Arvind Jain Notebooks, Vol 3: Difference between revisions

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:विशालता के प्रति हो ही नहीं सकता है | इसी कारण अपने जो भेद की बात राष्ट्र और पड़ौसी राष्ट्रों के लिए कही -- वह संभव हो सकी | एक नारी सीमित क्षेत्र मे तो अपने को बाँध सकती है -- लेकिन वह संपूर्ण कम्युनिज्म के प्रति प्रेम से उस सिद्धांत को विशाल रूप में नहीं संभाल सकती है | इसी के सन्दर्भ में जो ' नारी समानाधिकार ' की बात चलती है - उस  पर चर्चा का हो जाना स्वाभाविक था | कहा : ' नारी को जैसा कहा जाता है कि पहले दबाया गया उससे काफ़ी भारतीय नारी पिछड़ गई है - पश्चिमी देशों में तो नारी काफ़ी प्रगती पथ पर है -- और पुरुषों के ही समान सारे कार्यों में भाग लेती है |' इसमें कोई मनोवैज्ञानिक तथ्य को दृष्टिगत नहीं रखा गया है -- और इस कारण इसमें सैद्धांतिक बड़ी भारी ग़लती है | नारी तो केवल अपने परिवार के सृजन के लिए -- अपना सर्वस्व समर्पण करती है | उसकी जो अपरिवर्तित मनोवैज्ञानिक जीवन प्रक्रिया है - वह यह कि नारी एक पुरुष से संतुष्ट होती है -- उसमें उसे  
:विशालता के प्रति हो ही नहीं सकता है | इसी कारण अपने जो भेद की बात राष्ट्र और पड़ौसी राष्ट्रों के लिए कही -- वह संभव हो सकी | एक नारी सीमित क्षेत्र मे तो अपने को बाँध सकती है -- लेकिन वह संपूर्ण कम्युनिज्म के प्रति प्रेम से उस सिद्धांत को विशाल रूप में नहीं संभाल सकती है | इसी के सन्दर्भ में जो ' नारी समानाधिकार ' की बात चलती है - उस  पर चर्चा का हो जाना स्वाभाविक था | कहा : ' नारी को जैसा कहा जाता है कि पहले दबाया गया उससे काफ़ी भारतीय नारी पिछड़ गई है - पश्चिमी देशों में तो नारी काफ़ी प्रगती पथ पर है -- और पुरुषों के ही समान सारे कार्यों में भाग लेती है |' इसमें कोई मनोवैज्ञानिक तथ्य को दृष्टिगत नहीं रखा गया है -- और इस कारण इसमें सैद्धांतिक बड़ी भारी ग़लती है | नारी तो केवल अपने परिवार के सृजन के लिए -- अपना सर्वस्व समर्पण करती है | उसकी जो अपरिवर्तित मनोवैज्ञानिक जीवन प्रक्रिया है - वह यह कि नारी एक पुरुष से संतुष्ट होती है -- उसमें उसे  


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:सुरक्षा है और वह पुरुष को अपना सारा प्रेम दे पाती है। इसी कारण वह पुरुष के ज्यादा समीप रहने को उत्सुक है। यह नारी की दिशा है - इस में परिवर्तन करके - बिना वैज्ञानिक समझ के - बड़े खतरे पाश्चात्य नारी को उठाने पड़े हैं। पुरुषों के जैसे होने में, नारी के जीवन की दौड़ पुरुषों की ओर चली - और इस कारण नारीत्व को वह खो बैठी। पुरुषत्व को पाने से तो वह रही। परिणाम में बहुत व्यथित है। इसका परिणाम यह भी हुआ कि वह किसी एक पुरुष पर समर्पित नहीं हो पाती - और जब भी किसी पुरुष के प्रेम में होती है - पूरी तरह प्रेम नहीं कर पाती है। कभी भी तलाक के बाद - फिर वही स्थिति होती है - और मात्र वह पुरुष के हाथ का खिलौना बन गई है। इस स्वतंत्रता से नारी अतृप्त है - लेकिन पुरुष संतुष्ट है। भारत में भी अब यह हवा बढ़ रही है। नारी में जो अपरिवर्तनीय तत्व है उसे दृष्टि में रखकर - पूर्णता की ओर बढ़ने देने में - जो भी बाह्य अधिकार उसे प्राप्त हों - यह उचित है। उसे आर्थिक, राजनैतिक
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Latest revision as of 16:52, 27 July 2020

author
Arvind Kumar Jain
year
Oct 1962
notes
65 pages
Notes of Osho's Visit to Chandrapur (MH, then called Chanda).
The third book in a series of five.
see also
Notebooks Timeline Extraction
Arvind Jain Notebooks, Vol 1
Arvind Jain Notebooks, Vol 2
Arvind Jain Notebooks, Vol 4
Arvind Jain Notebooks, Vol 5


page no
original photo & enhanced photos
Hindi transcript
cover
(3)
64 Pages
notes of OSHO VISIT TO CHANDRAPUR (MHS)
First Fortnight of Oct. 62
1
अरविंद
(2 -) 3
चान्दा प्रवास
जीवन है, लेकिन जीवन से आनंद विलग हो गया है | इस भौतिक समृद्धि के युग में -- हमने प्रकृति पर विजय पाकर जीवन के जीने के नये साधन विकसित किये -- प्रकृति और बुद्धि का अनोखा मेल पहिली बार अच्छी तरह विकसित हुआ है | स्वाभाविक था कि हमारी आनंद की खोज बाहर की क्रियाओं से संयुक्त हो गई --इससे अब जब कोई साधक इस बाहर के आनंद में अपने को तृप्त नहीं पाता है तो वह अपने आत्मिक आनंद की खोज करता है | लेकिन वह क्रियाओं के माध्यम से ही उसकी खोज करता है | परिणाम में केवल जो मन बाहर की क्रियाओं में रस लेता था -- अब वही भीतर जाने की क्रियाओं में रस लेने लगता है -- अंतर केवल क्रियाओं का आता है --- मन ठीक वैसा का वैसा ही बना रहता है | मूलतः जहाँ मन की परिधि समाप्त होती है -- वैसे ही हम अपने आनंद के केंद्र से संयुक्त होते हैं |
यह आधार तो आचार्य श्री की चर्चा से जो आज सुबह हुई उससे लिया गया है -- अब
4 - 5
चर्चा का जो अमृतमय सार था - उसे नीचे दे रहा हूँ | श्री पारख जी ने स्वाभाविक जिज्ञासा की : ' आपने ब्रह्मचर्य पर पिछले समय जो वैज्ञानिक चर्चा दी थी - उसे और आगे बढ़ाया क्या ? बंबई में अभी ब्रह्मचर्य पर आपका बोलना हुआ या नहीं ? '
इस बार बंबई मैने एक भाषण ' अहिंसा ' पर दिया -- पश्चात अन्य स्थानों पर ' अक्रिया ' पर केंद्रित रूप से बोला | कहा : प्रार्थना - ध्यान नहीं है | प्रार्थना में जो व्यक्त होता है -- वह ' मैं जन्य ' होता है -- और ' मैं जन्य ' अहंकार से संबंधित है | इससे ही आप प्रार्थनाएँ करते हैं -- लेकिन उससे कोई परिणाम नहीं आते हैं | मेरा अभी बंबई में अनेकों साधुओं से और साध्वियों से मिलना हुआ है -- साथ में श्री ताराचंद जी कोठारी भी थे | मिलना हुआ -- बातचीत हुई और स्पष्ट ही पूछा कि ' आपको अपनी साधना के मध्‍य -- शक्ति, आनंद की उपलब्धि हुई ? -- और क्या ध्यान की गहराइयों में उतरना हुआ है ? -- यदि हुआ है तो ही कहिए -- अन्यथा स्पष्ट ही कह दें -
इस बार स्पष्ट कहने का साहस किया और कहा ' कि वास्तव में इस तरह की कोई उपलब्धि नहीं हुई है | ' इस संबंध में बात हुई और उन्होंने समझने की कोशिश की | कहा : व्यक्ति सक्रियता में अपने को जीवित रख पाता है | संसार में व्यक्ति जो भी करता है -- उसमें क्रिया प्रधान होती है | क्रिया के बाहर वह अपने को रख ही नहीं पाता है | सब कुछ परिधि पर चलता रहता है | इसीसे गृहस्थ या अन्य साधारण व्यक्ति जब साधु भी हो जाता है तो वहाँ भी वह संसार बसा लेता है -- विधियों को पालता चलता है -- और तथ्य यह है कि जब विधियों को पालने से कोई चित्त की शांत अवस्था प्राप्त नहीं होती है तो फिर उसे सामान्य जन से भी अधिक पीड़ा का अनुभव होता है | क्योंकि साधु स्‍वयं तो अशांत होता है लेकिन उसे उपदेश करना होता है - शांति का, आनंद का -- और इससे उसे केवल अभिनय करना होता है | फिर सामान्य जन को यह तो संतोष होता है कि उसने तो कुछ किया ही नहीं है -- इससे उसे एक बार शांति पा लेने की आशा
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तो होती है -- पर साधु की तो कोई भी आशा शेष नहीं रहती है | मुझे चंदन सागर जी से पिछले वर्ष मिलना हुआ था -- कहा था आपने : पिछले २० वर्ष पूर्व जब मैने सन्यास लिया था तो एक विश्वास था - आशा थी कि अब ठीक -- उस महान सत्ता में होकर अपने में परिपूर्ण शांत हो रहूँगा | पर अब केवल बोलता हूँ और बोलने में पिछला आत्म-विश्वास भी नहीं रहा है | पिछले वर्ष मैं जब मिला तो रोने लगे -- बोले ' मैने सब छोड़ा था कि कुछ पा लूँगा ' लेकिन जाना कि अब तो और भी ज़्यादा अशांत हो गया हूँ | मैने उन्हें कुछ प्रयोग बतलाए थे और अब इस बार ध्यान भी कराके आया हूँ -- बड़ी हिम्मत थी उनकी कि २०-२५ जनों के साथ ध्यान को बैठ सके |
हम अपने को संसार में उलझाए रखते हैं और सोन्चते हैं कि संसार को छोड़के सन्यास में शाँति होगी | लेकिन सन्यास में भी हम क्रियाओं में अपने को उलझा लेते हैं | मन अपनी दौड़ में फिर लग जाता है और पाया जाता है कि हम परिधि पर ही बने रहे |
थोड़े ही समय को सब छोड़के - मोक्ष की भी फिकर छोड़के -- हम बाहर की चेतना से पीछे हटते चलें तो आप अपने से उस सत्य में हो आते हैं जिसकी आपको खोज थी | सब छोड़ दें -- केवल खाली बैठ जायें और आप पाएँगे कि घटना घट गई है | यह एक क्षण में ही संभव है | खोजके हम उसे तो पा ही नहीं सकते जिसकी खोज थी -- केवल खोके ही हम उसे पा सकते हैं | इससे जो पंक्ति कही जाती है :
' जिन खोजा तिन पाइयाँ | '
इसकी जगह मैने कहा है :
' जिन खोया तिन पाइयाँ | '
खो के ही हम जिसकी खोज में थे -- उसमें हो आते हैं | बूँद सागर में अपने को खो के समग्रता में हो आती है | हम भी अपने को खो दें -- तो पाया जाता है कि हम विराट से संयुक्त हो आए हैं |
श्रीमती यशोदा जी बजाज : ' क्या यह स्थिति रहती है | "
निश्चित ही - एक बार जिसमें हम थोड़ी से
8 - 9
देर को भी हो आते हैं - उसके परिणाम निश्चित हुआ करते हैं | अभी मैं पिछले ३ माहों में ३०० लोगों पर प्रयोग किया ' ध्यान ' का - आश्चर्यजनक परिणाम हुए | पाया गया कि जिन्हें वर्षों करने पर भी कुछ दिखा नहीं था - उन्हें ७ दिन ध्यान में बैठ के ही एक मार्ग अपने से दिख आया है और उसके निश्चित परिणाम होने को हैं | अनेक तथ्य आचार्य श्री ने दिए और कहा : सच में - बड़ी आश्चर्य की बात है कि यदि ठीक वैज्ञानिक विधि से कुछ किया जाय तो उसके स्पष्ट शीघ्र उचित परिणाम होते हैं |
इस संबंध में मुझे साधुओं से विरोध प्रत्यक्ष तो मिलता नहीं है -- बाद ज़रूर उनके द्वारा कुछ कहा जाता होगा | क्योंकि मुझे अनुभव आया कि प्रत्यक्ष मिलने पर बात समझ में आती है -- और विरोध उठता ही नहीं है - लेकिन बाद वे अवश्य अपनी बात को पुनः समझाते हैं | पर अब तो मैं - किसी से भी जो करता आया है - उसे छोड़ने के संबंध में - या उस संबंध में कुछ भी नहीं कहता
हूँ | केवल १५ दिन ध्यान के प्रयोग को कहता हूँ -- और बाद पाता हूँ कि जो भी उनका पहले का व्यर्थ था - वह अपने से गिर जाता है | यह वास्तविक जीवन-दृष्टि है -- इसके अभाव में सारा कुछ कचरा है |
[ ७.१०.६२ चान्दा - चर्चा के मध्य श्री पारख जी - माँ साब पर व्यंग के भाव से विनोद -- बड़े ही सरल ढंग से करते रहे - और गंभीर चर्चा में अपनी सरसता का आनंद बिखेरते रहे ]
10 - 11
रात्रि के गहरे अंधकार से सुखद क्षण - सब अपने में शांत और खोया हुआ | चर्चा का आनंद लेने अनेक जन आ बैठे हैं | एक प्रासंगिक चर्चा ' व्यंग और विनोद ' पर हो रही |
आचार्य श्री ने कहा : व्यंग में व्यक्ति अपने मन का अहंकार निकल देता है -- और व्यंग से जिसके प्रति कहा जाता है - उसे दुख होता है - चोट पहुँचती है | इससे व्यंग तो केवल आशिष्ट जन ही करते हैं | शायद उनका उपरी भाव उसमें विनोद का ही होता हो -- लेकिन अंजाने उसमें मन का ' अहं ' छुपा होता है - जो चोट करता है |
विनोद तो सहज, सरल - आनंद की घटना है | विनोद में वातावरण हँसी-खुशी का हो जाता है और उससे अपने से अत्यंत कठिन स्थितियाँ भी आसानी से हल हो जाती है | इसीसे विनोद प्रियता तो सभी श्रेष्ठ जनों को रही है | सहज बात है |
आचार्य श्री ने अनेक उदाहरण दिये - जिससे विनोद और व्यंग में एक स्पष्ट चित्रण खींचा | कहा आपने
बर्नार्ड शा - को एक फ्रेंच अभिनेत्री ने लिखा कि ( जब बर्नार्ड शा वृद्ध था ) में आपसे विवाह करना चाहती हूँ और स्पष्ट किया कि आपकी बुद्धि और मेरा सौंदर्य के मिलन से जो संतान होगी -- वह श्रेष्ठतम होगी | अभिनेत्री ने केवल सहज में यह सब लिखा था | पर बर्नार्ड शा ने जो उत्तर दिया - उसमें लिखा : लेकिन इसका उल्टा भी तो संभव है -- हो सकता है कि उसका रूप मेरे जैसा और बुद्धि तुम्हारे जैसे हो - तब ?
अब यह सहज में किया गया विनोद न होकर व्यंग है और इससे दूसरे को दुख होता है |
गाँधीजी के साथ विनोद प्रियता का उदाहरण ठीक से घटित होता है | एक समय मीटिंग १९३८-३९ के समय -- काफ़ी विवादग्रस्त और अशांत तथा क्रुद्ध स्थिति में भी - गाँधीजी बिल्कुल शांत भाव से अपनी घड़ी को देखते यह उन्होंने २ - ३ बार किया | इसी बीच दरवाजे पर एक छोटा बच्चा -- खादी की टोपी, शेरवानी और चूड़ीदार पैजामा पहनकर आया - गाँधीजी ने उठकर स्वागत किया - सब लोग आश्चर्य में थे कि अब तो कोई आने को नहीं है -- गाँधीजी क्यों खड़े हुए ?— इतना ही नहीं -- बाद
12 - 13
जब वह बच्चा गाँधीजी के साथ - बैठा तो सारे लोग हँसने में लीन हो गए | वातावरण ही बदल गया - और दूसरे दिवस भी जब मीटिंग हुई तो सब कार्य बड़े ही शांत ढंग से पूर्ण हो गया | यह सहज विनोद था | दूसरे समय की घटना - गाँधीजी के साथ इंग्लेंड में हुई | गाँधी जी - गोलमेज परिषद में भाग लेने - इंग्लेंड के बादशाह से मिलने गए - कपड़े तो गाँधीजी उतने ही पहने थे जीतने हमेशा पहनते थे - सहज था कि बादशाह ने पूछा : ' आप बहुत कम कपड़े पहने हुए हैं " --- गाँधीजी ने कहा : आपने इतने कपड़े पहन रखे हैं कि इस कमरे से बैठे व्यक्तियों के लिए पर्याप्त हैं | गाँधीजी की इस बात पर बादशाह सहज में हंसा | अब यह विनोद की बात हुई | इससे ही गाँधीजी की कठिन से कठिन स्थिति भी सहज विनोद के माध्यम से -- ठीक ढंग से हल हो जाती है -- और आनंद तथा विनोद में सारी स्थितियाँ सरस हो जातीं हैं |
[ ७/१०/६२ रात्रि चान्दा ]
एक प्रश्न था रात्रि की चर्चा में :
' व्यक्ति आनंद की खोज में है - यह लक्ष्य क्यों है ? ' कौन से साधन हैं जिनसे व्यक्ति आनंद की स्थिति में हो आता है ? '
वास्तव में हमारा जीवन दुखी है, यह सामान्य बात है | हम दुख के कारण ही आनंद की खोज करते हैं | पर आनंद का बोध व्यक्ति को नहीं है | वह तो केवल उसकी कल्पना करता है | पर कल्पना का आनंद - केवल कल्पित होता है | जो लक्ष्य है --- वह यह कि :
१. व्यक्ति दुख में है |
२. उससे उपर उठना चाहता है |
३. मार्ग खोजता है |
४. आनंद में स्थित होना चाहता है |
ये चार, आर्य सत्य हैं जो बुद्ध ने कहे | जिसे थोड़ी भी जीवन के संबंध में समझ है, उसे स्पष्ट होता है कि व्यक्ति का जीवन दुख में है | विवेक युक्त व्यक्ति - इनसे उपर उठने को चाहता है | पर उपर उठने के लिए - मार्ग की बीच में बाधा खड़ी हो जाती है | ठीक मार्ग का
14 - 15
ज्ञान न होने पर -- व्यक्ति व्यथित होता है | उसे उस स्थिति में हो आने का कुछ भी ज्ञान नहीं होता है | इससे उस स्थिति के संबंध में जो भी उसकी पूर्व-धारणाएँ हुआ करतीं हैं - उनसे वह अपने को संयुक्त कर लेता है -- और सत्य से वह बिल्कुल विलग खड़ा हो जाता है | इससे कोई भी पूर्व- कल्पित धारणा व्यर्थ है | हम आनंद को खोजके नहीं पा सकते है -- और जिस समय हम सब खोज समाप्त करके -- बिल्कुल शांत हो आते हैं -- पूर्णतः खाली हो आते हैं -- उसी क्षण सब कुछ पा लिया जाता है |
' ध्यान ' का प्रयोग मैने किया और पाया कि सब कुछ शीघ्रता से उपलब्ध हो जाता है | ध्यान कोई क्रिया नहीं है -- केवल उस ' अक्रिया ' में हो आने के लिए एक औपचारिक थोड़ी सी विधि मात्र है - जिससे व्यक्ति को स्पष्टतः ही सारा कुछ दीख आता है | .... फिर आनंद को कहीं खोजने नहीं जाना होता है --- हम आनंद में हो आते हैं | और पाया जाता है कि हम आनंद में हो आए हैं | तब ही
केवल पाया जाता है कि आनंद क्या है -- और उसमें हम जब पूर्णतः खाली हो आते हैं - तो अपने से हो आते हैं | ...
दूसरा प्रश्न था : ' क्या पुनर्जन्म होता है ? -- इस संबंध में आपकी क्या धारणा है ? '
देखिए मैं इस संबंध में आपको कोई भी विचार देना नहीं चाहता हूँ | कोई भी विचार आपको दिया जाए -- उससे कोई भी तृप्ति आपको मिलने वाली नहीं है | फिर आज तक जो भी विचार दिए गये हैं -- उनसे किसी ने सत्य को देखा नहीं है | वरन विचारों का जैसा भी अर्थ मन में बैठ जाता है - ठीक वैसी ही धारणा हम बना लेते हैं | इससे कोई भी आज तक सत्य को नहीं जान सका है | अब मैं आपको इसके पक्ष या विपक्ष में कुछ भी कहूँ आप अपने में वैसा विचार बाँध लेंगे -- लेकिन इससे आप सत्य में होने से दूर हो जाएँगे | पुनर्जन्म के संबंध में अलग-अलग मत हैं | हिंदू - पुनर्जन्म को मानते हैं, बौद्धों का पुनर्जन्म का अर्थ
16 - 17
हिंदुओं के समान नहीं हैं --- कोई नहीं भी मानता है -- लेकिन इससे कुछ भी निर्णय होना संभव ही नहीं है --- और जो भी निर्णय लिए जाएँगे -- वे केवल बनाई गई धारणाओं के अनुसार ही होंगे | इससे ही सत्य में हो आने के लिए अपने में बिल्कुल नग्न खड़ा होना होता है तो ही सत्य भी नग्न रूप में हमें दिख आता है | तब जो जानना होता है --- वह ही केवल अर्थ का है -- इसके पूर्व तक सब जाना गया केवल एक भ्रम है और उस सबका अपने में कोई भी अर्थ नहीं होता है | वह केवल सुना हुआ या कहीं से पढ़ा हुआ होता है | सब कचरा और व्यर्थ है | चित्त की अतुल्य शक्ति की गहराई में ही सब अपने से जान लिया जाता है -- और तब जो जाना जाता है -- उसमें मूल्य होता है -- अर्थ अपने से आता है | अन्यथा आप पुनर्जन्म के संबंध में केवल सुनकर आपकी जो जीवेष्णा है — उसके संबंध में निश्चिंत हो जाना चाहते हैं -- और जीवन आपका बना रहेगा -- इसका भर सुख आप
लेना चाहते हैं | इससे मेरा कोण ही देखने का अलग है -- मैं चीज़ों के संबंध में पक्ष या विपक्ष में निर्णय नहीं लेता हूँ -- क्योंकि वह तर्कगत है -- देखा हुआ नहीं | और जो आपने देखा ही नहीं है, अनुभूत नहीं किया है --- वह सत्य नहीं हो सकता है | सत्य तो अपने से -- अनुभूति में दीखता है --- और तब जो दीखता है -- वह ही केवल अर्थ का है | ....
[७.१०.६२... रात्रि... चान्दा...]
18 - 19
८-१०-६२
सब कुछ आनंद - शांति तथा जीवन के स्वाभाविक क्रम में चले -- इसमें ही आचार्य जी की जीवन की अभिव्यक्ति है | जीवन का श्रेष्ठतम अभिव्यक्त होता है | चाहे -- अध्ययन हो, भाषण हो. चर्चा हो. यात्रा - घूमना - प्रासंगात्मक हँसी और विनोद के अवसर -- सब कुछ सप्राण और जीवित हैं | सुयोग और सौभाग्य है - जिनको निकटता मिल पाती है | इतनी गहराई से जीवन को समझना -- और उसमें एक रस हो रहना -- वही जान सकता है जिसने थोड़ा भी वैसा जिया हो | अन्यथा कितनी जीवन में विकृति और नाटकीय रूपों में -- मानवीय अभिव्यक्ति होती है -- इसे सभी जन आसानी से जानते है |
मध्यान्ह यशोदा बाई उपस्थित थी | माँ-साब, जीजी बाई, प्रमिला और मैं भी उपस्थित था यशोदा बाई ने ' राष्ट्रीय भावत्मक एकता ' पर भाषण में कहा था :
' पुरुषों ने हमेशा - ख़तरे खड़े किए हैं - लेकिन नारियों ने कभी भी सामूहिक हत्या या उत्पात नहीं किए हैं -- इससे राष्ट्रीय एकता के लिए - शांति के लिए - स्त्रियों के शांति के गुण को अपनाना चाहिए | '
स्त्रियों के करुणा, प्रेम, सहानुभूति - आदि के आधार पर देश में एकता संभव है | देश के बाहर चाहे - पड़ोसी राष्ट्रों से आप जो चाहे करें - लेकिन देश के लिए तो एकता के लिए आवश्यक गुण अपनाए जाना चाहिए | '
इसी के विपरीत एक जन सभा में बोले : ' यह सब व्यर्थ है | हमें तो ईन्ट का जवाब पत्थर से देना है | '
देखिए, सारे मामले पक्ष या विपक्ष में सोचने से और अपने-अपने घेरे के बाहर होने से - ग़लत हो जाते हैं | जब नारी सोचती है - तो वह भी अपने घेरे के बाहर सोचती है - और वह पुरुषों के साथ एकता लेकर -- एक जैसे अधिकार पाने के लिए - अपने को पुरुष जैसा बनाती है | यहीं ग़लती होती है |
नारी की प्रेम करने की सीमा व्यक्ति केंद्रित है - उसमें प्रकृति की अद्भुत व्यवस्था है - कि वह अपने छोटे से परिवार में ही अपने प्रेम के माध्यम से उसका सृजन करती है | वह व्यक्ति से इतनी बँध जाती है कि उसका प्रेम समग्रता के प्रति या
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विशालता के प्रति हो ही नहीं सकता है | इसी कारण अपने जो भेद की बात राष्ट्र और पड़ौसी राष्ट्रों के लिए कही -- वह संभव हो सकी | एक नारी सीमित क्षेत्र मे तो अपने को बाँध सकती है -- लेकिन वह संपूर्ण कम्युनिज्म के प्रति प्रेम से उस सिद्धांत को विशाल रूप में नहीं संभाल सकती है | इसी के सन्दर्भ में जो ' नारी समानाधिकार ' की बात चलती है - उस पर चर्चा का हो जाना स्वाभाविक था | कहा : ' नारी को जैसा कहा जाता है कि पहले दबाया गया उससे काफ़ी भारतीय नारी पिछड़ गई है - पश्चिमी देशों में तो नारी काफ़ी प्रगती पथ पर है -- और पुरुषों के ही समान सारे कार्यों में भाग लेती है |' इसमें कोई मनोवैज्ञानिक तथ्य को दृष्टिगत नहीं रखा गया है -- और इस कारण इसमें सैद्धांतिक बड़ी भारी ग़लती है | नारी तो केवल अपने परिवार के सृजन के लिए -- अपना सर्वस्व समर्पण करती है | उसकी जो अपरिवर्तित मनोवैज्ञानिक जीवन प्रक्रिया है - वह यह कि नारी एक पुरुष से संतुष्ट होती है -- उसमें उसे
सुरक्षा है और वह पुरुष को अपना सारा प्रेम दे पाती है। इसी कारण वह पुरुष के ज्यादा समीप रहने को उत्सुक है। यह नारी की दिशा है - इस में परिवर्तन करके - बिना वैज्ञानिक समझ के - बड़े खतरे पाश्चात्य नारी को उठाने पड़े हैं। पुरुषों के जैसे होने में, नारी के जीवन की दौड़ पुरुषों की ओर चली - और इस कारण नारीत्व को वह खो बैठी। पुरुषत्व को पाने से तो वह रही। परिणाम में बहुत व्यथित है। इसका परिणाम यह भी हुआ कि वह किसी एक पुरुष पर समर्पित नहीं हो पाती - और जब भी किसी पुरुष के प्रेम में होती है - पूरी तरह प्रेम नहीं कर पाती है। कभी भी तलाक के बाद - फिर वही स्थिति होती है - और मात्र वह पुरुष के हाथ का खिलौना बन गई है। इस स्वतंत्रता से नारी अतृप्त है - लेकिन पुरुष संतुष्ट है। भारत में भी अब यह हवा बढ़ रही है। नारी में जो अपरिवर्तनीय तत्व है उसे दृष्टि में रखकर - पूर्णता की ओर बढ़ने देने में - जो भी बाह्य अधिकार उसे प्राप्त हों - यह उचित है। उसे आर्थिक, राजनैतिक
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और सामाजिक अधिकार मिलें जो उसे अपनी सीमा में पूर्णता की ओर बढ़ाएँ - लेकिन वह पुरुष के साथ प्रतिस्पर्धी बनकर एक जैसी हो - इसमें ही केवल भ्रांति है | अधिकार दिए जाएँ - लेकिन पुरुष के समान वह न बने यह वैज्ञानिक बात है | नारी को मानवीय जीवन को समझ के कदम रखना - उसे एक संतुष्ट जीवन की ओर ले चलना है |
दूसरे पक्ष पुरुष पर अब यदि हम समझें तो स्पष्ट होगा कि पुरुष बंधन प्रिय न होकर अपने को विशालता में ले चलता है | बुद्ध लाखों व्यक्तियों को असीम प्रेम कर पाए तो चगेज ख़ान लाखों लोगों को बिना भेद किए मार भी पाया | पुरुष विशालता और बंधन मुक्त प्राणी है | वह एक नारी से संतुष्ट भी नहीं होता है | इसी से वह छोटी सीमाओं में बंधना ही नहीं चाहता है | पश्चिम में इसी से एक खिलौना मात्र जो नारी रह गई है -- उससे पुरुष संतुष्ट है | भारत में भी हम सोचते हैं कि स्वतंत्रता देकर - नारी को पुरुष जैसा करके -- अपनी समस्याओं को हल कर लेंगे | लेकिन एसा संभव नहीं है | इसमें नारी केवल अपने
नारित्व को भर खोकर - दरिद्र बनी रहेगी - और पुरुष को तो इसमें संतुष्टि है | अब, नारी और पुरुष - दोनों की मनोवैज्ञानिकक भूमिकाएँ स्पष्ट हों -- तो जीवन एक सुखद और आनंद की घटना हो सकती है |
इसके लिए पुरुष का जो प्रारंभिक आकर्षण घना होता है नारी के प्रति -- उसके लिए सहज सबके साथ संबंध आँए -- इससे पुरुष का सहज में सब नारियों के संपर्क में आकर संतुष्टि की बात है -- उसे पूर्ण होने का अवसर मिलेगा | पश्चिम में जो सहज संबंध आए हैं -- उससे आकर्षण कम हुआ हैं | बाद फिर नारी - पुरुष का ख्याल करके - उसे सहज समय-समय का फासला दे - क्योंकि पुरुष बहुत थोड़े समय के लिए नारी के प्रेम का आकर्षण होता है | इससे पुरुष का पूर्ण प्रेम - नारी पा सकेगी और संतुष्ट होगी | किन्हीं अन्य नारियों के संपर्क में यदि पुरुष आता है -- तो उसे जानना चाहिए कि यह तो उसका ( पुरुष का ) स्वाभाव ही है | इस स्वतंत्रता से अभी नारी जितना पुरुष को बांधकर रखना चाहती है -- और नारी, पुरुष के लिए भार बन जाती हैं -- वह बात दूर
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हो सकेगी और सहज में नारी ज़्यादा प्रेम पा सकेगी | ठीक इसी के विपरीत पुरुष को नारी का स्वभाव ख्याल रखके -- नारी के प्रति प्रीतिपुर्ण संबंध आयें - इसका विवेक रखना उचित है | उसे जानना है कि नारी का सब कुछ उस पर समर्पित है - और इस कारण ही वह विवेक के साथ अन्य नारियों से संपर्क जब रखता है तो जानेगा कि यह उसका संपर्क -- नारी के लिए दुखकर है प्रीतिपुर्ण संबंधों में यह बाधा है |
इससे ' समान अधिकार ' के साथ- नारी और पुरुषों के बीच भी समानता की जो बात बिना वैज्ञानिक समझ के उठाई जा रही है -- उससे एक ग़लत समाज रचना का ही निर्माण संभव हैं | नारी और पुरुष का विकास पूर्ण हो -- अपनी-अपनी सीमा में -- उसके लिए आवश्यक अधिकार प्राप्त हों | पर मानवीय जीवन के संबंध तो विज्ञान पर आधारित हों -- उसी में मानवीय जीवन का सृजन है | ......
आचार्य श्री अपने जीवन क्रम में -- क्षण-क्षण अपने जीवन में जाग्रत हैं | सच में जो जीवन है -- वह किसी को जानना हो तो -- जो अलौकिकता और समग्रता आचार्य श्री में दिखाई देती है --- उसी को जानने से जीवन में एक अभिनव दृष्टि मिलती है | अन्यथा सब कुछ अपने में सोया हुआ, यांत्रिक और मृत चलता रहता है | कुछ भी जीवन उसमें परिलक्षित नहीं होता है | जीवन की विशालता को जानना हो तो जो क्षणिक जीवन का अस्तित्व है , उसमें हो आना होता है | अन्यथा, जीवन का बँधा हुआ क्रम. जो केवल यांत्रिक है -- उसमें सारा जगत का आयोजन चलता रहता है | उसमें निरस्ता है | जीवन तो अनंत बहता प्रवाह है -- उसमें हो आना ही वास्तविकता है | इन तथ्यों को केवल इस कारण लिखा कि आचार्य श्री जितना भी व्यक्त करते हैं, उसमें जीवन की अभिव्यक्ति जितनी असीम स्त्रोतों से अभिनव रूप से होती है -- उसमें एक जागृति और व्यक्ति में असीम चेतना का बोध करा देने की क्षमता होती है -- और जीवन अपने में पूरा हो जाता है | यह क्रांतिकारी घटना वास्तविक
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जीवन से व्यक्ति को संबंधित करती है | ...
प्रसंग चाहे कोई भी हो -- केंद्रीय तत्व चर्चा का व्यक्ति को आत्म-बोध करा देना है | कहा प्रसंग में प्रश्न के रूप में " व्यक्ति का मन चंचल है, वह भटकता रहता है, कभी भी शांत नहीं होता है | "
कहा आचार्य श्री ने : यह ठीक है | लेकिन आपको जानना है कि मन की यह बड़ी कृपा है कि जब तक उसे योग्य स्थान नहीं मिलता है -- वह बैठता ही नहीं है | यदि मन कहीं भी शांत और स्थिर हो जाता तो -- फिर वह किसी भी तुच्छ में स्थिर हो जाता -- धन में, यश में, मान-सम्मान में | लेकिन मन जब तक प्रभु-चेतना से संयुक्त नहीं होता है -- वह रुकता ही नहीं है | यह तो विशेष कृपा है उसकी कि वह श्रेष्ठतम क्षेत्र में -- आनंद तथा शांति में प्रतिष्ठित होता है | ....
९-१०-६२ दोपहर
[ यह प्रसंग - स्टेट बॅंक चान्दा के एजेंट और केशियर महोदय के समक्ष - अप्पलवार जी के साथ -- उठा ]
पूछा यशोदाबाई ने : " सम्मोहन और ध्यान में क्या भेद है | "
सम्मोहन का उपयोग बताते हुए आचार्य श्री ने कहा : सम्मोहन
१. मन की शक्तियों को जगाने में |
२. बीमारी ठीक करने में
३. मन को ठीक करने में|
एवं ४. मन के बाहर जाने में
सहायक है | इसका उपयोग यदि उचित न हुआ तो -- इससे लोग सिद्धियाँ प्राप्त करके -- जीवन में अपनी वासना पूर्ति किया करते हैं | लेकिन यह सम्मोहन का ग़लत उपयोग हैं - लेकिन सामान्यतः यही प्रचलित है | मैं सम्मोहन का उपयोग केवल मन के बाहर जाने में करता हूँ -- और जैसे ही हम मन के बाहर जाते हैं कि व्यक्ति अपने को ध्यान में पाता हैं |
फिर सम्मोहन से हम मन के साथ दमन नहीं करते हैं | संकल्प में हम मन का दमन करते हैं, और परिणाम में पाते हैं कि कभी भी मन के उभार से सारा संकल्प टूट जाता है | इससे संकल्प से कोई भी
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व्रत पूर्ण नहीं होता है | वरन मन को शांति से बिना किसी विरोध की स्थिति से -- ठीक से सुझाव दिए जायें तो सारा कुछ अपने से पूर्ण हो जाता है | सरलता से सुझाव के परिणाम -- जितने प्रभावशाली होते हैं -- संकल्प के होने की बात ही नहीं होती है |
संकल्प करके आप सुबह उठने का विचार करें -- तो आपका विरोधी मन आपको -- उठने से रोक देगा | लेकिन सहज आप अपने मन को सुझाव दें कि " सुबह ठीक ४ बजे नींद खुल जाने को है " तो सुझाव काम करेगा - और आपकी नींद सुबह आसानी से खुल जायेगी | माँ-साब ने कहा : रजनीश ' श्रद्धा और सम्मोहन में क्या भेद है ?'
मन जिन विचारों में हुआ करता है, और जब कभी उसे उस तरह के विचारों को सुनने का संयोग आता है -- तो वह उसके प्रति श्रद्धा से भर जाता है | श्रद्धा में आकर्षण एक ओर से होता है | प्रेम में आकर्षण दोनो ओर से होता है | जैसा कि रामकृष्ण और विवेकानंद के साथ हुआ था | जैसे ही रामकृष्ण
नरेंद्र ( विवेकानंद का बचपन का नाम ) का नाम लेते कि बेहोशी में समाधिस्थ हो जाते | एसा ही खिंचाव - विवेकानंद को हुआ था | लेकिन बाद विवेकानंद ने अन्य लोगों को खींचना चाहा -- पर एसा नहीं हुआ | विवेकानंद उन केंद्रों पर नहीं थे -- जहाँ से खींचाव होता है | ...... वास्तव में रामकृष्ण की अवस्था मूर्छित समाधि की परिपूर्ण मुक्त अवस्था नहीं है | मन में -- वापिस आते ही विकलता बनी रहती थी | लेकिन बुद्ध जैसे और उनकी साधना में समाधि तक जाने वाले -- सहज समाधि में होते हैं | कहीं भी कोई बैचेनी और घबड़ाहट में वे नहीं हैं | परिपूर्ण जागृति है | इससे ही बुद्ध के प्रति आपका आकर्षण हो -- श्रद्धा हो -- लेकिन उनकी करुणा आप पर रहेगी | यह प्रेम और करुणा का भेद होना आवश्यक है -- तभी स्थिति स्पष्ट होगी |
लेकिन किसी भी व्यक्ति का नाम लेकर तो समाधि पर चर्चा की ही नहीं जा सकती है -- इस कारण ही मैं केवल ' शुद्ध समाधि ' पर ही बात करना उचित समझता हूँ | कारण है कि नाम
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के साथ हमारा मोह संयुक्त हो जाता है -- और तब फिर बात हमें दुखकर हो जाती है | ....
९-१०-६२ रात्रि
एक और पारख जी ने प्रश्न किया था ' ग़लत यदि कुछ हो -- तो उसे तो न करना ही उचित है -- यदि सही अभी न किया जाये -- तो -? '
पारख जी, इस संबंध में आपको जानना होगा कि आपको यदि कुछ ग़लत दिखता है तो उसको छोड़ना नहीं पड़ेगा -- वह तो अपने से छूट जायेगा -- ग़लत दिखना ही इस तथ्य को बताता है कि उसके पूर्व आपको सही दिख आया है | इससे यह तो असंभव है कि मुझे यह जान पड़े कि यह रास्ता स्टेशन ले जाता है -- और में ग़लत पर चलता चलूं | मेरा जानना है कि ग़लत का ठीक ग़लत दिख आना -- व्यक्ति को अपने से सही रास्ते पर ला देता है | सम्यक ज्ञान ही सम्यक आचरण है | ठीक ज्ञान हो तो अपने से ठीक रास्ते पर व्यक्ति होता है |
मैने, आपको पिछले समय एक कहानी कही
है -- हीरों की व्यर्थता का दिख आना -- और उनका कचरे में फेंक देना | .....
विनोबा जी कहते हैं कि : ' आज ज्ञान बहुत बढ़ा है - लेकिन वैसा आचरण नहीं है | ' यह भ्रांत है | ठीक ज्ञान हो तो अपने से वह आचरण में आता है | ठीक ही ज्ञान न हो तो बात और है | ... आज हमारे पास केवल सूचनाएँ हैं -- जो पढ़के, सुनके या स्मृतियों में संचित की हुई हैं -- लेकिन वह सब हमारे ज्ञान का अंग नहीं हो जाता है | आज हमारे पास केवल सूचनाएँ हैं -- और सूचनाएँ एकत्र करने के रास्ते इतने अधिक बढ़ गये हैं कि कोई भी सूचना इकट्ठी करके इस भ्रम में पड़ जाता है कि वह उन्हें जानता भी है | सूचना और ज्ञान में इस कारण ही - एक बड़ा अंतर है | जब तक जो भी हमारे मस्तिष्क में है -- उसे अनुभूत न किया जाय तब तक वह हमारे ज्ञान का अंग नहीं बनता है |
इसी प्रसंग पर आचार्य श्री ने अन्य समयों में भी चर्चा की और कहा : मनुष्य की
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ही ध्यान है | ध्यान में हम कुछ करते नहीं हैं -- सब करने के बाहर हो जाते हैं | इससे ही -- ध्यान में पाया जाता है कि कितना सरल है -- प्रभु में हो आना | मेरा जानना है कि प्रभु में हो आने के लिए -- बहुत समय नहीं लगता है -- क्योंकि वहाँ कहीं चढ़ना नहीं है -- वरन केवल छलाँग मात्र लगाना होता है -- और छलाँग जैसे ही हमने लगाई कि हम ' आकर्षण-शक्ति' से खींच किए जाते हैं | शेष सब अपने से हो जाता है | मेरी प्रतीति है, मेरा देखना है कि ' प्रभु में हो आने के लिए सभी पात्र हैं -- और प्रभु को पाना हो तो सबके लिए संभव है -- एकदम सरल है -- संसार के लिए अपात्रता संभव है -- और संसार को पाना कठिन भी है -- फिर आज तक कोई संसार को पा भी नहीं सका है |
[ इस चर्चा में १० की रात्रि का प्रसंग और साथ ही ९ की रात्रि का प्रसंग है -- लेकिन सतत धाराप्रवाह के असीम स्त्रोत में से केवल यह इतना ही है जितना सागर में से बूँद ]
एक नवयुवक थे | पढ़ा होगा -- और २० वर्ष यहाँ - वहाँ के कार्यों में लगाए थे - प्रभु को पाने की भी तीव्र आकांक्षा थी | लेकिन कुछ मिला नहीं था |
पूछा : ' साधु कितने प्रकार के होते हैं ? '
देखिए, जैसे स्वास्थ के कोई प्रकार नहीं होते हैं - केवल स्वास्थ होता है -- वैसे ही साधु तो बस साधु होता है | हाँ - अस्वास्थ्य के -- बीमारी के रूप में सैंकड़ों प्रकार हो सकते हैं -- वैसे ही असाधु के अनेक रूप हो सकते हैं |
प्रश्न : ' प्रभु को पाने के लिए -- भक्ति, ज्ञान या कोई कर्म-योग की बात करता है -- आप क्या कहते हैं ? '
इन सबसे चलके आज तक कोई प्रभु को पा नहीं सका है -- और न पा सकता है -- जो कहते हैं जिनने पा लिया है -- वे भ्रांत कहते हैं | ये तीनों तो प्रभु में हो आने पर -- सहज व्यवहार में उसकी श्रेष्ठतम अभिव्यक्तियाँ हैं | प्रभु चेतना में हो -- आए
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व्यक्ति से उसके सहज व्यवहार में - भक्ति, ज्ञान और कर्म की सहज क्रियाएँ घटित होती हैं -- और इस सबसे पृथक वह अपने में होता है | इससे -- मैं अभी आपसे जिस ध्यान के संबंध में बात किया -- केवल उसका भर आपको प्रयोग करना है -- और परिणाम में अपने से आपको सब स्पष्ट दिख आएगा |...
९-१०-६२ प्रभात
श्रीमती यशोदा जी के यहाँ सुबह के मनोरम वातावरण में एक गोष्ठी - राष्ट्र भाषा प्रचार समिति के अंतर्गत आयोजित थी | आचार्य श्री का परिचय दर्शन शास्त्री की तरह कराया गया |
अपनी चर्चा में आचार्य श्री ने व्यक्त किया : " आप सोचते होंगे कि मेरा संबंध दर्शन-शास्त्र से है, इस कारण मैं, ईश्वर की, आत्मा की या सृष्टि की चर्चा करूँगा | लेकिन ये सब -- चर्चा का विषय नहीं है | चर्चा से -- केवल सूचनाएँ पाकर आज तक कोई कहीं भी नहीं पहुँचा है | इससे ही जिन्होंने बहुत पढ़ लिया है, और अपने में बहुत सारी सूचनाएँ और विचार भर लिए हैं, उनका पहुँचना कहीं भी नहीं होता है | केवल एक भ्रम भर व्यक्ति को यह हो जाता है कि वह - जो कुछ पढ़के इकट्ठा किया है -- उसे जानता है | लेकिन मैं आपसे स्पष्ट कहूँ कि कभी भी आज तक किसी ने अपने विचारों से कुछ भी पाया नहीं है | विचार तो केवल हमारी मन की ज्ञात सीमाओं के भीतर है | इनसे जो तथ्य अभी अज्ञात है - उसे कोई
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कैसे जानेगा | जानने का मार्ग विचार नहीं है, विचार जब विसर्जित हो जाते और जब मन में कुछ भी नहीं बच रहता है -- तब ' जो है ' वह प्रगट हो जाता है | इससे ' जो है ' उसमें हो आने के लिए विचार बाधा हैं | आज जो भ्रम हैं -- उसमें सबसे बड़ा भ्रम यही है कि हम कुछ भी ईश्वर के संबंध में सुन लेते हैं -- तो सोचते हैं कि ' उसे ' हम जानते भी हैं |
पढ़ लेना, सुन लेना -- इस सबसे कोई ईश्वर के विषय में जान ही नहीं सकता है -- ईश्वर को किताबों से, उपदेशों से या पूर्व-धारणा से समझा नहीं जा सकता है | उसे तो केवल जब सब भीतर मौन हो जाता है -- तो ही जाना जाता है | इससे ही -- ईश्वर को खोजना नहीं है, ईश्वर में अपने को खोना (खो देना ) हैं और यह तब ही संभव हो सकता है, जब हम अपने को बिल्कुल मुक्त और खुला छोड़ देते हैं | तब जो भी घटित होता है -- उसमें होकर ही कुछ जाना जाता है |
विचार-शून्यता में हो आना -- मूलतः अपने भीतर के सत्य में हो आना है | विचार जब शांत होते हैं -- तब जो भी होता है -- उसमें होकर -- व्यक्ति अपने से आनंद, शांति और असीमता के बोध से भर आता है | ... केवल विचार शून्यता भर हमारे हाथ है --- शेष सब अपने से ' प्रसाद ' रूप में उपलब्ध होता है | ...
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१०-१०-६२ प्रभात
अप्पलवार जी का प्रश्न था : " सोने में और ध्यान की प्रक्रिया में क्या भेद है ? "
सोने में व्यक्ति अपने अचेतन से होकर मुश्किल से केवल ८-१० मिनिट के लिए विचारों की पार की अवस्था में - जिसे हम सुषुप्ति कहते हैं -- उसमें पहुँचता है | यह सुषुप्ति ध्यान की अवस्था ही है -- और व्यक्ति अपने केंद्र तक पहुँच पाता है | लेकिन यह बहुत स्वस्थ व्यक्ति को ८-१० मिनिट का समय मिल पाता है -- शेष तो इससे कम समय के लिए अपने केंद्र तक पहुँच पाते हैं | सोने के बाद जो आनंद का बोध होता है -- वह केवल इसी कारण से होता है | इससे ' योग ' को यह बात लगी कि जिस केंद्र से हम नींद में संयुक्त होते हैं -- उससे जाग्रति में ही क्यों न संयुक्त हुआ जाय और इस कारण ही योग के पास उस स्थिति में हो आने के लिए हमेशा से मार्ग उपलब्ध रहे हैं | इस स्थिति के लिए आचार्य श्री ने शरीर के ५ कोषों को चित्र की सहयता से स्पष्ट चित्रण किया और ठीक से स्थिति का वैज्ञानिक
विवेचन किया |
                          ”हूँ”
                          /\
                        /    \ ——-> Gravitational Area
               मैं हूँ   / (५)  \ ——> आनंदमय कोष
                     /---------\
                   /     (४)     \ ——> विज्ञानमय कोष
                 /---------------\
  चेतन <— /—1     |    2—\—> अचेतन
              /            |(३)        \ ——> मनोमय कोष
             /------------------------\
           /             (२)               \ ——> प्राणमय कोष
         /------------------------------\
       /                 (१)                   \ ——> अन्नमय कोष
     /______________________\
आपने कहा नींद में व्यक्ति अचेतन केंद्र से अपने केंद्र तक पहुँचता है | आपको जो मैं ध्यान के संबंध में प्रयोग दिया हूँ -- उससे हम अपनी चेतना के केंद्र तक -- चेतन से होकर पहुँचते हैं | पहीले मैं -- आपको शरीर के शिथिल होने का सुझाव देता हूँ, शरीर से चेतना पीछे हटती है -- तो बाद मैं स्वांस को धीमे होने का सुझाव देता हूँ और जब शरीर तथा स्वांस शांत होती है तो मन के विचार अपने से शांत होते हैं | सांस के धीमे होने का और विचारों के कम होने का गहरा संबंध है | बाद मैं आपको विचारों के विसर्जित होने का सुझाव देता हूँ और जैसे ही विचार विसर्जित होते हैं -- पाया जाता है कि हम शुद्ध चेतना में हो आए हैं -(Conciousness) इस चेतना की स्थिति में हो आने के बाद पाया जाता है कि हम आनंद में हो आए हैं -- आनंद हमें खींचता (Gravitational Area) है --इस स्थिति में भी "मैं हूँ " इसका बोध बना रहता
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है | इसके बाद फिर जब व्यक्ति गहरे ध्यान में होता है -- तो वह अपने केंद्र से संयुक्त हो जाता है | इस केंद्र में होने पर केवल " हूँ " इसका भर बोध रहता है | यह जीवन-मुक्त अवस्था है | इसमें हो आना ही जीवन की सार्थकता है | इस स्थिति में होकर ही जब व्यक्ति सहज में उस स्थिति को अपनी चेतना के अन्नमय कोष तक फैला लेता है -- और यह सब परिपूर्ण व्यक्ति जब ध्यान की अवस्था में हो आता है तो फिर वह लौटकर भी अपने को ध्यान में ही पाता है -- उसका सारा कुछ ध्यान में हो आता है | वह सहज समधी में हो आता है | इस स्थिति में ही उसकी सारी क्रियाएँ आनंदमय हो जाती हैं | तब --चलना, सांस लेना, विचार करना -- सब में प्रभु की अनुकंपा प्रसाद और आनंद हो आता है | एक एक क्षण आनंद से और कृतज्ञता से भर आता है | जीवन का अर्थ -- तब अपने से प्रगट होता है |
[ ध्यान की यह प्रक्रिया आपको शुद्ध चेतना में ला लेती
है -- आप अपनी चेतना के केंद्र से संयुक्त होकर -- उस विराट सत्ता में हो आते हैं जिसके हम एक अंग हैं -- इसमें हो आने के लिए ही मैं आपको ध्यान के प्रयोग से चेतना को पीछे केंद्र तक ले चलता हूँ - और हम उस केंद्र में होकर - जीवन के श्रेष्ठतम रहस्य को जान लेते हैं ]
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(पारख जी का ) प्रश्न था : ' अभीतक जो प्रचलित साधना धर्म की है - उसमें व्यक्ति को पहीले कुछ छोड़ने को कहा जाता है - बुरा छोड़कर भले पर आना और इसकी बढ़ती हुई सीमा पर हम मोक्ष को या स्वर्ग को पा लेते हैं | '
शुभ      ___________    अशुभ
अहिंसा   \   ______    /    हिंसा
सत्य        \  \          /  /     घृणा
ब्रह्मचर्य      \  \       /  /      वासना
                 \  \    /  /
                   \  \/  /
                    \    /
                      \/
                     मौत
अभी तक प्रचलित रूप से यही माना जाता रहा है कि व्यक्ति को अशुभ आचरण से शुद्ध आचरण की ओर आना चाहिए और इससे व्यक्ति धीरे-धीरे चेतना की श्रेष्ठ स्थिति में हो आता है | उसको स्वर्ग या मोक्ष प्राप्त हो जाता है | लेकिन यह भ्रांत है | इन दोनो में ही हम परिधि पर मन की सीमा के भीतर होते हैं | जैसे : भोग व्यक्ति के अहं की तृप्ति करता है -- वैसे ही उसे छोड़कर त्याग में जो आता है -- उसमें भी उसका मन बना रहता है | सारा शुभ आचरण व्यक्ति अपनी इच्छाओं का दामन करके करता है | मूलतः प्राणी मात्र अशुभ संस्कारों से बँधा है | इससे वह बचना चाहता है -- इस बचने के लिए वह अपनी इस्च्छाओं का दमन करना चाहता है | इस दमन के माध्यम से
वह सत्य को -- प्रभु को या मोक्ष को पाना चाहता है | लेकिन इससे कोई भी साधक आज तक अपने लक्ष्य को पा नहीं सका है | ज़्यादा से ज़्यादा -- इससे जो हुआ है वह यह है कि समाज में एक नैतिक व्यवस्था का आयोजन भर होता है | इसका केवल नैतिक मूल्य है | इसके अतिरिक्त और कुछ भी इसका आत्मिक जीवन से संबंध नहीं है | लेकिन यह जानना भी ज़रूरी है कि यह सारी नैतिकता केवल बाहर से लादी गई है -- कभी भी अवसर आने पर जब दमित वासनाएँ, इच्छाएँ -- अपना उभार लेती हैं -- तो फिर कोई शक्ति व्यक्ति की काम नहीं कर सकती हैं -- परिणाम में लाख-लाख लोग आत्मिक जीवन की खोज में निकलते हैं -- लेकिन पहुँचना कहीं भी नहीं हो पाता है -- और अनेक अवसरों पर हमारे नैतिक साधु - ग़लत कार्य करते देखे जाते हैं -- जिनकी उनसे कोई अपेक्षा नहीं थी |
फिर, जब आप कहते हैं कि हिंसा छोड़कर अहिंसा कीजिए - तो इसका क्या अर्थ होता है ?
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कि मैं हिंसा छोड़ता चलूं -- कम से कम करता जाऊ - लेकिन इस अहिंसा में हिंसा बनी हुई है | घृणा से जब मैं प्रेम की तरफ आता हूँ -- तो प्रेम में भी हमारी घृणा का अंश रहता ही है | इससे अशुभ को छोड़ शुभ पर आने वाले के पास तक अशुभ तो शेष थोड़ा-बहुत बच ही रहता है | क्योंकि जब तक मैं घृणा से प्रेम की ओर आना चाहता हूँ -- तब तक मैं घृणा इतनी कम करता चलूँगा -- कि वह ' प्रेम ' में परिवर्तित हो जाय -- लेकिन इस प्रेम में घृणा तो शेष है ही | इससे आज तक कोई भी अशुभ को छोड़कर पूर्णतः शुभ को नहीं पा सका है |
वास्तव में होता यह है कि जब कोई व्यक्ति चेतना के जीवन में उतर आता है -- और उसके जीवन से सारी की सारी व्यवहार में आंतरिक श्रेष्ठता -- मानवीय गुणों के रूप में प्रकट होती हैं | उसके जीवन से -- अपने से सत्य, अहिंसा, प्रेम और ब्रह्मचर्य का आचरण प्रगट होता है | इस आचरण
को जब सामान्य व्यक्ति देखता है -- तो उसे यह सब तो दिखाई देता है -- लेकिन उसके भीतर जो आंतरिक घटना घटित हो गई थी -- वह न दीख पड़ने के कारण भ्रांति हो जाती है | इससे कोई शुभ को साधके --- जीवन-मुक्त नहीं ही सकता है | स्वर्ग या मोक्ष का भी प्रश्न ही नहीं उठता है | इससे जीवन मुक्त अवस्था में हो आने के लिए - सारा शुभ और अशुभ के पार जो शुद्ध चेतना का जगत है उसमें हो आना होता है -- उसमें हो आते ही पाया जाता है कि सारा अशुभ विसर्जित हो गया है | अपने से आचरण में शुभ घटित होता है | चेतना की गहराई में पहुँचा हुआ व्यक्ति - अपने असीम आनंद के बोध में भरा होता है ( दुख निरोध अवस्था में ) -- और इसका प्रगटिकरण मानवीय जीवन में सहज श्रेष्ठ गुणों से होता है -- यह जीवन कम है |
बड़ा मज़ा यह है कि हमने स्वर्ग और मोक्ष को अपने मन के अनुसार कहीं - स्थान
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की सीमाओं में बाँध रखा है -- जबकि यह एकदम भ्रांत है | जैसे ही कोई व्यक्ति अपनी चेतना की मुक्त अवस्था में हो आता है ---उस बोध में उसके चित्त की जो स्थिति बनती है -- उसे स्वर्ग एवं मोक्ष को संज्ञा प्रदान की गई है |
[ इसी अवसर पर आचार्य श्री ने कहा : ' ध्यान से घटना भीतर पहुँचने की अपने से घट जाती है -- और कोई भी प्रवृत्ति का व्यक्ति -- मन के घेरे से बाहर हो आता है | ]
११-१०-६२ रात्रि
' आपकी जो साधना पद्धति है -- उसका क्या व्यावहारिक जीवन से संबंध है ? - यदि व्यक्ति निष्क्रिय हो गया तो बाह्य जगत में उसका क्या होगा ? ' प्रश्न था यशोदा बाई का |
आचार्य श्री ने कहा : ध्यान की घटना घटित हो जाने पर आप परिपूर्ण शांत अवस्था में चेतना की हो आते हैं | यह शांत मनःस्थिति शांत परिणाम बाहर भी अपने से लाती है | अभी हम मन के हिसाब से सोचते हैं | मस्तिष्क अशांत है | परिणाम में बाहर भी अशांति परिलक्षित होती है | हम मन के भरने के लिए समस्त सक्रियता का आयोजन करते हैं | सक्रियता और व्यस्तता आज के युग की बीमारी हो गई है | अभी सारा कुछ संगत - असंगत चलता होता है | कोई भी स्थिति में हम कुछ भी करते रहते हैं | सब कुछ ' अहं ' की पूर्ति का आयोजन चलता रहता है |
ध्यान की घटना हो जाने पर -- अपने भीतर आप परिपूर्ण शांत हो आते है -- और तब फिर आपसे व्यर्तता अपने से छूट जाती है |
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भीतर की शांत स्थिति परिणाम में भी शांति ही लाती है | व्यर्थता दिख आती है - उसे फिर छोड़ना नहीं होता है -- पाया जाता है कि वह तो अपने से छूट गई है | पूर्व जब आप अशांत थे, और इस अशांति के कारण ही आपके बाहर व्यर्थ की दौड़ बनी रहती थी -- जिससे आप तृप्ति की आकांक्षा किए थे -- लेकिन जब आप पाते हैं कि दौड़ पूरी अभी उतनी की ही उतनी बनी हुई है और कोई तृप्ति नहीं हुई है -- तो शांत होते ही व्यर्थ की दौड़ अपने से छूट जाती है | आपको कुछ भी छोड़ना नहीं होता है -- परिणाम में पाया जाता है कि वह तो छूट गया है |
नागार्जुन के पास एक रात चोर आया बाहर खड़ा वह साधु के सोने की प्रतीक्षा करता था -- जिस स्वर्ण कलश के लिए लेने वह आया था -- नागार्जुन ने उसे बाहर खिड़की से फेंक -- चोर के पास तक पहुँचा दिया | चोर आश्चर्य में था | सोचा बढ़िया आदमी है -- बोला : साधुजी, आप तो बहुत अजीब हैं -- आपने
तो मेरी चोरी ले जाने की इच्छा ही स्वर्ण कलश के प्रति समाप्त कर दी | नागार्जुन ने कहा : तुम कब तक प्रतीक्षा करते ? - यह पाप भी मैं भला क्यों लेता ? चोर बोला : अच्छा, मैं आपसे कुछ बात करना चाहता हूँ | मुझे भी क्या मुक्ति मिल सकती है -- लेकिन शर्त यह है कि चोरी भर छोड़ने को मत कहना | नागार्जुन ने कहा : वे असाधु होंगे जो कुछ भी छोड़ने को कहते हैं | मैं तो तुम्हें यह ध्यान की प्रक्रिया बताया हूँ, इसे करो - ७ दिन बाद आना -- क्या होता है ? चोर ने ध्यान किया - पाया कि वह इतना शांत हो आया है कि एक अंधेरी रात जब वह चोरी करने गया - तो उसके लिए चोरी संभव ही न हो सकी | वापिस आकर बोला : आपने तो बुरा किया - चोरी अपने से छूट गई | साधु बोला : यह तो स्वाभाविक था -- अब जो अच्छा लगे - करो |
ठीक चेतना की गहराई में तो आए व्यक्ति की सारी अशांति अपने से विसर्जित हो जाती है | अब कोई पूछे कि शांति का क्या उपयोग है? - तो उसे जानना है कि वह तो अपने में है --
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उसके संबंध में कुछ भी पूछना अतिप्रश्न है |
इस शुद्ध चेतना के जीवन में हो आने पर ही व्यक्ति परिपूर्ण होश के बीच कार्य करता है | अब इससे उसकी सक्रियता केवल अर्थ की है -- और इसका जिस सीमा तक स्थान है वहीं तक -- केवल जीवन साधन जुटाने के लिए -- इसके अतिरिक्त और कुछ व्यर्थ का शेष ही नहीं रहने पाता है | व्यर्थता अपने से विसर्जित हो जाती है | अब व्यर्थता छूट जाने को आप निष्क्रियता मानते हैं -- तो भ्रांति में हैं | अभी आपकी अनेक किस्म से व्यर्थता -- अपने मन को भरते रहने के लिए चला करती है | इसका अभी कोई स्मरण भी नहीं होता है | आप अपनी चेतना की परिपूर्ण गहराई की अवस्था में ही ठीक अर्थों में जो आवश्यक है -- उसके प्रति भर सक्रिय हुआ करते हैं |
भगवान बुद्ध अंतिम समय - शरीर छोड़ने को थे | उसके कुछ क्षण पूर्व सुबोध नाम का एक भिक्षु दीक्षित होने आया | पास ही बुद्ध का शिष्य आनंद खड़ा था | बोला : देर की, भगवान का निर्वाण
होने को है | इस आख़िरी क्षणों में दीक्षित होने आए हो ! बुद्ध ने सुना, तो बोले - रोको मत आनंद, सुबोध को आने दो --- सुबोध को बुद्ध ने दीक्षा दी और सुबोध ने जब कुछ और जानना चाहा - तो बुद्ध ने कहा : मेरे भिक्षुओं से जान लेना | यह है एक परिपूर्ण शांत चेतना के व्यक्ति की अंतिम समय तक होश के साथ सक्रियता | मेरा देखना है कि ध्यान से जीवन परिपूर्ण और उद्दात्त अपने से होता है -- उसे कारण नहीं होता है | ....
[ यह प्रश्न स्वभावतः सामान्य व्यक्ति को ध्यान में हो आने के पूर्व उठता ही है -- उत्तर तो आचार्य श्री ने दिया ही -- लेकिन इसे ध्यान की पूर्ण अवस्था उपलब्ध करने पर ही अनुभूत किया जा सकता है | ]
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चर्चा के मध्य प्रसंग उपस्थित आ रहा -- उसमें कहा गया :- ' सामान्यतः हम त्याग में कष्ट का अनुभव करते हैं | इससे ही हम कहते हैं कि भगवान महावीर, बुद्ध, ईसा बड़े त्यागी और तपस्वी थे | इसमें उनके प्रति हम त्याग में कष्ट के भाव को व्यक्त कर -- अपने आदर और सम्मान को व्यक्त करते हैं | लेकिन मेरा देखना है कि त्याग में, दुख जिसे होता है -- वह त्याग क्यों करेगा ? इसी से महावीर, बुद्ध, ईसा -- इनको मैं त्यागी नहीं मानता -- इन्होंने कुछ छोड़ा नहीं है | ये सब तो जिस आनंद, शांति और चेतना की गहराई की अवस्था में हो आए थे -- उस अवस्था में उनसे जो उनको व्यर्थ दिखा वह अपने से छूट गया -- उसे उन्हें छोड़ना नहीं पड़ा | यह त्याग तो उनके लिए आनंद की घटना थी | इसमें उनको दुख क्यों होता ?
यह ज़रूर है कि जिन्हें अभी चेतना की गहराई की अवस्था प्राप्त नहीं हुई है, और ऐसे व्यक्ति बाह्य आचरण को साधने के
लिए, बाहर ठीक महावीर, बुद्ध और ईसा जैसे दिखने का प्रयत्न करते हैं -- उनको छोड़ने में या त्यागने में दुख अवश्य होगा | इसका कारण है कि अभी उनके भीतर तो आकर्षण बना हुआ है -- लेकिन बाहर वे त्यागने में लगे रहते हैं -- इससे तनाव, द्वंद, दुख और व्यक्तित्व में विकृति आती है | अधिकांश व्यक्ति आपको इसी तरह के मिलेंगे |
मेरा देखना है कि त्याग तो सहज आनंद की घटना है | और जब भी किसी ने कुछ त्यागा है -- तो वह उसे छोड़ने नहीं गया था -- पाया था कि त्याग तो अपने से हो गया | लेकिन जब तक हम आनंद, शांति और चेतना की गहराई में नहीं हो आते --- तब तक यह अनुभव नहीं किया जा सकता है |
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चान्दा प्रवास में अनेक जीवन प्रेरक प्रसंग उपस्थित होते रहे -- और एक विशाल जीवन दृष्टि की अद्भुत ज्योति का संचार हुआ | प्रत्येक जीवन के अवसर पर सहज में जो सर्वप्रिय है -- और प्रासंगिक है -- उसे ही आचार्य श्री की दिव्य वाणी से सुना जाता है | सब कुछ परिपूर्ण है | चारों ओर जीवन दृष्टि है | मनो विनोद बड़े ही प्रिय ढंग से आचार्य श्री के माध्यम से व्यक्त होता है |
चान्दा से दिग्रस - एक दिवस का कार्यक्रम था | रह में यवतमाल - वहाँ के 2 सज्जनों से संपर्क में आने के लिए कार्यक्रम माँ-साब ने रखा | एक वृद्ध पंडित थे | पढ़ा था -- अनुभूति न थी | आपका कहना था कि पूर्व में ज्ञान होना आवश्यक है | तभी जीवन में आचरण आता है और आत्मा तक पहुँचना हो जाता है |
आचार्य श्री ने कहा : आत्मा को मानने और न मानने वाले दोनों ही बिना अनुभूति के निर्णय ले लेते हैं | इससे दोनों की धारणाएँ उस सत्य
के संबंध में भ्रमित हैं | जैसे-ही ' जो है ' उसे जान लिया जाता है -- तो अपने से मानना हो जाता है | पहीले तो बात जान लेने की है बाद मानना तो अपने से होता है | तब जो माना जायगा - वह ही केवल अर्थ का है | अभी तो सारा कुछ बिना अर्थ का है | बाद, पंडित जी को ध्यान की प्रक्रिया सुझाई और अपेक्षा की गई कि यदि वे करते है -- तो परिणाम एकदम ठीक आने को हैं | ..
दिग्रस - पूज्य श्री श्यामसुंदर जी शुक्ला, श्री भीकमचन्द जी कोठारी और श्री ईश्वरमल जी मेहता, श्री गांगजी भाई तथा अन्य वहाँ के सहयोगियों के आधार पर दो आम सभाएँ और एक छोटी गोष्ठी का आयोजन हुआ | यहाँ की लगभग ५० % संख्या सभाओं में उपस्थित थी - जो विलक्षण था | इतने प्रेम से आप सबने सुना कि अनेकों लोग ध्यान के लिए उत्सुक हो आए हैं | अब
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चान्दा, बुलढाणा, बंबई, जयपुर के साथ दिग्रस का भी नाम ध्यान के लिए उपयुक्त वातावरण के साथ तैयार हो रहा है - जो स्पष्ट सभी को विदित हुआ |
यहाँ आचार्य श्री ने जीवन और उसमें धर्म के वैज्ञानिक स्वरूप की प्रक्रिया का वर्णन किया | इतने सुलभ ढंग से कि मराठी बोलने वाले जो केवल हिन्दी समझते भर है -- उन्होंने भी ठीक से सुना | वहाँ के राजनैतिक व्यक्तियों ने यह अनुभव किया कि इससे तो अपने से भीतर से सारी कौमों में एकता आ सकती है और राष्ट्रीय हित में यह एक बड़ा कदम है | जो कार्य वर्षों एकता-एकता पर चिल्लाकर पूरा नहीं हो सका है -- और जो भी थोड़ा बहुत हुआ है वह केवल उपरी सीमाओं तक हुआ है -- वह ठीक से वास्तविक अर्थों में आचार्य श्री की जीवन-दृष्टि से, अपने से हो जाता है |
दिग्रस में दो सार्वजनिक सभाएँ और एक छोटी गोष्ठी आयोजित हुई थी | इतनी प्रभावशाली
सभाएँ - ग्रामीण भाइयों के बीच हुई -- इससे ग्रामीण भाइयों को भी आचार्य श्री की दिव्य वाणी का लाभ मिल सकेगा -- यह सुनिश्चित हो गया |
कहा था आपने : जीवन आज विषाक्त हो गया है | इस स्थिति में जो भी प्रचलित है - वह व्यक्ति को सुलझाता नहीं है, वरन उलझा देता है | कितना व्यर्थ का प्रचलित है - जो कहीं भी नहीं पहुँचाता है | एक अंगूर की बेल ने संसार की दुर्दशा देख, बढ़ने से अपने को रोक लेना चाहा | लेकिन बढ़त रुकने को नहीं थी -- वह तो तिरछी बढ़ने लगी | विकृति उसके बढ़ने में आ गई | यह आश्चर्यजनक उदाहरण देते हुए आपने कहा : विकास को रोका नहीं जा सकता है, वह तो प्रति क्षण है | जो दिशा हम देते हैं, उसमें वह होता जाता है |
अपने प्रतिभापूर्व व्यक्तित्व, सचेत दमकता हुआ मुख, मौलिक और ओजस्वी वाणी, अखंड धारा प्रवाह में सुलभ कहानियों के आधार पर आप जब बोलते हैं - तो समस्त श्रोतागण आनंद-विभोर हो आते हैं |
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कैसे कोई व्यक्ति चेतना की गहराइयों में प्रवेश करे, आनंद, शांति और सौंदर्य में हो आए -- इस सब पर आचार्य श्री ने व्यावहारिक चर्चा दी | इतना सुलभ आपने मार्ग-दर्शन दिया है कि हर व्यक्ति उस साधना-पद्धति से अपने स्वरूप को जान लेता है | इस अंधेरे युग में - एक प्रखर ज्योति को सहज में आलोकिय कर देना -- आचार्या श्री की अपनी तेजस्विता है | मनुष्य कौन हैं ? क्या प्रायोजन होने का हैं ? इन शाश्वत प्रश्नों का हल, आपकी सरल और हृदय को छूने वाली वाणी में अपने से प्रत्येक व्यक्ति को मिल जाता है | कुछ भी हमसे खोया नहीं है, केवल हम ही उससे विमुख हो गये हैं, जैसे ही मुँह घुमाया कि सारा कुछ अपने से मिल आता है -- इस गहरे आश्वासन से प्रत्येक मानवात्मा गहरे आनंद से और आत्म-विश्वास तथा नयी प्रेरणा से भर आती है --- साथ ही एक एसे बिंदु पर हम खड़े हो आते हैं जहाँ से अपने बाह्य जगत की निस्सारता और आंतरिक जगत में हो आने के आनंद की लहरें उठ खड़ी होती हैं |
श्री शुक्ला जी ने परिचय देते हुए कहा था : ' आचार्य रजनीश जी का कहना है -
' आनंद को पा लेना, प्रत्येक व्यक्ति का जन्मसिद्ध अधिकार है - कोई भी इससे वंचित नहीं रह सकता | " कैसे - इस स्थिति में व्यक्ति हो आए - इसकी आपकी वैज्ञानिक विधि है - योग की - जिसके माध्यम से सुलभता से प्रत्येक मानवात्मा अपने आनंद, शांति और प्रभु चेतना के केंद्र से संयुक्त हो जाता है |
गोष्ठी में पूछा गया : ' गुरु तो आत्म ज्ञान में आवश्यक है, बिना गुरु के तो कुछ भी संभव नहीं है ? '
मेरा देखना है कि जैसे ही आत्मज्ञान होता है, सारा भ्रम अपने से टूट जाता है | गुरु तो बाधा है | उससे कोई व्यक्ति केवल बँध सकता है - मुक्त नहीं हो सकता है | उस स्थिति में खड़े होकर ही यह जाना जाता है | पूर्व तक केवल अहं की पूजा है | जो सदगुरु रहे हैं, उन्होंने जैसे आत्मा के जगत के दर्शन किये हैं -- उसे ठीक वैसा ही बता देने में -- वे कभी भी बीच में नहीं आए | न ही इसमें उनकी कुछ कृपा रही है | जो सहज था, सो
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उनने किया | गुरु होने का भार लिया ही नहीं | उसका कोई अर्थ ही शेष नहीं रह जाता है | केवल अपने ' अहं ' के भाव को भर ' गुरु ' के अंदर तृप्त किया जाता है - जो होता आया है | लेकिन आज तक कोई भी सदगुरु - ने इस तरह का दावा नहीं किया है -- हो ही नहीं सकता -- तो कैसे किया जा सकता है और जो करते हैं - वे भ्रांत हैं |
दूसरा प्रश्न था : ' क्या पुनर्जन्म होता है, इसका क्या आधार है ? '
चर्चा में जो भी व्यक्त किया जाय - जब तक आप भी वैसी स्थिति का बोध न किए हों - कोई अर्थ नहीं रखता है | मैं कोई भी बात एसी कहना पसंद नहीं करता जो आप स्वयं न जान सकें | ध्यान के यौगिक मार्ग हैं - जब आपको चेतना की गहराई में ले जाकर यह आपको दिखाया जा सकता है कि आप किन जन्मों से होकर आ रहे हैं | विज्ञान का मानना है और मेरा भी प्रयोग सिद्ध अनुभव है कि कोई भी स्मृति मरती
नहीं है | इन स्मृतियों को लौटाया जाकर आप अपने से परिचित हो सकते हैं |
दिग्रस एक ही दिवस के प्रवास में - सुखद और मीठा आयोजन हुआ और अनेक शिक्षित व्यक्ति तथा नागरिकगण ध्यान के लिए उत्सुक हो आए | फिर कभी दिग्रस पधारने की स्वीकृति के साथ आप सबने आचार्य श्री को - भावभीनी विदा दी |
पश्चात नागपुर आचार्य श्री पधारे | यहाँ श्री पूनंचंद जी रांका - प्रसिद्ध समाज सेवी के घर रुकना हुआ | आपके यहाँ बहुत ही महत्व की और करुणाजनक घटना घटित हुई | आचार्य श्री का मिलना यहाँ महात्मा भगवानदीन से हुआ |
महात्मा जी से 8 वर्षों पूर्व आचार्य श्री का मिलना हुआ था - अब एक लंबे अरसे से आप अस्वस्थ हैं | चर्चा प्रारंभ हुई तो बोले :
मैने, सब कर लिया है -- और पाया है कि मुझे तो वह सब उपलब्ध नहीं हुआ है - जो कुछ
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शास्त्रों में उल्लखित है | इससे मैं कहता हूँ कि ' सत्य ' कुछ भी नहीं है - सब ' भ्रम ' है |
आचार्य श्री ने कहा : एसा आप सोंच सकते हैं | क्योंकि आप कभी भी सोचने के बाहर हो ही नहीं पाये है | जब तक विचार हैं - तब तक कुछ भी बोध होना संभव नहीं है | विचारों को शांत - साक्षी होकर आप देखेंगे और पायेंगे कि जिसे पूरे जीवन भर न जान सका - वह तो क्षण भर में ही घटित हो गया है |
बाकी आपकी समस्त रचना को देखा है उसमें मुझे केवल प्रतिक्रिया और क्रुद्धता नज़र आई है - यह मुझे ८ वर्षों पूर्व ही आपसे मिलके लगा था और तब ही से मेरा मन आपको सीधा कहने को था | इस सबसे कुछ मन के पर जगत में कोई उतर नहीं सका है |
बीच-बीच महात्माजी केवल तर्क युक्त प्रसंग उपस्थित करते रहे और नाराजी में भरकर बोल उठते थे | एक प्रसंग में तो बोले
जैसा आप कहते हैं - कृष्णमूर्ति भी वैसा ही कहते हैं | मैने कृष्णमूर्ति का अनुवाद किया है | लेकिन पाया है कि वैसा कहीं भी नहीं है | केवल मूर्खता है | और एक बात कि दुनियाँ में चमत्कार नहीं होते - और इस संबंध में आपने Co-incidental घटनाओं का उल्लेख दिया .. और बोले कि बस सब कुछ संयोगिक होता है |
स्वामी राम - एक समय ट्रेन से यात्रा करने को थे | अभी आप बस्ती में ही थे कि ट्रेन जाने को थी | साथ लोगों ने कहा - पहुँचते-पहुँचते तो ट्रेन जा चूकेगी | स्वामी राम चुप थे |
ट्रेन जा चुकी थी | थोड़े देर आगे जाकर कुछ खराबी होने से स्टेशन तक लौटी | स्वामी राम जब पहुँचे तो ट्रेन लौटती थी | साथ गए लोग और अन्य जनों ने कहा : ' चमत्कार हो गया | ट्रेन वापिस लौटी |' स्वामी राम ने कहा : केवल संयोग है | ‘ Coincidental ’.
आचार्य श्री ने कहा : चमत्कारों से मेरा कोई प्रायोजन नहीं है | मैने तो आपको शुद्ध विज्ञान
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की चर्चा की है -प्रयोग करते ही आप अपने से जानेंगे | ...
[ अब जीवन में पग रखने वाले नव-युवकों और अन्य सभी के समक्ष विचारणीय हो आता है कि जीवन के ७० वर्ष पर कर जाने के बाद जीर्ण-शीर्ण अवस्था में बीमारी के कारण हो आने से - वैसे ही महात्मा जी दया के पात्र हो आए हैं | जीवन में जिसे बहुत क्रांतिकारी और मूल्य का समझकर किया था -- उससे कुछ हुआ नहीं और इस स्थिति में सारे संबंध विलग हो गये - इस सारी स्थिति में मन की पूरी जकड़ - एक महात्मा का जीवन इस तरह का होगा - तो फिर इससे अधिक करुणा जनक क्या हो सकता है ! -- कौन कल्पना कर सकता है ? ]
पश्चात भी श्री पूनम चन्द जी रांका से आचार्य श्री की चर्चा हुई |
रांका जी - बड़े लोगों के साथ रह चुके हैं | मौन भी ७२ दिन का रख चुके हैं, उपवास
भी लंबे समय तक के लिए हैं -- सुबह से किसी भी स्थान पर जाकर सफाई कर आते हैं -- साधारण गृहस्थ थे अभी तक -- ३ अक्तूबर को ही श्रीमती धनवती देवी रांका - ( धर्म पत्नी ) का देहांत हुआ -- इससके अतिरिक्त हमेशा स्पष्टवादी और साफ कहने वालों में से हैं -- सामान्य झोपड़ा बनाया हुआ है -- उसी में कोई भी कभी तक रह सकता है | सब हाथ से करने के साधन रखे हैं -- अनाज पीसिये, पानी भारिए, खाना पकाईए और खाइए -- तथा प्रार्थना एवम् सूत कातते हुए -- आप रांका जी की झोपड़ी में रहे आइए -- कोई छुआछूत की बात ही नहीं है |
आपने अपने जीवन-क्रम को पूरी तरह से बनाया और पाया कि उन्होंने विनोबा जी के साथ भी रहा है, उनसे मौन रहकर - ध्यान भी सीखा | लेकिन परिणाम में शांत व्यक्तित्व का निर्माण नहीं हुआ है |
आचार्य श्री ने चर्चा के मध्य कहा : मैं, समझा हूँ -- आपकी स्थिति को | मेरा देखना है कि प्रयत्न से रांका जी कुछ न होगा | हमारी भूल प्रयत्न
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से प्रारम्भ होती है | जैसे ही कुछ करना शुरू किया कि जीवन में एकदम ग़लत होना शुरू हो जाता है | फिर किन दिशाओं में हम निकलते चले जाएँगे, यह मुश्किल हो जाता है | जीवन की उलझन हो जाती है | आप -- कुछ समय के लिए सारा कुछ चलने दें -- केवल साक्षी बोध बनाए रखें -- तो जीवन में अपने से सारा कुछ आ रहेगा |
विस्तार में आचार्य श्री ने चर्चा दी, सांझ अभ्यन्कर भवन, नागपुर में भी आचार्य श्री की चर्चा का आयोजन किया गया था | इसमें संयोग से श्री मूलचंद जी देशलहरा एवं श्री भीकमचन्द जी देशलहरा का आना संभव हो सका | आप बहुत उत्सुक थे मिलकर कार्यक्रम में भाग लेने के लिए -- सो सौभाग्य था कि यह सब संभव हो पाया | गोष्ठी में -- नागपुर के प्रतिष्ठित जन भी थे -- जिन्होंने भाग लिया |
केवल प्रार्थन कर लेना, शब्दों से, भ्रांत हैं | इससे चेतना की गहराई संभव नहीं हैं | हम सारे लोग बड़े - शुभ कार्य करते हैं, अन्य आयोजन करते हैं,
पर जिस केंद्रीय तत्व के लिए यह सब है, उससे इसका कोई अर्थ नहीं है | उसके लिए तो सारा करना -- छोड़ के चलना होता है | ...
इस प्रसंग पर विस्तार से चर्चा -- आचार्य श्री ने दी | सारे उपस्थित जन पूरी तरह से लाभान्वित हुए | ... रांका जी -- जो कि कभी सहमत होने को नहीं थे -- उनने अपने को समर्पित पाया | पूज्य माँ-साब - भी आश्चर्य चकित थी कि यह कैसे हुआ ?