Manuscripts ~ Messages: Difference between revisions

From The Sannyas Wiki
Jump to navigation Jump to search
mNo edit summary
mNo edit summary
Line 213: Line 213:
:और उसे ज्ञात होता है कि
:और उसे ज्ञात होता है कि
:नश्वर नहीं , ईश्वर है | "  
:नश्वर नहीं , ईश्वर है | "  
*


|- style="vertical-align:top;"
|- style="vertical-align:top;"

Revision as of 10:29, 20 March 2018

year
?
notes
14 sheets plus 2 written on reverse.
Page numbers showing "R" and "V" refer to "Recto and Verso".


page no original photo enhanced photo Hindi transcript
1
30 सितंबर | जीवन जागृति केंद्र, जनसभा | “ मनुष्य, नीति और भविष्य | " शाहिद स्मारक भवन |
1 अक्तूबर | रात्रि | डा. बिजल जी के भवन पर विचारगोष्ठी |
2 अक्तूबर | जे. एन. जैन कालेज भवन में व्याख्यान |
4-5 अक्तूबर धुलिया |
7 अक्तूबर | वेट्नॅरी कालेज में |
8 अक्तूबर |
9 अक्तूबर | जबलपुर में विशाल सत्संग | जीवन जागृति केंद्र द्वारा |
10 अक्तूबर | शहीद स्मारक भवन |
14 अक्तूबर | रात्रि | जीवन जागृति केंद्र, कार्यकर्ता गोष्ठी |
2
था क्योंकि धार्मिक व्यक्तियों में सोच-विचार इतनी दुर्लभ बात जो है ! मैं उस व्यक्ति को एक अपवाद समझ रहा था, लेकिन, फिर उसने जो कहा था, उससे मेरा वह स्वप्न एक क्षण में ही खंडित हो गया था !
वह बोला था : " महाराज, यह जीवन-तीर्थ कहाँ है ? मैने तो यह नाम कभी सुना नहीं | शास्त्र - पुराण में भी बांचा नहीं | फिर भी आप कहते हैं तो मैं वहीं जाने को तैयार हूँ | मुझे तो पाप ढोने से काम है | गंगा में नहाना है, कोई घाट तो मिलते नहीं हैं ? "
मैं आप से भी प्रेम के मंदिर को खोजने और पवित्रता के तीर्थ में स्नान करने को कहूँगा लेकिन आप भी कहीं वैसा मत समझ लेना जैसा कि मेरे उस मित्र मे समझ लिया था !
प्रेम परमात्मा का मंदिर है |
और सत्य जीवन ही धर्म तीर्थ है |
हेनरी थोरो मृत्यु शैय्या पर था |
एक वृद्धा ने उससे कहा : " हेनरी, क्या तुमने इश्वर और स्वयं के बीच शांति स्थापित कर ली है ? "
यह सुन मृत्यु के द्वार खड़े उस व्यक्ति ने कहा था : " देवी! हम आपस में कभी झगड़े हों, एसा मुझे याद नहीं आता है | "
3
" मैं मनुष्य के आर पार देखता हूँ तो क्या पाता हूँ ? पाता हूँ कि मनुष्य भी मिट्टी का एक दिया है | लेकिन वह मिट्टी का दिया साथ ही नहीं है | उसमें वह ज्योतिशिखा भी है जो कि निरंतर सूर्य की ओर उपर उठती रहती है | मिट्टी उसकी देह है | उसकी आत्मा तो यह ज्योति ही है | किंतु, जो इस सतत उर्ध्वगामी ज्योतिशिखा को विस्मृत कर देते हैं, वो बस मिट्टी ही रह जाते हैं | उनके जीवन में उर्ध्वगमन बंद हो जाता है और जहाँ उर्ध्वगमन नहीं है, वहाँ जीवन ही नहीं है |
मित्र, स्वयं के भीतर देखो ---- चित्त के सारे धुएँ को दूर कर दो और उसे देखो जो कि चेतना की लौ है | स्वयं में जो मर्त्य है, उसके उपर दृष्टि को उठाओ और उसे पहचानो जो कि अमृत है | उसकी पहचान से मूल्यवान और कुछ भी नहीं है: क्योंकि वही पहचान स्वयं के भीतर पशु की मृत्यु और परमात्मा का जन्म बनती है |
क्या बाहर के दिए जलाने से अभी तृप्ति नहीं हुई है ? उनमें ही उलझे रहे तो भीतर का दिया कब जलाओगे ? जीवन अल्प है और समय प्रतिक्षण बीत जाता है | उठो और जागो, अन्यथा समय बीत जाने पर बहुत पछताना होता है |
" जीवन उसका है जो जाग जाता है और ज्योति बन जाता है | " -- आचार्य श्री रजनीश
दीपावली के शुभ अवसर पर हमारी मंगल कामनाएँ स्वीकार करें और आचार्य श्री. रजनीश के उपरोक्त अमृत वचनों को अपने हृदय में स्थान दें | उनमें जो आमंत्रण है, वह आपके हृदय की अभिप्सा बन सके यही हमारी कामना है |
4
….उत्तप्त करता है ? क्या वह ' मैं ' ही नहीं है ?
(से और सब बीमारियाँ पैदा होती है | संसार की और मोक्ष की सब वासनाएँ उसको ही - काट दिया गया )
मैं पूछता हूँ कि क्या यह संभव है कि में स्वयं को ही छोड़ सकूँ -- स्वयं का ही समर्पण कर सकूँ ? क्या मेरा छोड़ना भी ' मेरा ' ही छोड़ना न होगा ? क्या मेरा समर्पण भी ' मेरा ' ही समर्पण नहीं है ? और जो ' मेरा ' हैं, उससे ही तो मेरा ' मैं ' निर्मित होता है | मेरा धन, मेरा पद, मेरी पत्नी, मेरे बच्चे ही 'मैं ' को नहीं बनाते हैं | मेरा सन्यास, मेरा त्याग, मेरा समर्पण, मेरी सेवा, मेरा धर्म, मेरी आत्मा, मेरा मोक्ष भी ' मैं ' को ही बनाते हैं | जहाँ तक कुछ भी ' मेरा ' शेष है, वहाँ तक ' मैं ' भी पूर्णरूपेण अक्षुण्ण है |
' मैं ' की प्रत्येक क्रिया, पाप या पुण्य, भोग या त्याग, ' मैं ' को ही पुष्ट करती है | साधना या समर्पण सभी से वही संगठित और सशक्त होता है |
क्या ' मैं ' को छोड़ने का कोई उपाय नहीं है ? क्या ' मैं ' के त्याग की कोई विधि नहीं है ? नहीं | ' मैं ' को छोड़ने, त्यागने या समर्पित करने का न कोई उपाय है, न विधि है क्योंकि जो भी किया जा सकता है, वह सब अंततः ' मैं ' के लिए ही प्राणप्रद सिद्ध होता है | कर्म के द्वारा, क्रिया के द्वारा, संकल्प के द्वारा, ' मैं ' के बाहर न कोई कभी गया है और न जा सकता क्योंकि संकल्प स्वयम् ही सूक्ष्म रूप में ' मैं ' है | संकल्प ' मैं ' का ही कच्चा रूप है | वही तो पककर ' मैं ' बनता है | ' मैं ' संकल्प की ही तो घनीभूत दशा है | इसलिए, संकल्प से ' मैं ' को कैसे छोड़ा जा सकता है ?
5
" मैं स्वयं को ब्रह्म में लीन करना चाहता हूँ | अहंकार ही दुख है | मैं इस अहंकार को परमात्मा को समर्पित करना चाहता हौं | मैं क्या करूँ ? " एक भक्त ने अत्यंत व्याकुलता से मुझसे पूछा था | उन्हें मैं जानता हूँ | वर्षों से वे भगवान के मंदिर में ही बैठे रहते हैं | भगवान के चरणों में घंटों सिर रखे रोते रहते हैं | उनकी अभिप्सा तो तीव्र है लेकिन दिशा भ्रांत है | क्योंकि जो व्यक्ति ' मैं ' को स्वीकार कर लेता है, वह उस स्वीकृति के कारण ही ' मैं ' बन जाता है | फिर इस ' मैं ' से पीड़ा आती है तो वह इससे छूटना चाहता हैं और भगवान की शरण में समर्पित होना चाहता है, लेकिन इस खोज और समर्पण का केंद्र बिंदु भी वह ' मैं ' ही होता है | क्योंकि. जो समर्पण करना चाहता है, वह कौन है ? जो दुख से, पीड़ा से छूटना चाहता है, वह कौन है ? क्या वह ' मैं ' ही नहीं है ? परमात्मा में
6
हो गये हैं | इसमें ज़्यादा अशोभन और अधार्मिक क्या हो सकता है ? लेकिन प्रचार की महिमा अपार है और सतत प्रचार से निपट असत्य भी सत्य बन जाते हैं ! फिर जो पुजारी-पुरोहित स्वयं शोषण में हैं, वे यदि शोषण की व्यवस्था के समर्थक हों तो आश्चर्य ही कैसा ? धर्मों में समाज की शोषण व्यवस्था के लिए भी सुदृढ़ स्तंभों का काम किया है | काल्पनिक सीधहांतों का जाल बुनकर उन्होंने शोषकों को पुण्यत्मा और शोषितों को पापी सिद्धा किया है | शोषितों को समझाया गया है कि यह उनके दुष्कर्मों का फल है ! सच ही धर्मों ने लोगों को खूब अफ़ीम खिलाई है !
एक अछूत वृद्ध ने सभा के अंत में मुझसे पूछा था : " क्या में मंदिरों में आ सकता हूँ ? "
मैने कहा : " मंदिरों में ? लेकिन किसलिए ? परमात्मा तो स्वयं ही पुरोहितों के मंदिरों में कभी नहीं जाता है ! "
प्रकृति के अतिरिक्त परमात्मा का और कोई मंदिर नहीं है | शेष सब मंदिर और मस्जिद पुरोहितों की ईजाद हैं | परमात्मा से उन मंदिरों का दूर का भी संबंध नहीं | परमात्मा और पुरोहितों में कभी बोल-चाल ही नहीं रहा ! मंदिर पुरोहितों की और पुरोहित शैतान की सृष्टि हैं | वे शैतान के शिष्य हैं | इस कारण ही उनके शास्त्र और संप्रदाय मनुष्य को मनुष्य से लड़ाने के केंद्र रहे हैं | उन्होंने बातें तो प्रेम की कि हैं, और जहर घृणा का फैलाया है | असल में जहर शक्कर चढ़ी गोलियों में देना ही आसान होता है | फिर भी मनुष्य पुरोहितों से सावधान नहीं है | और जब भी उसे परमात्मा का स्मरण आता है, वह पुरोहितों के चक्कर में पड़ जाता है | मनुष्य के परमात्मा से संबंध क्षीण होने का आधारभूत कारण यही है | पुरोहित सदा से ही परमात्मा की हत्या करने में संलग्न रहे हैं | उनके अतिरिक्त परमात्मा का हत्यारा और कोई भी नहीं है | परमात्मा को चुनना है, तो पुजारी को नहीं चुना जा सकता है | उन दोनों की पूजा एक ही साथ नहीं की जा सकती | पुजारी जैसे ही मंदिर में प्रवेश करता है, वैसे ही परमात्मा मंदिर से बाहर हो जाता है | परमात्मा से नाता जोड़ने के लिए, पुरोहित से मुक्त होना आवश्यक है | भक्त और भगवान के बीच वही बाधा है | प्रेम किसी को भी बीच में पसंद नहीं करता है और
अपार काम
7
साथ में लाये शास्त्रों को भी देखते जाते थे | सर्दी की ऋतु भी और कक्ष के बड़े बड़े झरोखों से सुबह की शीतल पवन भी भीतर आ रही थी लेकिन उन सबके माथे से पसीने की धारें बह रहीं थीं |थोड़ा था समय, और उस ताले को खोलने की कठिन थी समस्या और शीघ्र ही जीवन का भाग्यनिर्णय होने वाला था | इससे उसकी बैचेनी और घबराहट स्वाभाविक ही थी | उनके हाथ कांप रहे थे और स्वांस बढ़ गई थी और वे कुछ लिखते के और कुछ लिखा जाना था ! लेकिन जो व्यक्ति रातभर सोया रहा था, उसने न तो ताले का ही अध्ययन किया और न कलम ही उठाई और न कोई गणित ही हाल किया | वह तो शांति से आँखें बंद किये बैठा था | उसके चेहरे पर न कोई चिंता थी, न उत्तेजना थी | उसे देखकर एसा भी नहीं लगता था कि वह कुछ खोज रहा है | उसके भाव और विचार निर्वात गृह में थिर दीपशिखा की भाँति मालूम होते थे | वह था एकदम शांत, मौन और शून्य | लेकिन फिर अचानक वह उठा और अत्यंत सहज और शांत भाव से धीरे धीरे चल कर के द्वार के पास पहुँचा | और फिर उसने अत्यंत आहिस्ते से द्वार का हत्था घुमाया | और आश्चर्य कि द्वार उसके छूते ही खुल गया ! वह खुला हुआ ही था ! वह ताला और उसकी सब कथा धोखा थी ! लेकिन उसके जो वो मित्र गणित की पहेलियाँ बूझ रहे थे, उन्हें इस सबका कुछ भी पता नहीं चला | उन्हें यह भी ज्ञात नहीं था कि उनका एक साथी अब भीतर नहीं है | यह चौंकानेवाला सत्य तो उन्होंने तभी जाना जब सम्राट द्वार के भीतर आया और उसने उनसे कहा : " महानुभवों, अब ये गणित बंद करो | जिसे नकालना था, वह निकल चुका है ! " वे बेचारे तो अपनी आँखों पर विश्वास ही नहीं कर पा रहे थे ! उनका वह सब भाँति अयोग्य साथी सम्राट के पीछे खड़ा हुआ था ! सम्राट ने उन्हें अवाक देखकर यह भी कहा था : " जीवन में भी सबके पहले यही महत्वपूर्ण है कि देखा जावे कि समस्या वस्तुतः है भी या नहीं ? ताला बंद भी है या नहीं ? जो समस्या को ही नहीं खोजता और समाधान करने में पड़ जाता है, वह स्वभावतः ही भूल में पड़ता है और सदा के लिया भटक जाता है | "
यह कथा अदभुत रूप से सत्य है |
परमात्मा के संबंध में भी मैने यही पाया है | उसका द्वार भी सदा से ही खुला हुआ है | और उस पर लगे तालों की सब अफवाहें एकदम असत्य हैं | लेकिन उसके द्वार पे प्रवेश पाने के लिए उत्सुक उम्मीदवार उन तालों के भय से शास्त्रों को साथ बाँध लेते हैं | फिर ये शास्त्र और सिद्धांत ही उनके लिए ताले बन जाते हैं | फिर वे उनके द्वार के बाहर ही बैठे रह जाते
8
हैं क्योंकि जबतक वे शास्त्रों की गणित पहेलियाँ को हल न कर लें तब तक प्रवेश संभव ही कैसे है ? मुश्किल से ही कोई इतना दुस्साह करता है कि बिना शास्त्रों के ही उसके द्वार पर पहुँच जाता हो | मैं एसे ही पहुँच गया था | पहुँचकर देखा की जहाँतक आँखें देख सकतीं थी वहाँ तक पंडितगण अपने अपने शास्त्रों के ढेर में दबे बैठे हूए थे और किन्हीं सवालों के हल करने में इस भाँति तल्लीन थे कि मुझ अपात्र का वहाँ पहुँच जाना भी उन्हें ज्ञात नहीं हुआ था | मैं तो गया और उसके द्वार का हत्था घुमाया और पाया कि वह तो खुला ही हुआ है ! पहले तो यही समझा कि मेरे भाग्य से ज़रूर ही द्वारपालों से कोई भूल हो गई होगी अन्यथा यह कैसे संभव था कि जो शास्त्र न जाने, सिद्धांत न जाने, वह सत्य के जगत में प्रवेश पा ले ? और मैं डरा-डरा ही भीतर प्रविष्ट हुआ था | लेकिन जो वहाँ पहले से ही प्रविष्ट हो गये थे, उन्होंने बताया कि परमात्मा के द्वार बंद होने की खबर तो शैतान के द्वारा फैलाई गई निरि झूठी अफवाह है, क्योंकि उसके द्वार तो सदा से ही खुले हुए हैं | निश्चय ही प्रेम के द्वार भी क्या बंद हो सकते हैं ? निश्चय ही सत्य के द्वार भी क्या बंद हो सकते हैं ?
9R
" धर्म की ओर पहला कदम क्या है ? मानसिक गुलामी की ज़ंजीरों को तोड़ डालना | श्रद्धाओं, विश्वासों और अंधी कल्पनाओं से मुक्त हो जाना ही धर्म की ओर पहला कदम है | "
धुलिया में सत्संग
आचार्यश्री. 4 और 5 अक्तूबर के लिए धुलिया पधारे उन्होंने धुलिया में तीन जनसभाओं को संबोधित किया | धुलिया की विचारशील जनता में उनके विचारों से क्रांति की एक लहर फैल गई | जीवन के प्रति उनका दृष्टिकोण ही नया और मौलिक है | उनकी प्रत्येक बात उनकी अपनी ही अनुभूति से उत्पन्न है | फिर भी वे इतनी सरलता से प्रत्येक बात समझाते हैं कि वह सभी की समझ में आ जाती है | बूढ़े और बच्चे सभी उन्हें सुनकर आनंद मग्न हो जाते हैं | उन्होंने यहाँ कहा : " धर्म का श्रद्धा और विश्वास से संबंध अत्यंत घातक सिद्ध हुआ है | उनके कारण ही धर्म अंधविश्वास बन सका है और हज़ारों वर्षों से मनुष्य को अंधकार में रहना पड़ रहा है | विश्वास मानसिक अन्धेपन और गुलामी का ही दूसरा नाम है | और मानसिक रूप से गुलाम चेतना कैसे मुक्त हो सकती है ----- कैसे आनंद पा सकती है -------- कैसे आलोक को उपलब्ध हो सकती है ? इसलिए, मेरी दृष्टि में तो व्यक्ति की चेतना में धार्मिक क्रांति की शुरुआत अंधविश्वासों के सारे जाले तोड़ देने से ही शुरू होती है | धर्म की और वही पहला कदम है | "


" जीवन का संगीत है, संतुलन में | अतिवाद पीड़ा है, तनाव है | न शरीर, न आत्मा | न विज्ञान , न धर्म ---- वरन जीवन की समग्रता और पूर्णता पर एक सँस्कृति निर्मित करनी है | "
धुलिया महाविद्यालय में :
4 अक्तूबर की सुबह आचार्यश्री का आगमन धुलिया महाविद्यालय के विधयर्थीयों के बीच हुआ | विद्यार्थियों ने उनकी वाणी अभूतपूर्व शांति और तन्मयता से सुनी | आचार्यश्री ने यहाँ कहा : " धर्म भी अकेला अधूरा है और विज्ञान भी | शरीर और आत्मा के अद्भुत मिलन और संतुलन में जैसे मनुष्य का जीवन है एसे ही धर्म और विज्ञान के संतुलन से ही मनुष्य की पूर्ण संस्कृति का जन्म हो सकता है |अबतक की सारी सभ्यताएँ और संकृतियाँ अधूरी थीं | इससे ही उनमें मनुष्य का कल्याण भी नहीं हुआ | या तो वे शरीरवादी थीं या आत्मवादी | लेकिन ये दोनों अतियाँ हैं | और अति एक तनाव है | वह एक रोग हैं | वह एक पीड़ा है | जीवन का संगीत तो सदा संतुलन में है, मध्य में है, अति में नहीं , अनति में है | भविष्य में एक एसी ही पूर्ण संस्कृति को जन्म देना है | वह पूर्ण संस्कृति ही मनुष्यता को दुखों और पीड़ाओं के उपर उठा सकती है | "
9V
65 | 76 | 70 | 1 | 18
        65
        ---
         117
         65
        ---
         520
         520
        ------
10
देश के लिए मैं सबकुछ ------- स्वयं को भी खोने को सदा तैयार हूँ ---- आचार्य रजनीश
आचार्यश्री रजनीश को गुजरात राज्य सरकार ने एक विशाल आश्रम के निर्माण के निमित्त 6.00 or 600 एकड़ भूमि नारगोल समुद्र तट पर देने का निश्चय किया था | 30 -35 लाख की यह भूमि आचारयाश्री रजनीश को निःशुल्क दी जा रही थी | लेकिन उनके गाँधीवाद के संबंध में प्रगट विरोधी विचारों के कारण गुजरात सरकार ने एक विज्ञाप्ति के द्वारा यह सूचित किया है कि वह भूमि अब उन्हें नहीं दी जा सकेगी | आचार्यश्री रजनीश को जैसे ही उनके चिंतित मित्रों ने यह सूचना दी वे हँसने लगे और बोले : " भूमि के लिए ग़लत विचारों का समर्थन नहीं किया जा सकता है | एक छोटे से सत्य के लिए भी बड़ी से बड़ी संपदा छोड़ी जा सकती है | संपदा का मूल्य ही क्या है ? मूल्य तो सदा सत्य का है | सत्य है तो सब कुछ है | सत्य नहीं, तो सब कुछ भी हो तो कुछ भी नहीं है | मैं गाँधी के व्यक्तित्व का उपासक हूँ लेकिन उनके विचारों का नहीं | उन जैसा नैतिक महापुरुष हज़ारों वर्षों में एकाध बार ही पैदा होता है | लेकिन उनके विचार देश के लिए पीछे ले जाने वाले हैं | उनकी दृष्टि सामंतवादी - पूंजीवादी है | देश ने उनकी बात मानी तो हम अपने हाथों ही अपना आत्मघात कर लेंगे | इसलिए मैने निश्चय किया है कि गाँधी शताब्दी वर्ष में गाँधीवाद के विरोध में एक आंदोलन चलाना आवश्यक है | चाहे उसका मूल्य कुछ भी क्यों न चुकाना पड़े | देश के हित के लिए तो मैं सबकुछ ---- स्वयं को भी खोने को सदा तैयार हूँ | "
11
आचार्यश्री. रजनीश की वाणी ने हज़ारों
हृदयों के तार झनझना दिए हैं | जो स्वयं
से निराश हो गये थे, वे भी स्वयं के भीतर
संगीत की संभावना से आशान्वित हुए हैं |
हज़ारों निराश आँखें आशा से भर गई हैं |
प्रकाश का जब अवतरण होता है तो एसा
होना स्वाभाविक ही है
आचार्यश्री. की अमृतवाणी संकलित होकर
सबतक पहुँच सके इसी दृष्टि से ' नये बीज '
का प्रकाशन हम कर रहे हैं ' | जिनकी मानस-
-भूमि तैयार है, वे इन विचार-बीजों से
एक बिल्कुल ही अभिनव जीवन में
प्रवेश कर सकेंगे, एसी हमारी आशा
और कामना है |
स्मरण रहे कि अंधकार कितना ही घना
क्यों ना हो, परमात्मा का प्रकाश सदा ही मौजूद रहता है
और जिन्हें प्यास होती है वे उसे अवश्य
ही खोज लेते हैं |
12
ज्ञान के मार्ग में विश्वास की वृत्ति
|सबसे बड़ा अवरोध है | विचार की
|मुक्ति में विश्वास की ही अड़चन है |
|विश्वास की जंजीरें ही स्वयं की विचारशक्ति को
|जीवन की यात्रा नहीं करने देती
|और उनमें घिरा व्यक्ति पानी के
|घिरे डबरों की भाँति हो जाता है |
|फिर वह सड़ता है और नष्ट होता
|है लेकिन सागर की ओर दौड़ना उसे
|संभव नहीं रह जाता | बांधो नहीं
|और स्वयं को बांधो नहीं | खोजो
|-------- खोजने में ही सत्य -
|-जीवन की प्राप्ति है |
प्रवचनों से
  • आनंद की दिशा (काट दिया)
13
जीवन एक यात्रा है | हम किसी बिंदु से चल रहे
|हैं और हमें किसी बिंदु तक पहुँचना है | हमारा
|होना एक विकास है | हम पूर्ण नहीं हैं, किंतु हमें
|पूर्ण होना है | पूर्णता के लिए न कोई विकास है
|न कोई यात्रा है | सब विकास और यात्रा
|अपूर्णता में है | हम यात्रा में हैं | इस बोध का अर्थ
|है कि हम अपूर्ण हैं | अपनी अपूर्णता को ध्यान
|में रखो | अपनी सीमाओं पर मनन करने से
|अपूर्णता का दर्शन होता है | और अपूर्णता का बोध
|पूर्णता की अभिप्सा को जन्म देता है | जिसे दिखेगा
|कि वह अपूर्ण है, वह पूर्ण के लिए आकांक्षा से
|भर ही जावेगा | जो अनुभव करता है कि वह
|अस्वस्थ है, वह सहज ही स्वास्थ के लिए
|कामना करने लगता है | अंधकार का अनुभव होने
|लगे तो प्रकाश की प्यास पैदा हो ही जाती है |
14R
सूरज उग रहा था और हम झील पर नौका
में थे | किसी ने आचार्यश्री. रजनीश से पूछा
था : ' क्या संपूर्ण धर्म साधना को एक सूत्र में
कहा जा सकता है ? ' इस प्रश को सुन कर वे हँसने
लगे थे और बोले थे : "धर्म का रहस्य तो
अत्यंत बीजरूप है | एक छोटे से सूत्र में ही उसे
कहा जा सकता है, अन्यथा बड़े से बड़े ग्रंथ भी उसे कहने
में समर्थ नहीं हैं | ऐसा ही एक बीज-मंत्र
मैं बताता हूँ | " अहं एतत् न | " ' मैं यह नहीं हूँ | ' इन
तीन शब्दों
के इस छोटे से सूत्र को जो साध लेता है, वह स्वयं
तक और सत्य तक सहज ही पहुँच जाता है |
और उसे ज्ञात होता है कि
नश्वर नहीं , ईश्वर है | "
14V
पूर्णिमा थी और हम सब आचार्यश्री. रजनीश के
निकट मौन बैठे थे | वे बहुत देर तक चंद्रमा को
देखते रहे और फिर बोले : " होनेत ने कहा है '
कोई भी एसी झोपड़ी नहीं है, जहाँ चंद्रमा की रुपहली
किरणें न पहुँचे' |" और, मैं कहता हूँ कि कोई
भी एसा मनुष्य नहीं है, जहाँ परमात्मा की
ज्योति न पहुँचती हो | पर चंद्रमा को देखने के
लिए आँखें चाहिए और परमात्मा को देखने
के लिए भी | किंतु, जिन आँखों से परमात्मा
की ज्योति देखी जाती है, उन्हें श्रम और
साधना से स्वयं ही पैदा करना होता है | "