Manuscripts ~ Jeevan Ki Adrashya Jaden (जीवन की अदृश्य जड़ें)

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Invisible Roots of Life

year
1967
notes
15 sheets. One half sheet. Plus 7 written on reverse.
Sheet numbers showing "R" and "V" refer to "Recto and Verso".
The first 3 sheets have been published as ch.10 of Main Kaun Hun? (मैं कौन हूं?) (writings) and as ch.20 of Main Kahta Aankhan Dekhi (मैं कहता आंखन देखी).
The rest of the sheets have been published in Kuchh Jyotirmaya Kshan (कुछ ज्योतिर्मय क्षण): chapters 6, 19, 3, 10, 18, 14-17 & 12.
The transcripts below are not true transcripts, but copies from Main Kahta Aankhan Dekhi (मैं कहता आंखन देखी) and Kuchh Jyotirmaya Kshan (कुछ ज्योतिर्मय क्षण).
see also
Category:Manuscripts


sheet no original photo enhanced photo Hindi
1R Main Kahta Aankhan Dekhi (मैं कहता आंखन देखी), chapter 20
जीवन की अदृश्य जड़ें
किस संबंध में आपसे बातें करूं? जीवन के संबंध में?
शायद यही उचित होगा, क्योंकि जीवित होते हुए भी जीवन से हमारा संबंध नहीं है।
यह तथ्य कितना विरोधाभासी है! क्या जीवित होते हुए भी यह हो सकता है कि जीवन से हमारा संबंध न हो?
यह हो सकता है! न केवल हो ही सकता है, बल्कि ऐसा ही है भी। जीवित होते हुए भी जीवन भूला हुआ है। शायद हम जीने में इतने व्यस्त हैं कि जीवन का विस्मरण ही हो गया है।
वृक्षों को देखता हूं तो विचार आता है कि क्या उन्हें अपनी जड़ों का पता होगा? पर वृक्ष तो वृक्ष हैं, मनुष्य को ही अपनी जड़ों का पता नहीं। जड़ों का ही पता न हो तो जीवन से संबंध कैसे होगा? जीवन तो जड़ों में है.. अदृश्य जड़ों में। दृश्य के प्राण अदृश्य में होते हैं। जो दिखाई पड़ता है उसका जीवन-स्रोत उसमें होता है जो दिखाई नहीं पड़ता है। दृश्य को अदृश्य धारण किए हुए है। जब तक यह अनुभव न हो तब तक जीवित होते हुए भी जीवन से संबंध नहीं होता है।
जीवन से संबंधित होने के लिए जीवन मिल जाना ही पर्याप्त नहीं। वह भूमिका तो है, किंतु वही सब कुछ नहीं। उसमें संभावनाएं तो हैं, लेकिन वही पूर्णता नहीं है। उससे यात्रा तो शुरू हो सकती है, लेकिन उस पर ही ठहरा नहीं जा सकता है।
पर कितने ही लोग हैं जो प्रस्थान बिंदु को ही गंतव्य मान कर रुक जाते हैं। शायद अधिकांशतः यही होता है। बहुत कम ही व्यक्ति हैं जो प्रस्थान बिंदु में, और पहुंचने की मंजिल में भेद करते हों और उस भेद को जीते हों। कुछ लोग
शायद भेद कर लेते हैं, पर उस भेद को जीते नहीं। उसका भेद, मात्र बौद्धिक होता है। और स्मरण रहे कि बौद्धिक समझ कोई समझ नहीं। समझ जीवन के अस्तित्व के अनुभव से आवे तभी परिणामकारी होती है। हृदय की गहराई से और अनुभव की तीव्रता से ही वह ज्ञान आता है जो व्यक्ति को बदलता है, नया करता है।
बुद्धि तो उधार विचारों को ही अपना समझने की भ्रांति में पड़ जाती है। बुद्धि की संवेदना है ही बहुत सतही। जैसे सागर की सतह पर उठी लहरों का न तो कोई स्थायित्व होता है और न कोई दृढ़ता होती है, उनका बनना-मिटना चलता ही रहता है, सागर का अंतस्तल न तो उससे प्रभावित होता है और न ही परिवर्तित होता है। ऐसी ही स्थिति बुद्धि की भी है।
बुद्धि से नहीं, अनुभव से, अस्तित्व से तथा स्वयं की सत्ता से यह बोध आना चाहिए कि जन्म और जीवन में भेद है, चलने और पहुंचने में अंतर है। जन्म प्रारंभ है, अंत नहीं। यह दृष्टि न जगे तो जन्म को ही जीवन मान लिया जाता है। फिर जो जन्म को ही जीवन जानता और मानता है, अनिवार्यतः उसे मृत्यु को ही अंत और पूर्णता भी माननी पड़ती है! जन्म को जीवन मानने की भूल से ही मृत्यु को स्वयं की परिसमाप्ति मानने की भ्रांति का भी जन्म होता है। वह पहली भूल की ही सहज निष्पत्ति है। वह उसका ही विकास और निष्कर्ष है। जन्म से जो बंधे हैं, वे मृत्यु से भी भयभीत होंगे ही। मृत्यु-भय जन्म से बंधे होने की ही दूरगामी प्रतिध्वनि है।
वस्तुतः हम जिसे जीवन कहते हैं, वह जीवन कम और जीवित मृत्यु ही ज्यादा है। शरीर से ऊपर और शरीर से भिन्न जिसने स्वयं को नहीं जाना, वह कहने मात्र को ही जीवित है। जन्म से पूर्व और मृत्यु के पश्चात जिसे स्वयं का होना अनुभव नहीं होता, वह जीवित नहीं है। उसे जन्म के बाद और मृत्यु के पूर्व भी जीवन का अनुभव नहीं होगा, क्योंकि
जीवन का अनुभव तो अखंड और अविच्छिन्न है। ऐसे व्यक्ति ने जन्म को ही जीवन मान लिया है। सच तो यही है कि उसने अभी जन्म ही पाया है, जीवन नहीं।
जन्म बाह्य घटना है, जीवन आंतरिक। जन्म संसार है, जीवन परमात्मा। जन्म जीवन तो नहीं है लेकिन जीवन में वह गति का द्वार हो सकता है। लेकिन साधारणतः तो वह मृत्यु का ही द्वार सिद्ध होता है। उस पर ही छोड़ देने से ऐसा होता है। साधना जन्म को जीवन बना सकती है। मृत्यु विकसित हुआ जन्म ही है। अचेतन और मूर्च्छित जीना मृत्यु में ले जाएगा, सचेतन और अमूर्च्छित जीना जीवन में। अमूर्च्छित जीवन को ही मैं साधना कहता हूं। साधना से जीवन उपलब्ध होता है। वही धर्म है।
मैं बूढ़ों को देखता हूं और बच्चों को देखता हूं तो मुझे जन्म तथा मृत्यु की दृष्टि से तो उनमें भेद दिखाई पड़ता है, लेकिन जीवन की दृष्टि से नहीं। जीवन से सभी अछूते हैं। जीवन समय की गति के बाहर है। जन्म और मृत्यु समय में घटित होते हैं, जीवन समय के बाहर। उम्र का बढ़ते जाना समय में होता है। उसे ही जीवन-वृद्धि न समझ लेना। आयुष्य और जीवन भिन्न हैं।
जीवन पाने के लिए समय के बाहर चलना होगा। समय क्या है? परिवर्तन समय है। संसार में सब कुछ अस्थिर है। वहां कुछ भी ठहरा हुआ नहीं है। देखो और खोजो, तो पाओगे कि स्वयं के बाहर एक भी बिंदु, एक भी अणु स्थिर नहीं है। पर स्वयं में कुछ है जो परिवर्तन के बाहर है। स्वयं में समय नहीं है। स्व-सत्ता कालातीत है। इसी सत्ता में जागरण ही जीवन है।
जीवन को खोजो, अन्यथा मृत्यु आपको खोज रही है। वह प्रतिक्षण
निकट आती जा रही है। जन्म के बाद प्रतिक्षण उसकी ही विजय का क्षण है। कुछ भी आप करें.. केवल जीवन में प्रवेश छोड़ कर.. उसकी विजय सुनिश्चित है। संपत्ति, शक्ति या यश, सभी उसके समक्ष निर्जीव छायाओं की भांति हैं। उसकी मौजूदगी में वे सब व्यर्थ हो जाते हैं। स्वयं की सत्ता, स्व-अस्तित्व की अनुभूति ही केवल अमृत है। वही और केवल वही मृत्यु के बाहर है, क्योंकि समय के बाहर है।
समय में जो कुछ भी है, सभी मरणधर्मा है। समय मृत्यु की गति है, उसके ही चरणों का वह माप है। समय में दौड़ना मृत्यु में दौड़ना है। और सभी वहीं दौड़े जाते हैं। मैं सभी को स्वयं मृत्यु के मुंह में दौड़ते हुए देखता हूं। ठहरो और सोचो! आपके पैर आपको कहां लिए जा रहे हैं? आप उन्हें चला रहे हैं या कि वे ही आपको चला रहे हैं?
प्रतिदिन ही कोई मृत्यु के मुंह में गिरता है और आप ऐसे खड़े रहते हैं जैसे यह दुर्भाग्य उस पर ही गिरने को था। आप दर्शक बने रहते हैं। यदि आपके पास सत्य को देखने की आंखें हों तो उसकी मृत्यु में अपनी भी मृत्यु दिखाई पड़ती है। वही आपके साथ भी होने को है। वस्तुतः हो ही रहा है। आप रोज-रोज मर ही रहे हैं। जिसे आपने जीवन समझ रखा है, वह क्रमिक मृत्यु है। हम सब धीरे-धीरे मरते रहते हैं। मरण की यह प्रक्रिया इतनी धीमी है कि जब तक वह अपनी पूर्णता नहीं पा लेती तब तक प्रकट ही नहीं होती। उसे देखने के लिए विचार की सूक्ष्म दृष्टि चाहिए।
चर्मच्रुओं से तो केवल दूसरों की मृत्यु का दर्शन होता है, किंतु विचार-च्रु स्वयं को मृत्यु से घिरी और मृत्योन्मुख स्थिति को भी स्पष्ट कर देते हैं। स्वयं को इस संकट की स्थिति में घिरा जान कर ही जीवन को पाने की आकांक्षा का उदभव होता है। जैसे कोई जाने कि वह जिस घर में बैठा है उसमें आग लगी हुई है और फिर
उस घर के बाहर भागे, वैसे ही स्वयं के गृह को मृत्यु की लपटों से घिरा जान हमारे भीतर भी जीवन को पाने की तीव्र और उत्कट अभीप्सा पैदा होती है। इस अभीप्सा से बड़ा और कोई सौभाग्य नहीं, क्योंकि वही जीवन के उत्तरोत्तर गहरे स्तरों में प्रवेश दिलाती है।
क्या आपके भीतर ऐसी कोई प्यास है? क्या आपके प्राण ज्ञात के ऊपर अज्ञात को पाने को आकुल हुए हैं?
यदि नहीं, तो समझें कि आपकी आंखें बंद हैं और आप अंधे बने हुए हैं। यह अंधापन मृत्यु के अतिरिक्त और कहीं नहीं ले जा सकता है।
जीवन तक पहुंचने के लिए आंखें चाहिए। उमंग रहते चेत जाना आवश्यक है। फिर पीछे पछताने से कुछ भी नहीं होता है।
आंखें खोलें और देखें तो चारों ओर मृत्यु दिखाई पड़ेगी। समय में, संसार में मृत्यु ही है। लेकिन समय के..संसार के..बाहर, स्वयं में अमृत भी है। तथाकथित जीवन को जो मृत्यु की भांति जान लेता है, उसकी दृष्टि सहज ही स्वयं में छिपे अमृत की ओर उठने लगती है।
जो उस अमृत को पा लेता है, पी लेता है, जी लेता है, उसे फिर कहीं भी मृत्यु नहीं रह जाती है। फिर बाहर भी मृत्यु नहीं है। मृत्यु भ्रम है और जीवन सत्य है।
1V
2R
2V
3
4 Kuchh Jyotirmaya Kshan (कुछ ज्योतिर्मय क्षण), chapter 6
हम प्रवास में थे। दोपहर थी। कुछ लोग आचार्य श्री से कह रहे थे कि हम स्वयं तो कुछ कर नहीं सकते हैं। गुरुकृपा हो या प्रभुकृपा हो तो ही कुछ हो सकता है। हम स्वयं तो अज्ञानी हैं और शक्तिहीन हैं। क्या हम भी प्रभु को पाने की आशा कर सकते हैं?
आचार्य श्री उनकी बातें सुन कर हंसने लगे और बोलेः 'एक कहानी सुनो। एक बादशाह किसी युद्ध में हार गया था।
अभी अभी उसे हारने की खबर दी गई थी। खबर सुनते ही उसका खून सूख गया था और आंखों की रोशनी खो गई। उसे सब ओर अंधकार प्रतीत हो रहा था। अपने महल में वह ऐसा बैठा था जैसे कि कब्रिस्तान में बैठा हो। तभी उसकी रानी उसके पास आई। उसने पूछा कि महाराज इतने उदास क्यों हैं? राजा से कुछ कहते भी नहीं बन रहा था। किसी भांति उसने कहाः 'बहुत बुरी खबर है। युद्ध में मेरी सेना हार गई हैं। मैं पराजित हो गया हूं।' यह सुन रानी ने कहाः 'यह खबर तो मुझे भी ज्ञात है, लेकिन मेरे पास तो इससे भी बुरी खबर है।' राजा ने कहाः 'इससे भी बुरी? इससे भी बुरी खबर और क्या हो सकती है?' रानी ने कहाः 'महाराज आप युद्ध हार गए हैं लेकिन युद्ध पुन जीता जा सकता है। पर मैं तो देख रही हूं कि आप साहस भी हार चुके हैं। वह हार बड़ी कि यह? यह खबर ज्यादा बुरी कि यह? निश्चय ही साहस खोने से बड़ी और कोई पराजय नहीं है। जो उसे खो देता है, वह तो भविष्य ही खो देता है।'
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6R Kuchh Jyotirmaya Kshan (कुछ ज्योतिर्मय क्षण), chapter 19
पूर्णिमा की रात है। नदी पर रेत में हम बैठे हैं। आचार्य श्री कभी कभी अपने से ही कुछ कहने लगते हैं। निश्चय ही हमारे भीतर छिपी किसी प्यास का ही वह उत्तर होता है। शायद हमें भी जिस प्यास का पता नहीं है, उसे भी वे अवश्य ही जानते हैं।
उन्होंने आज अनायास ही कहना शुरू कियाः 'मैं जगत में विचार का ह्वास होते देखता हूं। विचार से मेरा अर्थ विचारों से नहीं है। विचारों की तो बाढ़ आई हुई है और विचार उस बाढ़ में बिलकुल ही डूब गया है। विचारों में, विचार को डूबने से बचाना है।'
हममें किसी ने पूछाः 'विचार से आपका क्या अभिप्राय है? क्या अर्थ है?'
'विचार का क्या अर्थ है? विचार का अर्थ है यह जानना कि क्या क्षणिक है और क्या शाश्वत है? क्या मत्र्य है और क्या अमृत है? क्या वस्तुतः नहीं है और क्या वस्तुतः है? जो विचारहीन है, वे क्षणिक के पीछे जीवन को व्यय कर देते हैं और जिनका विचार जाग्रत है वे क्षणिक को नहीं, शाश्वत को खोजते हैं क्योंकि जो क्षणिक से वह है ही नहीं। जो शाश्वत है वस्तुतः वहीं है। और जो है 'उसमें ही जीवन है,' 'जो नहीं है', उसमें तो केवल अपव्यय है और मृत्यु है। विचारहीन स्वप्न के पीछे भागते हैं और स्वप्नों के लिए निद्रा आवश्यक है इसीलिए वे सब भांति की मूर्च्छाओं को खोजते हैं। मूर्च्छा की खोज अविचार का लक्षण है। विचारशील सत्य का अनुसंधान करते हैं। निश्चय ही अनुसंधान के लिए भागना नहीं, रुकना आवश्यक है और सोना नहीं जागना जरूरी है। इसीलिए वे अमूर्च्छा को साधते हैं और निद्रा को तोड़ते हैं। अमूचर््िछत जीवन विचार का प्रतीक है। अमूर्च्छा विचार है।'
फिर थोड़ी देर बाद उन्होंने एक घटना बताईः
'सिद्धार्थ गौतमी के द्वार से निकल रहे थे। उन्हें देखकर गौतमी ने कहाः 'धन्य है वह माता जिसका ऐसा पुत्र है, धन्य है वह पिता जिसका ऐसा प्रतिबिंब है और धन्य है वह पत्नी जिसका ऐसा स्वामी है।' सिद्धार्थ ने सोचाः 'यह धन्यता और आनंद तो क्षणिक है लेकिन क्या ऐसी भी कोई धन्यता है जो कि क्षणिक न हो? क्या ऐसा कोई मार्ग नहीं है, जिससे
कि शाश्वत धन्यता मिल सके और मिल सके अक्षुण्ण शांति और आनंद? क्योंकि जो आज है और कल नहीं है वह वस्तुतः आज भी नहीं है।' इसे मैं विचार कहता हूं। इसे मैं बोध कहता हूं। इसे मैं विवेक कहता हूं। और जहां विचार है, वहां द्वार भी है। सिद्धार्थ के हृदय में विचार की बिजली कौंधी तो उन्हें स्पष्ट दिखाई दिया कि जब तक वासना है तब तक शांति कैसे संभव है? तृष्णा की अग्नि जब तक प्रज्वलित है तब तक सत्य की शीतलता को कैसे पाया जा सकता है? विचार से द्वार मिलता है और द्वार मिले तो स्वयं में सोई हुई चेतना गंतव्य की ओर गति भी करती है। सिद्धार्थ के हृदय में एक अभिनव संकल्प सघन हो गयाः 'मैं तृष्णा की आग को बुझा कर उसे जानूंगा जो कि सत्य है। मैं क्षण के जीवन से जाग कर उसके दर्शन करूंगा जो कि शाश्वत है।' उन्होंने अपने गले का बहुमूल्य हार उतार कर गौतमी को गुरु दक्षिणा दी। उनके जीवन में निश्चय ही एक मोड़ आ गया था। विचार से मोड़ आता है और विचार से क्रांति आती है। सोचो क्या तुम्हारे भीतर विचार है?
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7 Kuchh Jyotirmaya Kshan (कुछ ज्योतिर्मय क्षण), chapter 3
एक विचारक आए हैं। पहले भी कई बार आ चुके हैं। ईश्वर पर निरंतर ही उनका चिंतन चलता रहता है। बहुत से शास्त्रों के अध्येता हैं और बातें करने में कुशल हैं। आचार्य श्री हमेशा ही उनसे कहते हैं कि मात्र विचार करते रहने का कोई मूल्य नहीं है। बातचीत का मूल्य हो भी क्या सकता है? फिर वह बातचीत चाहे दूसरों से हो या कि स्वयं से। शब्द को सत्य मत मान लेना। सत्य की खोज मात्र शब्द से नहीं, वरन समग्र जीवन से ही करनी होती है। आज भी कुछ ऐसी ही बातें चल पड़ी हैं।
आचार्य श्री एक कथा कहते हैंः
'एक कवि ने किसी सम्राट के दरबार में उसकी प्रशंसा में बहुत गीत गाए। बड़े सुंदर उसके शब्द थे और बड़ी मोहक उसकी शैली थी। सम्राट खूब प्रसन्न हुआ और उसने अपने आमात्य को कहा कि महाकवि को कल पुरस्कार में पांच हजार स्वर्ण- मुद्राएं भेंट की जाएं।
कवि स्वयं को महाकवि मानकर आनंदित हो अपने झोंपड़े में लौटा। आज उसके पैर भूमि पर नहीं पड़ते थे। पांच हजार स्वर्ण-मुद्राओं ने उसके सोए स्वप्नों को जगा दिया था रात्रि भर वह सो भी नहीं सका। बहुत कल्पनाएं बनी और मिटीं। बहुत योजनाएं उसके समक्ष थीं। बस कल की ही प्रतीक्षा थी। किसी भांति बड़ी कठिनाई से रात्रि बीती। लेकिन मन ही मन मुद्राएं गिनने का काम चलता ही था। सुबह होते ही वह राज दरबार पहुंच गया। सम्राट उसपर हंसने लगा और बोलाः 'क्या चाहते हैं? कैसे आना हुआ?' कवि हैरान हुआ। चिंतित हो बोलाः 'क्या आप भूल गए? आपने पांच हजार स्वर्ण-मुद्राएं देने का आश्वासन दिया था?' सम्राट ने कहाः 'बहुत भोले हैं। आप। बातों से आपने मुझे खुश किया था, सो मैंने भी बात ही बात में आपको खुश कर दिया था। लेने देने की इसमें क्या बात है?
यह कथा कह कर आचार्य श्री हंसने लगे और बोलेः 'ऐसी ही स्थिति हमारे और प्रभु के बीच है। विचार नहीं, जीवन का ही प्रतिफल और पुरस्कार मिलता है।'
8R Kuchh Jyotirmaya Kshan (कुछ ज्योतिर्मय क्षण), chapter 10
रात्रि के सन्नाटे में हम आचार्य श्री के निकट बैठे हैं। बाहर घना अंधकार है। भीतर धीमी सी रोशनी जल रही है और धूप का धुंआं उठ कर वातावरण को सुवास से भर रहा है। हम जहां बैठे हैं, वह एक छोटे से गांव का छोटा सा मंदिर है।
किसी ने पूछाः 'क्या ज्ञान की खोज में किसी को गुरु बनाना आवश्यक है?'
आचार्य श्री ने कहाः 'नहीं। किसी को नहीं, सभी को गुरु बनाना आवश्यक है। आंखें खुली हों और सीखने को मन मुक्त और सहज हो तो सारा जगत ही गुरु है।'
फिर थोड़ी देर वे चुप रहे और पुनः कहने लगेः 'संत मलूक ने कहा है कि उन्हें एक शराबी, एक छोटे से बालक और प्रेम में पागल एक युवती के समक्ष बहुत लज्जित होना पड़ा था। पर फिर ये तीनों ही उनके गुरु भी बन गए थे। उन तीनों घटनाओं का बड़ा मधुर इतिहास है। एक दिन एक शराबी नशे में चूर लड़खड़ाता जा रहा था। मलूक ने उससे कहाः 'मित्र, पांव सम्हाल कर रखो, देखो कहीं गिर न जाना।' शराबी जोर से हंसने लगा। उत्तर में बोलाः 'भले मानस! पहले अपने पैर तो सम्हाल। मैं गिरा भी तो शरीर धोने भर से साफ हो जाऊंगा लेकिन तू गिरा तो शुद्धि कठिन है।' मलूक ने सुना और सोचा तो पाया कि बात ठीक ही थी। दूसरी बार एक बालक दीया लिए जा रहा था। मलूक ने उससे पूछाः 'यह दीया कहां से लाए हो?' इतने में ही हवा का एक झोंका आया और दीये को बुझा गया। वह बालक बोलाः 'अब तुम्हीं पहले बताओ कि दीया कहां चला गया है? तब मैं बताऊं कि दीया कहां से लाया था?' मलूक ने अपने अज्ञान को जाना और पहचाना और ज्ञान के भ्रम को विदा दे दी। तीसरी घटना ऐसे हुई कि एक युवती अपने प्रेमी को ढूंढती हुई मलूक के पास आई। उसके वस्त्र अस्त-व्यस्त थे और उसने घूंघट भी नहीं निकाला था। मलूक उसे इस प्रकार निर्लज्ज देख कर बोलेः 'पहले अपने कपड़े तो सम्हाल, मुंह तो ढंक फिर जो कहना हो सो कहना।' वह युवती बोलीः 'बंधु, मैं प्रभु के हाथों रचे एक प्राणी के प्रेम में मुग्ध होकर बेहोश हो रही हूं। मुझे अपनी देह का भी भान नहीं रहा है और आप मुझे सचेत न कर देते तो मैं ऐसे ही उसे खोजने बाजार में भी निकल जाती। पर यह कितने आश्चर्य की बात है कि प्रभु के
प्रेम में पागल होकर भी आपको इतनी सुधि है कि आप यह जान गए कि मेरा मुख खुला है या ढंका और वस्त्र मेरे सुव्यवस्थित हैं या नहीं? प्रभु में लगी दृष्टि क्या यह सब भी जान सकती है?' मलूक जैसे नींद से जागे और देखा कि निश्चय ही जो क्षुद्र को देख रहा है। उसके समक्ष विराट कैसे हो सकता है।'
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9 Kuchh Jyotirmaya Kshan (कुछ ज्योतिर्मय क्षण), chapter 18
रात्रि बीत गई है। हम विदा होने को हैं। गांव के लोग विदा देने एकत्रित हो गए हैं।
एक युवक पूछता हैः 'मैं बहुत दुखी और चिंतित हूं। कारण खोजता हूं, तो स्पष्टतः कुछ समझ में नहीं आता। अपनी परिस्थितियों से ऊब गया हूं। उन्हें बदलना चाहता हूं। शायद, नई परिस्थितियों में बदल हो जावे और मैं शांति पा सकंू?'
आचार्य श्री ने कहाः 'सुख या दुख बाह्य घटनाएं नहीं हैं। बाहर जो है उससे कोई सुखी या दुखी नहीं होता। बाहर तो मात्र तथ्य है। उनमें न सुख है, न दुख। सुख और दुख तो उनके प्रति हमारी प्रतिक्रियाओं में छिपे होते हैं। वस्तुतः तथ्यों की कोई महता नहीं है। महता है उनके प्रति हमारे रुख की। उनके प्रति हमारी दृष्टि की। हमारी दृष्टि पर ही सब निर्भर होता है। तथ्य नहीं, व्यक्ति महत्वपूर्ण है। वह जो तुम्हारे पास है, वह नहीं, तुम जो हो, वही अंततः निर्धारक है। सुख या दुख हममें बैठे हुए हैं। इपिक्टेक्टस का वचन हैः 'यदि कोई मनुष्य दुखी हो तो वह जाने कि अपने ही कारण वैसा है।' यही मैं तुमसे कहता हूं। मित्र, कोई और नहीं, हम ही कारण हैं। जो भी हम हैं, उसके लिए हम ही कारण हैं। इस सत्य को ठीक से समझना, क्योंकि इस समझ पर ही जीवन का परिवर्तन निर्भर करता है। दुख हो, तो जानो कि दृष्टि में कोई भूल है। दुखी जीवन भ्रांत दृष्टि का ही परिणाम होता है। और सुखी जीवन सम्यक दृष्टि का। परिस्थिति को बदल कर भी मन स्थिति वही रही तो बहुत भेद नहीं पड़ता है। स्मरण रखना कि जब दुख हो तो स्वयं में ही कारण खोजना। बाहर नहीं। स्वयं में ही दोष देखना। अन्य में नहीं। और तब क्रमशः तुम्हें अपनी ही प्रतिक्रियाओं में छिपे कारण मिलने लगेंगे और एक नये जीवन का प्रारंभ हो जावेगा। जो बाहर दोष देखता है, वह भटक जाता है, और जो दोष स्वयं में खोजता है, वह उनके अतिक्रिमण में निश्चय ही सफल होता है।'
10R Kuchh Jyotirmaya Kshan (कुछ ज्योतिर्मय क्षण), chapter 14
सर्दियों की सुबह है। सूर्य की किरणें सुखद लग रही हैं। हम धूप में बैठे हैं और पक्षियों के गीत सुन रहे हैं। तभी कुछ लोग मिलने आ गए हैं। उनमें एक संन्यासी भी हैं। वे पूछते हैंः 'क्या सत्य को पाने का कोई अत्यंत सरल और सुगम मार्ग नहीं है?'
आचार्य श्री ने उनसे कहाः 'जीवन का नियम है कि प्रत्येक वस्तु का मूल्य चुकाना होता है। बिना मूल्य कुछ भी नहीं मिलता। और फिर जितनी बहुमूल्य वस्तु हो उतना ही अधिक मूल्य भी चुकाना होता है। सत्य के लिए तो स्वयं को ही देना होता है। उससे कम मूल्य पर सत्य की प्राप्ति असंभव है। सत्य को पाना यानी स्वयं को खोना। लेकिन स्वयं को खोकर ही स्वयं की उपलब्धि भी होती है, जो स्वयं को बचाता है वह सत्य को तो खोता ही है, स्वयं को भी खो देता है। क्या आपको कभी यह अनुभव नहीं होता है कि 'मैं' अभी वस्तुतः 'मैं' नहीं हूं? जिस 'मैं' को हम स्वयं मान कर चल रहे हैं यदि वह वास्तविक होता तो सत्य की खोज का प्रश्न ही नहीं था।
'वह सत्य नहीं है, इसीलिए तो सत्य को पाने की प्यास है। लेकिन स्वयं के भीतर किसी न किसी चेतन अचेतन तल पर हमें सत्य का भी धुंधला अनुभव हो रहा है, अन्यथा इस 'मैं' को असत्य अनुभव करने का भी कोई कारण नहीं था। इस तथाकथित 'मैं' को खोना होता है। उसके ही नीचे तो सत्य है। वह सत्य इस 'मैं' से ही आवृत है। स्वयं की सतह पर यह 'मैं' है, स्वयं की गहराई में वह 'मैं' है। स्वयं की आत्यंतिक गहराई में जो 'मैं' है, वही सत्य है क्योंकि वह गहराई स्वयं की ही नहीं, सर्व की भी है। जो स्वयं के भीतर जितना गहरा जाता है, वह सर्व के भीतर भी उतना ही गहरा पहुंच जाता है। स्वयं के केंद्र पर ही सत्य का, परमात्मा का वास है। मित्र, केंद्र को पाने के लिए परिधि को खोना ही पड़ता है। इस मूल्य को चुकाए बिना कोई मार्ग नहीं। और यह मूल्य चुकाना सर्वाधिक कठिन तप है क्योंकि स्वयं को
खोने से अधिक कठिन और क्या हो सकता है?'
10V
11 Kuchh Jyotirmaya Kshan (कुछ ज्योतिर्मय क्षण), chapter 15
रात्रि पड़ोस में कोई मर गया है। सुबह ही हमने आचार्य श्री को खबर दी। वे बोलेः 'मृत्यु तो निश्चित है। उसके अतिरिक्त और कुछ भी निश्चित नहीं है। जन्म में ही मृत्यु छिपी है। जो इस सत्य को नहीं जानता है, वह जीवन को व्यर्थ ही खो देता है और जो इस सत्य को जान लेता है उसका जीवन अमृत को उपलब्ध हो जाता है।'
हम चुपचाप बैठे रहे। आचार्य श्री पुनः कहने लगेः 'मैं मृत्यु से नहीं, लेकिन किसी के जीवन को व्यर्थ जाते देख जरूर ही दुखी होता हूं। वही वास्तविक मृत्यु है। शरीर का अंत नहीं, जीवन का व्यर्थ जाना ही वस्तुतः मृत्यु है।'
फिर उन्होंने एक बोधकथा कहीः 'राजा जनक को विदेह कहा जाता था। किसी दिन उनके एक युवक आमात्य ने पूछाः 'महाराज, आप देह रहते विदेह कैसे हैं?' जनक हंसे और चुप रह गए। कुछ दिनों बाद उन्होंने उस युवक को भोजन पर आमंत्रित किया। यह सौभाग्य मुश्किल से ही किसी को मिलता था। उस युवक की खुशी का ठिकाना नहीं था। लेकिन दूसरे दिन उसके विषाद का भी अंत न रहा उसने भोजन के लिए राजमहल जाते समय चैराहे पार ढिंढोरा सुना कि उसी दिन संध्या किसी राज अपराध के लिए उसे फांसी दी जाने वाली है। यह कैसा उपहास! दोपहर राजमहल में आतिथ्य और संध्या राजाज्ञा से मृत्यु! वह फिर भी किसी भांति भोजन को गया। राजा ने रसोइयों को कहा था कि भोजन में नमक बिलकुल भी न डाला जावे। भोजन के समय जनक स्वयं उपस्थित थे और बहुत प्रेम से उन्होंने युवक को भोजन कराया। वह युवक भोजन तो करता रहा लेकिन मन उसका वहां उपस्थित नहीं था। होता भी कैसे? एक एक क्षण बीत रहा था और मृत्यु निकट आ रही थी। राजा ने भोजनोपरांत पूछाः 'बंधु, भोजन में किसी प्रकार की कमी तो न थी?' वह युवक आमात्य जैसे निद्रा से जागा और बोलाः 'भोजन? हां, भोजन मैंने किया तो, पर स्मरण नहीं है। मृत्यु के भय ने स्वाद छीन लिया है। सुधि भी छीन ली है। मैं जहां हूं वहां नहीं हूं।' राजा जनक यह सुन हंसने लगे थे और कहा था कि वह आपके प्रश्न का उत्तर है। घबड़ाएं नहीं, संध्या आपको मरना नहीं है। यह सब मेरी योजना थी। मृत्यु जिसे दिखती है, वह देह रहते भी विदेह हो जाता है और विदेह हो जाता है उसके लिए मृत्यु विलीन हो जाती है। वैसी चेतना में व्यक्ति उसको उपलब्ध हो जाता है जो कि अमृत है।'
12R Kuchh Jyotirmaya Kshan (कुछ ज्योतिर्मय क्षण), chapter 16
'विचार भी सीखना होता है। सभंवतः सबसे सूक्ष्म विज्ञान वही है। स्मरण रहे कि विचारों को इकट्ठा कर लेना एक बात है। विचार की शक्ति को उपलब्ध करना बिलकुल दूसरी; लेकिन, विचार संग्रह को ही विचार शक्ति समझ लिया जाता है। संग्रह शक्ति नहीं है। उस भांति तो केवल शक्ति का अभाव दब जाता है। और आंखों से ओझल हो जाता है। यह आत्मवंचना बहुत घातक है। फिर भी यह भ्रांति बहुत गहरी और व्यापक है। इसका ही परिणाम है कि विचार तो जगत में बढ़ते जाते हैं। लेकिन विचार की शक्ति क्षीण होती जाती है। विचारशील व्यक्ति दिखाई पड़ने बंद ही हो गए हैं।'
सुबह ही सुबह आचार्य श्री ने उपरोक्त शब्द कहे। हम सब घूमकर लौटते थे। किसी ने विचार के संबंध में कुछ पूछा, तभी उन्होंने यह कहा।
मैंने पूछाः 'क्या हमारे विद्यालय विचार नहीं सिखाते हैं?' वे हंसने लगे और बोलेः 'विचार याद कराते हैं। लेकिन विचार करना? नहीं विचार करना नहीं सिखाते हैंः विचार को बाहर से डालना मात्र स्मृति को भरता है। विचार को भीतर से जगाना ज्ञान है। विचार की शक्ति प्रत्येक में प्रसुप्त है। उसे दूसरों के विचारों से भरना नहीं वरन उघाड़ना और आविष्कृत करना है। हम सब निरंतर विचारों से भरे हैं लेकिन कोई यदि पूछे कि क्या आप कभी विचार करते हैं। वस्तुतः तो अधिकांश को ज्ञात ही नहीं है कि उनमें विचार की क्षमता भी है। और ज्ञात होगा भी कैसे? हम केवल उन्हीं क्षमताओं के प्रति सचेत हो पाते हैं जिनका कि हम उपयोग करते हैं। सक्रिय उपयोग से ही क्षमताएं वास्तविकताओं में परिणत होती हैं। निष्क्रिय पड़ी क्षमताएं सहज ही विस्मरण हो जावें तो कोई आश्चर्य नहीं है। विचार-शक्ति ऐसी ही निष्क्रिय पड़ी शक्ति है। साधारणतः हम स्वचालित यंत्रों की भांति प्रतिक्रियाएं करते हैं और विचार का कोई उपयोग ही नहीं होता है। बाहर से आई उत्तेजनाएं
हमें यंत्रवत चालित कर देती हैं और इस उत्तेजना- प्रतिक्रिया के मध्य विचार के लिए कोई अवकाश ही नहीं छूटता है, क्या ऐसा ही नहीं है? क्या तुम्हारे चित्त से टकराती उत्तेजनाओं और तुम्हारी प्रतिक्रियाओं के मध्य में विचार को स्थान होता है? क्या किसी के द्वारा अपमानित किए जाने और क्रोधान्वित होने के मध्य विचार होता है? यदि नहीं, तो फिर तुम्हें विचार की शक्ति का न बोध है। न तुम्हारे जीवन में उसका कोई स्थान ही है। विचार का अर्थ है कि प्रत्येक प्रतिक्रिया सचेतन हो। अचेतन प्रतिक्रिया अविचार है। सचेतन प्रतिक्रिया ही भीतर विचार की सक्रिय शक्ति की सूचना बनती है। विचारशील व्यक्ति किसी भी उत्तेजन के प्रति प्रतिक्रिया करने के पूर्व विचारेगा कि वह क्या कर रहा है और क्यों कर रहा है? वह अपने भीतर चित्त की गति के प्रति जागरूक होगा और अपने कर्म के प्रति अमूर्च्छित; वह जो भी करेगा होश में करेगा। उसके समस्त कर्मों के पीछे जागरूकता होगी। वह बाह्य उत्तेजनाओं के हाथों में यंत्र नहीं बनेगा। वह अपनी चेतना खोकर किसी कार्य में प्रवृत्त नहीं होगा। वस्तुतः वह व्यक्ति होगा ठीक अर्थों में व्यक्ति, क्योंकि जो मूर्च्छित है, उसे व्यक्ति नहीं कहा जा सकता है। यदि इसके विपरीत होता है तो जानना चाहिए कि विचार का अभाव है और अभी उस शक्ति का आविर्भाव नहीं हुआ है जो कि स्वयं से परिचित कराती है और यांत्रिक परतंत्रता से मुक्त करती है।'
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13 Kuchh Jyotirmaya Kshan (कुछ ज्योतिर्मय क्षण), chapter 17
एक छोटे से गांव में हम ठहरे हुए हैं। बहुत लोग मिलने आए हैं। भिन्न-भिन्न उनके प्रश्न हैं। पर प्यास तो सबकी एक ही है। सभी जीवन के अर्थ को पाना चाहते हैं। जैसा जीवन है वह व्यर्थ प्रतीत होता है। आचार्य श्री ने कहाः 'जीवन में उतना ही अर्थ आता है, जितना हम स्वयं उसमें डालते हैं। अर्थ है नहीं, निर्मित करना होता है। जो निष्क्रिय रूप से अर्थ पाने के विचार में हो, वह निष्फल ही रहेगा। उसकी आकांक्षाएं पूरी नहीं हो सकती हैं। 'जीवन की सार्थकता निष्क्रिय उपलब्धि नहीं वरन सृजनात्मक श्रम की ही निष्पत्ति है।'
मिलने वालों में एक मूर्तिकार भी है। उन्होंने कहाः 'मैं मूर्तियां बनाता हूं। सृजन करता हूं फिर भी किसी गहरी संतुष्टि को उपलब्ध नहीं हूं। मैं क्या करूं?'
आचार्य श्री ने एक क्षण बहुत गहरे उन्हें देखा और कहाः 'वस्तुओं का निर्माण वास्तविक सृजन नहीं है। वास्तविक सृजन तो स्वयं का सृजन है। पत्थरों को मूर्तियों में बदलना, स्वयं को दिव्यता में बदलने से बहुत सरल बात है। पत्थरों से बहुत कठिन और कठोर यह स्वयं का व्यक्तित्व है। इससे अधिक कठोर और कोई पाषाण नहीं। इस स्वयं के पाषाण को ही आकार और अर्थ देना वास्तविक सृजनात्मकता है। संतुष्टि इससे ही निष्पन्न होती है। आनंद इससे ही प्रवाहित होता है। तुम पूछते होः 'मैं क्या करूं?' इस स्वयं के ही पत्थर पर अब तुम प्रयोग करो। मूर्तियां बहुत बनाई। अब स्वयं को ही बनाओ। कवि शब्दों में सौंदर्य डालते हैं। चित्रकार रंगों को सजीव करते हैं। मूर्तिकार पत्थरों में प्राण को प्रतिष्ठा देते हैं पर जो स्वयं को सौंदर्य और जीवन देने में सफल हो जाता है। उससे बड़ा सर्जक और कोई भी नहीं हैं। जीवन से बड़ी और कोई कला नहीं है।'
14 Kuchh Jyotirmaya Kshan (कुछ ज्योतिर्मय क्षण), chapter 12
'मैं विचारों से पीड़ित हूं। पहले शायद ऐसा नहीं था लेकिन जब से स्वयं के भीतर ध्यान दिया तब से बहुत अशांति मालूम होती है। विचारों की अंसगत।।व्यर्थ की गति से घबड़ा गया हूं। चैबीस घंटे ही चित्त की अशांत गतिविधि को बोध बना रहा है और कभी कभी तो शक होता है कि मैं कहीं पागल न हो जाऊं? मुझे मार्ग बताएं।।बताएं कि मैं क्या करूं? क्या न करूं? इन विचारों से मुक्ति का क्या कोई उपाय नहीं है?' एक वृद्धजन ने यह कहा है। निश्चय ही वे विचारों से पीड़ित मालूम होते हैं। उनका माथा गवाही है और उनकी आंखें गवाही हैं।
आचार्य श्री थोड़ी देर चुप रहे। ऐसी उनकी आदत है। अक्सर कुछ कहने के पूर्व वे चुप रह जाते हैं। जैसे कि उन मौन क्षणों में वे सामने वाले व्यक्ति में झांकते हैं। शायद किसी आंतरिक तल पर वे संबंध बना लेते हैं तभी बोलते हैं। फिर धीरे-धीरे वे कहने लगेः 'यह बोध शुभ है।


मैं वृद्ध को देख रही हूं। सुनते ही उनके माथे का तनाव शिथिल हो गया है और उनकी आंखें शांत मालूम हो रही हैं। फिर उन्होंने एक गहरी श्वास ली है, जैसे कि कोई भार हट गया हो और वे किसी संकल्प पर पहुंच गए हों। अंततः उन्होंने कहाः 'क्या मेरे लिए और कोई आज्ञा है?'
आचार्य श्री बोलेः 'सत्य की खोज के मार्ग पर--स्वयं की खोज के मार्ग पर दो सूत्र स्मरण रखने आवश्यक हैं। पहलाः प्रारंभ करो और दूसराः जारी रखो। इन दो स्वर्ण सूत्रों का जो अनुगमन करता है, वह अवश्य ही गंतव्य पर पहुंच जाता है।'
विचारों की व्यर्थता दिखाई पड़ती है। उनके आवागमन के कारण पैदा हुई अशांति अनुभव होती है। बहुतों को तो यह भी ध्यान में नहीं जाता है। इस बोध के बाद निश्चय ही उनसे मुक्ति के लिए कुछ किया जा सकता है। साधारणतः जब तक मनुष्य प्रत्येक विचार की गति के साथ गतिमय होता रहता है, तब तक उसे विचारों से पैदा हो रही अशांति का अनुभव ही नहीं होता है लेकिन जब वह रुक कर--ठहर कर विचारों को देखता है तभी उसे उनकी सतत दौड़ और अशांति का प्रत्यक्ष होता है। विचारों से मुक्ति की दिशा में यह आवश्यक अनुभूति है। हम खड़े होकर देखें तभी विचारों की व्यर्थ भाग-दौड़ का पता चल सकता है। निश्चय ही जो उनके साथ ही दौड़ता रहता है, वह इसे कैसे जान सकता है? 'इसीलिए ही मैंने कहा कि आपका
बोध शुभ है और उससे घबड़ावें नहीं बल्कि प्रसन्न हों। लेकिन इतने पर ही रुक नहीं जाना है। अब विचारों की प्रक्रिया के प्रति एक अत्यंत निर्वैयक्तिक भाव को अपनावें। मात्र एक दर्शक का भाव। जैसे देखने मात्र से ज्यादा आपका उनसे और कोई संबंध नहीं और जब विचारों के बादल मन के आकाश को घेरें और गति करें तो उनसे पूछेंः 'विचारो! तुम किसके हो? क्या तुम मेरे हो?' और आपको प्रय्युत्तर मिलेगा नहीं। क्योंकि विचार आपके नहीं है। वे आपके अतिथि हैं। आपके मन को उन्होंने सराय बनाया हुआ है। उन्हें अपना मानना भूल है और वही भूल उनसे मुक्त नहीं होने देती है। उन्हें अपना मानने से जो तादात्म्य पैदा होता है, वही उन्हें विसर्जित नहीं होने देता है। ऐसे जो मात्र अतिथि हैं, वे ही स्थायी निवासी बन जाते हैं। विचारों को निर्वैयक्तिक भाव से देखने से क्रमशः उनसे संबंध टूटता है। जब कोई वासना उठे या कि कोई विचार तब ध्यान दें कि यह वासना उठ रही है या कि वह विचार उठ रहा है, फिर देखें और जानें कि अब वह अपने पूरे रूप से मन के समक्ष है, फिर जानें कि अब वह विलीन हो रहा है, अब विलीन हो चुका है, अब दूसरा विचार उठ रहा है, बन रहा है, बन गया है, विलीन हो रहा है, विलीन हो गया है, और इस भांति शांति से, अनुद्विग्न भाव से, दर्शक की भांति, साक्षी बन कर और विचारों की सतत धारा का निरीक्षण करें। उनके प्रति कोई भी भाव न बनावें। अच्छा या बुरा। उनके संबंध में कोई निर्णय न लें।।शुभ या अशुभ। वह देखें और निरीक्षण करें। इसी भांति शांत चुनाव रहित निरीक्षण से विचारों की गति क्षीण होती जाती है और अंततः निर्विचार समाधि उपलब्ध होती है। निर्विचार समाधि में विचार तो विलीन हो जाते हैं और विचार शक्ति का उदभव होता है। उस विचार-शक्ति को ही मैं प्रज्ञा कहता हूं। विचार-शक्ति के जागरण के लिए विचारों से मुक्त होना अत्यंत आवश्यक है।'
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