Manuscripts ~ Phool Aur Phool Aur Phool, Bhag 1 (फूल और फूल और फूल, भाग 1): Difference between revisions

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Revision as of 04:21, 22 June 2018

Flowers and Flowers and Flowers

year
1966
notes
21 sheets plus 3 written on reverse.
Page numbers showing "R" and "V" refer to "Recto and Verso".


page no original photo enhanced photo Hindi transcript
1
फूल और फूल और फूल
(प्रवचनों से संकलित बोधकथाएं)
संकलनः अरविंद
कथा नम्बर-1
मैं देखता हूं कि प्रभु का द्वार तो मनुष्य के अति निकट है लेकिन मनुष्य उससे बहुत दूर है। क्योंकि न तो वह उस द्वार की ओर देखता ही है और न ही उसे खटखटाता है।
और मैं देखता हूं कि आनंद का खजाना तो मनुष्य के पैरों के ही नीचे है लेकिन न तो वह उसे खोजता है और न ही खोदता है।
एक रात सुलतान महमूद घोड़े पर बैठकर अकेला सैर करने निकला था। राह में उसने देखा कि एक आदमी सिर झुकाए सोने के कणों के लिए मिट्टी छान रहा है। शायद उसकी खोज दिन भर से चल रही थी। क्योंकि उसके सामने छानी हुई मिट्टी का एक बड़ा ढेर लगा हुआ था। और शायद उसकी खोज निष्फल ही रही थी। क्योंकि यदि वह सफल हो गया होता तो आधी रात गए भी अपना कार्य नहीं जारी न रखता। सुलतान क्षणभर उसे अपने कार्य में डूबा हुआ देखता रहा और फिर अपना स्वर्णिम बहुमूल्य बाजूबंद मिट्टी के ढेर पर फेंक कर वायु वेग से आगे बढ़ गया।
अगली रात वह फिर उसी राह से निकला तो उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब उसने देखा कि वह आदमी अब भी उसी तरह मिट्टी छानने में मशगूल है। उसने उस आदमी से कहाः ‘पागल, कल तुझे जो बाजूबंद मिला, वह तो पूरी एक दुनिया खरीदने के लिए काफी है। फिर भी तू मिट्टी छानना बंद नहीं करता है?’
वह आदमी उत्तर में हंसा और बोलाः ‘आह! इसीलिए तो अब जीवन भर खोज जारी रखनी पड़ेगी। कल ऐसी बढ़िया चीज मिली, इसीलिए तो अब अथक खोजना आवश्यक हो गया है।’
मैं कहता हूं कि जो उसी आदमी की भांति सतत खोजना जारी रखता है, केवल वही और केवल वही परमात्मा के खजाने को उपलब्ध हो पाता है।
वह खजाना तो निकट है लेकिन मनुष्य खोदता ही नहीं है। वह द्वार तो सामने है लेकिन मनुष्य खोजता ही नहीं है।
2R
कथा नम्बर-2
जीवन बहुत उलझा हुआ है लेकिन अक्सर जो उसे सुलझाने में लगते हैं वे उसे और भी उलझा लेते हैं।
जीवन निश्चय ही बड़ी समस्या है लेकिन उसके लिए प्रस्तावित समाधान उसे और भी बड़ी समस्या बना देते हैं।
क्यों? लेकिन एसा क्यों होता है?
एक विश्वविद्यालय में विधीशास्त्र के एक अध्यापक अपने जीवनभर वर्ष के पहले दिन की पढ़ाई तखते पर ‘चार’ और ‘दो’ के अंक लिखकर प्रारंभ करते थे। वे दोनों अंकों को लिखकर विद्यार्थियों से पूछते थे : ‘क्या हल है?'
निश्चय ही कोई विद्यार्थी शीघ्रता से कहता : ‘छः!’
और फिर कोई दूसरा कहता : ‘दो!’
लेकिन अध्यापक को चुप सिर हिलाते देखकर अंततः अंतिम संभावना को सोचकर अधिकतम विद्यार्थी चिल्लाते ‘आठ’। लेकिन अध्यापक तब भी अपना अस्वीकार सूचक सिर हिलाते ही जाते थे!
और तब सन्नाटा छा जाता था क्योंकि और कोई उत्तर तो हो ही नहीं सकता था!
फिर वे अध्यापक हंसते थे और कहते थे : ‘मित्रो, आप सभी ने अत्यंत आधारभूत प्रश्न ही नहीं पूछा तो हल कैसे संभव हो सकता है? आपने यही नहीं जानना चाहा कि वस्तुतः समस्या क्या है? और जो समस्या को सम्यक रूप से जाने बिना ही समाधान जानने मैं लग जाता है, निश्चय ही वह समाधान तो पाता ही नहीं है और उल्टे समस्या को और उलझा लेता है।’
क्या यह बात सत्य नहीं है कि समस्या को जाने बिना ही समाधान खोज और पकड़ लिए जाते हैं; जबकि समाधान नहीं, महत्वपूर्ण सदा समस्या ही है। क्योंकि अंततः तो समस्या को उसकी समग्रता में जान लेना ही समाधान बनता है।
और गणित में एसी भूल हो तो हो लेकिन क्या जीवन में भी ऐसा ही नहीं होता है?
क्या वास्तविक समस्या को जाने बिना ही जब हम समाधान के लिए श्रम करने लगते हैं तो सारा श्रम व्यर्थ ही नहीं, आत्मघाती भी सिद्ध नहीं होता है?
मित्र, समस्या को ही जो सही रूप में नहीं जानता है, वह यदि किसी अन्य ही प्रश्न को प्रश्न जानकर हल करता हो तो भी आश्चर्य नहीं है।
क्या आपको उस जहाज़ के बाबत कुछ भी पता नहीं है, जो कि डूब रहा था; और कुछ लोग उसे डूबने से बचाने के लिए उस पर पालिश कर रहे थे। मैं तो सोचता हूँ कि आपको उस जहाज़ के संबंध में ज़रूर ही पता होगा, क्योंकि मैं तो आपको भी उस पर ही सवार देखता हूँ; और न केवल सवार ही देखता हूँ बल्कि यह भी देखता हूँ कि जहाज़ डूब रहा है और आप उसे बचाने के लिए उस पर पालिश करने में लगे हैं!
मित्र, वह जहाज़ जीवन का ही जहाज़ तो है।
2V
3
कथा नम्बर-3
एक वृद्ध मेरे पास आते हैं। वे कहते हैं : ‘नयी पीढ़ी बिल्कुल बिगड़ गयी है।’ यह उनकी रोज की ही कथा है।
एक दिन मैंने उनसे एक कहानी कही : ‘एक व्यक्ति के ऑपरेशन के बाद उसके शरीर में बंदर की ग्रंथियाँ लगा दी गयीं थीं। फिर उसका विवाह हुआ। और फिर कालांतर में पत्नी प्रसव के लिए अस्पताल गई। पति प्रसूतिकक्ष के बाहर उत्सुकता से चक्कर लगा रहा था। और जैसे ही नर्स बाहर आई, उसने हाथ पकड़ लिए और कहा : ‘भगवान के लिए जल्दी बोलो। लड़का या लड़की?’
उस नर्स ने कहा : ‘इतने अधीर मत होइए। वह पंखे से नीचे उतर जाये, तब तो बताऊं?'
वह व्यक्ति बोला : ‘हे भगवान! क्या वह बंदर है?' और फिर थोड़ी देर तक वह चुप रहा और पुनः बोला : ‘नयी पीढ़ी का कोई भरोसा नहीं है। लेकिन यह तो हद हो गई कि आदमी से और बंदर पैदा हो?'
उसने यह सब तो कहा लेकिन एक बार भी यह नहीं सोचा कि यह नयी पीढ़ी आकस्मिक नहीं है और बंदर की ग्रंथियाँ स्वयं उसके शरीर में ही लगी हुई हैं जिनका कि यह स्वाभाविक परिणाम है।
लेकिन पुरानी पीढ़ी नयी पीढ़ी को दोष देती है और नयी पीढ़ी फिर और नयी पीढ़ी को दोष देती है, और एसे वे ग्रंथियाँ सुरक्षित रही आतीं हैं जो कि मनुष्य की सारी विकृतियों के मूल में हैं। और यह क्रम सदा से चलता चला आ रहा है। पुरानी से पुरानी किताबें यही कहतीं हैं कि नयी पीढ़ी बिल्कुल बिगड़ गई है। लेकिन जब तक यह बात कही जाती रहेगी तब तक नई पीढ़ियाँ बिगड़ती ही रहेंगी।
हाँ, किसी दिन जब कोई पीढ़ी इतनी समर्थ और साहसी और समझदार होगी कि कह सके कि ‘हमारी पीढ़ी ही रुग्ण और बीमार है’ तो शायद वह स्वयं की उन ग्रंथियों को खोज सके जो कि दुर्भाग्य की काली छाया की भाँति मनुष्य का पीछा कर रही हैं। और एक बार उन ग्रंथियों की खोज हो सके तो उनसे मुक्त होना कठिन नहीं है। वस्तुतः तो उन्हें जान लेना ही उनसे मुक्त हो जाना है।
4
कथा नम्बर-4
प्रेम जिस द्वार के लिए कुंजी है। ज्ञान उसी द्वार के लिए ताला है।
और मैंने देखा है कि जीवन उनके पास रोता है जो कि ज्ञान से भरे हैं लेकिन प्रेम से खाली हैं।
एक चरवाहे को जंगल में पड़ा एक हीरा मिल गया था। उसकी चमक से प्रभावित हो उसने उसे उठा लिया था और अपनी पगड़ी में खोंस लिया था। सूर्य की किरणों में चमकते उस बहुमूल्य हीरे को रास्ते से गुज़रते एक जौहरी ने देखा तो वह हैरान हो गया, क्योंकि इतना बड़ा हीरा तो उसने अपने जीवन भर में भी नहीं देखा था।
उस जौहरी ने चरवाहे से कहा : ‘क्या इस पत्थर को बेचोगे? मैं इसके दो पैसे दे सकता हूँ?'
वह चरवाहा बोला : ‘नहीं। पैसों की बात न करें। यह पत्थर मुझे बड़ा प्यारा है, मैं इसे पैसों में नहीं बेच सकूँगा। लेकिन, आपको पसंद आ गया है तो इसे आप ले लें। लेकिन एक वचन दे दें कि इसे सम्हालकर रखेंगे। यह पत्थर बड़ा प्यारा है!’
जौहरी ने हीरा रख लिया और अपने घोड़े की रफ़्तार तेज की कि कहीं उस चरवाहे का मन न बदल जाए और कहीं वह छोड़े गये दो पैसे न माँगने लगे! लेकिन जैसे ही उसने घोड़ा बढ़ाया की उसने देखा कि हीरा रो रहा है! उसने हीरे से पूछा : ‘मित्र रोते क्यों हो? मैं तो तुम्हारा पारखी हूँ? वह मूर्ख चरवाहा तो तुम्हें जानता ही न था।’
लेकिन यह सुन वह हीरा और भी ज़ोर से रोने लगा था और बोला था : ‘वह मेरे मूल्य को तो नहीं जानता था, लेकिन मुझे जानता था। वह ज्ञानी तो नहीं था। लेकिन प्रेमी था। और प्रेम जो जानता है, वह ज्ञान नहीं जान पाता है।’
5
कथा नम्बर-5
सत्य की खोज में सम्यक निरीक्षण से महत्वपूर्ण और कुछ भी नहीं है। लेकिन, हम तो करीब करीब सोये-सोये ही जीते हैं, इसलिए जागरूक निरीक्षण का जन्म ही नहीं हो पाता है। जो जगत हमारे बाहर है, उसके प्रति भी खुली हुई आँखें और निरीक्षण करता हुआ चित्त चाहिए और तभी उस जगत के निरीक्षण और दर्शन में भी हम समर्थ हो सकते हैं जो कि हमारे भीतर है।
मैं आपको एक वैज्ञानिक की प्रयोगशाला में ले चलता हूँ। कुछ विद्यार्थी वहाँ इकट्ठे हैं और एक वृद्ध वैज्ञानिक उन्हें कुछ समझा रहा है। वह कह रहा है : ‘सत्य के वैज्ञानिक अनुसंधान में दो बातें सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं- साहस और निरीक्षण। इन दो को सदा स्मरण रखें और प्रयोग के तौर पर देखें : मेरे हाथ में नमक के घोल से भरा हुआ एक गिलास है। में इसमें अपनी एक अंगुली डालकर फिर उसे अपनी जीभ से लगाऊँगा। और जैसा मैं करूँगा, वैसा ही आपमें से भी प्रत्येक को बाद में करना है।’
उस वृद्ध ने घोल में अंगुली डाली और जीभ से लगाई। फिर प्रत्येक विद्यार्थी ने भी वैसा ही किया। वह वृद्ध तो घोल चखकर भी हंसता रहा लेकिन विद्यार्थियों को लगा जैसे उल्टी हो जाएगी। लेकिन साहस करना ज़रूरी था, सो उन्होंने साहस किया और उस घोल में डुबाई हुई उंगली को जीभ पर रखा। जब सारे विद्यार्थी ऐसा कर चुके तो वह वृद्ध वैज्ञानिक खूब हँसने लगा फिर बोला : ‘मेरे बेटो, जहाँ तक साहस की बात है, मैं तुम्हें पूरे अंक देता हूँ लेकिन निरीक्षण के विषय में तुम सब असफल रहे। क्योंकि तुमने नहीं देखा कि मैंने जो उंगली घोल में डुबाई थी, वही जीभ से नहीं लगाई थी!’


6R
कथा नम्बर-6
विचार से सत्य नहीं पाया जा सकता है। क्योंकि, विचार की सीमा है और सत्य असीम है।
विचार से सत्य नहीं पाया जा सकता है। क्योंकि, विचार ज्ञात है और सत्य अज्ञात है।
विचार से सत्य नहीं पाया जा सकता है। क्योंकि, विचार शब्द है और सत्य शून्य है।
विचार से सत्य नहीं पाया जा सकता है। क्योंकि, विचार एक क्षुद्र प्याली है और सत्य एक अनंत सागर है।
संत औगास्टिनस एक सुबह सागर तट पर था। सूर्य निकल रहा था और वह अकेला ही घूमने निकल पड़ा था। अनेक रात्रियों के जागरण से उनकी आँखें थकी-मंदी थी। सत्य की खोज में वह करीब-करीब सब शांति खो चुका था। परमात्मा को पाने के विचार में ही दिवस और रात्रि कब बीत जाते थे, उसे पता ही नहीं पड़ता था। शास्त्र और शास्त्र, शब्द और शब्द, विचार और विचार- वह इनके ही बोझ के नीचे पूरी तरह दब गया था। लेकिन उस दिन सुबह सब कुछ बदल गया। उसका उस सुबह सागर तट पर घूमने आ जाना बड़ा सौभाग्यपूर्ण सिद्ध हुआ। वह गया था तो विचारों के बोझ से दबा था और लौटा तो एकदम निर्भार था। उसने सागर के किनारे एक छोटे से बच्चे को खड़े देखा जो कि अपने हाथ में एक छोटी-सी प्याली लिए हुए था और अत्यंत चिंता और विचार में डूबा था। स्वभावतः उसने उस बच्चे से पूछा : ‘मेरे बेटे, तुम यहाँ क्या कर रहे हो और किस चिंता में डूबे हुए हो?'
उस बच्चे ने औगास्टिनस की तरफ देखा और कहा : ‘चिंतित तो आप भी हैं। क्षमा करें और पहले आप ही अपनी चिंता का कारण बताएँ? हो सकता है कि जो मेरी चिंता है, वही आपकी भी हो? लेकिन आपकी प्याली कहाँ है?'
औगास्टिनस तो कुछ समझा नहीं और प्याली की बात से उसे हँसी भी आ गई। प्रगटतः उसने कहा : ‘मैं सत्य की खोज में हूँ। और उसी के कारण चिंतित हूँ।’
वह बच्चा बोला; ‘मैं तो इस प्याली में सागर को भरकर घर ले जाना चाहता हूँ, लेकिन सागर प्याली में आता ही नहीं है।’
औगास्टिनस ने यह सुना :‘में तो इस प्याली में सागर को भरकर घर ले जाना चाहता हूं लेकिन सागर प्याली में आता ही नहीं है।’ और उसे अपनी बुद्धि की प्याली भी दिखाई पड़ गई और उसे सत्य का सागर भी दिखाई पड़ गया। वह हंसने लगा और उस बच्चे से बोला : ‘मित्र, हम दोनों ही बच्चे हैं क्योंकि केवल बच्चे ही सागर को प्याली में भरना चाहते हैं।’
औगास्टिनस तो लौट गया और भूल गया प्याली को और उस सागर को। लेकिन वह बच्चा अभी भी सागर किनारे अपनी प्याली लिये चिंतित खड़ा है। उसे पता ही नहीं है कि हाथ की प्याली ही तो सागर से दूरी है।
और एक ही बच्चा खड़ा हो तो कोई समझाये भी, पूरा सागर तट ही तो बच्चों से भरा है। वे अपनी-अपनी प्यालियां लिये हुए खड़े हैं, और रो रहे हैं कि सागर उनकी प्यालियों में नहीं समाता है। और कभी-कभी उस सागर तट पर इस बात पर भी संघर्ष हो जाता है कि किसकी प्याली बड़ी है और किसकी प्याली में सागर के समा जाने की सर्वाधिक संभावना है?
अब कौन उन्हें समझाये कि प्याली जितनी बड़ी हो, सागर के समाने की संभावना उतनी कम हो जाती है। क्योंकि बड़ी प्याली का अहंकार उसे छूटने ही नहीं देता है। और सागर तो उन्हें मिलता है जो प्याली को छोड़ने का साहस दिखा पाते हैं। हां, ऐसा भी कभी-कभी होता है कि उन थोड़े से लोगों में से भी कोई वहां पहुंच जाता है जिसने कि अपनी प्याली छोड़कर सागर को पा लिया है। लेकिन उस सागर तट के वासी ऐसे व्यक्तियों को बड़ी संदेह की दृष्टि से देखते हैं। यह बात उन्हें बिल्कुल ही असंभव मालूम होती है कि बिना प्याली के भी कभी कोई सागर को पा सकता है?
6V
7
कथा नम्बर-7
मैं जीवन में उन्हें हारते देखता हूँ जो कि जीतना चाहते थे। क्या जीतने की आकांक्षा हारने का कारण नहीं बन जाती है?
आँधी आती है तो आकाश को छूते वृक्ष टूट कर सदा के लिए गिर जाते हैं और घास के छोटे-छोटे पौधे आँधी के साथ डोलते रहते हैं और बच जाते हैं।
पर्वतों से जल की धाराएँ गिरती हैं- कोमल, अत्यंत कोमल जल की धाराएँ और उनके मार्ग में खड़े होते हैं विशाल पत्थर- कठोर शिलाखंड। लेकिन एक दिन पाया जाता है, जल तो अब भी बह रहा है लेकिन वे कठोर शिलाखंड टूट-टूटकर, रेत होकर एक दिन मालूम नहीं कहाँ खो गये हैं।
परमात्मा के मार्ग अनूठे हैं। और जीवन बहुत रहस्यपूर्ण है। इसलिए तो गणित के नियम जीवन के समाधान में बिल्कुल ही व्यर्थ भी हुए देखे जाते हैं।
कंफ्यूसियस मरणशय्या पर थे। उन्होंने अपने शिष्यों को बुलाया और कहा : ‘मेरे बेटो, ज़रा मेरे मुँह में झाँककर तो देखो कि जीभ है या नहीं?'
निश्चय ही शिष्य हैरान हुए होंगे उन्होंने देखा और कहा : ‘गुरुदेव, जीभ है!’
कंफ्यूसियस ने पूछा : ‘और दाँत?'
उन्होंने कहा : ‘दाँत तो एक भी नहीं है!’
कंफ्यूसियस ने पूछा : ‘कहाँ गये दाँत? जीभ का जन्म तो हुआ था पहले और दाँतों का बाद में? फिर कहाँ गये दाँत?'
वे शिष्य अब क्या कहते? वे चुप एक-दूसरे का मुँह देखने लगे तो कंफ्यूसियस ने कहा : ‘सुनो, जीभ है कोमल, इससे आज तक मौजूद है। दाँत थे क्रूर और कठोर, इसी से नष्ट हो गये हैं!’
कंफ्यूसियस की यह अंतिम शिक्षा थी।
लेकिन, मैं इसे जीवन की पहली शिक्षा बनाना चाहता हूँ।
8
9 Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), page 45
10 Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), page 45 & 52
11 Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), page 46
12 Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), page 47
13 Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), page 47
14 Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), page 49
14 (2) Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), page 49
15 Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), page 49
16R Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), page 51
16V Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), page 51
17 Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), page 59
18 Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), page 59
19 Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), page 59
20 Mitti Ke Diye (मिट्टी के दीये), page 53