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Reports of Nation-Wide Programmes of Acharya Shri

year
A: 7 - 22 Apr 1968
B: 5 May - 29 Jul 1968
C: 2 Aug - 20 Sep 1968
D: 11 Nov 1968 - 18 Jan 1969
E: 4 Feb - 2 Apr 1969
notes
69 pages in groups A to E.
A: 4 sheets
B: 13 sheets plus 10 written on reverse
C: 17 sheets
D: 8 sheets plus 2 written on reverse
E: 9 sheets plus 7 written on reverse
Page numbers showing "R" and "V" refer to "Recto and Verso".


page no original photo enhanced photo Hindi transcript English translation
A-1
समाचार विभाग
धर्म चक्र प्रवर्तन:
आचार्यश्री के देशव्यापी कार्यक्रम
संकलन : नटूभाई मेहता
"शांति में, मौन में, शून्य में खड़े होकर जीवन को देखना ही धर्म है| वही है धर्म की कला| उसी से उसमें मिलन होता है, जो कि सत्य है| प्रेम की भाषा में वह सत्य ही परमात्मा है|"
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बम्बई, क्रासमैदानमें विराट सत्संग:
आचार्य श्री ७ अप्रैल की दोपहर बंबई पधारे| संध्या ही उन्होंने क्रास मैदान में आयोजित सत्संग की प्रथम सभा को संबोधित किया| जैसे ग्रीष्म के उत्ताप के बाद भूमि जल के लिए प्यासी होती है वैसे ही हज़ारों व्यक्ति उनके अमृत शब्दों के लिए आतुर रहते हैं| और जो उनके शब्दों के साथ यात्रा करने में सफल होता है, वह उन्हें सुनते-सुनते ही किसी और ही लोक में प्रविष्ट हो जाता है| उनके श्रोताओं में इसीलिए सैकड़ों व्यक्ति ध्यानस्थ देखे जा सकते हैं| उनकी उपस्थिति मात्र से ही जैसे चित्त शांत और शीतल हो जाता है| उन्होंने अपने इस प्रथम उद्द्बोधन में यहाँ कहा: "विचार परमात्मा का मार्ग नहीं है| विचार सत्य का द्वार नहीं है| सत्य तो है अज्ञान| और विचार केवल उसे ही विचार सकता है जो कि जाना ही हुआ है| वह ज्ञान का अतिक्रमण करने में समर्थ नहीं है| वह ज्ञात में ही गति है| वह स्मृति में ही परिभ्रमण है|और इसीलिए वह नये में और अनजान में और अज्ञान में नहीं ले जाता है| वह तो अतीत में, की बासे में और मृत में ही भटकता रहता है| और सत्य अतीत नहीं है| वह चिर नूतन है| वह तो नित नवीन है| वह तो सदा ही नया और जीवंत है| इसलिए उसे जानने और जीने के लिए विचार से बिल्कुल ही भिन्न दिशा उपलब्ध करनी होती है| वह दिशा है निर्विचार की| विचार को जाने दें और निर्विचार को आने दें| विचार की तरंगों में ही सत्य का शांत सागर छिपा है| शांत होकर, शून्य होकर जीवन को देखें| उसी दर्शन में उससे मिलन होता है जो कि सत्य है| और उस एक को ही प्रेम परमात्मा कहता है|"
 
"जीवन को प्रेम करो----जीवन को उसकी गहराइयों में जिओ----क्योंकि जीवन के मंदिर में ही परमात्मा का आवास है"
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बंबई, सी. जे. हॉल में प्रश्नोत्तरी:
English translation..... coming soon....
A-2
आचार्यश्री ने ७,८,९,१० अप्रेल संध्या क्रास मैदान की विशाल सभाओं को संबोधित किया और प्रतिदिन सुबह सी. जे. हॉल में जिज्ञासुओ के प्रश्नों के उत्तर दिए | उन्होंने इन चर्चाओं के दौरान कहा:"जीवन से लड़कर मत जियो| शत्रुता की दृष्टि सम्यक नहीं है | मैत्री के प्रकाश में ही जीवन के रहस्य उद्घटित होते हैं | सर्वप्रथम चाहिए की पूर्ण स्वीकृति----जीवन के प्रति सदभाव | लेकिन हज़ारों बरसों की जीवन-विरोधी शिक्षाओं नें मनुष्य में यह भाव ही छीन लिया है | ओर इस भाव के अभाव में हम जीवन को जानने से वंचित रह जाते हों तो कोई आश्चर्य नहीं है | जीवन तो समय है----प्रतिपल हम इसमें हैं | हम वही हैं | जैसे मछली सागर में है ऐसे हम जीवन में हैं | लेकिन मछली यदि सागर-विरोधी हो जावे तो उसकी जो गति हो वही हमारी गति हो गयी है | इसलिए में कहता हूँ: जीवन को प्रेम करो, क्योंकि जीवन की गहराइयों में ही परमात्मा का आवास है|"
 
"धर्म तो एक है | धर्म तो स्वरूप है | लेकिन हमने तो चाँद को दिखानेवाली उंगलियाँ ही पकड़ रखी हैं और उन्हें ही चाँद समझ रहे हैं | इसमें धर्म तो विलीन हो गया है और धर्मों की भीड़ लग गयी है |"
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महावीर जयंती पर पूना में प्रवचन:
आचार्यश्री ११ अप्रेल को पूना पधारे | सुबह ही उन्होंने हिंदविजय थियेटर में आयोजित महावीर जयंती की सभा को संबोधित किया| उन्होंने कहा:"महावीर अर्थात सत्य, महावीर अर्थात अहिंसा| लेकिन हम तो व्यक्तियों को पकड़ लेते हैं, और सत्यों को भूल जाते हैं | चाहिए यह कि सत्य को पकड़ें और व्यक्तियों को छोड़ दें | एक ही सार है | और वह सत्य प्रत्येक में है | व्यक्ति तो इशारे है | महावीर, बुद्ध, कृष्ण या क्राइस्ट तो इशारे हैं | लेकिन हम इशारों को पकड़ कर बैठ गये हैं, और इशारों की ही पूजा कर रहे हैं | मनुष्य की यह विक्षिप्तता अद्भुत है, और इस विक्षिप्तता को ही धर्म मानकर समझा गया है | जैसे कोई राह के किनारे लगे संकेतों को ही मंज़िल समझ ले, एसी ही यह दशा है | सत्य तो एक है लेकिन इशारे तो अनंत हो सकते हैं | और इन इशारों को पकड़ने के कारण ही हिंदू, जैन, मुसलमान और ईसाई ऐसे संप्रदाय पैदा हो गये हैं | जो इन इशारों से उपर उठता है, और उसकी खोज करता है जिसकी ओर कि इशारा इंगित करता था, वह स्वयं पर और सत्य पर पहुँच जाता है | सत्य का वह अनुभव ही धर्म है | वह धर्म एक ही है, क्योंकि
A-3
धर्म का अर्थ है स्वभाव ---स्वरूप | वह तो एक ही हो सकता है | वहाँ तो पहुँचकर स्वयं का व्यक्तित्व भी छूट जाता है | वहाँ तो बस वही रह जाता है, जो है |"
"धर्म एक मंदिर है और अधर्म के देवता | इसलिए प्रभु के चरणों में चढ़ाए गये फूल शैतान को ही चढ़ते रहे हैं | क्या समय नहीं आ गया है कि हम वहमों को उखाड़े और देखें की पुरोहित की आड़ में कौन खड़ा है?"
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पूना में जनसभा:
आचार्यश्री ने ११ अप्रेल की रात्रि एक विशाल जनसभा को संबोधित किया | उनकी क्रांतिकारी वाणी अनेक हृदयों को आंदोलित कर देती है | वे तो एक क्रांति की भाँति हैं | उनसे सुनकर सिर्फ़ स्वर्ग ही शेष बचता है सभी कूडा करकट जलकर राख हो जाता है | उन्होंने यहाँ कहा: "धर्म की आड़ में अधर्म जी रहा है | पुरोहित की आड़ में परमात्मा नहीं, शैतान है | धर्म का मंदिर है, लेकिन आवास उसमें अधर्म का है | शैतान की यह तरकीब बहुत कारगर सिद्द हुई है | क्योंकि अधर्म स्पष्ट हो तो उसमें लड़ना अत्यंत आसान है | लेकिन लेकिन वहाँ वह स्वयं तो शुभ वस्त्रों में आता है, तब बड़ी कठिनाई होती है | क्योंकि तब उसे पहचानना ही कठिन हो जाता है | सदियों से मनुष्यता इसी कठिनाई से गुजर रही है | इसीलिए तो यह विरोधाभासी घटना घटती रही है कि धर्मों की बाढ़ आती गई है और साथ ही अनुपात में अधर्म भी बढ़ता गया है | लेकिन अब जागने का समय आ गया है और धर्म के वस्त्रों को उघाड़कर देखने की ज़रूरत है कि उनके अंदर अधर्म तो नहीं बैठा हुआ है?"
 
"धर्म का रहस्य पूछना है तो पूछो बीज से----पूछो बूँद से| बीज मिटता है तो वृक्ष हो जाता है और मनुष्य भी क्या एक बीज नहीं है? बूँद मिटती है तो सागर हो जाती है | फिर मनुष्य भी क्या एक बूँद नहीं है?"
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सिंधी समाज जबलपुर में प्रवचन:
आचार्यश्री ने १४ अप्रेल की रात्रि सिंधी समाज द्वारा आयोजित एक सभा को उद्बोधित किया | उन्होंने यहाँ कहा:"मैं तो एक ही मार्ग मानता हूँ, जीवन को पाने का | मैं तो एक ही द्वार जानता हूँ प्रभु के मंदिर का | और आप पूछते हैं कि वह मार्ग क्या है?----वह द्वार क्या है? वह मार्ग है स्वयं को मिटा देने का | वह द्वार है शून्य हो जाने का | और मेरी बात का भरोसा ना हो तो पूछो बीज से---पूछो बूँद से | मैंने उन्हीं से पूछा है और जाना है | बीज वृक्ष हो जाता है | बूँद सागर हो जाती है|
A-4
क्या आप परमात्मा होना चाहते हैं? तो मार्ग वही है---द्वार वही है जो कि बीज का है, जो कि बूँद का है | मिटो ताकि पा सको | खो दो ताकि खोज सको | आह! कितनी सुगम है बात लेकिन अहंकार को खोने का तो हमें स्मरण ही नहीं आता है |"
 
"जीवन परम सूंदर है | लेकिन उसके लिए ही जिनके की अंतस .सौंदर्य से भरे हैं | जीवन तो दर्पण है और उसमें हम वही देख पाते हैं जो की हम हैं |"
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जबलपुर में कला प्रदशनी का उदघाटन :
आचार्यश्री ने १७ अप्रेल की रात्रि कला निकेतन में आयोजित वार्षिक कला प्रदर्शनी का उदघाटन किया | एक बड़ी संख्या में कला प्रेमी उन्हें सुनने को एकत्रित हुए | जीवन का कोई भी पहलू क्यों ना हो, उनकी मौलिक दृष्टि सदा ही नये आयामों का अनावरण करती है | उन्होंने यहाँ कहा : "जीवन सौंदर्य है | लेकिन केवल उन्हीं के लिए जिनके कि अंतस भी सुंदर हैं | क्योंकि जीवन तो वस्तुतः एक दर्पण है, और उसमें हमें वही दिखाई पड़ता है जो की हममें हैं | वह हमारा ही ...है | इसलिए कला का मूल आधार सुंदर अंतस के सृजन में है | वह विषय-वस्तु का उतना सृजन नहीं है जितना की अंतस का | यदि जब कला विषयगत ही रह जाती है, तब वह ज़्यादा नहीं होती है | कला की, कला की भाँति पूर्ण प्रतिष्ठा तो तभी होती है जब वह आत्मगत होती है | वह कर्म की सूक्ष्मतम क्रिया है | वह सत्य-साक्षात्कार की सूक्ष्मतम कीमीया है | लेकिन मात्र विषयगत होकर वह एंटिक ही होकर रह जाती है |विषयगत दृष्‍टि की न कोई गहराई है, न कोई उँचाई | वह तो जीवन की सतह पर जीना है | कला इतनी सतही होकर आत्मघात कर लेती है | क्योंकि जहाँ गहराई नहीं, उँचाई नहीं, वहाँ कला की संभावना ही कहाँ है ? आज कला के जगत में एसा ही आत्मघात चल रहा है | मैं आपको ---आप नवोदित कलाकारों को इससे सावधान करना चाहता हूँ | जीवन की गहराइयों में --- अंतस में चाहिए सौंदर्य का सृजन | आत्मा होनी चाहिए सुंदर | फिर उस सुंदरता का अनुभव ही परमात्मा का साक्षात्कार बन सकता है |"
"कर्म को जानना है ---तो भूलकर भी शस्त्रों में मत खोजना | धर्म मृत शब्दों में कहाँ? वह तो सदा ही जीवंत प्रेम में है |"
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लाला लाजपत राय भवन, दिल्ली, में प्रवचन :
आचार्यश्री, २२ अप्रेल को दिल्ली पधारे | सर्वेंट्स ऑफ पीपल सोसाइटी की ओर से लाला लाजपत राय भवन में आयोजित सभा को उन्होंने संबोधित किया |
B-1
समाचार विभाग
धर्म चक्र प्रवर्तन :
आचार्यश्री के देशव्यापी कार्यक्रम
संकलन : जटू भाई मेहता
"शब्द और शास्त्र से सीखे गये ज्ञान का कोई मूल्य नहीं है | क्योंकि, वह ज्ञान ही नहीं है |"
इंदौर में सत्संग का विराट आयोजन :
आचार्यश्री 5, 6, 7, 8 मई के लिए इंदौर पधारे | राजबाडे के प्रांगण में प्रतिदिन हज़ारों लोगों ने उनकी अमृतवाणी को सुना | इंदौर के लिए उनके सान्निध्य के वे क्षण अविस्मरणीय हो गये हैं | आचार्यश्री ने यहाँ कहा : "ज्ञान केवल वही नहीं है जो अनुभव से उपलब्ध होता है | उधार और बासे, शब्द और शास्त्र से सीखे गये ज्ञान का कोई मूल्य नहीं है | एसा ज्ञान, अज्ञान को तो मिटाता ही नहीं और उल्टे अहंकार बन जाता है | जबकि वास्तविक ज्ञान के मार्ग पर अहंकार से बड़ी और कोई बाधा नहीं है | अहंकार अज्ञान की रक्षा है | वह अज्ञान का रक्षाकवच है | इसलिए, जो ज्ञान का अभिक्षु है, उसे अहंकार खोने को तैयार होना पड़ता है | अहंकार के मुल्य पर ही आत्मा मिलती है | और आत्मा ही ज्ञान है | और आत्मा ही मुक्त है | और आत्मा ही परमात्मा है |"


"महात्वाकांक्षा है युद्धों की जननी | वह ज्वर आनेवाली पीढ़ियों को न दें | इतना ही हम कर सकें तो इससे बड़ी मनुष्यता की दूसरी सेवा नहीं है |"
लायंस क्लब इंदौर में, आचार्यश्री ने 6, 7 मई की संध्या लायंस क्लब के सदस्यों को उद्द्बोधित किया | उनहोंने यहाँ कहा: "मनुष्यता युद्धों से पीड़ित है | हम सदा लड़ते ही रहे हैं और लड़ने के कारण जीने का अवसर ही नहीं मिल पाता है | जीवन के अनुभव और आनंद के लिए शांति चाहिए | शांति के अभाव में जीवन में जो भी श्रेष्ठ है, शुभ है, सुंदर है, सरल है, वह सब अपरिचित ही रह जाता है | इसलिए ही हमारा जीवन इतनी व्यर्थता, उब और उदासी से भर गया है | लेकिन शांति कैसे संभव है ? महत्वाकांक्षी चित्त शांत नहीं हो सकता है | महत्वाकांक्षी पीढ़ियों को भी महत्वाकांक्षा के ज्वर में ही पीड़ित किए जा रहे हैं | महत्वाकांक्षा का ज्वर नहीं, मिट जाना है आत्मानंद | महत्वाकांक्षा दूसरे के सुख से ईर्ष्या है | वह दूसरे को पार करने की होड़ है | आत्मानंद का दूसरे से कोई संबंध नहीं | वह स्वयं के आनंद
B-2R
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C-1
समाचार विभाग
धर्म चक्र प्रवर्तन :
आचार्यश्री के देशव्यापी कार्यक्रम
संकलन : जटू भाई मेहता
"धर्म है आंतरिक | प्रभु का मंदिर है भीतर | और उसे बाहर खोजते हैं, इसलिए खो देते हैं |"
ज्ञान मंदिर, ग्वालियर, में सत्संग
ग्वालियर नगर आचार्यश्री की बहुत समय से प्रतीक्षा कर रहा था | और जब 2, 3, 4, 5 अगस्त के लिए उनका यहाँ आना हुआ तो जिज्ञासुओ में खुशी की एक

लहर दौड़ गई | 2 अगस्त की दोपहर पंजाबमेल पर उनका भव्य स्वागत किया गया | उसी रात्रि ज्ञान मंदिर लश्कर में उनका त्रिदिवसिय सत्संग प्रारंभ हुआ | सत्संग में उन्होंने जो कहा वह बंद आँखों को खोलना वाला था | उनके शब्द तो एसे हैं जैसे अंधेरे में बिजली कौंध उठती है | उनके प्रकाश में अंधेरा पक्ष अचानक आलोकित हो उठता है | लेकिन जिनकी नींद गहरी है वे बिजली की कौंध और आवाज़ से भयभीत भी हो उठते हैं | शायद यही भय उनके ख़्वाबों पर छा जाता है कि उनकी नींद ही न टूट जाए | आचार्यश्री ने यहाँ कहा :"मैं धर्म के नाम पर मनुष्य को अधर्म में डूबे हुए देखता हूँ | इस तथाकथित अधर्म ने ही धर्म को रोका हुआ है | और जबतक हम इस झुटे धर्म से मुक्त नहीं होंगे, तब तक धर्म हमारी प्रतिष्ठा नहीं हो सकती है | असत्य के जाने पर ही सत्य का आगमन हो सकता है | मंदिर , मस्ज़िद , और मूर्ति पूजा वाला यह धर्म झुटा है, क्योंकि यह आंतरिक नहीं है | बाह्य से धर्म का क्या संबंध ? धर्म का मंदिर तो मन में है, और धर्म का प्रभु तो भीतर है | और जिसे उसे वहाँ खोजना हो तो उसे बाहर की खोज बंद कर देनी चाहिए | क्योंकि बाहर की खोज के कारण ही भीतर दृष्टि नहीं जा पाती है |"

"सत्य है अज्ञात | विचार अज्ञात को नहीं जान सकते हैं | उसे जानने का द्वार तो निर्विचार चेतना है |"
माधवाश्रम, ग्वालियर , में संगोष्ठी
आचार्यश्री के निकट सान्निद्य के लिए 3और 4 अगस्त की प्रभातवेला में माधव आश्रम में संगोष्ठी प्रारंभ होनी थी | आचार्यश्री जिज्ञासुओ के उत्तर देते थे | उन्होंने संगोष्ठी में कहा :"विचार से सत्य नहीं जाना जा सकता है | सत्य है अज्ञात और अज्ञात के बारे में सोंच कैसे सकते हैं? अज्ञात को जानने के लिए तो ज्ञात को छोड़ देना आवश्यक है | जहाँ ज्ञात नहीं है, वहीं अज्ञात का प्रवेश है | विचार ज्ञात हैं | इसलिए
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:समाचार विभाग
धर्म चक्र प्रवर्तन :
आचार्यश्री के देशव्यापी कार्यक्रम
 
"सत्य का द्वार है शून्य | मिटो ताकि उसे पा सको | जो मिटते हैं, वे अमृत को पा लेते हैं |"
जबलपुर में विशाल जनसभा
11नवंबर की रात्रि में आचार्यश्री को सुनने के लिए हज़ारों नर-नारी लार्डगंज जैन मंदिर में इकट्ठे हुए थे | मंदिर के विशाल प्रांगण में एक इंच भर भी जगह खाली नहीं थी | मंदिर के बाहर भी सैकड़ों व्यक्ति मार्ग पर खड़े होकर उनकी वाणि सुन रहे थे | उन्हें सुनना भी एक आनुभव है | हृदय से जो शब्द आते हैं, वे हृदय तक पहुँच भी जाते हैं | एसे शब्दों को कान नहीं सुनते, प्राण भी सुन लेते हैं |
आचार्यश्री ने कहा : "सत्य और स्वयं के बीच अहंकार के अतिरिक्त और कोई बाधा नहीं है | इसलिए ही जो स्वयं को खोता है, वही उसे पाता है | स्वयं को खोने के मूल्य पर ही परमात्मा पाया जाता है | साहस करो और मिट जाओ | मृत्यु तो मिटाएगी ही---क्या उसके पूर्व हम स्वयं ही अपने को नहीं खो सकते है? और जो अहंकार से शून्य हो जाता है फिर उसे मृत्यु भी मिटाने में असमर्थ हो जाती है क्योंकि अहंकार के धूएं के जाते ही उस आत्मा के दर्शन होते हैं, जिसकी कि कोई मृत्यु नहीं है |"
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"मित्र शांति के दर्पण बनो, ताकि परमात्मा का चंद्रमा तुममें प्रफुल्लित हो सके |"
बंबई, मलाड में साधना शिविर
20, 21 और 22 नवम्बर, आचार्यश्री के सान्निध्य में मलाड, बंबई में एक साधना शिविर हुआ | इस शिविर में बड़ी संख्या में साधकों ने भाग लिया | आचार्यश्री ने अविचार, विचार और निर्विचार पर तीन प्रवचन दिए | उन्होंने कहा : "जीवन अपनी पूर्णता में केवल उस चित्त के समक्ष प्रकट होता है, जो की निर्विचार को उपलब्ध हो जाता है | विचार की विक्षिप्त तरंगें चित्त को मौन और शून्य नहीं होने देती हैं, और जबतक चित्त मौन, शून्य और शांत नहीं है, तब तक वह एसा दर्पण नहीं बन पाता है, जो कि सत्य को प्रतिफलित कर सके | सत्य तो निकट है, लेकिन हम शांत नहीं हैं | पूर्णिमा का चाँद तो आकाश में है, लेकिन झील विलुप्त है, इसलिए उसे नहीं जान पा रही है | जैसे ही झील शांत होगी, चाँद उसके हृदयों के हृदय में विराजमान हो जावेगा | इसलिए, मैं कहता हूँ : मौन - मौन - मौन -----मौन हो जाओ ताकि तुम उसे सुन और जान सको जो की परमात्मा है | मित्र, उसे जानते ही जीवन एक आनंद, एक संगीत और एक सौन्दर्य बन जाता है |"
D-2R
"अहिंसा है आनंद का फल | और आनंद ? आनंद है आत्मज्ञान का आलोक |"
लायंस क्लब पूना में ----
आचार्यश्री 4 दिसंबर को लायंस क्लब पूना के वार्षिक अधिवेशन में प्रमुख अतिथियों के रूप में पधारे | इस अवसर पर उन्हें सुनने के लिए वृहत जन-समूह उपस्थित हुआ था | आचार्यश्री ने वहाँ कहा : "मनुष्यता आत्मघाती प्रवृतियों से पीड़ित है | 5 हज़ार वर्षों के छोटे से इतिहास में 1460486 युद्ध हुए हैं ! और उस युद्ध की तैयारी चल रही है जोकि मनुष्य जाति का ही नहीं, वरन जीवन-मात्र की पृथ्वी से समाप्ति बन सकता है | इस रुग्णता के मूल में क्या है? इसके मूल में है : आनंद का अभाव | दुखी व्यक्ति दूसरों को भी दुख देना चाहता है | बस यही एक सुख उसके जीवन में होता है | इससे ही हिंसा जन्मति है | और हिंसा के रस में वह स्वयं की भी आहुति दे सकता है | जीवन में आनंद हो तो ही अहिंसा हो सकती है | अहिंसा, प्रेम और करुणा आनंद से ही प्रवाहित होते हैं | हिंसा, घ्रिणा और क्रूरता दुख की संततीया हैं | इसलिए मैं चाहता हूँ कि मनुष्य के प्राणों में आनंद को संचालित करो, उसके चित्र को संगीतपूर्ण बनाओ, उसके हृदय को अल्हादित करो, इसके अतिरिक्त उसे बचाने का और कोई उपाय नहीं है | और यह कैसे होगा ? आनंद आत्मज्ञान का फल है | जो स्वयं को जान लेता है वह अनायास ही आनंद में यह करता है | स्वयं को जानते ही अंतस के सारे संताप वैसे ही विलीन हो जाते हैं जैसे प्रकाश के आगमन से अंधकार विदा हो जाता है | वस्तुतः तो अंधकार की अपनी कोई सत्ता ही नहीं है | वह तो प्रकाश की अनुपस्थिति मात्र है | एसे ही दुख की भी अपनी सत्ता नहीं है | वह भी आत्मा-ज्ञान का अभाव है | और आत्मा है निकटतम | वही है हमारा होना | बस उसके प्रति जागरण ही भीतर के प्रति लाओ | मन के प्रति जागो | जागरण ---- सतत जागरण , अंततः उसके प्रति जगा देता है जो कि मैं हूँ | उसे जानते ही सब बदल जाता है | आलोक के साथ आग है आनंद, अति-आनंद के साथ ही आती है अहिंसा | अहिंसा उपर से नहीं थोपी जा सकती | वह तो आती है ---आनंद के पीछे आती है |"


"मैं कहता हूँ असंतोष ----- दिव्या असंतोष | क्योंकि वही परमात्मा का मार्ग है |"
विद्यार्थियों और युवकों के मध्‍य : पूना ----
आचार्यश्री ने 5 दिसंबर की रात्रि में पूना में युवकों और विद्यार्थियों की एक सभा को संबोधित किया | उन्होने कहा : " जीवन मिलता नहीं, निर्मित करना होता है | जो मिले हुए जीवन मे ही तृप्त हो जाता है, वह जीवन को पाने का अधिकार ही खो देता है | जीवन है एक सृजन --- सतत, अहिर्निश सृजन
D-2V
D-3
जीवन है एक कला ---एक शिल्प | और प्रत्येक है स्वयं अपना शिल्पी | जो मिला है जन्म से वह तो अनगढ़ पत्थर है | इसे प्रतिमा बनाना हमारे हाथों में है | इसलिए जो मिला है उससे संतुष्ट नहीं हो जाना | एसा संतोष तो मृत्‍यू बन जाता है | इसलिए मैं कहता हूँ असंतोष ---दिव्य असंतोष में जलो | मंज़िल के लिए ---आत्म-सृजन के लिए जो निरंतर असंतुष्ट है, केवल वही और केवल वही जीवन को इस विकास तक पहुँचा सकता है जिसका नाम परमात्मा है |"

"प्यास और प्यास और प्यास---क्योंकि प्यास ही अन्ततः प्राप्ति बन जाती है |"

अहमदनगर महाविद्यालय में सत्संग ----
आचार्यश्री अहमदनगर महाविद्यालय के आमन्त्रण पर 6,7 और 8 दिसंबर के लिए यहाँ पधारे | उन्होने महाविद्यालय में तीन प्रवचन दिए | विषय था : सत्य की खोज | उन्होनें कहा : "सत्य की खोज के लिए चाहिए ज्वलंत प्यास | एसी प्यास जो सत्य के अतिरिक्त और किसी भी चीज़ से तृप्त न हो | सिद्धांतों, शब्दों और शास्त्रों में जो तृप्त हो जाते हैं वे बहुतः प्यासे ही नहीं हैं | क्या वस्तुतः प्यास हो तो कोई पानी की बातों से तृप्त हो सकता है ? और प्यास गहरी होती जाय तो अंततः वही प्राप्ति बन जाती है क्योंकि जो सरोवर इसे बुझा सकता है, वह तो सदा तो है और साथ ही है | वह तो स्वयं के भीतर ही है |
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"स्वतन्त्र बनो | तोडो चित्त की ज़ंजीरों को| मुक्ति की प्रथम शर्त यही है |"
अहमदनगर जैन स्थानक में ----
आचर्यश्री 8 दिसंबर की प्रभात जैन स्थानक अहमदनगर में पधारे | उन्होंने वहाँ कहा : "परमात्मा की दिशा में सबसे बड़ी बाधा क्या है ? परतंत्रता--- पर्तन्त्र चित्त ही सबसे बड़ी बाधा है | चित्त को स्वतंत्र बनाओ ---शब्दों, सिद्धांतों और शास्त्रों की कारागृह से स्वयं को बाहर लाओ | मनुष्य स्वयं ही परंपराओं की कड़ियों में स्वयं को बाँधे है | और इन्हें तोड़े बिना सत्य के सागर में कोई गति नहीं हो सकती है | अज्ञात में जाने के लिए ज्ञात को छोड़ना ही पड़ता है |"
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D-4R
"परमात्मा है प्रकाश की भाँति | उसे जानने को चाहिए प्रज्ञा की आँखें |"
छिंदवाड़ा में जनसभा ---
आचार्यश्री 17 दिसंबर को छिंदवाड़ा पधारे | एक विशाल जनसभा को उन्होंने संबोधित किया | इस सभा में उन्होंने कहा : "धर्म प्रकाश की भाँति है | परमात्मा भी | उसे देखने को प्रज्ञा की आँखें चाहिए | अँधा आदमी प्रकाश के संबंध में विचार करे भी तो क्या करेगा ? वह तो प्रकाश की कोई भी धारणा नहीं बना सकता है और जो भी कल्पना वह करेगा वह अनिवार्यतः ग़लत ही होगी | इसलिए विचार से न प्रकाश जाना जा सकता है, न परमात्मा | निर्विचार की आँख हो तो ही परमात्मा है | विचार के उहापोह में ---विचार की विक्षिप्त तरंगों में आँखें बंद हैं | विचारों को विदा दें और देखें | निर्विचार मौन में जिसका प्रत्यक्ष होता है, वही सत्य है, वही स्वयं की और सर्व की सत्ता है |"
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"विवेक को चुनौती दो ---संकट दो ताकि वह जाग सके | विश्वास तो विवेक की मृत्यु है |"
छिंदवाड़ा में विचारगोष्टी ---आयोजित हुई | आचार्यश्री ने गोष्ठी में कहा : "मैं विश्वास में ही मनुष्य का अंधापन देखता हूँ | विश्वास नहीं, चाहिए विवेक | और विश्वास विवेक के जागरण में अवरोध बन जाता है | जीवन की प्रसुप्त शक्तियाँ जागती हैं चुनौती से | यही विश्वास उस चुनौती को व्यर्थ कर देते हैं, जो की विवेक को जगाती है | विश्वास उन सत्यों को मान लेता है, जिन्हें जानता नहीं | एसे मानने से स्वभावतः ही जानने की यात्रा रुक जाती है | जानना है तो न मानो, न न-मानो | मान को 'हाँ' या 'ना' सा मुक्त रखो और खोजो | विश्वास, अविश्वास दोनों से स्वयं को मुक्त रखकर जो खोजता है, उसका विवेक इस चुनौती में ही जागृत हो सकता है | जहाँ न विश्वास है, न अविश्वास, वहाँ एक संकट उपस्थित हो सकता है और उसी संकट में विवेक जागता है | और विवेक है द्वार ---विवेक है मार्ग | जीवन में जो भी शुभ है, सुंदर है यानी सत्य है वह उसीसे पाया जाता है |"
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"सत्य है सीमाओं से मुक्त चित्त मैं | और वहीं है प्रेम | और प्रेम पार्मात्मा का मंदिर है | "
चौदई मैं आमसभा ---
आचार्यश्री 18 दिसंबर को यहाँ पधारे | सैंकड़ों उत्सुकजन उन्हें सुनने को एकत्रित हुए | उन्होंने अपनी अमृतवाणी से कहा : "धर्मों में नहीं, धर्म में प्राण है | धर्मों ने ही तो धर्म के प्राण ले लिए हैं | हिंदू, जैन, ईसाई, बौद्द, मुसलमान---इन नामों ने ही सब उपद्रव कर दिया है | इन नामों के कारण ही ---इन देहो के कारण ही आत्मा विस्मृत हो गई है | मैं धार्मिक व्यक्ति का पहला लक्षण यही मानता हूँ कि वह किसी समुदाय आदि किसी सीमा मेआबद्ध न होगा | वह तो सब सीमाएँ छोड़ देगा ताकि असीम को जान सके | सीमाओं में बँधा व्यक्ति अतीत को नहीं जान सकता है | सत्य किसी विशेष में नहीं है और न परमात्मा है किसी चर्च या मंदिर में क़ैद है | वह तो है उस चित्त मैं जो सब सीमाओं से मुक्त है और परमात्मा है उस
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"मंदिर में जिसकी कि कोई दीवार नहीं | कौन सा है वह मंदिर | वह मंदिर है प्रेम का | प्रेम ही है वह मंदिर जो कि परमात्मा का है |"
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जबलपुर में तारण तरण जयंती पर सर्वधर्म सम्मेलन
19 दिसंबर
 
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"मैं विद्रोह का स्वागत करता हूँ लेकिन अंधे विद्रोह का नहीं, आँखवाले विद्रोह का |"
मंडला महाविद्यालय में ---
आचार्यश्री 21 दिसंबर को मंडला पधारे | उन्होंने महाविद्यालयके छात्रो को संबोधित किया | वे बोले : "विद्रोह की अग्नि जिस हृदय में नहीं है, वह हृदय मृत-माँस पिंड है | विद्रोह ही जीवन है और विद्रोह ही है विकास | लेकिन एसा विद्रोह वहीं होता है जहाँ विवेक होता है | विवेकशून्य विद्रोह आत्मघात बन जाता है | और विवेक से युक्त विद्रोह है सृजन की उर्जा | विवेक को जगाओ और विद्रोही बनो | विवेक है ही विद्रोह की शक्ति | उस विद्रोह ने मनुष्य के बंधन तोड़े | उसकी मानसिक गुलामी तोड़ी | अतीत के मृत बोझ जला डालो | लेकिन स्मरण रहे कि यदि विवेक न हुआ तो तुम स्वयं को ही जला डालोगे | और एसा ही हो रहा है | जिस शक्ति से युवक एक नये समाज का निर्माण कर सकते हैं, वे उससे स्वयं को ही अपंग किए ले रहे हैं | मैं तो विद्रोह का स्वागत करता हूँ, लेकिन अंधे विद्रोह का नहीं, आँखवाले विद्रोह का | अँधा विद्रोह एक अति से दूसरी अति पर ले जाता है | वह कुएँ से निकालकर खाई में गिरना है | जबकि जीवन का विकास है मध्‍य में | आँखें हो तो ही हम मध्य के स्वर्णपथ पर हो सकते हैं |"
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चिकलदरा में साधना शिविर
26, 27, 28 दिस.
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समाचार विभाग
धर्म चक्र प्रवर्तन :
आचार्यश्री के देशव्यापी कार्यक्रम
"खोजो स्वतंत्रता | और फिर स्वतंत्र चित्त में सत्य चला आता है, जैसे सागर में सरिताओं का गिरना|"
श्रीरामपुर में सत्संग
आचार्यश्री 4, 5 और 6 फ़रवरी के लिए श्रीरामपुर पधारे | ये तीन दिन श्रीरामपुर के प्रबुद्ध नागरिकों के लिए अविस्मरणीय हो गये हैं | आचार्यश्री ने यहाँ कहा : "सत्य के मार्ग की यात्रा केवल वे ही कर सकते हैं, जो की स्वतन्त्र हैं | स्वतन्त्र चित्त ---समस्त परंपराओं, संस्कारों और विचारों से स्‍वतंत्र चित्त ही वस्तुतः वह मार्ग है, जो की सत्य तक ले जाता है | स्वतंत्रता ही सत्य का द्वार है | स्वतंत्रता ही सत्य है | इसलिए मैं कहता हूँ कि सत्य मत खोजो | सत्य तो स्वतः आता है | खोजो स्वतंत्रता | लेकिन हम तो .परतंत्रता खोजते हैं और साथ ही सत्य भी चाहते हैं | यह असंभव है, एसा कभी नहीं हो सकता है | क्योंकि, जहाँ स्वतंत्रता ही नहीं है, वहाँ तो अज्ञात की यात्रा ही प्रारंभ नहीं होती है | परतन्त्र चित्त यानी ज्ञात से बँधा चित्त | स्वतन्त्र चित्त यानी ज्ञात से मुक्त चित्त | और निश्चय ही जो ज्ञात से बँधा है, वह अज्ञात को कैसे जान सकता है ? जबकि सत्य अज्ञात है और परमात्मा अज्ञात है | अज्ञात को पाने के लिए ज्ञात को छोड्ना पड़ता है | और यही है सबसे बड़ा साहस | क्योंकि ज्ञात मैं सुरक्षा है | क्योंकि ज्ञात परिचित है और अज्ञात अपरिचित | इसी परिचय और इसी सुरक्षा के कारण मनुष्य स्वयं ही अपनी ज़ंजीरों को मजबूत करता रहता है | जबकि चाहिए मजबूती फिर अपरिचित और अनजान में प्रवेश का साहस | एसा साहस की साधना बनता है | फिर एसे साहसी व्यक्ति को ही में धार्मिक कहता हूँ | साहस करो, स्वतंत्र बनो फिर सत्य को पा लो | सत्य तो सदा द्वार पर खड़ा है, लेकिन हममें आँखें खोलकर उसे देखने का साहस ही नहीं है | परमात्मा तो निकट है, लेकिन हम स्वयं की निर्मित परतंत्रताओं में ही बँधे हैं फिर उसकी ओर एक इंच भी यात्रा करने में असमर्थ हैं |"
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"स्वयं से भागो नहीं, जागो | क्योंकि भागने में स्वयं में जो शून्य है, वही जागने से पूर्ण बन जाता है |"
बारामती में प्रवचन
आचार्यश्री 7 जनवरी को बारामतीपधारे | उन्होंने कहा : "मनुष्य के जीवन की मूल समस्या क्या है ? वह पहेली कौन सी है जिसमें उलझ कर अधिक लोग स्वयं ही समाप्त हो जाते हैं ? ओर जो इस मूल समस्या को बिना जाने ही जीवनचक्र पर चल पड़ता है, निश्चय ही वह यदि भटक जाता हो तो कोई आश्चर्य नहीं है | ओर दुर्भाग्य से अधिक लोग जीवनभर भागते हैं, दौड़ते हैं, ओर गिरते हैं फिर समाप्त भी हो जाते हैं, बिना यह जाने कि वे क्यों दौड़ रहे थे ? ओर क्या कर रहे थे ? क्या आपको उस मूल समस्या का बोध है ? क्या आप उसके प्रति सचेत हैं ? नही | नहीं | ज़रा भी नहीं | अन्यथा आज दुखी ना होते, अन्यथा आप जीवन को एक बोझ की भाँति ना ढोते | क्योंकि जो उस समस्या को जान लेता है, वह उसे हल भी कर लेता है | इसे ठीक से जान लेना ही इसका समाधान भी है | वह समस्या यह है कि वह भीतर खाली और रिक्त है | एक अभाव उसे स्वयं के प्राणों में अनुभव होता है | इस अभाव को, इस रिक्तता को, ओर अकेलेपन को भरने के लिए ही वह दौड़ता फिरता है | धन की, यश की, पद की, सारी खोजें इसी अभाव को भरने के लिए हैं | लेकिन सब पाकर भी पाया जाता है कि वह खाली का खाली है | और यही विफलता ---- यही अनिवार्य विफलता उसे जीते जी मुर्दा बना देती है | यह विफलता अनिवार्य है क्योंकि अभाव है उसके भीतर और जिससे वह भरना चाहता है, वह सब है उसके बाहर | और आंतरिक रिक्तता बाह्य संपदा से कैसे भर सकती है ? इसलिए बाहर संपत्ति का ढेर लग जाता है और भीतर की विपत्ति उससे अधूरी ही रह जाती है | और संपदा के ढेर में भी मनुष्य स्वयं को रिक्त ही पाता है | यह विफलता मनुष्य को त्याग ओर तप आदि कर्म की ओर भी ले जा सकती है | लेकिन वे भी बाहर ही हैं और वे भी व्यर्थ हैं | वस्तुतः सवाल कहीं धन में,
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या धर्म में भागने का नहीं है | सवाल है स्वयं में जागने का | अभाव क्या है ?---- रिक्तता क्या है ?------यह स्वयं में जो शून्यता है, वह क्या है ? इसे जाने बिना जो मानता है , वह तो बाहर ही भागेगा क्योंकि वह तो भीतर से भयभीत जो है | यहि उसकी मती, गति स्वयं से पलायन ही होगी | जबकि स्वयं से कोई कैसे भाग सकता है ? स्वयं का होना यदि शून्यता भी है तो भी उससे भागा नहीं जा सकता है | वह जो भी है, वही है | उससे भागना असंभव होता है | क्योंकि, स्वयं के प्रति जागते ही पाया जाता है कि जो शून्य जैसा प्रतीत होता था , वह तो पूर्ण है | पूर्ण के प्रति जिद्द हो तो वह शून्य है, यदि शून्य के प्रति भरेंगे तो वही पूर्ण है | शून्य और पूर्ण एक ही सत्य के दो अनुभव हैं | निद्रा में पूर्ण शून्य मालूम होता है और जागरण में शून्य पूर्ण हो जाता है |"||
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"आत्मघात या आत्मक्रांति -----मनुष्यता के लिए उपस्थित बस ये दो ही विकल्प हैं|"
बारामति साइंस कालेज में उदबोधन
7 फ़रवरी की दोपहर आचार्यश्री ने बारामति साइंस कालेज के विद्यार्थियों को संबोधित किया | उन्होंने कहा : "मनुष्य का अतीत अत्यंत हिंसा, क्रूरता आदि अज्ञान से भरा रहा है | 5 हज़ार वर्षों में 15 हज़ार युद्ध हुए हैं | और आश्चर्य तो यह है कि इस दुर्भाग्यपूर्ण अतीत से हमने अबतक कोई भी सीख नहीं ली है | मनुष्य वैसा का वैसा ही है | उसमें कोई मौलिक क्रांति नहीं हुई है | लेकिन अब या तो मनुष्य को आमूलतः बदलना होगा या मनुष्य की जाति ही नष्ट हो जाएगी क्योंकि विज्ञान ने एसी शक्ति उसके हाथों में रख दी है कि वह हिंसक रहकर आज आत्मघात से नहीं बच सकता है | आत्मघात या आत्मक्रांति---बस आज ये दो ही विकल्प मनुष्यता के लिए हैं | आत्मक्रांति से मेरा क्या अर्थ है ? शरीर के तल पर मनुष्य ने भलीभाँति जीकर देख लिया है | इस जीवन में दुख के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है | और इस जीवन की पुर्णाहुति होती है, मृत्यु में | और स्मरण रहे कि जो दुख में जीता है और मृत्यु में समाप्त होता है, वह दूसरों के लिए भी दुख बन जाता है, और मृत्यु बन जाता है | इससे ही इतनी हिंसा हैं, इतने युद्ध हैं, इतनी शत्रुता है | शरीर में ही जीवन को समाप्त मान लेने का यह स्वाभाविक परिणाम है | लेकिन एक और जीवन भी है | आत्मा का जीवन भी है | जो स्वयं की चेतना के केंद्र को खोजता है ओर उसे पाकर उसके लिए मृत्यु नहीं है | उसे न जानने से ही मृत्यु का भ्रम पैदा होता है | और जो उसे जान लेता है उसके लिए फिर मृत्यु मिट जाती है | निश्चय ही उसे जानना समस्त दुखों और पीड़ाओं के उपर उठ जाना है क्योंकि वह भोक्ता नहीं है | वह तो बस ज्ञाता है | और जो स्वयं दुख के बाहर हो जाता है, वह किसी को भी दुख देने में असमर्थ हो जाता है | एसी चित्त की दशा ही अहिंसा है | उससे तो प्रेम बहता है क्योंकि वह प्रेम है | उससे तो आनंद बहता है क्योंकि वह आनंद है | उससे तो अमृत बहता है क्योंकि वह अमृत है |”
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8 फ़रवरी दोपहर कृषि विश्वविद्यालय, जबलपुर में प्रवचन
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मंडला में विशाल जनसभा
आचार्यश्री 21 फ़रवरी की संध्या मंडला पधारे | रात को उन्होंने एक विशाल जनसभा को संबोधित किया | उन्होंने कहा : "मैं प्रेम के अतिरिक्त और किसी प्रार्थना को नहीं जानता हूँ | और मै कहता हूँ कि जो प्रेम में समग्रतः प्रविष्ट हो जाते हैं, वे परमात्मा को भी पा लेते हैं | लेकिन प्रेम को पाने के लिए स्वयं को खोना पड़ता है | क्योंकि अह्न्कार की चट्टान के अतिरिक्त प्रेम के झरने को रोकने में और क्या बाधा है ? प्रेम तो प्रत्येक के हृदय में भरा है, लेकिन अहंकार द्वार को रोके हुए है | अहंकार को छोड़ो यदि प्रेम को पाना है तो | और प्रेम तो आवश्यक है यदि परमात्मा को पाना है | अहंकार अंधकार है | परमात्मा आलोक | अहंकार परतंत्रता है | परमात्मा स्वतंत्रता है | और अहंकार से, अंधकार से, परतंत्रता से जो परमात्मा तक, प्रकाश तक, परममुक्ति तक जाना चाहता है, उसके लिए मार्ग क्या है ? उसके लिए प्रेम मार्ग है | प्रेम और प्रेम और प्रेम | प्रेम ही जीवन है | प्रेम ही प्रार्थना | और अंततः प्रेम ही परमात्मा है | लेकिन हम प्रार्थनाएँ भी करते हैं, और परमात्मा के मंदिरों में मनुष्य निर्मित मंदिरों की परिक्रमाएँ भी करते हैं, पर प्रेम में हमारे हृदय बिल्कुल शून्य हैं | इसलिए न हमारी प्रार्थनाओं का कोई मूल्य है और न हमारे परमात्माओं का | उल्टे वे और भी मनुष्य को मनुष्य से तोड़ते जाने का कारण बन गये हैं | और क्या जो मनुष्य को मनुष्य से ही तोड़ देता हो, वह कभी उसे परमात्मा से भी जोड़ सकता है ? प्रेम के अतिरिक्त और कोई कर्म नहीं है | क्योंकि प्रेम के अतिरिक्त स्वयं और समग्र के बीच और कोई सेतु नहीं है | प्रार्थनाएँ छोड़ो और प्रेम करो | परमात्मा को छोड़ो और प्रेम करो | और अंततः पाओगे कि प्रार्थना पूरी हो गयी है और ||
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परमात्मा स्वयम् ही उपलब्ध हो गया है |”
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"ज्ञान के लिए पराए ज्ञान से मुक्ति आवश्यक | क्योंकि जो स्वयं का नहीं, वस्तुतः वह ज्ञान ही नहीं है |"
आणंद में प्रवचन
आचार्यश्री 3 मार्च को आणंद पधारे | आणंद के प्रबुद्ध नागरिकों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा : "सत्य शब्दों से नहीं पाया जा सकता है | इसलिए वह किसी और से भी नहीं पाया जा सकता है | सत्य है स्वानुभूति | उसे तो स्वयं में और स्वयम् ही जानने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं है | लेकिन हम सत्य को खोजते हैं, शास्त्रों में, शब्दों और सिद्धांतों में | और इस भाँति पाया गया ज्ञान, ज्ञान तो नहीं बनता, विपरीत ज्ञान के लिए अवरोध बन जाता है | क्योंकि जो व्यक्ति जितना अधिक तथाकथित ज्ञान से आबद्ध हो जाता है, वह उतना ही स्वयं के ज्ञान को पाने में असमर्थ हो जाता है | वह दिशा ही उसे विस्मृत हो जाती है | वह उधार और पराए ज्ञान को अपना मानकर ही तृप्त हो जाता है, इसलिए उसके स्वयं के ज्ञान की मौलिक शांति के जागने का अवसर ही खो जाता है | वह स्मृति के और स्मृति में संगृहीत सूचनाओं को ही ज्ञान मान लेता है और परीणाम स्‍वरूप सदा के लिए ही उस ज्ञान से वंचित रह जाता है जो की ज्ञान है | इसलिए मैं कहता हूँ कि सत्य की खोज में सबसे पहले तो यही है कि इस ज्ञान से मुक्त हो जावें जो कि हमारा नहीं है | क्योंकि तभी हमारी खोज ज्ञान के उस आयाम में प्रारम्भ होती है जो कि स्वयं में ही सोया हुआ है | और वहीं, उसी आलोक में जो की स्वयं की चेतना से अवीरभूत होता है, सत्य है और वही परमात्मा है |"


"विचार को जगाओ | और विश्वासों से बचो | क्योंकि विश्वास अन्धेपन में ले जाते हैं|"
सरदार पटेल विश्वविद्यालय, आणंद में प्रवचन
आचार्यश्री ने 3 मार्च की दोपहर सरदार वल्लभभाई पटेल विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों के बीच अपने विचार प्रकट किए | उन्होंने कहा : "विचार को जगाओ | सम्यक तर्क को जगाओ | और विश्वास से बचो | क्योंकि विश्वास अन्धेपन में ले जाता है | मनुष्य
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के दुर्भाग्य की सारी कथा उसके अंधे विश्वासों के अभाव में घटित नहीं हो सकती | और स्मरण रहे कि विश्वास मात्र अंधे होते हैं | फिर वे विश्वास चाहे आस्तीकों के हों चाहे नास्तीकों के | मैं तुमसे निवेदन करता हूँ कि तुम विश्वासों से अपने को मत खोजना | क्योंकि जो विश्वासों में बँध जाता है, उसकी खोज निष्फल और निर्दोष नहीं हो पाती है और वह सत्य को जानने में असमर्थ हो जाता है | और सत्य को जाने बिना, पाए बिना न जीवन में अर्थ है, न अभिप्राय है, न आनंद है | इसलिए सदा अपने चित्त को निष्पक्ष रखना और मन के द्वार खुले रखना और अपनी जिग्यासा को सचेत और जीवंत रखना ताकि एक दिन तुम उसे जान सको जो कि समस्त जीवन का मूल है और उसे जानकर् और पाकर उस धन्यता और कृतार्थता को पा सको जिसे पाने के लिए ही प्रत्येक व्यक्ति जन्मता है लेकिन जिसे बहुत थोड़े से लोग ही उपलब्ध हो पाते हैं | क्योंकि अधिक लोग विश्वासों से बँध जाते हैं और निष्फल खोज कि कमियों को खोजते हैं जिनके अभाव में सत्य के दर्शन होने असंभव हैं | विश्वास नहीं, विवेक----यदि यही तुम्हारी यात्रा की दिशा बन सकी तो तुम निश्चय ही उसे जान पाओगे जो कि सत्य है, जो की परमात्मा है | सत्य ही परमात्मा है | उसके अतिरिक्त और कोई परमात्मा नहीं है | और सत्य को पाने का मार्ग विवेक है |"
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"मिटो ताकि पा सको | मनुष्य जहाँ नहीं है, मन जहाँ नहीं है, वहीं वह है, 'जो है' |"
अहमदाबाद में सत्संग
आचार्यश्री के सान्निध्य में 4, 5, 6 मार्च को एक विशाल सत्संग का आयोजन यहाँ हुआ | इस सत्संग से एक क्रांति की लहर ही पैदा हो गई | आचार्या श्री ने प्रवचन दिए | उन्होंने कहा : "धर्मों में धर्म नहीं है | और जिसे धर्म को पाना है, उसे धर्मों से मुक्त होना पड़ता है | धर्म तो एक है क्योंकि सत्य एक है | और इस सत्य को पाने के लिए सत्य के संबंध में प्रचारित और स्वीकृत सारी धारणाएँ छोड़नी आवश्यक हैं | जो उन धारणाओं को लेकर चलता है, वह सत्य को नहीं, बस अपनी धारणाओं के ही अनुभव को उपलब्ध होता है | निश्चय ही वैसी अनुभूतियाँ स्वयं की मनोकल्पनाओं से ज़्यादा नहीं होती है | और कल्पनाएं करने में मनुष्य का मन खूब समर्थ है | प्रकार प्रकार के ईश्वर इसी मन से पैदा होते हैं | लेकिन 'जो है' उसे जानने में एसा मन असमर्थ हो जाता है | तथाकथित धार्मिक लोग इसीलिए कभी सत्य को नहीं जान पाते हैं | क्योंकि वे स्वयं को गढ़ने में जो संलग्न होते हैं | एसे गृह-निर्मित सत्यों के कारण ही धर्मों का नाश हो गया है | जबकि धर्म में प्रवेश के लिए सत्यों के घड़ने का यह गृह-उद्योग बिल्कुल ही बंद करना होता है | मन जब सबभाँति धारणा शून्य, विचारों से रिक्त और कल्पनों से मुक्त होता है, तभी वह जाना जाता है, जो है | वही है सत्य | वही है परमात्मा | और उसे जानना ही मुक्ति है | निश्चय ही स्वयं सत्य को नहीं घड़ना है, बल्कि स्वयं को मिटाना है ताकि सत्य प्रकट हो सके | और तब चित्त धारणाओं और विचारों और कल्पनाओं से शून्य होता है तो मिट ही जाता है | इस नकारात्मक दशा में ही सत्य जाना जाता है | मन की कोई भी विधायक क्रिया उसे पाने में बाधा है | मनुष्य सत्य को नहीं पा सकता है | हाँ, जहाँ वह नहीं है, वहीं सत्य प्रकट है |“||
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12 मार्च विश्व मैत्री मंच गोष्ठी जबलपुर (रेड टिक)
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"ईश्वर मर गया है | और अब उस ईश्वर को खोजना है, जो न जन्मता है, और न मरता है|" - क्रास कर दिया गया |
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"ईश्वर मर गया है | मनुष्यनिर्मित ईश्वर मर गया है | और उस ईश्वर को खोजना है, जो कि मनुष्य निर्मित नहीं है, और न कभी जन्मता है और न कभी मरता है |"
बंबई में विराट सत्संग
आचार्यश्री के सान्निध्य में एक विराट सत्संग का आयोजन 20,21,.22,23 मार्च को यहाँ आयोजित हुआ | हज़ारों लोगों ने इस सत्संग में आचार्यश्री की अमृतवाणी को सुना | आचार्यश्री ने कहा : "मैं एक खबर लाया हूँ कि ईश्वर मर गया है | लेकिन घबडाएं नहीं और न हीं शोक मनाएँ, क्योंकि जो ईश्वर मर गया है, वह मनुष्य निर्मित ही था | और यह शुभ ही है कि वह मर गया है क्योंकि उसके कारण ही मनुष्य उस ईश्वर को जानने से वंचित था जिसका कि न जन्म है और न मृत्यु है | जीवन, अस्तित्व, जो है, वह अपनी समग्रता में ही तो ईश्वर है | लेकिन मनुष्य ने अपनी अपनी कल्पना से हज़ारों छोटे बड़े ईश्वर घड़ रखे थे | वे धीरे धीरे मरते गये हैं और अब वह मंदिर खाली पड़ा है जो कि उनसे बुरी तरह भरा हुआ था | इस खाली मंदिर में----इस खाली मन में ---- इस शून्य में अब उस सत्य को पाया और जिया जा सकता है जिसकी कि कोई भी कल्पना संभव नहीं है | ईश्वर हमारी कल्पना नहीं है, और जो हमारी कल्पना है वह ईश्वर नहीं है | उसे जानने को तो सारी कल्पना को विदा दे देनी अनिवार्य है | कल्पना की प्रतिमाएँ जबतक चित्त को घेरे रहती है तबतक वह जो निराकार है, कैसे माना जा सकता है ? लेकिन जैसे ही आकारों और रूपों को विदा दी जाती है, वैसे ही पाया जाता है कि वह तो है----वह तो सदा से है |"
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२९ मार्च | सिंधी समाज जबलपुर में प्रेम दिवस (रेड टिक)
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"भय से धर्म का क्या संबंध ? धर्म तो वहीं है जहाँ अभय है |"
हैदराबाद में पत्रकार सम्मेलन में,
आचार्यश्री 1,2, 3 अप्रेल हैदराबाद, साधनाश्रम में पधारे | हैदराबाद आते ही पत्रकार सम्मेलन को उन्होंने संबोधित किया | उन्होंने कहा : "मनुष्य के मन को सब भाँति के भयों से मुक्त करना है | भय से बड़ी और कोई जानलेवा बीमारी नहीं है | इस भय के कारण ही धर्म के नाम पर मनुष्य का अतिशय शोषण हुआ है | जबकि वस्तुतः भय और धर्म विरोधी दिशा में हैं | धर्म का भय से क्या संबंध ? धर्म तो वहीं है जहाँ अभय है |"
"धर्म कहाँ है ? तीर्थों में ? नहीं | मंदिरों में ? नहीं | संगठनों में ? --संप्रदायों में ? नहीं | धर्म तो वहाँ है जहाँ हम उसे खोजते ही नहीं हैं | वह तो स्वयं में है |"
हैदराबाद में सत्संग
आचार्यश्री के सान्निध्य में आयोजित सत्संग से हैदराबाद की जनता में एक अत्यंत विचारोत्तेजक भावदशा निर्मित हुई | उनके शब्द तो अग्नि की भाँति हैं, जो कि जलाते भी हैं और निखारते भी हैं | उन्होंने यहाँ कहा : "धर्म का हाल धर्मों के कारण हुआ है | मनुष्य को धर्मों ने जोड़ा नहीं है उल्टे तोड़ा है | उन्होंने बात तो प्रेम क़ि करी लेकिन घृणा के संगठन खड़े किए हैं | वस्तुतः संगठन या संप्रदाय के पीछे घृणा और हिंसा ही होती है | धर्म का संगठन से कोई संबंध नहीं है | धर्म संगठन नहीं है | धर्म साधना है | और इसलिए धर्म अत्यंत वैयक्तिक है | व्यक्ति जितना भी स्वयं में प्रविष्ठ होता है, उतना ही वह धर्म के सत्य को जानता और अनुभव करता है | स्वयं की अत्यंतिक निजता में ही धर्म का सत्य उपल्बध होता है | इसलिए संगठनों में धर्म को मत खोजो | वह तो निज के एकांत और मौन में है | इसलिए भीड़ और समूह में उसे मत खोजो | वह तो स्वयं में ही है | शांत होकर उसे स्वयं में देखोगे तो पाओगे कि उसकी ज्योति तो निरंतर भीतर जल रही है | वह न मंदिरों में है, न तीर्थों में | वह तो वहाँ छिपा है जहाँ कि हम उसे खोजते ही नहीं हैं | वह तो स्वयं में ही छिपा है |”
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"जीवन जो जियो | उसकी समग्रता में | क्योंकि वहीं वह अवसर है जहाँ स्वयं में वो ...वह जागता है और जीवंत बनता है |"
सिकंदराबाद में प्रवचन
आचार्यश्री ने 2 अप्रेल की प्रभात सिकंदराबाद की जनता को संबोधित किया | उन्होंने कहा :"जीवन अखंड है | उसे खंड खंड बाँटना अत्यंत भ्रामक है | धर्म जीवन विरोधी नहीं है | और जो जीवन विरोधी है, वह धर्म नहीं है | इसलिए मैं समग्र जीवन को ही साधना मानता हूँ | जो साधना जीवन से भागकर ही होती है, वह साधना नहीं, जीवन से पलायन है | और पलायन कंज़ोरी है | फ़ि पलायन में, भागने से क्या कभी कोई समस्या हाल होती है? समस्या को और उसकी चुनौती को जो सामने से स्वीकार नहीं करता है, वह तो उसमें और भी उलझा होता है | भय से भागना पैदा होता है और भागने से और भय बढ़ता है | एसए एक दुश्चक्र पैदा हो जाता है | जबकि चित्त शांत हो और समग्र भाव से जीवन की समस्या का अवलोकन करता है तो पाया जाता है कि समस्या है ही नहीं | वह थी हमारी मूर्छा में | जागरण में वह वैसे ही नहीं ..जाती है, जैसे कि सूर्य के आने पर अंधकार नहीं पाया जाता है | जीवन को जियो | उसकी पूर्णता में जीवन को जियो | जागृत और अमूर्छित जीवन को स्वीकार करो | उससे भागते नहीं |क्योंकि वहीं वह अवसर है जहाँ स्वयम् में जो सोया है, वह जाग सकता है |"
 
"अहंकार चाहते हो तो आनंद न चाहो | क्योंकि, दोनों को एक ही साथ नहीं पाया जा सकता है |"
कटनी में संगोष्ठी
आचार्यश्री के सत्संग के लिए 9 अप्रेल को कटनी के प्रबुद्ध नागरिकों की एक संगोष्ठी हुई | आचार्यश्री नेसंगोष्ठीमें कहा:"अहंकार दुख है | अहंकार पीड़ा है | अहंकार अंधकार है | लेकिन हम उसमें ही जीते हैं और इसीलिए न तो हम जीवन को जान पाते हैं और न सत्य को, न सौंदर्य को, न शांति को | अहन्कार कारागृह है | और उस कारागृह में सूर्य का आलोक नहीं पहुँचता है | लेकिन हम आलोक भी चाहते हैं, आनंद भी चाहते हैं और अहंकार के कारागृह की दीवारों को उँचा भी उठाए जाते हैं | क्या यह विरोधाभास आपको दिखाई नहीं पड़ता है? इस विरोधाभास के दिखाई पड़ते ही जीवन में एक क्रांति हो जाती है | क्योंकि कोई भी व्यक्ति यदि विरोधाभास को देखले फिर विरोधी दिशाओं में एक
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ही साथ नहीं जी सकता है |”
 
"सरिताओं के सागर को पाने का रहस्य क्या है ? वही परमात्मा को पाने का रहस्य भी है |"
कटनी में प्रवचन
9 अप्रेल की रात्रि आचार्यश्री ने एक विशाल जनसभा को यहाँ संबोधित किया | उन्होंनें कहा : "परमात्मा को पाने या खोजने मंदिरों में जो जाता है, उसे पता नहीं कि परमात्मा वहाँ नहीं है | मनुष्य द्वारा निर्मित मंदिर इतने छोटे हैं कि परमात्मा उनमें कैसे समा सकता है ? उसे पाना हो तो मंदिरों की, और मनों की सारी दीवारें गिरा देनी आवश्यक हैं | मन का मंदिर जहाँ दीवारों से मुक्त हो सकता वहीं परमात्मा है | मनुष्य मिटता है तभी उसे पाता है | सरिताओं के सागर को पाने का जो रहस्य है, परमात्मा को पाने का रहस्य भी वही है |"
"मैं शून्य सिखाता हूँ | क्योंकि शून्य में ही व्यक्ति वहाँ होता है, जहाँ कि वस्तुतः वह है |"
शारदाग्राम, जूनागढ़ में साधना शिविर
आचार्यश्री 14, 15, 16 अप्रेल को सौराष्ट्र पधारे | उनके सन्निद्य में एक साधनाशिविर शारदाग्राम में आयोजित हुआ | 250 साधक और साधिकाएँ तीन दिवस उनके अमृत सहवास में रहे | जीवन में आमूल क्रांति कैसे हो, इस संबंध में आचार्य श्री ने उनका मार्गदर्शन किया | उनके शब्द-शब्‍द में मौलिक दृष्टि है और उनके इशारे-इशारे में अदृश्य और अज्ञात सत्य की और इंगित है | उनके साथ होना एक अनुठा अनुभव है | उनकी आँखें वह सब भी कहती हुई मालूम होती है जो कि शब्द नहीं कह पाते हैं | उन्होंने यहाँ कहा : "मैं मौन सिखाता हूँ | मैं शून्य सिखाता हूँ | क्योंकि, शून्य में ही व्यक्ति वहाँ होता है जहाँ की वस्तुतः वह है | वह केंद्र ही परमात्मा है |"
"मैं कौन हूँ ? पूछो ---- स्वयम् से पूछो | और पूछते ही मानो तो एकदिन अवश्य ही वह उत्तर उपलब्ध होता है जो कि जुम्मेदारी है|"
पूना में सत्संग
आचार्यश्री 22, 23, 24 अप्रेल को पूना पधारे | यहाँ उन्होंने तीन प्रवचन दिए | इन प्रवचनों में सैकड़ों लोग उपस्थित हुए और आनंदित हुए| आचार्यश्री को सुनना एक अभूतपूर्व आनंद है |
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उन्हें तो सुनो सुनते-सुनते ही जैसे चेतना किसी और ही लोक में चली जाती है | उन्हें सुनना मात्र सुनना नहीं, वरन स्वयं में एक यात्रा भी है | उन्होंने यहाँ कहा : "मैं कौन हूँ? हम प्राथमिक प्रश्न का उत्तर ही जिसके साथ नहीं है, उनके जीवन में कोई भी अर्थ कैसे हो सकता है ? और जिनके पास इस प्रश्न के उत्तर और सीखे हुए उत्तर है, उनकी स्थिति तो और भी दुर्भाग्यपूर्ण है | क्योंकि, उन्होंने स्वयं के सत्य का तो कोई अनुभव है ही नहीं, उल्टे उत्तरों को सीख लेने के कारण उनकी खोज भी अवरुद्ध हो जाती है | सत्य को तो स्वयम् के श्रम से ही खोजना और स्वयं में ही खोदना पड़ता है | उस खोज की पहली शर्त है किसी अन्य का उत्तर किसी भी शर्त किसी भी मूल्य पर स्वीकार न करना | यदि प्रश्न हो और उत्तर ना हों, तो वह प्रश्न ही एक तीर की भाँति स्वयम् में गहरे जाने का मार्ग बन जाता है | और यदि अनथक उस प्रश्न के साथ जीया जावे तो एक दिन वह उस उत्तर को खोज ही निकालता है वो तो स्वयं में ही प्रसुप्त और प्रच्छन्न है | एसा ज्ञान ही केवल ज्ञान है जो की स्वयम् में ही अविर्भूत होता है | उसके अतिरिक्त शेष सब अज्ञान है जो की स्वयम् को छिपाने के लिए ज्ञान के वस्त्र पहने होता है |"


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22 अप्रेल | नवीन विद्यभवन जबलपुर में शिक्षा साप्ताह का समापन भाषण |
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२२ अप्रेल | जीवन जागृति केंद्र जबलपुर की संगोष्ठी
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