Manuscripts ~ Kuchh Sfut Vichar (कुछ स्फुट विचार)

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Invaluable Thoughts / Some Minute Thoughts

year
1967
notes
4 sheets plus 4 written on reverse (2 doublesheets).
Sheet numbers showing "R" and "V" refer to "Recto and Verso".
Published as ch.13 (of 30) of Sadhana Path (साधना पथ).
The transcripts below are not true transcripts, but copies from Sadhana Path (साधना पथ).
see also
Category:Manuscripts


sheet no original photo enhanced photo Hindi
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कुछ स्फुट विचार
यह कहा गया है कि आप शास्त्रों में विश्वास करो, भगवान के वचनों में विश्वास करो, गुरुओं में विश्वास करो। मैं यह नहीं कहता हूं। मैं कहता हूं कि अपने में विश्वास करो। स्वयं को जानकर ही शास्त्रों में जो है, भगवान के वचनो में जो है, उसे जाना जा सकता है।
वह जो स्वयं पर विश्वासी नहीं है, उसके शेष सब विश्वास व्यर्थ हैं।
वह जो अपने पैरों पर नहीं खड़ा है, वह किसके पैरों पर खड़ा हो सकता है?
बुद्ध ने कहा है: अपने दीपक स्वयं बनो। अपनी शरण स्वयं बनो। स्व-शरण के अतिरिक्त और कोई सम्यक गति नहीं है।
यही मैं कहता हूं।
एक रात्रि एक साधु अपने किसी अतिथि को बिदा करता था। उस अतिथि ने कहा, 'रात्रि बहुत अंधेरी है। मैं कैसे जाऊं?' साधु ने उसे एक दीपक जलाकर दिया और जब वह अतिथि उस दीपक को लेकर सीढ़ियां उतरता था, उस साधु ने उसे फूंककर बुझा दिया। पुनः राह पर घना अंधकार हो गया।
उस साधु ने कहा:
'मेरा दीपक आपके मार्ग को प्रकाशित नहीं कर सकता है। उसके लिए अपना ही दीपक चाहिए।' उस अतिथि ने समझा और वह समझ उसके जीवन पथ पर एक ऐसे दीये का जन्म बन गयी जो न तो छीना जा सकता है और न बुझाया ही जा सकता है।


साधना, जीवन का कोई खंड, अंश नहीं है। वह तो समग्र जीवन है। उठना, बैठना, बोलना, हंसना सभी में उसे होना है। तभी वह सार्थक और सहज होती है।
धर्म कोई विशिष्ट कार्य--पूजा या प्रार्थना करने में नहीं है, वह तो ऐसे ढंग से जीने में है कि सारा जीवन ही पूजा और प्रार्थना बन जावे। वह कोई क्रिया-कांड, रिचुअल नहीं है। वह तो जीवन-पद्धति है।
इस अर्थ मे कोई धर्म धार्मिक नहीं होता है, व्यक्ति धार्मिक होता है। कोई आचरण धार्मिक नहीं होता, जीवन धार्मिक होता है।
'मैं' की कारा से मुक्त होकर ही चेतना व्यक्ति से ऊपर उठती है और समष्टि से मिलती है। 'मैं' का मृतिका-घेरा उसे वैसे ही सत्य से दूर किये है जैसे मिट्टी का घड़ा सागर के जल को सागर से अलग कर देता है।
यह 'मैं' क्या है? क्या इसे कभी आपने अपने में खोजा है?
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वह है क्योंकि हमने उसे खोजा नहीं है। मैं स्वयं जब उसे खोजने गया तो मैंने पाया कि वह नहीं है।
किसी शांत क्षण में अपने में उतरें और खोजें। वहां कोई भी 'मैं' नहीं मिलता है। 'मैं' नहीं है। वह तो सामाजिक उपयोगिता से पैदा हुआ एक भ्रम मात्र है।
जैसा मेरा नाम है, वैसा ही मेरा 'मैं' भी है। वे दोनों उपयोगिताएं हैं, सचाइयां नहीं। वह जो मेरे भीतर है, न तो उसका कोई नाम है और न उसमें कोई 'मैं' है।
निर्वाण में, मोक्ष में या आत्मा में प्रवेश नहीं होता है। क्योंकि जिस जगह को कभी छोड़ा ही नहीं है, उसमें प्रवेश कैसे हो सकता है?
फिर क्या होता है?
निर्वाण में तो प्रवेश नहीं होता है, विपरीत जिस संसार में प्रवेश था, वही स्वप्न की भांति विलीन हो जाता है। और हम अपने को स्वयं में पाते हैं।
यह अनुभव किसी स्थान में प्रवेश-जैसा नहीं, स्वप्नऱ्यात्रा के टूट जाने पर अपनी ही शैया पर अपने को पाने जैसा है।
मैं कहीं गया नहीं हूं, इसलिए लौटने का प्रश्न नहीं है और मैंने कुछ खोया नहीं है, इसलिए पाने की बात कोई अर्थ नहीं रखती है।
मैं केवल स्वप्न में हूं। मेरा सारा जाना और सारा खोना स्वप्न में है। इसलिए न मुझे लौटना है, न पाना है। मुझे केवल जाग जाना है।
सत्य साक्षात पूर्ण और समग्र ही होता है। वह उपलब्धि क्रमिक नहीं है। वह विकास, एवोल्यूशन नहीं, उत्क्रंाति, रेवोल्यूशन है।
क्या कोई स्वप्न में क्रमशः जागता है?
या तो स्वप्न है, या स्वप्न नहीं है। दोनों के बीच में कोई स्थिति नहीं होती है।
हां, साधना अनंत समय ले सकती है। पर साक्षात बिजली की कौंध की भांति ही उपलब्ध होती है--पल-भर में और पूर्ण। वस्तुतः उसकी उपलब्धि में समय का कोई भी हिस्सा नहीं लगता है, क्योंकि समय में जो भी होता है, सब क्रमिक होता है।
साधना समय में है, साक्षात समय में नहीं है। वह कालातीत है।
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सत्य-साक्षात के लिए मात्र शुभ की और विराग की साधना ही पर्याप्त नहीं है। वह खंड-साधना ही है। उसके लिए तो शुभ और अशुभ, राग और विराग, संसार और मोक्ष दोनों के ही ऊपर उठना आवश्यक होता है। उस स्थिति का नाम ही वीतरागता है।
वीतराग-चैतन्य का अर्थ है कि जहां न राग है, न विराग है; न शुभ है, न अशुभ है--जहां मात्र चैतन्य ही है, शुद्ध और स्वयं में। इस भूमिका में ही सत्य का साक्षात होता है।
असंलग्न और जागरूक चित्त को साधना है। जीवन में श्वास की भांति अहर्निश उस भाव-भूमि को पिरोना है। प्रत्येक कार्य में जागरूक हों और असंलग्न हों--उसे ही कर्म में अकर्म कहा है। जैसे कि कोई नाटक में अभिनय करता है, होश तो रखता है अभिनय का पर उसमें संलग्न और मूर्च्छित नहीं होता है। वह अभिनय में होकर भी उसके बाहर ही बना रहता है। ऐसा ही बनना और होना है।
कर्म में लगे हुए यदि जागरूकता हो तो असंलग्नता कठिन नहीं होती। वह उसका ही परिणाम है।
मैं राह पर चल रहा हूं। यदि चलने की क्रिया के प्रति मैं पूरी तरह जागा हुआ हूं तो मुझे ऐसा लगेगा कि जैसे मैं चल भी रहा हूं और नहीं भी चल रहा हूं। शरीर के तल पर ही चलना हो रहा है पर चेतना के तल पर कोई चलना नहीं है।
ऐसा ही भोजन करने में और अन्य कार्यों में भी लगेगा। मेरे भीतर एक केंद्र केवल साक्षी ही रह जायेगा। वह नर् कत्ता होगा, न भोक्ता होगा। इस केंद्र के अनुभव की जितनी प्रगाढ़ता होगी, उतना ही सुख-दुख के भाव विसर्जित होते जायेंगे। और उस निर्द्वंद्व और शुद्ध चैतन्य की अनुभूति होगी जो कि हमारी आत्मा है।
मन, माइंड क्या है?
इंद्रियों से जो ग्रहण हुआ है, उसका संग्रह और संग्राहक मन है। यदि कोई इसे ही अपना स्व, सेल्फ समझ लेता है, तो उसने एक दास को ही मालिक समझ लिया है।
और यदि कोई चाहता है कि अपने वास्तविक 'स्व' को अनुभव करे
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तो उसे छोड़ देना होगा जो कि वह जानता है, और उसका अनुसरण करना होगा जो कि जानता है।
जो हम जानते हैं, वह हमारा मन है, और जिससे हम जानते हैं, वह हमारा 'स्व' है।
साक्षी, ज्ञाता ही 'स्व' है। यह 'स्व' जन्म और मृत्यु से भिन्न है--माया और मुक्ति से अन्य है। वह तो केवल साक्षी है--सबका साक्षी है--प्रकाश का, अंधकार का, संसार का, निर्वाण का। वह सब द्वैत के अतीत है।
वस्तुतः तो वह 'स्व' और 'पर' के भी अतीत है, क्योंकि वह उनका भी साक्षी है।
इस साक्षी को पहचानते ही व्यक्ति कमल की भांति हो जाता है। जिस कीचड़ से पैदा हुआ है, उससे पृथक और जिस पानी में जीता है, उससे अलिप्त। वह जीवन की विभिन्न परिस्थितियों में--सुख में, दुख में, सम्मान में, अपमान में समभावी होता है, क्योंकि वह केवल साक्षी ही है। जो भी हो रहा है, वह उस पर नहीं केवल उसके समक्ष ही हो रहा है। वह दर्पण की भांति ही हो जाता है जो कि अनेक प्रतिमाओं को अपने में प्रतिफलित करता है, लेकिन उनमें से किसी के भी चिह्न उस पर पीछे छूट नहीं जाते हैं।
एक वृद्ध साधु अपने एक युवा साथी के साथ नदी पार कर रहा था। युवक
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ने उससे पूछा: 'नदी कैसे पार करें?'
वृद्ध ने कहा: 'ऐसे कि तुम्हारे पैर गीले न हों।'
युवक ने सुना। और जैसे एक बिजली कौंध गयी हो, ऐसे कुछ उसके सामने स्पष्ट और प्रत्यक्ष हो गया। वह नदी तो आयी और पार हो गयी, पर वह रहस्य-सूत्र उसके हृदय में बैठ गया। वह उसका मार्ग और जीवन बन गया। वह ऐसे नदी पार करना सीख गया जिसमें कि पैर गीले नहीं होते हैं।
वह जो कि भोजन करता है, लेकिन उपवास है; वह जो कि भीड़ में है, पर अकेला है; वह जो कि सोता है, पर सदा जागृत है--ऐसे व्यक्ति बनो, क्योंकि ऐसा व्यक्ति ही संसार में मोक्ष को उपलब्ध होता है और वही पदार्थ में परमात्मा को पा लेता है।
किसी ने कहा है, 'चित्त में संसार न हो, संसार में चित्त न हो।' यह सूत्र है। पर इसमें पहला आधा यदि पूरा हो तो शेष आधा अपने आप आ जाता है। प्रथम आधा अंश कारण, कॉज है, शेष आधा कार्य, इफैक्ट है। प्रथम सधे तो द्वितीय उसका सहज परिणाम, कान्सिक्वेंस है। पर जो दूसरे से प्रारंभ करते हैं, वे भूल में पड़ जाते हैं। वह आधार नहीं है। वह कारण नहीं है। वह मूल नहीं है।
इसलिए मैं कहता हूं कि सूत्र इतना ही है कि चित्त में संसार न हो। शेष सूत्र नहीं है, सूत्र का परिणाम है। चित्त में संसार नहीं है, तो संसार में चित्त अपने आप नहीं रह जाता है। जो चित्त में नहीं है, उसमें चित्त का होना असंभव है।
समाधि में जानने को कोई विषय, आब्जेक्ट नहीं होता है, कोई ज्ञेय नहीं होता है। इसलिए समाधि की स्थिति को 'ज्ञान' नहीं कहा जा सकता है। वह साधारण अर्थों में ज्ञान है भी नहीं, पर वह 'अज्ञान' भी नहीं है। वहां 'न जानने को' भी कुछ नहीं है। वह ज्ञान और अज्ञान दोनों से भिन्न है। वह किसी 'विषय', का जानना या न जानना दोनों ही नहीं है, क्योंकि वहां कोई विषय ही नहीं है। वहां तो केवल 'विषय', सब्जेक्टिविटि ही है। वहां तो केवल
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वही है, जो जानता है। वहां किसी का ज्ञान नहीं है, केवल ज्ञान, कानटेंटलेस कांशसनेस ही है।
एक साधु से किसी ने पूछा, 'ध्यान क्या है?' उसने कहा, 'जो निकट है उसमें होना ध्यान है।'
आपके निकट क्या है? आपके स्वयं के अतिरिक्त जो भी है, क्या वह सब दूर ही नहीं है?
आप ही केवल अपने निकट हो। पर हम सदा इसे छोड़कर कहीं और बने रहते हैं। हम सब सदा पड़ोस में ही बने रहते हैं। पड़ोस में नहीं, अपने में होना है। वही ध्यान है, वही सामायिक है।
जब आप कहीं भी नहीं हो, नो-व्हेयर और आपका चित्त कहीं भी नहीं है, तब भी तो आप कहीं हो। वही होना ध्यान है।
मैं जब कहीं भी नहीं तब मैं स्वयं में हूं। वही पड़ोस में न होना है, वही दूर न होना है। वही आंतरिकता है। वही निकटता, इंटीमेसी है। उसमें होकर ही सत्य में जागरण होता है। पड़ोस में होकर ही हमने सब-कुछ खोया है, स्वयं में होकर ही उसे वापस पाया जाता है।
मैं संसार को छोड़ने को नहीं, अपने को बदलने को कहता हूं। संसार निषेध से आप नहीं बदलेंगे, लेकिन आप बदल गये तो आपके लिए संसार नहीं ही हो जाता है। वास्तविक धर्म संसार-निषेधक, वर्ल्ड-रिजेक्टिंग नहीं, आत्म-परिवर्तन, सेल्फ-ट्रांसफिगरिंग होता है।
संसार नहीं, संसार के प्रति अपनी दृष्टि पर विचार करो। उसे बदलना है। उसके कारण संसार है और बंधन है। संसार नहीं, वही बंधन है। दृष्टि बदली कि सृष्टि बदल जाती है।
संसार में दोष नहीं है। दोष स्वयं में है और स्वयं की दृष्टि में है।
जीवन परिवर्तन का विज्ञान योग है। पदार्थ विज्ञान अपने विश्लेषण से परमाणु पर पहुंचता है--परमाणु-शक्ति पर, योग आत्मा पर पहुंचता है--आत्म-शक्ति पर। एक से पदार्थ में छिपे रहस्य का पर्दा उठता है; दूसरे से स्वयं में छिपे जगत का उदघाटन होता है। पर दूसरा प्रथम से महत्वपूर्ण है, क्योंकि स्वयं से महत्वपूर्ण इस विश्व में और कुछ भी नहीं है।
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मनुष्य ने अपना संतुलन खो दिया है, क्योंकि वह पदार्थ के संबंध में तो बहुत जानता है, पर स्वयं के संबंध में कुछ भी नहीं जानता है। वह सागर की गहराइयों में जाना सीख गया है, और अंतरिक्ष की ऊंचाइयों पर; लेकिन स्वयं में जाना वह भूल ही गया है। यह स्थिति बहुत आत्मघातक है। हमारा दुख यही है।
योग इस असंतुलन से मुक्ति दे सकता है। उसकी शिक्षा की आवश्यकता है। उससे ही सच्चे अथर्ो में एक नये मनुष्य का जन्म हो सकता है और एक नयी मनुष्यता की आधार-शिलाएं रखी जा सकती हैं।
विज्ञान ने मनुष्य की पदार्थ पर विजय घोषित कर दी है। अब मनुष्य को स्वयं अपने पर भी विजय करनी है। पदार्थ की शक्ति पर उसकी विजय ने यह अपरिहार्य कर दिया है कि वह अब अपने को भी जाने और जीते, अन्यथा पदार्थ की अपरिसीम शक्तियों पर उसकी विजय उसका ही सर्वनाश बन जावेगी; क्योंकि शक्ति अज्ञान के हाथों में सदा ही विषाक्त और आत्मघाती है।
विज्ञान अज्ञान के हाथों में हो तो यह जोड़ विध्वंसात्मक, डिस्ट्रक्टिव है। वह ज्ञान के हाथों में हो तो एक अभूतपूर्व सृजनात्मक, क्रिएटिव ऊर्जा का जन्म होगा जो कि पृथ्वी को स्वर्ग में परिणत कर सकती है। इसलिए मैं कहता हूं कि मनुष्य का भाग्य और भविष्य अब योग के हाथों में है। योग भविष्य का विज्ञान है क्योंकि वह मनुष्य का विज्ञान है।