Arvind Jain Notebooks, Vol 1: Difference between revisions

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author
Arvind Kumar Jain
year
Apr - Jul 1961
notes
86 pages
Notes of Public Meetings Address & Personal Meetings of Osho with Dignitaries by Arvind Jain.
see also
Notebooks Timeline Extraction


page no
original photo & enhanced photos
Hindi transcript
cover
84 Pages Notes of Public Meetings Address & Personal Meetings of OSHO with Dignitaries
April 61 to July 61.
1
बोधिसत्व बाबा साहब अम्बेद्कर के पवित्र जन्म-दिवस पर आकर मैं आपका अनुग्रहित हूँ | वे ज़मीन पर शरीर की तरह जन्मे लेकिन उनका असली जन्म तब हुआ, जब उन्होंने भगवान बुद्ध के धर्म में दीक्षा ली | इससे प्रत्येक मनुष्य के दो जन्म होते हैं - एक शरीर का सामान्य जन्म और दूसरा धर्म में होकर - सच्चा जन्म | दूसरे जीवन से ही - जीवन में महत्ता और गरिमा प्रगट होती है | इससे मैं डा. साहब के सामान्य जीवन पर विचार न कर, भगवान बुद्ध के संदेश से वे क्यों प्रभावित हुए - इस पर ही विचार करता हूँ |
उनने भारत में बौद्ध धर्म को पुनः 1,000 वर्ष बाद स्थापित किया और भारत में इस धर्म के अभाव से विलुप्त नैतिक और धार्मिक समृद्धता को जगाया | कौन सा मार्ग है ? उस संबंध की थोड़ी सी बातें मैं - आपसे करूँगा - ताकि जीवन सार्थक हो सके |
हमारा युग - गहरे अंधेरे का युग है | हम आध्यात्मिक दृष्टि से अंधे हो चुके हैं | न्यूयार्क में एक
2 - 3
विचारक ने प्रवचन करते हुये कहा था : हमारा युग आस्था से हीन हो गया है | पर मुझे लगता है कि पहले अधार्मिक को ईश्वर के न होने में और धार्मिक को ईश्वर के होने में आस्था थी | पर आज का युग दोनों ओर से उपेक्षा में भर गया है | इससे, अनास्था को आस्था में पहले बदलना आसान था, लेकिन अब उपेक्षा को विचार में बदलना कठिन है | मुझे जो शांति यहाँ रखी भगवान बुद्ध की मूर्ति में दिख रही है, आज कोई भी व्यक्ति वैसा शांत नहीं दीखता | इससे जीवन भर का होना महत्व का नहीं है, कैसे शांत हुआ जाय - बैचेनी, परेशानी, दुख और गहरी पीड़ा से मुक्त हुआ जाय - इसकी जीवन-साधना 2500 वर्ष पूर्व भारत में भगवान बुद्ध से उदित हुई | यह गंभीर वैज्ञानिक साधना हमारे आस्था शून्य, मूल्य विहीन समाज में पुनः शांति स्थापित करे - इसकी बात मैं आपसे करूँगा |
एक छोटी सी कहानी से मैं अपनी चर्चा प्रारंभ करता हूँ | एक जापानी बौद्ध कथा है | एक अँधा - अपने मित्र से मिलने गया | रात लौटने लगा तो मित्र ने एक लालटेन साथ लेने को कहा | पर अंधे ने कहा : मुझे
प्रकाश और अंधेरा समान है लेकिन मित्र के कहने पर कि : लालटेन के प्रकाश से तुम्हें तो सहारा मिलेगा नहीं लेकिन जो सामने से आएगा, वह प्रकाश में तुम्हें देख लेगा - और टक्कर नहीं होगी | अँधा लालटेन लेकर बढ़ चला | कोई 100 - 200 कदम चला होगा कि उसकी टक्कर सामने आते एक व्यक्ति से हुई | अंधे ने कहा : बात क्या है, लालटेन के प्रकाश में भी तुम नहीं देख सके | जवाब मिला : लालटेन ही बुझ गई है, उसकी ज्योति समाप्त हो गई है - इससे टक्कर होना स्वाभाविक था | हमारे युग में भी आज राष्ट्र-राष्ट्र में, पति-पत्नी में,माँ-पिता-पुत्र में - चारों ओर गहरी टकराहट है, और शांति, धर्म, आनंद की ज्योति बुझ गई है | प्रकाश बुझ गया है | इसे पुनरुज्जीवित करना है | धर्म चला जायगा - तो आदमी बहुत समय तक अब ज़मीन पर जिंदा नहीं रह सकता | डा. साहब की देन - बौद्ध धर्म को पुनः भारत में पुनरुज्जीवित करने में है |
भगवान बुद्ध को एक बुनियादी बात दिखी : अपने स्वरूप को जानना - अज्ञान - मूर्छा नहीं मिटेगी
4 - 5
तो हम अपने से अपरिचित रह जायेंगे | परिणामतः जीवन दुखी रहता है | सब मार्गों पर भगवान बुद्ध ने चल के देखा; खुद परखा | 6 - 7 वर्षों तक शरीर की तपश्चर्या की - मार्ग न मिला | कहा कि : दो प्रकार की परंपरा - एक भोग के मार्ग पर चलकर - सुख पाना; पर एक क्षण भी भोग में शांति नहीं | जिनके पास बहुत धन है - वे भी दुखी हैं | प्रश्न यह नहीं कि हमारे पास कितना है ? हमारी भूख कितनी है - इससे दरिद्रता बढ़ती है | हमारे पास एक रुपया है और अब इच्छा नहीं है - पर एक करोड़ हैं और ज़्यादा चाहते की माँग बनी है - तो हम बड़े भिखमंगे - साबित होंगे | इससे तृष्णा कभी नहीं होती | इसके दूसरी ओर कुछ लोग - सब छोड़ने की बात करते हैं | एक और भोग की तो दूसरी त्याग की अति रहती है | मन की शांत स्थिति जब सब पकड़ छूट जाती है - तब आती है |
राजा श्रौण - खूब भोगकर - पूर्ण त्याग के जीवन में उतरा | पत्थरों पर चलता - तो खूब खून झरता | सोचा क्यों न ग्रहस्थी सुख में वापस लौटू | पर भगवान बुद्ध से मिला ; पूछा सितार या वीणा बजाते
थे, कहा : बहुत शौक था | फिर भगवान बुद्ध ने पूछा : सितार के तार ढीले हों - तो संगीत निकलेगा - कहा : स्वर ही नहीं निकलेगा, यदि तार खींचे हों तो - संगीत बेसुरा हो जाएगा | तब फिर : कहा कि तार सम होना चाहिए | इससे सम मार्ग ही - शांत व्यक्तित्व लता है | यह मार्ग दो अतियों के बीच का मध्‍यम प्रतिपदा का मार्ग है | इसमें संतुलित जीवन : दृष्टि की बात है | इसके 8 अंग हैं - जो आर्य आष्टाँगिक योग में समाहित है | ये मार्ग मनुष्य के निखार के लिए हैं - इनका वैज्ञानिक प्रयोग है | मनुष्य के विकास के लिए संतुलित मार्ग है | सम्यक दृष्टि का | इस बीच और विचारक, उपदेशक, धर्म-प्रवर्तक यथा : महावीर, अर्जित केस कंबल, मक्खली गोशाल - हुए, जिन्होंने अपने मार्ग रखे | पर अति पर ज़ोर था | इससे अति के जीवन से बचें - तो जीवन शांत बनेगा | क्या करें ?
ध्यान योग : एक विशिष्ट प्रयोग : सम्यक स्मृति
सम्यक व्यायाम
सम्यक समाधि का |
6 - 7
इससे अंतिम निर्वाण संभव होगा |
हम अपने मन की स्थिति को देखें - हर क्षण एक स्वप्न चल रहा है - आप तक मेरी बात पूरी नहीं - पहुँच पा रही है | भीतर आपके विचारों की प्रक्रिया जारी है | इच्छाओं के पर्दे से बात नहीं पहुँचेगी | हम जाग नहीं पाते | जहाँ होते हैं - वहाँ नहीं होते | ठीक से जागरूक अवस्था : बुद्धत्व की है | मन और कर्म के बीच एका किया |
कोरिया में बोकोजू एक साधु हुआ | कहता था : धर्म क्या है - इसके उत्तर में कि जब मैं ख़ाता हूँ, तब केवल ख़ाता हूँ | जब चलता हूँ - तब केवल चलता हूँ | हम खाते हैं - तो न जाने किन कल्पनाओं में उलझे होते हैं - और अपने व्यक्तित्व की आत्म-हत्या करते होते हैं | आज अमरीकी देशों - का करोड़पति रात्रि को शांत नहीं सो पाता | मनोवैज्ञानिकों ने कहा है : उच्च सभ्यता के कारण - निद्रा तक लेना मुश्किल बात है | अल्डस हक्सले ने कहा : कि धर्म-शांति यदि विनष्ट हो गई तो पता नहीं जीवन का क्या होगा | एक बहुत बड़े रूसी विचारक : मायकोवस्की और अन्य विचारकों
में स्टीविन्स ज्युग ने अभी आत्म-हत्याएँ कीं और कहा कि जीवन भी मृत्यु से बहुत सुखी नहीं था, इससे मृत्यु कर लेना ही ठीक है |
मन की शांति के लिए, विचार रिक्त मनःस्थिति चाहिए | मन को दबाने से नहीं - विसर्जित करके ही शांत - स्वरूप में आना होगा | दमन करने से - फोड़े के रूप में कहीं ओर से निकल आता है | मनोवैज्ञानिक भी इस बात से सहमत हैं | जो भी इच्छाएँ, विचार उठती हैं - उन पर दृष्टि को बांधें, सम्यक स्मरण ( Awareness ) के रहने पर ग़लत विचार हट जाते हैं | अंधेरे को जैसे आप कितना भी दबाइए, धक्का दीजिए, वह इंच भी नहीं हट सकता | उसकी सत्ता नकारात्मक है | पर एक छोटा सा दिया जला लेने से अंधेरा चला जाता है | इससे सम्यक-स्मृति ( Right Mindfulness ) का आचरण करके, अपने अंधेरे को दूर किया जा सकता है |
बुद्ध ने एक नव-दीक्षित साधक को एक विशेष श्राविका के यहाँ भोजन को भेजा | रास्ते में साधक सोंचता था : घर था तो मन का भोजन मिलता था -
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पर यहाँ पता नहीं ? पहुँचा श्राविका के यहाँ - तो भोजन में वही मिला जो सोचा था | - सोचा शायद संयोग हो | पर भोजन उपरांत विश्राम की इच्छा हुई - श्राविका ने विश्राम कर लेने को कहा | अब तो साधक आश्चर्य में था - पूछा -तो उत्तर मिला कि : भगवान के चरणों में रहकर मैंने — मन-पर्याय ज्ञान प्राप्त किया है | अब तो साधक घबड़ाया - सोचा कहीं और भी गंदे विचार न पढ़ लिए जाएं | भागा पहुँचा - भगवान के पास और कहा वहाँ मैं न जाऊँगा | भगवान ने कहा : जाना होगा | साथ ही एक बात उससे कही कि जाना पर, एक -एक विचार देख कर जाना | कथा कहती है : 3 माह में वह अर्हत पद पर दीक्षित हुआ | अपने भीतर के शत्रु को जीत लिया | उससे मुक्त कर लिया |
मनोवैज्ञानिक : मन का विश्लेषण करते हुये कहते हैं कि हमारे भीतर - जो गंदा है - सारे को यदि प्रगट किया जाय - तो 10 बार भी फाँसी की सज़ा का होना कम है | इससे मन के प्रति जागरूक होने का मार्ग है | एक-एक क्षण की निंद्रा या बेहोशी - ठीक नहीं है | मनुष्य को दुखी होने का कोई कारण नहीं है : ना सम-
झि में - हमारे कारण - हम दुखी हैं | ध्यान योग से शांत हुआ जा सकता है | शांत-सागर के किनारे हम व्यर्थ ही प्यासे खड़े हैं |
सारी तृष्णाएँ विसर्जित-अन्यथा दुख के अनंत आवर्तों में भटकना होता है | तृष्णा का चुक जाना -दिये की लौ का विसर्जित हो जाना - वैसे ही मनुष्य का जीवन भी अनंत में विसर्जित - एक-एक क्षण की सम्यक जागरूकता से |
एक छोटी सी कथा कहकर अपनी बात को पूरी करूँगा | एक इटालियन मछुआ - सुबह-सुबह --- नदी -तट पर भोर के तारों में पहुँचा | नदी तट पर एक कंकड़-पत्थर की झोली थी - उसे उठाकर - नाव पर वह चल दिया | बीच सोचता था - उस चट्टान के पास एक मकान बनाऊंगा - खूब मछली लाकर - धन इकट्ठा करूँगा - भिक्षा में यों मुट्ठी भर-भर दान दूँगा और अपनी मौज में वह झोली से मुट्ठी - भर-भर के कंकड़-पत्थर — फेंकता जाता था | इस तरह फेंकता गया, फेंकता गया, आख़िर में केवल एक कंकड़ बचा- सुबह सूरज की किरणें फूटी तो वह
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सूख गया - खून बंद हो गया जैसे - देखा वह एक बड़ा हीरा था | झोली भर व्यर्थ गवाँ दिए | हमारा जीवन भी समय के अनंत हीरों को खोता चला जाता है, जब एक क्षण शेष रहे जीवन का तब शायद हीरा-हीरा समझ में आता है | अप्राप्त की इच्छा में - प्राप्त हीरे हम फेंकते चले जाते हैं | सारे धर्म- दुख के कारण मिटाने को हैं | ये मिट जाते हैं | ध्यान योग से - समतुलित या सम-जीवन दृष्टि से | भगवान बुद्ध सबके शास्ता हैं : वे हों या न हों | कोई उनके धर्म को माने या न माने | सबको उनके मार्ग से आनंद मिलने को ही है | सबके लिए सूरज का प्रकाश उपलब्ध है | सबके लिए उनका द्वार खुला है | डा. अम्बेद्कर ने पुनः भारत में द्वार खोला, इससे उनके द्वारा महान उद्द्घोश को जो बुद्ध धर्म-भारत में उनने लाया - और आप सब नव्य दीक्षित बौद्धों को में हृदय से बधाई देता हूँ |
______________________
डा. अम्बेद्कर जयंती
14.04.1961
पूर्वी धमापुर (जबलपुर)
मैं आपका बड़ा अनुग्रहित हूँ | आज की सुबह आपके बीच आकर -- आनंदित हूँ | आपके मनों तक मेरे विचार पहुँचे -- इससे भी मैं आनंदित हूँ | में अभी आप तक आया -- तो सुबह पूरी तरह फूट आई है, पेड़-पेड़, गली-गली, फूल-फूल सब कुछ अपने पूरे आनंद से भर आये हैं | पर मनुष्य के अंतः में गहरा काँटा चुभा है --- उसकी प्रसन्नता विलीन हो गई है, गहरे तम से आज का मानव गुजर रहा है, गहरी पीड़ा, परेशानी और चिंता व्याप्त है | इससे जीवन के अंधेरे को तोड़ने का प्रयास ही -- मन के अंधेरे को दूर कर सकेगा और चरित्र-निर्माण हो सकेगा |
आज की चर्चा को मैं - जापान की एक प्रचलित कहानी से प्रारंभ करता हूँ | एक अँधा व्यक्ति अपने मित्र से मिलने गया | रात लौटता था - तो उसके मित्र ने प्रकाश रहे; इसके लिए लालटेन - साथ लेने को कहा | अंधे ने कहा : मुझे तो प्रकाश और अंधेरे में कोई भेद नहीं - इस पर उसके मित्र ने कहा : भेद तो
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तुम्हें नहीं है, पर सामने से आते व्यक्ति को प्रकाश दिखेगा - तो टक्कर न हो सकेगी | अंधे ने बात मान ली और लालटेन साथ लेकर 100 कदम ही आगे बढ़ा होगा कि सामने से आते व्यक्ति से टक्कर हुई | अंधे ने कहा : भई ! मैं तो अँधा हूँ, पर क्या प्रकाश तुम्हें भी दिखाई नहीं पड़ता | जवाब मिला : लालटेन का प्रकाश ही बुझ गया है -- तो टक्कर होना स्वाभाविक थी | आज के युग में भी गहरी टक्कर, राष्ट्र-राष्ट्र, पति-पत्नी, मित्र-मित्र, बच्चे-पिता-माँ --- सबमें दिख पड़ती है, लेकिन क्या कारण है ? प्रकाश बुझ गया है --- मानव-मूल्य विनष्ट हो गये है | इससे टक्कर तो स्पष्ट दिखती है, पर मूल में कारण क्या है ? इसकी खोज करना है | स्पष्ट है कि प्रकाश फैलाने वाली चीज़ें बुझ गई हैं | शांत व्यक्तित्व का निर्माण मुश्किल बात हो गई है, सारे जगत का मानव परेशान है | अभी एक निज़िन्स्की नमक प्रसिद्द चित्रकार ने आत्म-हत्या की | मृत्यु के पूर्व उसने गहरे काले और लाल रंग के चित्र अपने कमरे में लगा रखे
थे | देखकर कमरा कब्रिस्तान जैसा प्रतीत होता | पूछने पर वह कहता - दुनियाँ कुछ एसी ही हो गयी है; में क्या करूँ ? प्रकाश बुझता जाता है, इससे मनुष्य और उसके ज्ञान की मृत्यु के पूर्व ही, मैं अपने को समाप्त कर लेना उचित समझता हूँ |
आज के युग-उपदेष्टा देखते हैं - हिंसा है, चोरी है, असत्या है, चरित्र-हीनता है, तो कहते हैं : अहिंसा, सत्य, शील, चरित्र का निर्माण करो | लेकिन यह मात्र उपर की अभिव्यक्ति है — उससे रास्ता मिलने वाला नहीं है | मूल में कुछ एसा करो, वैसा करो - यह नहीं है | मैं इससे - आपको सकारण ही - सत्य बोलो, अहिंसा व्रत लो, शील बनो -- एसा कुछ भी कहने नहीं आया | पत्तों और फूलों को नहीं - जड़ों को सींचकर ही --पेड़ को हरा-भरा रखा जा सकता है | आज समाज में ऐसे स्त्रोत खो गये, जिनसे व्यक्तित्व का विकास संभव हो | इससे चरित्र के निर्माण में उपर की अभिव्यक्ति मात्र काम नहीं देगी, मूल में तो कुछ और है |
माओत्सेतुंग चीन के राष्ट्रपति है, बच्चों ने नाम
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सुना होगा | जब वे छोटे थे - माँ ने एक सुंदर बगिया लगा रखी थी | पर उन्हें पता न था - कैसे फूल-पौधे विकास पाते हैं | माँ एक बार बीमार पड़ी -- उन्होंने बगिया के संभाल का काम हाथ लिया | 15 दिन तक खूब - पत्तों और फूलों को नहलाते - पर सारे पौधे उदास और उजाड़ हो गये | माँ ठीक हुई तो देखा - बगिया में प्राण न थे | पूछा : तो हाल विदित हुआ | तब माँ ने कहा: जो उपर दिखता है -- उस पर ही फूल और पत्ते नहीं टीके हैं, जो कुछ दिखता नहीं है - उस पर दिखने की सत्ता कायम है | इससे चरित्र निर्माण भी, कुछ कारण है, जिन पर टिका है | मैं आपसे मूल कारणों की - प्राण की बात करना पसंद करूँगा |
पुराने युग की आस्था ईश्वर-निष्ठा थी | आज यह मूल्य खो गया | 200 वर्ष पूर्व वोल्टेयर एक प्रसिद्द विचारक हुआ - उसने कहा : 'ईश्वर मरणासन्न है |' इसके बाद जर्मनी के विचारक नीत्से ने कहा : ' जो ईश्वर मरणासन्न था, अब वह मर गया |' पर नीत्से को पता नहीं था : कि ईश्वर मरणासन्न होगा तो आदमी को
भी मारना होगा | केवल ईश्वर आस्था पर हम जीते और पलते हैं | ये आस्था आ जाय - तो कुछ उपर से लाने को नहीं | फिर कोई अब्रह्मचारी नहीं होगा - क्योंकि जो भीतर आया है - उससे ब्रह्मचर्य ही फूटेगा | बिना ईश्वर-आस्था के सब कुछ ग़लत है | ईश्वर तो सारे श्रेष्ठ मानव-मूल्यों का इकट्ठा जोड़ है | कोई आकाश में बैठी सत्ता-ईश्वर नहीं है; सारे निराकार मूल्य - ईश्वर में समाहित हैं | ये मूल्य खो जाने से -- जीवन विकृत और शून्य दिखने लगा है | मनोवैज्ञानिकों में मायकोवस्की ने अभी आत्महत्या की और कहा : जीवन में कोई अर्थ नहीं दिखता | किसलिए और क्यों जी रहे हैं ? इससे उसने जीवन खो दिया | आज श्रेष्ठतम लक्ष्य विलीन हो गये हैं --- इससे जीवन कोरा हो गया है | जीवन अर्थकारी केवल ईश्वर आस्था से ही बन सकता है | अन्यथा शेक्सपियर ने जो जीवन के बाबत कहा : वह सच होगा :
“Our life is such that a tale told by an ediot, with full of fary & noise, signifies nothing.“
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यह आज सच हो रहा है | हमारा जीवन कुछ पाने को नहीं; व्यर्थ खो जाने को है --- मृत्यु में समा जाने को | इससे आज मूल्य-विहीन समाज है -- तो कोई आश्चर्य नहीं | जीवन के मूल्य कैसे आयें | चरित्र को इससे अलग से नहीं पाया जा सकता - प्रभु - निष्ठा के साथ ही चरित्र के सारे मूल्य आ जाते हैं | इससे कैसे प्रभु तक पहुँचे -- इस पर पहुँचने की तीन सीढियाँ है | पूरा समूचा विज्ञान है, जो जीवन को बदलता है |
1) -- प्रभु की प्यास को जगाना : इसे योग की भाषा में कहें तो एक धारणा बनाना | एक उद्दात्त जीवन की महत्वाकांक्षा पैदा करना | नदी पहाड़ से निकलकर मैदानों तक आती है | पर यहीं विस्तार पूरा नहीं होता | समुद्र से मिलने तक विकास शेष रहता है | एक ही कल्पना और विचार सागर से मिलने का रहता है | एक दूसरी ओर तालाब है -- कुंठित और अपने में सीमित -- कोई उद्दात्त कल्पना नहीं | इससे समाज भी दो तरह के होते हैं : एक जीवित और महत्वाकांक्षा से भरा समाज -- कुछ करने का पागलपन और दूसरा मृत समाज -- महत्वाकांक्षाहीन | योग की
भाषा में कहें : धारणापूर्ण जीवन -- प्यास न हो तो कुछ नहीं पा सकते | शेख फरीद एक सूफ़ी संत हुआ : उसके जीवन में एक घटना आती है | एक समय -- एक व्यक्ति उससे मिलने आया | पूछा : प्रभु मिलन कैसे हो ? शेख फरीद उसे नदी-स्नान कराने ले गया | नहाते समय (पीछे से) ज़ोर की गर्दन पकड़ कर शेख फरीद ने दबा दी (पानी के अंदर) | वह व्यक्ति खूब छटपटाया -- पर शेख फरीद - छोड़ने को कहाँ | आख़िरी सीमा पर उसने छोड़ा | तो वह व्यक्ति कह उठा : तुम तो हत्यारे हो, शेख फरीद हंसा और कहा : मैं तो तुम्हारी बात का उत्तर दे रहा था | एक बात बताओ : जब तुम पानी में भीतर थे, तब कितनी इच्छाएँ थी | उसने कहा : पानी के भीतर और कितनी इच्छाएँ ? बस केवल एक इच्छा थी कि एक सांस हवा मिल जाय | शेख फरीद तपाक से बोला : बस एसी प्यास जीवन में जग जाय तो प्रभु-मिलन को कोई नहीं रोक सकता | उसके बिना -- जीवन अंधेरा, कोरा और तम से भरा हुआ है | साथ ही गीत की एक-एक पंक्ति -- अपने में अलग-अलग -- कोई महत्व की नहीं होती -- गीत में
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होकर ही -- उसका मूल्य होता है | हमारा जीवन भी अपने में अलग होकर कोई मूल्य का नहीं; प्रभु के विराट अंग में अपना स्थान बना लेने में है | इससे पहला चरण होगा - प्रभु आस्था का, भीतर अपने प्यास को जगाने का |
2) -- मन की एकाग्रता: आज कुछ भी एकाग्र नहीं है | हम यहाँ इतने लोग हैं -- पर सबका मन न मालूम कहाँ-कहाँ होगा | जीतने हम लोग हैं, इतनी ही जगह हमारा मन होगा | कुछ भी एक क्षण को रुका नहीं है | हमारा कुछ भी अधिकार नहीं है | सब कुछ पराया है | इतने विचारों और इच्छओं से भरा हैं कि एक क्षण को भी खाली नहीं है | जापान में एक साधु हुआ नानइन | इसके पास एक समय विश्वविद्यालय का प्रोफ़ेसर -- प्रभु-धर्म आदि के संबंध में जानने पहुँचा | साधु ने कहा : थोड़ी देर आप विश्राम करें -- थक जो गये हैं | बाद साधु ने कहा : इस बीच मैं आपकी थकान मिटाने के लिए चाय बना लाता हूँ और बहुत संभव है कि चाय पीने में ही उत्तर छुपा हो | नानइन चाय लाया, प्याली में ढालता गया, प्याली भर गई, पर वह चाय ढालता ही रहा |
इस पर प्रोफेससार ने कहा : रूकिए ! अब एक बूँद और चाय प्याली में नहीं समा सकेगी | इस पर साधु ने कहा : ठीक, तुम्हारे प्रश्न का उत्तर मिल गया | तुम भी विचारों से इतने भरे हुए हो -- कि कोई भी नया विचार अब उसमें प्रवेश नहीं कर सकता | तुम्हारे मन में कहाँ एक सदविचार रखने को (जगह) है | तुम्हारा मन भागता, दौड़ता रहता है | इस मन को खाली करना होगा -- तब प्रभु प्रकाश प्रवेश कर सकेगा | मन की चंचलता को रोकना होगा | तब फिर एकाग्र मान में प्रभु मिलन होगा | इस बात में सारी क्षुद्र वासनाएँ आपसे विसरजित हो रहेंगी | इससे मैं नहीं कहता : अच्छे नागरिक बनो -- मन को शांत कर लो -- बुराई अपने आप निकल जायगी | अच्छी नागरिकता स्वयं आयगी | आज तो हमारा हाल यह है : हम कहीं भी हों -- मंदिर में भी हों, तो मन एकाग्र नहीं होता | गुरुनानक के जीवन में एक घटना आती है | गुरुनानक के कुछ मुसलमान साथी कहते -- आपको तो संप्रदायों से कोई विरोध नहीं -- तो चलिए आप हमारे साथ नमाज़ पढ़िए | गुरुनानक ने कहा : मैं चलूँगा, लेकिन एक शर्त है कि आप नमाज़ पढ़ेंगे -- तो मैं पढ़ूंगा | उनके साथियों ने कहा ठीक है,
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हम तो पढ़ते ही हैं, इसमें क्या बात है | गुरुनानक साथ गये नमाज़ पढ़ने, पर खड़े रहे -- उनके साथी बड़े गुस्से में भर आए और सोचते यह कितना धोखा दे रहा है | नमाज़ ख़त्म होते ही वे उनसे नाराज़ हुये | गुरुनानक ने कहा : मैं तो नमाज़ पढ़ता, पर तुम कहाँ नमाज़ पढ़ रहे थे -- तुम तो मेरे प्रति क्रोध से भरे थे -- शर्त टूटी -- इससे में नमाज़ न पढ़ सका | इससे प्रार्थना में बैठ जाने की बात नहीं है -- क्षण भर को मन शांत और प्रभु के साथ कर लेने की बात है | एक क्षण भी शांत रहें -- तो अमृत मिलेगा | एक छोटा सा दिया जला लेने की बात है : अंधेरा दूर हो जायगा | इससे अपने को भूल जा सकें और पूर्ण शांत बने रह सकें | आज समाज में घरों से यह सब उपलब्धि दूर हो गई है -- इससे समाज अशांत दीख पड़ता है | एक समय अकबर शिकार खेलने वन में थे | संध्या घिर आई तो नमाज़ पढ़ने बैठ गये -- नमाज़ के पाबंद थे | एक युवती दूर से अपने प्रेमी से मिलने भागी चली आ रही थी | उसके पैर राजा पर पड़ गए, राजा को बड़ा क्रोध आया | सोचा -- एक तो प्रार्थना में दखल करना ठीक नहीं, फिर मैं तो राजा हूँ | लड़की लौटती
थी -- तो राजा बोल उठा : अशिष्ट तुझे यह पता भी नहीं कि एक राजा प्रार्थना में है और तूने मुझे पैर मारा | युवती बोली मैं तो अपने साधारण प्रेमी से मिलने जा रही थी -- मुझे पता नहीं है -- मैं तो अपने को भूल चुकी थी, पर आप तो सर्वोच्च प्रेमी से मिलने बैठे थे, लेकिन अपने को भूल न सके | इससे बैठना मात्र प्रार्थना के लिये औपचारिक होगा -- जब तक मन भी प्रार्थना में न बैठे -- तब तक प्रार्थना पूरी नहीं होती | इससे दूसरा चरण प्रभु-मिलन का है : एकाग्रता |
३) -- अंतस के सिंहासन को खाली करना : यह सामान्य बात है कि जब भी कोई अतिथि आता है, तो हम अपना सिंहासन उसे दे देते हैं | लेकिन प्रभु-मिलन के लिये : हम अपने सिंहासन पर स्वयं बैठे रहते हैं | अपने 'अहंकार' को बिठाए रखते हैं -- 'मैं' से भरे रहते हैं | इस 'मैं' से अपने को खाली करना है | जब तक यह भीतर बैठा है, प्रभु मिलन नहीं हो सकता | इस दुख से छुटकारा लेने की बात है | यूनान में एक मूर्तिकार हुआ : लोग कहते, वह सजीव मूर्ति गढ़ता था -- असली भी मूर्ति में आ जाता था | यह बात बिल्कुल झूठ ही हो -- लेकिन बहुत-बहुत अर्थ से भरी है | मूर्तिकार की
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मौत आई, उसने मौत को धोखा देने के लिए 11 ठीक अपने जैसी ही मूर्तियाँ बनाई और उनके बीच वह भी खड़ा हो गया | मौत हैरान थी -- ठीक एक जैसे 12 लोग हैं - किसे ले जाय | मौत अपने लोक वापस लौटी -- वहाँ से एक सूत्र लेकर आई | कमरे में आकर कहा : मूर्तियाँ - बहुत-बहुत सुंदर बनी हैं, एक छोटी सी भूल रह गई है | मूर्तिकार बोल उठा : कौन सी भूल | मौत ने कहा : बस यही भूल कि तुम अपने को नहीं भूल सके कि मूर्ति तुमने बनाई हैं | कहानी कहती है : मूर्तिकार अपने अहं को विसर्जित नहीं कर सका - ( यह कि वह सृश्टा है ) इससे वह दुख-पीड़ा और मृत्यु के पार न जा सका, उसकी मौत हुई | इससे केवल इस न कुछ को दूर कर सब कुछ को पाया जा सकता है | 10 जीवन में भी हम यदि इसे मिटा पाएं --- तो हमें बहुत कुछ मिल जायगा |
मैने आपसे प्रभु-मिलन की, इस उद्दात्त अवस्था को पाने की 3 बातें कहीं | पहली बात, प्रभु-मिलन की प्यास जगाना; दूसरी बात -- मन को एकाग्र करना और तीसरी बात, अपने स्वयं के सिंहासन को खाली करना | इसे योग की
भाषा में कहें तो धारणा, ध्यान और समाधि के तीन चरणों से व्यक्ति प्रभु के जीवन में स्थित होता है | और बाहर अपने आप सब कुछ बदल जाता है |
एक साधु के पास -- एक समय कुछ लोग आये -- पूछा - अंधेरा गहरा है -- कैसे दूर करें ? उसे खूब धक्के दिए, लेकिन नहीं निकला | साधु ने कहा : अंधेरे की सत्ता नकारात्मक है -- उसे धक्के देकर नहीं -- प्रकाश का दिया जलाकर दूर किया जा सकता है | इससे क्रोध, चोरी -- चाहे कितने भी दिन से अंधेरे को हमने बनाए रखे हों -- उनको प्रकाश से ही अलग किया जा सकता है | यह प्रकाश है : ईश्वर निष्ठा का | इसको भर पा लेने से : भलाई फिर सहज स्वाभाव बन जाती है | अंधेरे को इससे धक्के देकर नहीं -- दिये जलाने के विज्ञान से दूर किया जा सकता है | जड़ों को सींचकर ही -- फूल-पत्ते सब हरे-भरे हो जाते हैं | एक-एक क्षण को इससे व्यर्थ खोकर नहीं, उनका बहुत मूल्य है; उनका उपयोग करके ही ' हम ' उसे पा लेंगे | प्रभु ईसा कहते थे : ' हमारा प्रिय हमारे भीतर सोया पड़ा है |' इस प्रिय को एक-एक बहुमूल्य क्ष्ण का उपयोग
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करके -- उठाया जा सकता है |
मैं अपनी चर्चा को एक इटालियन मछुआ की कहानी - समय के विज्ञान के संबंध में कहकर - समाप्त करूँगा यह मछुआ - एक दिन सुबह जल्दी उठकर--- नदी -तट पर आया | भोर के तारे उपर थे, उसने नदी तट पर एक झोली पाई - उसे कंकड़-पत्थर की समझ वह नाव पर उसे रख - अपनी नाव पर बढ़ चला | सोचा नाव पर कि : खूब मछली लाकर खूब पैसा इकट्ठा करके - उस चट्टान के पास एक मकान बनाऊंगा और झोले से कई मुट्ठी भरकर - चट्टान पर वे कंकड़-पत्थर बरसाए कि इतना धन इकट्ठा करूँगा | और आगे बढ़ा सोचा फिर इतनी मुट्ठी भर-भर भिक्षा दूँगा - और कंकड़-पत्थर निकालकर फेंकने लगा | यों वह फेंकता गया | आख़िर में जब केवल एक कंकड़ रह गया- तो सुबह की किरणें फुट आईं थीं - देखा उसे तो खून सूख गया - वह कंकड़ नहीं - वह एक बड़ा हीरा था | खूब पश्चाताप किया - एक झोली भर व्यर्थ ही गवाँ दिए | इससे एक-एक क्षण को हम व्यर्थ भविष्य में जो अप्राप्त है - उसकी चाह में खो रहे हैं | और जो
वर्तमान में प्राप्त है - उसे नहीं के रहे | जब मृत्यु-क्षण होगा - तब समय के हीरे जा चुके होंगे - और दुख भर हाथ रहेगा | इससे प्रत्येक जाग के - यह बहुमूल्य अवसर मिला है, एक-एक क्षण हीरा है | हम सब उसका उपयोग करके - उस प्रभु-प्रकाश को पा लें -- तो सार्थकता होगी |
आपने मेरी चर्चा शांति के साथ सुनी -- एक लंबे समय तक - बहुत - बहुत धन्यवाद |
दिनांक : 26.04.61
नवीन विद्या भवन जबलपुर के 'शिक्षण-साप्ताह' में विद्यार्थियों के बीच दिया भाषण |
विषय : चरित्र - निर्माण के सोपान |
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मेरे मित्रों,
मैं आप सबके बीच आकर अनुग्रहित हूँ | पवित्र पूनम के दिवस अभी मैं रास्ते पर था - तो आनंद और सुख के बोध से भरा रहा | पूरे चाँद की रात खिल रही है, पूरा जगत अदभुत आनंद और सौंदर्य से भर उठा है | पर एक गहरी पीड़ा आज आदमी के मन को घेरे है, उसमें सौंदर्य और आनंद का लोप हो गया है | एसा लगता है, जैसे मनुष्य के मन के अंधेरे की फूटने की घड़ी आती ही नहीं | पूरे मानवीय इतिहास में बड़े-बड़े लोग हुए, जिनकी खोज मनुष्य को आनंद और शांति की राह बताना रहा है - दुखी होने की राह नहीं | और एक अजीब बात है कि आदमी- आनंद के केंद्र में दुखी होता रहता है | इससे मैं एक ही बात आपसे कहता हूँ कि - मनुष्य को दुखी होने का कोई अधिकार नहीं है | अपने हाथ वह दुखी बना रहता है | इससे कैसे आंतरिक शांति में आया जाय - इस पर मैं आपसे चर्चा करूँगा | आज 2,500 वर्ष के बाद भी बुद्ध के शांत
जीवन-दर्शन का इतने विरोध-मय, युद्ध और अशांति से पूर्ण वातावरण में उस युग से कहीं ज़्यादा महत्व बढ़ गया है, जब बुद्ध धरती पर थे | फ्रेडरिक नीत्से - पश्चिम का एक विचारक हुआ - उसके पास ही चर्च की घंटियाँ प्रभु ईसा के 2,000 वर्ष बाद सुनाई पड़ती - तो वह आश्चर्य से भर उठता कि एक यहूदी जिसे सूली दी गई, उसके नाम पर आज भी घंटियाँ बजाते, और उसे स्मरण कर - आदर-सम्मान देते हैं | पर, आज 2,500 वर्ष बाद बुद्ध का संदेश उतना ही पवित्र और इस युद्ध के युग में कीमती हो रहा है कि दुनियाँ के सामने केवल दो ही विकल्प हैं : युद्ध या बुद्ध | इन दो में से एक को आज चुनने का प्रश्न है |
आज की अपनी चर्चा को मैं - एक मज़ाक की कथा से प्रारंभ करता हूँ, जो बिल्कुल ही काल्पनिक है, लेकिन है - तथ्य पूर्ण | भगवान के दरबार में - सभी प्रमुख राष्ट्रों के प्रतिनिधियों की एक सभा आयोजित की गई | रूस के प्रतिनिधि को वर
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माँगने को कहा : तो उत्तर मिला, कि जमी से अमरीका का निशान मिट जाए - तो मुझे वर मिल गया समझिये | अमरीका के प्रतिनिधि ने वर में चाहा कि रूस की सत्ता विनष्ट हो जाए - तो मुझे वर मिल गया समझिये | ब्रिटेन ने चाहा कि भगवन् ! इन दोनों की मनोकामना पूरी हो जाए तो मेरी मनोकामना पूरी हुई समझिये | आज ये नक्शा दुनियाँ का हो गया है | इससे विचारणीय है कि बाहर कैसे मार्ग मिले | दुनियाँ से आत्मिक जीवन की उपलब्धि समाप्त हो गई है, परिणामतः व्यक्ति समाज और राष्ट्रों की चेतना में - अशांति व्याप्त है | व्यक्ति अशांत है - इससे जगत भी क्योंकि व्यक्ति से फैलकर जगत बनता है - और इससे समस्या व्यक्ति के शांत होने की है | इससे सर्वप्रथम हमें शांत हो आना है | एसी ही पीड़ा - परेशानी - अशांति और अज्ञान का अंधेरा - बुद्ध ने देखा और जाना | कहा जाता है : बुद्ध समाज और वस्तुओं को छोड़कर भाग गये - पलायानवादी हैं | पर, मैं तो कहता हूँ कि किसी के घर में आग लगी
हो - तो उसमें वह कैसे खड़ा रह सकता है | जापान के एक पागलख़ाने में आग लगी | नीचे की मंज़िल के लोग - बाहर आ गये - पर उपर की मंज़िल के लोग रुके रहे - गहरे पागल थे - चिल्ला रहे थे - बाहर निकले लोगों को - कायर हो - डर के कारण भाग रहे हो, भीतर ही रहो - मुकाबला करना चाहिए | इससे बुद्ध - महावीर - ईसा - सबको दिखा कि जगत लपटों से घिरा है - ये सब महापुरुष इससे शुद्ध, शांति और सौंदर्य को जानने गये | हमें इससे जानना चाहिए कि बाहर आने के क्या अर्थ है | यह बुद्ध की साधना को देखके जाना जा सकता है |
संसार के सारे भोग-साधन संपन्न व्यक्ति असंतुष्ट और प्यासे रह गये | गहरी अतृप्त इनकी इच्छाएं रहीं - असंतोष बाहर और भीतर उतना ही बना रहा - जब जीवन प्रारंभ किया था | क्षण भर को भी इनको भीतर की स्थायी शांति न मिल सकी |
राजा भर्तहरि के जीवन में एक घटना
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आती है | वे अपनी साधना में थे - धन -वैभव - विलास - सबको छोड़ा था | एक सांझ उन्होंने देखा कि सामने बड़ा हीरा पड़ा है | उठा लेने को मन हुआ | पर सोचा - हीरा अब भी आकर्षित करता है - इससे आँखें बंद कर लीं | इस बीच दो युवक वहाँ से निकले - कौन पहले हीरा उठाये - इस पर लड़ाई हो उठी - तलवारें चल निकलीं | दोनों का जीवन समाप्त हो गया - और हीरा वहीं पड़ा रह गया | इससे व्यर्थ में हमारे जीवन चले जाते हैं - और बहुमूल्य ज्ञान, हीरा सब कुछ यहीं पड़ा रह जाता है | मेरी जीवन-ज्योति बुझे - मैं चला जाउँ - इसके पूर्व जाग लेना है | बुद्ध सब कुछ छोड़के गये - लेकिन आनंद पाया | हम सोचेंगे तो कहेंगे - बुद्ध ने कष्टपूर्ण, त्याग का जीवन अपनाया | लेकिन बुद्ध की तरफ से सोचिए - आप तो उनने विराट को पाकर - क्षुद्र को छोड़ा था, मृत्यु की जगह - अमृत को पाया | इससे - बुद्ध और महावीर - त्यागी नहीं - त्यागी तो हम हैं - जो निकृष्ट को ही पकड़े रहते हैं - और अमृत को
नहीं पा पाते |
बुद्ध से कुछ भी छीना नहीं गया, अचानक छोड़कर चले गये | जागरूक लोगों के पास - और एक लंबा समय - तापश्चर्या में बिताया | लेकिन इससे शांति न मिली | बुद्ध एक क्रांतिकारी दृष्टा पुरुष थे | उनने एकदम नये मार्ग का सृजन किया | इसके पहले मार्ग थे - पर उसमें भोग को छोड़कर - त्याग को पकड़ लेना होता था | घर था तो अब घर हीनता को- त्याग को भी भोग जैसा - साधक पकड़ लेते थे | कामना-त्याग में भी बनी रहती थी - उसका विसर्जन उनसे न हो सका था | इससे भोग के विपरीत त्याग के साधक - प्रतिक्रिया के साधक थे | बुद्ध ने कहा कि : मार्ग - भोग और त्याग दोनों के छोड़ देने में है | मध्यम मार्ग - लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि चोरी और अचोरी के बीच का मार्ग - या सत्य और असत्य अथवा ब्रह्मचर्य और आब्रहमचर्य के बीच का मार्ग | इन दो के बीच का मार्ग कुछ चोरी - कुछ अचोरी, यह तो कोई मार्ग हुआ ही नहीं | इससे मार्ग दोनों के बीच का
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नहीं, इस और उस पार दोनों से मुक्ति का है | न तो भोग और न त्याग - न तो हिंसा और न अहिंसा - बहुत कांत द्रष्टा थे - बहगवान बुद्ध | एक काँटा हमें लगता है - तो दूसरे काँटे को भी चुभाया नहीं जा सकता | दूसरे काँटे को तो हम पहले काँटे के निकालने में उपयोग करते हैं | लेकिन - इस दूसरे काँटे को भी हम घाव में नहीं रखते - उसे भी निकालकर फेंक देना होता है | इससे बुद्ध का मार्ग कहता है कि ब्रह्मचर्य तो हो, लेकिन ब्रह्मचर्य को पकड़ मन में न बैठ रहे - इस पकड़ को भी निकल देना है | मनुष्य का स्वाभाव - दोनों से मुक्त | कुछ भी पकड़ रखने को नहीं | न तो राग और न विराग - वरन वीतराग का मार्ग बुद्ध का है | इस माध्यमिक प्रतिपदा की साधना से होकर बुद्ध गुज़रे | 6 वर्ष की लंबी शरीर की तपश्चर्या से बुद्ध का कोई वास्ता नहीं |
बुद्ध ने कहा : मन को दमन करके नहीं जीता जा सकता | इस सिद्धांत को आज के युग के सारे मनोवैज्ञानिक मानते हैं - और आज से २,500
वर्ष पूर्व एक कीमती सिद्धांत - बुद्ध ने दिया - इसको - उनकी दें मानते हैं | एक कहानी : पश्चिमी होटल की है | एक नया यात्री आया - होटल में ठहरने | होटल के मालिक ने कहा कि : उपर का कमरा खाली है, उसमें ठहरने को मिल सकता आयी - लेकिन नीचे जो यात्री ठहरे हैं - वे बहुत क्रोधी हैं - इससे कुछ भी शोर-गुल न हो तो आप ठहर सकते हैं | यात्री ने कहा : ठीक, मैं समझ गया | दिन भर की थकान के बाद - यात्री, रात वापिस लौटा | एक जूता उसने खोला - और भूल से वह ज़ोर से गिर गया, इससे दूसरा जूता उसने आहिस्ते से उतार कर रख दिया | और आराम से गहरी नींद सो रहा | बहुत रात गये - नीचे का यात्री - उपर आकर उस यात्री के दरवाजे पर आकर खटका देता है | किवाड़ खुले तो उसने कहा : माफ़ करिए - मैं दूसरे जूते की राह देखा रहा हूँ, कि उसका क्या हुआ ? कृपाकर आप उसे भी ज़ोर से पटक दीजिए | उसने बताया कि जितना मैं इस बात को धक्का देता कि मुझे इससे क्या ? पर दिमाग़ से बात न निकल पाती और मुझे करवटें बदलना
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पड़ीं | इस तरह बहुत से लोग हैं, जो दमन के मार्ग पर चलते हैं | चाहे तो आप इसे प्रयोग करके देख सकते हैं | मन में आप सोचिये कि आपको 'राम' का नाम या ध्यान के समय 'बंदर' का स्मरण न आए - तो आप पाएँगे कि जितनी ताक़त से आप इसे - इनकारी करेंगे - उसकी दुगनी ताक़त से वह याद आएगा | इससे अब्रह्मचर्य, असत्य - इनको दमन से नहीं - विसर्जन करके जीतना होगा | बुद्ध ने मन से विसर्जन करने के विज्ञान का मार्ग बताया | बिना इसके जीवन की कोई उपलब्धि नहीं है | भोग और त्याग के विसर्जन से बुद्ध को 'सम्यक-संबोधि' प्राप्त हुई | इसे ज्ञान, शील और समाधि की तीन सीढ़ियों में जाना जा सकता है |
आज हमारे युग में - चरित्र, आचरण, सत्य और न जाने क्या-क्या व्यक्ति को करना चाहिए - इस बात पर सारे उपदेशक ज़ोर देते हैं | यह सुनकर अजीब लगता है कि ज्ञान आज बहुत बढ़ा है, लेकिन चरित्र और आचरण हीनता भी उसी अनुपात
में बढ़ीं है | जबकि ठीक यह है कि ज्ञान हो तो --चरित्र और आचरण की पवित्रता आपने आप आ जाती है | दरख़्त के नीचे जड़ें होती है -- इससे फूल और पत्तों का मुरझाना जड़ों के उपर निर्भर होता है | आज जीवन की व्यवस्था सुखती चली जाती है -- इससे कोई चरित्र-सुधार आंदोलन उठाये -- जो कि आज उठाए जाते हैं -- तो यह जड़ों में पानी न देकर फूल और पत्तों की संभाल करना होगा | स्वाभाविक है कि जीवन-व्यवस्था यदि सुख चली है - तो कोई आश्चर्य नहीं है |
चीन में आज माओ त्से तुंग राष्ट्रपति हैं | जब वे छोटे थे - तो माँ ने एक बगिया लगा रखी थी | उन्हें पता नहीं था कि फूल और पत्ते कैसे विकास पाते हैं | एक समय माँ बीमार हुई - माओ त्से तुंग ने बगिया संभालने का काम अपने हाथ लिया | 15 दिन में बगिया को माँ ने स्वस्थ होकर पाया कि सब कुछ निष्प्राण था | पूछा अपने बच्चे से - तो उत्तर मिला - मैं तो फूलों और
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पत्तों को खूब नहलाता था - पर पता नहीं क्यों बगिया सूख गई ? तब माँ ने जो कहा : उसे माओ त्से तुंग जीवन की प्रत्येक समस्याओं पर उपयोग करते हैं | माँ ने कहा था : कि जो जड़ें दिखतीं नहीं - उन पर बगिया के फूल-पत्ते टीके हैं | जो उपलब्ध है - वह अनुपलब्ध पर - जो दिखता नहीं - उस पर टीका है | इससे ज्ञान मूल जड़ या आधार है | ज्ञानवान - चरित्रहीन नहीं हो सकता | किताब और शास्त्रीय ज्ञान से - ज्ञान नहीं या पूस्तकालय की हिफ़ाज़त करने वाले को ज्ञान नहीं आता | अपनी मेहनत से केवल, अपना देखा ज्ञान है | ज्ञान से शील अपने आप आता है और समाधि बाद की उपलब्धि है | एक के बाद एक का क्रमिक विकास है | यह विकास ज़बरदस्ती नहीं लाया जा सकता | जैसे कलियाँ - फूल - अनायास एक दिन खिल उठती हैं - वैसे ही ज्ञान में हो आने से उपलब्धियाँ - सरल और अपने आप आती हैं | ज्ञान में हो आने का बहुत सरल और आसान मार्ग है | व्यर्थ की कष्ट-शरीर साधना पर ज़ोर नहीं है | जीवन की दुश्चरित्रता
नकारात्मक है | अंधेरा भरा हुआ है - जिसकी भी सत्ता नकारात्मक है - इसे लाख गाँव के पहलवान निकालने का प्रयत्न करें - कितने ही धक्के दें - तो अंधेरा निकालने वाला नहीं है | अंधेरे की कोई सत्ता नहीं है -- केवल ज्ञान का एक छोटा सा दिया जला लें -- तो अंधेरे की सत्ता -- अपने आप समाप्त हो जायगी | यह अंधेरा चाहे एक रात का हो या हज़ार वर्ष का - प्रकाश को अंधेरे की लंबाई से कोई संबंध नहीं | इससे यह प्रश्न फ़िजूल है कि जन्म-जन्मान्तर में पापों की या अंधेरे की समाप्ति होगी ? तात्कालिक और एक क्षण में - मुक्ति बुद्ध के मार्ग से पाई जा सकती है | प्रकाश - तत्काल ही अंधेरे को समाप्त कर देता है | पश्चिम में सुकरात एक विचारक हुआ - कहता था वह - ज्ञान ही चरित्र है | ज्ञान तो हमें सबको उपलब्ध है - केवल उसे जानना है | मुझे यदि पता हो कि आग में हाथ डालने से - वह जलेगा - तो आग में हाथ कभी नहीं जायेगा | लेकिन आज पंडित के जीवन में भी पाप दिखता है - पर इसे
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कोई आश्चर्य की बात नहीं मानना चाहिए | बुद्ध ने ज्ञान को सूचनात्मक और दूसरा अनुभूति से उपलब्ध - इन दो श्रेणियों में रखा है | खुद के प्रयास और चेष्टा से उपलब्ध अनुभूति ही ज्ञान दे सकती है | किसी दूसरे का ज्ञान व्यर्थ है | इससे बुद्ध ने कहा : कि मैं किसी का शास्ता या गुरु नहीं हूँ | वे किसी के मार्ग-दृष्ता नहीं थे | अहंकार की बात है यह कि : ' मेरी शरण में आओ |' मैं पैगंबर हूँ, मैं ही अंतिम हूँ - जिससे तुम पा सकोगे - लेकिन आपको जानना है कि प्रत्येक को अपने भीतर - अपना प्रकाश स्वयं पाना है | इससे उस युग में जो 8 बड़े तीर्थंकर हुये - मक्खली गोशाल, अजीत केस-कंबल, आदि उनके द्वारा अपने को सदगुरु कहा जाना या शास्ता कहा जाना - केवल अहंकार है | कोई किसी का गुरु नहीं, अपना दीपक स्वयं बनाना होता है |
एक बड़े नगर में एक व्यक्ति की आँखें खराब हुईं - लोग उससे ठीक कराने को कहते | वह कहता मेरे 8 पुत्र, 8 बहुएँ और मेरी पत्नी की कुल मिलाकर
34 आँखें हैं - मेरी दो आँखें न भी हुईं तो कुछ फ़र्क नहीं पड़ता | घर में एक दिन आग लगी | सब लोग बाहर निकल भागे | जब घर जलता था - तो सबको अपने वृद्ध बिगड़ी आँख वाले पिता का स्मरण आया | लेकिन तब तक वह जल चुका था | इससे किसी बाहर की आँखों से - कुछ भी उपयोग नहीं हो सकता | अपनी ही आँखों का प्रकाश मुक्ति लाता है | बुद्ध ने इस तरह व्यक्ति की स्वतंत्र चेतना को ही स्थान दिया - इसके पूर्व इतना मुक्त शास्ता नहीं हुआ | अंतः का मार्ग कोई भी सामूहिक नहीं हो सकता - अपनी-अपनी स्वतंत्र चेतन-सत्ता को मार्ग स्वयं पाना होता है | अकेले के सिवाय और कोई मार्ग नहीं है |
अंत में बुद्ध ने कहा : कि कोई मोक्ष वग़ैरह मिलने को नहीं | अन्य मार्गों में कुछ संसार में छोड़के मोक्ष में कई गुना ज़्यादा मिलने की बात है | लेकिन मिलने की आशा में वह नहीं मिल सकता | कुछ सौदा वहाँ नहीं है, कुछ भी मिलने को नहीं है - बस-मात्र शून्य है | यही कारण है
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कि बौद्ध धर्म का भारत से लोप हुआ | कुछ न मिलने का - मिलने की जगह पीठ मोड़ लेने का - मात्र अकेले आदमी का अकेले अपने में रह जाना - यह अनासक्तका उपलब्धि का संदेश बुद्ध का है | मोक्ष पाने के लिए भी मोक्ष को छोड़ देना |
आज सारे विश्‍व में बौद्ध धर्म पुनरुज्जिवित हो रहा है - साथ ही भारत में - यह प्रसन्नता की बात है | लेकिन - बुद्ध ने कोई धर्म और संप्रदाय नहीं बनाया | इससे हमारे नगर के नव्य-बौद्ध - यह विचार सामने रखें कि भगवान बुद्ध को सांप्रदायिकता से मुक्त रखें | बुद्ध मुक्त व्यक्ति थे | किसी की भी उनके मार्ग पर बपौती नहीं -- यदि इस बात का ध्यान रखा - तो उनकी वाणी बहुत-बहुत अर्थकारी हो सकती है | उनका मार्ग हमारे लिए भी मार्ग बन जाय - ज्ञान से शील और फिर समाधि की विकास शृंखला में हम हो रहें - तो शांति और आनंद बहेगा | इससे मैं फिर आपसे कहता हूँ कि किसी भी व्यक्ति को दुखी होने का कोई अधिकार नहीं है |
आप सबने शांति से इतने समय तक - मेरी चर्चा सुनी - उसके लिए धन्यवाद |
बौद्ध पूर्णिमा - 30.04.61 को महावीर लायब्रेरी में दिया गया प्रवचन (जबलपुर)
भगवान बुद्ध की बौद्ध-पूर्णिमा के उपलक्ष्य में |
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माँ - अब मुझे अपना कुछ इकट्ठा नहीं करना है | वह तो क्रमशः धूलेगा - और एक क्षण आएगा - जब सब ज्ञान की रोशनी से - अपने आप विलीन हो जायेगा | पूज्य बड़े भैयाजी - जो कुछ विचारते - अनुभूतिगत ज्ञान पाते उसी को लिपि बद्द करने का मन है - इससे अपनी कम समझ से ही सही : जो कुछ भी दिन प्रतिदिन जीवन में भैयाजी से सुनने - समझने को मिलता है - उसे यहाँ बाँध रहा हूँ | इस आशा में कि कहीं कुछ प्रकाश किसी को भी मिल पाया - तो अपना मार्ग बना पाएगा |
Written as
fair
copy
A K Jain (signature)
13/11/61
दिनांक 6 मई 61.
सांझ फिर आई है | अपने सरलतम जीवन-क्रम के अनुसार आचार्य जी - भोजनोपरान्त - थोड़ा घूम -फिरकर - तख्त पर बैठे हैं | अपने अंतः प्रकाश में - बाहर का सौंदर्य उनको कैसा प्रतीत होता होगा - यह जानना कठिन है | श्री राम दुबे - आकर बैठ रहे हैं | इनको हमेशा कुछ न कुछ प्रश्न पूछने ही होते हैं - इससे बड़े हाव-भाव से संभाल कर प्रश्न पूछने की तैयारी में हैं |
घर की आपस की प्रेम मय और बहुत-बहुत शांत चर्चा प्रारंभ होती है | संगठन के संबंध में चर्चा शुरू हुई | आचार्य जी ने बिल्कुल सरल, शांत, गंभीर, विशाल और अनंत गहराई से कहना प्रारंभ किया |
संगठन - अधर्म है | कुछ शब्द होते हैं - जोश के, सांप्रदायिकता के, अहं के - उनको मात्र शब्दों में ही प्रयोग कर - संगठन कायम होते हैं | शब्दों के पीछे रहे अर्थों को खो दिया जाता है - और मात्र शब्द भर पकड़ लिए जाते हैं | जैसे 'राष्ट्र प्रेम के लिए संगठन' - अब इसके लिए जो एक संगठन बनेगा - स्पष्ट है कि वह किसी के विरोध में होगा | यह संगठन - दूसरों से घृणा और बुराई पैदा करवाएगा | अब यह संगठन - पाप नहीं तो और क्या है ? राष्ट्र-प्रेम का अर्थ 'अपने से प्रेम' बस केवल इसे मानकर और छोटे-छोटे से ख़यालों के नारे तैयार कर दुनियाँ के बड़े से बड़े संगठन कायम होते हैं |
संगठन के मूल में गहरा अहंकार काम करता है - अपने को बड़े दिखाने का | अपरोक्ष
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रूप से व्यक्ति अपने को बड़ा बना लेता है | जैसे कि मुझे यह सिद्ध करना हो कि मैं बड़ा आदमी हूँ तो मैं कह सकता हूँ कि ' मेरी संस्कृति महान है और मैं उस संस्कृति का मानने वाला हूँ |' अर्थात मैं महान हूँ | इस तरह संगठन के मूल में गहरा अहंकार बैठा होता है |
पेरिस में एक दर्शन-शास्त्र का प्रोफेसर अपने को दुनियाँ का सबसे बड़ा आदमी सिद्ध करने को अपने विद्यार्थियों को तर्क देता कि ' दुनियाँ का सबसे कीमती शहर पेरिस और पेरिस की सबसे मूल्यवान निधि - यूनिवर्सिटी - यूनिवर्सिटी में सबसे अच्छा विषय : दर्शन-शास्त्र और मैं सबसे अच्छा - दर्शन का प्रोफ़ेसर | ' इस तरह वह अपने को दुनियाँ का सबसे बड़ा आदमी बताता |
संगठन के मूल में भी अपरोक्ष रूप से अपने ' मैं ' को बड़े बताने का अहंकार छुपा है |
यह बात ज़रूर हैं कि संगठन बनाने वाले की बात सरलता से और जल्दी पकड़ में आती है - क्योंकि उसकी बातें मन की मूल-प्रवृतियों के साथ

मेल खाती हैं | पर जो संगठन पर या संप्रदाय पर ज़ोर नहीं देता - उसकी बातें - गहराई को लिए हुए और कठिन होती हैं - मन के साथ उनका मेल खाना नहीं होता | इससे भला और समझदार व्यक्ति - कभी संगठन नहीं बनाता | उसे ' गुरु ' बनने का अहं नहीं लेना होता | पर आज विश्‍व में ज़ोर-ज़ोर से ' गुरु ' बनने की बात दिखाई देती है |

फिर, एक बड़ी बात - संगठन - व्यक्ति को दरिद्र बना देता है | इससे मेरे से पूछा जाता : कि मैं अपने को ' जैन ' संप्रदाय का क्यों नहीं मानता तो मेरा उत्तर होता कि मैं क्यों छोटे से को अपनाकर दरिद्र बनूँ | जितने मेरे महावीर अपने हैं - उतने ही बुद्ध और ईसा | मेरे पीछे मुझे इतनी विश्‍व की समृद्ध निधि मिली है - वह सब मेरी है | इससे सब कुछ मेरा है -- कुछ मुझसे अलग होकर कहाँ है | हाँ - यह बात दूसरी है कि कुछ अच्छा होगा कुछ बुरा - पर होगा तो अपना ही | इससे संगठन करने वालों और उसमें सम्मिलित होने वालों
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दोनों पर मुझे दया आती है | इनको जैसे कहा जा रहा है कि मैं तुम्हें 1 करोड़ की निधि देता हूँ लेकिन ये तो केवल 1 हज़ार की ही निधि लेने चलते हैं - इससे गहरी दया के पात्र और कौन हो सकते हैं |
आज के युग का ख़तरा बढ़ा है कि व्यक्ति तो भीतर से विघटित हो गया है - लेकिन समाज संघटित हो गया | गाँधीजी ने समाज के विकेंद्रित होने की बात अपनाई लेकिन और गहराई पर जाने पर व्यक्ति तो केंद्रित हो - लेकिन समाज विकेंद्रित | इससे आने वाला धर्म - व्यक्ति - केंद्रित होगा | एक बेहतर और सुखी समाज का निर्माण इससे सुलभ और स्वाभाविक होगा |
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Jain Jagat
Oct 61
दूसरी चर्चा का भाग था : चीज़ों को देखने के संबंध में |
व्यक्ति को हमेशा बाह्य वस्तुएँ - वैसी ही दिखती हैं - जैसा वह स्वयं होता है | उसकी दृष्टि Subjective होती है | एक गहरा पर्दा -
मन की इच्छाओं और वासनाओं का संयुक्त रहता है | जे. कृष्णामूर्ति पश्चिम के मुल्कों में थे | छोटी उम्र थी - विचार बहुत गहराई लिए हुये होते | नव-युवतियाँ भी उन्हें सुनने आया करतीं | इस पर एक बड़े मनोवैज्ञानिक ने उनसे कहा : अभी उम्र छोटी है - बाद की उम्र में ये विचार कहना होते हैं - संभव है कामिनी अभी बाधा उपस्थित करें | कृष्णामूर्ति हँसे - उनने कहा - कि आपकी उम्र तो 68 वर्ष की है - लेकिन क्या आपकी कामना - समाप्त हुई ? उत्तर में - न मिला तो कृष्णामूर्ति ने कहा - उम्र से कोई वास्ता नहीं है - मन में यदि काम है - तो नव-युवती को कामिनी होना ही होता है |
श्री लालजी राम शुक्ल - भारत के बड़े मनोवैज्ञानिक हैं | गाँधीजी से मिले - देखा कि गाँधीजी - लड़कियों के कंधे पर हाथ रखे हैं | कहा - कि गाँधीजी अपनी अपरोक्ष वासना की पूर्ति करते हैं | बात स्पष्ट है कि - शुक्ल जी को - कंधा मात्र बस कंधा हो सकता है - यह ख्याल ही नहीं आ सकता | लड़के और लड़की का
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भेद - शुक्ल जी का बना हुआ है | इससे उन्हें वासना का दिखना स्वाभाविक था | हर व्यक्ति बस मात्र - जैसा वह दर्पण लिए होता है - उसमें उसे वैसा दिखता है - यही स्वाभाविक भी है |
लेकिन - वस्तुएँ जैसे हैं - केवल वैसी दिख आना - अपना बोध और प्रतीति का बीच में न आना - यह Objective दृष्टि होती है | जैसे में बगीचे में आया हूँ - तो कोई फूल सुंदर हो उठे कोई कम सुंदर -- या असुंदर, इस तरह अपने बोध को लगाना नहीं -- बस मात्र मैं फूलों को देखता हूँ -- और कुछ नहीं करता -- तो जैसे वे है - दीख आयेंगे -- इस दिखने की अनुभूति ही - जीवन को मुक्ति देती है | तथ्य मात्र भर दिख आते हैं - उसके अतिरिक्त और कुछ नहीं |
आज के पुनीत दिवस पर आकर मैं आनंदित हूँ |
गुरुदेव का 100 वर्ष का ऋण - आज की हमारी अंधेरी सदी में जब जीवन के सारे श्रेष्ठ मूल्य खो गये हैं, बहुत-बहुत कीमत का हो उठा है | पिछली सारी संचित निधि को हमारा युग-विसर्जित कर चुका है | पश्चिम में जो जीवन-विकास हुआ -- उससे केवल 2 महायुद्ध लड़े गये और जीवन आज मौत की कगारों पर खड़ा है | जीवन से अर्थ खो गये हैं | आत्म-हत्याएँ बढ़ चली हैं और बड़े विचारकों में - स्टीविन्स ज्यूंग, पावले आदि ने अभी आत्म-हत्याएँ कीं | स्पष्ट है कि जीवन से प्रेम का लोप हो गया है - और जीना भी मौत से सुखकर नहीं है | एसे अंधेरे की सदी में - रवीन्द्रनाथ जन्में - जिसमें कि जीवन की मूल प्रेरणा विलीन हो चुकी थी | इससे रवींद्रनाथ की संपूर्ण साहित्य-साधना -- जगत को या समष्टि को व्यक्ति में समाहित कर - एक केंद्रीय सार्थकता को जीवन में जगाना रहा है |
वोल्टेयर एक बड़ा विचारक हुआ | उसने
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घोषणा की कि - ' ईश्वर मरणासन्न है| ' बाद नीत्से ने कहा : ' God is now dead. ’ इस तरह की घोषणाएँ इसके पूर्व कभी किसी ने नहीं कीं | ईश्वर तो पूरे जीवन की सार्थकता है | जीवन होगा तो ईश्वर मीं होकर ही होगा | रवींद्रनाथ ने ईश्वर-आस्था को पुनः स्थापित किया | ईश्वर पर समर्पण करने का विज्ञान दिया | व्यक्ति को समष्टि के साथ संयुक्त किया | इससे निरंतर एक-एक कदम कवि के साथ रखने पर ही उनके काव्य को जाना जा सकता है | रवींद्रनाथ कोरे कवि नहीं थे - काव्य तो बाहर था पर भीतर उपलब्धियाँ थीं | भीतर की उपलब्धियों से बाहर के जीवन में सजीवता व्यक्त हुई | कुछ भीतर उपलब्ध हुआ था, जो बहुत-बहुत महान था | पर, रवींद्रनाथ कहते : प्रभु लोग कहते हैं मैं गीत गाता हूँ, लेकिन मेरा तो सारा जीवन साज़ सजाने में ही बीत गया - गीत तो निकल ही नहीं पाये | स्पष्ट है कि अनुभूति को पूरे शब्दों में नहीं या अंतः को दूसरों तक मात्र शब्दों से नहीं पहुँचाया जा सकता |
रवींद्रनाथ ने जो छुआ वह काव्य में बह निकला | क्या जीवन साधना थी - इस पर में आपसे चर्चा करना पसंद करूँगा --
(1) -- मनुष्य को समष्टि से संयुक्त होना है | रवींद्रनाथ कहते : एक गीत की पंक्ति - गीत से अलग होकर अपने में निर्मुल्य है - संयुक्त होकर ही वह गीत में अर्थकारी हो पाती है | मनुष्य भी अकेला - अलग - उस टूटी ही पंक्ति के समान है - जिसमें व्यक्ति का अपना स्थान विराट में या प्रभु में नहीं हो पाता | इससे संयुक्त होकर - अपना स्थान प्रभु के साथ बना लेना मानव-जीवन की सर्थकता है | आज सारे व्यक्ति अलग-अलग टूटे खड़े हैं - व्यक्तिगत अहँता बढ़ी है - इससे मूलतः व्यक्तिगत अहँता को विसर्जित कर; अपने को समष्टि से जोड़ना ही - रवींद्रनाथ की एकमात्र जीवन-साधना रही है | बूँद सागर में विसर्जित होकर जैसे सब पा लेती है, वैसे ही हम क्षुद्र सी अहँता को विसर्जित कर ' उसे ' पा सकते हैं | रवींद्रनाथ ने कहा : हमें दुखी होने
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का कोई अधिकार नहीं | अपने व्यक्तिगत अहंकार को विसर्जित कर - सागर में मिल जाने पर - अनंत की, आनंद की या सौंदर्य की उपलब्धि होती है |
रवीन्द्रनाथ अपनी शांति-निकेतन की कुटिया पर सांझ चाय का सारे अध्यापकों के साथ- आयोजन करते | एक सांझ जब आयोजन हुआ - तो गुरु दयाल मलिक भी उपस्थित थे | - चाँद निकल आया था - आकाश में बादल थे | गुरुदेव - चाय बनाकर लाए और प्यालियों में डाल ही रहे थे कि उनके हाथ कँपने लगे, धीरे-धीरे आँखें बंद हो गईं और गुरुदेव दूसरे लोक में पहुँच गये | सारे अध्यापक उठ कर चले आए | मलिक बाहर कुटिया के पास ही रहे | मलिक ने लिखा कि करीब आध घंटे तक गुरुदेव बेहोश रहे और गीत उनसे बह निकला | बाद आँखें खुली - तो पाया बीच के समय हम सब उनके लिए मिट गये थे | पुनः सब वापिस बुलाए गये - चाय पी - बाद गीत को रवींद्रनाथ ने लिखा | इस तारह उनके गीत अपने नहीं थे - उपनिषद्
के ऋषियों के समान अपोरुषेय थे | इससे जब हमारा व्यक्ति विसर्जित होता है - तब अपोरुषेय वाणी आती है | रवींद्रनाथ को मैं उपनिषद् युग का ज़्यादा और हमारे युग का कम पाता हूँ | ' मैं ' के विसर्जन से - विश्व-कवि में दिव्यता का अवतरण हुआ | आज जीवन का सारा दुख, तनाव एक ही बात से है - वह है ' मैं ' की ग्रंथि में आदमी का गहरे बँधे होना | व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और जगत का सारा दुख - ' मैं ' से बँधा है | ' मैं ' के विसर्जन से - जो संगीत सबमें व्याप्त है, वह काव्य में फूट आता है |
रवींद्रनाथ ने एक जगह लिखा : एक रात मैं अपने गाँव पर था | नदी में बाज़ारे पर आवास था | रत देर तक मोमबत्ती के टिमटिमाते प्रकाश में पढ़ता रहा -- नींद आने को थी, मोमबत्ती को बुझाया था कि रंध्र-रंध्र से बाहर फैली असीम चाँदनी - पूरे स्थान में भर उठी | जीवन में अनायास एक सत्य दिखा कि छोटे से प्रकाश ने अनंत आनंददायी - सौन्दर्यमय प्रकाश को रोक रखा था | हमारे
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भी क्षुद्र अहं ने प्रभु और प्रभु के राज्य से हमें वंचित रखा है | पूरी भारतीय इतिहास की संस्कृति ने पुराने 5,000 वर्षों में अपने ' अहं ' को विसर्जित किया है - इसके विपरीत पश्चिम इसे जोड़ने में लगा रहा | रवींद्रनाथ ने भी भारत में और सारी दुनियाँ में इस ' प्रभु-चेतना ' को पुनरुज्जिवित किया |
प्रभु के चरणों की प्रतीति उन्हें हर समय और हर जगह होती थी | एक जगह उनने लिखा कि : पहले मैं घर में आए मेहमानों के प्रति घृणा से भरा रहता और एसा लगता कि व्यर्थ खाने-पीने मात्र ये लोग पड़े रहते हैं | एक सुबह मैं सागर-तट पर घूमने गया | सूरज उगते ही लहर-लहर पर और सारे जगत में प्रकाश की किरणें प्रकाशित हो उठीं | मुझे लगा कि सूरज तो एक है, लेकिन उसका प्रकाश सब ओर व्याप्त है | पहली बार उन्हें इस घटना से सबमें प्रभु के प्रकाश का बोध हुआ | घर वापिस लौटे | सारे मेहमानों से आँसू में डूबकर गले मिले, आस-पड़ोस के परिचितों से मिले, जब कोई मिलने को न रहा तो वृक्षों से
लिपटकर और प्रभु के साथ अपने को एक कर लिया | तीन दिन तक बेहोंश रहे, और तीन दिनों में एक ही सबके भीतर अनुभव किया | रवींद्रनाथ अब नये आदमी हो गये | बाद की सारी उपअब्धियाँ इसी केंद्र से प्रकाशित हुईं |
गुरुदेव ने कहा कि पश्चिम संसारिकता से और पूरब सन्यास की अति से पीड़ित है | जगत का उनने विरोध नहीं किया | जगत के माध्यम से प्रभु को पाने का मार्ग रखा और जगत को प्रभु की लीला मानकर - इस सीमा के भीतर ही असीम के आनंद को जाना | समग्र साहित्य में भीतर की विराट सत्ता का आभास है — क्षुद्र और तुच्छ को एक ओर विसर्जित कर दिया है |
उनने जीवन के प्रति वीक्षण याने मात्र देखने की क्रिया से अणुवीक्षण याने गहरे देखने की क्रिया को अपनाया | फूल को एक वनस्पति-शास्त्री देखेगा तो कहेगा - रंग, आकृति के हिसाब से फूल कैसा है पर गहरे देखने
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पर जो अनदेखा-भीतर का है - वह दिख आता है |
मास्को में गुरुदेव के चित्रों का प्रदर्शन हुआ | लोगों ने चित्रों का विश्लेषण जानना चाहा | तब रवींद्रनाथ ने कहा विश्लेषण से सौंदर्य-बोध नहीं होगा | ( पिकासो नाम का एक अमेरिकी धनपति अपना चित्र एक कलाकार से बनवाना चाहा | मूल्य जो भी वह माँगेगा - यह कहकर - उसने सितरकार को धनपति ने चित्रकार को चित्र बनाने को कहा | — crossed)
एक घटना से यह बात स्पष्ट होगी | एक अमेरिकी धनपति ने पिकासो नामक चित्रकार से अपना चित्र बनाने को कहा | धनपति ने कहा कि जितना भी मूल्य पिकासो माँगेगा, वह देगा | 2 वर्ष के बाद चित्र तैयार हुआ | पिकासो ने 5 हज़ार डालर मूल्य माँगा | धनपति ने कहा : एसा इस चित्र में है ही क्या ? थोड़ा सा रंग और कागज के सिवाय और कुछ नहीं | इस पर पिकासो ने सहायक से कहा कि इन्हें
थोड़ा रंग और कागज दे दें और बेहतर हो कि ये अपना चित्र स्वयं बना लें | स्पष्ट है कि चित्र, रंग और कागज पर समाप्त नहीं होता, कुछ और है जो रंग और कागज से प्रगट होता है | समग्र जगत को गहरा देखना हम प्रारंभ करें तो प्रभु के इशारों को हम जान पायेंगे |
अनंत-अनंत युग से प्रभु की मुझसे मिलन की चेष्टा रही है | हम ही दूर प्रभु से अपने को बनाए हुए हैं, जबकि प्रभु निरंतर उपलब्ध है | अनंत-अनंत आयामों से वह आने को इच्छुक है | हम ही अपने को देने में दरिद्र हैं | रवींद्रनाथ ने एक गीत लिखा है | एक दिवस मैं झोली लिए भिक्षा माँगने निकाला | दूर - प्रभु का रथ धूल उड़ाता आ रहा है | मैं खुश था कि आज सब कुछ प्रभु से माँग लूँगा | रथ समीप आकर रुका; मैं अचरज में भरा - देखता रह गया कि प्रभु ने मेरे सामने हाथ फैला दिया है | झोली में खोजने पर एक दाना अनाज का मिला, उसे दिया |
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रथ आगे बढ़ गया | एक अजीब सा उपहास करते हुये | सांझ घर लौटा, झोली पलटी तो उसमें एक दाना सोने का था - देखकर रोया कि क्यों न मैने सब दे डाला - इतना कृपण निकाला मैं - कि केवल एक दाना भर दे पाया | इससे जितना मैं दे डालता हूँ, उतना ही प्रभु मेरे में आता है | अवसर बीत गया -- तो फिर पश्चाताप भर रह जाता है |
हम जितना अपने को दे पाते हैं, उतना उपलब्ध होता है | अपने को पूरे अर्थों में दे डालना - प्रभु को पा लेना है | जितना हम अपने को रोक रखेंगे - कृपण और कंजूस रहेंगे - प्रभु-प्रकाश न मिलेगा | एक-एक शब्द में रवींद्रनाथ ने देने की क्षमता - अपने अहंकार को विसर्जन की साधना से संयुक्त किया है | 70 वर्ष की उम्र में भी उनके गीतों और चित्रों में 5 वर्ष के बालक सी सरलता है | कुछ भी जीवन का भारीपन उनमें न आ सका | ईसा कहते थे कि मेरे प्रभु-राज्य का उत्तराधिकारी वह होगा जो इन बालकों की तरह
सरल हो आये | उनके सारे गीत सहजता में भरे हैं | बहुत-बहुत अर्थ इससे उनके गीतों में खोजना व्यर्थ है | गीत में भी उपादेयता-व्यर्थ है | फूल में सुगंध है - बस इसे जानना होता है - क्या सुगंध को भी समझिएगा -- तो फूल को जानना न हो सकेगा | आज हम काव्य को भी गणित के सम-तुल्य स्मझने में -- आनंद का बोध करते हैं | इससे एक व्यर्थ की परेशानी और भार बढ़ता है -- गीत तो बस गीत हैं | गीत में भी बस गंध होती है -- कुछ और उनमें खोजना व्यर्थ है | उपादेयता उनमें नहीं होती | आनंद का, एक खेल का और लीला का बोध उनमें छिपा होता है | जो गीत रवींद्रनाथ ने गाये, वे परिपूर्ण आनंद में होकर -- बच्चों के मन जैसे आनंद में डूबकर गाये | भीतर आनंद था तो बाहर संगीत निकला | भीतर कुछ न हो तो संगीत भी बेसुरा होता है |
रवींद्रनाथ ने जीवन-साधना में बौद्धिक और अध्ययन की व्यर्थता को समग्र रूपेण
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देखा -- और भीतरी अनुभूति में काव्य को जाना | बावल (बंगाल के घुमक्कड़ संत, लालन फकीर के अनुयायी) कवि कहते हैं कि : प्रेम के संश्लेषण से ' उसे ' पाया जा सकता है | एक समय एक वैष्णव पंडित - बावल कवि से मिलने आया | वैष्णव पंडित ने पूछा प्रेम कितने प्रकार का ? बावल कवि हैरान था --- कि प्रेम में भी और प्रकार | मैं इससे प्रकारों को तो नहीं जानता पर प्रेम को भर जानता हूँ | इस पर वैष्णव ने 5 प्रकार प्रेम के गिनाए - बाद बावल कवि ने जो कहा वह दिल पर खोद लेने योग्य है | कहा था, बावल कवि ने -- कि मुझे ऐसा लगा कि कोई सुनार अपने सोने कसने की कसनी को लेकर, फूलों की बगिया में -- फूलों को कसने आया हो | इससे सोने कसने के पत्थर से बगिया के फूलों को तो नहीं कसा जा सकता | बुद्धि से भी -- इससे गीतों को नहीं जाना जा सकता | रवींद्रनाथ की हमारी पूरी सदी ऋणी है, और उनके गीत हमारे जीवन् में आनंद और सौंदर्य बोध से भर सकें -- इस कामना के साथ सावन के वे बरसे बदल जैसे झुक आते हैं - वैसे ही
मैं ' गुरुदेव ' के चरणों में शीश झुकाता हूँ |
आगे आने वाली सदी में उनका ऋण बढ़ता जायगा -- ज्यों-ज्यों हम उनके गीतों को समझते जायेंगे |
आप सबने इतनी देर - शांति से मेरी चर्चा सुनी - उसके लिए धन्यवाद |
दिनांक : 7:5:61 को एवं 8:5:61 को विश्वविद्यालय और देबेंद्र बंगाली क्लब में (जी. सी. एफ.) आयोजित रवींद्र शताब्दी समारोह में दिया गया - भाषण |
विषय : रवींद्रनाथ की जीवन-साधना
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9 मई सन 1961 ............
सांझ की पुनीत-पावन बेला | सब अपने में खोया और स्तब्ध | पक्षी भी अपने-अपने नीड़ो में वापिस हो गये | तारे दूर-दूर तक निकल आए हैं | शाम एक नव-उल्हास से घिर आई है | प्रकृति ने एक ओर से अपने पंख समेटकर - दूसरी ओर मुखरित किए हैं | श्री राम मिश्रा आ कर -- आचार्य जी की चरण-छाया में बैठे है | घर के सारे लोग और कुछ नव-आगंतुक भी बीच-बीच में आकर बैठते रहे और चर्चा में रसलीन हुए | संप्रदायों पर चर्च शुरू हुई |
संप्रदाय व्यक्ति को बाँधते - धर्म से दूर करते - और अपने को जानने के रास्ते से बहुत दूर ले जाते है | कहें हम कि संप्रदाय - धर्म-विरोधी है | पाप के सच्चे प्रतिनिधि | क्योंकि धर्म को संप्रदाय में बांधना -- धर्म की हत्या करना है | अंतः जगत के मार्ग व्यक्ति अकेले पर निर्भर होते हैं -- कोई भी मार्ग सामूहिक मुक्ति का मार्ग नहीं बन सकेगा यह --- असंभव है | व्यक्ति जैसे ही अपने में खड़ा होता - वह
समूह से एकदम प्रथक हो जाता है | उसका अपना स्वतः का धर्म अब बन जाता है | उसे ' निर्जन ' ही ' अकेले ' ही चलना होता है | हम सारे लोग यहाँ बैठे हैं, लेकिन यदि हम प्रार्थना प्रारंभ करते हैं - तो एकदम प्रत्येक को अपने में अकेले होकर - ' निर्जन' होकर प्रार्थना करनी होगी | इस तरह हम सोचें - तो प्रत्येक व्यक्ति हर क्षण अपने में अकेला या निर्जन खड़ा है | इतनी आस्था मन में आ जाय तो संसार की भीड़ में भी रहकर व्यक्ति अलग बना रह सकता है - या फिर इस आस्था को लाने के लिए - एकांत में भी जाया जा सकता है | समूह में बँधकर चलना - अपनी हत्या करना है | समूह का कोई धर्म हो - यह असंभव है | प्रत्येक इकाई अपने में स्वतंत्र और अलग खड़ी है | इससे मूलतः प्रत्येक व्यक्ति अपने धर्म में खड़ा होकर मुक्ति पाता है |
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रात्रि ने अपने गहरे अंधकार को दूर -
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दूर तक फैला रखा है | दूर कुछ अंधकार की गंभीरता बढ़ाने - कीड़ों आदि का स्वर सुनाई दे रहा ही | श्री देवकीनंदन जी सपत्नीक - आचार्य जी के पास आकर बैठ रहे हैं | साधारणतः प्रासंगवश मंदिरों की उपयोगिता पर थोड़ी चर्चा हुई |
साधारणतः आज का नवयुवक मंदिर जाना पसंद नहीं करता | इसके मूल में एक कारण है कि व्यक्ति वहीं जाना पसंद करता है - जहाँ उसे कुछ आकर्षण होता है | मंदिरों को आज हम आकर्षण विहीन पाते हैं | मेरे विचार में - एक विशाल दृष्टिकोण को जन-हृदयों में स्थान मिल सके -- इसके लिए -- सारे धर्मों का साहित्य मंदिरों में -- रखा जाय | पठन-पाठन की सुविधाएँ उपलब्ध हों और गहरे विचार-दर्शन की परंपराएँ पुनरुज्जिवित हों |
फिर, एक थियेटर भी मंदिर में हो जिसमें विशेष प्रकार की फिल्में - भाषण के साथ दिखाई जावें | फिल्मों का सदुपयोग इससे अच्छा और कुछ भी नहीं हो सकता कि वे गहरा प्रभाव
जनमानस पर सुसंस्कारों का अंकित करें |
धीरे-धीरे इससे एक आकर्षण समाज में पैदा होगा - और बाद फिर यह सब जीवन का एक अंग बन जावेगा | इसकी ज़रूरत जीवन में महसूस होने लगेगी | एक बड़ा समाज इससे लाभान्वित होगा |
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मैं बहुत आनंदित हूँ - कविन्द्र रवीन्द्र के शताब्दी समारोह में आकर | रवींद्रनाथ 100 वर्ष पूर्व जन्मे - और भारत तथा सारे विश्‍व में - एक स्थायी ऋण छोड़ गये हैं - अब बहुत मुश्किल है - एसे व्यक्तित्व का अपने देश में जन्म लेना | गाँधीजी ने उनकी 80 वीं वर्षगाँठ पर कहा था - आप 4 बी.सी. जी लिए भगवान करे - 5 वीं बी.सी. भी जी लें | रवींद्रनाथ ने कहा था उत्तर में - अब 5 वीं बी.सी. जीने की इच्छा नहीं है - बहुत दुख उठा चुका हूँ | गाँधी जी की इच्छा थी - ५ बी.सी. के आगे भी जीने की पर हमने उन्हें 4 बी.सी. के पूर्व ही संसार से उठा दिया | हमने अपनी संस्कृति के 100 वर्ष में आज दोनों महान व्यक्तियों को खो दिया | अमित छाप इन महापुरुषों की हमारी संस्कृति पर है | पर रवींद्रानाथ का ऋण गाँधीजी से ज़्यादा समय तक रहने वाला है | यह मैं बहुत साहस से कह रहा हूँ | क्योंकि गाँधीजी साधक की तरह जिए पर रवींद्रनाथ जन्म से सिद्ध थे | प्रभु उन्हें सदा उपलब्ध था और उनके काव्य में ईश्वरीय छाप है | किसी दूसरे व्यक्तित्व में रवींद्रनाथ
जैसी उपलब्धि नहीं दिखती | रवींद्रनाथ का योग एक एसे युग में था जबकि सारी आस्थाएँ और जीवन के मूल्य विनष्ट हो चुके थे | सार्त्र एक पश्चिमी विचारक ने कहा था : ' हम नरक में जी रहे हैं, हमारे चारों ओर नरक है | ' जीवन बस दुख ही दुख है | घने दुख और पीड़ा के बीच भी रवींद्रनाथ ने आनंद, सौंदर्य के गीत गाए और अपने हाथ से वीना के स्वरों से गीत निकाले और एक अखंड आनंद को पाया | उनके काव्य, नाटक और चित्रों में सारे जगत का आनंद बोध समाया है | जीवन से दुख-निरोध का मार्ग अपनाया और आनंद को पाया | रवींद्रनाथ ने ईश्वरीय आस्था को - धर्म को पुनः मानवीय जीवन में स्थापित किया और दुख के विसर्जन से - आनंद और शांति का प्रकाश जगत को दिया | उन्होंने व्यक्ति को समष्टिगत या ईश्वरीय चेतना के साथ एक किया | बचपन से ही पूरी प्रतीति उनको ईश्वर की थी -- उनकी गुनगुनहट में ईश्वर की आंतरिक चेतना पर सब कुछ समर्पण का भाव है | गीतांजलि में उनके
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एक-एक गीत से यह भाव आपको उभरता दिखेगा | एक-एक गीत ईश्वरानुभूति से पूर्ण है | पश्चिम उनके गीतों पर पागल हो उठा | उनके गीतों को पढ़कर - प्राचीन ऋषियों का स्मरण हो आता है और सत्य-साक्षात की गहरी अनुभूतियाँ उनके गीतों से प्रगट होती हैं | रवींद्रनाथ - सामान्य कवि की कोटि में नहीं आते, वरन वे भारत के 3,000 वर्ष पूर्व के उपनिषद् के ऋषियों के साथ अपना स्थान रखते हैं | उनके गीतों में वैसा ही सौंदर्य, आनंद, गरिमा और अनुपात है | ममहाकाव्य उनके जीवन में था - इससे बाहर भी सुंदर फूटा | भीतर यदि सुंदर हो तो बाहर तो मात्र उसकी अभिव्यक्ति है | आज तो पूरी सदी की आत्मा टेडी-मेडी हो गई है | हमारी स्थिति एक ध्वंस वीणा के समान है - इससे हमारा जीवन दुख से भरा है | रवींद्रनाथ के जीवन में कैसे यह सब आया - इस पर मैं चर्चा आपसे करना पसंद करूँगा ताकि हमारे खुद के जीवन में भी कुछ उतर सके :-
रवींद्रनाथ ने लिखा - मेरे बचपन और युवा के जीवन में एक तरह की दीवारें थीं | मैं हमेशा अलग
बना रहता था | हमेशा उपेक्षा और घृणा से भरा रहता | जलता रहता था | मेरा बड़ा परिवार था - करीब 100 सदस्य थे | 10-25 मेहमान हमेशा बने रहते थे | मैं उनके प्रति क्रोध से भरा रहता और कभी उनकी तरफ आँख उठाकर भी न देखता - सोचता उठाईगिरी की तरह व्यर्थ पड़े रहते हैं | लेकिन यह सब एक दिन विसर्जित हुआ - और नये रवींद्र का जन्म हुआ | एक सुबह उठकर रवीन्द्र - सागर-तट पर गये - सूरज उठने लगा और सागर की अनंत-अनंत लहरों पर प्रतिबिंब बनने लगा - मेरे भीतर कुछ टूटने लगा | सूरज तो एक ही है - और उसका साफ तथा गंदे पानी में भी बिम्ब तो एक सा ही बनता है | लगा उन्हें - चाहे कोई कैसा भी हो वही एक अनंत प्रभु सबमें व्याप्त है | सबमें वही समाया है - और आत्मा अपने स्वाभाव में शुद्ध है | उनकी दृष्टि बदल गई | सब कुछ एकदम सुंदर हो आया | और लोगों ने संस्मरण लिखे कि हम सब हैरान थे - आख़िर क्या हुआ ? रवींद्रनाथ 3 दिन तक बेहोश रहे - घर आए -- आँखों में आँसू थे -- जिन मेहमानों से
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कभी कोई संपर्क न आया था - उनसे गले मिले, घरवालों को गले लगाया | बाहर सड़क पर निकलकर राहगीरों से गले मिले - जब सब चुक गये - तब वृक्षों से लिपटे रहे | इस तरह 3 दिन बाद रवींद्रनाथ ने नया जन्म लिया | सब ओर एक ही महाप्रभु के दर्शन किए | बाद उनसे जो महाकाव्य निकाला - वह एक सिद्ध के जीवन में होकर आया - एक स्थाई मूल्य ' उसका ' आया | बुरा-भला - क्षुद्र और विराट में एक ही प्रीतम दिखा | उनने कहा : मैं ‘ उसे ‘ अपने हाथों से तो नहीं, वरन अपने स्वरों के पंखों से छू लेता हूँ | गीतों को आप उनके पढ़ेंगे - बहुत-बहुत मीठे है | उनने कहा - बरसात की मेधा भरी रातों में तेरी चरणों की ध्वनि सुन पड़ती है | छोटे कंकड़-पत्थर में प्रभु तेरे दर्शन मैं करता हूँ | युग-युग से प्रभु तू मेरे निकट था - मिलने को बैचेन था - पर मैं ही अपने द्वार बंद किए था | मनुष्य अपने-अपने द्वार बंद किए बैठा है | इससे प्रयास से कुछ न उपलब्ध होगा | सूरज जैसे उगाता - खिड़की-दरवाजे खोलने
पर प्रकाश अपने आप भीतर आता है | मान के द्वार खोल लेने पर प्रभु भी अपने आप आता है | मैं एक छोटी सी घटना आपसे कहता हूँ - बहुत बार कहता हूँ - पर जितनी बार कहता हूँ - उतनी ही प्रिय मुझे वह हो आती है | जैसे सिक्का चलके पुराना नहीं होता - वैसे ही यह घटना चिर-नवीन है |
रवींद्रनाथ - अपने एक पखवारे की यात्रा पर गाँव में थे | दूर-दूर तक भ्रमण किया | एक रात बज़रे के कक्ष में सौंदर्य-शास्त्र का अध्ययन कर रहे थे | सोने को थे - तो पास जलती हुई छोटी सी मोमबत्ती को बुझाया | अंधेरा हुआ - पर शीघ्र ही बज़रे के रंध्र-रंध्र से खिड़की से चाँद की अमृतमयी रोशनी - पूरे कक्ष में भर उठी | वे चकित थे - एकदम सत्य दिख आया | बाधा मिट गई थी - और सौंदर्य जिसे वे ग्रंथ में ढूँढने चले थे - पास ही उपलब्ध था | मोमबत्ती का बुझाना - सौंदर्य का पा जाना हुआ | मनुष्य भी अपने क्षुद्र अहंकार को विसर्जित कर दे - तो तन-मन को छेदकर - प्रकाश भीतर आ जाता
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हैं | रवींद्रनाथ के पूरे गीतों में एक ही बात का प्रावधान है अपने ' मैं ' को जला दें | इस ' मैं ' के जलाने की बात को सबने स्वीकार किया है | बिना इसके संगीत पैदा नहीं हो सकता | रवींद्रनाथ ने कहा : हम एक गीत की टूटी पंक्ति के समान अलग हैं - जैसे गीत में न होने से पंक्ति निर्मुल्य है - वैसे ही हम विराट में न होने से - कोई अर्थ के नहीं हैं | अलग होने से - संगीत में हम नहीं बँध पाते | रवींद्रनाथ कहते : “ मैं तो धरती का कवि हूँ - मैं चाहता हूँ जगत को ही मोक्ष जैसा प्रिय क्यों न बना लूँ |" जगत के अनंत-अनंत बंधन मुझे प्रिय हैं - मैं मुक्ति नहीं चाहता | यह बात एक सौंदर्य-दृष्टा ही कह सकता है | सबके भीतर एक प्रभु को देख पाने से ही यह रवींद्रनाथ के लिए संभव हुआ | शरीर तो मात्र प्रगटिकरण का माध्यम है | उन्होने कहा -- भोगना और छोड़ना नहीं -- वरन शरीर को सीढ़ी बनाकर - ' उसे ' पा लेना होता है |
रवींद्रनाथ के पास युवा-अवस्था में एक व्यक्ति आया करता | पूछता कवि से : प्रभु को देखा है ? रवीन्द्र - संकोच से हंसते और पूछते : आपने देखा है ? वह कहता - देखा है - अपनी आखों के सामने किलबिलाते देखा है | रवीन्द्र विश्वास न करते - झट - नमस्कार करके उसे विदा देते | बाद जब ईश्वर-अनुभूति कवि को हुई - तो एक दिन जब वही व्यक्ति आया - तो रवींद्रनाथ ने दोनों बाहें फैलाकर कहा - आओ-आओ! - व्यक्ति आश्चर्य में था - कभी तो कवि ने इस तरह स्वागत न किया था | पर आज कवि को सत्य-दिख आया था - उस व्यक्ति की बात साकार हुई थी | फूल-पत्तों में - सागर के रेत-कणों और लहरों में सब जगह प्रभु निरंतर उपलब्ध है | व्यर्थता में भी सार्थकता दिख आई थी |
बंगाल में एक प्रचलित कहानी है | दो व्यक्ति -- सांझ दूर तक घूमते हुए तालाब के किनारे पहुँचकर - बैठ रहे | एक व्यक्ति हंसकर बोला - तालाब में बहुत कीचड़, एक जूता और फूटा कनस्तर ही तो है | इसमें और क्या खास बात जो हम यहाँ तक आये ?
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दूसरा व्यक्ति हंसकर बोला : - इसी जल में अमृतमयी तारों के प्रतिबिंब भी तो हैं | कीचड़ भी - और कमल भी - दोनों हैं - प्रश्न है कि हम क्या देख लेते - वही हमें दिखता है |
उपनिषदों में वीक्षण और अणुवीक्षण मात्र देखना और गहरे देखने की चर्चा है | गहरे देखने से भीतर का दिखता और बाहर प्रगटीकरण होता | जैसे जड़ें दिखतीं नहीं लेकिन वृक्ष टिका हुआ होता है | प्राण जड़ में होते हैं - इस तरह जगत में जो सारा कुछ दिखता - वह भीतर के अनदेखे पर टिका है | जगत के नियम में - वीक्षण पर विज्ञान का जन्म हुआ - उपर की आकृति और रंग आदि के देखने से | अणुवीक्षण से : धर्म दर्शन और कला का जन्म हुआ | रवींद्रनाथ का समग्र काव्य भीतर गहरे देखने पर - अणुवीक्षण पर - बाहर प्रगटीकरण हुआ है | प्रत्येक व्यक्ति के भीतर कवि है - भीतर जितने गहरे - शांति, सौंदर्य और अभय में हम उतरते जाते - कवित्व हमारा बाहर फूटता आता है |
रवीन्द्र को बाल्यकाल में मृत्यु से भय था | बाद जब सब सुंदर हो आया - असुंदर मिट गया - तब की एक घटना है - जो किसी दूसरे के साथ कहीं भी नहीं घटी | रवीन्द्र एक पुस्तकालय में एक ग्रंथ पढ़ते थे कभी कल्पना भी नहीं थी कि कोई व्यक्ति आँधी की तरह घुसेगा - और कहेगा - मैं तुम्हारा वध करने आया हूँ | रवींद्र ने कहा : तुम आए सो तो ठीक किया - पर बड़े बे-मौके आए हो | कुछ पत्र मैं अपने पूरे कर लूँ - बाद वध कर लेना मैं तैयार रहूँगा | उसके तो यह सुनना था कि हाथ कंप गये | एसे बुड्ढे को क्या मारना - जो कहता - मैं तैयार मिलूँगा | जीवन में - रवींद्रनाथ ने लिखा - एक बार तो मृत्यु आई - वह भी चली गई हत्यारे में भी सुंदर - उन्हें दिखा था - भारत के सिवाय और कहीं नहीं - इस तरह घटा |
1857 में - एक सन्यासी - अंग्रेज की गोली से मारा - वह 15 वर्षों से मौन था | पर जब मारा - तो कहा उसने
"हे ! श्वेतकेतु तू भी वही है |"
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मात्र इतना कहने के लिए उसने अपनी ज़बान खोली |
रवीन्द्र मानते कि मृत्यु भी तो उसकी संदेश वाहक है | अपनी मृत्यु के तीन दिन पूर्व भी कवि वही आनंद और सौंदर्य से भरे रहे | आधे-आधे घंटे तक बेहोश रहते - पर जब बेहोशी खुलती - तो 1 - 2 मिनिट तक - पूर्व अधूरी रह गई गीतों की पंक्तियों को लिखवाते | बहुत मुश्किल है -- इतना गहरा सौंदर्य-दृष्टा का जन्म लेना - जिसे मृत्यु में भी उस सुंदर के दर्शन हुए |
समय की रेत पर उनके पद-चिन्ह देर तक रहेंगे | उनके ग्रंथों और गीतों को कितनों ने यहाँ पढ़ा है -- मैं नहीं जानता | पर - गीतांजलि तो प्रत्येक घर में होना ही चाहिए | जिसे इतना भी न करना आया - उसे मुझे धार्मिक मानने का मन नहीं होता | गीतों से एक संगीत का भीतर आ जाना -- सौंदर्य-शांति का प्रकाश आ जाना -- और आप निशचित जानिए कि आप जिस रास्ते पर भी जा रहे हों -- आपको फूल खिलते दिखेंगे |
मेरे मन में एक कवि, नाटककार, उपन्यासकार की तरह कविन्द्र रवीन्द्र को आदर नहीं - वरन एक ऋषि की तरह गहरा आदर है | मैं अपने समग्र मन से उनके चरणों में श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ |
जैन मंदिर - जवाहरगंज - जबलपुर में रवीन्द्र शताब्दी समारोह पर दिया गया भाषण |
दिनांक : 16.5.61
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Sent to
Jain Jagat in
16 Nover. 61.
2 मई सन 1961
रात्रि का घना अंधकार | बादल गहरे छाए हुये हैं | हवा बीच-बीच में बह उठती है | चाँद दूर बदलियों में अपने को छुपाए हुए है | एक सौभाग्य की घड़ी आती है | यों तो हर क्षण - प्रभु का सौंदर्य और प्रकाश सब जगह बिखरा है - पर जब वह चेतन सत्ता प्रगट होता है - तब वह अपना एक अमिट प्रभाव अन्य चेतनात्माओं में छोड़ जाता है | बाद फिर इन प्रकाशित आत्माओं को बाहर के मूक सौंदर्य और प्रकाश से -- सारा कुछ मिल जाता है -- जिसके जानने के लिए जीवन है | एक बार गहरी जीवन-दृष्टि आ जाने की बात है | इस कारण ही - बौद्धिक वर्ग के अच्छे समझदार विद्यार्थी -- आचार्य जी के समीप आते रहते हैं | इस घड़ी भी तीन विद्यार्थी आकर बैठे हैं - परिवार के और भी सदस्य हैं -- सब एक गहरी तल्लीनता से चर्चा सुन रहे हैं |
चर्चा का प्रारंभ होता है -- जीवन में पाने योग्य क्या है ?
आज चारों ओर ' चाह ' की दौड़ है | छोटे पद से बड़े की और बड़े पद से - बाद के बड़े पद की - इस तरह जीवन मात्र एक व्यापार की तरह बन गया है | मुझसे पूछा जाता - आपको क्या चाहिए ? -- अभी तो जीवन का प्रारंभ है -- मेरा उत्तर होता -- इस जगत में कुछ पाने योग्य है ही क्या ? -- जो पाया जाना है -- वह तो निरंतर है -- उसे भरे-देखकर जान लेने की बात है | मन में इससे गहरी शांति उतरती है -- और जीवन जिस अर्थ के लिये है -- उससे वह प्रगट होता है | इसके विपरीत :- आज के विश्व के परिणाम हम सबको विदित हैं कि हम तीसरे महायुद्ध की ओर बढ़ रहे हैं |
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in Oct. 61.
प्रसंग 19 मई का है | आचार्य जी सिरपुर जा रहे है | स्टेशन पर श्री राम मिश्रा से मुलाकात ली | मिश्रा जी का कहना है कि : वे कुछ विलंब करके साधना प्रारंभ करेंगे | इसपर उनको जो उत्तर मिला वह हम सबके काम का है :-
समय पर हमारा वश नहीं - वह तो बस
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चलता है | हम पर हमारा वश है | इससे साधक को यह स्पष्ट प्रतीति होना चाहिए कि दूर भविष्य में कुछ नही किया जा सकता | प्रत्येक कार्य को आगे के लिए रख देना - (Postponement) - समय पर निर्भर हो रहना है | इससे - बड़ी भूल हम सबसे प्रतिदिन घटती है | हर सांझ तक हम जो भी करना चाहें - कर लें - पता नहीं दूसरी आने वाली सुबह हमारी हो या नहो | इससे साधक को आज के दिन पर जीना चाहिए और गहरे साधक तो केवल क्षणों में जीते है | जिस क्षण में हम होते हैं - उतने भर में हम जिंदा हैं -- इससे अपने पर तो हमारा वश है -- लेकिन समय पर वश न होने से -- प्रत्येक कार्य को इसे दिन से शुरू कर देना चाहिए |
एक बड़ी बात और कि Postponement हम क्यों चाहते हैं ? मूल कारण है कि अभी रस बना हुआ है -- और आगे भी वह कम न होकर बढ़ने ही वाला है | इससे महावीर ने
जगह-जगह पर प्रमाद (आलस ) न करने पर ज़ोर दिया है -- और हर क्षण मात्र में जीने को कहा है | बाद कभी विस्तार से चर्चा करेंगे -- इतना कहकर यह प्रसंग यहीं समाप्त हुआ | ----
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Nov. 61.
बहुत व्यापक लिखा जाने को है -- आचार्य जी के विचारों के बाबत और बहुत-बहुत सुलझी, गहरी तथा निकट की आचार्य जी को मानवीय चेतनात्माएँ मिलने को हैं -- लेकिन अभी मैं न कुछ जो अपने में हूँ -- वह तो जितना बनता है -- उतना लिखे -- इसी ख़याल को लेकर लिख लेता हूँ |
श्री राम जी दूबे - वही पुराना चक्कर - खूब भटके हुये और अपनी मन की पूरी उलझी हुई स्थिति लेकर - आचार्य जी के समीप - राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ के शिविर में भाग लेकर वापिस लौटे हैं -- सो मिलने आये हैं | संगठन पर खूब गहरा विश्वास है -- श्री राम दूबे जी का | इससे कह रहे थे कि मुझे तो बहुत प्रिय उनका सारा संगठन और हिंसात्मक तरीकों से समाज को बदलने का तरीका - सचमुच आज के युग की आवश्यकता है |
आचार्य जी ने कहा : रे पागल ! मैं केवल एक ही बात कहता हूँ - कि आज तक का मानवीय इतिहास यह कहता है कि हिंसा को -- हिंसा से समाप्त नहीं किया जा सका - वरन आज जो समाज का नक्शा दिखता है -- उसमें गहरी हिंसा की संभावनाएँ बढ़ी है |
फिर तुम्हारी बात का कोई मूल्य नहीं रह जाता | आग में आग दो तो और ज़्यादा प्रज्जवलन होता है -- तथा शक्तियों का विनाश बहुत शीघ्र हो जाता है | अतएव - यह तर्क तो बहुत पुराना -- और अब बे-मानी हो गया है |
फिर, हिंसा जो व्यक्ति करता - उसका अपने में बहुत ज़्यादा आत्मिक पतन हो जाता - और अहिंसा जो व्यक्ति करता - उसका अपने में आत्मिक उत्थान - सहज स्वाभाविक होता रहता -- क्योंकि अहिंसा तो मात्र भीतर की पवित्र सत्ता की अभिव्यक्ति है | अहिंसक - इससे अपने में आत्म-विश्वासी और संगठन से बिल्कुल दूर का खड़ा हुआ व्यक्ति होता है |
बहुत-बहुत मानसिक दृष्टि से असंतुलित व्यक्ति आचार्य जी के का पास आया करते है - बाद फिर अपने को वे एक सही कार्य-दर्शन पर लगा हुआ जानते हुए, वापिस लौटते हैं | इनमें इस सलाह आए हुए व्यक्तियों में एक प्राध्यापिका जी और एक नवयुवक जो बॅंक की सर्विस में है - प्रधान रहे | आचार्य जी बहुत-बहुत
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सरल और उदार -गंभीर तथा चेतना की अटूट गहराइयों से जब बात करते - तो उसमें सहज ही चेतना लोक का व्यापक प्रभाव अपने आप साथ आता | मानसिक स्वास्थ आज के युग में खो गया है -- बहुत क्षुब्ध, पीड़ित, अपने में खींचा हुआ और परेशान आज का युग है | इससे मेरा सबको एक ही कहना है कि इस खिंचाव को ढीला होने दिया जाय - तो शांति धीरे-धीरे आती और एक क्षण आता जब कि सारा खिंचाव विसर्जित होकर शांत मनःस्थिति में व्यक्ति आ जाता और वह मानसिक स्वास्थ उपलब्ध कर लेता |
मानसिक स्वास्थ कैसे उपलब्ध हो ? इसकी बहुत सहज आज ध्यान की प्रक्रियाएँ हैं | रात्रि सोने के पूर्व और प्रातः जगाने के बाद 15 मिनिट तक जो हम सारे शरीर को मृत अवस्था में बिल्कुल ढीला छोड़ दें - एसा प्रतीत हो कि मैं इस शरीर में ही नहीं - यह किसी और का शरीर पड़ा हुआ है | फिर जो स्वांस आती - जाती उस पर ध्यान को लगालें - हम पायेंगे कि हमारे विचार विसर्जित हो गये और सहज शांति उपलब्ध हो
आई है - यह ध्यान में होकर शांत हो आना है | स्वांस पर ध्यान लगाना एकदम सरल है | बाद फिर दिन के 24 घंटे में इस शांति को फैलाया जा सकता है -- और किसी भी क्षण ग़लत स्थिति में आने के समय अपने को जागरूक अवस्था में बनाए रखकर शांति में हो आया जा सकता है | इस तरह का अनापान योग का यह विज्ञान सहज शाँतिदायी है | यह धर्म की मौलिक साधना है और किसी भी धर्म से बँधी मानव अवस्था को इससे अस्वीकृति नहीं हो सकती - यह सहज प्रिय मीठा प्रयोग है |
1 जुलाई से 10 जुलाई तक का चर्चा सार
[ यह लिखा गया तो मात्र उतना ही है - जितना कि करोड़-करोड़ या कहें - अनगिनीत तारों में से एक दो तारे देख किए गये हों - अनंत आनंद तो चर्चा मे जो प्रत्यक्ष श्रोता होते और उनके भीतर जितनी जागरूकता और गहराई होती उस हिसाब से प्राप्त होता | ]
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एक जीवन संस्मरण
आज सांध्य कौन्सा देवी जी का आना हुआ | बीती स्मृतियाँ साकार हो उठीं | कौन्सा जी जैन महिला लायब्रेरी की व्यवस्थपिका हैं -- आप बहुत लगनशील, परिश्रमी और एक आदर्श महिला हैं | पूज्य स्व. मौशी ( श्रीमती शीलवती जी समैया ) जी ने अपने जीवन-काल में कौन्सा जी का लायब्रेरी बढ़ने में बहुत सहयोग दिया | कौन्सा जी की ग़रीबी और श्रम पर मौशी जी की बड़ी सद-इच्छाएँ थीं -- आज भी मौशी जी के वे सारे सेवा कार्य - याद आ रहे हैं और एक अमिट छाप छोड़ जा रहे हैं कि ' सबमें वही प्रभु विध्यमान है | ' चारों ओर सबमें वह बैठा हुआ है | बाह्य जगत में हम जो कुछ भी इस क्षणवत शरीर से कर सकें - कर ही लेना चाहिए और बाद पछताने का अवसर न रहे - एसा सोचके जितना वर्तमान में बन सके - अवश्य ही कर लेना |
मौशी के संस्मरण
7/8/61