Manuscripts ~ Reports: Difference between revisions
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:बंबई, सी. जे. हॉल में प्रश्नोत्तरी: | :बंबई, सी. जे. हॉल में प्रश्नोत्तरी: | ||
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:महावीर जयंती पर पूना में प्रवचन: | :महावीर जयंती पर पूना में प्रवचन: | ||
:आचार्यश्री ११ अप्रेल को पूना पधारे | सुबह ही उन्होंने हिंदविजय थियेटर में आयोजित महावीर जयंती की सभा को संबोधित किया| उन्होंने कहा:"महावीर अर्थात सत्य, महावीर अर्थात अहिंसा| लेकिन हम तो व्यक्तियों को पकड़ लेते हैं, और सत्यों को भूल जाते हैं | चाहिए यह कि सत्य को पकड़ें और व्यक्तियों को छोड़ दें | एक ही सार है | और वह सत्य प्रत्येक में है | व्यक्ति तो इशारे है | महावीर, बुद्ध, कृष्ण या क्राइस्ट तो इशारे हैं | लेकिन हम इशारों को पकड़ कर बैठ गये हैं, और इशारों की ही पूजा कर रहे हैं | मनुष्य की यह विक्षिप्तता अद्भुत है, और इस विक्षिप्तता को ही धर्म मानकर समझा गया है | जैसे कोई राह के किनारे लगे संकेतों को ही मंज़िल समझ ले, एसी ही यह दशा है | सत्य तो एक है लेकिन इशारे तो अनंत हो सकते हैं | और इन इशारों को पकड़ने के कारण ही हिंदू, जैन, मुसलमान और ईसाई ऐसे संप्रदाय पैदा हो गये हैं | जो इन इशारों से उपर उठता है, और उसकी खोज करता है जिसकी ओर कि इशारा इंगित करता था, वह स्वयं पर और सत्य पर पहुँच जाता है | सत्य का वह अनुभव ही धर्म है | वह धर्म एक ही है, क्योंकि | :आचार्यश्री ११ अप्रेल को पूना पधारे | सुबह ही उन्होंने हिंदविजय थियेटर में आयोजित महावीर जयंती की सभा को संबोधित किया| उन्होंने कहा:"महावीर अर्थात सत्य, महावीर अर्थात अहिंसा| लेकिन हम तो व्यक्तियों को पकड़ लेते हैं, और सत्यों को भूल जाते हैं | चाहिए यह कि सत्य को पकड़ें और व्यक्तियों को छोड़ दें | एक ही सार है | और वह सत्य प्रत्येक में है | व्यक्ति तो इशारे है | महावीर, बुद्ध, कृष्ण या क्राइस्ट तो इशारे हैं | लेकिन हम इशारों को पकड़ कर बैठ गये हैं, और इशारों की ही पूजा कर रहे हैं | मनुष्य की यह विक्षिप्तता अद्भुत है, और इस विक्षिप्तता को ही धर्म मानकर समझा गया है | जैसे कोई राह के किनारे लगे संकेतों को ही मंज़िल समझ ले, एसी ही यह दशा है | सत्य तो एक है लेकिन इशारे तो अनंत हो सकते हैं | और इन इशारों को पकड़ने के कारण ही हिंदू, जैन, मुसलमान और ईसाई ऐसे संप्रदाय पैदा हो गये हैं | जो इन इशारों से उपर उठता है, और उसकी खोज करता है जिसकी ओर कि इशारा इंगित करता था, वह स्वयं पर और सत्य पर पहुँच जाता है | सत्य का वह अनुभव ही धर्म है | वह धर्म एक ही है, क्योंकि | ||
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:सिंधी समाज जबलपुर में प्रवचन: | :सिंधी समाज जबलपुर में प्रवचन: | ||
:आचार्यश्री ने १४ अप्रेल की रात्रि सिंधी समाज द्वारा आयोजित एक सभा को उद्बोधित किया | उन्होंने यहाँ कहा:"मैं तो एक ही मार्ग मानता हूँ, जीवन को पाने का | मैं तो एक ही द्वार जानता हूँ प्रभु के मंदिर का | और आप पूछते हैं कि वह मार्ग क्या है?----वह द्वार क्या है? वह मार्ग है स्वयं को मिटा देने का | वह द्वार है शून्य हो जाने का | और मेरी बात का भरोसा ना हो तो पूछो बीज से---पूछो बूँद से | मैंने उन्हीं से पूछा है और जाना है | बीज वृक्ष हो जाता है | बूँद सागर हो जाती है| | :आचार्यश्री ने १४ अप्रेल की रात्रि सिंधी समाज द्वारा आयोजित एक सभा को उद्बोधित किया | उन्होंने यहाँ कहा:"मैं तो एक ही मार्ग मानता हूँ, जीवन को पाने का | मैं तो एक ही द्वार जानता हूँ प्रभु के मंदिर का | और आप पूछते हैं कि वह मार्ग क्या है?----वह द्वार क्या है? वह मार्ग है स्वयं को मिटा देने का | वह द्वार है शून्य हो जाने का | और मेरी बात का भरोसा ना हो तो पूछो बीज से---पूछो बूँद से | मैंने उन्हीं से पूछा है और जाना है | बीज वृक्ष हो जाता है | बूँद सागर हो जाती है| | ||
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:लाला लाजपत राय भवन, दिल्ली, में प्रवचन : | :लाला लाजपत राय भवन, दिल्ली, में प्रवचन : | ||
:आचार्यश्री, २२ अप्रेल को दिल्ली पधारे | सर्वेंट्स ऑफ पीपल सोसाइटी की ओर से लाला लाजपत राय भवन में आयोजित सभा को उन्होंने संबोधित किया | | :आचार्यश्री, २२ अप्रेल को दिल्ली पधारे | सर्वेंट्स ऑफ पीपल सोसाइटी की ओर से लाला लाजपत राय भवन में आयोजित सभा को उन्होंने संबोधित किया | | ||
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:"महात्वाकांक्षा है युद्धों की जननी | वह ज्वर आनेवाली पीढ़ियों को न दें | इतना ही हम कर सकें तो इससे बड़ी मनुष्यता की दूसरी सेवा नहीं है |" | :"महात्वाकांक्षा है युद्धों की जननी | वह ज्वर आनेवाली पीढ़ियों को न दें | इतना ही हम कर सकें तो इससे बड़ी मनुष्यता की दूसरी सेवा नहीं है |" | ||
:लायंस क्लब इंदौर में, आचार्यश्री ने 6, 7 मई की संध्या लायंस क्लब के सदस्यों को उद्द्बोधित किया | उनहोंने यहाँ कहा: "मनुष्यता युद्धों से पीड़ित है | हम सदा लड़ते ही रहे हैं और लड़ने के कारण जीने का अवसर ही नहीं मिल पाता है | जीवन के अनुभव और आनंद के लिए शांति चाहिए | शांति के अभाव में जीवन में जो भी श्रेष्ठ है, शुभ है, सुंदर है, सरल है, वह सब अपरिचित ही रह जाता है | इसलिए ही हमारा जीवन इतनी व्यर्थता, उब और उदासी से भर गया है | लेकिन शांति कैसे संभव है ? महत्वाकांक्षी चित्त शांत नहीं हो सकता है | महत्वाकांक्षी पीढ़ियों को भी महत्वाकांक्षा के ज्वर में ही पीड़ित किए जा रहे हैं | महत्वाकांक्षा का ज्वर नहीं, मिट जाना है आत्मानंद | महत्वाकांक्षा दूसरे के सुख से ईर्ष्या है | वह दूसरे को पार करने की होड़ है | आत्मानंद का दूसरे से कोई संबंध नहीं | वह स्वयं के आनंद | :लायंस क्लब इंदौर में, आचार्यश्री ने 6, 7 मई की संध्या लायंस क्लब के सदस्यों को उद्द्बोधित किया | उनहोंने यहाँ कहा: "मनुष्यता युद्धों से पीड़ित है | हम सदा लड़ते ही रहे हैं और लड़ने के कारण जीने का अवसर ही नहीं मिल पाता है | जीवन के अनुभव और आनंद के लिए शांति चाहिए | शांति के अभाव में जीवन में जो भी श्रेष्ठ है, शुभ है, सुंदर है, सरल है, वह सब अपरिचित ही रह जाता है | इसलिए ही हमारा जीवन इतनी व्यर्थता, उब और उदासी से भर गया है | लेकिन शांति कैसे संभव है ? महत्वाकांक्षी चित्त शांत नहीं हो सकता है | महत्वाकांक्षी पीढ़ियों को भी महत्वाकांक्षा के ज्वर में ही पीड़ित किए जा रहे हैं | महत्वाकांक्षा का ज्वर नहीं, मिट जाना है आत्मानंद | महत्वाकांक्षा दूसरे के सुख से ईर्ष्या है | वह दूसरे को पार करने की होड़ है | आत्मानंद का दूसरे से कोई संबंध नहीं | वह स्वयं के आनंद | ||
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| B-13R || [[image:man1091.jpg|200px]] || [[image:man1091-2.jpg|200px]] | | B-13R || [[image:man1091.jpg|200px]] || [[image:man1091-2.jpg|200px]] || | ||
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| C-1 || [[image:man1093.jpg|200px]] || [[image:man1093-2.jpg|200px]] || | | C-1 || [[image:man1093.jpg|200px]] || [[image:man1093-2.jpg|200px]] || | ||
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:<u>माधवाश्रम, ग्वालियर , में संगोष्ठी</u> | :<u>माधवाश्रम, ग्वालियर , में संगोष्ठी</u> | ||
:आचार्यश्री के निकट सान्निद्य के लिए 3और 4 अगस्त की प्रभातवेला में माधव आश्रम में संगोष्ठी प्रारंभ होनी थी | आचार्यश्री जिज्ञासुओ के उत्तर देते थे | उन्होंने संगोष्ठी में कहा :"विचार से सत्य नहीं जाना जा सकता है | सत्य है अज्ञात और अज्ञात के बारे में सोंच कैसे सकते हैं? अज्ञात को जानने के लिए तो ज्ञात को छोड़ देना आवश्यक है | जहाँ ज्ञात नहीं है, वहीं अज्ञात का प्रवेश है | विचार ज्ञात हैं | इसलिए | :आचार्यश्री के निकट सान्निद्य के लिए 3और 4 अगस्त की प्रभातवेला में माधव आश्रम में संगोष्ठी प्रारंभ होनी थी | आचार्यश्री जिज्ञासुओ के उत्तर देते थे | उन्होंने संगोष्ठी में कहा :"विचार से सत्य नहीं जाना जा सकता है | सत्य है अज्ञात और अज्ञात के बारे में सोंच कैसे सकते हैं? अज्ञात को जानने के लिए तो ज्ञात को छोड़ देना आवश्यक है | जहाँ ज्ञात नहीं है, वहीं अज्ञात का प्रवेश है | विचार ज्ञात हैं | इसलिए | ||
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| C-2 || [[image:man1094.jpg|200px]] || [[image:man1094-2.jpg|200px]] | | C-2 || [[image:man1094.jpg|200px]] || [[image:man1094-2.jpg|200px]] || | ||
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| C-3 || [[image:man1095.jpg|200px]] || [[image:man1095-2.jpg|200px]] | | C-3 || [[image:man1095.jpg|200px]] || [[image:man1095-2.jpg|200px]] || | ||
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:बंबई, मलाड में साधना शिविर | :बंबई, मलाड में साधना शिविर | ||
:20, 21 और 22 नवम्बर, आचार्यश्री के सान्निध्य में मलाड, बंबई में एक साधना शिविर हुआ | इस शिविर में बड़ी संख्या में साधकों ने भाग लिया | आचार्यश्री ने अविचार, विचार और निर्विचार पर तीन प्रवचन दिए | उन्होंने कहा : "जीवन अपनी पूर्णता में केवल उस चित्त के समक्ष प्रकट होता है, जो की निर्विचार को उपलब्ध हो जाता है | विचार की विक्षिप्त तरंगें चित्त को मौन और शून्य नहीं होने देती हैं, और जबतक चित्त मौन, शून्य और शांत नहीं है, तब तक वह एसा दर्पण नहीं बन पाता है, जो कि सत्य को प्रतिफलित कर सके | सत्य तो निकट है, लेकिन हम शांत नहीं हैं | पूर्णिमा का चाँद तो आकाश में है, लेकिन झील विलुप्त है, इसलिए उसे नहीं जान पा रही है | जैसे ही झील शांत होगी, चाँद उसके हृदयों के हृदय में विराजमान हो जावेगा | इसलिए, मैं कहता हूँ : मौन - मौन - मौन -----मौन हो जाओ ताकि तुम उसे सुन और जान सको जो की परमात्मा है | मित्र, उसे जानते ही जीवन एक आनंद, एक संगीत और एक सौन्दर्य बन जाता है |" | :20, 21 और 22 नवम्बर, आचार्यश्री के सान्निध्य में मलाड, बंबई में एक साधना शिविर हुआ | इस शिविर में बड़ी संख्या में साधकों ने भाग लिया | आचार्यश्री ने अविचार, विचार और निर्विचार पर तीन प्रवचन दिए | उन्होंने कहा : "जीवन अपनी पूर्णता में केवल उस चित्त के समक्ष प्रकट होता है, जो की निर्विचार को उपलब्ध हो जाता है | विचार की विक्षिप्त तरंगें चित्त को मौन और शून्य नहीं होने देती हैं, और जबतक चित्त मौन, शून्य और शांत नहीं है, तब तक वह एसा दर्पण नहीं बन पाता है, जो कि सत्य को प्रतिफलित कर सके | सत्य तो निकट है, लेकिन हम शांत नहीं हैं | पूर्णिमा का चाँद तो आकाश में है, लेकिन झील विलुप्त है, इसलिए उसे नहीं जान पा रही है | जैसे ही झील शांत होगी, चाँद उसके हृदयों के हृदय में विराजमान हो जावेगा | इसलिए, मैं कहता हूँ : मौन - मौन - मौन -----मौन हो जाओ ताकि तुम उसे सुन और जान सको जो की परमात्मा है | मित्र, उसे जानते ही जीवन एक आनंद, एक संगीत और एक सौन्दर्य बन जाता है |" | ||
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: विद्यार्थियों और युवकों के मध्य : पूना ---- | : विद्यार्थियों और युवकों के मध्य : पूना ---- | ||
:आचार्यश्री ने 5 दिसंबर की रात्रि में पूना में युवकों और विद्यार्थियों की एक सभा को संबोधित किया | उन्होने कहा : " जीवन मिलता नहीं, निर्मित करना होता है | जो मिले हुए जीवन मे ही तृप्त हो जाता है, वह जीवन को पाने का अधिकार ही खो देता है | जीवन है एक सृजन --- सतत, अहिर्निश सृजन | :आचार्यश्री ने 5 दिसंबर की रात्रि में पूना में युवकों और विद्यार्थियों की एक सभा को संबोधित किया | उन्होने कहा : " जीवन मिलता नहीं, निर्मित करना होता है | जो मिले हुए जीवन मे ही तृप्त हो जाता है, वह जीवन को पाने का अधिकार ही खो देता है | जीवन है एक सृजन --- सतत, अहिर्निश सृजन | ||
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:आचार्यश्री 4 दिसंबर को लायंस क्लब पूना के अधिवेशन में मुख्य अतिथि की भाँति में पधारे | उन्होंने वहाँ कहा : "मनुष्यता हिंसा से पीड़ित है | 5 हज़ार वर्षों के इतिहास में 15 हज़ार युद्ध हुए हैं ! यह किस तथ्य की सूचना है ? इसीकि कि मनुष्य के भीतर से पशु अभी तक विदा नहीं हुआ है | और अब तो इस पशु के हाथों में बहुत संघारक अनु-अस्त्र आ गये हैं | इससे पूरी मनुष्य जाती के ही नष्ट हो जाने की संभावना पैदा हो गयी है | | :आचार्यश्री 4 दिसंबर को लायंस क्लब पूना के अधिवेशन में मुख्य अतिथि की भाँति में पधारे | उन्होंने वहाँ कहा : "मनुष्यता हिंसा से पीड़ित है | 5 हज़ार वर्षों के इतिहास में 15 हज़ार युद्ध हुए हैं ! यह किस तथ्य की सूचना है ? इसीकि कि मनुष्य के भीतर से पशु अभी तक विदा नहीं हुआ है | और अब तो इस पशु के हाथों में बहुत संघारक अनु-अस्त्र आ गये हैं | इससे पूरी मनुष्य जाती के ही नष्ट हो जाने की संभावना पैदा हो गयी है | | ||
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| D-3 || [[image:man1113.jpg|200px]] || [[image:man1113-2.jpg|200px]] || | | D-3 || [[image:man1113.jpg|200px]] || [[image:man1113-2.jpg|200px]] || | ||
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:आचर्यश्री 8 दिसंबर की प्रभात जैन स्थानक अहमदनगर में पधारे | उन्होंने वहाँ कहा : "परमात्मा की दिशा में सबसे बड़ी बाधा क्या है ? परतंत्रता--- पर्तन्त्र चित्त ही सबसे बड़ी बाधा है | चित्त को स्वतंत्र बनाओ ---शब्दों, सिद्धांतों और शास्त्रों की कारागृह से स्वयं को बाहर लाओ | मनुष्य स्वयं ही परंपराओं की कड़ियों में स्वयं को बाँधे है | और इन्हें तोड़े बिना सत्य के सागर में कोई गति नहीं हो सकती है | अज्ञात में जाने के लिए ज्ञात को छोड़ना ही पड़ता है |" | :आचर्यश्री 8 दिसंबर की प्रभात जैन स्थानक अहमदनगर में पधारे | उन्होंने वहाँ कहा : "परमात्मा की दिशा में सबसे बड़ी बाधा क्या है ? परतंत्रता--- पर्तन्त्र चित्त ही सबसे बड़ी बाधा है | चित्त को स्वतंत्र बनाओ ---शब्दों, सिद्धांतों और शास्त्रों की कारागृह से स्वयं को बाहर लाओ | मनुष्य स्वयं ही परंपराओं की कड़ियों में स्वयं को बाँधे है | और इन्हें तोड़े बिना सत्य के सागर में कोई गति नहीं हो सकती है | अज्ञात में जाने के लिए ज्ञात को छोड़ना ही पड़ता है |" | ||
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| D-4R || [[image:man1114.jpg|200px]] || [[image:man1114-2.jpg|200px]] || | | D-4R || [[image:man1114.jpg|200px]] || [[image:man1114-2.jpg|200px]] || | ||
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:चौदई मैं आमसभा --- | :चौदई मैं आमसभा --- | ||
:आचार्यश्री 18 दिसंबर को यहाँ पधारे | सैंकड़ों उत्सुकजन उन्हें सुनने को एकत्रित हुए | उन्होंने अपनी अमृतवाणी से कहा : "धर्मों में नहीं, धर्म में प्राण है | धर्मों ने ही तो धर्म के प्राण ले लिए हैं | हिंदू, जैन, ईसाई, बौद्द, मुसलमान---इन नामों ने ही सब उपद्रव कर दिया है | इन नामों के कारण ही ---इन देहो के कारण ही आत्मा विस्मृत हो गई है | मैं धार्मिक व्यक्ति का पहला लक्षण यही मानता हूँ कि वह किसी समुदाय आदि किसी सीमा मेआबद्ध न होगा | वह तो सब सीमाएँ छोड़ देगा ताकि असीम को जान सके | सीमाओं में बँधा व्यक्ति अतीत को नहीं जान सकता है | सत्य किसी विशेष में नहीं है और न परमात्मा है किसी चर्च या मंदिर में क़ैद है | वह तो है उस चित्त मैं जो सब सीमाओं से मुक्त है और परमात्मा है उस | :आचार्यश्री 18 दिसंबर को यहाँ पधारे | सैंकड़ों उत्सुकजन उन्हें सुनने को एकत्रित हुए | उन्होंने अपनी अमृतवाणी से कहा : "धर्मों में नहीं, धर्म में प्राण है | धर्मों ने ही तो धर्म के प्राण ले लिए हैं | हिंदू, जैन, ईसाई, बौद्द, मुसलमान---इन नामों ने ही सब उपद्रव कर दिया है | इन नामों के कारण ही ---इन देहो के कारण ही आत्मा विस्मृत हो गई है | मैं धार्मिक व्यक्ति का पहला लक्षण यही मानता हूँ कि वह किसी समुदाय आदि किसी सीमा मेआबद्ध न होगा | वह तो सब सीमाएँ छोड़ देगा ताकि असीम को जान सके | सीमाओं में बँधा व्यक्ति अतीत को नहीं जान सकता है | सत्य किसी विशेष में नहीं है और न परमात्मा है किसी चर्च या मंदिर में क़ैद है | वह तो है उस चित्त मैं जो सब सीमाओं से मुक्त है और परमात्मा है उस | ||
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| D-4V || [[image:man1115.jpg|200px]] || [[image:man1115-2.jpg|200px]] || | | D-4V || [[image:man1115.jpg|200px]] || [[image:man1115-2.jpg|200px]] || | ||
:संत तरण तरण जयंती समारोह पर 17 दिसंबर को आयोजित विशाल जनसभा की अध्यक्षता आचार्यश्री ने की | उन्होने कहा : " धर्म एक है | इस एक धर्म को पैदा होने में --प्रकट होने में | :संत तरण तरण जयंती समारोह पर 17 दिसंबर को आयोजित विशाल जनसभा की अध्यक्षता आचार्यश्री ने की | उन्होने कहा : " धर्म एक है | इस एक धर्म को पैदा होने में --प्रकट होने में | ||
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| D-5 || [[image:man1116.jpg|200px]] || [[image:man1116-2.jpg|200px]] || | | D-5 || [[image:man1116.jpg|200px]] || [[image:man1116-2.jpg|200px]] || | ||
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:चिकलदरा में साधना शिविर | :चिकलदरा में साधना शिविर | ||
:26, 27, 28 दिस. | :26, 27, 28 दिस. | ||
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| D-6 || [[image:man1117.jpg|200px]] || [[image:man1117-2.jpg|200px]] | | D-6 || [[image:man1117.jpg|200px]] || [[image:man1117-2.jpg|200px]] || | ||
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| E-1 || [[image:man1120.jpg|200px]] || [[image:man1120-2.jpg|200px]] || | | E-1 || [[image:man1120.jpg|200px]] || [[image:man1120-2.jpg|200px]] || | ||
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:श्रीरामपुर में सत्संग | :श्रीरामपुर में सत्संग | ||
:आचार्यश्री 4, 5 और 6 फ़रवरी के लिए श्रीरामपुर पधारे | ये तीन दिन श्रीरामपुर के प्रबुद्ध नागरिकों के लिए अविस्मरणीय हो गये हैं | आचार्यश्री ने यहाँ कहा : "सत्य के मार्ग की यात्रा केवल वे ही कर सकते हैं, जो की स्वतन्त्र हैं | स्वतन्त्र चित्त ---समस्त परंपराओं, संस्कारों और विचारों से स्वतंत्र चित्त ही वस्तुतः वह मार्ग है, जो की सत्य तक ले जाता है | स्वतंत्रता ही सत्य का द्वार है | स्वतंत्रता ही सत्य है | इसलिए मैं कहता हूँ कि सत्य मत खोजो | सत्य तो स्वतः आता है | खोजो स्वतंत्रता | लेकिन हम तो .परतंत्रता खोजते हैं और साथ ही सत्य भी चाहते हैं | यह असंभव है, एसा कभी नहीं हो सकता है | क्योंकि, जहाँ स्वतंत्रता ही नहीं है, वहाँ तो अज्ञात की यात्रा ही प्रारंभ नहीं होती है | परतन्त्र चित्त यानी ज्ञात से बँधा चित्त | स्वतन्त्र चित्त यानी ज्ञात से मुक्त चित्त | और निश्चय ही जो ज्ञात से बँधा है, वह अज्ञात को कैसे जान सकता है ? जबकि सत्य अज्ञात है और परमात्मा अज्ञात है | अज्ञात को पाने के लिए ज्ञात को छोड्ना पड़ता है | और यही है सबसे बड़ा साहस | क्योंकि ज्ञात मैं सुरक्षा है | क्योंकि ज्ञात परिचित है और अज्ञात अपरिचित | इसी परिचय और इसी सुरक्षा के कारण मनुष्य स्वयं ही अपनी ज़ंजीरों को मजबूत करता रहता है | जबकि चाहिए मजबूती फिर अपरिचित और अनजान में प्रवेश का साहस | एसा साहस की साधना बनता है | फिर एसे साहसी व्यक्ति को ही में धार्मिक कहता हूँ | साहस करो, स्वतंत्र बनो फिर सत्य को पा लो | सत्य तो सदा द्वार पर खड़ा है, लेकिन हममें आँखें खोलकर उसे देखने का साहस ही नहीं है | परमात्मा तो निकट है, लेकिन हम स्वयं की निर्मित परतंत्रताओं में ही बँधे हैं फिर उसकी ओर एक इंच भी यात्रा करने में असमर्थ हैं |" | :आचार्यश्री 4, 5 और 6 फ़रवरी के लिए श्रीरामपुर पधारे | ये तीन दिन श्रीरामपुर के प्रबुद्ध नागरिकों के लिए अविस्मरणीय हो गये हैं | आचार्यश्री ने यहाँ कहा : "सत्य के मार्ग की यात्रा केवल वे ही कर सकते हैं, जो की स्वतन्त्र हैं | स्वतन्त्र चित्त ---समस्त परंपराओं, संस्कारों और विचारों से स्वतंत्र चित्त ही वस्तुतः वह मार्ग है, जो की सत्य तक ले जाता है | स्वतंत्रता ही सत्य का द्वार है | स्वतंत्रता ही सत्य है | इसलिए मैं कहता हूँ कि सत्य मत खोजो | सत्य तो स्वतः आता है | खोजो स्वतंत्रता | लेकिन हम तो .परतंत्रता खोजते हैं और साथ ही सत्य भी चाहते हैं | यह असंभव है, एसा कभी नहीं हो सकता है | क्योंकि, जहाँ स्वतंत्रता ही नहीं है, वहाँ तो अज्ञात की यात्रा ही प्रारंभ नहीं होती है | परतन्त्र चित्त यानी ज्ञात से बँधा चित्त | स्वतन्त्र चित्त यानी ज्ञात से मुक्त चित्त | और निश्चय ही जो ज्ञात से बँधा है, वह अज्ञात को कैसे जान सकता है ? जबकि सत्य अज्ञात है और परमात्मा अज्ञात है | अज्ञात को पाने के लिए ज्ञात को छोड्ना पड़ता है | और यही है सबसे बड़ा साहस | क्योंकि ज्ञात मैं सुरक्षा है | क्योंकि ज्ञात परिचित है और अज्ञात अपरिचित | इसी परिचय और इसी सुरक्षा के कारण मनुष्य स्वयं ही अपनी ज़ंजीरों को मजबूत करता रहता है | जबकि चाहिए मजबूती फिर अपरिचित और अनजान में प्रवेश का साहस | एसा साहस की साधना बनता है | फिर एसे साहसी व्यक्ति को ही में धार्मिक कहता हूँ | साहस करो, स्वतंत्र बनो फिर सत्य को पा लो | सत्य तो सदा द्वार पर खड़ा है, लेकिन हममें आँखें खोलकर उसे देखने का साहस ही नहीं है | परमात्मा तो निकट है, लेकिन हम स्वयं की निर्मित परतंत्रताओं में ही बँधे हैं फिर उसकी ओर एक इंच भी यात्रा करने में असमर्थ हैं |" | ||
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| E-2R || [[image:man1122.jpg|200px]] || [[image:man1122-2.jpg|200px]] || | | E-2R || [[image:man1122.jpg|200px]] || [[image:man1122-2.jpg|200px]] || | ||
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:<u>बारामती में प्रवचन</u> | :<u>बारामती में प्रवचन</u> | ||
:आचार्यश्री 7 जनवरी को बारामतीपधारे | उन्होंने कहा : "मनुष्य के जीवन की मूल समस्या क्या है ? वह पहेली कौन सी है जिसमें उलझ कर अधिक लोग स्वयं ही समाप्त हो जाते हैं ? ओर जो इस मूल समस्या को बिना जाने ही जीवनचक्र पर चल पड़ता है, निश्चय ही वह यदि भटक जाता हो तो कोई आश्चर्य नहीं है | ओर दुर्भाग्य से अधिक लोग जीवनभर भागते हैं, दौड़ते हैं, ओर गिरते हैं फिर समाप्त भी हो जाते हैं, बिना यह जाने कि वे क्यों दौड़ रहे थे ? ओर क्या कर रहे थे ? क्या आपको उस मूल समस्या का बोध है ? क्या आप उसके प्रति सचेत हैं ? नही | नहीं | ज़रा भी नहीं | अन्यथा आज दुखी ना होते, अन्यथा आप जीवन को एक बोझ की भाँति ना ढोते | क्योंकि जो उस समस्या को जान लेता है, वह उसे हल भी कर लेता है | इसे ठीक से जान लेना ही इसका समाधान भी है | वह समस्या यह है कि वह भीतर खाली और रिक्त है | एक अभाव उसे स्वयं के प्राणों में अनुभव होता है | इस अभाव को, इस रिक्तता को, ओर अकेलेपन को भरने के लिए ही वह दौड़ता फिरता है | धन की, यश की, पद की, सारी खोजें इसी अभाव को भरने के लिए हैं | लेकिन सब पाकर भी पाया जाता है कि वह खाली का खाली है | और यही विफलता ---- यही अनिवार्य विफलता उसे जीते जी मुर्दा बना देती है | यह विफलता अनिवार्य है क्योंकि अभाव है उसके भीतर और जिससे वह भरना चाहता है, वह सब है उसके बाहर | और आंतरिक रिक्तता बाह्य संपदा से कैसे भर सकती है ? इसलिए बाहर संपत्ति का ढेर लग जाता है और भीतर की विपत्ति उससे अधूरी ही रह जाती है | और संपदा के ढेर में भी मनुष्य स्वयं को रिक्त ही पाता है | यह विफलता मनुष्य को त्याग ओर तप आदि कर्म की ओर भी ले जा सकती है | लेकिन वे भी बाहर ही हैं और वे भी व्यर्थ हैं | वस्तुतः सवाल कहीं धन में, | :आचार्यश्री 7 जनवरी को बारामतीपधारे | उन्होंने कहा : "मनुष्य के जीवन की मूल समस्या क्या है ? वह पहेली कौन सी है जिसमें उलझ कर अधिक लोग स्वयं ही समाप्त हो जाते हैं ? ओर जो इस मूल समस्या को बिना जाने ही जीवनचक्र पर चल पड़ता है, निश्चय ही वह यदि भटक जाता हो तो कोई आश्चर्य नहीं है | ओर दुर्भाग्य से अधिक लोग जीवनभर भागते हैं, दौड़ते हैं, ओर गिरते हैं फिर समाप्त भी हो जाते हैं, बिना यह जाने कि वे क्यों दौड़ रहे थे ? ओर क्या कर रहे थे ? क्या आपको उस मूल समस्या का बोध है ? क्या आप उसके प्रति सचेत हैं ? नही | नहीं | ज़रा भी नहीं | अन्यथा आज दुखी ना होते, अन्यथा आप जीवन को एक बोझ की भाँति ना ढोते | क्योंकि जो उस समस्या को जान लेता है, वह उसे हल भी कर लेता है | इसे ठीक से जान लेना ही इसका समाधान भी है | वह समस्या यह है कि वह भीतर खाली और रिक्त है | एक अभाव उसे स्वयं के प्राणों में अनुभव होता है | इस अभाव को, इस रिक्तता को, ओर अकेलेपन को भरने के लिए ही वह दौड़ता फिरता है | धन की, यश की, पद की, सारी खोजें इसी अभाव को भरने के लिए हैं | लेकिन सब पाकर भी पाया जाता है कि वह खाली का खाली है | और यही विफलता ---- यही अनिवार्य विफलता उसे जीते जी मुर्दा बना देती है | यह विफलता अनिवार्य है क्योंकि अभाव है उसके भीतर और जिससे वह भरना चाहता है, वह सब है उसके बाहर | और आंतरिक रिक्तता बाह्य संपदा से कैसे भर सकती है ? इसलिए बाहर संपत्ति का ढेर लग जाता है और भीतर की विपत्ति उससे अधूरी ही रह जाती है | और संपदा के ढेर में भी मनुष्य स्वयं को रिक्त ही पाता है | यह विफलता मनुष्य को त्याग ओर तप आदि कर्म की ओर भी ले जा सकती है | लेकिन वे भी बाहर ही हैं और वे भी व्यर्थ हैं | वस्तुतः सवाल कहीं धन में, | ||
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:या धर्म में भागने का नहीं है | सवाल है स्वयं में जागने का | अभाव क्या है ?---- रिक्तता क्या है ?------यह स्वयं में जो शून्यता है, वह क्या है ? इसे जाने बिना जो मानता है , वह तो बाहर ही भागेगा क्योंकि वह तो भीतर से भयभीत जो है | यहि उसकी मती, गति स्वयं से पलायन ही होगी | जबकि स्वयं से कोई कैसे भाग सकता है ? स्वयं का होना यदि शून्यता भी है तो भी उससे भागा नहीं जा सकता है | वह जो भी है, वही है | उससे भागना असंभव होता है | क्योंकि, स्वयं के प्रति जागते ही पाया जाता है कि जो शून्य जैसा प्रतीत होता था , वह तो पूर्ण है | पूर्ण के प्रति जिद्द हो तो वह शून्य है, यदि शून्य के प्रति भरेंगे तो वही पूर्ण है | शून्य और पूर्ण एक ही सत्य के दो अनुभव हैं | निद्रा में पूर्ण शून्य मालूम होता है और जागरण में शून्य पूर्ण हो जाता है |" | :या धर्म में भागने का नहीं है | सवाल है स्वयं में जागने का | अभाव क्या है ?---- रिक्तता क्या है ?------यह स्वयं में जो शून्यता है, वह क्या है ? इसे जाने बिना जो मानता है , वह तो बाहर ही भागेगा क्योंकि वह तो भीतर से भयभीत जो है | यहि उसकी मती, गति स्वयं से पलायन ही होगी | जबकि स्वयं से कोई कैसे भाग सकता है ? स्वयं का होना यदि शून्यता भी है तो भी उससे भागा नहीं जा सकता है | वह जो भी है, वही है | उससे भागना असंभव होता है | क्योंकि, स्वयं के प्रति जागते ही पाया जाता है कि जो शून्य जैसा प्रतीत होता था , वह तो पूर्ण है | पूर्ण के प्रति जिद्द हो तो वह शून्य है, यदि शून्य के प्रति भरेंगे तो वही पूर्ण है | शून्य और पूर्ण एक ही सत्य के दो अनुभव हैं | निद्रा में पूर्ण शून्य मालूम होता है और जागरण में शून्य पूर्ण हो जाता है |" | ||
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| E-3 || [[image:man1124.jpg|200px]] || [[image:man1124-2.jpg|200px]] || | | E-3 || [[image:man1124.jpg|200px]] || [[image:man1124-2.jpg|200px]] || | ||
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:<u>बारामति साइंस कालेज में उदबोधन</u> | :<u>बारामति साइंस कालेज में उदबोधन</u> | ||
:7 फ़रवरी की दोपहर आचार्यश्री ने बारामति साइंस कालेज के विद्यार्थियों को संबोधित किया | उन्होंने कहा : "मनुष्य का अतीत अत्यंत हिंसा, क्रूरता आदि अज्ञान से भरा रहा है | 5 हज़ार वर्षों में 15 हज़ार युद्ध हुए हैं | और आश्चर्य तो यह है कि इस दुर्भाग्यपूर्ण अतीत से हमने अबतक कोई भी सीख नहीं ली है | मनुष्य वैसा का वैसा ही है | उसमें कोई मौलिक क्रांति नहीं हुई है | लेकिन अब या तो मनुष्य को आमूलतः बदलना होगा या मनुष्य की जाति ही नष्ट हो जाएगी क्योंकि विज्ञान ने एसी शक्ति उसके हाथों में रख दी है कि वह हिंसक रहकर आज आत्मघात से नहीं बच सकता है | आत्मघात या आत्मक्रांति---बस आज ये दो ही विकल्प मनुष्यता के लिए हैं | आत्मक्रांति से मेरा क्या अर्थ है ? शरीर के तल पर मनुष्य ने भलीभाँति जीकर देख लिया है | इस जीवन में दुख के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है | और इस जीवन की पुर्णाहुति होती है, मृत्यु में | और स्मरण रहे कि जो दुख में जीता है और मृत्यु में समाप्त होता है, वह दूसरों के लिए भी दुख बन जाता है, और मृत्यु बन जाता है | इससे ही इतनी हिंसा हैं, इतने युद्ध हैं, इतनी शत्रुता है | शरीर में ही जीवन को समाप्त मान लेने का यह स्वाभाविक परिणाम है | लेकिन एक और जीवन भी है | आत्मा का जीवन भी है | जो स्वयं की चेतना के केंद्र को खोजता है ओर उसे पाकर उसके लिए मृत्यु नहीं है | उसे न जानने से ही मृत्यु का भ्रम पैदा होता है | और जो उसे जान लेता है उसके लिए फिर मृत्यु मिट जाती है | निश्चय ही उसे जानना समस्त दुखों और पीड़ाओं के उपर उठ जाना है क्योंकि वह भोक्ता नहीं है | वह तो बस ज्ञाता है | और जो स्वयं दुख के बाहर हो जाता है, वह किसी को भी दुख देने में असमर्थ हो जाता है | एसी चित्त की दशा ही अहिंसा है | उससे तो प्रेम बहता है क्योंकि वह प्रेम है | उससे तो आनंद बहता है क्योंकि वह आनंद है | उससे तो अमृत बहता है क्योंकि वह अमृत है |” | :7 फ़रवरी की दोपहर आचार्यश्री ने बारामति साइंस कालेज के विद्यार्थियों को संबोधित किया | उन्होंने कहा : "मनुष्य का अतीत अत्यंत हिंसा, क्रूरता आदि अज्ञान से भरा रहा है | 5 हज़ार वर्षों में 15 हज़ार युद्ध हुए हैं | और आश्चर्य तो यह है कि इस दुर्भाग्यपूर्ण अतीत से हमने अबतक कोई भी सीख नहीं ली है | मनुष्य वैसा का वैसा ही है | उसमें कोई मौलिक क्रांति नहीं हुई है | लेकिन अब या तो मनुष्य को आमूलतः बदलना होगा या मनुष्य की जाति ही नष्ट हो जाएगी क्योंकि विज्ञान ने एसी शक्ति उसके हाथों में रख दी है कि वह हिंसक रहकर आज आत्मघात से नहीं बच सकता है | आत्मघात या आत्मक्रांति---बस आज ये दो ही विकल्प मनुष्यता के लिए हैं | आत्मक्रांति से मेरा क्या अर्थ है ? शरीर के तल पर मनुष्य ने भलीभाँति जीकर देख लिया है | इस जीवन में दुख के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है | और इस जीवन की पुर्णाहुति होती है, मृत्यु में | और स्मरण रहे कि जो दुख में जीता है और मृत्यु में समाप्त होता है, वह दूसरों के लिए भी दुख बन जाता है, और मृत्यु बन जाता है | इससे ही इतनी हिंसा हैं, इतने युद्ध हैं, इतनी शत्रुता है | शरीर में ही जीवन को समाप्त मान लेने का यह स्वाभाविक परिणाम है | लेकिन एक और जीवन भी है | आत्मा का जीवन भी है | जो स्वयं की चेतना के केंद्र को खोजता है ओर उसे पाकर उसके लिए मृत्यु नहीं है | उसे न जानने से ही मृत्यु का भ्रम पैदा होता है | और जो उसे जान लेता है उसके लिए फिर मृत्यु मिट जाती है | निश्चय ही उसे जानना समस्त दुखों और पीड़ाओं के उपर उठ जाना है क्योंकि वह भोक्ता नहीं है | वह तो बस ज्ञाता है | और जो स्वयं दुख के बाहर हो जाता है, वह किसी को भी दुख देने में असमर्थ हो जाता है | एसी चित्त की दशा ही अहिंसा है | उससे तो प्रेम बहता है क्योंकि वह प्रेम है | उससे तो आनंद बहता है क्योंकि वह आनंद है | उससे तो अमृत बहता है क्योंकि वह अमृत है |” | ||
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:<u>मंडला में विशाल जनसभा</u> | :<u>मंडला में विशाल जनसभा</u> | ||
:आचार्यश्री 21 फ़रवरी की संध्या मंडला पधारे | रात को उन्होंने एक विशाल जनसभा को संबोधित किया | उन्होंने कहा : "मैं प्रेम के अतिरिक्त और किसी प्रार्थना को नहीं जानता हूँ | और मै कहता हूँ कि जो प्रेम में समग्रतः प्रविष्ट हो जाते हैं, वे परमात्मा को भी पा लेते हैं | लेकिन प्रेम को पाने के लिए स्वयं को खोना पड़ता है | क्योंकि अह्न्कार की चट्टान के अतिरिक्त प्रेम के झरने को रोकने में और क्या बाधा है ? प्रेम तो प्रत्येक के हृदय में भरा है, लेकिन अहंकार द्वार को रोके हुए है | अहंकार को छोड़ो यदि प्रेम को पाना है तो | और प्रेम तो आवश्यक है यदि परमात्मा को पाना है | अहंकार अंधकार है | परमात्मा आलोक | अहंकार परतंत्रता है | परमात्मा स्वतंत्रता है | और अहंकार से, अंधकार से, परतंत्रता से जो परमात्मा तक, प्रकाश तक, परममुक्ति तक जाना चाहता है, उसके लिए मार्ग क्या है ? उसके लिए प्रेम मार्ग है | प्रेम और प्रेम और प्रेम | प्रेम ही जीवन है | प्रेम ही प्रार्थना | और अंततः प्रेम ही परमात्मा है | लेकिन हम प्रार्थनाएँ भी करते हैं, और परमात्मा के मंदिरों में मनुष्य निर्मित मंदिरों की परिक्रमाएँ भी करते हैं, पर प्रेम में हमारे हृदय बिल्कुल शून्य हैं | इसलिए न हमारी प्रार्थनाओं का कोई मूल्य है और न हमारे परमात्माओं का | उल्टे वे और भी मनुष्य को मनुष्य से तोड़ते जाने का कारण बन गये हैं | और क्या जो मनुष्य को मनुष्य से ही तोड़ देता हो, वह कभी उसे परमात्मा से भी जोड़ सकता है ? प्रेम के अतिरिक्त और कोई कर्म नहीं है | क्योंकि प्रेम के अतिरिक्त स्वयं और समग्र के बीच और कोई सेतु नहीं है | प्रार्थनाएँ छोड़ो और प्रेम करो | परमात्मा को छोड़ो और प्रेम करो | और अंततः पाओगे कि प्रार्थना पूरी हो गयी है और | :आचार्यश्री 21 फ़रवरी की संध्या मंडला पधारे | रात को उन्होंने एक विशाल जनसभा को संबोधित किया | उन्होंने कहा : "मैं प्रेम के अतिरिक्त और किसी प्रार्थना को नहीं जानता हूँ | और मै कहता हूँ कि जो प्रेम में समग्रतः प्रविष्ट हो जाते हैं, वे परमात्मा को भी पा लेते हैं | लेकिन प्रेम को पाने के लिए स्वयं को खोना पड़ता है | क्योंकि अह्न्कार की चट्टान के अतिरिक्त प्रेम के झरने को रोकने में और क्या बाधा है ? प्रेम तो प्रत्येक के हृदय में भरा है, लेकिन अहंकार द्वार को रोके हुए है | अहंकार को छोड़ो यदि प्रेम को पाना है तो | और प्रेम तो आवश्यक है यदि परमात्मा को पाना है | अहंकार अंधकार है | परमात्मा आलोक | अहंकार परतंत्रता है | परमात्मा स्वतंत्रता है | और अहंकार से, अंधकार से, परतंत्रता से जो परमात्मा तक, प्रकाश तक, परममुक्ति तक जाना चाहता है, उसके लिए मार्ग क्या है ? उसके लिए प्रेम मार्ग है | प्रेम और प्रेम और प्रेम | प्रेम ही जीवन है | प्रेम ही प्रार्थना | और अंततः प्रेम ही परमात्मा है | लेकिन हम प्रार्थनाएँ भी करते हैं, और परमात्मा के मंदिरों में मनुष्य निर्मित मंदिरों की परिक्रमाएँ भी करते हैं, पर प्रेम में हमारे हृदय बिल्कुल शून्य हैं | इसलिए न हमारी प्रार्थनाओं का कोई मूल्य है और न हमारे परमात्माओं का | उल्टे वे और भी मनुष्य को मनुष्य से तोड़ते जाने का कारण बन गये हैं | और क्या जो मनुष्य को मनुष्य से ही तोड़ देता हो, वह कभी उसे परमात्मा से भी जोड़ सकता है ? प्रेम के अतिरिक्त और कोई कर्म नहीं है | क्योंकि प्रेम के अतिरिक्त स्वयं और समग्र के बीच और कोई सेतु नहीं है | प्रार्थनाएँ छोड़ो और प्रेम करो | परमात्मा को छोड़ो और प्रेम करो | और अंततः पाओगे कि प्रार्थना पूरी हो गयी है और | ||
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| E-4V || [[image:man1126.jpg|200px]] || [[image:man1126-2.jpg|200px]] || | | E-4V || [[image:man1126.jpg|200px]] || [[image:man1126-2.jpg|200px]] || | ||
:परमात्मा स्वयम् ही उपलब्ध हो गया है |” | :परमात्मा स्वयम् ही उपलब्ध हो गया है |” | ||
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:<u>सरदार पटेल विश्वविद्यालय, आणंद में प्रवचन</u> | :<u>सरदार पटेल विश्वविद्यालय, आणंद में प्रवचन</u> | ||
:आचार्यश्री ने 3 मार्च की दोपहर सरदार वल्लभभाई पटेल विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों के बीच अपने विचार प्रकट किए | उन्होंने कहा : "विचार को जगाओ | सम्यक तर्क को जगाओ | और विश्वास से बचो | क्योंकि विश्वास अन्धेपन में ले जाता है | मनुष्य | :आचार्यश्री ने 3 मार्च की दोपहर सरदार वल्लभभाई पटेल विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों के बीच अपने विचार प्रकट किए | उन्होंने कहा : "विचार को जगाओ | सम्यक तर्क को जगाओ | और विश्वास से बचो | क्योंकि विश्वास अन्धेपन में ले जाता है | मनुष्य | ||
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| E-5V || [[image:man1128.jpg|200px]] || [[image:man1128-2.jpg|200px]] || | | E-5V || [[image:man1128.jpg|200px]] || [[image:man1128-2.jpg|200px]] || | ||
:के दुर्भाग्य की सारी कथा उसके अंधे विश्वासों के अभाव में घटित नहीं हो सकती | और स्मरण रहे कि विश्वास मात्र अंधे होते हैं | फिर वे विश्वास चाहे आस्तीकों के हों चाहे नास्तीकों के | मैं तुमसे निवेदन करता हूँ कि तुम विश्वासों से अपने को मत खोजना | क्योंकि जो विश्वासों में बँध जाता है, उसकी खोज निष्फल और निर्दोष नहीं हो पाती है और वह सत्य को जानने में असमर्थ हो जाता है | और सत्य को जाने बिना, पाए बिना न जीवन में अर्थ है, न अभिप्राय है, न आनंद है | इसलिए सदा अपने चित्त को निष्पक्ष रखना और मन के द्वार खुले रखना और अपनी जिग्यासा को सचेत और जीवंत रखना ताकि एक दिन तुम उसे जान सको जो कि समस्त जीवन का मूल है और उसे जानकर् और पाकर उस धन्यता और कृतार्थता को पा सको जिसे पाने के लिए ही प्रत्येक व्यक्ति जन्मता है लेकिन जिसे बहुत थोड़े से लोग ही उपलब्ध हो पाते हैं | क्योंकि अधिक लोग विश्वासों से बँध जाते हैं और निष्फल खोज कि कमियों को खोजते हैं जिनके अभाव में सत्य के दर्शन होने असंभव हैं | विश्वास नहीं, विवेक----यदि यही तुम्हारी यात्रा की दिशा बन सकी तो तुम निश्चय ही उसे जान पाओगे जो कि सत्य है, जो की परमात्मा है | सत्य ही परमात्मा है | उसके अतिरिक्त और कोई परमात्मा नहीं है | और सत्य को पाने का मार्ग विवेक है |" | :के दुर्भाग्य की सारी कथा उसके अंधे विश्वासों के अभाव में घटित नहीं हो सकती | और स्मरण रहे कि विश्वास मात्र अंधे होते हैं | फिर वे विश्वास चाहे आस्तीकों के हों चाहे नास्तीकों के | मैं तुमसे निवेदन करता हूँ कि तुम विश्वासों से अपने को मत खोजना | क्योंकि जो विश्वासों में बँध जाता है, उसकी खोज निष्फल और निर्दोष नहीं हो पाती है और वह सत्य को जानने में असमर्थ हो जाता है | और सत्य को जाने बिना, पाए बिना न जीवन में अर्थ है, न अभिप्राय है, न आनंद है | इसलिए सदा अपने चित्त को निष्पक्ष रखना और मन के द्वार खुले रखना और अपनी जिग्यासा को सचेत और जीवंत रखना ताकि एक दिन तुम उसे जान सको जो कि समस्त जीवन का मूल है और उसे जानकर् और पाकर उस धन्यता और कृतार्थता को पा सको जिसे पाने के लिए ही प्रत्येक व्यक्ति जन्मता है लेकिन जिसे बहुत थोड़े से लोग ही उपलब्ध हो पाते हैं | क्योंकि अधिक लोग विश्वासों से बँध जाते हैं और निष्फल खोज कि कमियों को खोजते हैं जिनके अभाव में सत्य के दर्शन होने असंभव हैं | विश्वास नहीं, विवेक----यदि यही तुम्हारी यात्रा की दिशा बन सकी तो तुम निश्चय ही उसे जान पाओगे जो कि सत्य है, जो की परमात्मा है | सत्य ही परमात्मा है | उसके अतिरिक्त और कोई परमात्मा नहीं है | और सत्य को पाने का मार्ग विवेक है |" | ||
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| E-6R || [[image:man1129.jpg|200px]] || [[image:man1129-2.jpg|200px]] || | | E-6R || [[image:man1129.jpg|200px]] || [[image:man1129-2.jpg|200px]] || | ||
:"मिटो ताकि पा सको | मनुष्य जहाँ नहीं है, मन जहाँ नहीं है, वहीं वह है, 'जो है' |" | :"मिटो ताकि पा सको | मनुष्य जहाँ नहीं है, मन जहाँ नहीं है, वहीं वह है, 'जो है' |" | ||
:<u>अहमदाबाद में सत्संग</u> | :<u>अहमदाबाद में सत्संग</u> | ||
:आचार्यश्री के सान्निध्य में 4, 5, 6 मार्च को एक विशाल सत्संग का आयोजन यहाँ हुआ | इस सत्संग से एक क्रांति की लहर ही पैदा हो गई | आचार्या श्री ने प्रवचन दिए | उन्होंने कहा : "धर्मों में धर्म नहीं है | और जिसे धर्म को पाना है, उसे धर्मों से मुक्त होना पड़ता है | धर्म तो एक है क्योंकि सत्य एक है | और इस सत्य को पाने के लिए सत्य के संबंध में प्रचारित और स्वीकृत सारी धारणाएँ छोड़नी आवश्यक हैं | जो उन धारणाओं को लेकर चलता है, वह सत्य को नहीं, बस अपनी धारणाओं के ही अनुभव को उपलब्ध होता है | निश्चय ही वैसी अनुभूतियाँ स्वयं की मनोकल्पनाओं से ज़्यादा नहीं होती है | और कल्पनाएं करने में मनुष्य का मन खूब समर्थ है | प्रकार प्रकार के ईश्वर इसी मन से पैदा होते हैं | लेकिन 'जो है' उसे जानने में एसा मन असमर्थ हो जाता है | तथाकथित धार्मिक लोग इसीलिए कभी सत्य को नहीं जान पाते हैं | क्योंकि वे स्वयं को गढ़ने में जो संलग्न होते हैं | एसे गृह-निर्मित सत्यों के कारण ही धर्मों का नाश हो गया है | जबकि धर्म में प्रवेश के लिए सत्यों के घड़ने का यह गृह-उद्योग बिल्कुल ही बंद करना होता है | मन जब सबभाँति धारणा शून्य, विचारों से रिक्त और कल्पनों से मुक्त होता है, तभी वह जाना जाता है, जो है | वही है सत्य | वही है परमात्मा | और उसे जानना ही मुक्ति है | निश्चय ही स्वयं सत्य को नहीं घड़ना है, बल्कि स्वयं को मिटाना है ताकि सत्य प्रकट हो सके | और तब चित्त धारणाओं और विचारों और कल्पनाओं से शून्य होता है तो मिट ही जाता है | इस नकारात्मक दशा में ही सत्य जाना जाता है | मन की कोई भी विधायक क्रिया उसे पाने में बाधा है | मनुष्य सत्य को नहीं पा सकता है | हाँ, जहाँ वह नहीं है, वहीं सत्य प्रकट है |“ | :आचार्यश्री के सान्निध्य में 4, 5, 6 मार्च को एक विशाल सत्संग का आयोजन यहाँ हुआ | इस सत्संग से एक क्रांति की लहर ही पैदा हो गई | आचार्या श्री ने प्रवचन दिए | उन्होंने कहा : "धर्मों में धर्म नहीं है | और जिसे धर्म को पाना है, उसे धर्मों से मुक्त होना पड़ता है | धर्म तो एक है क्योंकि सत्य एक है | और इस सत्य को पाने के लिए सत्य के संबंध में प्रचारित और स्वीकृत सारी धारणाएँ छोड़नी आवश्यक हैं | जो उन धारणाओं को लेकर चलता है, वह सत्य को नहीं, बस अपनी धारणाओं के ही अनुभव को उपलब्ध होता है | निश्चय ही वैसी अनुभूतियाँ स्वयं की मनोकल्पनाओं से ज़्यादा नहीं होती है | और कल्पनाएं करने में मनुष्य का मन खूब समर्थ है | प्रकार प्रकार के ईश्वर इसी मन से पैदा होते हैं | लेकिन 'जो है' उसे जानने में एसा मन असमर्थ हो जाता है | तथाकथित धार्मिक लोग इसीलिए कभी सत्य को नहीं जान पाते हैं | क्योंकि वे स्वयं को गढ़ने में जो संलग्न होते हैं | एसे गृह-निर्मित सत्यों के कारण ही धर्मों का नाश हो गया है | जबकि धर्म में प्रवेश के लिए सत्यों के घड़ने का यह गृह-उद्योग बिल्कुल ही बंद करना होता है | मन जब सबभाँति धारणा शून्य, विचारों से रिक्त और कल्पनों से मुक्त होता है, तभी वह जाना जाता है, जो है | वही है सत्य | वही है परमात्मा | और उसे जानना ही मुक्ति है | निश्चय ही स्वयं सत्य को नहीं घड़ना है, बल्कि स्वयं को मिटाना है ताकि सत्य प्रकट हो सके | और तब चित्त धारणाओं और विचारों और कल्पनाओं से शून्य होता है तो मिट ही जाता है | इस नकारात्मक दशा में ही सत्य जाना जाता है | मन की कोई भी विधायक क्रिया उसे पाने में बाधा है | मनुष्य सत्य को नहीं पा सकता है | हाँ, जहाँ वह नहीं है, वहीं सत्य प्रकट है |“ | ||
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:"ईश्वर मर गया है | और अब उस ईश्वर को खोजना है, जो न जन्मता है, और न मरता है|" - क्रास कर दिया गया | | :"ईश्वर मर गया है | और अब उस ईश्वर को खोजना है, जो न जन्मता है, और न मरता है|" - क्रास कर दिया गया | | ||
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| E-7R || [[image:man1131.jpg|200px]] || [[image:man1131-2.jpg|200px]] || | | E-7R || [[image:man1131.jpg|200px]] || [[image:man1131-2.jpg|200px]] || | ||
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:२९ मार्च | सिंधी समाज जबलपुर में प्रेम दिवस (रेड टिक) | :२९ मार्च | सिंधी समाज जबलपुर में प्रेम दिवस (रेड टिक) | ||
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:<u>हैदराबाद में सत्संग</u> | :<u>हैदराबाद में सत्संग</u> | ||
:आचार्यश्री के सान्निध्य में आयोजित सत्संग से हैदराबाद की जनता में एक अत्यंत विचारोत्तेजक भावदशा निर्मित हुई | उनके शब्द तो अग्नि की भाँति हैं, जो कि जलाते भी हैं और निखारते भी हैं | उन्होंने यहाँ कहा : "धर्म का हाल धर्मों के कारण हुआ है | मनुष्य को धर्मों ने जोड़ा नहीं है उल्टे तोड़ा है | उन्होंने बात तो प्रेम क़ि करी लेकिन घृणा के संगठन खड़े किए हैं | वस्तुतः संगठन या संप्रदाय के पीछे घृणा और हिंसा ही होती है | धर्म का संगठन से कोई संबंध नहीं है | धर्म संगठन नहीं है | धर्म साधना है | और इसलिए धर्म अत्यंत वैयक्तिक है | व्यक्ति जितना भी स्वयं में प्रविष्ठ होता है, उतना ही वह धर्म के सत्य को जानता और अनुभव करता है | स्वयं की अत्यंतिक निजता में ही धर्म का सत्य उपल्बध होता है | इसलिए संगठनों में धर्म को मत खोजो | वह तो निज के एकांत और मौन में है | इसलिए भीड़ और समूह में उसे मत खोजो | वह तो स्वयं में ही है | शांत होकर उसे स्वयं में देखोगे तो पाओगे कि उसकी ज्योति तो निरंतर भीतर जल रही है | वह न मंदिरों में है, न तीर्थों में | वह तो वहाँ छिपा है जहाँ कि हम उसे खोजते ही नहीं हैं | वह तो स्वयं में ही छिपा है |” | :आचार्यश्री के सान्निध्य में आयोजित सत्संग से हैदराबाद की जनता में एक अत्यंत विचारोत्तेजक भावदशा निर्मित हुई | उनके शब्द तो अग्नि की भाँति हैं, जो कि जलाते भी हैं और निखारते भी हैं | उन्होंने यहाँ कहा : "धर्म का हाल धर्मों के कारण हुआ है | मनुष्य को धर्मों ने जोड़ा नहीं है उल्टे तोड़ा है | उन्होंने बात तो प्रेम क़ि करी लेकिन घृणा के संगठन खड़े किए हैं | वस्तुतः संगठन या संप्रदाय के पीछे घृणा और हिंसा ही होती है | धर्म का संगठन से कोई संबंध नहीं है | धर्म संगठन नहीं है | धर्म साधना है | और इसलिए धर्म अत्यंत वैयक्तिक है | व्यक्ति जितना भी स्वयं में प्रविष्ठ होता है, उतना ही वह धर्म के सत्य को जानता और अनुभव करता है | स्वयं की अत्यंतिक निजता में ही धर्म का सत्य उपल्बध होता है | इसलिए संगठनों में धर्म को मत खोजो | वह तो निज के एकांत और मौन में है | इसलिए भीड़ और समूह में उसे मत खोजो | वह तो स्वयं में ही है | शांत होकर उसे स्वयं में देखोगे तो पाओगे कि उसकी ज्योति तो निरंतर भीतर जल रही है | वह न मंदिरों में है, न तीर्थों में | वह तो वहाँ छिपा है जहाँ कि हम उसे खोजते ही नहीं हैं | वह तो स्वयं में ही छिपा है |” | ||
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:<u>कटनी में संगोष्ठी</u> | :<u>कटनी में संगोष्ठी</u> | ||
:आचार्यश्री के सत्संग के लिए 9 अप्रेल को कटनी के प्रबुद्ध नागरिकों की एक संगोष्ठी हुई | आचार्यश्री नेसंगोष्ठीमें कहा:"अहंकार दुख है | अहंकार पीड़ा है | अहंकार अंधकार है | लेकिन हम उसमें ही जीते हैं और इसीलिए न तो हम जीवन को जान पाते हैं और न सत्य को, न सौंदर्य को, न शांति को | अहन्कार कारागृह है | और उस कारागृह में सूर्य का आलोक नहीं पहुँचता है | लेकिन हम आलोक भी चाहते हैं, आनंद भी चाहते हैं और अहंकार के कारागृह की दीवारों को उँचा भी उठाए जाते हैं | क्या यह विरोधाभास आपको दिखाई नहीं पड़ता है? इस विरोधाभास के दिखाई पड़ते ही जीवन में एक क्रांति हो जाती है | क्योंकि कोई भी व्यक्ति यदि विरोधाभास को देखले फिर विरोधी दिशाओं में एक | :आचार्यश्री के सत्संग के लिए 9 अप्रेल को कटनी के प्रबुद्ध नागरिकों की एक संगोष्ठी हुई | आचार्यश्री नेसंगोष्ठीमें कहा:"अहंकार दुख है | अहंकार पीड़ा है | अहंकार अंधकार है | लेकिन हम उसमें ही जीते हैं और इसीलिए न तो हम जीवन को जान पाते हैं और न सत्य को, न सौंदर्य को, न शांति को | अहन्कार कारागृह है | और उस कारागृह में सूर्य का आलोक नहीं पहुँचता है | लेकिन हम आलोक भी चाहते हैं, आनंद भी चाहते हैं और अहंकार के कारागृह की दीवारों को उँचा भी उठाए जाते हैं | क्या यह विरोधाभास आपको दिखाई नहीं पड़ता है? इस विरोधाभास के दिखाई पड़ते ही जीवन में एक क्रांति हो जाती है | क्योंकि कोई भी व्यक्ति यदि विरोधाभास को देखले फिर विरोधी दिशाओं में एक | ||
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:<u>पूना में सत्संग</u> | :<u>पूना में सत्संग</u> | ||
:आचार्यश्री 22, 23, 24 अप्रेल को पूना पधारे | यहाँ उन्होंने तीन प्रवचन दिए | इन प्रवचनों में सैकड़ों लोग उपस्थित हुए और आनंदित हुए| आचार्यश्री को सुनना एक अभूतपूर्व आनंद है | | :आचार्यश्री 22, 23, 24 अप्रेल को पूना पधारे | यहाँ उन्होंने तीन प्रवचन दिए | इन प्रवचनों में सैकड़ों लोग उपस्थित हुए और आनंदित हुए| आचार्यश्री को सुनना एक अभूतपूर्व आनंद है | | ||
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:२२ अप्रेल | जीवन जागृति केंद्र जबलपुर की संगोष्ठी | :२२ अप्रेल | जीवन जागृति केंद्र जबलपुर की संगोष्ठी | ||
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Revision as of 15:40, 7 March 2018
Reports of Nation-Wide Programmes of Acharya Shri
- year
- A: 7 - 22 Apr 1968
- B: 5 May - 29 Jul 1968
- C: 2 Aug - 20 Sep 1968
- D: 11 Nov 1968 - 18 Jan 1969
- E: 4 Feb - 2 Apr 1969
- notes
- 69 pages in groups A to E.
- A: 4 sheets
- B: 13 sheets plus 10 written on reverse
- C: 17 sheets
- D: 8 sheets plus 2 written on reverse
- E: 9 sheets plus 7 written on reverse
- Page numbers showing "R" and "V" refer to "Recto and Verso".