Manuscripts ~ Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये): Difference between revisions

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:<u>मिट्टी के दीए</u>
:आचार्य श्री रजनीश के प्रवचनों से संकलित बोध कथायें
 
:‘मैं मनुष्य के आर-पार देखता हूं तो क्या पाता हूं? पाता हूं कि मनुष्य भी मिट्टी का एक दिया है। लेकिन वह मिट्टी का दिया मात्र ही नहीं है। उसमें वह ज्योति-शिखा भी है जो कि निरंतर सूर्य की ओर ऊपर उठती रहती है। मिट्टी उसकी देह है। उसकी आत्मा तो यह ज्योति ही है। किंतु जो इस सतत उर्ध्वगामी ज्योति-शिखा को विस्मृत कर देता है, वह बस मिट्टी ही रह जाता है। उसके जीवन में उर्ध्वगमन बंद हो जाता है। और जहां उर्ध्वगमन नहीं है, वहां जीवन ही नहीं है।’
:‘मित्र, स्वयं के भीतर देखो। चित्त के सारे धुयें को दूर कर दो और उसे देखो जो कि चेतना की लौ है। स्वयं में जो मर्त्य है उसके ऊपर दृष्टि को उठाओ और उसे पहचनो जो कि अमृत है! उसकी पहचान से मूल्यवान कुछ भी नहीं है। क्योंकि वही पहचान स्वयं के भीतर पशु की मृत्यु और परमात्मा का जन्म बनती है।’
 
:आचार्य श्री रजनीश के इन अमृत शब्दों के साथ उनके प्रवचनों, चर्चाओं और पत्रों से संकलित बोध कथाओं का यह संग्रह हम आपको भेंट करते हुये अत्यंत आनंद अनुभव कर रहे हैं। परमात्मा उनकी वाणी को आपके भीतर एक ऐसी अभीप्सा बना दे, जो कि चित्त के सोये जीवन से आत्मा की जाग्रति के लिये एक अभिनव प्रेरणा और परिवर्तन बन जाती है। परमात्मा से यही हमारी प्रार्थना और कामना है।
:इस संकलन को प्रो. श्री अरविंद ने अत्यंत श्रद्धा और श्रम से तैयार किया है। तदर्थ हम उनके हृदय से ऋणी और आभारी हैं।
 
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Revision as of 14:02, 29 April 2018


The Earthen Lamps

year
1966
notes
Published in Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये) and The Earthen Lamps.
74 sheets plus 17 written on reverse.
Page numbers showing "R" and "V" refer to "Recto and Verso".


page no original photo enhanced photo Hindi transcript
1R- cover
मिट्टी के दीए
आचार्य श्री रजनीश के प्रवचनों से संकलित बोध कथायें
‘मैं मनुष्य के आर-पार देखता हूं तो क्या पाता हूं? पाता हूं कि मनुष्य भी मिट्टी का एक दिया है। लेकिन वह मिट्टी का दिया मात्र ही नहीं है। उसमें वह ज्योति-शिखा भी है जो कि निरंतर सूर्य की ओर ऊपर उठती रहती है। मिट्टी उसकी देह है। उसकी आत्मा तो यह ज्योति ही है। किंतु जो इस सतत उर्ध्वगामी ज्योति-शिखा को विस्मृत कर देता है, वह बस मिट्टी ही रह जाता है। उसके जीवन में उर्ध्वगमन बंद हो जाता है। और जहां उर्ध्वगमन नहीं है, वहां जीवन ही नहीं है।’
‘मित्र, स्वयं के भीतर देखो। चित्त के सारे धुयें को दूर कर दो और उसे देखो जो कि चेतना की लौ है। स्वयं में जो मर्त्य है उसके ऊपर दृष्टि को उठाओ और उसे पहचनो जो कि अमृत है! उसकी पहचान से मूल्यवान कुछ भी नहीं है। क्योंकि वही पहचान स्वयं के भीतर पशु की मृत्यु और परमात्मा का जन्म बनती है।’
आचार्य श्री रजनीश के इन अमृत शब्दों के साथ उनके प्रवचनों, चर्चाओं और पत्रों से संकलित बोध कथाओं का यह संग्रह हम आपको भेंट करते हुये अत्यंत आनंद अनुभव कर रहे हैं। परमात्मा उनकी वाणी को आपके भीतर एक ऐसी अभीप्सा बना दे, जो कि चित्त के सोये जीवन से आत्मा की जाग्रति के लिये एक अभिनव प्रेरणा और परिवर्तन बन जाती है। परमात्मा से यही हमारी प्रार्थना और कामना है।
इस संकलन को प्रो. श्री अरविंद ने अत्यंत श्रद्धा और श्रम से तैयार किया है। तदर्थ हम उनके हृदय से ऋणी और आभारी हैं।
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