Manuscripts ~ Phool Aur Phool Aur Phool, Bhag 2 (फूल और फूल और फूल, भाग 2): Difference between revisions

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:परमात्मा ने मनुष्य को अपनी ही शक्ल में बनाया था। ऐसा मैंने सुना है। लेकिन, मनुष्य को देख के ऐसा प्रतीत होता है कि यह अफवाह भी मनुष्य की ही उड़ाई हुई है।
:क्योंकि मनुष्य तो परमात्मा से जितना प्रतिकूल हो सकता है, उतना ही प्रतिकूल है।
:या यह भी हो सकता है कि परमात्मा ने तो मनुष्य को अपने ही अनुरूप बनाया हो लेकिन बाद में मनुष्य ने उसमें सुधार कर लिया हो!
:मनुष्य में परमात्मा की चीजों में सुधार कर लेने की गहरी बीमारी जो है। और इसे ही वह प्रगति कहता है।
:यह भी कहा जाता है कि परमात्मा ने मनुष्य को देवताओं से थोड़ा ही नीचे बनाया था। शायद, इस नीचे होने को प्रारंभ मानकर वह नीचे से नीचे जाते-जाते इतना नीचे पहुंच गया है कि अब पशु भी कहीं ऊंचे पड़ गए हैं।
:मनुष्य ने स्वयं ही अपनी दुर्गति भलीभांति कर ली है।
:और उसने यह सब इतनी बुद्धिमत्ता से किया है कि परमात्मा भी शायद उसे दोषी नहीं ठहरा सकता है।
:इसलिए शायद परमात्मा स्वयं को ही दोषी मान कर कहीं छिप गया है। दोषी वह है भी। मनुष्य को बनाने का दोष तो उसके ऊपर है ही! और मनुष्य इसके लिए कभी भी माफ नहीं कर सकता।
:मनुष्य इसलिए ही परमात्मा से कई तरह के बदले लेता रहा है। स्वयं के विनाश में भी वह अपने सृष्टा से बदला ही ले रहा है।
:वह पशु नहीं बनाया गया है, इसका बदला भी वह पशु से बदतर बन कर ले रहा है।
 
:एक अद्भुत घटना मुझे स्मरण आती हैः
:एक आदमी ने किसी पहाड़ी होटल के मालिक को लिख कर पूछा था कि क्या उसका कुत्ता भी उसके साथ होटल में ठहर सकता है?
:उसे लौटती डाक से निम्न उत्तर उपलब्ध हुआः
:प्रिय महानुभाव,
:मैं होटल के व्यवसाय में विगत 30 वर्षों से हूं। और कुत्तों के संबंध में मेरा अनुभव अत्याधिक सुखद है। होटल में ठहरे किसी भी कुत्ते के कारण आज तक मुझे कभी पुलिस को नहीं बुलाना पड़ा है। आज तक किसी कुत्ते ने शराब पीकर भी होटल में कोई उत्पात का दृश्य खड़ा नहीं किया है। और न ही किसी कुत्ते ने मुझे झूठा चेक या जाली रूपए पकड़ा कर ही धोखा दिया है। न ही किसी कुत्ते ने धूम्रपान से होटल की किसी चीज को जलाया है। और न कोई कुत्ता किसी दूसरे की पत्नी को भगाकर यहां आकर ठहरा है। और न ही अब तक मैंने किसी कुत्ते के सूटकेस में होटल का कोई सामान ही पाया है। स्वभावतः कुत्ते के प्रति मेरे मन में बहुत श्रद्धा है और मैं आपके कुत्ते का हार्दिक स्वागत करता हूं।
:पुनश्चः और यदि आपका कुत्ता आपके संबंध में भी भले आदमी होने का प्रमाण पत्र देने को राजी हो तो आप भी उसके साथ यहां आ सकते हैं।
 
 
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:अधर्म सदा ही धर्म की आड़ खोजता है। ऐसे उसे सुरक्षा मिल जाती है।
:खोटे सिक्के असली सिक्कों के नाम के बिना एक इंच भी तो नहीं चल सकते हैं!
:परमात्मा के मंदिर हैं लेकिन उनमें आवास शैतान का है। शैतान ने बहुत पहले ही स्वयं को छिपाने की पूरी आयोजना कर ली है। कौन जाने दीए तले अंधेरा इसलिए ही छिपता हो कि ऐसे वह भी प्रकाश समझा जा सकता है!
:असत्य सत्य के वस्त्र अकारण ही तो नहीं ओढ़ता है?
:और घृणा प्रेम के शब्द व्यर्थ ही तो नहीं बोलती है?
 
:मैंने सुना हैः
:एक साधु सत्य पर बोल रहा था। उसने अपने प्रवचन के प्रारंभ में ही कहाः ‘मित्रो! मेरा आज का विषय हैः सत्य। और इसके पूर्व कि मैं बोलना शुरू करूं मैं एक बात आपसे जान लेना चाहता हूं कि आप में से कितने व्यक्तियों ने मैथ्यू का 69 वां अध्याय पढ़ा है?’
:उस सभा भवन में जितने भी व्यक्ति थे, उनमें से केवल एक को छोड़ कर सबने अपने-अपने हाथ स्वीकृति में ऊपर उठा दिए थे। वह साधु इस पर हंसा था और बोला थाः ‘ठीक है। मित्रो, ठीक है! आप ही वे लोग हैं जिनसे मुझे बोलना है। क्योंकि मैथ्यू का 69 वां अध्याय जैसा कोई अध्याय ही नहीं हैं।’
:और जब सभा समाप्त हो गई तो वह साधु उस व्यक्ति के पास गया था जिसने कि हाथ ऊपर नहीं उठाया था। निश्चय ही वह व्यक्ति अद्भुत था। क्योंकि ऐसे धार्मिक और सच्चे व्यक्ति धर्मसभाओं में कहां उपलब्ध होते हैं?
:साधु ने उससे पूछाः ‘मित्र! यहां कैसे आ गए? ऐसे व्यक्ति तो धर्म-मंदिरों में कभी दिखाई नहीं पड़ते हैं। और आप में बड़ा नैतिक साहस है--आप भीड़ से भिन्न सत्य के पक्ष में भी हो सकते हैं! आपने असत्य हाथ नहीं उठाया, मैं इसके लिए आपका धन्यवाद करता हूं।’
:वह आदमी डरा हुआ था। बोलाः ‘क्षमा करिये। मैं असल में सो गया था। अन्यथा ऐसे कैसे हो सकता था कि मैं हाथ न उठाता। मैं तो सदा सबके साथ हूं।’
 
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:मैं मनुष्य के संबंध में सोचता हूं तो मुझे एक घटना याद आ जाती हैः
:एक छोटे से बच्चे अलबर्ट के बाबत उसके बाल मंदिर के सारे अधिकारी चिंतित थे। वह जो भी बनाता था, सदा काले रंग में ही उसे रंगता था। वह काली गायें बनाता, काले मनुष्य, काले कुत्ते और काले मकान और एक दिन तो उसने एक काला सागर बनाया था जिसकी काली लहरें काले ही तट से टकरा रहीं थी। यही नहीं, ऊपर भी काला सूरज था और उसमें काली किरणें निकल रहीं थीं। चित्र में सभी कुछ काला ही काला था। और पहचानना भी कठिन था कि क्या-क्या है?
:इससे उसके अध्यापकों का विचार में पड़ जाना स्वाभाविक ही था। क्योंकि, काले रंग का यह अतिशय मोह जरूर ही चित्त की किसी दुखी और उदास स्थिति का द्योतक था।
:उस बच्चे की गृहस्थिति की खोजबीन की गई, लेकिन वहां तो सब कुछ ठीक था।
:उसके साथियों से पूछा गया लेकिन कोई भी कारण नहीं मिलता था। वह तो सब भांति सामान्य और स्वस्थ था।
:और तब अंततः एक मनोवैज्ञानिक से सलाह ली गई। मनोवैज्ञानिक ने सभी तरह के परीक्षण और विश्लेषण किए, लेकिन परिणाम कुछ भी न निकला। उसमें दुख या उदासी या आत्मविनाश की कोई भी वृत्ति न थी।
:और अंततः जब वे थक कर सब निराश ही हो गए थे तो एक दिन उन्होंने काले रंग के प्रति मोह का कारण उससे ही पूछा; तो वह बोला कि मेरी रंग की डब्बी के सारे रंग खो गए हैं और केवल काला रंग ही मेरे पास शेष बचा है!
 
:क्या ऐसा ही मनुष्य के संबंध में भी तो नहीं हो गया है? उसके ऊपर न मालूम क्या-क्या थोपा जाता रहा है और उसके संबंध में न मालूम कितने-कितने प्रकार के ऊहापोह और अनुमान किए जाते रहे हैं।
:धर्मों ने, दर्शनों ने, विचारकों ने उसकी उसकी स्थिति के लिए क्या-क्या नहीं कहा है और उसे बदलने के लिए क्या-क्या योजनाएं नहीं प्रस्तुत की हैं।
:समाज और राज्य भी उसे बदलने और बनाने के लिए क्या-क्या नहीं कर चुके हैं।
:लेकिन एक बात सदा ही भूली जाती रही है। मनुष्य से स्वयं उसके संबंध में किसी ने भी कुछ नहीं पूछा है।
 
 
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:विश्व युद्ध के बादल आकाश में हैं। और वे रोज घने से घने होते जा रहे हैं। मनुष्यता किसी बड़ी दुर्घटना के करीब है। और इस दुर्घटना में समस्त जाति की समाप्ति भी हो सकती है। लेकिन, हम ऐसे चले जा रहे हैं कि जैसे कहीं कोई खतरा ही नहीं हैं। और शायद हमारी यह बेहोशी ही सबसे बड़ा खतरा है। और हम बेहोशी में भी आंखें बंद कर लेने की सलाह देने वाले मार्गदर्शक भी हैं।
:एक साधु से मैं यह कह रहा था। वे हंसे थे और बोले थेः ‘संसार तो ऐसे ही चलता रहता है। बस अपनी आंखें बंद कर लो। आंखें बंद कर लेने में ही सुख है।’
:आह! यह सुख कितना महंगा पड़ा है। और ऐसे सुख लेने वालों के ही कारण जीवन अब कितना दुखमय है।
:यह सुख है या कि निद्रा है?
:यह सुख है या कि सुरा है?
:यह सुख अफीम के नशे से कहां भिन्न है?
:निश्चय ही माक्र्स ऐसे धर्म को ‘अफीम का नशा’ कहने में अक्षरशः सही था।
:जीवन से भागने वालों के लिए आंख बंद कर लेना बहुत पुराना उपाय है। शुतुरमुर्ग भी इस उपाय को जानता है और संन्यासी भी जानते हैं। शुतुरमुर्ग शत्रु को देख रेत में मुंह गाड़ लेता है और सोचता है कि शत्रु नहीं हैं। उसके लिए न दिखाई पड़ना, न होने का सबूत हो जाता है।
:और संन्यासी का भी तर्क क्या यही नहीं हैं?
:और शराबी का भी तर्क क्या यही नहीं हैं?
 
:एक मधुशाला से आधी रात गए दो मित्र बाहर निकले थे। वे दोनों खूब पिये हुए थे। वे अपनी कार में आ कर बैठे और घर की ओर चले। उनमें से ही एक कार चला रहा था। कार तीर की भांति सड़कों को चीरते हुए भाग रही थी। जरूर ही वे 60-70 की रफ्तार पर थे। दूसरे साथी ने घबड़ा कर कहाः ‘यह क्या कर रहे हो? क्या दुर्घटना करनी है? मेरा तो साहस छूटा जा रहा है।’ लेकिन चलाने वाले ने कहाः ‘घबड़ाने की क्या जरूरत है? मैं जैसे आंख बंद किए हूं वैसे ही तुम भी कर लो। आंखें बंद कर लेने से घबड़ाकर बिल्कुल ही नहीं मालूम होती है। और बड़ा सुख मिलता है।’
 
:जीवन से आंखें बंद कर लेना आत्मघाती पलायन है। यह धर्म नहीं हैं।
:धर्म पलायन नहीं है। धर्म तो जीवन पर विजय है। और विजय ने भागने वालों को कब वरा है?
:जीवन का अत्यंत जागरूकता से, खुली आंखों से, सामना करना ही धर्म है। धर्म जब तक आंखें बंद करने वाला है, तब तक वह अधर्म की शरण है। आंखें बंद कर लेने की शिक्षा ने जगत को जितना नुकसान पहुंचाया है, उतना और किस ने पहुंचाया है?
:वह शिक्षा बेहोशी और निद्रा की शिक्षा है।
:और बेहोशी में मनुष्य वृक्ष की उन्हीं शाखाओं को काटता रहा है जिन पर कि वह बैठा है।
:जीवन के प्रति चाहिए होश--चेतना--जागरूक बोध, क्योंकि तभी हम स्वयं को परिवर्तित कर सकते हैं। धर्म की क्रांति सचेतन व्यक्तित्व में ही फलित हो सकती है।
:और व्यक्ति है इकाई। वह बदले तो ही समाज भी बदल सकता है। इसलिए, मैं व्यक्ति को आंखें बंद कर लेने को नहीं, वरन उन्हें पूर्णतया खोलने को कहता हूं। क्योंकि, मैं पृथ्वी पर अंधों का नहीं, आंख वालों का समाज देखना चाहता हूं।
 
 
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:जीवन की सबसे बड़ी विडम्बना क्या है? क्या यही नहीं कि मनुष्य को यह भी पता नहीं है कि वह कौन है? और स्वयं को न जानना, जीवन को ही न जानना है। और अपरिचित जीवन भी क्या जीवन है? अंधेरे में किसी भी भांति जिये जाने का नाम तो जीवन नहीं है। जीवन तो ज्ञान के प्रकाश में ही वस्तुतः जीवन बनता है।
:मैं जब स्वयं को जानता हूं, तभी मैं हूं। अन्यथा मेरा होना या न होना बराबर ही है।
:ज्ञान अस्तित्व को अर्थ देता है।
:और अज्ञान है अर्थहीनता। अज्ञान में अर्थवत्ता हो भी कैसे सकती है?
:जिसे मैं जानता ही नहीं हूं, वह अर्थवान या साभिप्राय कैसे हो सकता है? और जो अर्थहीन है वह अरुचिकर हो जाता है। वह ऊब बन जाता है। वह व्यर्थ और कोरी पुनरुक्ति प्रतीत होने लगता है। और इस अर्थहीन पुनरुक्ति से मुक्त होने का मन हो तो क्या कोई आश्चर्य है?
:लेकिन यह मुक्ति दो प्रकार की हो सकती है। यह मुक्ति आत्मघात की दिशा ले सकती है या आत्म साधना की। आत्मघात में जीवन का अंत करने की तत्परता होती है और आत्म साधना में जीवन को जानने की।
:अतंतः मनुष्य के सामने दो ही विकल्प हैंः या तो स्वयं को समाप्त करो या स्वयं को जानो।
:कामू ने ठीक ही कहा है कि आत्मघात ही मनुष्य के लिए सबसे बड़ी दार्शनिक समस्या है।
:लेकिन समाप्त करना क्या कोई हल है? और अर्थहीन जीवन की समाप्ति में कौन सा अर्थ हो सकता है? वह भी तो अर्थहीन हो गया! वह विकल्प मिथ्या है। वह स्वयं को जानने से बचने का ही उपाय है। वह तो जीवन की समस्या से आत्यंतिक पलायन है। तथाकथित संन्यास भी आंशिक रूप से आत्मघाती जीवन दृष्टि का ही प्रयोग है।
:वास्तविक दिशा है आत्म साधना की, आत्म ज्ञान की। उससे अर्थहीनता विलीन हो जाती है और जीवन अपनी पूर्ण अर्थवत्ता में प्रकट होता है। जो मनुष्य, या जो युग आत्मज्ञान की दिशा खो देता है वह अनिवार्यतः आत्मघात में संलग्न हो जाता है।
:क्या हम एक ऐसे ही युग में नहीं रह रहे हैं?
 
:न्यूयार्क के एक ऊंचे भवन की 17 वीं मंजिल से एक युवक कूदने को तैयार खड़ा था। 16 वीं मंजिल पर भीड़ इकट्ठी थी और उसे समझा रही थी। लेकिन वह आत्महत्या के लिए बिल्कुल ही सन्नद्ध था। एक अत्यंत वृद्ध व्यक्ति ने उससे कहा ‘बेटे, अपने मां-बाप का तो विचार करो।’
:वह युवक बोला ‘न मेरी मां है, न बाप है।’
:वृद्ध ने कहा ‘तो अपनी पत्नी और बच्चों का ख्याल करो।’
:युवक ने कहा ‘न पत्नी हैं, न बच्चे हैं।’
:लेकिन वृद्ध हार मानने को राजी न था। उसने कहा ‘तो अपनी प्रेयसी का तो ध्यान रखो।’
:वह युवक चिल्लाया ‘मैं स्त्रियों को घृणा करता हूं।’
:अतंतः हार कर वृद्ध ने कहा ‘तो अपना ही विचार करो।’
:और उसको पता है कि उस युवक ने क्या कहा? उसने कहाः ‘काश! मुझे यही पता होता कि मैं कौन हूं!’
 
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:हम घने अंधकार में हैं। और यह अंधकार रोज-रोज बढ़ता ही जाता है। और आश्चर्य तो यही है कि अपने ही हाथों से इसे हम बढ़ाते हैं। आलोक से विमुख हो जाने का यह परिणाम है। सूर्य की ओर हम पीठ देकर खड़े हैं। जीवन के पथ पर धर्म है सूर्य, और जो धर्म की ओर पीठ कर लेता है वह अपने ही हाथों अंधकार में डूबा जाता है।
:
:किसी द्वार पर एक शब्द-कोष बेचने वाला विक्रेता खड़ा था। वह शब्द-कोष बिना बेचे उस द्वार से हटने को राजी न था। गृहणी ने उसे टालने को कहा ‘बंधु, मुझे शब्द-कोष नहीं चाहिए। शब्द-कोष मेरे पास है। देखते नहीं हैं, वह सामने ही मेज पर रखा हुआ है।’
:इस पर वह विक्रेता हंसा और बोलाः ‘देखें, आप मुझे मूर्ख न बना सकेंगी। वह शब्द-कोष नहीं, धर्मशास्त्र है।’
:गृहणी तो जैसे हैरान रह गई। बात सत्य थी। वह धर्मशास्त्र ही था! एक क्षण तो वह कुछ पूछ ही न सकी। फिर सम्हल कर उसने कहाः ‘यह आप कैसे कह सकते हैं?’
:वह विक्रेता बोलाः ‘देवी जी, यह बतलाना एकदम आसान है। ग्रंथ पर इकट्ठी धूल से क्या सब कुछ स्पष्ट नहीं हो जाता है?’
 
:धर्म उपेक्षित है। और धर्म पर हमारी उपेक्षा की धूल जम गई है। और परिणाम है हमारा रास्ता अंधकार पूर्ण हो गया है।
:धर्म पर से उपेक्षा की धूल झाड़नी है। और जैसे ही कोई यह कर पाता है, वैसे ही उसका जीवन आलोकित हो जाता है। लेकिन यह प्रत्येक को ही स्वयं के लिए करना होता है। मैं यह आपके लिए नहीं कर सकता हूं। क्योंकि, उपेक्षा आपकी है। वह आपकी दृष्टि है। उसे आपने ही निर्मित किया है और आप ही उसे नष्ट कर सकते हैं।
:धर्म प्रकाश है। लेकिन वह प्रकाश उसे ही उपलब्ध होता है, जो कि उसे स्वयं में द्वार देता है।
:मैं उपेक्षा से भरा हूं तो वह द्वार बंद है। और मैं जिज्ञासा में हूं तो वह द्वार खुल जाता है। वस्तुतः जिज्ञासा ही द्वार है। और उपेक्षा का जन्म या जिज्ञासा की हत्या दो प्रकार से होती है। एक है अंधी आस्तिकता, जो आंख बंद करके सब कुछ स्वीकार कर लेती है। और दूसरी है अंधी नास्तिकता, जो कि आंख बंद कर सब कुछ अस्वीकार कर देती है। और अंधेपन में जिज्ञासा कहां? खोज कहां?
:अंधी आस्तिकता और अंधी नास्तिकता, दोनों ही जीवन सत्य के प्रति उपेक्षा बन जाती हैं। सत्य के प्रति जिज्ञासा तो केवल उसमें ही होती है जो कि न अंध स्वीकार में है, न अंध अस्वीकार में; वरन जानने को सदा ही स्वतंत्र, उन्मुख और उत्सुक है। ऐसे चित्त के द्वार बंद नहीं होते हैं। ऐसा चित्त खुला चित्त है। और खुले चित्त में सत्य का आगमन होता है।
:सत्य ही धर्म है।
:सत्य ही प्रकाश है।
:सत्य ही प्रभु है।
 
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:मैं कौन हूं? क्या इसका कोई समुचित उत्तर आपके पास है?
:नहीं, मित्र! नहीं है। नहीं है। नहीं है।
:क्योंकि, जो स्वयं को जान लेता है, वह सत्य को उपलब्ध हो जाता है। क्योंकि, जो स्वयं को जान लेता है, वह आनंद को उपलब्ध हो जाता है। क्योंकि, जो स्वयं को जान लेता है, वह अमृत को उपलब्ध हो जाता है।
:लेकिन फिर भी जीवन यात्रा में हमारा अपना परिचय तो है ही! मैं यह हूं या वह हूं। मैं राजा हूं या रंक। इस पद पर हूं या उस पद पर। शिक्षित हूं या अशिक्षित। मेरा यह नाम है या वह। यह उपाधि है या वह। ऐसा ही कुछ जोड़-तोड़ हमारा परिचय है। निश्चय ही यह परिचय बहुत ऊपरी है और इससे वह बिल्कुल अस्पर्शित ही रह जाता है जो कि मैं हूं।
:वह कौन है जो मैं हूं--यह तो हमें ज्ञात नहीं हैं, लेकिन उसने जो वस्त्र पहन रखे हैं, उनसे हमारी पहचान जरूर है। और वस्त्रों की हम पहचान को ही हम स्वयं का जानना माने हुए हैं। इससे ही इन वस्त्रों की इतनी रक्षा की जाती है, क्योंकि इनके खो जाने पर हम स्वयं को पहचान भी तो नहीं सकते हैं!
:आह! क्या इस भांति वस्त्र ही हमारी आत्मा नहीं बन गए हैं? क्या हम मात्र वस्त्र ही हैं?
 
:मैंने सुना है कि एक बार एक व्यक्ति के सभी वस्त्र खो गए थे तो वह यह भी नहीं पहचान सका था कि वह वही है। वह बेचारा आखिर पहचानता भी कैसे? क्योंकि, वह जिसे जानता था, वह तो खो गए वस्त्रों का जोड़ ही था! और वह स्वयं को तो जानता ही नहीं था, सो पहचानता कैसे? पहचानने के पूर्व जानना तो जरूरी है न?
:प्रत्यभिज्ञा तो केवल उसकी ही हो सकती है, जिसका कि पूर्वज्ञान है।
:यह हमारी स्थिति है।
:लेकिन, इस पर हम हंसेंगे नहीं--क्योंकि यह स्थिति हमारी जो है!
 
:और, अब मैं आपको एक घटना सुनाता हूं, उस पर आप जरूर ही हंसेंगे। क्योंकि वह घटना आपकी जो नहीं हैं!
:एक सोए शेखचिल्ली के द्वार पर आधी रात में दो पुलिस के सिपाही दस्तक दे रहे थे। बहुत मुश्किल से घर के वासी ने द्वार खोला। द्वार खुलते ही उन सिपाहियों में से एक ने कहाः ‘मित्र माफ करना। हमने तुम्हें व्यर्थ ही तकलीफ दी। गांव के बाहर एक व्यक्ति की मृत-देह मिली है और हमें शक था कि कहीं वह तुम तो नहीं हो? लेकिन भगवान को धन्यवाद कि तुम कुशल हो। अच्छा, हम जाते हैं।’
:लेकिन, शेखचिल्ली ने बहुत घबड़ा कर कहाः ‘ठहरो! क्या तुमने उसे ठीक से देख लिया था? उसकी उम्र कितनी है?’
:‘करीब-करीब तुम्हारे जितनी ही।’
:‘और उसकी लंबाई?’
:‘इतनी ही जितनी कि तुम्हारी है।’
:‘और क्या वह लाल टोपी पहने हुए है?’
:‘हां’
:‘हे भगवान! और क्या नीली कमीज भी?’
:‘नहीं।’
:‘आह! तब वह मैं नहीं हूं!’
 
:मैं देख रहा हूं कि आप हंस रहे हैं।
:लेकिन, मित्र, किस पर हंस रहे हैं? क्या वह शेखचिल्ली आप ही नहीं हैं?
:सोचें।
:सोचें।
:सोचें।
 
 
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Revision as of 13:49, 26 April 2018

Flowers and Flowers and Flowers

year
1967
notes
39 sheets plus 2 written on reverse.
Page numbers showing "R" and "V" refer to "Recto and Verso".


page no original photo enhanced photo Hindi transcript
1
(1)
एक मित्र ने पूछा है ‘समाज में इतनी हिंसा क्यों हैं?’
हिंसा के मूल में महत्वाकांक्षा है। वस्तुतः तो महत्वाकांक्षा ही हिंसा है। मनुष्य चित्त दो प्रकार का हो सकता है। महत्वाकांक्षी और गैर-महत्वाकाक्षी। महत्वाकांक्षी-चित्त से राजनीति जन्मती है और गैर-महत्वाकांक्षी-चित्त से धर्म का जन्म होता है। धार्मिक और राजनैतिक--चित्त के ये दो ही रूप हैं। या कहें कि स्वस्थ और अस्वस्थ।
स्वस्थ चित्त में हीनता नहीं होती है। और जहां आत्महीनता नहीं है, वहां महत्वाकांक्षा भी नहीं हैं। क्योंकि, महत्वाकांक्षा आत्महीनता के बोध को मिटाने के प्रयास से ज्यादा और क्या है? लेकिन, आत्महीनता ऐसे मिटती नहीं हैं और इसलिए महत्वाकांक्षा का कहीं अंत नहीं आता है। आत्महीनता का अर्थ है आत्मबोध का अभाव। स्वयं को न जानने से ही वह होती है।
आत्म-अज्ञान ही आत्महीनता है। क्योंकि जो स्वयं को जान लेता है, वह सब प्रकार की हीनताओं और महानताओं से मुक्त हो जाता है। ऐसी स्थिति ही स्वस्थ स्थिति है। स्वस्थ यानी स्वयं में स्थित। और जो स्वयं में नहीं है वही अस्वस्थ है। और जो स्वयं में नहीं होता है, वह निरंतर पर से तुलना में रहता है। पर से जो तुलना है, उसी से हीनभाव और फिर महत्वाकांक्षा का निर्माण होता है। और महत्वाकांक्षा द्वंद्व और हिंसा में ले जाती है। राजनीति इसका साकार रूप है। इसलिए ही राजनीति से विनाश फलित होता है।
स्वस्थ चित्त से होता है सृजन। अस्वस्थ चित्त से विनाश। मनुष्य का दुख यही है कि वह अब तक राजनैतिक चित्त के घेरे में ही जिया है। और धार्मिक चित्त को हम पैदा नहीं कर पाए हैं। धर्म के नाम पर कई संगठन और संप्रदाय हैं, वे भी सब राजनैतिक ही हैं। इससे ही इतनी घृणा है, हिंसा है और इतने युद्ध हैं। और इससे ही जीवन इतना अशांत, अराजक और विक्षिप्त है।
एक छोटी सी नाव में बैठे तीन व्यक्ति विवाद कर रहे थे। उनकी चर्चा का विषय था कि पृथ्वी पर सबसे पहले उनमें से किसका व्यवसाय प्रारंभ हुआ? उनमें से एक सर्जन था, दूसरा इंजीनियर और तीसरा राजनैतिक। सर्जन ने कहा ‘बाइबिल कहती है कि ईव का निर्माण आदम की एक पसली को निकाल कर किया गया था। और क्या इससे यह सिद्ध नहीं हो जाता कि शल्य चिकित्सक का व्यवसाय सर्वाधिक प्राचीन है?’
इस पर इंजीनियर मुस्कुराया और बोला ‘नहीं, साहब, नहीं। उसके भी पूर्व जबकि सब ओर मात्र अराजकता थी, उस अराजकता में से ही पृथ्वी का निर्माण केवल छः दिनों में किया गया था। वह चमत्कार इंजीनियरिंग का ही था। और अब क्या और भी प्रमाणों की आवश्यकता है यह सिद्ध करने को कि मेरा ही व्यवसाय प्राचीनतम है?’
राजनीतिज्ञ अब तक चुप था। वह हंसा और बोला ‘लेकिन मेरे मित्र, यह भी तो बताओ कि अराजकता किसने पैदा की थी?’
वह अराजकता आज भी है। और उसको पैदा करने वाला चित्त भी है। और, शायद वह चित्त अपने चरम विकास को भी पहुंच गया है। वह चित्त युद्ध पर युद्ध पैदा करता आया है। कहते हैं कि विगत 3 हजार वर्षों में सारी पृथ्वी पर कोई 15 हजार युद्ध उसने पैदा किए हैं। और अब वह अंतिम युद्ध की तैयारी कर रहा है। अंतिम इसलिए नहीं कि फिर मनुष्य युद्ध नहीं करेगा, अंतिम इसलिए कि फिर मनुष्य के बचने की कोई संभावना ही नहीं हैं।
लेकिन मैं पूछता हूं कि क्या मनुष्य को युद्धों से नहीं बचाया जा सकता है? क्या जागतिक आत्मघात अपरिहार्य है?
नहीं, मनुष्य को निश्चित ही बचाया जा सकता है। लेकिन सवाल युद्धों का नहीं, सवाल राजनैतिक चित्त से मुक्ति का है। राजनैतिक चित्त से मुक्त हुए बिना मनुष्यता इस अस्वस्थ स्थिति से मुक्त नहीं हो सकती है।
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मैं एक छोटे से गांव में गया था। वहां एक नया मंदिर बन कर खड़ा हो गया था और उसमें मूर्ति प्रतिष्ठा का समारोह चल रहा था। सैकड़ों पुजारी और संन्यासी इकट्ठे हुए थे। हजारों देखने वालों की भीड़ थी। धन मुक्तहस्त से लुटाया जा रहा था। और सारा गांव इस घटना से चकित था। क्योंकि जिस व्यक्ति ने मंदिर बनाया था और इस समारोह में जितना धन व्यय किया था, उससे ज्यादा कृपण व्यक्ति भी कोई और हो सकता है, यह सोचना भी उस गांव के लोगों के लिए कठिन था। वह व्यक्ति कृपणता की साकार प्रतिमा था। उसके हाथों एक पैसा भी कभी छूटते नहीं देखा गया था। फिर उसका यह हृदय परिवर्तन कैसे हो गया था? यही चर्चा और चमत्कार सबकी जुबान पर था। उस व्यक्ति के द्वार पर तो कभी भिखारी भी नहीं जाते थे। क्योंकि वह द्वार केवल लेना ही जानता था। देने से उसका कोई परिचय ही नहीं था। फिर यह क्या हो गया था? जो उस व्यक्ति ने कभी स्वप्न में भी न किया होगा, वह वस्तुतः आंखों के सामने होते देख कर सभी लोग आश्चर्य से ठगे रह गए थे।
एक वृद्ध ने मुझसे भी पूछा ‘इसके पीछे रहस्य क्या है? क्या वह व्यक्ति बिल्कुल बदल गया है?’
मैंने उत्तर में एक घटना बताईः
एक छोटे से बच्चे ने रूपए का एक सिक्का गटक लिया था। उसे निकालने के लिए सब उपाय व्यर्थ हो गए थे। उसकी मां अपने पति से बार-बार कह रही थी ‘जल्दी करो और चिकित्सक को बुलाओ।’ पति ने एक-दो बार सुना और वह सिक्का निकालने की कोशिश करते-करते ही बोला ‘चिकित्सक? नहीं। मैं सोचता हूं कि धर्मगुरु को ही बुला लेना कहीं ज्यादा उचित है?’
पत्नी तो हैरान हो गई और बोली ‘धर्मगुरु? क्या तुम सोचते हो कि मेरा बच्चा बच नहीं सकेगा, जो धर्मगुरु को बुलाना चाहते हो?’
पति ने कहा ‘नहीं। इसलिए नहीं। बल्कि इसलिए कि किसी से भी रूपया निकलवा लेने में धर्मगुरुओं से ज्यादा कुशल और कोई नहीं होता है।’
फिर मैंने कहा ‘यह मत सोचना कि उस व्यक्ति का लोभ समाप्त हो गया। उसने मुझसे भी जानना चाहा है कि मंदिर बनवाने का परलोक में क्या फल होता है? यह सब दान-धर्म भी उसके लोभ का ही फैलाव है। यह उसकी पूर्व-वृत्ति का विरोध नहीं, वरन उसका ही और विस्तार है। जीवन हाथ में होता है तो लोभ धन जोड़ता है। और जब मृत्यु निकट आती है तो लोभ धर्म जोड़ता है। यह सब एक ही चित्त का खेल है। धर्मगुरु लोभ को नई दिशा दे देते हैं। वे धर्म के सिक्कों का प्रलोभन खड़ा कर देते हैं।
और मरता क्या न करता! लोभ की तृप्ति का और कोई मार्ग न देख वह अदृश्य सिक्कों को ही इकट्ठा करने में लग जाता है। निश्चय ही इसके लिए धर्मपुरोहितों को बदले में दृश्य सिक्के देने पड़ते हैं। ऐसे धर्मगुरु धन जोड़ते हैं और तथाकथित धार्मिक हो गया व्यक्ति धर्म जोड़ता है। और मृत्यु से लौट कर चूंकि कभी कोई नहीं आता, इसलिए यह पता भी नहीं चल पाता है कि खोए दृश्य सिक्कों के बदले में अदृश्य सिक्के मिलते भी हैं या नहीं?
और इस कारण धर्मगुरु का व्यवसाय अखंड बना रहता है। मृत्यु धर्मगुरु की बड़ी सहयोगिनी है। वही उसके धंधे का मूलाधार है। उसकी छाया में ही उसका शोषण चलता है।
वह व्यक्ति जरा भी नहीं बदला है। केवल उसके हाथों से जीवन बह चुका है। वह बूढ़ा हो गया है और मृत्यु की पद-ध्वनि उसे सुनाई पड़ने लगी है। और यह तो सर्वविदित ही है कि जहां मृत्यु है वहां धर्मगुरु है। वे तो मृत्यु के व्यवसायी ही हैं।’


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ओशो द्वारा लिखकर काट दिया गया
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एक अद्भुत स्वप्न मैंने देखा हैः
मैं एक भिखारी हूं और एक धनपति के द्वार पर खड़ा हूं। वह व्यक्ति अकूत धनराशि का मालिक है। लेकिन मुझसे भी बड़ा अगर कोई भिखारी है तो वही है। क्योंकि उसके पास सब कुछ होते हुए भी कुछ भी नहीं हैं। उसकी धन की भूख का अंत ही नहीं हैं। धन उसे प्राणों से भी अधिक प्यारा है। वह उसके लिए प्राण खो सकता है, लेकिन प्राणों के लिए भी धन खोने का विचार नहीं कर सकता।
कहते हैं कि एक बार जंगल में उसे डाकुओं ने पकड़ लिया था और उससे पूछा था कि प्राण बचाने हैं या धन? तो उसने कहा था ‘प्राणों का मूल्य ही क्या है! और धन है तो सब कुछ है। आप प्राण ले लो लेकिन धन नहीं--धन बुढ़ापे में काम आता है।’
आह! ऐसा है वह व्यक्ति, और मैं उसके द्वार पर भीख मांगने खड़ा हूं। यह आशा के विपरीत ही आशा करना है।
और जो भीख मांगनी है, वह भी अजीब है। मैं केवल उसके पास स्वर्ण की जो अकूत राशि है, उसे देखना भर चाहता हूं। क्या वह इसके लिए राजी होगा? अब तक उसकी स्वर्णराशि देखने में कोई भी समर्थ नहीं हो सका है। लेकिन शायद मैं सफल हो जाऊं, क्योंकि उसे राजी करने की विधि भी मैं अपने साथ लेता आया हूं।
एक स्वर्ण मुद्रा मेरे पास है। वह मुझे वर्षों पहले कहीं पड़ी हुई मिल गई थी। उसे मैं रोज देख लेता हूं और खुश हो लेता हूं। बस यही उसका उपयोग है; जैसा कि सभी स्वर्ण मुद्राओं का होता है। और इसलिए मैंने सोचा है कि यदि इस स्वर्ण मुद्रा के बदले में उस धनपति की अकूत स्वर्ण मुद्राएं मुझे देखने को मिल जाएं तो मैं उन्हें इकट्ठी ही देख लूं और खुश हो लूं। सदा देखने के रोग से भी छुटकारा हो और इस एक स्वर्ण मुद्रा को सम्हालने की चिंता से भी मुक्ति मिले।
और जैसा कि मैंने सोचा था, वही हुआ है। मुझे देखते ही द्वार बंद कर लिए गए हैं। वह धनपति बूढ़ा स्वयं ही द्वार बंद कर रहा है। लेकिन, मैंने अपनी स्वर्ण मुद्रा निकाल कर सीढ़ियों पर पटक दी है। उसकी ध्वनि से बंद द्वार पुनः खुल गए हैं। वह बूढ़ा उस मुद्रा को बहुत ललचाई हुई आंखों से देख रहा है। और फिर सौदा तय हो गया है। वह उस स्वर्ण मुद्रा के बदले में अपने खजाने में मुझे ले जाने को तैयार हो गया है।
उसने सोचा हैः मैं केवल देखना ही तो चाहता हूं। और मात्र देखने के बदले में एक स्वर्ण मुद्रा पा लेनी, शत-प्रतिशत लाभ का सौदा है!
वह मुझे अपने तलघर में ले जाता है। निश्चय ही अकूत स्वर्ण उसके पास है। मेरी तो आंखें ही उस स्वर्ण पर नहीं टिक रही हैं। फिर मैं सब देख कर हंसने लगा। तो उस बूढ़े ने पूछा हैः ‘क्यों? हंसते क्यों हो?’
मैंने कहा है ‘मित्र, अब मेरे पास भी उतना ही धन है जितना कि आपके पास है।’
वह बूढ़ा चौक गया है और पूछ रहा हैः ‘यह कैसे हो सकता है! भिखारी तो हो ही--कहीं पागल भी तो नहीं हो?’
मैंने कहाः ‘आप इस धन का क्या उपयोग करते हैं? ज्यादा से ज्यादा इसे देखने का ही न! अब मैंने भी इसे देख लिया है--जी भर कर देख लिया है। तो क्या अब मैं भी उतना ही धनी नहीं हूं जितने कि आप हैं?’
चलते-चलते मैंने उस बूढ़े से पुनः कहा हैः ‘ठीक से सोचना कि भिखारी कौन है और पागल कौन है?’
वह बूढ़ा रो रहा है और फिर हंस भी रहा है।
उसने अपना खजाना खुला ही छोड़ दिया है।
और यह क्या... वह मेरे साथ ही हो लिया और कह रहा हैः ‘मैं अब न भिखारी हूं और न पागल ही हूं।’
और आश्चर्य से मेरी नींद खुल जाती है। और मैं सोचता ही रह जाता हूं कि वह व्यक्ति स्वप्न में इस भांति स्वस्थ हो सका तो क्या जाग्रत में जो विक्षिप्त हैं, वे स्वस्थ नहीं हो सकते हैं?


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परमात्मा ने मनुष्य को अपनी ही शक्ल में बनाया था। ऐसा मैंने सुना है। लेकिन, मनुष्य को देख के ऐसा प्रतीत होता है कि यह अफवाह भी मनुष्य की ही उड़ाई हुई है।
क्योंकि मनुष्य तो परमात्मा से जितना प्रतिकूल हो सकता है, उतना ही प्रतिकूल है।
या यह भी हो सकता है कि परमात्मा ने तो मनुष्य को अपने ही अनुरूप बनाया हो लेकिन बाद में मनुष्य ने उसमें सुधार कर लिया हो!
मनुष्य में परमात्मा की चीजों में सुधार कर लेने की गहरी बीमारी जो है। और इसे ही वह प्रगति कहता है।
यह भी कहा जाता है कि परमात्मा ने मनुष्य को देवताओं से थोड़ा ही नीचे बनाया था। शायद, इस नीचे होने को प्रारंभ मानकर वह नीचे से नीचे जाते-जाते इतना नीचे पहुंच गया है कि अब पशु भी कहीं ऊंचे पड़ गए हैं।
मनुष्य ने स्वयं ही अपनी दुर्गति भलीभांति कर ली है।
और उसने यह सब इतनी बुद्धिमत्ता से किया है कि परमात्मा भी शायद उसे दोषी नहीं ठहरा सकता है।
इसलिए शायद परमात्मा स्वयं को ही दोषी मान कर कहीं छिप गया है। दोषी वह है भी। मनुष्य को बनाने का दोष तो उसके ऊपर है ही! और मनुष्य इसके लिए कभी भी माफ नहीं कर सकता।
मनुष्य इसलिए ही परमात्मा से कई तरह के बदले लेता रहा है। स्वयं के विनाश में भी वह अपने सृष्टा से बदला ही ले रहा है।
वह पशु नहीं बनाया गया है, इसका बदला भी वह पशु से बदतर बन कर ले रहा है।
एक अद्भुत घटना मुझे स्मरण आती हैः
एक आदमी ने किसी पहाड़ी होटल के मालिक को लिख कर पूछा था कि क्या उसका कुत्ता भी उसके साथ होटल में ठहर सकता है?
उसे लौटती डाक से निम्न उत्तर उपलब्ध हुआः
प्रिय महानुभाव,
मैं होटल के व्यवसाय में विगत 30 वर्षों से हूं। और कुत्तों के संबंध में मेरा अनुभव अत्याधिक सुखद है। होटल में ठहरे किसी भी कुत्ते के कारण आज तक मुझे कभी पुलिस को नहीं बुलाना पड़ा है। आज तक किसी कुत्ते ने शराब पीकर भी होटल में कोई उत्पात का दृश्य खड़ा नहीं किया है। और न ही किसी कुत्ते ने मुझे झूठा चेक या जाली रूपए पकड़ा कर ही धोखा दिया है। न ही किसी कुत्ते ने धूम्रपान से होटल की किसी चीज को जलाया है। और न कोई कुत्ता किसी दूसरे की पत्नी को भगाकर यहां आकर ठहरा है। और न ही अब तक मैंने किसी कुत्ते के सूटकेस में होटल का कोई सामान ही पाया है। स्वभावतः कुत्ते के प्रति मेरे मन में बहुत श्रद्धा है और मैं आपके कुत्ते का हार्दिक स्वागत करता हूं।
पुनश्चः और यदि आपका कुत्ता आपके संबंध में भी भले आदमी होने का प्रमाण पत्र देने को राजी हो तो आप भी उसके साथ यहां आ सकते हैं।


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अधर्म सदा ही धर्म की आड़ खोजता है। ऐसे उसे सुरक्षा मिल जाती है।
खोटे सिक्के असली सिक्कों के नाम के बिना एक इंच भी तो नहीं चल सकते हैं!
परमात्मा के मंदिर हैं लेकिन उनमें आवास शैतान का है। शैतान ने बहुत पहले ही स्वयं को छिपाने की पूरी आयोजना कर ली है। कौन जाने दीए तले अंधेरा इसलिए ही छिपता हो कि ऐसे वह भी प्रकाश समझा जा सकता है!
असत्य सत्य के वस्त्र अकारण ही तो नहीं ओढ़ता है?
और घृणा प्रेम के शब्द व्यर्थ ही तो नहीं बोलती है?
मैंने सुना हैः
एक साधु सत्य पर बोल रहा था। उसने अपने प्रवचन के प्रारंभ में ही कहाः ‘मित्रो! मेरा आज का विषय हैः सत्य। और इसके पूर्व कि मैं बोलना शुरू करूं मैं एक बात आपसे जान लेना चाहता हूं कि आप में से कितने व्यक्तियों ने मैथ्यू का 69 वां अध्याय पढ़ा है?’
उस सभा भवन में जितने भी व्यक्ति थे, उनमें से केवल एक को छोड़ कर सबने अपने-अपने हाथ स्वीकृति में ऊपर उठा दिए थे। वह साधु इस पर हंसा था और बोला थाः ‘ठीक है। मित्रो, ठीक है! आप ही वे लोग हैं जिनसे मुझे बोलना है। क्योंकि मैथ्यू का 69 वां अध्याय जैसा कोई अध्याय ही नहीं हैं।’
और जब सभा समाप्त हो गई तो वह साधु उस व्यक्ति के पास गया था जिसने कि हाथ ऊपर नहीं उठाया था। निश्चय ही वह व्यक्ति अद्भुत था। क्योंकि ऐसे धार्मिक और सच्चे व्यक्ति धर्मसभाओं में कहां उपलब्ध होते हैं?
साधु ने उससे पूछाः ‘मित्र! यहां कैसे आ गए? ऐसे व्यक्ति तो धर्म-मंदिरों में कभी दिखाई नहीं पड़ते हैं। और आप में बड़ा नैतिक साहस है--आप भीड़ से भिन्न सत्य के पक्ष में भी हो सकते हैं! आपने असत्य हाथ नहीं उठाया, मैं इसके लिए आपका धन्यवाद करता हूं।’
वह आदमी डरा हुआ था। बोलाः ‘क्षमा करिये। मैं असल में सो गया था। अन्यथा ऐसे कैसे हो सकता था कि मैं हाथ न उठाता। मैं तो सदा सबके साथ हूं।’
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मैं मनुष्य के संबंध में सोचता हूं तो मुझे एक घटना याद आ जाती हैः
एक छोटे से बच्चे अलबर्ट के बाबत उसके बाल मंदिर के सारे अधिकारी चिंतित थे। वह जो भी बनाता था, सदा काले रंग में ही उसे रंगता था। वह काली गायें बनाता, काले मनुष्य, काले कुत्ते और काले मकान और एक दिन तो उसने एक काला सागर बनाया था जिसकी काली लहरें काले ही तट से टकरा रहीं थी। यही नहीं, ऊपर भी काला सूरज था और उसमें काली किरणें निकल रहीं थीं। चित्र में सभी कुछ काला ही काला था। और पहचानना भी कठिन था कि क्या-क्या है?
इससे उसके अध्यापकों का विचार में पड़ जाना स्वाभाविक ही था। क्योंकि, काले रंग का यह अतिशय मोह जरूर ही चित्त की किसी दुखी और उदास स्थिति का द्योतक था।
उस बच्चे की गृहस्थिति की खोजबीन की गई, लेकिन वहां तो सब कुछ ठीक था।
उसके साथियों से पूछा गया लेकिन कोई भी कारण नहीं मिलता था। वह तो सब भांति सामान्य और स्वस्थ था।
और तब अंततः एक मनोवैज्ञानिक से सलाह ली गई। मनोवैज्ञानिक ने सभी तरह के परीक्षण और विश्लेषण किए, लेकिन परिणाम कुछ भी न निकला। उसमें दुख या उदासी या आत्मविनाश की कोई भी वृत्ति न थी।
और अंततः जब वे थक कर सब निराश ही हो गए थे तो एक दिन उन्होंने काले रंग के प्रति मोह का कारण उससे ही पूछा; तो वह बोला कि मेरी रंग की डब्बी के सारे रंग खो गए हैं और केवल काला रंग ही मेरे पास शेष बचा है!
क्या ऐसा ही मनुष्य के संबंध में भी तो नहीं हो गया है? उसके ऊपर न मालूम क्या-क्या थोपा जाता रहा है और उसके संबंध में न मालूम कितने-कितने प्रकार के ऊहापोह और अनुमान किए जाते रहे हैं।
धर्मों ने, दर्शनों ने, विचारकों ने उसकी उसकी स्थिति के लिए क्या-क्या नहीं कहा है और उसे बदलने के लिए क्या-क्या योजनाएं नहीं प्रस्तुत की हैं।
समाज और राज्य भी उसे बदलने और बनाने के लिए क्या-क्या नहीं कर चुके हैं।
लेकिन एक बात सदा ही भूली जाती रही है। मनुष्य से स्वयं उसके संबंध में किसी ने भी कुछ नहीं पूछा है।


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विश्व युद्ध के बादल आकाश में हैं। और वे रोज घने से घने होते जा रहे हैं। मनुष्यता किसी बड़ी दुर्घटना के करीब है। और इस दुर्घटना में समस्त जाति की समाप्ति भी हो सकती है। लेकिन, हम ऐसे चले जा रहे हैं कि जैसे कहीं कोई खतरा ही नहीं हैं। और शायद हमारी यह बेहोशी ही सबसे बड़ा खतरा है। और हम बेहोशी में भी आंखें बंद कर लेने की सलाह देने वाले मार्गदर्शक भी हैं।
एक साधु से मैं यह कह रहा था। वे हंसे थे और बोले थेः ‘संसार तो ऐसे ही चलता रहता है। बस अपनी आंखें बंद कर लो। आंखें बंद कर लेने में ही सुख है।’
आह! यह सुख कितना महंगा पड़ा है। और ऐसे सुख लेने वालों के ही कारण जीवन अब कितना दुखमय है।
यह सुख है या कि निद्रा है?
यह सुख है या कि सुरा है?
यह सुख अफीम के नशे से कहां भिन्न है?
निश्चय ही माक्र्स ऐसे धर्म को ‘अफीम का नशा’ कहने में अक्षरशः सही था।
जीवन से भागने वालों के लिए आंख बंद कर लेना बहुत पुराना उपाय है। शुतुरमुर्ग भी इस उपाय को जानता है और संन्यासी भी जानते हैं। शुतुरमुर्ग शत्रु को देख रेत में मुंह गाड़ लेता है और सोचता है कि शत्रु नहीं हैं। उसके लिए न दिखाई पड़ना, न होने का सबूत हो जाता है।
और संन्यासी का भी तर्क क्या यही नहीं हैं?
और शराबी का भी तर्क क्या यही नहीं हैं?
एक मधुशाला से आधी रात गए दो मित्र बाहर निकले थे। वे दोनों खूब पिये हुए थे। वे अपनी कार में आ कर बैठे और घर की ओर चले। उनमें से ही एक कार चला रहा था। कार तीर की भांति सड़कों को चीरते हुए भाग रही थी। जरूर ही वे 60-70 की रफ्तार पर थे। दूसरे साथी ने घबड़ा कर कहाः ‘यह क्या कर रहे हो? क्या दुर्घटना करनी है? मेरा तो साहस छूटा जा रहा है।’ लेकिन चलाने वाले ने कहाः ‘घबड़ाने की क्या जरूरत है? मैं जैसे आंख बंद किए हूं वैसे ही तुम भी कर लो। आंखें बंद कर लेने से घबड़ाकर बिल्कुल ही नहीं मालूम होती है। और बड़ा सुख मिलता है।’
जीवन से आंखें बंद कर लेना आत्मघाती पलायन है। यह धर्म नहीं हैं।
धर्म पलायन नहीं है। धर्म तो जीवन पर विजय है। और विजय ने भागने वालों को कब वरा है?
जीवन का अत्यंत जागरूकता से, खुली आंखों से, सामना करना ही धर्म है। धर्म जब तक आंखें बंद करने वाला है, तब तक वह अधर्म की शरण है। आंखें बंद कर लेने की शिक्षा ने जगत को जितना नुकसान पहुंचाया है, उतना और किस ने पहुंचाया है?
वह शिक्षा बेहोशी और निद्रा की शिक्षा है।
और बेहोशी में मनुष्य वृक्ष की उन्हीं शाखाओं को काटता रहा है जिन पर कि वह बैठा है।
जीवन के प्रति चाहिए होश--चेतना--जागरूक बोध, क्योंकि तभी हम स्वयं को परिवर्तित कर सकते हैं। धर्म की क्रांति सचेतन व्यक्तित्व में ही फलित हो सकती है।
और व्यक्ति है इकाई। वह बदले तो ही समाज भी बदल सकता है। इसलिए, मैं व्यक्ति को आंखें बंद कर लेने को नहीं, वरन उन्हें पूर्णतया खोलने को कहता हूं। क्योंकि, मैं पृथ्वी पर अंधों का नहीं, आंख वालों का समाज देखना चाहता हूं।


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जीवन की सबसे बड़ी विडम्बना क्या है? क्या यही नहीं कि मनुष्य को यह भी पता नहीं है कि वह कौन है? और स्वयं को न जानना, जीवन को ही न जानना है। और अपरिचित जीवन भी क्या जीवन है? अंधेरे में किसी भी भांति जिये जाने का नाम तो जीवन नहीं है। जीवन तो ज्ञान के प्रकाश में ही वस्तुतः जीवन बनता है।
मैं जब स्वयं को जानता हूं, तभी मैं हूं। अन्यथा मेरा होना या न होना बराबर ही है।
ज्ञान अस्तित्व को अर्थ देता है।
और अज्ञान है अर्थहीनता। अज्ञान में अर्थवत्ता हो भी कैसे सकती है?
जिसे मैं जानता ही नहीं हूं, वह अर्थवान या साभिप्राय कैसे हो सकता है? और जो अर्थहीन है वह अरुचिकर हो जाता है। वह ऊब बन जाता है। वह व्यर्थ और कोरी पुनरुक्ति प्रतीत होने लगता है। और इस अर्थहीन पुनरुक्ति से मुक्त होने का मन हो तो क्या कोई आश्चर्य है?
लेकिन यह मुक्ति दो प्रकार की हो सकती है। यह मुक्ति आत्मघात की दिशा ले सकती है या आत्म साधना की। आत्मघात में जीवन का अंत करने की तत्परता होती है और आत्म साधना में जीवन को जानने की।
अतंतः मनुष्य के सामने दो ही विकल्प हैंः या तो स्वयं को समाप्त करो या स्वयं को जानो।
कामू ने ठीक ही कहा है कि आत्मघात ही मनुष्य के लिए सबसे बड़ी दार्शनिक समस्या है।
लेकिन समाप्त करना क्या कोई हल है? और अर्थहीन जीवन की समाप्ति में कौन सा अर्थ हो सकता है? वह भी तो अर्थहीन हो गया! वह विकल्प मिथ्या है। वह स्वयं को जानने से बचने का ही उपाय है। वह तो जीवन की समस्या से आत्यंतिक पलायन है। तथाकथित संन्यास भी आंशिक रूप से आत्मघाती जीवन दृष्टि का ही प्रयोग है।
वास्तविक दिशा है आत्म साधना की, आत्म ज्ञान की। उससे अर्थहीनता विलीन हो जाती है और जीवन अपनी पूर्ण अर्थवत्ता में प्रकट होता है। जो मनुष्य, या जो युग आत्मज्ञान की दिशा खो देता है वह अनिवार्यतः आत्मघात में संलग्न हो जाता है।
क्या हम एक ऐसे ही युग में नहीं रह रहे हैं?
न्यूयार्क के एक ऊंचे भवन की 17 वीं मंजिल से एक युवक कूदने को तैयार खड़ा था। 16 वीं मंजिल पर भीड़ इकट्ठी थी और उसे समझा रही थी। लेकिन वह आत्महत्या के लिए बिल्कुल ही सन्नद्ध था। एक अत्यंत वृद्ध व्यक्ति ने उससे कहा ‘बेटे, अपने मां-बाप का तो विचार करो।’
वह युवक बोला ‘न मेरी मां है, न बाप है।’
वृद्ध ने कहा ‘तो अपनी पत्नी और बच्चों का ख्याल करो।’
युवक ने कहा ‘न पत्नी हैं, न बच्चे हैं।’
लेकिन वृद्ध हार मानने को राजी न था। उसने कहा ‘तो अपनी प्रेयसी का तो ध्यान रखो।’
वह युवक चिल्लाया ‘मैं स्त्रियों को घृणा करता हूं।’
अतंतः हार कर वृद्ध ने कहा ‘तो अपना ही विचार करो।’
और उसको पता है कि उस युवक ने क्या कहा? उसने कहाः ‘काश! मुझे यही पता होता कि मैं कौन हूं!’
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हम घने अंधकार में हैं। और यह अंधकार रोज-रोज बढ़ता ही जाता है। और आश्चर्य तो यही है कि अपने ही हाथों से इसे हम बढ़ाते हैं। आलोक से विमुख हो जाने का यह परिणाम है। सूर्य की ओर हम पीठ देकर खड़े हैं। जीवन के पथ पर धर्म है सूर्य, और जो धर्म की ओर पीठ कर लेता है वह अपने ही हाथों अंधकार में डूबा जाता है।
किसी द्वार पर एक शब्द-कोष बेचने वाला विक्रेता खड़ा था। वह शब्द-कोष बिना बेचे उस द्वार से हटने को राजी न था। गृहणी ने उसे टालने को कहा ‘बंधु, मुझे शब्द-कोष नहीं चाहिए। शब्द-कोष मेरे पास है। देखते नहीं हैं, वह सामने ही मेज पर रखा हुआ है।’
इस पर वह विक्रेता हंसा और बोलाः ‘देखें, आप मुझे मूर्ख न बना सकेंगी। वह शब्द-कोष नहीं, धर्मशास्त्र है।’
गृहणी तो जैसे हैरान रह गई। बात सत्य थी। वह धर्मशास्त्र ही था! एक क्षण तो वह कुछ पूछ ही न सकी। फिर सम्हल कर उसने कहाः ‘यह आप कैसे कह सकते हैं?’
वह विक्रेता बोलाः ‘देवी जी, यह बतलाना एकदम आसान है। ग्रंथ पर इकट्ठी धूल से क्या सब कुछ स्पष्ट नहीं हो जाता है?’
धर्म उपेक्षित है। और धर्म पर हमारी उपेक्षा की धूल जम गई है। और परिणाम है हमारा रास्ता अंधकार पूर्ण हो गया है।
धर्म पर से उपेक्षा की धूल झाड़नी है। और जैसे ही कोई यह कर पाता है, वैसे ही उसका जीवन आलोकित हो जाता है। लेकिन यह प्रत्येक को ही स्वयं के लिए करना होता है। मैं यह आपके लिए नहीं कर सकता हूं। क्योंकि, उपेक्षा आपकी है। वह आपकी दृष्टि है। उसे आपने ही निर्मित किया है और आप ही उसे नष्ट कर सकते हैं।
धर्म प्रकाश है। लेकिन वह प्रकाश उसे ही उपलब्ध होता है, जो कि उसे स्वयं में द्वार देता है।
मैं उपेक्षा से भरा हूं तो वह द्वार बंद है। और मैं जिज्ञासा में हूं तो वह द्वार खुल जाता है। वस्तुतः जिज्ञासा ही द्वार है। और उपेक्षा का जन्म या जिज्ञासा की हत्या दो प्रकार से होती है। एक है अंधी आस्तिकता, जो आंख बंद करके सब कुछ स्वीकार कर लेती है। और दूसरी है अंधी नास्तिकता, जो कि आंख बंद कर सब कुछ अस्वीकार कर देती है। और अंधेपन में जिज्ञासा कहां? खोज कहां?
अंधी आस्तिकता और अंधी नास्तिकता, दोनों ही जीवन सत्य के प्रति उपेक्षा बन जाती हैं। सत्य के प्रति जिज्ञासा तो केवल उसमें ही होती है जो कि न अंध स्वीकार में है, न अंध अस्वीकार में; वरन जानने को सदा ही स्वतंत्र, उन्मुख और उत्सुक है। ऐसे चित्त के द्वार बंद नहीं होते हैं। ऐसा चित्त खुला चित्त है। और खुले चित्त में सत्य का आगमन होता है।
सत्य ही धर्म है।
सत्य ही प्रकाश है।
सत्य ही प्रभु है।
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मैं कौन हूं? क्या इसका कोई समुचित उत्तर आपके पास है?
नहीं, मित्र! नहीं है। नहीं है। नहीं है।
क्योंकि, जो स्वयं को जान लेता है, वह सत्य को उपलब्ध हो जाता है। क्योंकि, जो स्वयं को जान लेता है, वह आनंद को उपलब्ध हो जाता है। क्योंकि, जो स्वयं को जान लेता है, वह अमृत को उपलब्ध हो जाता है।
लेकिन फिर भी जीवन यात्रा में हमारा अपना परिचय तो है ही! मैं यह हूं या वह हूं। मैं राजा हूं या रंक। इस पद पर हूं या उस पद पर। शिक्षित हूं या अशिक्षित। मेरा यह नाम है या वह। यह उपाधि है या वह। ऐसा ही कुछ जोड़-तोड़ हमारा परिचय है। निश्चय ही यह परिचय बहुत ऊपरी है और इससे वह बिल्कुल अस्पर्शित ही रह जाता है जो कि मैं हूं।
वह कौन है जो मैं हूं--यह तो हमें ज्ञात नहीं हैं, लेकिन उसने जो वस्त्र पहन रखे हैं, उनसे हमारी पहचान जरूर है। और वस्त्रों की हम पहचान को ही हम स्वयं का जानना माने हुए हैं। इससे ही इन वस्त्रों की इतनी रक्षा की जाती है, क्योंकि इनके खो जाने पर हम स्वयं को पहचान भी तो नहीं सकते हैं!
आह! क्या इस भांति वस्त्र ही हमारी आत्मा नहीं बन गए हैं? क्या हम मात्र वस्त्र ही हैं?
मैंने सुना है कि एक बार एक व्यक्ति के सभी वस्त्र खो गए थे तो वह यह भी नहीं पहचान सका था कि वह वही है। वह बेचारा आखिर पहचानता भी कैसे? क्योंकि, वह जिसे जानता था, वह तो खो गए वस्त्रों का जोड़ ही था! और वह स्वयं को तो जानता ही नहीं था, सो पहचानता कैसे? पहचानने के पूर्व जानना तो जरूरी है न?
प्रत्यभिज्ञा तो केवल उसकी ही हो सकती है, जिसका कि पूर्वज्ञान है।
यह हमारी स्थिति है।
लेकिन, इस पर हम हंसेंगे नहीं--क्योंकि यह स्थिति हमारी जो है!
और, अब मैं आपको एक घटना सुनाता हूं, उस पर आप जरूर ही हंसेंगे। क्योंकि वह घटना आपकी जो नहीं हैं!
एक सोए शेखचिल्ली के द्वार पर आधी रात में दो पुलिस के सिपाही दस्तक दे रहे थे। बहुत मुश्किल से घर के वासी ने द्वार खोला। द्वार खुलते ही उन सिपाहियों में से एक ने कहाः ‘मित्र माफ करना। हमने तुम्हें व्यर्थ ही तकलीफ दी। गांव के बाहर एक व्यक्ति की मृत-देह मिली है और हमें शक था कि कहीं वह तुम तो नहीं हो? लेकिन भगवान को धन्यवाद कि तुम कुशल हो। अच्छा, हम जाते हैं।’
लेकिन, शेखचिल्ली ने बहुत घबड़ा कर कहाः ‘ठहरो! क्या तुमने उसे ठीक से देख लिया था? उसकी उम्र कितनी है?’
‘करीब-करीब तुम्हारे जितनी ही।’
‘और उसकी लंबाई?’
‘इतनी ही जितनी कि तुम्हारी है।’
‘और क्या वह लाल टोपी पहने हुए है?’
‘हां’
‘हे भगवान! और क्या नीली कमीज भी?’
‘नहीं।’
‘आह! तब वह मैं नहीं हूं!’
मैं देख रहा हूं कि आप हंस रहे हैं।
लेकिन, मित्र, किस पर हंस रहे हैं? क्या वह शेखचिल्ली आप ही नहीं हैं?
सोचें।
सोचें।
सोचें।


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