Manuscripts ~ Reports: Difference between revisions

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: "धर्म एक मंदिर है और अधर्म के देवता | इसलिए प्रभु के चरणों में चढ़ाए गये फूल शैतान को ही चढ़ते रहे हैं | क्या समय नहीं आ गया है कि हम वहमों
 
:को उखाड़े और देखें की पुरोहित की आड़ में कौन खड़ा है?"
 
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:पूना में जनसभा:
 
:आचार्यश्री ने ११ अप्रेल की रात्रि एक विशाल जनसभा को संबोधित किया | उनकी क्रांतिकारी वाणी अनेक हृदयों को आंदोलित कर देती है | वे तो एक क्रांति की भाँति हैं | उनसे सुनकर सिर्फ़ स्वर्ग ही शेष बचता है सभी कूडा करकट जलकर राख हो जाता है | उन्होंने यहाँ कहा: "धर्म की आड़ में अधर्म जी रहा है | पुरोहित की आड़ में परमात्मा नहीं, शैतान है | धर्म का मंदिर है, लेकिन आवास उसमें अधर्म का है | शैतान की यह तरकीब बहुत कारगर सिद्द हुई है | क्योंकि अधर्म स्पष्ट हो तो उसमें लड़ना अत्यंत आसान है | लेकिन लेकिन वहाँ वह स्वयं तो शुभ वस्त्रों में आता है, तब बड़ी कठिनाई होती है | क्योंकि तब उसे पहचानना ही कठिन हो जाता है | सदियों से मनुष्यता इसी कठिनाई से गुजर रही है | इसीलिए तो यह विरोधाभासी घटना घटती रही है कि धर्मों की बाढ़ आती गई है और साथ ही अनुपात में अधर्म भी बढ़ता गया है | लेकिन अब जागने का समय आ गया है और धर्म के वस्त्रों को उघाड़कर देखने की ज़रूरत है कि उनके अंदर अधर्म तो नहीं बैठा हुआ है?"
 
 
 
:"धर्म का रहस्या पूछना है तो पूछो बीज से----पूछो बूँद से? बीज मिटता है तो वृक्ष हो जाता है और मनुष्य भी एक बीज नहीं है? बूँद मिटती है तो सागर हो जाती है | फिरमनुष्य भी एक बूँद नहीं है?"
 
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:सिंधी समाज जबलपुर में प्रवचन:
 
:आचार्यश्री ने १४ अप्रेल की रात्रि सिंधी समाज द्वारा आयोजित एक सभा को उद्बोधित किया | उन्होंने यहाँ कहा:"मैं तो एक ही मार्ग मानता हूँ, जीवन को पाने का |  मैं तो एक ही द्वार जानता हूँ प्रभु के मंदिर का | और आप पूछते हैं कि वह मार्ग क्या है?----वह द्वार क्या है? वह मार्ग है स्वयं को मिटा देने का | वह द्वार है शून्य हो जाने का | और मेरी बात का भरोसा ना हो तो पूछो बीज से---पूछो बूँद से | मैंने उन्हीं से पूछा है और जाना है | बीज वृक्ष हो जाता है | बूँद सागर हो
 
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Revision as of 09:00, 4 March 2018

Reports of Nation-Wide Programmes of Acharya Shri

year
A: 7 - 22 Apr 1968
B: 5 May - 29 Jul 1968
C: 2 Aug - 20 Sep 1968
D: 11 Nov 1968 - 18 Jan 1969
E: 4 Feb - 2 Apr 1969
notes
69 pages in groups A to E.
A: 4 sheets
B: 13 sheets plus 10 written on reverse
C: 17 sheets
D: 8 sheets plus 2 written on reverse
E: 9 sheets plus 7 written on reverse
Page numbers showing "R" and "V" refer to "Recto and Verso".


page no original photo enhanced photo Hindi transcript English translation
A-1
समाचार विभाग
धर्म चक्र प्रवर्तन:
आचार्यश्री के देशव्यापीकार्यक्रम
संकलन : नटूभाई मेहता
"शांति में, मौन में, शून्य में खड़े होकर जीवन को देखना ही धर्म है| वही है धर्म की कला| उसीसे उसमें मिलनहोता है, जो कि सत्य है| प्रेम की भाषा में वह सत्यही परमात्मा है|"
बम्बई, क्रासमैदानमें विराट सत्संग:

आचार्य श्री ७ अप्रैल की दोपहर बंबई पधारे| संध्या ही उन्होंने क्रास मैदान में आयोजित सत्संग की प्रथम सभा को संबोधित किया| जैसे ग्रीष्म के उत्ताप के बाद भूमि जल के लिए प्यासी होती है वैसे ही हज़ारों व्यक्ति उनके अमृत शब्दों के लिए आतुर रहते हैं| और जो उनके शब्दों के साथ यात्रा करने में सफल होता है, वह उन्हें सुनते-सुनते ही किसी और ही लोक में प्रविस्ट हो जाता है| उनके श्रोताओं में इसीलिए सैकड़ों व्यक्ति ध्यानस्थ देखे जा सकते हैं| उनकी उपस्थिति मात्र से ही जैसे चित्त शांत और शीतलहो जाता है| उन्होंने अपने इस प्रथम उद्द्बोधनमें यहाँ कहा: "विचार परमात्मा का मार्ग नहीं है| विचार सत्य का द्वार नहीं है| सत्या तो है अज्ञान| और विचार केवल उसे हीविचार सकता है जो किजाना ही हुआ है| वह ज्ञान का अतिक्रमण करने में समर्थ नहीं है| वह ज्ञांत में ही गति है| वह स्मृति में ही परिभ्रमण है|और इसीलिए वह नये मेंऔर अनजान में और अज्ञान में नहीं ले जाता है| वह तो अतीत में की बासे में और मृत में ही भटकता रहता है| और सत्य अतीत नहीं है| वह चिर नूतन है| वह तो नित नवीन है| वह तो सदा ही नया और जीवंत है| इसलिए उसे जानने और जीने के लिए विचार से बिल्कुल ही भिन्न दिशा उपलब्ध करनी होती है| वह दिशा है निर्विचार की| विचार को जाने दें और निर्विचार को आने दें| विचार की तरंगों में ही सत्य का शांत सागर छिपा है| शांत होकर, शून्य होकर जीवन को देखें| उसी दर्शन में उससे मिलन होता है जो कि सत्य है| और उस एक को ही प्रेम परमात्मा कहता है|"

"जीवन को प्रेम करो----जीवन को उसकी गहराइयों में जिओ ---- क्योंकि जीवन के मंदिर में ही परमात्मा का आवास है"

बंबई, सी. जे. हॉल में प्रश्नोत्तरी:

English translation..... coming soon....
A-2
आचार्यश्री ने ७,८,९,१० अप्रेल संध्या क्रास मैदान की विशाल सभाओं को संबोधित किया और प्रतिदिन सुबह सी. जे. हॉल में जिज्ञासुओ के प्रश्नो के उत्तर दिए| उन्होंने इन चर्चाओं के दौरान कहा:"जीवन से लड़कर मत जियो| शत्रुता की दृष्टि सम्यक नहीं है| मैत्री के प्रकाश में ही जीवन के रहस्य उद्घटित होते हैं| सर्वप्रथम चाहिए की पूर्ण स्वीकृति----जीवन के प्रति सदभाव| लेकिन हज़ारों बरसों की जीवन-विरोधी शिक्षाओं ने मनुष्य में यह भाव ही छिन लिया है| ओर इस भाव के अभाव में हम जीवन को जानने से वंचित रह जाते हों तो कोई आश्चर्या नहीं है| जीवन तो समय है ---- प्रतिपल हम इसमे हैं| हम वही हैं| जैसे मछली सागर में है ऐसे हम जीवन में हैं| लेकिन मछली यदि सागर-विरोधी हो जावे तो उसकी जो गति हो वही हमारी गति हो गयी है| इसलिए में कहता हूँ: जीवन को प्रेम करो, क्योंकि जीवन की गहराइयों में ही परमात्मा का आवास है|"
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"धर्म तो एक है| धर्म तो स्वरूप है| लेकिन हमने तो चाँद को दिखानेवाली उंगलियाँ ही पकड़ रखी हैं और उन्हें ही चाँद समझ रहे हैं | इसमें धर्म तो विलीन हो गया है और कर्मों की भीड़ लग गयी है |"
महावीर जयंती पर पूना में प्रवचन:
आचार्यश्री ११ अप्रेल को पूना पधारे| सुबह ही उन्होंने हिंदविजय थियेटर में आयोजित महावीर जयंती की सभा को संबोधित किया| उन्होंने कहा:"महावीर अर्थात सत्य, महावीर अर्थात अहिंसा| लेकिन हम तो व्यक्तियों को पकड़ लेते हैं, औरसत्यों को भूल जाते हैं | चाहिए यह कि सत्य को पकड़ें और व्यक्तियों को छोड़ दें |एक ही सार है | और वह सत्य प्रत्येक में है | व्यक्ति तो इशारे है | महावीर, बुद्ध, कृष्ण या क्राइस्ट तो इशारे हैं | लेकिन हम इशारों को पकड़ कर बैठ गये हैं, और इशारों की ही पूजा कर रहे हैं | मनुष्य की यह विक्षिप्तता इस अद्भुत है, और इस विक्षिप्तता को ही धर्म मानकरसमझा गया है | जैसे कोई रह के किनारे लगे संकेतों को ही मंज़िल समझ ले, एसी ही यह दशा है | सत्य तो एक है लेकिन इशारे तो अनंत हो सकते हैं | और इन इशारों को पकड़ने के कारण ही हिंदू, जैन, मुसलमान और ईसाई ऐसे संप्रदाय पैदा हो गये हैं | जो इन इशारों से उपर उठता है, और उसकी खोज करता है जिसकी ओर कि इशारा इंगित करता था, वह स्वयं पर और सत्य पर पहुँच जाता है |सत्य का वह अनुभव ही धर्म है | वह धर्म एक ही है, क्योंकि
A-3
धर्म का अर्थ है स्वाभाव ---स्वरूप | वह तो एक ही हो सकता है | वहाँ तो पहुँचकर स्वयं का व्यक्तित्व भी छूट जाता है | वहाँ तो बस वही रह जाता है, जो है |"
 
 
"धर्म एक मंदिर है और अधर्म के देवता | इसलिए प्रभु के चरणों में चढ़ाए गये फूल शैतान को ही चढ़ते रहे हैं | क्या समय नहीं आ गया है कि हम वहमों
को उखाड़े और देखें की पुरोहित की आड़ में कौन खड़ा है?"
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पूना में जनसभा:
आचार्यश्री ने ११ अप्रेल की रात्रि एक विशाल जनसभा को संबोधित किया | उनकी क्रांतिकारी वाणी अनेक हृदयों को आंदोलित कर देती है | वे तो एक क्रांति की भाँति हैं | उनसे सुनकर सिर्फ़ स्वर्ग ही शेष बचता है सभी कूडा करकट जलकर राख हो जाता है | उन्होंने यहाँ कहा: "धर्म की आड़ में अधर्म जी रहा है | पुरोहित की आड़ में परमात्मा नहीं, शैतान है | धर्म का मंदिर है, लेकिन आवास उसमें अधर्म का है | शैतान की यह तरकीब बहुत कारगर सिद्द हुई है | क्योंकि अधर्म स्पष्ट हो तो उसमें लड़ना अत्यंत आसान है | लेकिन लेकिन वहाँ वह स्वयं तो शुभ वस्त्रों में आता है, तब बड़ी कठिनाई होती है | क्योंकि तब उसे पहचानना ही कठिन हो जाता है | सदियों से मनुष्यता इसी कठिनाई से गुजर रही है | इसीलिए तो यह विरोधाभासी घटना घटती रही है कि धर्मों की बाढ़ आती गई है और साथ ही अनुपात में अधर्म भी बढ़ता गया है | लेकिन अब जागने का समय आ गया है और धर्म के वस्त्रों को उघाड़कर देखने की ज़रूरत है कि उनके अंदर अधर्म तो नहीं बैठा हुआ है?"
 
 


"धर्म का रहस्या पूछना है तो पूछो बीज से----पूछो बूँद से? बीज मिटता है तो वृक्ष हो जाता है और मनुष्य भी एक बीज नहीं है? बूँद मिटती है तो सागर हो जाती है | फिरमनुष्य भी एक बूँद नहीं है?"
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सिंधी समाज जबलपुर में प्रवचन:
आचार्यश्री ने १४ अप्रेल की रात्रि सिंधी समाज द्वारा आयोजित एक सभा को उद्बोधित किया | उन्होंने यहाँ कहा:"मैं तो एक ही मार्ग मानता हूँ, जीवन को पाने का | मैं तो एक ही द्वार जानता हूँ प्रभु के मंदिर का | और आप पूछते हैं कि वह मार्ग क्या है?----वह द्वार क्या है? वह मार्ग है स्वयं को मिटा देने का | वह द्वार है शून्य हो जाने का | और मेरी बात का भरोसा ना हो तो पूछो बीज से---पूछो बूँद से | मैंने उन्हीं से पूछा है और जाना है | बीज वृक्ष हो जाता है | बूँद सागर हो
जाती है|
A-4
क्या आप परमात्मा होना चाहते हैं? तो मार्ग वही है---द्वार वही है जो कि बीज का है, जो कि बूँद का है | मिटो ताकि पा सको (परमात्मा को)| खो दो (खुद को) ताकि खोज सको (परमात्मा को) | आह! कितनी सुगम है बात लेकिन अहंकार को खोने का तो हमें स्मरण ही नहीं आता है |"
 
 
"जीवन पर्म सूंदर है | लेकिन उसके लिए ही जिनके की अंतस .सौंदर्य से भरे हैं | जीवन तो दर्पण है और उसमें हम वही देख पाते हैं जो की हम हैं |"
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जबलपुर में कला प्रदशनी का उदघाटन :
आचार्यश्री ने १७ अप्रेल की रात्रि कला निकेतन में आयोजित ..कला प्रदर्शनी का उदघाटन किया | एक बड़ी संख्या में कला प्रेमी उन्हें सुनने को एकत्रित हुए | जीवन का कोई भी पहलू क्यों ना हो, उनकी मौलिक दृष्टि सदा ही नये आयामों का अनावरण करती है | उन्होंने यहाँ कहा : "जीवन सौंदर्य है | लेकिन केवल उन्हीं के लिए जिनके कि अंतस भी सुंदर हैं | क्योंकि जीवन तो वस्तुतः एक दर्पण है, और उसमें हमें वही दिखाई पड़ता है जो की हममें हैं | वह हमारा ही ...है | इसलिए कला का मूल आधार सुंदर अंतस के सृजन में है | वह विषय-वस्तु का उतना सृजन नहीं है जितना की अंतस का | यदि जब कला विषायगत ही रह जाती है, तब वह ज़्यादा नहीं होती है | कला की, कला की भाँति पूर्ण प्रतिष्ठा तो तभी होती है जब वह आत्मगत होती है | वह कर्म की सूक्ष्मतम क्रिया है | वह सत्य-साक्षात्कार की सूक्ष्मतम कीमीया है | लेकिन मात्र विषयगत होकर वह एंटिक ही होकर रह जाती है |विषयगत दृष्‍टि की न कोई गहराई है, न कोई उँचाई | वह तो जीवन की सतह पर जीना है | कला इतनी सतही होकर आत्मघात कर लेती है | क्योंकि जहाँ गहराई नहीं, उँचाई नहीं, वहाँ कला की संभावना ही कहाँ है ? आज कला के जगत में एसा ही आत्मघात चल रहा है | मैं आपको ---आप नवोदित कलाकारों को इससे सावधान करना चाहता हूँ | जीवन की गहराइयों में --- अंतस में चाहिए सौंदर्य का सृजन | आत्महोनी चाहिए सुंदर | फिर उस सुंदरता का अनुभव ही परमात्मा का साक्षात्कार बन सकता है |"
 
 
"कर्म को जानना है ---तो भूलकर भी शस्त्रों में मत खोजना | धर्म मृत शब्दों में कहाँ? वह तो सदा ही जीवंत प्रेम में है |"
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लाला लाजपत राय भवन, दिल्ली, में प्रवचन :
आचार्यश्री, २२ अप्रेल को दिल्ली पधारे | सर्वेंट्स ऑफ पीपल सोसाइटी की ओर से लाला लाजपत राय भवन में आयोजित सभा को उन्होंने संबोधित किया |
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