Manuscripts ~ Phool Aur Phool Aur Phool, Bhag 2 (फूल और फूल और फूल, भाग 2): Difference between revisions
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:(11) | |||
:ज्ञान क्या है? केवल वही जो कि स्वानुभव है। | |||
:वह नहीं है ज्ञान जो कि सीखा जाता है, बल्कि वह है जो कि जाना जाता है। | |||
:और सीखने और जानने में आकाश-पाताल का अंतर है। सीखा जाता है औरों से। जाना जाता है स्वयं से। और, औरों से सीखा गया भीतर नहीं जाता। वह बाहर का है और इसलिए बाहर ही रह जाता है। वह स्मृति को तो भरता है लेकिन जीवन उससे अछूता ही रह जाता है। उससे अज्ञान तो मिटता ही नहीं है। उल्टे, अहंकार और फलीभूत हो जाता है। और अज्ञान पर अहंकार वैसे ही है जैसे करेला और वह भी नीम चढ़ा। वह रोग पर और महारोग है। | |||
:इसीलिए मैं कहता हूं कि शास्त्र से, शब्द से या अन्य से सीखे गए ज्ञान का कोई भी मूल्य नहीं हैं; क्योंकि वस्तुतः वह ज्ञान ही नहीं हैं। | |||
:ज्ञान वह है, जो कि स्वयं के साक्षात से जन्मता है। शेष सब बासे और मृत शब्दों का संग्रह है। | |||
:ज्ञान है जीवंत और ताजी अनुभूति, इसलिए वह अनिवार्यतः जीवन को बदलती है। उसके आलोक में जीवन स्वतः ही बदल जाता है। यही उसके स्वयं से जन्मे होने की कसौटी भी है। | |||
:जीवन न बदले तो जानना, कि जो जाना है वह ज्ञान नहीं है। | |||
:जीवन सत्य न हो उठे तो जानना कि जो जाना है वह स्वयं से नहीं हैं। | |||
:जीवन परमात्मा में प्रतिष्ठित न हो जाए तो जानना कि जो जाना है, वह ज्ञान नहीं, अज्ञान ही है। | |||
:क्या आपको ज्ञात है कि एक बार नर्क के अंतःवासियों ने स्वर्ग के निवासियों को धर्म-शास्त्रार्थ के लिए चुनौती दी थी? | |||
:नहीं। शायद आपको पता नहीं हैं। और आप आश्चर्य भी कर रहे हैं क्योंकि धर्म-शास्त्र पर नर्क के निवासियों का अधिकार ही क्या है! | |||
:शैतान के शिष्यों की इस चुनौती से ऐसा ही आश्चर्य देवताओं को भी हुआ था। और उन्होंने उनसे कहा था ‘क्या पागल हो गए हो? क्या तुम्हें ज्ञात नहीं है कि सभी धार्मिक व्यक्ति स्वर्ग में हैं? और ऐसी किसी भी प्रतिस्पर्धा में तुम्हारी हार पूर्व से ही सुनिश्चित है। हां, राजनीति शास्त्र पर विवाद के लिए तुम्हारे आमंत्रण में कोई अर्थ हो भी हो सकता है!’ | |||
:‘वह तो ठीक है,’ शैतान के शिष्यों ने कहा ‘लेकिन, क्या आपको पता है कि पंडितगण कहां है? धर्म के जानने वाले होंगे स्वर्ग में लेकिन धर्म शास्त्र के जानकार तो सब हमारे पास हैं।’ | |||
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:(12) | |||
:मैं आपके मन को जीवन के प्रति अत्याधिक शिकायत से भरा देखता हूं। यह चित्त दशा शुभ नहीं हैं। क्योंकि इस भांति जीवन के समस्त आनंदों से आप व्यर्थ ही वंचित रह जाते हैं। जीवन तो प्रत्येक के द्वार पर आनंद की भेंट लाता है लेकिन जो द्वार बंद होते हैं, वे उस भेंट को पाना तो दूर, जान भी नहीं पाते हैं। और ऐसे चित्त के पास अंत में आंसुओं के अतिरिक्त और कुछ भी शेष न रह जाता हो तो आश्चर्य ही क्या है? | |||
:एक छोटे से बच्चे ने भोजन करना करीब-करीब बंद कर दिया था। वह सूख कर हड्डी हो गया था। वह हर प्रकार के भोजन में कोई न कोई शिकायत खड़ी कर देता था। अंततः मां-बाप घबड़ा गए। उस बच्चे की अपेक्षाएं पूरी करना कठिन नहीं, असंभव ही हो गया था। सो वे उसे एक मनोचिकित्सक के पास ले गए। उस मनोवैज्ञानिक ने बड़े-बड़े बीमार ठीक किए थे। और पागलों का तो वह सबसे बड़ा चिकित्सक और विशेषज्ञ था। उसने उस बच्चे के मां-बाप को धैर्य बंधाया और कहाः ‘घबड़ाएं न। शीघ्र ही सब ठीक हो जाएगा।’ और फिर उसने बच्चे के सामने अच्छे से अच्छे, स्वादिष्ट से स्वादिष्ट खाद्य पदार्थ बुलवाए, लेकिन वह बच्चा अद्भुत शिकायतों का धनी था कि उसने चिकित्सक की एक न चलने दी और अपनी हठ पर दृढ़ रहा। अंततः मनोवैज्ञानिक ने उससे ही पूछाः ‘बेटे, तुम्हीं बताओ कि तुम्हें क्या खाना है? वह जहां से भी उपलब्ध होगा, हम लाने को तैयार हैं।’ | |||
:बच्चे ने शांति से कहाः ‘केंचुए।’ | |||
:मनोवैज्ञानिक तो हैरान ही रह गया फिर भी वह हार मानने को राजी नहीं था और बगीचे से केंचुए इकट्ठे करके लाया। फिर केंचुओं की प्लेट उस छोटे से भोजन-शत्रु के सामने रख कर उसने कहाः ‘लो! खाओ।’ | |||
:लेकिन, बच्चे के चेहरे पर मनचाहे केंचुए पा कर भी कोई प्रसन्नता न थी। उसने पुनः कहाः ‘मैं तले हुए केंचुए चाहता हूं।’ | |||
:वह बेचारा मनोवैज्ञानिक केंचुए तल कर लाया। लेकिन, उस छोटे से आलोचक ने कहाः ‘मुझे केवल एक ही केंचुआ चाहिए।’ | |||
:मनोवैज्ञानिक ने एक केंचुआ बचाकर, शेष सारे फेंककर उससे कहाः ‘लो! अब खाओ।’ | |||
:लेकिन बच्चे ने पुनः कहाः ‘आधा आप खाइए।’ | |||
:मनोवैज्ञानिक के सामने और भी बड़ी कठिनाई आ गई। लेकिन वह किसी भी भांति उस बच्चे को संतुष्ट करना चाहता था ताकि वह अस्वीकारवादी थोड़ा शिथिल पड़ सके और भोजन के लिए राजी हो सके। उसने आंखें बंद करके और परमात्मा का नाम लेकर किसी भांति आधा केंचुआ भी गटक लिया। और शेष आधा केंचुआ बच्चे के सामने रखा इस आशा से कि अब तो वह प्रसन्न होगा और उन दोनों के बीच समझ का कोई सेतु बन सकेगा। लेकिन नहीं, वह भूल में था। क्योंकि, बच्चा आधे केंचुए को देखकर जोर से रोने लगा। | |||
:उस मनोचिकित्सक ने घबड़ा कर पूछाः ‘क्यों, अब क्या मामला है?’ | |||
:वह रोता हुआ बच्चा बोलाः ‘आपने मेरे हिस्से का आधा केंचुआ खा लिया है।’ | |||
:जीवन में ऐसी दृष्टि दुख लाती है। | |||
:यह दुख को--सतत दुख को आमंत्रण है। | |||
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:(13) | |||
:एक बगीचे में दो युवा धर्म पुरोहित बैठे हुए थे। वे बगीचे में घूमते हुए धूम्रपान करना चाहते थे। और इसके लिए गुरु की आज्ञा लेनी जरूरी थी। सो वे दोनों गए। पहला युवक लौटा तो उसने देखा कि दूसरा पहले ही आ गया है और धूम्रपान कर रहा है। उसने आते ही क्रोध से कहाः ‘मुझे आज्ञा नहीं दी गई है।’ | |||
:दूसरे युवक ने उसे शांति से देखा और पूछाः ‘तुमने पूछा क्या था?’ | |||
:उसने कहाः ‘मैंने पूछा था कि क्या मैं ईश्वर-मनन करते हुए धूम्रपान कर सकता हूं?’ | |||
:इस पर दूसरा युवक हंसने लगा और धुआं उड़ाते हुए बोलाः ‘आह! मैंने पूछा था कि क्य मैं धूम्रपान करता हुआ ईश्वर-मनन कर सकता हूं?’ | |||
:जीवन जो हमें देता है, वह उससे हमारे लेने की पात्रता पर ही निर्भर है। अंततः प्रत्येक व्यक्ति ही उस सबके लिए जिम्मेवार है, जो कि वह पाता है या कि नहीं पाता है। | |||
:और जीवन के प्रति हमारे दृष्टिबिंदु में थोड़ा सा ही भेद, स्वर्ग और नर्क का भेद बन जाता है। | |||
:मैं पूछता हूंः ‘क्या यह सत्य नहीं हैं?’ | |||
:और मेरे मित्र, उत्तर किसी शास्त्र में मत खोजना। उत्तर खोजना स्वयं के जीवन में। वहां उत्तर है। प्रत्येक का जीवन ही क्या उत्तर नहीं है? | |||
:मैं स्वर्ग में हूं या नर्क में--क्या यह मुझ पर ही निर्भर नहीं है? और मैंने जीवन से क्या पूछा था, यह नहीं; बल्कि कैसे पूछा था--सभी कुछ इसी पर निर्भर है। उस ‘कैसे’ में ही तो मेरी जीवन-दृष्टि है। वही तो मेरा जीवन-दर्शन है। और वही मेरे लिए दुख या आनंद, अंधकार या आलोक, नर्क या स्वर्ग बन जाता है। | |||
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:(14) | |||
:एक द्वार पर सुबह से ही बड़ी भीड़ थी। एक आदमी अपने घर के सामने मिट्टी में लोट रहा था। उसे देख कर राह चलते लोग रुक गए थे और पड़ोसी जमा हो गए थे। उसका कार्य ही ऐसा अनूठा और अद्भुत था! | |||
:और वह उसे बड़ी धर्मबुद्धि से कर रहा था। जैसे लोग मंदिरों में पूजा करते हैं, ऐसा ही कुछ भाव उसके कार्य में भी था। कुछ लोगों ने उसे रोकने का प्रयत्न भी किया लेकिन वह किसी की भी न सुनता था और मिट्टी में लोटता ही जा रहा था। | |||
:उसके इस भांति तड़पने का रहस्य सभी जानना चाहते थे, लेकिन किसी को कुछ भी पता न था। उसकी पत्नी जरूर घर में बैठी रो रही थी, लेकिन उसे भी इस भांति लोटने का कारण ज्ञात न था। | |||
:ऐसे वह बड़ा नेक आदमी था और अधिकतर धर्म शास्त्रों में डूबा रहता था। | |||
:अंततः दो-तीन व्यक्तियों ने किसी भांति उसे पकड़ कर रोक ही लिया और पूछा कि वह किस मुसीबत में फंसा है? | |||
:वह व्यक्ति कभी रोते नहीं देखा गया था लेकिन इस भांति रोके जाने से एकदम रो उठा और बोलाः ‘हे परमात्मा! ये अज्ञानी जीव मुझे क्यों सता रहे हैं?’ और फिर रोकने वाले लोगों से अत्यंत क्रोध में उसने कहाः ‘जाहिलो, तुमने मुझे रोक कर ठीक नहीं किया। मेरी साधना में तुमने बाधा दी है। क्या तुम्हें पता नहीं हैं कि बीज जब मिट्टी में मिल कर एक हो जाता है, तभी उसमें से फूल पैदा होते हैं? क्या कभी तुमने यह नहीं पढ़ा या सुना है कि ‘दाना खाक में मिल कर गुले-गुलजार होता है?’ पागलो, मैं इसी फलसफे पर अमल कर रहा हूं।’ | |||
:उसने यह कहा था और वह फिर धूल में लोटने लगा था। और लोग धीरे-धीरे हट गए थे, क्योंकि किसी के धर्मकार्य में बाधा देना तो ठीक नहीं है। | |||
:और अब उसकी पत्नी ने भी रोना बंद कर दिया था। क्योंकि उसका पति कोई बुरा कार्य तो कर ही नहीं रहा था। धर्म-साधना से अच्छी बात और क्या है? | |||
:मैं भी उस भीड़ में था। और अब भी मैं रोज सुबह उस मार्ग से निकलता हूं। | |||
:उस व्यक्ति को अब कुछ शिष्य भी मिल गए हैं। वे सब भी भूमि में लोटते रहते हैं। अब वह अकेला नहीं है। उसका सम्प्रदाय खड़ा हो गया है। और अब तो उससे कोई कुछ भी नहीं कह सकता है। उस पर पहले जो लोग हंसे थे, वे ही अब उसे श्रद्धा से देखने लगे हैं। | |||
:वह तपस्वी जो हो गया है! | |||
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:(15) | |||
:क्या सत्य ने आपको पुकारा है? क्या सत्य की प्यास ने आपके प्राणों को आंदोलित किया है? क्या सत्य ने आपके स्वप्नों को झकझोरा है और जागने का आमंत्रण दिया है? | |||
:मैं सोचता हूं कि हां--अन्यथा आप मेरे पास क्यों एकत्रित होते? मैं तो स्वप्न-भंजक हूं और केवल वे ही इस द्वार पर आकर्षित होते हैं जिनकी कि खोज सत्य के लिए है। | |||
:लेकिन, मित्र, इसके पहले कि कोई सत्य को या परमात्मा को खोज सके, उसे स्वयं के संबंध में बहुत से सत्य जान लेने होते हैं। | |||
:और यह कार्य न तो बहुत प्रीतिकर ही है और न ही बहुत आसान। वस्तुतः तो स्वयं के संबंध में सत्यों का उद्घाटन अत्यंत कष्टपूर्ण और कठिन प्रक्रिया है। वह एक तपश्चर्या ही है। क्योंकि, हमने स्वयं को इतने असत्य वस्त्रों से ढांक रखा है कि उनसे मुक्त होना ऐसा ही प्रतीत होता है कि जैसे कोई हमारी चमढ़ी ही उतार रहा है। | |||
:लेकिन, इसके पूर्व कि कोई जान सके कि वह कौन है--यह जान लेना अत्यंत आवश्यक है कि वह क्या है? | |||
:‘मैं क्या हूं’--इसे उसकी पूर्ण नग्नता में जानना सत्य की खोज का पहला चरण है। | |||
:और तभी ‘मैं कौन हूं?’ इसके अनावरण की यात्रा की जा सकती है। | |||
:जो स्वयं के तथ्य को भी नहीं जानता है, वह सत्य को कैसे जान सकता है। लेकिन, हमने तो स्वयं के कटु तथ्यों को सुस्वादु अतथ्यों से ढांक लिया है और यथार्थ की अग्नि को भ्रामक आत्म-प्रवंचनाओं की राख में छिपा दिया है। इस झूठे जाल के अतिरिक्त मनुष्य की न तो कोई अमुक्ति है और न कोई बंधन है। | |||
:और, स्वभावतः, जब तथ्यों के दर्शन से अतथ्य गिरते हैं; और सत्यों के आघात से झूठे व्यक्तित्व का ताशों के महल चरमराकर गिर पड़ता है तो हृदय को बहुत चोट पहुंचती है। | |||
:सत्य के खोजी के धैर्य की परीक्षा यहीं है। | |||
:जो यहां असफल हो जाता है, उसे सत्य के मंदिर की सीढ़ियों के भी दर्शन नहीं हो पाते हैं। उसे तो बाहर से और दूर से ही वापिस लौट आना पड़ता है। | |||
:एक सम्राट सत्य की खोज के लिए प्यासा हो गया था। वह साम्राज्य छोड़ कर सत्य की खोज में निकलने का था। उसकी विदाई का समारोह मनाया जा रहा था। देश के प्रतिष्ठित व्यक्ति अपनी-अपनी शुभकामनाएं और श्रद्धा प्रगट करने राजधानी में उपस्थित हुए थे। राज्य भर के कवियों का भी आगमन हुआ था। और कवियों ने सम्राट की प्रशंसा में क्या-क्या नहीं लिखा था! सम्राट ने प्रत्येक कवि को एक-एक हीरा भेंट किया था। एक वृद्ध कवि ने भी सम्राट के लिए कुछ पंक्तियां लिखी थीं, लेकिन उनमें प्रशंसा नहीं थी। वरन जो सत्य था, वही था। वह सत्य कडुआ भी था। | |||
:उस वृद्ध की नासमझी पर सभी हैरान और क्रुद्ध थे। लेकिन जब सम्राट ने एक हीरा उस वृद्ध को भी भेंट किया तो वे सम्राट की नासमझी पर और भी ज्यादा चकित हो गए थे। और दूसरे दिन तो सबके आश्चर्य और शिकायत का ठिकाना ही न रहा था, जबकि ज्ञात हुआ कि शेष सबको दिए गए हीरे नकली थे और असली हीरा केवल उस वृद्ध को ही दिया गया था! | |||
:और, इस सबके संबंध में उस वृद्ध ने क्या कहा था? | |||
:उसने कहा थाः ‘मैं आश्वस्त हूं कि सम्राट सत्य खोज सकेगा। उसकी यह खोज व्यर्थ नहीं जाएगी। क्योंकि वह स्वयं के संबंध में सत्य सुनने के साहस का धनी है।’ | |||
:मित्रो, क्या मैं आप सबके संबंध में भी ऐसा ही आश्वस्त हो सकता हूं? | |||
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| 30 || [[image:man0922.jpg|200px]] || [[image:man0922-2.jpg|200px]] | | 30 || [[image:man0922.jpg|200px]] || [[image:man0922-2.jpg|200px]] | ||
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:(16) | |||
:समाज रुग्ण है। समाज अस्वस्थ है। लेकिन, मैं इसके लिए किसे दोष दूं--किसे दोषी ठहराऊं? पूरा समाज ही तो सड़-गल गया है। | |||
:फिर भी दोषी को खोजता हूं तो क्या आपको ज्ञात है कि अंत में किसे दोषी पाता हूं? | |||
:ऊपर-ऊपर खोजता हूं तो कभी यह दोषी मालूम होता है तो कभी वह। लेकिन, जब गहरे खोजता हूं तो अंत में स्वयं को ही दोषी पाता हूं। | |||
:आप भी खोजें--हो सकता है कि आप भी अपने को ही दोषी पाएं। यदि न पाएं तो जानना कि खोज ऊपर ही ऊपर कर रहे हैं। | |||
:यह असंभव है कि मैं भागीदार न होऊं उस समाज के स्वास्थ्य या अस्वास्थ्य में जिसका कि मैं हिस्सा हूं। | |||
:आखिर समाज क्या है? समाज तो व्यक्ति और व्यक्ति का अन्तर्संबंध ही है न? इसलिए, दोषी है तो प्रत्येक व्यक्ति है। और दोषी नहीं है तो कोई भी नहीं है। | |||
:और चूंकि समाज रुग्ण है, इसलिए प्रत्येक दोषी है। | |||
:समाज दोषी है, इसका यह अर्थ नहीं है कि कोई भी दोषी नहीं है। | |||
:नहीं, समाज दोषी है, इसका यही अर्थ है कि प्रत्येक दोषी है। | |||
:लेकिन, जब तक एक को केवल दूसरे का दोष दिखता है, तब तक कोई परिवर्तन नहीं हो सकता है। | |||
:क्योंकि, कोई अन्य किसी को कब बदल सका है? बदलाहट तो सदा व्यक्ति ही स्वयं में करने में समर्थ होता है। | |||
:वह शक्ति व्यक्ति में ही है। इसलिए, जिस दिन मैं स्वयं के दोष देखना शुरू करता हूं, उसी दिन वह बदलाहट प्रारंभ हो जाती है। | |||
:वस्तुतः स्वयं के दोषों को जानना और उन्हें न बदलना असंभव है। | |||
:ज्ञान क्रांति है। | |||
:असल में हम दूसरों के दोष देखते ही इसलिए है ताकि स्वयं के दोष देखने से बच सकें। यही उन्हें बदलने से बचने का उपाय है। | |||
:और क्या यह भी मुझे कहना होगा कि ऐसे उपाय करना समाज को तो रुग्ण करना है ही, साथ ही स्वयं का आत्मघात करना भी है! | |||
:एक घटना मुझे याद आती है। एक छोटे से स्कूल की घटना है। सुबह ही सुबह स्कूल खुला ही था कि अचानक ही स्कूल इंस्पेक्टर निरीक्षण के लिए आ पहुंचे थे। उन्होंने पहले ही कक्ष में पहुंचकर अध्यापक से कहाः ‘बताइए कि आपकी कक्षा में तीन सबसे चुस्त लड़के कौन से हैं? मैं उनकी गणित में परीक्षा लेना चाहता हूं।’ | |||
:इस पर धीरे से उठ कर एक लड़का बोर्ड के पास पहुंचा। इंस्पेक्टर ने उससे जो सवाल पूछा, उसने चटपट हल कर डाला और वापस आकर अपनी जगह पर बैठ गया। फिर दूसरा लड़का उठा। वह भी पूछा गया सवाल हल करके अपनी जगह पर लौट गया। लेकिन तीसरे लड़के के आने में थोड़ी देर हुई। और जो लड़का आया भी, वह भी बहुत झिझकता हुआ बोर्ड के समीप पहुंचा। खड़िया उठा कर वह बोर्ड पर लिखा सवाल हल करने जा ही रहा था कि इंस्पेक्टर ने पहचाना कि यह तो वही लड़का है जो कि सबसे पहले आया था! | |||
:‘क्यों यह क्या तमाशा है?’ वे उस लड़के पर बरस पड़े। ‘तू मुझे चराने की कोशिश कर रहा है? क्या तू एक बार सवाल हल नहीं कर चुका है?’ | |||
:वह लड़का झेंपा और जरा मुस्कुराया भी और बोलाः ‘क्षमा करिए, मैं एक और लड़के के स्थान पर आया हूं।’ | |||
:‘एक और लड़के के स्थान पर? इसका क्या मतलब है? एक लड़का दूसरे के स्थान पर परीक्षा दे, ऐसी लज्जाजनक बात मैंने आज तक नहीं देखी है।’ इंस्पेक्टर ने लड़के के कान उमेठते हुए पूछाः ‘तू किसकी जगह आया है?’ | |||
:‘अपने एक मित्र की जगह। वह क्रिकेट का मैच देखने गया है।’ लड़के ने कहा। | |||
:इतना सुनना था कि इंस्पेक्टर ने अध्यापक की ओर मुड़कर कहाः ‘महाशय! आपने यह बात कैसे होने दी? आप जानते हैं कि यह लड़का पहले भी सवाल हल कर चुका है। फिर भी आप चुपचाप खड़े हुए मुझे मूर्ख बनाया जाना देख रहे हैं? यह बड़ी शर्म की बात है।’ | |||
:अध्यापक ने कुछ झिझकते हुए सफाई देने की कोशिश कीः ‘महानुभाव, माफ कीजिए। असल में मैं इन छात्रों को पहचानता नहीं हूं।’ | |||
:‘क्या? इनके अध्यापक होकर भी आप इन्हें नहीं पहचानते हैं? यह कैसे संभव है भला?’ | |||
:‘मैं इस कक्षा का अध्यापक नहीं हूं।’ | |||
:‘तो फिर आप यहां क्यों खड़े हैं?’ | |||
:‘मैं एक और अध्यापक के बदले यहां आया हूं। वे क्रिकेट का मैच देखने चले गए हैं।’ | |||
:इस बार तो कक्षा में एकदम मृत-सन्नाटा छा गया। सारी कक्षा दम रोक कर प्रतीक्षा कर रही थी कि न मालूम इंस्पेक्टर साहब अब क्या कहेंगे या करेंगे? | |||
:लेकिन, बिल्कुल अनपेक्षित... इंस्पेक्टर महोदय थोड़ी देर तो चुपचाप ही खड़े रह गए और फिर मुस्कुराने लगे और फिर ऐसे बोले कि जैसे कुछ भी न हुआ होः ‘अपने भाग्य को धन्यवाद दीजिए कि आज असली इंस्पेक्टर निरीक्षण को नहीं आए हैं। वे क्रिकेट का मैच देखने गए हैं। मैं उनका मित्र, उनकी जगह आया हूं; वरना आप दोनों की आज खैर नहीं थी।’ | |||
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| 32 || [[image:man0924.jpg|200px]] || [[image:man0924-2.jpg|200px]] | | 32 || [[image:man0924.jpg|200px]] || [[image:man0924-2.jpg|200px]] | ||
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| 33 || [[image:man0925.jpg|200px]] || [[image:man0925-2.jpg|200px]] | | 33 || [[image:man0925.jpg|200px]] || [[image:man0925-2.jpg|200px]] | ||
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| 34 || [[image:man0926.jpg|200px]] || [[image:man0926-2.jpg|200px]] || | | 34 || [[image:man0926.jpg|200px]] || [[image:man0926-2.jpg|200px]] || | ||
:(17) | |||
:एक अद्भुत कथा हैः | |||
:एक बार उर्वशी के आकर्षण, सौन्दर्य और शक्ति की परीक्षा के लिए इन्द्र ने तीन ऋषियों को आमंत्रित किया था। स्वभावतः उर्वशी ने उस दिन अपने रूप को आकर्षक बनाने में कोई कसर न उठा रखी थी। उसके नृत्य को देख कर सभी देव मुग्ध हो उठे थे। लेकिन वे तीनो ऋषि शांत बैठे थे। सहसा उर्वशी ने अपना उत्तरीय उतार डाला और शरीर के ऊपरी भाग पर जो अलंकरण और वस्त्र थे, धीरे-धीरे उन सभी को उतारने लगी। तब एक ऋषि चिल्लाएः ‘उर्वशी! यह अनैतिकता है। बंद करो यह नाच। मैं इसे नहीं देख सकता हूं।’ | |||
:लेकिन, इस पर दूसरे ऋषियों ने कहाः ‘नहीं देख सकते हो तो अपनी आंखें बंद कर लो। किन्तु नृत्य कैसे बंद हो सकता है?’ | |||
:पहले ऋषि ने आंखों पर हाथ रख लिए। उर्वशी प्रसन्न हुई। एक ऋषि हार गए थे। नृत्य ने और गति पकड़ ली। धीरे-धीरे उर्वशी ने अधोवस्त्र भी उतारने शुरू कर दिए। तब दूसरे ऋषि चिल्ला उठेः ‘बंद करो यह नृत्य। ऐसी अश्लीलता असह्य है।’ | |||
:लेकिन तीसरे ऋषि ने कहाः ‘मित्र, नहीं देख सकते हो तो तुम भी नेत्र मूंद लो। मैं यह नाच पूरा ही देखना चाहता हूं।’ | |||
:दूसरे ऋषि ने भी आंखें मूंद ली। उर्वशी को एक विजय और मिल गई थी। विजय से उन्मत्त हो वह और भी गति और त्वरा से नाचने लगी। देवताओं ने ऐसा नृत्य कभी न देखा था। वे तो मंत्र मुग्ध हो बैठे थे। उन्हें अपना कोई होश भी न था। और तब उर्वशी ने शरीर के सारे वस्त्र उतार कर फेंक दिए। अंतिम आभूषण भी उतार दिया। तीसरे ऋषि शांति से सब देख रहे थे। फिर तो वह घबड़ा गई। अब उसके पास उतारने को और कुछ भी न रह गया था। वह पूर्ण नग्न थी। | |||
:और तभी तीसरे ऋषि ने कहाः ‘उर्वशी! रुक क्यों गईं? उतारो, अपनी इस केंचुल को भी उतार फेंको। मैं अंत तक देखना चाहता हूं। जो कुछ भी है, मैं उसे देखना चाहता हूं। मैं जानना चाहता हूं कि वह आकर्षण कहां है जो कि मनुष्य को खींचता और विक्षिप्त करता है?’ | |||
:उर्वशी ने कहाः ‘अब आगे और कुछ भी नहीं है। आगे तो मांस और मज्जा है। और आकर्षण उनमें नहीं, मनुष्य के मन में है। लेकिन आपको अब यह आकर्षण नहीं सता सकेगा क्योंकि आपने आंखें नहीं मूंदी हैं। जो आंख खोल कर जीवन के पूर्ण सत्य को देख लेता है, वह समस्त आकर्षणों के पार हो जाता है।’ | |||
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:(18) | |||
:अधर्म क्या है? | |||
:पाप क्या है? | |||
:अज्ञान क्या है? | |||
:आपके प्रश्न तीन हैं। लेकिन मेरा उत्तर एक है। और वह भी एक छोटे से शब्द में। वह शब्द हैः ‘मैं’। | |||
:अहंकार अधर्म है। | |||
:अहंकार पाप है। | |||
:अहंकार अज्ञान है। | |||
:अहंकार है चित्त में घिरे अंधकार की शरण स्थल। और इसलिए जो अंधकार से तो मुक्त होना चाहता है लेकिन अहंकार से नहीं; वह एक बिल्कुल ही व्यर्थ प्रयास में संलग्न है। | |||
:अहंकार के वस्त्रों में छिपा है सारा अधर्म। इसलिए जो अधर्म से तो मुक्त होना चाहता है लेकिन अहंकार को बचाता है, उसकी निष्फलता सुनिश्चित है। | |||
:अहंकार पाप है। लेकिन वह पुण्य के भवनों में निवास करता है और ऐसे उसने अपने लिए बड़ी सुदृढ़ सुरक्षा कर ली है। | |||
:अहंकार अपनी रक्षा के लिए धन कमाता है, धर्म कमाता है, ज्ञान जुटाता है, त्याग करता है। उसकी आत्मरक्षा के उपाय बहुत सूक्ष्म हैं। वह प्रत्येक रूप में स्वयं को बचाता है। और अंततः तो वह प्रभु में भी स्वयं को बचाने की कोशिश करता है। वह कहता है ‘मैं ब्रह्म हूं।’ | |||
:आह! संसार में वह है। संन्यास में भी वह है। | |||
:लेकिन सब रूपों में--सब सूक्ष्म प्रक्रियाओं में उसे पहचाना और पकड़ा जा सकता है यदि उसकी आत्मरक्षा की केन्द्रीय विधि ध्यान में रहे तो। | |||
:उसकी केन्द्रीय विधि क्या है? अहंकार अपनी रक्षा और अपना पोषण करता हैः स्वयं के दोष न देखने में। इसलिए वह सदा औरों के दोष की ओर ही देखता रहता है। | |||
:अधर्म कहां है--और हम दूसरों में खोजने लगते हैं। | |||
:पाप कहां है--और हम दूसरों में खोजने लगते हैं। | |||
:अज्ञान कहां है--और हम दूसरों में खोजने लगते हैं। | |||
:और अहंकार इसी शिल्प से स्वयं को खोजे जाने से बचा होता है। और वह ऐसे न केवल स्वयं को पकड़े जाने से बचा ही लेता है, बल्कि स्वयं को और परिपुष्ट और सुदृढ़ भी कर लेता है। क्योंकि, दूसरे जितने दोषी सिद्ध होने लगते हैं, वह उतना ही निर्दोष दिखाई पड़ने लगता है। निंदा का रस अकारण ही नहीं हैं। वह स्वयं को निर्दोष देखने की ही परोक्ष विधि है। | |||
:निर्दोष होने में तो अहंकार की मृत्यु है। लेकिन निर्दोष दिखने में उसकी शक्ति और उसका जीवन है। इसलिए वह निर्दोष होने से बचना चाहता है। और निर्दोष दिखने को परिपुष्ट करता है। और मनुष्य के समक्ष सदा ये दो ही विकल्प हैं। और इन दोनों में से कोई एक ही चुना जा सकता है। जो निर्दोष होने को चुनता है, वह निर्दोष दिखने को नहीं चुन सकता। उसे तो स्वयं के दोष खोज-खोजकर जानने होते हैं। और जो निर्दोष दिखने को चुनता है, उसे स्वयं के दोष छिपाने और औरों के दोष खोजने होते हैं। वह औरों के दोषों को जानने और बड़ा करके देखने में जितना समर्थ हो जाता है, उतना ही उसके स्वयं के दोष छोटे और नगण्य हो जाते हैं। वह जिस क्षण पूर्णरूपेण दोष अन्य पर थोप देता है, उसी क्षण पूर्ण निर्दोष होने की भ्रांति भी स्वयं के लिए खड़ी कर लेता है। यह भ्रांति ही स्वयं के परिवर्तन और आलोकित जीवन की दिशा में जाने के द्वार पर सबसे बड़ा अवरोध बन जाती है। | |||
:एक रात्रि किसी चर्च में एक अज्ञात फकीर ठहरा। उस चर्च के धर्मगुरु ने उससे कहाः ‘मैं चाहता था कि आप भी कल हमारी धर्मसभा में बोलें, लेकिन मुझे आपसे कहने में संकोच होता है, क्योंकि यहां के लोगों ने एक बड़ी बुरी आदत सीख ली है कि वे अक्सर बीच सभा में से ही उठ कर चले जाते हैं।’ | |||
:इस पर वह फकीर हंसा और बोलाः ‘मैं कल बोलूंगा। और तुम देखोगे कि एक भी व्यक्ति उठ कर नहीं जाता है। मैं मनुष्य की कमजोरी को भलीभांति जानता हूं।’ | |||
:उस चर्च के धर्मगुरु को इस बात पर विश्वास तो नहीं आया क्योंकि वह अपने चर्च के लोगों को भलीभांति जानता था। लेकिन उसने कुछ कहा नहीं और सोचा कि कल तक प्रतीक्षा करना और देखना ही उचित है। | |||
:और आश्चर्य कि कल वही हुआ जो कि उस फकीर ने कहा था। एक भी व्यक्ति सभा से उठ कर नहीं गया। उठ कर जाना तो दूर, कोई अपनी जगह से हिला तक नहीं। क्या उस फकीर ने कोई जादू कर दिया था? नहीं, उसकी तरकीब बड़ी सीधी-सादी थी। वह निश्चय ही मनुष्य की कमजोरी को जानता था; और उसने उस कमजोरी को ही उस दिन स्वयं की शक्ति बना लिया था। | |||
:वह अत्यंत साधारण बोलने वाला था। और उसके व्याख्यान में तो कोई भी नहीं रुक सकता था। लेकिन प्रवचन शुरू करने के पूर्व ही उसने कहाः ‘मित्रो, मैं आज दो प्रकार के लोगों से बोलने जा रहा हूं। पहले तो मैं पापियों से कुछ बातें करूंगा और फिर पुण्यात्माओं से। इसलिए जब मैं आधा बोल लूं तो पापी जा सकते हैं। | |||
:फिर, आधा बोलने पर उसने कहा भी कि पापी सब जा सकते हैं। वह उनके जाने के लिए थोड़ी देर ठहरा भी। लेकिन, नहीं, एक भी व्यक्ति जाने को उत्सुक नहीं था। | |||
:हां, लोग एक-दूसरे की ओर जरूर देख रहे थे--जो जिसे पापी समझता था, वह उसी की ओर देख रहा था और उसके जाने की प्रतीक्षा भी कर रहा था। लेकिन कोई अपनी ओर नहीं देख रहा था। इसलिए उस सभा से किसी के जाने का सवाल ही कहां था? चूंकि वहां कोई भी अपनी ओर देखने वाला नहीं था, इसलिए वहां कोई भी पापी नहीं था। | |||
:लेकिन, वह फकीर अद्भुत था। और वह आगे बोला भी नहीं। उसने बस इतना ही और कहाः ‘काश! आप में से कोई उठता और जाने को राजी होता तो उससे ही मैं वे आधी शेष रह गई बातें कहता जो कि मुझे पुण्यात्माओं से कहनी हैं।’ | |||
: | |||
:स्वयं के पापों को जानना और पहचानना पुण्यात्मा का पहला लक्षण है। वह एक नयी यात्रा का प्रारंभ है। क्योंकि, वह बोध ही व्यक्ति को अहंकार से अंततः मुक्त होने में समर्थ बनाता है। | |||
:और जहां अहंकार नहीं है, वहीं धर्म है, वहीं परमात्मा है। | |||
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:(19) | |||
:शरीर की निद्रा है और आत्मा की भी। | |||
:शरीर का जागरण है और आत्मा का भी। | |||
:लेकिन, साधारणतः मनुष्य शरीर की निद्रा और जागरण के अतिरिक्त और किसी निद्रा और जागरण से परिचित नहीं होता है। | |||
:एक बार किसी पहाड़ी सराय में मुझे दो साधुओं के साथ एक ही कक्ष में ठहरना पड़ा था। सर्दी की रात थी और बर्फीली हवाएं चल रही थीं। रात्रि के तीन बजे वे दोनों साधु उस कड़कती ठंड में उठ कर नदी स्नान करने जा रहे थे। यह उनका आनंद होता तो भी ठीक था। लेकिन नहीं, यह उसका आनंद नहीं, त्याग था। और त्याग था किसी प्राप्ति की आशा में। | |||
:उनके उठते ही मेरी नींद भी खुल गई। लेकिन मैं कम्बल ओढ़े लेटा हुआ था। उ | |||
:न्होंने शायद यह नहीं जाना था कि मैं जाग गया हूं। निश्चय ही मेरे सोने से, मेरे सुख से उन्हें ईष्र्या हुई होगी क्योंकि उनमें से एक ने दूसरे से कहाः ‘अंत में कहीं यदि यही सिद्ध हुआ कि हम गलत और ये सोने वाले लोग ही सही थे तो क्या होगा?’ | |||
:यह सुन कर स्वभावतः मुझे हंसी आ गई थी और मैंने उनसे कहा थाः ‘मित्रो! जिसे तुम सोया समझ रहे हो, वह भी सोया हुआ नहीं हैं। और जिसे तुमने जागना समझा है, क्या वह भी कोई जागना है?’ | |||
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:(20) | |||
:एक व्यक्ति मंदिर जा रहा था। मैंने उससे पूछाः ‘मित्र, मंदिर क्यों जा रहे हो?’ | |||
:उसने हैरानी से मुझे देखा और कहाः ‘परमात्मा के दर्शन करने।’ | |||
:मैं हंसने लगा तो उसने कहाः ‘इसमें हंसने की क्या बात है?’ | |||
:मैंने कहाः ‘परमात्मा मंदिर में है तो फिर शेष जगह कौन है?’ | |||
:वह व्यक्ति अब भी मुझे कभी-कभी मिला करता है लेकिन मुझसे बच कर निकलता है। उस पर मेरा प्रश्न उधार है। उसने अभी तक उसका उत्तर नहीं दिया है। | |||
:मैं आपसे भी यही पूछता हूं। क्योंकि, जब तक परमात्मा ‘कहीं’ है तब तक उसे नहीं पाया जा सकता है। जिस दिन बस ‘वही’ है, वह उसी दिन पा लिया जाता है। क्योंकि, फिर तो उसे खोना ही असंभव है। तब तो वस्तुतः वह सदा पाया ही हुआ है। | |||
:एक व्यक्ति आंखें बंद किए बैठा था। मैंने उससे पूछाः ‘मित्र, यह क्या कर रहे हो?’ | |||
:उसने क्रोध से आंखें खोली और कहाः ‘मैं प्रभु स्मरण कर रहा हूं।’ | |||
:अब मैं सोचता हूं कि क्या प्रभु का भी स्मरण किया जा सकता है। वह तो हमारा जीवन है। वह तो हमारी श्वांस-श्वांस है। उसका स्मरण कैसे हो सकता है? उसमें और स्वयं में उतना फासला भी कहां है? | |||
:यह मैंने उससे कहा था। लेकिन उसने आंखों के साथ-साथ दोनों हाथों से अपने कान भी बंद कर लिए थे। और मुझसे कहा थाः ‘मैं धर्म के विरोध में कुछ भी नहीं सुनना चाहता हूं।’ | |||
:मैं आपसे पूछता हूं कि आप भी कहीं आंख-कान बंद कर लेने को तो धर्म नहीं समझते हैं? | |||
:एक व्यक्ति धर्मतीर्थ जा रहा था। मैंने उससे पूछाः ‘मित्र, तीर्थ किसलिए जा रहे हो?’ | |||
:उसने कहा ‘पवित्र होने।’ | |||
:मैंने पूछाः ‘क्या शेष समय अपवित्र होने का ही अभ्यास करते हो? क्या उचित नहीं हैं कि जीवन ही पवित्र हो और पवित्रता और कहीं न खोजनी पड़े? फिर क्या यह संभव भी है कि पवित्रता कहीं मिल सके जबकि जीवन में ही उसे नहीं पा लिया गया है। जीवन की पवित्रता के तीर्थ के अतिरिक्त और कोई तीर्थ कहां है? और जीवन की पवित्रता के मंदिर के अतिरिक्त और कोई परमात्मा का मंदिर कहां है? | |||
:वह व्यक्ति यह सुन कुछ सोच में पड़ गया था, तो मैं प्रसन्न हुआ। | |||
|} | |} |
Revision as of 18:28, 26 April 2018
Flowers and Flowers and Flowers
- year
- 1967
- notes
- 39 sheets plus 2 written on reverse.
- Page numbers showing "R" and "V" refer to "Recto and Verso".