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| | :आचार्यश्री ने ७,८,९,१० अप्रेल संध्या क्रास मैदान की विशाल सभाओं को संबोधित किया और प्रतिदिन सुबह सी. जे. हॉल में जिज्ञासुओ के प्रश्नो के उत्तर दिए| उन्होंने इन चर्चाओं के दौरान कहा:"जीवन से लड़कर मत जियो| शत्रुता की दृष्टि सम्यक नहीं है| मैत्री के प्रकाश में ही जीवन के रहस्य उद्घटित होते हैं| सर्वप्रथम चाहिए की पूर्ण स्वीकृति----जीवन के प्रति सदभाव| लेकिन हज़ारों बरसों की जीवन-विरोधी शिक्षाओं ने मनुष्य में यह भाव ही छिन लिया है| ओर इस भाव के अभाव में हम जीवन को जानने से वंचित रह जाते हों तो कोई आश्चर्या नहीं है| जीवन तो समय है ---- प्रतिपल हम इसमे हैं| हम वही हैं| जैसे मछली सागर में है ऐसे हम जीवन में हैं| लेकिन मछली यदि सागर-विरोधी हो जावे तो उसकी जो गति हो वही हमारी गति हो गयी है| इसलिए में कहता हूँ: जीवन को प्रेम करो, क्योंकि जीवन की गहराइयों में ही परमात्मा का आवास है|" |
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| | :"धर्म तो एक है| धर्म तो स्वरूप है| लेकिन हमने तो चाँद को दिखानेवाली उंगलियाँ ही पकड़ रखी हैं और उन्हें ही चाँद समझ रहे हैं | इसमें धर्म तो विलीन हो गया है और कर्मों की भीड़ लग गयी है |" |
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| | :महावीर जयंती पर पूना में प्रवचन: |
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| | :आचार्यश्री ११ अप्रेल को पूना पधारे| सुबह ही उन्होंने हिंदविजय थियेटर में आयोजित महावीर जयंती की सभा को संबोधित किया| उन्होंने कहा:"महावीर अर्थात सत्य, महावीर अर्थात अहिंसा| लेकिन हम तो व्यक्तियों को पकड़ लेते हैं, औरसत्यों को भूल जाते हैं | चाहिए यह कि सत्य को पकड़ें और व्यक्तियों को छोड़ दें |एक ही सार है | और वह सत्य प्रत्येक में है | व्यक्ति तो इशारे है | महावीर, बुद्ध, कृष्ण या क्राइस्ट तो इशारे हैं | लेकिन हम इशारों को पकड़ कर बैठ गये हैं, और इशारों की ही पूजा कर रहे हैं | मनुष्य की यह विक्षिप्तता इस अद्भुत है, और इस विक्षिप्तता को ही धर्म मानकरसमझा गया है | जैसे कोई रह के किनारे लगे संकेतों को ही मंज़िल समझ ले, एसी ही यह दशा है | सत्य तो एक है लेकिन इशारे तो अनंत हो सकते हैं | और इन इशारों को पकड़ने के कारण ही हिंदू, जैन, मुसलमान और ईसाई ऐसे संप्रदाय पैदा हो गये हैं | जो इन इशारों से उपर उठता है, और उसकी खोज करता है जिसकी ओर कि इशारा इंगित करता था, वह स्वयं पर और सत्य पर पहुँच जाता है |सत्य का वह अनुभव ही धर्म है | वह धर्म एक ही है, क्योंकि |
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Revision as of 06:16, 3 March 2018
Reports of Nation-Wide Programmes of Acharya Shri
- year
- A: 7 - 22 Apr 1968
- B: 5 May - 29 Jul 1968
- C: 2 Aug - 20 Sep 1968
- D: 11 Nov 1968 - 18 Jan 1969
- E: 4 Feb - 2 Apr 1969
- notes
- 69 pages in groups A to E.
- A: 4 sheets
- B: 13 sheets plus 10 written on reverse
- C: 17 sheets
- D: 8 sheets plus 2 written on reverse
- E: 9 sheets plus 7 written on reverse
- Page numbers showing "R" and "V" refer to "Recto and Verso".
page no |
original photo |
enhanced photo |
Hindi transcript |
English translation
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A-1 |
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- समाचार विभाग
- धर्म चक्र प्रवर्तन:
- आचार्यश्री के देशव्यापीकार्यक्रम
- संकलन : नटूभाई मेहता
- "शांति में, मौन में, शून्य में खड़े होकर जीवन को देखना ही धर्म है| वही है धर्म की कला| उसीसे उसमें मिलनहोता है, जो कि सत्य है| प्रेम की भाषा में वह सत्यही परमात्मा है|"
- बम्बई, क्रासमैदानमें विराट सत्संग:
आचार्य श्री ७ अप्रैल की दोपहर बंबई पधारे| संध्या ही उन्होंने क्रास मैदान में आयोजित सत्संग की प्रथम सभा को संबोधित किया| जैसे ग्रीष्म के उत्ताप के बाद भूमि जल के लिए प्यासी होती है वैसे ही हज़ारों व्यक्ति उनके अमृत शब्दों के लिए आतुर रहते हैं| और जो उनके शब्दों के साथ यात्रा करने में सफल होता है, वह उन्हें सुनते-सुनते ही किसी और ही लोक में प्रविस्ट हो जाता है| उनके श्रोताओं में इसीलिए सैकड़ों व्यक्ति ध्यानस्थ देखे जा सकते हैं| उनकी उपस्थिति मात्र से ही जैसे चित्त शांत और शीतलहो जाता है| उन्होंने अपने इस प्रथम उद्द्बोधनमें यहाँ कहा: "विचार परमात्मा का मार्ग नहीं है| विचार सत्य का द्वार नहीं है| सत्या तो है अज्ञान| और विचार केवल उसे हीविचार सकता है जो किजाना ही हुआ है| वह ज्ञान का अतिक्रमण करने में समर्थ नहीं है| वह ज्ञांत में ही गति है| वह स्मृति में ही परिभ्रमण है|और इसीलिए वह नये मेंऔर अनजान में और अज्ञान में नहीं ले जाता है| वह तो अतीत में की बासे में और मृत में ही भटकता रहता है| और सत्य अतीत नहीं है| वह चिर नूतन है| वह तो नित नवीन है| वह तो सदा ही नया और जीवंत है| इसलिए उसे जानने और जीने के लिए विचार से बिल्कुल ही भिन्न दिशा उपलब्ध करनी होती है| वह दिशा है निर्विचार की| विचार को जाने दें और निर्विचार को आने दें| विचार की तरंगों में ही सत्य का शांत सागर छिपा है| शांत होकर, शून्य होकर जीवन को देखें| उसी दर्शन में उससे मिलन होता है जो कि सत्य है| और उस एक को ही प्रेम परमात्मा कहता है|"
- "जीवन को प्रेम करो----जीवन को उसकी गहराइयों में जिओ ---- क्योंकि जीवन के मंदिर में ही परमात्मा का आवास है"
बंबई, सी. जे. हॉल में प्रश्नोत्तरी:
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English translation..... coming soon....
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A-2 |
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- आचार्यश्री ने ७,८,९,१० अप्रेल संध्या क्रास मैदान की विशाल सभाओं को संबोधित किया और प्रतिदिन सुबह सी. जे. हॉल में जिज्ञासुओ के प्रश्नो के उत्तर दिए| उन्होंने इन चर्चाओं के दौरान कहा:"जीवन से लड़कर मत जियो| शत्रुता की दृष्टि सम्यक नहीं है| मैत्री के प्रकाश में ही जीवन के रहस्य उद्घटित होते हैं| सर्वप्रथम चाहिए की पूर्ण स्वीकृति----जीवन के प्रति सदभाव| लेकिन हज़ारों बरसों की जीवन-विरोधी शिक्षाओं ने मनुष्य में यह भाव ही छिन लिया है| ओर इस भाव के अभाव में हम जीवन को जानने से वंचित रह जाते हों तो कोई आश्चर्या नहीं है| जीवन तो समय है ---- प्रतिपल हम इसमे हैं| हम वही हैं| जैसे मछली सागर में है ऐसे हम जीवन में हैं| लेकिन मछली यदि सागर-विरोधी हो जावे तो उसकी जो गति हो वही हमारी गति हो गयी है| इसलिए में कहता हूँ: जीवन को प्रेम करो, क्योंकि जीवन की गहराइयों में ही परमात्मा का आवास है|"
- ___________________________________________________________
- "धर्म तो एक है| धर्म तो स्वरूप है| लेकिन हमने तो चाँद को दिखानेवाली उंगलियाँ ही पकड़ रखी हैं और उन्हें ही चाँद समझ रहे हैं | इसमें धर्म तो विलीन हो गया है और कर्मों की भीड़ लग गयी है |"
- महावीर जयंती पर पूना में प्रवचन:
- आचार्यश्री ११ अप्रेल को पूना पधारे| सुबह ही उन्होंने हिंदविजय थियेटर में आयोजित महावीर जयंती की सभा को संबोधित किया| उन्होंने कहा:"महावीर अर्थात सत्य, महावीर अर्थात अहिंसा| लेकिन हम तो व्यक्तियों को पकड़ लेते हैं, औरसत्यों को भूल जाते हैं | चाहिए यह कि सत्य को पकड़ें और व्यक्तियों को छोड़ दें |एक ही सार है | और वह सत्य प्रत्येक में है | व्यक्ति तो इशारे है | महावीर, बुद्ध, कृष्ण या क्राइस्ट तो इशारे हैं | लेकिन हम इशारों को पकड़ कर बैठ गये हैं, और इशारों की ही पूजा कर रहे हैं | मनुष्य की यह विक्षिप्तता इस अद्भुत है, और इस विक्षिप्तता को ही धर्म मानकरसमझा गया है | जैसे कोई रह के किनारे लगे संकेतों को ही मंज़िल समझ ले, एसी ही यह दशा है | सत्य तो एक है लेकिन इशारे तो अनंत हो सकते हैं | और इन इशारों को पकड़ने के कारण ही हिंदू, जैन, मुसलमान और ईसाई ऐसे संप्रदाय पैदा हो गये हैं | जो इन इशारों से उपर उठता है, और उसकी खोज करता है जिसकी ओर कि इशारा इंगित करता था, वह स्वयं पर और सत्य पर पहुँच जाता है |सत्य का वह अनुभव ही धर्म है | वह धर्म एक ही है, क्योंकि
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