Manuscripts ~ Yeh Manushya Kyon Mar Raha Hai ? (यह मनुष्य क्यों मर रहा है ?)

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Why is Man Dying?

year
1968
notes
4 sheets. One sheet repaired.


page no original photo enhanced photo Hindi transcript
1
संध्या के तारे
(संध्याकालीन चर्चाओं से)
संकलनः अजित, एम.ए., एम. कॅाम., एल. एल. बी.
1 यह मनुष्य क्यों मर रहा है?
मैं आज तक की सभी संस्कृतियों और सभ्यताओं को अधूरी पाता हूं। मनुष्य अब तक भी ऐसी संस्कृति का निर्माण नहीं कर पाया है जो कि उसके पूरे जीवन को स्पर्श करती हो। मनुष्य इसीलिए अतृप्त, असंतुष्ट और बेचैन है। उसके पूरे प्राण, उसका व्यक्तित्व तृप्ति पा सके, ऐसी कोई जीवन दृष्टि वह विकसित नहीं कर पाया है। उसके व्यक्तित्व का एक अंश तृप्त होता है तो दूसरा भूखा रहता है। दूसरे की भूख मिटती है तो पहला उपेक्षित हो जाता है। लेकिन कुल जोड़ में वह सदा अशांति, बेचैनी और तनाव पाता है। दुर्भाग्य की इस कथा के पीछे कारण क्या है?
मनुष्य को द्वैत में तोड़ कर देखना ही वह कारण है।
मनुष्य के शरीर और आत्मा में एक अनिवार्य द्वंद्व की धारणा ही वह कारण है।
आत्मा और शरीर, चेतन और जड़ता के बीच शत्रुता मान कर ही हमने अपने हाथों अपना दुर्भाग्य निर्मित कर लिया है।
जीवन को इस भांति द्वंद्व में और खंड में देखने वाली दृष्टि ने ही अब तक मनुष्य की संस्कृतियों को जन्म दिया है इसलिए वे संस्कृतियां अपूर्ण, अधूरी और आंशिक रही हैं। पूर्व और पश्चिम ने ऐसे ही अधूरे प्रयोग किए हैं। अध्यात्मवाद और भौतिकवाद के नाम पर ऐसी ही आंशिक सभ्यताएं निर्मित हुई हैं।
लेकिन इस सीधे-सादे तथ्य को हम अब तक भी नहीं देख पाए हैं कि मनुष्य न तो अकेला शरीर है और न अकेली आत्मा। वह दोनों है। शायद वह दो भी नहीं है; एक ही है। और उस एक को ही हम दो में बांट कर देख रहे हैं। यह दो में देखना शायद हमारी देखने की असमर्थता ही है।
मनुष्य मनो-भौतिक (साइको-फिजिकल) है। वह एक अपूर्व संतुलन है। वह एक अद्भुत संगीत है। और जैसे ही हम इस संगीत को दो में बांटते हैं, वैसे ही उसका सारा व्यक्तित्व बेसुरा हो जाता है। मनुष्य की अखंडता में जो संतुलन और सौंदर्य है, वह उसे खंड-खंड करके देखने पर कहीं भी उपलब्ध नहीं होता है। खंडित होते ही--या एक खंड पर अति बल देते ही मनुष्य एक कुरूपता में परिणत हो जाता है। अध्यात्मवादियों और भौतिकवादियों ने--दोनों ने ही मनुष्य को कुरूप किया है। क्योंकि दोनों ने ही उसे उसकी पूर्णता में नहीं स्वीकारा है। वे दोनों ही उसमें चुनाव करते रहे हैं। इसके पूरेपन से वे दोनों ही भयभीत रहे हैं। अपने वादों और विवादों से उन्हें जितना मोह है उतना मनुष्य से कतई नहीं हैं।
वे मनुष्य को देखकर उसके लिए सिद्धांतों के कपड़े नहीं बनवाते हैं। वरन उनकी प्रक्रिया पूर्णतः उलटी ही है। वे सिद्धांतों के कपड़े पहले बना लेते हैं, और फिर उनके अनुरूप मनुष्य में हेर-फेर करने की पहल करते हैं। वे शब्दों, शास्त्रों, सिद्धांतों के वस्त्रों के ऐसे प्रेमी हैं कि उनके लिए मनुष्य को अंग-भंग करने में भी नहीं सकुचाते हैं। वस्त्रों में तो किसी भांति की काट-छांट की ही नहीं जा सकती है, इसलिए फिर मनुष्य में ही काट-छांट करनी पड़ती है। उनके बनाए हुए वस्त्र यदि ठीक नहीं आते हैं तो इसमें वस्त्रों का क्या कसूर है--कसूर है तो आदमी का है! वह ऐसा क्यों है कि वस्त्रों के अनुरूप नहीं हैं। उसे वस्त्रों के अनुरूप होना ही पड़ेगा, तभी तो वह ठीक मनुष्य हो सकता है। मनुष्य का यह सुधार चल रहा है, हजारों वर्षों से यह परिष्कार चल रहा है। और जो हुआ है परिणाम, वह प्रत्यक्ष है। मनुष्य विकृत और अस्वस्थ हो गया है। इस विकृति व अस्वास्थ्य को देखकर सुधारकों का जोश और बढ़ जाता है। और वे अपने सेवा कार्य में और भी ज्यादा निर्ममता से संलग्न हो जाते हैं।
सिद्धांतवादियों ने जैसी हिंसा और दुष्टता के प्रमाण दिए हैं, वैसे अन्यत्र पाने असंभव हैं। शायद वह चित्त की हिंसा की वृत्ति ही हो जो कुछ विक्षिप्त व्यक्तियों को सिद्धांतों और वादों की आड़ में खड़ा कर देती हो। क्योंकि वहां ऐसी वृत्ति को बिना किसी भय के पूर्ण अभिव्यक्ति दी जा सकती है और साथ ही साथ आदर भी पाया जा सकता है। मनुष्य के सुधारकों और शास्ताओं से ज्यादा उपद्रवी व्यक्ति कोई नहीं हुए हैं। और सबसे बड़ा उपद्रव जो उन्होंने खड़ा कर दिया है, वह हैः मनुष्य में चुनाव का। पूरे मनुष्य की अस्वीकृति का। मनुष्य में द्वंद का। वे शास्ता और सुधारक यदि आत्मवादी हैं तो उन्होंने मनुष्य के शरीर की अस्वीकृति की शिक्षा दी है। उसके प्रति शत्रुता सिखाई है, या यदि वे बहुत विनम्र हुए तो उपेक्षा सिखाई है। और यदि वे विचारक भौतिकवादी हुए तो उन्होंने आत्मा के प्रति आंखें बंद कर देने की वृत्ति को बल दिया है। उन्होंने जीवन को शरीर से जोड़ने की कोशिश की है। और आत्मा की ओर उड़ान के सारे पंख काट दिए हैं।
इन दो प्रकार के गुरुओं के बीच मनुष्य बुरी तरह पिस गया है। उसका सारा संताप, चिंता और अर्थहीनता इन्हीं दो अतियों के बीच उसके चित्त को खींचे जाने से पैदा हुई हैं। इन अतियों ने उसके जीवन रस को चूस डाला है।
चिंता और संताप के किन्हीं क्षणों में कोई व्यक्ति जागता भी है तो एक अति से दूसरे अति पर चला जाता है। वह कुएं से बचता है तो खाई में गिर जाता है। भौतिकवादी, अध्यात्मवादी हो जाते हैं; और अध्यात्मवादी, भौतिकवादी हो जाते हैं। व्यक्ति ही नहीं, पूरी सभ्यताएं और समाज और राष्ट्र भी ऐसी अतियों में डोलते रहते हैं। थोड़े से व्यक्तियों ने भले उस मध्य बिंदु को पा लिया हो जहां कि जीवन का संगीत पैदा होता है, लेकिन अभी तक कोई भी संस्कृति उस संतुलन को नहीं पा सकी है। समाज के तल पर संतुलन अब तक स्वप्न ही है।
एक कहानी मुझे स्मरण आती है। एक बादशाह बीमार पड़ा था। उसकी बहुत चिकित्सा की गई लेकिन वह स्वस्थ न हो सका। अंततः चिकित्सकों ने जवाब दे दिया। फिर एक फकीर को बुलाया गया। उस फकीर ने कहाः ‘सम्राट ठीक हो जाएगा। लेकिन उसे किसी समृद्ध और सुखी व्यक्ति के कपड़े पहनने होंगे। यदि तुम ऐसे कपड़े पा सको तो संध्या के पूर्व ही तुम पाओगे कि वह ठीक हो गया।’
राजमहल खुशी से भर गया। यह कोई कठिन इलाज न था। उस राजधानी में समृद्ध और सुखी लोगों की क्या कमी थी? सम्राट के वजीर नगर के सबसे बड़े धनपति के पास गए। उस धनपति ने कहाः ‘सम्राट को बचाने के लिए मैं अपने प्राण दे सकता हूं लेकिन मेरे वस्त्र काम न कर सकेंगे क्योंकि मैं समृद्ध हूं लेकिन सुखी नहीं हूं।’ फिर तो वजीर एक महल से दूसरे महल गए और यही उत्तर उन्हें मिला। संध्या तक वे बिल्कुल निराश हो गए। इलाज जितना आसान मालूम हुआ था, उतना आसान नहीं था। राजधानी पर जब रात्रि उतरने लगी तब वे वापिस लौटे। वे अत्यंत शर्मिंदा थे और सम्राट से लौट कर क्या कहेंगे, यह उन्हें समझ में ही नहीं आ रहा था।
तभी राजमहल के पीछे बहती नदी के दूसरी तरफ से किसी के बांसुरी बजाने की आवाज सुनाई पड़ी। उस आवाज में सुख की सुवास थी। उन्होंने सोचाः चलो, आखिरी बार इस बांसुरी बजाने वाले से भी पूछ लें। हो सकता है, इस व्यक्ति को सुख उपलब्ध हो गया हो। वे नदी पार करके उसके पास गए। अंधेरे में कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता था। एक चट्टान पर बैठे उस व्यक्ति से उन्होंने अपनी प्रार्थना दुहराई। वह व्यक्ति बोलाः ‘मैं सम्राट को बचाने के लिए अपने प्राण दे सकता हूं। सुख भी मैंने जाना है। लेकिन शायद अंधेरे में आप को दिखाई नहीं पड़ रहा है कि मैं बिल्कुल नग्न हूं और मेरे पास वस्त्र नहीं हैं।’
उस रात वह सम्राट मर गया क्योंकि उस नगर में एक भी पूरा व्यक्ति उपलब्ध नहीं हो सका।
यह कहानी आज पूरी मनुष्यता पर दुहरने को है। मनुष्यता भी बचेगी नहीं, यदि हम सुख और समृद्धि के बीच, आत्मा और शरीर के बीच, धर्म और विज्ञान के बीच, और पूर्व और पश्चिम के बीच कोई सेतु नहीं खोज पाए। मनुष्य को उसकी समग्रता में, उसकी आत्म-दैहिक एकता में, तृप्ति देनी है। तभी वह स्वस्थ हो सकता है। ऐसी संस्कृति चाहिए, जो उसे उसकी पूर्णता (टोटैलिटी) में अंगीकार करती हो। उसकी पूर्णता की सहज स्वीकृति में ही जो उसके जीवन को गति देना चाहती हो। जो उसे तोड़ती न हो और जो उसे आत्म-द्वंद्व और कलह से न भरती हो। जो उसके अंतर-बाह्य को संगीत दे सके। जो उसके अंतर-बाह्य को एक ही जीवन के दो पहलू मानती हो--दो विरोधी तत्व नहीं, वरन एक ही गीत की दो पूरक कड़ियां। क्या यह नहीं हो सकता है?
मैं यही पूछना चाहता हूं-
वह सम्राट क्यों मर गया था?
यह मनुष्य क्यों मर रहा है?


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