Manuscripts ~ Bodh Kathayen, Bhag 2 (बोध कथाएं, भाग 2): Difference between revisions
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:‘मैं’ तभी तक है, जब तक ‘मेरा’ है। वह ‘मेरा’ का ही पुंजीभूत रूप है। जहां ‘मेरा’ कुछ नहीं है, वहां ‘मैं’ भी खो जाता है। | |||
:और जहां ‘मैं’ नहीं है, वहां वह है, जो है। | |||
:मैं-शून्य सत्ता ही परमात्मा है। | |||
:एक सुदर्शन नाम का ब्राह्मण था। शांत मन में, ध्यान में उसे दीखा कि मेरा तो कुछ भी नहीं है। उस दिन से उसके स्वामित्व-भाव का विसर्जन हो गया। यह बात उसने किसी को बताई नहीं। लेकिन, उससे जो भी, जो कुछ मांगता था, वह उसे दे देता था। एक दिन उसे गांव के बाहर जाना था सो असने अपनी चित्त स्थिति पत्नि को समझा दी और कहा- ‘जो भी कोई कुछ मांगे, दे देना। मैं, मेरा कुछ भी नहीं है।’ | |||
:दिन भर तो कोई नहीं आया लेकिन रात्रि एक अपरिचित अतिथि आ पहुंचा। स्नान-भोजन के बाद उसने सुदर्शन की स्त्री को कहा : ‘किबाड़ बंद कर दो और आओ, मेरी सेवा करो।’ | |||
:स्त्री ने वैसा ही किया। वह उसके पांव दबाने लगी। उसी समय सुदर्शन ने आकर बाहर से आवाज दी। उसकी स्त्री पशोपेश में पड़ी : ‘अतिथि सेवा करूं या किबाड़ खोलूं?’ | |||
:अतिथि ने कहा : ‘अपने पति से पूछ लो।’ | |||
:पति ने बाहर से कहा : ‘तुम अतिथि सेवा कर लो। मैं बाहर बैठा हूं।’ | |||
:वह बाहर ही बैठ गया। आधी रात बीत गई तब उसकी स्त्री ने द्वार खोले। लेकिन लौटकर देखा तो अतिथि तो नहीं था। उसकी जगह एक अपूर्व प्रकाश और सुगंध जरूर घर में व्याप्त थी। | |||
:उसने अपने पति से पूछा : ‘अरे, अतिथि कहां गये?’ | |||
:सुदर्शन बोला : ‘वे मेरे हृदय में आ गये हैं। मेरी परीक्षा पूरी हो गई है।’ | |||
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Revision as of 05:06, 26 April 2018
Wisdom Tales of Inner Revolution / Tales of Enlightenment
- year
- 1966
- notes
- 42 sheets. One sheet repaired.