Manuscripts ~ Bodh Kathayen, Bhag 1 (बोध कथाएं, भाग 1): Difference between revisions
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:एक युवक आए थे। वे संन्यासी होने की तैयारी में हैं। सब भांति तैयार होकर जल्दी ही वे संन्यास लेंगे। बहुत प्रसन्न थे, क्योंकि तैयारी करीब-करीब पूरी ही हो रही है। उनकी बातें सुनीं तो मैं हंसने लगा और उनसे कहाः ‘‘संसार की तैयारियां मैंने सुनी थीं। यह संन्यास की तैयारी क्या बला है? क्या संन्यास के लिए भी कोई तैयारी और आयोजना करनी है? और ऐसा सुनियोजित संन्यास भी क्या संन्यास होगा? क्या वह भी संसारी मन का ही विस्तार नहीं है? क्या संसार और संन्यास एक ही मन के आयाम नहीं हैं? संसारी मन संन्यासी नहीं हो सकता है। संसार से संन्यास की ओर संपरिवर्तन, चित्त की आमूल क्रांति के बिना नहीं हो सकता। यह आमूल क्रांति ही संन्यास है। संन्यास न तो वेष-परिवर्तन है, न नाम-परिवर्तन, न गृह-परिवर्तन। वह तो है दृष्टि-परिवर्तन। वह तो है स्वयं के चित्त का समग्र परिवर्तन। उस क्रांति के लिए विचार की वे सरणियां काम नहीं देती हैं, जो संसार में सफल हैं। संसार का गणित उस क्रांति के लिए न केवल व्यर्थ है, अपितु विघ्न भी है। स्वप्न की नियमावलियां जैसे जागरण में नहीं चलती हैं, वैसे ही संसार के सत्य संन्यास में सत्य नहीं रह जाते हैं। संन्यास संसार के स्वप्न से जागरण ही तो है।’’ | |||
:फिर मैंने रुक कर उस युवक की ओर देखा। वे कुछ दुखी से मालूम होते थे। शायद मैंने उनकी तैयारियों को धक्का दे दिया था और वे ऐसी आशा लेकर मेरे पास नहीं आए थे। बिना कुछ कहे ही वे जाने लगे तो मैंने उनसे कहाः सुनो! एक कहानी और सुनो। एक संत थे आजर कैवान। एक व्यक्ति आधी रात में उनके पास आया और बोलाः ‘‘हजरत, मैंने कसम खाई है कि फानी दुनिया के सारे ऐशो-इशरत छोड दूंगा। संसार के फंदे को तोडने का मैंने निश्चय ही कर लिया है।’’ मैं होता तो उससे कहताः ‘‘पागल, जो कसम खाता है, वह कमजोर होता है और जो छोडने का निश्चय करता है, वह कभी नहीं छोडता और छोड भी दे तो फिर छोडने को ही पकड लेता है। त्याग अज्ञानी चित्त का संकल्प नहीं है, वह तो ज्ञान की सहज छाया है।’’ लेकिन मैं तो वहां था नहीं। थे कैवान। उन्होंने उस व्यक्ति से कहाः ‘‘तुमने ठीक सोचा है।’’ वह व्यक्ति प्रसन्न होकर चला गया फिर कुछ दिनों बाद आया और बोलाः ‘‘मैं अभी गुदडी और फकीरी पोशाक बना रहा हूं। सरो-सामान तैयार होते ही फकीर हो जाना है।’’ किंतु इस बार कैवान भी न कह सके कि तुमने ठीक सोचा है! उन्होंने कहाः ‘‘मित्र, सरो-सामान छोडने के लिए ही कोई दरवेश होता है और तू उसी को जुटाने के लिए परेशान है! जा अपनी दुनिया में लौट जा, तू अभी फकीरी के काबिल नहीं है।’’ | |||
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:मैं परमात्मा की प्रार्थना के लिए तुम्हें मंदिरों में जाते देखता हूं तो सोचता हूं कि क्या परमात्मा केवल मंदिरों में ही है? क्योंकि मंदिरों के बाहर न तो तुम्हारी आंखों में पवित्रता की झलक होती है और न तुम्हारी श्वासों में प्रार्थना की ध्वनि। मंदिरों के बाहर तो तुम ठीक वैसे ही होते हो, जैसे वे लोग जो कभी भी मंदिरों में नहीं गए हैं! क्या इससे तुम्हारा मंदिरों में जाना व्यर्थ सिद्ध नहीं हो जाता है? क्या यह संभव है कि मंदिर की सी.िढयों के बाहर तुम कठोर और भीतर करुण हो जाते होगे? क्या यह विश्वासयोग्य है कि मंदिरों के द्वारों में प्रविष्ट होते ही हिंसक चित्त प्रेम से भर जाते हों? जिन हृदयों में सर्व के प्रति प्रेम नहीं है, उनमें परमात्मा के प्रति प्रार्थनाओं का जन्म ही कैसे हो सकता है? | |||
:जीवन ही जिसका प्रेम नहीं है, उस जीवन में प्रार्थना असंभव है। | |||
:और कण-कण में ही जिसके लिए परमात्मा नहीं है, उसके लिए कहीं भी परमात्मा नहीं हो सकता है। | |||
:एक रात्रि की घटना है। कोई अजनबी यात्री मक्का के मंदिर में थका-मांदा पहुंचा है और सो गया है। उसके अपवित्र पैर काबा के पवित्र पत्थर की ओर देख कर पुरोहित क्रोध से भर जाते हैं। वे उसके पैरों को पकड कर घसीटते हैं और कहते हैंः ‘‘यह तुमने कैसा अपराध किया? पवित्र पत्थर के मंदिर का अपमान करने का साहस? यह सोने का ढंग है? परमात्मा के मंदिर की ओर पैर तो निश्चय ही कोई नास्तिक ही कर सकता है!’’ उनकी क्रोध-भरी मुद्राएं देख कर और उनके अपमान भरे कटु सुन कर भी वह यात्री हंसने लगता है और कहता हैः ‘‘मेरे प्यारे, मैं तो वहीं पैर कर लूं जहां परमात्मा न हो! आप कृपा करें और मेरे पैर वहीं कर दें! मैं स्वयं तो उसके मंदिर को सभी ओर और सभी दिशाओं में पाता हूं।’’ ये अजनबी यात्री थे नानक। उन्होंने जो कहा वह कितना सत्य है। परमात्मा निश्चय ही सब ओर है। लेकिन मैं पूछता हूं कि क्या पैरों में भी वही नहीं है? वही तो है। उसके सिवाय और क्या है? अस्तित्व--समग्र अस्तित्व--ही तो वह है। लेकिन मंदिरों में, मूर्तियों में, तीर्थों में उसे देखने वाली आंखें, अक्सर ही उसे उसकी समग्रता में देखने में अंधी हो जाती हैं। | |||
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Revision as of 06:26, 23 June 2018
Wisdom Tales of Inner Revolution / Tales of Enlightenment
- year
- 1966
- notes
- 40 sheets. 2 sheets are half-size.
page no original photo enhanced photo Hindi transcript 1
Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), page 32- Story no 28
- एक युवक आए थे। वे संन्यासी होने की तैयारी में हैं। सब भांति तैयार होकर जल्दी ही वे संन्यास लेंगे। बहुत प्रसन्न थे, क्योंकि तैयारी करीब-करीब पूरी ही हो रही है। उनकी बातें सुनीं तो मैं हंसने लगा और उनसे कहाः ‘‘संसार की तैयारियां मैंने सुनी थीं। यह संन्यास की तैयारी क्या बला है? क्या संन्यास के लिए भी कोई तैयारी और आयोजना करनी है? और ऐसा सुनियोजित संन्यास भी क्या संन्यास होगा? क्या वह भी संसारी मन का ही विस्तार नहीं है? क्या संसार और संन्यास एक ही मन के आयाम नहीं हैं? संसारी मन संन्यासी नहीं हो सकता है। संसार से संन्यास की ओर संपरिवर्तन, चित्त की आमूल क्रांति के बिना नहीं हो सकता। यह आमूल क्रांति ही संन्यास है। संन्यास न तो वेष-परिवर्तन है, न नाम-परिवर्तन, न गृह-परिवर्तन। वह तो है दृष्टि-परिवर्तन। वह तो है स्वयं के चित्त का समग्र परिवर्तन। उस क्रांति के लिए विचार की वे सरणियां काम नहीं देती हैं, जो संसार में सफल हैं। संसार का गणित उस क्रांति के लिए न केवल व्यर्थ है, अपितु विघ्न भी है। स्वप्न की नियमावलियां जैसे जागरण में नहीं चलती हैं, वैसे ही संसार के सत्य संन्यास में सत्य नहीं रह जाते हैं। संन्यास संसार के स्वप्न से जागरण ही तो है।’’
- फिर मैंने रुक कर उस युवक की ओर देखा। वे कुछ दुखी से मालूम होते थे। शायद मैंने उनकी तैयारियों को धक्का दे दिया था और वे ऐसी आशा लेकर मेरे पास नहीं आए थे। बिना कुछ कहे ही वे जाने लगे तो मैंने उनसे कहाः सुनो! एक कहानी और सुनो। एक संत थे आजर कैवान। एक व्यक्ति आधी रात में उनके पास आया और बोलाः ‘‘हजरत, मैंने कसम खाई है कि फानी दुनिया के सारे ऐशो-इशरत छोड दूंगा। संसार के फंदे को तोडने का मैंने निश्चय ही कर लिया है।’’ मैं होता तो उससे कहताः ‘‘पागल, जो कसम खाता है, वह कमजोर होता है और जो छोडने का निश्चय करता है, वह कभी नहीं छोडता और छोड भी दे तो फिर छोडने को ही पकड लेता है। त्याग अज्ञानी चित्त का संकल्प नहीं है, वह तो ज्ञान की सहज छाया है।’’ लेकिन मैं तो वहां था नहीं। थे कैवान। उन्होंने उस व्यक्ति से कहाः ‘‘तुमने ठीक सोचा है।’’ वह व्यक्ति प्रसन्न होकर चला गया फिर कुछ दिनों बाद आया और बोलाः ‘‘मैं अभी गुदडी और फकीरी पोशाक बना रहा हूं। सरो-सामान तैयार होते ही फकीर हो जाना है।’’ किंतु इस बार कैवान भी न कह सके कि तुमने ठीक सोचा है! उन्होंने कहाः ‘‘मित्र, सरो-सामान छोडने के लिए ही कोई दरवेश होता है और तू उसी को जुटाने के लिए परेशान है! जा अपनी दुनिया में लौट जा, तू अभी फकीरी के काबिल नहीं है।’’
2 3 Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), page 33
- Story no 49
- मैं परमात्मा की प्रार्थना के लिए तुम्हें मंदिरों में जाते देखता हूं तो सोचता हूं कि क्या परमात्मा केवल मंदिरों में ही है? क्योंकि मंदिरों के बाहर न तो तुम्हारी आंखों में पवित्रता की झलक होती है और न तुम्हारी श्वासों में प्रार्थना की ध्वनि। मंदिरों के बाहर तो तुम ठीक वैसे ही होते हो, जैसे वे लोग जो कभी भी मंदिरों में नहीं गए हैं! क्या इससे तुम्हारा मंदिरों में जाना व्यर्थ सिद्ध नहीं हो जाता है? क्या यह संभव है कि मंदिर की सी.िढयों के बाहर तुम कठोर और भीतर करुण हो जाते होगे? क्या यह विश्वासयोग्य है कि मंदिरों के द्वारों में प्रविष्ट होते ही हिंसक चित्त प्रेम से भर जाते हों? जिन हृदयों में सर्व के प्रति प्रेम नहीं है, उनमें परमात्मा के प्रति प्रार्थनाओं का जन्म ही कैसे हो सकता है?
- जीवन ही जिसका प्रेम नहीं है, उस जीवन में प्रार्थना असंभव है।
- और कण-कण में ही जिसके लिए परमात्मा नहीं है, उसके लिए कहीं भी परमात्मा नहीं हो सकता है।
- एक रात्रि की घटना है। कोई अजनबी यात्री मक्का के मंदिर में थका-मांदा पहुंचा है और सो गया है। उसके अपवित्र पैर काबा के पवित्र पत्थर की ओर देख कर पुरोहित क्रोध से भर जाते हैं। वे उसके पैरों को पकड कर घसीटते हैं और कहते हैंः ‘‘यह तुमने कैसा अपराध किया? पवित्र पत्थर के मंदिर का अपमान करने का साहस? यह सोने का ढंग है? परमात्मा के मंदिर की ओर पैर तो निश्चय ही कोई नास्तिक ही कर सकता है!’’ उनकी क्रोध-भरी मुद्राएं देख कर और उनके अपमान भरे कटु सुन कर भी वह यात्री हंसने लगता है और कहता हैः ‘‘मेरे प्यारे, मैं तो वहीं पैर कर लूं जहां परमात्मा न हो! आप कृपा करें और मेरे पैर वहीं कर दें! मैं स्वयं तो उसके मंदिर को सभी ओर और सभी दिशाओं में पाता हूं।’’ ये अजनबी यात्री थे नानक। उन्होंने जो कहा वह कितना सत्य है। परमात्मा निश्चय ही सब ओर है। लेकिन मैं पूछता हूं कि क्या पैरों में भी वही नहीं है? वही तो है। उसके सिवाय और क्या है? अस्तित्व--समग्र अस्तित्व--ही तो वह है। लेकिन मंदिरों में, मूर्तियों में, तीर्थों में उसे देखने वाली आंखें, अक्सर ही उसे उसकी समग्रता में देखने में अंधी हो जाती हैं।
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