंधे हैं और न विश्वासी ही राजी होते हैं। अंधों ने और अंधों के शोषकों ने मिल कर जो षड्यंत्र किया है, उसने करीब-करीब धर्म की जड काट डाली है। धर्म की साख है और अधर्म का व्यापार है।
यह जो आप इन वृद्धों को समझा रहे हैं, क्या उस पर कभी विचार किया है? जीवन कैसा ही हो, बस अंत समय में अच्छे विचार होने चाहिए? क्या इससे भी अधिक बेईमानी की कोई बात हो सकती है। और क्या यह संभव है कि बीज नीम के, वृक्ष नीम का और फल आम के लगा रहे हैं? जीवन जैसा है, उसका निचोड ही तो मृत्यु के समय चेतना के समक्ष हो सकता है। मृत्यु क्या है? क्या वह जीवन की ही परिपूर्णता नहीं है? वह जीवन के विरोध में कैसे हो सकती है? वह तो उसका ही विकास है। वह तो जीवन का ही फल है। ये कल्पनाएं काम नहीं देंगी कि पापी अजामिल मरते समय अपने लडके नारायण को बुला रहा था और इसलिए भूल से भगवान का नाम उच्चरित हो जाने से सब पापों से मुक्त हो मोक्ष को प्राप्त हो गया था। मनुष्य का पापी मन क्या-क्या आविष्कार नहीं कर लेता है? और इन भयभीत लोगों का शोषण करने वाले व्यक्ति तो सदा ही मौजूद हैं। फिर भगवान का क्या कोई नाम है? भगवान की स्मृति तो एक भाव-दशा है। अहंकार-शून्यता की भावदशा ही परमात्मा की स्मृति है। जीवन भर अहंकार की धूल को जो स्वयं से झाडता है, वही अंततः अहं-शून्यता के निर्मल दर्पण को उपलब्ध कर पाता है। यह भूल से किसी नाम के उच्चार से तो हो नहीं सकता। यदि कोई किसी नाम को भगवान मान कर जीवन भर धोखा खाता रहे तो भी उसकी चेतना भगवत-चैतन्य से भरने की बजाय और जडता से ही भर जाएगी। किसी भी शब्द की पुनरुक्ति-मात्र, चेतना को जगाती नहीं, और सुलाती है। फिर अजामिल पता नहीं अपने नारायण को किसलिए बुला रहा था। बहुत संभव तो यही है कि अंत समय को निकट जान कर अपने जीवन की कोई अधूरी योजना उसे समझा जाना चाहता हो। अंतिम क्षणों में स्वयं के जीवन का केंद्रीय तत्व ही चेतना के समक्ष आता है और आ सकता है।’’
फिर एक घटना भी मैंने उनसे कही।
एक वृद्ध दुकानदार मृत्युशय्या पर पडा था। उसकी शय्या के चारों ओर उसके परिवार के शोकग्रस्त व्यक्ति जमा थे। उस वृद्ध ने अचानक आंखें खोलीं और बहुत विकल होकर पूछाः ‘‘क्या मेरी पत्नी यहां है? ’’
उसकी पत्नी ने कहाः ‘‘हां, मैं यहां हूं।’’
‘‘और मेरा बडा लडका? ’’
‘‘वह भी है।’’
‘‘और बाकी पांचों लडके? ’’
‘‘वे भी हैं।’’
‘‘और चारों लडकियां? ’’
‘‘सभी यहीं हैं। तुम चिंता न करो और आराम से लेट जाओ,’’ पत्नी ने कहा।
मरणासन्न रोगी ने बैठने की कोशिश करते हुए कहाः ‘‘फिर दुकान पर कौन बैठा है? ’’
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33 Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), chapter 56
आनंद कहां है?
आप पूछते हैंः आनंद कहां है?
मैं एक कथा कहता हूं। उस कथा में ही आपका उत्तर है।
एक दिन संसार के लोग सोकर उठे ही थे कि उन्हें एक अदभुत घोषणा सुनाई पडी। ऐसी घोषणा इसके पूर्व कभी भी नहीं सुनी गई थी। किंतु वह अभूतपूर्व घोषणा कहां से आ रही है, यह समझ में नहीं आता था। उसके शब्द जरूर स्पष्ट थे। शायद वे आकाश से आ रहे थे, या यह भी हो सकता है कि अंतस से ही आ रहे हों। उनके आविर्भाव का स्रोत मनुष्य के समक्ष नहीं था।
‘‘संसार के लोगो, परमात्मा की ओर से सुखों की निर्मूल्य भेंट! दुखों से मुक्त होने का अचूक अवसर! आज अर्धरात्रि में, जो भी अपने दुखों से मुक्त होना चाहता है, वह उन्हें कल्पना की गठरी में बांध कर गांव के बाहर फेंक आवे और लौटते समय वह जिन सुखों की कामना करता हो, उन्हें उसी गठरी में बांध कर सूर्योदय के पूर्व घर लौट आवे। उसके दुखों की जगह सुख आ जाएंगे। जो इस अवसर से चूकेगा, वह सदा के लिए ही चूक जाएगा। यह एक रात्रि के लिए पृथ्वी पर कल्पवृक्ष का अवतरण है। विश्वास करो और फल लो। विश्वास फलदायी है।’’
सूर्यास्त तक उस दिन यह घोषणा बार-बार दुहराई गई थी। जैसे-जैसे रात्रि करीब आने लगी, अविश्वासी भी विश्वासी होने लगे। कौन ऐसा मूढ़ था, जो इस अवसर से चूकता? फिर कौन ऐसा था जो दुखी नहीं था और कौन ऐसा था, जिसे सुखों की कामना न थी?
सभी अपने दुखों की गठरियां बांधने में लग गए। सभी को एक ही चिंता थी कि कहीं कोई दुख बांधने से छूट न जाए।
आधी रात होते-होते संसार के सभी घर खाली हो गए थे और असंख्य जन चींटियों की कतारों की भांति अपने-अपने दुखों की गठरियां लिए गांव के बाहर जा रहे थे। उन्होंने दूर-दूर जाकर अपने दुख फेंके कि कहीं वे पुनः न लौट आवें और आधी रात बीतने पर वे सब पागलों की भांति जल्दी-जल्दी सुखों को बांधने में लग गए। सभी जल्दी में थे कि कहीं सुबह न हो जाए और कोई सुख उनकी गठरी में अनबंधा न रह जाए। सुख तो हैं असंख्य और समय था कितना अल्प? फिर भी किसी तरह सभी संभव सुखों को बांध कर लोग भागते-भागते सूर्योदय के करीब-करीब अपने-अपने घरों को लौटे। घर पहुंच कर जो देखा तो स्वयं की ही आंखों पर विश्वास नहीं आता था! झोपडों की जगह गगनचुंबी महल खडे थे। सब कुछ स्वर्णिम हो गया था। सुखों की वर्षा हो रही थी। जिसने जो चाहा था, वही उसे मिल गया था।
यह तो आश्चर्य था ही, लेकिन एक और महाआश्चर्य था! यह सब पाकर भी लोगों के चेहरों पर कोई आनंद नहीं था। पडोसियों का सुख सभी को दुख दे रहा था। पुराने दुख चले गए थे--लेकिन उनकी जगह बिल्कुल ही अभिनव दुख और चिंताएं साथ में आ गई थीं। दुख बदल गए थे, लेकिन चित्त अब भी वही थे और इसलिए दुखी थे। संसार नया हो गया था, लेकिन व्यक्ति तो वही थे और इसलिए वस्तुतः सब कुछ वही था।
एक व्यक्ति जरूर ऐसा था जिसने दुख छोडने और सुख पाने के आमंत्रण को नहीं माना था। वह एक नंगा वृद्ध फकीर था। उसके पास तो अभाव ही अभाव थे और उसकी नासमझी पर दया खाकर सभी ने उसे भी चलने को बहुत समझाया था। जब सम्राट भी स्वयं जा रहे थे तो उस दरिद्र को तो जाना ही था।
लेकिन उसने हंसते हुए कहा थाः ‘‘जो बाहर है वह आनंद नहीं है, और जो भीतर है उसे खोजने कहां जाऊं? मैंने तो सब खोज छोड कर ही उसे पा लिया है।’’
लोग उसके पागलपन पर हंसे थे और दुखी भी हुए थे। उन्होंने उसे वज्रमूर्ख ही समझा था। और जब उनके झोपडे महल हो गए थे और मणि-माणिक्य कंकड-पत्थरों की भांति उनके घरों के सामने पडे थे, तब उन्होंने फिर उस फकीर को कहा थाः ‘‘क्या अब भी अपनी भूल समझ में नहीं आई? ’’ लेकिन फकीर फिर हंसा था और बोला थाः ‘‘मैं भी यही प्रश्न आप लोगों से पूछने की सोच रहा था।’’
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35 Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), chapter 57
मैं एक 84 वर्ष के बूढे आदमी की मरणशय्या के पास बैठा था। जितनी बीमारियां एक ही साथ एक व्यक्ति को होनी संभव हैं, सभी उन्हें थीं। एक लंबे अर्से से वे असह्य पीडा झेल रहे थे। अंत में आंखें भी चली गई थीं। बीच-बीच में मूच्र्छा भी आ जाती थी। बिस्तर से तो अनेक वर्षों से नहीं उठे थे। दुख ही दुख था। लेकिन फिर भी वे जीना चाहते थे। ऐसी स्थिति में भी जीना चाहते थे। मृत्यु उन्हें अभी भी स्वीकार नहीं थी।
जीवन चाहे साक्षात मृत्यु ही हो, फिर भी मृत्यु को कोई स्वीकार नहीं करता है। जीवन का मोह इतना अंधा और अपूर्ण क्यों है? यह जीवेषणा क्या-क्या सहने को तैयार नहीं कर देती है? मृत्यु में ऐसा क्या भय है? और जिस मृत्यु को मनुष्य जानता ही नहीं, उसमें भय भी कैसे हो सकता है? भय तो ज्ञात का ही हो सकता है। अज्ञात का भय कैसा? उसे तो जानने की जिज्ञासा ही हो सकती है।
उन वृद्ध को जो भी देखने जाता था, उसके सामने ही रोने लगते थे। शिकायत ही शिकायत। मृत्यु-क्षण तक भी शिकायत नहीं मरती है? शायद, मृत्यु के बाद भी वे साथ देती हैं!
डाक्टरों, वैद्यों, हकीमों, सभी से वे ऊब चुके थे, लेकिन अभी निराश नहीं हुए थे। किसी न किसी चमत्कार के बल पर आगे भी अभी जीने की उन्हें आशा थी। मैंने एकांत देख कर उनसे पूछाः ‘‘क्या आप अब भी जीना चाहते हैं? ’’
निश्चय ही वे चैंके थे। सोचा होगाः यह कैसी अपशकुन की बात मैंने पूछी। फिर बडे कष्ट से बोले थेः ‘‘अब तो परमात्मा से एक ही प्रार्थना है कि उठा ले! लेकिन जो वे कह रहे थे, उसकी असत्यता उनके चेहरे के कण-कण से प्रकट होती थी।
एक कथा मुझे स्मरण आई थी।
एक लकडहारा था। दीन, दरिद्र, दुखी और वृद्ध। पेट भर पाने योग्य लकडियां भी वह अब नहीं काट पाता था। उसकी जीवन-शक्ति रोज-रोज क्षीण होती जाती थी। संसार में आगे-पीछे भी उसका कोई नहीं था। जंगल में लकडियां काट कर एक दिन वह उन्हें बांध रहा था। तभी उसके मुंह से निकलाः ‘‘इस वृद्धावस्था के कष्टपूर्ण जीवन से छुटकारा दिलाने के लिए मौत भी मुझे नहीं आती!’’
अपने मुंह से इन शब्दों के निकलते ही उसने किसी को पीछे खडा हुआ अनुभव किया। कोई अदृश्य और अत्यंत ठंडा हाथ भी उसके कंधे पर था। उसके तन-प्राण कांप उठे। उसने मुड कर देखा, कोई भी तो नहीं था। फिर भी कोई जरूर था। उसके कंधे पर ठंडे हाथ का भार स्पष्ट था। इसके पहले कि वह कुछ बोलता, वह अदृश्य शक्ति स्वयं ही बोलीः ‘‘मैं मृत्यु हूं। बोलो मैं तुम्हारे लिए क्या करूं? ’’
उस बू.ढे लकडहारे की बोलती ही खो गई। सर्दी के दिन थे, लेकिन उसके शरीर से पसीना धारों में बहने लगा। किसी भांति शक्ति जुटा कर उसने कहाः ‘‘हे देवी! मुझ गरीब पर दया करो। मुझ से तुम्हें क्या काम है? ’’
मृत्यु ने कहाः ‘‘मैं हाजिर हूं, क्योंकि तुमने मुझे स्मरण किया था।’’
उस वृद्ध लकडहारे ने होश सम्हाला और बोलाः ‘‘क्षमा कर। मैं तो भूल ही गया। इस लकडियों के गट्ठर को उठाने में मेरी मदद कर दें। इसलिए ही आपको पुकारा था। भविष्य में एक तो मैं बुलाऊंगा ही नहीं और भूल से यदि बुला भी लूं तो भी आपको आने की आवश्यकता नहीं है। प्रभु-कृपा से मैं बहुत आनंद में हूं।’’
मैं यह सोच ही रहा था कि एक व्यक्ति ने आकर उन वृद्ध को कहाः ‘‘एक फकीर आया है। उसकी चमत्कारिक शक्तियों की बडी चर्चा है। क्या आपको दिखाने के लिए मैं उन्हें बुला लाऊं? ’’ वृद्ध के चेहरे पर आशा की चमक आ गई और वे किसी तरह उठ कर बैठ गए और बोलेः ‘‘फकीर कहां है? जल्दी बुलावें। मैं ऐसा कोई ज्यादा बीमार भी तो नहीं हूं। असल में डाक्टर ही मुझे मार डालेंगे। परमात्मा बचाना चाहता है, इसीलिए तो मैं उन सबके बावजूद बचा हूं। प्रभु जिसे बचाना चाहता है, उसे कौन मार सकता है? ’’
फिर मैंने विदा ली। किंतु घर पहुंचा ही था कि पीछे से खबर पहुंची कि वे वृद्ध अब इस संसार में नहीं हैं।
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37 Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), chapter 58
एक करोडपति ने महल बनवाया था। उसका जीवन बीतते-बीतते वह महल बन कर तैयार हुआ था। अक्सर ही ऐसा होता है। रहने के लिए जिसे बनाते हैं, उसे बनाने में ही रहने वाला चुक जाता है। निवास तैयार करते हैं और समाधि तैयार होती है। यही हुआ था। महल तो बन गया था लेकिन बनाने वाले के जाने के दिन आ गए थे। किंतु महल अद्वितीय बना था। अहंकार तो अद्वितीयता ही चाहता है। उसके लिए ही तो मनुष्य अपनी आत्मा भी खो देता है। ‘अहं’ जो है ही नहीं, सर्वप्रथम होकर ही तो स्वयं के होने का अनुभव कर पाता है। सौंदर्य में, शिल्प में, सुविधा में, सभी भांति वह भवन अद्वितीय था, और धनपति के पैर पृथ्वी पर नहीं पड रहे थे। राजधानी भर में उसकी ही चर्चा थी। जो भी देखता था मंत्रमुग्ध हो जाता था। अंततः स्वयं सम्राट भी उसे देखने आया। वह भी अपनी आंखों पर विश्वास नहीं कर सका। उसके अपने महल भी फीके पड गए थे। भीतर तो उसे ईष्र्या ही हुई पर ऊपर से उसने प्रशंसा ही की। धनपति ने तो इसकी ईष्र्या को ही वस्तुतः प्रशंसा माना। सम्राट की प्रशंसा का आभार मानते हुए उसने कहाः ‘‘सब परमात्मा की कृपा है।’’ लेकिन, हृदय में तो वह जानता था कि सब मेरा ही पुरुषार्थ है! सम्राट को विदा देते समय द्वार पर उसने कहाः ‘‘एक ही द्वार मैंने महल में रखा है। ऐसे में चोरी असंभव है। कोई भीतर आवे या बाहर जावे, इसी द्वार से आना-जाना अनिवार्य है।’’ एक वृद्ध भी द्वार पर खडा था। भवन-पति की बात सुन कर वह जोर से हंस पडा। सम्राट ने उससे पूछाः ‘‘क्यों हंसते हो? ’’ वह बोलाः ‘‘कारण भवन-पति के कान में ही बता सकता हूं।’’ फिर वह भवन-पति के पास गया और कान में बोलाः ‘‘महल के द्वार की तारीफ सुन कर ही मुझे हंसी आ गई थी। इस पूरे महल में वही तो एक खराबी है। मृत्यु उसी द्वार से आएगी और आपको बाहर ले जाएगी। वह द्वार न होता तो सब ठीक था।’’
जीवन के जो भी भवन मनुष्य बनाता है, उन सभी में यह खराबी रहती है। इसीलिए तो कोई भी भवन आवास सिद्ध नहीं होता है। एक द्वार सभी में शेष रह जाता है, और वही मृत्यु का द्वार बन जाता है।
लेकिन क्या जीवन का ऐसा भवन संभव नहीं है, जिसमें मृत्यु के लिए कोई द्वार ही न हो?
हां, संभव है।
किंतु उस भवन में दीवारें नहीं होती हैं, बस द्वार ही द्वार होते हैं। द्वार ही द्वार होने से द्वार दिखाई नहीं पडते हैं।
और मृत्यु वहीं आ सकती है, जहां द्वार है। जहां द्वार ही द्वार हैं, वहां द्वार ही नहीं है।
अहंकार जीवन में दीवार बनाता है। फिर स्वयं में आने-जाने के लिए उसे कम से कम एक द्वार तो रखना ही होता है। यही द्वार मृत्यु का भी द्वार है।
अहंकार का भवन मृत्यु से नहीं बच सकता है। उसमें एक द्वार सदा ही शेष है। वह स्वयं ही वह द्वार है। यदि वह एक भी द्वार न छोडे तो भी मरेगा। वह आत्मघात है।
किंतु, अहंकार-शून्य जीवन भी है। वही अमृत-जीवन है। क्योंकि मृत्यु को आने के लिए उसमें कोई द्वार ही नहीं है और न मृत्यु को गिराने के लिए उस भवन में कोई दीवार ही है।
अहंकार जहां नहीं है, वहां आत्मा है।
आत्मा है आकाश जैसी असीम और अनंत। और जो असीम है, और अनंत है, वही अमृत है।
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Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), chapter 59
मैं एक छोटे से गांव में अतिथि था। गांव तो छोटा था, लेकिन उसमें मंदिर भी था, मस्जिद भी थी। लोग बडे धार्मिक थे और सुबह होते ही अपने-अपने पूजागृहों में जाते थे। रात्रि में भी पूजागृह से लौट कर ही सोते थे। सदा धार्मिक उत्सव भी होते रहते थे। लेकिन, उस गांव का जीवन और गांवों जैसा ही था। धर्म और जीवन एक-दूसरे को छूते नहीं मालूम होते थे। जीवन का अपना रास्ता है और धर्म का अपना। दोनों समानांतर चलते हैं, इसलिए उनके कहीं मिलने का सवाल ही नहीं है। परिणाम में धर्म निष्प्राण हो जाता है और जीवन अधर्म। जो सारी पृथ्वी पर हुआ है, वही उस गांव में भी हुआ था। मैं एक-एक, दो-दो दिन गांव के सभी पूजागृहों में गया और परमात्मा के तथाकथित भक्तों और पुजारियों के हृदय में झांकने की चेष्टा की। उनकी आंखों में खोजा। उनकी प्रार्थनाओं में कुरेदा। उनसे बातें कीं। उनके जीवन में टटोला। उनका आना-जाना, उठना-बैठना देखा। उनमें से कुछ के घर भी गया। उनकी दुकानों पर भी बैठा। जागते में उन्हें समझा। निद्रा में भी उनकी बडबडाहट सुनी। उनके पडोसियों से उनके संबंध में पूछा। एक भगवान के भक्तों से दूसरे भगवान के भक्तों के संबंध में सुना। एक मंदिर के पुजारियों से दूसरे मंदिर के पुजारियों के बाबत में जानकारी ली। एक धर्म के पंडितों से दूसरे धर्म के पंडितों के संबंध में चर्चा की। ज्ञात हुआ कि धार्मिक दीखनेवाला वह गांव बिल्कुल ही अधार्मिक था। धर्म का आवरण था, अधर्म का जीवन था। अधर्म के जीवन के लिए ही धर्म के आवरण की जरूरत थी। क्या हत्यागृहों को छिपाने के लिए ही पूजागृह नहीं हैं? परमात्मा के पुजारियों को परमात्मा से कोई भी संबंध नहीं था। परमात्मा को वे जरूर ही बचा कर रखना चाहते थे, क्योंकि परमात्मा पैसे लाता था। परमात्मा के भक्तों को भी परमात्मा से कोई प्रेम नहीं था। संसार की भय-भीतियों से वे परमात्मा में सुरक्षा खोज रहे थे, और संसार के प्रलोभनों में सहायक होने को वे उससे प्रार्थना कर रहे थे। जिनका यह जीवन बुझने को था, वे आगे के लिए उससे आश्वासन चाह रहे थे। सबका प्रेम सुख से था, भोग से था, संसार से था और इसलिए उनकी कोई भी प्रार्थना परमात्मा की प्रार्थना नहीं थी। अपनी प्रार्थनाओं में वे परमात्मा को छोड कर और सब-कुछ मांग रहे थे। वस्तुतः प्रार्थना में जब तक कोई मांग है, तब तक वह प्रार्थना परमात्मा के लिए है ही नहीं। प्रार्थना जब मांग से मुक्त होती है, तभी वह प्रार्थना बनती है। परमात्मा के लिए भी मांग हो, तो भी वह प्रार्थना परमात्मा की प्रार्थना नहीं रह जाती है। समस्त मांग से मुक्त
होकर ही प्रार्थना परमात्मा से युक्त होती है। निश्चय ही ऐसी प्रार्थना स्तुति नहीं हो सकती है। स्तुति प्रार्थना नहीं, खुशामद है। स्तुति रिश्वत है। वह निम्न मन की अभिव्यक्ति तो है ही, साथ ही परमात्मा के प्रति धोखा भी है। और परमात्मा को धोखा देने से ज्यादा मूढ़ता और क्या हो सकती है? उस भांति मनुष्य स्वयं ही स्वयं के हाथों ठगा जाता है।
मित्र, प्रार्थना मांग नहीं है। वह प्रेम है। वह आत्मदान है।
प्रार्थना स्तुति नहीं है। वह तो कृतज्ञता की अत्यंत निगूढ़ भाव-दशा है। और जहां भाव की प्रगाढ़ता है, वहां शब्द कहां।
प्रार्थना वाणी नहीं, मौन है। वह शून्य में समर्पण है। वह शब्द नहीं, शून्य का संगीत है। ध्वनियां जहां समाप्त होती हैं, वहीं संगीत प्रारंभ होता है।
प्रार्थना पूजा नहीं है, और न ही प्रार्थना के कोई पूजागृह हैं। उसका बाहर से कोई संबंध नहीं। पर से उसका कोई नाता ही नहीं। वह तो स्वयं का ही अंतरतम जागरण है।
प्रार्थना क्रिया नहीं, चेतना है। वह करना नहीं, होना है।
प्रार्थना के लिए तो बस प्रेम का आविर्भाव ही चाहिए। उसके लिए परमात्मा की कल्पना भी अनावश्यक ही नहीं, बाधक भी है। जहां प्रार्थना है, वहां परमात्मा है। किंतु जहां परमात्मा की कल्पना है, वहां उस कल्पना के कारण ही परमात्मा उपस्थित होने में असमर्थ हो जाता है।
सत्य एक है। परमात्मा एक है। किंतु असत्य अनेक हैं, कल्पनाएं अनेक हैं, और इसलिए मंदिर अनेक हैं। इसीलिए तो मंदिर परमात्मा तक पहुंचने के लिए द्वार नहीं, दीवार ही बन जाते हैं।
प्रेम में ही जिसने परमात्मा का मंदिर नहीं पाया, उसे किसी भी मंदिर में परमात्मा नहीं मिल सकता है।
और प्रेम क्या है? क्या वह परमात्मा के प्रति आसक्ति है? आसक्ति प्रेम नहीं है। जहां आसक्ति है, वहां शोषण है। आसक्ति में दूसरा है साधन, साध्य है स्वयं। और प्रेम में तो वस्तुतः दूसरा है ही नहीं। किसी के प्रति का संबंध, अहं-संबंध है। और जहां अहंकार है, वहां परमात्मा कहां है? बस प्रेम है। वह किसी के प्रति नहीं है, वह तो बस है। प्रेम जहां किसी के प्रति है, वहां वह मोह है, आसक्ति है, वासना है। प्रेम जब बस है, तब वह वासना नहीं, प्रार्थना है। वासना सागर की ओर बहती नदियों की भांति है। प्रेम सागर की भांति है। वह किसी के प्रति बहाव नहीं है। वह तो स्वयं है। वह किसी के प्रति आकर्षण नहीं, वरन स्वयं में ही होना है, और सागर की भांति प्रेम ही प्रार्थना है। वासना बहाव है, खिंचाव है, तनाव है।
प्रार्थना स्थिति है। प्रार्थना स्वयं में विश्रांति है।
प्रेम अपनी पूर्णता में अकारण, अलक्ष्य और अप्रेरित स्फुरण है।
मैं ऐसे ही प्रेम को प्रार्थना कहता हूं।
अन्यथा, हमारी सब प्रार्थनाएं असत्य हैं, आत्मवंचनाएं हैं।
एक कारागृह में फांसी की सजा हुए किसी बंदी का आगमन हुआ था। शीघ्र ही उसकी प्रभु-भक्ति से सारा बंदीगृह गूंज उठा था। भोर के पूर्व ही उसकी पूजा और प्रार्थना प्रारंभ हो जाती थी। प्रभु के प्रति उसका प्रेम असीम था। प्रार्थना के साथ ही साथ उसकी आंखों से आंसुओं की अविरल धारा बहती रहती थी। प्रभु-प्रेम से उपजे विरह की हार्दिकता तो उसके गीतों के शब्द-शब्द में थी। वह भगवान का भक्त था और बंदीजन उसके भक्त हो गए थे। कारागृह-अधिपति और अन्य अधिकारी भी उसका समादर करने लगे थे। उसके प्रभु-स्मरण का क्रम तो करीब-करीब अहर्निश ही चलता था। उठते-बैठते-चलते भी उसके ओंठ राम का नाम लेते रहते थे। हाथ में माला के गुरिए घूमते रहते थे। उसकी चादर पर भी राम ही राम लिखा हुआ था। कारागृह-अधिपति जब भी निरीक्षण को आते थे, तभी उसे साधना में लीन पाते थे। लेकिन एक दिन जब वे आए तो उन्होंने पाया कि काफी दिन चढ़ आया है और वह बंदी निशिं्चत सोया हुआ है। उसकी राम-नाम की चादर और माला भी उपेक्षित सी एक कोने में पडी है। अधिपति ने सोचा शायद स्वास्थ्य ठीक नहीं है। किंतु अन्य बंदियों से पूछने पर ज्ञात हुआ कि स्वास्थ्य तो ठीक है, लेकिन प्रभु-स्मरण कल संध्या से ही न मालूम क्यों बंद है। अधिपति ने कैदी को उठाया और पूछाः "देर हुई, ब्रह्ममुहूर्त निकल गया है। क्या आज भोर की पूजा-प्रार्थना नहीं करनी है?" वह बंदी बोलाः "पूजा-प्रार्थना? अब कैसी पूजा और कैसी प्रार्थना? घर से कल ही पत्र मिला है कि फांसी की सजा सात वर्ष के कारावास में परिणत हो गई है। भगवान से जो काम कराना चाहता था, वह पूरा हो गया है। उस बेचारे को अब व्यर्थ ही और तकलीफ देनी उचित नहीं है।"

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39 Kuchh Jyotirmaya Kshan (कुछ ज्योतिर्मय क्षण), chapter 20
आचार्य श्री आज बंदीगृह में गए थे। वहां उन्होंने बंदियों से कहाः "मित्रो, यह मत सोचना कि तुम ही बंदी हो। जो बंदी नहीं हैं। वे भी बंदी ही हैं। वासनाएं जहां हैं, वहां बंधन हैं। अज्ञान जहां है, वहां बंदीगृह है। और इन बंधनों को मनुष्य स्वयं ही निर्मित करता है और इन बंदीगृह की दीवारें भी वह स्वयं ही अपने श्रम से बनाता है। यह भले ही आश्चर्यजनक प्रतीत हो, लेकिन सत्य यही है कि अधिकतर जीवन स्वयं के लिए ही कारगृह बनाने में व्यय होते हैं। धर्म को जो नहीं खोजता है। वह जाने अनजाने अधर्म में जीता है और अधर्म अमुक्ति है। प्रकाश की दिशा में जो गति नहीं करता है। वह निरंतर अंधकार से और अंधकार में गिरता जाता है। और अंधकार आत्मघात है। सत्य की अभीप्सा जिसमें नहीं है। वह स्वतंत्र नहीं हो सकता है। सत्य स्वतंत्रता लाता है। सत्य स्वतंत्रता है। और स्मरण रहे कि जो परतंत्र है परमात्मा उसके लिए नहीं है। परतंत्रता की चित्तभूमि में परमात्मा के फूल नहीं लगते हैं। उसके लिए स्वतंत्रता की भूमि चाहिए और सरलता का खाद और स्वच्छता का जल और शून्यता का बीज; और सबसे ऊपर सजगता का पहरा।
इन शर्तों को जो पूरा करने का साहस और शक्ति दिखलाता है। उसके जीवन से सारे बंधन गिर जाते हैं। और उसकी आत्मा से परतंत्रता की राख झड़ जाती है और उसके भीतर परमात्मा की प्रसुप्त अग्नि जाग्रत हो जाती है। उस अग्नि में दुख और असंतोष, पीड़ाएं और संताप।। सभी दग्ध हो जाते हैं और उसी अग्नि से उन फूलों को जन्म होता है, जो कि आनंद के हैं जो कि अनंत के हैं, जो कि अमृत के हैं।
मित्रो, मैं तुम्हें इस अदभुत खोज के लिए आमंत्रित करता हूं। और स्मरण रहे कि जिस क्षण भी तुम्हारे हृदयों में इस आवाहन की गूंज प्रतिध्वनित हो उठेगी, उसी क्षण तुम एक दूसरे ही मनुष्य हो जाओगे। जो ऊपर की पुकार सुनता है, उसके प्राण फिर नीचे की पुकारों को सुनने में असमर्थ हो जाते हैं। नीचे की पुकारें तभी तक हैं, जब तक कि ऊपर की पुकार और चुनौती को स्वीकार नहीं किया जाता है। पशु की ओर बहाव तभी तक है, जब तक कि परमात्मा की ओर दृष्टि नहीं है और पृथ्वी केवल उन्हें ही बांध रखने में समर्थ है जो कि आकाश में उड़ने के स्वप्न नहीं देखते हैं। आंखें ऊपर उठाओ और देखो कि आत्मा की उड़ान के लिए कितना बड़ा।। कितना विराट।। कितना असीम आकाश फैला हुआ है! और वह भी कितना निकट? क्या वह अत्याधिक मूढ़तापूर्ण और अपमानजनक नहीं है। कि हम जमीन पर ही रेंगनेवाले कीड़े-मकोड़े बने रहें जबकि हमारे पास आकाश के सुदूर से सुदूर क्षितिजों को भी अतिक्रमण कर जाने वाले पंख हैं और ऐसी आत्मा है जो कि आकाश से भी बड़ी है।
लेकिन, वह आत्मा बड़ी रहस्यपूर्ण है। वह उतनी ही छोटी या बड़ी हो जाती है, जितना कि उसका संकल्प होता है। वह छोटे से छोटे अणु से भी छोटी हो सकती है और बड़े से बड़े आकाश से भी बड़ी, वह पशु भी हो सकती है और परमात्मा भी और यह सब स्वयं उस पर ही निर्भर है। वह स्वयं ही अपना सृजन है। इसीलिए जो क्षुद्र पर चित्त को केंद्रित करते हैं, वे क्षुद्र हो जाते हैं। और जो अनंत में उड़ान की आकांक्षा को स्वयं में जन्म देते हैं वे अनंत हो जाते हैं।
इसीलिए मैं कहता हूं, चाहना ही है तो परमात्मा को चाहो। और बंधना ही है, तो अनंत आकाश से बंधो। और कारागृह ही बनाना है, तो ब्रह्म से छोटा कोई भी कारागृह मनुष्य के लिए बहुत छोटा है। सीमा ही बनानी है, तो स्वतंत्रता को सीमा बनाओ, क्योंकि वह बांधेगी नहीं और-और मुक्त करेगी। और पाश ही खोजते हो, तो प्रेम के खोजो, क्योंकि प्रेम पाश नहीं, परम-मुक्ति है।
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