Arvind Jain Notebooks, Vol 5

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author
Arvind Kumar Jain
year
Jan - Jun 1963
notes
A notebook, hardbound, with 254 pages.
The final book in a series of five.
see also
Notebooks Timeline Extraction
Arvind Jain Notebooks, Vol 1
Arvind Jain Notebooks, Vol 2
Arvind Jain Notebooks, Vol 3
Arvind Jain Notebooks, Vol 4


page no
original photo & enhanced photos
Hindi transcript
Dust cover (added later)
(5)
250 pages (actually 254 shown below)
Notes on Osho's Life Analysis
over Different Subjects
Meetings with Different
Personalities & Group
Discussion
_________________
Jan 63 to June 63
_________________


Original hardcover back and front
Page 1
( जनवरी का प्रथम पक्ष १९६३ ) (First Fortnight of January 1963)
एक जगत का अपना क्रम है | उसकी अपनी व्यवस्था है | कोई उसके क्षेत्र से बाहर नहीं हो सकता | कुछ इतनी महालीला है | यह अनादि है |
कभी युग की अपनी देन होती है कि एक प्रकाशमय दीप से आलोक जगमगाता है -- और अनेक जीवन बंधन-मुक्त होते हैं | सूर्य उगता है - और तिमिर चला जाता है | जीवन का सत्य - अपने से अभिव्यक्त हो जाता है | यह भी अनोखा है | इसकी भी अपनी शाश्वत सत्ता है |
जीवन जब अपने में अमृत लिए प्रगट होता है - तो देखते बनता है | अन्यथा तो विषाक्त है | जिसे निकट में अमृत पान करने को मिलता है - उसके भी महा-भाग्य को क्या कहें ! जगत में एक जन्म-मरण का घना चक्कर है और इससे मुक्ति का कोई मार्ग न हो तो जीवन तो सबसे बड़ा महाकैद हो जायगा | मुक्ति है - इसी से जीवन का विष भी पी लिया जाता है | अन्यथा क्या होता? ... कौन जानता ?
Pages 2 - 3
लिखने को कितना कुछ बिखरा पड़ा है | ज्यों समेटने चलता हूँ - पाता हूँ कि उसके बिखरने का कोई अंत नहीं | वह तो बिखरा ही था - बिखेरने वाला मिलते है तो उसकी अमृत वर्षा होती हैं | यह दुर्लभ है |
इस दुर्लभता को भी व्यक्ति समझता नहीं है - और मन की अपनी अंधी राहों पर चलता चला जाता है | यही एक आदमी का सनातन सुख है | एक प्रकृति के द्वारा दी गई गहरी मूर्छा है |
अनेक जीवन के प्रसंग - अनेक व्यक्तिगण ले आते हैं | मुझे तो बहुत कम में उपस्थित रहने का अवसर मिला | जिनमें मिला - उसे मैं यहाँ उल्लखित करता हूँ |
मानव के सनातन प्रश्न रहे हैं :
१. ' ब्रह्मचर्य की साधना कैसे हो ? '
सारा मानव इतिहास इस सत्य पर खोज करता रहा है और जो आधुनिक शोधें - मनोविज्ञान की हुई हैं - उनसे बहुत क्रांतिकारी परिणाम
सामने आए हैं | ब्रह्मचर्य को साधने अनेक व्यक्ति चलते हैं - लेकिन शायद ही किसी को ब्रह्मचर्य उपलब्ध होता हो | जब तक उसके विज्ञान से परिचित न हुआ जाये - साधना हो ही नहीं सकती | आप सारा कुछ बाहर से साध लें - लेकिन उसके कोई परिणाम आने को नहीं हैं | बाह्य साधना औपचारिक हैं और उसका व्यक्तित्व के एक-निष्ठ होने में कोई सहयोग नहीं है | अनेक साधक मिलेंगे - जो भ्रांत जीवन में उलझ जाते हैं - और भीतर रस बना रहता है | एक विकृति चलती रहती है - और जीवन सौंदर्य को उपलब्ध नहीं होता |
ब्रह्मचर्य एक जीवन-विज्ञान है | इसके लिए - आंतरिक परिवर्तन आवश्यक है | जब तक कोई व्यक्ति समस्त जो भी वेग उठते हैं - उनके पार नहीं हो जाता - तब तक ब्रह्मचर्य उपलब्ध नहीं हो सकता है | यह एक गहरी शांत चेतना की अवस्था में ही
Pages 4 - 5
संभव है | भीतर चेतना की शांत गहराई - होती चली जाती है और बाहर व्यक्तित्व का सृजन होता चला जाता है |
कैसे यह चेतना की शांत - गहराई की अवस्था उपलब्ध हो - इसे जान लेने से परिणाम में ब्रह्मचर्य आता है | ऐसा मेरा देखना है |
मेरा देखना है कि ध्यान के प्रयोग से - व्यक्ति भीतर शांत चेतना की गहराई में उतरता चला जाता है | जब यह शांत शून्य स्थिति २४ घंटों में फैल जाती हैं - तो अपने से व्यक्ति एक असीम और अनंत आनंद की शांति के बीच - दिव्य जीवन को या ब्रह्म निष्ठ चेतना को उपलब्ध होता है |
बिना विज्ञान को उपलब्ध किए केवल एक भ्रांत दौड़ में उलझ जाना
केवल व्यर्थता लाता है | अनेक मधुर दांपत्य जीवन केवल इस कारण टूट जाते हैं कि ग़लत जीवन-साधना में व्यक्ति उलझ जाता है |
मेरा देखना - इसके पार है | जीवन में कुछ भी छोड़ने और पकड़ने जैसा नहीं है | केवल शांत होते चला जाना, अपने में मूल्य का है - और शेष सब अपने से होता है | फिर ठीक जीवन के घनेपन के बीच - व्यक्ति दूसरा हो जाता है | ... इससे ही बाद फिर कुछ भी बाधा नहीं बनता - अपने-अपने मूल्य में तथ्य रूप में सारा कुछ हो जाता है | जीवन एक सुलभ पहेली हो जाती है |
अन्यथा जीवन की भ्रांत धारणाएँ - व्यक्ति को खूब गहरा उलझा देती हैं और मन का खेल ठीक वैसा का वैसा ही बना रहता है | इसी सब पर एक दिवस कहा गया :
धर्म ने व्यक्ति को दो लाभ दिए हैं :
१. झूठा धार्मिक होने का अहं भी पूरा हो गया :
और २. सही धार्मिक होने से बचा लिया |
इस तरह भ्रांति पूर्ण जीवन - का रहस्य है |
6 - 7
इस वैज्ञानिक विश्लेषण को आचार्य ने श्री राम दुबे को दिया - और कहा :
मैं कहीं भी विरोध में नहीं हूँ | जो ठीक लगे उसे करते चलो | केवा; जागरूकता बनाए रखना उससे ही तब फिर जो होगा - स्थायी होगा और जीवन परिवर्तित हो सकेगा | ज़ोर-ज़बरदस्ती से कुछ भी मन के साथ करने जैसे नहीं है |
२. 'क्या मांसाहार करना ग़लत है ? '
मांस खाना और न खाना उतना बड़ा प्रश्न नहीं है, जितना कि उस विज्ञान को जान लेना जिसमें से जीवन में अहिंसा और प्रेम घटित होता है | मेरा मांसाहार पर समझना और देखना - नैतिक नहीं है | यह कोई नैतिक बिंदु भी नहीं है | इस पर मेरा देखना भिन्न है | जैसे में देख पाता हूँ - उससे चेतना की एक विशिष्ट अवस्था में - सारे प्राणियों के प्रति गहरा प्रेम का बोध होता है - यह प्रेम का बोध ही - अहिंसा को प्रगट करता है | कैसे यह चेतना की विशिष्ट स्थिति को व्यक्ति जीवन में पा सकता है ? ठीक से इसका विज्ञान समझना ज़रूरी है | इसके अभाव में आप मांसाहार पर कितना भी विरोध करें और लोगों को समझाएँ - उससे कोई भी परिणाम जीवन में घटित होने को नहीं हैं | आज विश्‍व की आबादी का एक बड़ा हिस्सा - माँसाहार करता है - अनेक प्रयत्न समझाने के होते हैं लेकिन व्यर्थ जाते हैं | फिर - जो माँस नहीं खाते हैं - उनके न खाने में भी केवल संस्कार का भर भेद है - इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं | इनके द्वारा जो भी समझाया जाता है - वह घृणा से निकला होता है - और फलतः कोई भी परिणाम नहीं आते हैं |
एक बात उल्लेखनीय हैं कि इस युग में अब मांसाहार के विरोध में कोई बोलता है ,
8 - 9
तो उसका विरोध नहीं होता है और मांसाहार के समर्थन में दलीलें प्रस्तुत नहीं की जाती हैं | अभी पश्चिम में कुछ महान पुरुषों ने मांस लेने का विरोध किया और एक हवा का फैलना वहाँ भी प्रारंभ हुआ है | जार्ज बर्नार्ड शॉ ने लिखा कि ' मेरी सारी संस्कृति ईसा को ही श्रेष्ठतम कहती हैं - लेकिन सब तरह से विचार करने के बाद भी - मैं ईसा को बुद्ध के उपर नहीं रख पाता | ' इन अर्थों में अब एक वातावरण निर्मित हो रहा है -- जिससे कि पूरब की संस्कृति को फैलने का अवसर मिले | यहाँ यह उल्लेखनीय हैं कि - बर्नार्ड शॉ ने अपनी अस्वस्थ अवस्था में डाक्टरों की सलाह पर गो-मांस लेने की अस्वीकृति दी - जिससे कि बर्नार्ड शॉ को बचाया जा सकता था | सारे मित्रों ने विनोद किया लेकिन बर्नार्ड शॉ ने कहा : ' किसी प्राणी की मृत्यु से - मैं स्वयं मर जाना पसंद करूँगा | '
विचारशील वर्ग - माँस न खाने से प्रभावित हुआ है | लेकिन अभी तक उस विज्ञान से मानवीयता पूरी तरह से परिचित नहीं हुई हैं जिससे कि व्यक्ति उस स्थिति में पहुँच जाता है, जहाँ से जीवन में गहरी क्रांति घटित
होती है और व्यक्ति माँस न खाने की स्थिति में अपने से हो आता है | समस्त प्राणियों के प्रति एक गहरा प्रेम का बोध होता है जिससे कि जीवन में अहिंसा प्रगट होती है |
इस विज्ञान के अभाव में आप लाख नैतिक शिक्षण दीजिए लेकिन परिणाम वही के वही बने रहते हैं | बड़ा मज़ा यह है कि नैतिक विचारक इस भ्रांति में रहते हैं कि उनका नैतिक शिक्षण तो ठीक है लेकिन जो उसे मानके चलते हैं - वे ही ग़लत हैं | इसमें बुनियादी भूल है | कोई नैतिक विचार व्यक्ति को - ' प्रभु चेतना ' का दर्शन नहीं करा सकता और जब तक व्यक्ति प्रभु चेतना से संयुक्त न हो रहे, तब तक उसके जीवन में क्रांति घटित नहीं होती हैं | आज तक नैतिक विचार आपके सामने रहे हैं, क्या उनका परिणाम आया है - इससे आप भली-भाँति अवगत हैं |
मेरा देखना इस कारण भिन्न है | मेरा देखना है कि ' ध्यान ' की साधना से
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… जीवन में एक गहरे आंतरिक स्त्रोत से व्यक्ति संबधित होता है – और अनंत शक्ति तथा आनंद के बोध से भर जाता है। वह संपूर्ण जगत की सत्ता से एक हो जाता है। तब फिर जगत में जो एक प्रभु की अभिव्यक्ति से सृजनात्मक बोध से भर जाता है – उससे ही जीवन में अहिंसा प्रगट होती है।
इससे कोई अहिंसा को साधके – अहिंसक नहीं हो सकाता है।... भीतर क्रांति घटित हो जाती है – उससे व्यक्ति के जीवन में हिंसा गिर जाती है – और वह अहिंसक हो जाता है।....
जीवन अपने में न कुछ है, इस कारण उसकी विभिन्न स्थितियाँ दीखने में आती हैं | आदमी है कि अपने को इस खेल में पूर्णतः उलझा लेता है और सोचता है कि वह एक वृहत कार्य में लगा है | लेकिन जब जीवन शक्ति क्षीण हो जाती है और सारे बंधन टूट जाते हैं - तो अपनी एकांत अवस्था में वह - दुखी और संतप्त होता है और उसे लगता है कि सारे जीवन भर एक व्यर्थ के खेल में उलझा था - जिसका कोई मूल्य न था | जिंदगी जब जाती लगती है तो यह प्रतीति और भी घनी होती जाती है | यह जीवन का अनंत आवर्त है - जो पुनः पुनः दोहराता है ओर आदमी गहरी मूर्छा में उलझा रहता है | नित प्रति जीवन के समक्ष सारे तथ्य व्यक्त होते हैं - लेकिन एक गहरी मूर्छा में व्यक्ति बना रहता है | देखता है -- जन्म को संसारिक विषाद और तनाव को, स्वार्थ की निकृष्ट भावनाओं को शरीर के गलन और सड़न को, मरण और जरा को - लेकिन गहरा नशा प्रकृति का है - जो उसे सुलाए रखने में सक्षम है | यह बहुत सूक्ष्म भी जो है |
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इन दिवसों में अनेक जन मिलन हेतु आए | बड़ा सुलभ होता है आचार्य श्री से मिलन | प्यास भी तो गहरी होती है -- आदमी की | उस प्यास को जब आदमी तृप्त होता पाता है - तो फिर गहरा आकर्षण उसका होता है |
अनेक प्रश्न होते हैं - आगंतुकों के | इनमें से जो भी प्रश्न होते हैं - कुछ तो सहज उत्सुकतावश पूछे गये होते हैं, कुछ साधना के बीच उठ आई स्थितियों से संबंधित होते हैं और कुछ जीवन के मूल परिवर्तन से संबंधित होते हैं |
पूछा गया : " क्या ' ध्यान ' की साधना से जीवन् में संसारिक कार्य रुक जाते हैं ? "
आचार्य श्री ने कहा : मन हमें रोकता है - इसी कारण वह कहता है : बड़ा जटिल है - संभव नहीं है | लेकिन यह केवल मन की सीमा है और कहीं वह टूट न जाए - इससे जहाँ वह घेरा बनाकर खड़ा है, वहीं खड़ा रहना चाहता है | ' ध्यान ' के गहरे प्रयोगों से जीवन में अपरिसीम शांति और आनंद का उदय होता है | पहिली बार जाना जाता है कि ' आनंद और शांति क्या है ? ' श्री अरविंद ने लिखा है ' जब जाना पहिली बार कि
आनंद क्या है तो अभी तक जिसे आनंद समझा था वह मृत हो आया और जिसे जीवन जाना था वह मृत्यु से भी बदतर हो आया | ' असीम आनंद में हो आना संभव है और वह ज़रा से यौगिक विज्ञान से संभव है | अन्यथा आप लाख प्रयास करें - आनंद और शांति को पा लेने के लिए, सब व्यर्थ होते है | बड़ा उलझा खेल प्रकृति का है | उसी में बंधन भी है और मुक्ति भी है | यह मानव के हाथ में है कि वह क्या चुनता है ? जिस दिशा को वह चुनेगा - उसी दिशा में उसके कदम बढ़ेंगे | इससे मेरा देखना है कि आप इस ओर हो आयें - फिर तो जीवन में अपने से विकास संभव होता है | इस ओर आएँ ही न, केवल उत्सुकता की हल्की झलक भर दिखाकर पार हो जाएँ - तो कोई परिणाम जीवन में आने को नहीं हैं | आपने पूछा संसारिक कार्यों को रुकने को, सो स्वाभाविक है | मेरा देखना है कि व्यर्थता जीवन से चली जाती है, जो भी आवश्यक है वह केवल होता चलता है और पूर्ण कुशलता से होता है | क्योंकि योगी कर्म कुशल हो जाता है |....
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श्री अचल जी पारख और उनके मित्र आ उपस्थित हैं | सारा जीवन क्रम निशा की गोद में खो आया है | दूर झिलमिल तारों का अपना सुंदर नृत्य हो रहा है | सब पूर्ण शांत और रात्रि की गहरी कालीमा में खो गया है |
शीत अपनी ठंडी हवाओं के साथ अपना परिचय दे रही है |
एक प्रसंग उठा था | आचार्य श्री ने कहा :
अभी मैं गुरुज्यिफ, एक काकेशीयन साधक, के संबंध में पढ़ता था | उसका साधना क्रम अनोखा था | ओगार्की ने लिखा कि हम १० जन थे | गुरुज्यिफ का पहला क्रम था : ‘Stop Exercise ' का | जिस अवस्था में ' रुकने ' ( Stop ) को कहा गया हो, उसी में रहना होता था | एक दिवस झील पार करते समय ' Stop ' किया गया | सभी खड़े हो गये | अचानक पानी बढ़ने लगा | धीरे-धीरे मेरे साथी निकल भागे | ओगर्की भर खड़ा रहा था | पानी नाक कान में भर गया | आख़िर ओगार्की को निकाला गया | वह बेहोश था | बाकी लोगों को गुरुज्यिफ ने विदा किया | बाद ओगर्की ने लिखा कि जब मैं होश में आया - तो उसी क्षण घटना घट गई थी | गुरुज्यिफ बोला : ' ठीक, ऐसे बहुत कम लोग आते हैं - ओगार्की | तुम मृत्यु को भी ले सकते हो तो मन के साथ तो प्रयोग एकदम संभव ही हैं | '
ठीक, मेरा भी जानना एसा ही है | १०० में से
९९ लोगों को तो समझाना केवल उनकी उत्सुकता को भर तृप्त करना है, इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं | कितना भागा हुआ जीवन का क्रम हमारा चलता रहता है | सब कुछ भागा जा रहा है, एक क्षण को भी स्थिर नहीं है | .... कुछ बहुत अजीब सा हैं |
एक और प्रसंग के अंतर्गत आचार्य श्री कह रहे थे कि : एक आश्रम में गुरुज्यिफ के - २ वर्ष से लोग रह रहे थे | ओगार्की ने लिखा कि एक दिवस उससे कहा गया और सभी मित्रों से कि : २ दिन के भीतर आश्रम आप लोग खाली करके जाइए मुझे रहना होगा | - सबने जाना कि : अभी तो कोई आत्मिक उपलब्धि भी नहीं हुई फिर जाने की बात से तो एक अजीब स्थिति निर्मित हुई | आख़िर बहुत से लोग चले गये | जो ३-४ लोग बच रहे - वे नहीं गए | गुरुज्यिफ बोला - ठीक, तुम लोग रह सकते हो - वे न भी जाते और बने रहते - तो वे कभी भी जा सकते थे | ...
गुरुज्यिफ का यह समझना - जीवन के गहरे तथ्यों को व्यक्त करता है
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इस माह तो जो घटित हो रहा है, वह अपने में मौलिक, चिरंतन सत्य की धारा को व्यक्त करता हुआ, अपने में जीवन के अनेक क्षेत्रों में स्पष्ट और सख़्त भावों को व्यक्त करता हुआ है | ... न जाने कितने मूल्य जो मानव ने बनाए हैं - उनको पूरी तरह से भ्रम को तोड़ने की जो गहरी प्रक्रिया घटित हुई है - वह उल्लेखनीय रही |
स्वामी विवेकानंद जयंती के आयोजनों में आपने कहा : ' मेरे मन में इस कारण विवेकानंद के प्रति सम्मान नहीं है कि उन्होंने राष्ट्र का गौरव बढ़ाया | जिस प्रकार व्यक्ति का ' अहंकार ' क्षुद्र होता है - ठीक वैसे ही राष्ट्र का ' अहंकार ' क्षुद्र होता है | और न ही यह घोषित करना कि भारत ने आध्यात्मिक विश्‍व गुरु का श्रेय प्राप्त हुआ - मेरे लिए कोई अर्थ का है | यह भी केवल मन की तृप्ति मात्र है | कोई भौतिक उन्नति संभव न हो सकी, इस कारण इसी क्षेत्र में उँचा कह के - हम अपने को तृप्त करने का सुख लें - यह भ्रांत होगा | फिर सत्य तो शाश्वत है - मानवीय इतिहास रहे या न रहे, सत्य तो है | उसके बोध में - कोई किसी का गुरु हो नहीं सकता है |
प्रत्येक को शाश्वत जीवन में हो आने में कहीं कोई रुकावट नहीं है | रुकावट हो नहीं सकती है - यदि आप भर बाधा न बनें | इस समग्र जीवन में बहुत घटनाएँ हैं और जो भी जन्म लेता है - वह मरता है | इस कारण मैं - स्वामी विवेकानंद के जीवन के संबंध में, उनकी यात्राओं के संबंध में, जीवन में घटित घटनाओं के संबंध में कोई महत्व नहीं देख पाता हूँ | वह सब सामान्य है | केवल एक घटना भर व्यक्ति के जीवन में महत्व की होती है कि एक अति सामान्य या क्षुद्र मानवीय जीवन से कैसे वह दिव्य चेतना को या भागवत चेतना को उपलब्ध हुआ | इस चाटना के प्रति ही मेरा सम्मान है और मैं इसी संबंध में आपसे चर्चा करने को हूँ |
विवेकानंद के मान में थोथि आस्तिकता के प्रति कहीं कोई झुकाव नहीं था | वे एक गहरे नास्तिक थे | समस्त प्रचलित धारणाओं का उनके मन में विरोध था | यह इतनी दूरी तक पहुँच गया था कि विवेकानंद ने लिखा कि यहदी कहीं मेरे जीवन में - प्रभु के जीवन से संयुक्त होने की घटना घटित न होती तो मैं पागल हो गया होता |
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उनकी गहरी नास्तिकता ही उन्हें प्रभु के शाश्वत जीवन में ले आई थी। एक-एक स्थान पर जाकर उन्होंने पूछा था: ‘प्रभु को देखा है?’ कोई उत्तर न मिलने पर उद्विग्न थे और जीवन के कोरेपन से भली भांति परिचित हो आये थे। पूछा था गहरी अंधेरी रातों में गंगा में कूदकर बजरा तोड़कर – महर्षि देवेंद्रनाथ ठाकुर से – पाया कि वहां भी झिझक थी और वापिस चले आये, बोले कि झिझक ने सारा उत्तर दे दिया। महर्षि की लिखने में कलम रुकती नहीं थी और न ही बोलने में वाणी रुकती थी, लेकिन उस दिवस न जाने क्या हुआ कि ‘झिझके’।... बाद उनका मिलना दक्षिणेश्वर के एक पागल पुजारी से हुआ, जिनकी गंध दूर-दूर तक फैल आई थी। मिलने पर उत्तर मिला: प्रभु को देखा है, तुम भी दर्शन करना चाहोगे तो करा दे सकता हूँ।‘ यह एक अद्भुत उत्तर था जिसे विवेकानंद ने पहले और कहीं नहीं पाया था। बाद रामकृष्ण देव से मिलकर उनकी समस्त नास्तिकता गिर गई।
मेरा देखना है कि ठीक प्रभु के प्रकाश में हो आने के लिए, पूर्व गहरी नास्तिकता का होना आवश्यक है। इससे गुजरना आवश्यक है। जैसे
घनी काली रात के बाद - सुबह का प्रकाश फूटता है - वैसे ही गहरी नास्तिकता के बाद जो घटना घटित होती है - उससे संपूर्ण जीवन प्रभु के प्रकाश से भर आता है और एक दिव्य जीवन दृष्टि में व्यक्ति हो आता है | ...
इससे ही थोथि आस्तिकता का जीवन में कोई अर्थ नहीं है | ...
बाद आपने जो विवेकानंद को उपलब्ध हुआ, उस उपलब्धि पर शाश्वत जीवन के मार्ग पर प्रकाश डाला | इसके अंतर्गत आपने कहा कि सत्य में हो आने के तीन शाश्वत केंद्र रहे हैं | ज्ञान योग, भक्ति योग और कर्म योग | आपने मौलिकता के सृजनात्मक आधार पर अनुभूतिपूर्ण प्रवचन दिया | कहा आपने ' ध्यान योग - याने विचार शून्यता | इस शून्य में जो ज्ञात होता है - उससे जीवन में एक गहरे आनंद का बोध होता है | एक नये जगत में व्यक्ति प्रवेश कर जाता है, जहाँ से वह अनंत जीवन दर्शन को उपलब्ध होता है | ज्ञान का अर्थ बहुत सूचनाओं के इकट्ठे कर लेने से नहीं है | न ही कोरा पान्डित्य और ग्रंथों का ज्ञान | ज्ञान का इस सबसे कोई अर्थ नहीं है |...
भक्ति योग का जानना है कि उस अनंत में भक्ति के माध्यम से भी हुआ जा
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सकता है | इसमें प्रचलित पूजा - पाठ और प्रार्थना का - कोई स्थान नहीं है | जब व्यक्ति अपने में इतना समर्पित होता है कि उसका क्षुद्र ' मैं ' गिर जाता है तो वह विराट की सत्ता से एक हो आता है | इस क्षुद्र ' अहं ' का गिर जाना - भीतर परिपूर्ण विचारों से खाली हो जाना है | यह भक्ति योग है |
कर्म योग का जानना है कि - शुद्ध कर्म ही केवल रह जाय - परिपूर्ण वर्तमान में - तो भी व्यक्ति सत्य को उपलब्ध हो जाता है | हमारी वर्तमान में सत्ता ही नहीं है - या हम अतीत की स्मृति से बँधे हुए होते है या फिर भविष्य की चिंता में या सुख में खोए होते हैं | जैसे ही हम ठीक इसी क्षण में होते हैं पाया जाता है कि मैं जो विचारों का पुंज था - वह समाप्त हो आया है और शुद्ध कर्म में होकर - मैं प्रभु से संयुक्त हो आया हूँ |
इस तरह देखने से ज्ञान, भक्ति और
कर्म - एक ही सत्य को देखने के तीन दृष्टिकोण हैं | उपर से पृथकता दीख सकती है, लेकिन वास्तव में तीनों केंद्र से संयुक्त होकर - एक हैं |
यह ' विचार शून्यता ' कैसे हो ? - इसका वैज्ञानिक मार्ग है | मन है - जब तक मूर्छा है - जागृति में मन पाया ही नहीं जाता है | मन - बेहोशी में है - जैसे ही सम्यक जागरूकता उपलब्ध होती है कि मन होता ही नहीं | जब तक प्रकाश नहीं है - तब तक अंधेरा है | इससे कोई कहे कि अंधेरे को धक्के देकर निकालो - तो व्यर्थ होगा | अंधेरे का कोई Positive existence नहीं है | जैसे ही प्रकाश आता है, अंधेरा अपने से चला जाता है | इससे मन को दमन नहीं - सम्यक जागृति में विसर्जित कर देना है | यह सुलभ है - और सम्यक जागृति का दिया जलते ही - सारा कुछ घटित हो आता है | व्यक्ति अपने केंद्र से संयुक्त होकर - आनंद और शांति को उपलब्ध होता है | ...
स्वामी विवेकानंद शताब्दी जयंती समारोह, १७ जनवरी ' ६३ [ गृह विज्ञान महिला महाविद्यालय और महकौशल कला महाविद्यालय में दिए गये - प्रवचनों में से]
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उत्तर का क्या पूछना - बस अपने में अद्वितीय | उनकी एसी झलक देखने मे भी नहीं आती | एकदम जीवंत और सुवासित | सारा कुछ देखा हुआ और संपूर्ण कला में अभिव्यक्तिकरण - एक परिपूर्ण शान और दिव्यता को लिए हुए | प्यासा कभी भी तृप्त न हो - ऐसा कुछ अनोखा रस रहता है | सुना है 15 सालों से - और जो जाना है - वह तो बस शाश्वत निधि है | अनेक जीवन के उतार-चढ़ाव - पर भीतर चलते चलने का क्रम सदा एक़्सा | कभी-भी जीवन में कुछ भी तोड़ नहीं सका |
एक दिवस श्री सरकार महोदय - आ उपस्थित थे | आप बहुत उद्दिग्नता और अशांति को लेकर बहुत पहीले आ उपस्थित हुए थे | बहुत हलकापन इस बीच आपके जीवन में आया है | अनेक घटनाओं का उल्लेख देते हुए आपने कहा कि : ' मुझे अभी तक ध्यान की परिपूर्ण गहराइयाँ उपलब्ध क्यों नहीं हुई हैं ? - ज़रा सा वेग तोड़ गया | ‘
आचार्य श्री ने कहा : ध्यान से परिवर्तन आप में आए हैं | ये परिवर्तन और भी गहरे जाकर चित्त की समस्त विकृतियों को विसर्जित कर देंगे | अभी जितना हुआ है - वह पर्याप्त है | बाकी अभी जो विकृत अशांत स्थिति को
आप देख पाते हैं - यह ही आपको पूर्ण मुक्त कर देगी | वास्तव में, परिवर्तन किस प्रकार भीतर आते रहते हैं - हमें ज्ञात नहीं होता है | प्रत्येक व्यक्तित्व के विकास में जो भी घटता है - यदि वह देखता रहे - परिपूर्ण सम्यक जागृति के साथ तो सारे जीवन के रोड़े सीढ़ी बन जाते हैं और व्यक्तित्व का अपरिसीम विकास होता चलता है | घटने दीजिए, घटने को तो सारा कुछ है - लेकिन उसके बीच परिपूर्ण शांत में सम्यक जागृति के होने से - सन अपने से विसर्जित होता चलता है |
आपमें इस असीम जीवन-दृष्टि का दिया जला है तो सारा कुछ अपने से हो रहेगा |
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जीवन के अनेक भागों में - आचार्य श्री की दिव्य जीवन दृष्टि उपलब्ध हुई है | धर्म की वैज्ञानिक शोध से जो भी जगत को मिल रहा है - वह अद्भुत है और जीवन का प्रशस्त मार्ग है | श्री शर्मा (M.B.B.S.) और श्री अब्दुल अज़ीज - इस माह एक अजीब सी उलझन से गुज़रे | आप दोनों की पूर्व साधना थी और उससे उन्हें कुछ मिला था - शक्ति की प्राप्ति हुई थी | भाई अब्दुल के जीवन में तो इस तरह की घटनाएँ भी घटित हुई थीं - जिनसे कि अब्दुल जी को बड़ा विश्वास हो आया था कि जो कुछ उनके द्वारा बोला जाता है - वह पूरा होता है - एसी खुदा की उन पर कृपा है |
बाद आप आचार्य श्री की साधना से गुज़रे | आपको शांति की स्थिति का बोध हुआ - तो पिछला सममस्त शक्ति से उपलब्ध खोता सा आपको लगा | चित्त एक दुविधा की स्थिति में हो आया | इस बीच आपमें एक जोश उभर आया और जीवन में आप तीव्र अशांति के बीच हो आए | आपका मन अनेक तरह के प्रश्न उठाने लगा | पूछा था
आपने : ' अनेक लोग जो प्रभु उपलब्धि के लिए चलते है, वे सारे लोग तो कुछ गहरे प्रयास करते नज़र आते हैं | पर आप तो सारा कुछ करना समाप्त करवा देते हैं | यह विरोध दिखता है | किसे ठीक कहा जाय ? '
आपको ठीक वीदित हुआ है | वास्तव में मन हमेशा कुछ करते रहने की चाल पर चलता है | वह सतत उलझा रहा है | इससे कुछ भी न करना उसे प्रिय नहीं है | जानना चाहिए कि जो मन को प्रिय है, उससे कैसे मन के पार हुआ जा सकता है | वह तो मन में ही रहना हुआ न |
फिर तुम्हारा जोश में हो आना - स्वाभाविक है | यह मन ही है - जो प्रतिक्रिया देता है और लौट-लौट कर अपने अस्तित्व को बनाये रहना चाहता है | इस बीच तुम ध्यान में गए हो | तो तुम्हारा जानना होगा कि मैं कुछ न करने को कहता नहीं हूँ - यदि आप कुछ न करने भी चले तो और गहरे उलझ जाएँगे | ध्यान में आप अपने को जागृत अवस्था में पाते हैं कि आप ' न करने में ' हो आए हैं | इसके
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लिए आवश्यक पद्धति का उपयोग मैं करता हूँ, जिससे आप पाते हैं कि आप ' न करने में हो आए हैं | ' इससे ' करना ' सब प्रयास जन्य है - और केवल मन के भीतर है -- जब सारे प्रयास छूट जाते हैं और अनायास पाया जाता है कि हम ‘ शून्य ‘ में हो आए हैं - वह वास्तव में अपने में हो आना है | जब सारे प्रयास छूट जाते है, मन परिपूर्ण शांत हो जाता है - उस अवस्था में जो अनुभूति होती है - वह ही केवल ' ईश्वर अनुभूति ' है | लेकिन मन हमें बीच ही उलझा लेता है और हमारे चित्त की एक अवस्था बने - इसके पूर्व अनेक बार तोड़ता है और उलझन खड़े करता है | इसे भी केवल जागरूक होकर देखना मात्र है - सब अपने से विसर्जित हो रहेगा और जीवन आनंद तथा शांति में हो आएगा |
एक दिवस श्री ' मानव ' ( श्री महेंद्र कुमार जी ' मानव ', छतरपुर ) जी आ उपस्थित थे | रात्रि अपने नीबिड - शांत - घने - गहरे अंधकार में खो गई थी | समस्त प्राणी जगत निद्रा में था | आदमी बड़े गहरे उलझे मन का है | वह खोजता फिरता है - अपने जीवन के मुक्ति द्वार - लेकिन वह अपने आपको पुनः पुनः और गहरे अंधेरे, उलझे पाठ पर पाता है | मैं तो उस सीमा की कल्पना भी नहीं कर सकता - जहाँ पर मैं कह सकूँ कि अब पूज्य बड़े भैया का ऋण पूरा हुआ | वह ऋण ही कुछ ऐसा है, जिसे कुछ भी करके चुकाया नहीं जा सकता है | जीवन में सारे ऋण अऋण हो जाते है - केवल जीवन-मुक्ति पथ दर्शक - का ऋण भर शाश्वत रह जाता है | सारा कुछ मिट जाता है - लीला टूट जाती है और व्यक्ति अपने से इस अनंत आवर्त के पार हो जाता है | कितना अनोखा है - यह सब | ...
नित्य प्रति जगत के मिटते क्रम को देखता हूँ, क्षण भर ठिठक सा जाता हूँ | क्या नहीं देखता - क्या नहीं सुनता - सारा कुछ जागृति देने के
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लिए है - इतने परिपूर्ण जागृत वातावरण में भी आदमी सोया रहे - उसे मूर्छा घेरे रहे तो जानना चाहिए कि मूर्छा की जड़ें गहरी हैं | जाना तो है - यह निश्चित है - क्योंकि बिना मूर्छा टूटे तो सारा कुछ स्वप्न है | यही स्वप्न दुहराता जाता है - मृगतृष्णा के समान सब केवल बहता जाता है -- इसी बहने में कभी आखरी सांस आती है और जीवन लीला टूट जाती है | ...
यह महालीला है - जगत का खेल है | एक गहरा सम्मोहन है | चर्चा के दौरान श्री मानव जी से कहा : ' Yoga is De-hypnotisation ' योग सम्मोहन को तोड़ने का विज्ञान है | आप हैरान होंगे कि जिसमें व्यक्ति का विवेक लाख बार घृणा करता है - उसी ( Sexual Satisfaction ) के लिए व्यक्ति परेशान है, पीड़ित है, दुखी है | यह दमन से तो तोड़ना संभव ही नहीं है | न भोग कर कुछ हो सकता है | यह तो केवल विज्ञान से संभव है | इसकी भी अपनी यौगिक विधियाँ हैं जिससे कि व्यक्ति अपरिसीम आनंद और शांति को उपलब्ध होता है | इस सबंध में चर्चा को विस्तार देते हुए, बाद आचार्य श्री
कहा कि : मैने अभी ध्यान की पद्धति विकसित की है - उसके प्रयोग भी किए हैं और परिणाम अदभुत आए हैं | हज़ारों व्यक्तियों ने किया और साधुओं ने भी किया - पाया कि अदभुत परिणाम हैं | जो वर्षों में संभव नहीं था और जन्म-जन्मान्तर की जिसके लिए चर्चा थी - वह सब थोड़ी सी ही ध्यान की साधना से संभव हो सका है |
इस प्रसंग में यह कहना भी उपयुक्त होगा कि आचार्य श्री अभी ( फ़रवरी' 63 का प्रथम सप्ताह ) जैन तेरापन्थ के अखिल भारतीय स्तर पर मनाए जाने वाले ' माघ महोत्सव ' में भाग लेकर लौटे हैं | श्री आचार्य तुलसी जिनके संरक्षण में एक विशाल साधु संघ को जन्म मिला है, से आचार्य श्री का मिलना हुआ | श्री तुलसी जी प्रभावित थे और तीन दिन में अनेक बार आग्रह था - Service - से मुक्त होकर हमारे साधु-साध्वियों को ' ध्यान योग ' की पद्धति का शिक्षण दीजिए - तो बड़ा हित होगा और सारे देश में ये साधु आपका संदेश पहुँचा देंगे | क्या आपको चाहिए - सब पूरा हो जायेगा | आचार्य श्री ने कहा : वह भी समय आएगा | आपका आग्रह स्वीकार है |
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जानना यह था कि सारा कुछ करने के बाद भी ' ब्रह्मचर्य ' उपलब्ध नहीं हुआ था | कहना था आचार्य श्री तुलसी का - किसी तरह ब्रह्मचर्य उपलब्ध हो जाय साधुओं को, तो बड़ा काम होगा | आचार्य श्री ने कहा : वह भी हो जायगा | ' ध्यान योग ' पूर्ण विज्ञान है | यह भीतर उस शाश्वत सत्ता से व्यक्ति को संयुक्त कर देता है जिसके होने से सारा कुछ विसर्जित हो जाता है | प्रकाश होने से जैसे अंधेरा नहीं पाया जाता - वैसे ही आत्म-ज्ञान के होते ही सारी मूर्छा विसर्जित हो जाती है |
अपने प्रवचनों में आचार्य श्री का कहना होता है : मन का या मूर्छा का कोई अस्तित्व नहीं है ( Positive Existence ) | यह नकारात्मक है - इससे इसे कुछ करके दूर नहीं किया जा सकता है | केवल ' आत्म-ज्ञान ' का न होना - मूर्छा का होना है - मन का होना है | आत्म ज्ञान के होते ही मन पाया नहीं जाता |
फिर मन का दमन कैसा ! इससे मन है ही नहीं - उसका कुछ करना नहीं होता | केवल आत्म ज्ञान का दिया जलाना होता है कि परिणाम में मन पाया नहीं जाता | तब फिर अपने से सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य, अचौर्य, संयम, शील - सारे कुछ श्रेष्ठ जीवन की अभिव्यक्ति होती है | व्यक्ति गहरी शांति और आनंद के बोध में हो आता है - तब फिर अपने से प्रेम और करुणा के बीच सारा दिव्य सौंदर्य प्रगट हो आता है | ...
यह जीवन दृष्टि अदभुत है और सर्व-सामान्य के लिए इस विषाक्त स्थिति में एक गहर आश्वासन है |
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श्री मानव जी से एक प्रसंग में जो वार्ता हुई - वह इस प्रकार थी कि सारा कुछ उसमें समा आया था | मानव जी योगी अरविंद का साहित्य अध्ययन कर रहे हैं | इसमें आपने पाया होगा कि : सत्य - सत्य और असत्य दोनों के पार है | बात समझ में नहीं आई थी, इस कारण आचार्य श्री से पूछा | आचार्य श्री ने कहा : इसे मैं आपको शंकर ने जो उदाहरण दिया, उससे स्पष्ट करता हूँ | शंकर कहते हैं कि दूर कहीं रस्सी लटकी हो - और भूल से उसे साँप समझा जाता हो तो साँप का दिख पड़ना सत्य है लेकिन पास जाकर देखे जाने पर भ्रम टूट जाता है और साँप का दिखना असत्य हो जाता है | इससे ही सत्य जो दिखता वह असत्य हो सकता है और इसे आप अब व्यक्त करें तो स्पष्ट होगा कि सत्य, सत्य और असत्य दोनों के पार है | (क्योंकि सत्य तो यह है कि वह एक रस्सी है )
चर्चा का विस्तार आगे हुआ - बाद यह स्पष्ट हुआ कि ' सम्यक दृष्टि का हो आना - सत्य है '-
शेष जिसे जैन-दर्शन ' मिथ्या-दृष्टि' कहता है - असत्य है | कैसे व्यक्ति इस सम्यक बोध को उपलब्ध हो - इसी पर धर्म की सारी बुनियाद है | इस बुनियाद को समझ लेना ही - धर्म को जान लेना है |
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चर्चा का दैनिक क्रम टूटकर - मेरे लिखने में अब यह एक स्मृति का अंश भर रह गया है | सब दिनों के बीच जो भी होता चलता है -उसे अवकाश के समय अपने में पूर्ण रूप में खोकर लिख डालता हूँ | पर लिखना स्मृति का अंश भर होता है - इसमें भाषा तो मेरी होती है ही - पर वाक्य रचना भी मेरी ही है | इस कारण इतना कम आचार्य श्री का अभिव्यक्त हो पाता है कि डर होता है और मन कभी-कभी रोकता है | पर यह जानकर कि थोड़ा बहुत भी स्मृति के आधार पर और अपनी भाषा में भी लिखा गया तो उसके परिणाम अदभुत आने को हैं | क्योंकि आचार्य श्री की चर्चा पूर्णतः वैज्ञानिक है | उसमें शब्दों और कल्पनाओं का खेल नहीं है - सीधा विज्ञान है, ठीक जान लेने पर फिर अभिव्यक्ति का उतना बड़ा प्रभाव नहीं होता है जितना जो लिख लेने का |
इस कारण ही साहस कर पाता हूँ।
श्री शर्मा जी (M. B. B. S.) एक उलझन में से गुजर रहे हैं। और आपको थोड़ा भय आ गया है कि ‘ध्यान योग’ गलत न हो। इस पर श्रद्धा नहीं आती।
आचार्य श्री ने कहा: मेरा जानना वैज्ञानिक है। और कोई भी इस प्रक्रिया से गुजरेगा – परिणाम में अद्भुत शान्त और आनन्द के बोध को उपलब्ध होगा। इसमें श्रद्धा की उपेक्षा नहीं है। क्योंकि जब आप श्रद्धा करके चलते हैं – तो मन से चलते हैं और मन में अश्रद्धा भी श्रद्धा के साथ दबी होती है। यह विरोध मन है। मैं किसी भी प्रकार से श्रद्धा की बात नहीं करता – क्योंकि यह सब मन की क्रियायें हैं। और मन में श्रद्धा रखने का मेरा जरा भी आग्रह नहीं है। मेरा जानना है कि सारी श्रद्धा इस कारण करने को कही
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जाती है – जिसमें कहीं वैज्ञानिक सत्य नहीं *(होता)। और जो भी वैज्ञानिक सत्य नहीं है – उस *(पर) श्रद्धा कभी हो सकती है तो कभी भी, *(श्रद्धा) टूटकर अश्रद्धा में परिणित हो सकती है। *(क्योंकि) श्रद्धा और अश्रद्धा दोनों ही मन के दो *(विरोधी) स्तर हैं – और दुविधा है – मेरा *(जानना) है – जहाँ भी विरोध है – दुविधा है – वहीं मन है। इससे मैं, मन से तो कहीं पहुंचने को कहता ही नहीं हूँ। केवल वैज्ञानिक *(पद्धति) है, ‘ध्यान योग’ की – करने पर जो *(दीखेगा) वह अनुभुति अपने में होगी। इस एकात्म बोध में कहीं भी कोई उपेक्षा नहीं है। बाद फिर जो श्रद्धा आए वह अपेक्षा *(में) नहीं होगी – वह बस अपने में होगी। यह श्रद्धा कुछ पाने के पूर्व की नहीं - वरन जो जाना गया है – उसके बाद की होगी – अपने में पूर्ण होगी।....
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विरोध से कोई मार्ग संभव नहीं है। इससे मैं मन के किसी भी विरोध से चलने को कहीं नहीं कहता हूँ। जब चित्त की एक स्थिति में यह विरोध पाया नहीं जाता है – तब फिर अपने से परिपूर्ण आनंद और शांति के बीच जो होता है – उससे जीवन में जो आता है – वही शाश्वत है – शेष सब व्यर्थता है और कभी भी टूटकर अलग हो सकता है।...
श्री शर्मा जी विचारशील हैं और आध्यात्मिक जीवन में हो आने को उत्सुक हैं। बाद आपने कहा: मैंने आपको कहते सुना है – वह दुनिया में कोई कहता दीखता नहीं है। एकदम मौलिक और वैज्ञानिक है।.....
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देखता हूँ – सारा कुछ मिट जाता है – कुछ भी *(रहता) नहीं है। आदमी इस अपेक्षा में जिए जाता *(है कि) वह महत्व के लिए जी रहा है और उसके बड़े म्हत्व के कार्य संपन्न हो रहे हैं। *(यह भ्रम) उसका चलता जाता है और जीवन के *(अंत) तक बना रहता है। कहीं टूटता है तो *(भी) फिर समझा देता है। ऐसा कुछ जगत का क्रम *(–) वह अपनी लीला को बनाए रखता है – ऐसी जीवन की विविधता है। आदमी की बुद्धि ही कितनी है – वह तो अपने को थोड़े से में ही तुष्ट (किया) करता है – और सारे खेल के बीच अपने (को) एक पात्र समझे रहता है। जैसे: कठपुतलियाँ नाचती हैं और नचाता कोई और है, ऐसे ही आदमी नाचता रहता है – संसार की इस (लीला) में। वह सिर फांस लेता है और जैसा भाग्य चक्र चलाता है – वह चलता जाता है। (कहीं) मुक्ति का पथ मिलता है तो मुंह फिर जाता (है)
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और जीवन की गाड़ी पुन: वैसी की वैसी ही चलने लगती है। न जाने कितनी गहरी इसकी जड़ें हैं और जीवन की अनंतता को कुंठित कर देने में बड़ी सक्षम हैं।... इसी कारण तो जागृत चेतनायें अपने में अपूर्व सौंदर्य, तेजस्विता, प्रखरता और भव्यता को ले अभिव्यक्त होती हैं – तो एक बार लगता है कि जीवन में ऐसा न हो रहा जाय तो जीवन व्यर्थ है। एक बार गहरा भाव भीतर से उस अमृत में हो आने का हो आता है और संसार की नश्वरता से उपर उठ व्यक्ति अपने को अमरता में ले आने को उन्मुख होता है।....... बुद्ध की शरण में जब लोग जाते और कुछ ही दिन ध्यान की साधना करते तो पिछले जीवन पर रोना हो आता और जानते कि उतना सब व्यर्थ गया। मुझे – परिवार में सभी को, यह धन्य भाग्य पहले से ही बिना खोजे मिल गया है – इसकी कृतज्ञता को कैसे व्यक्त करें।.....
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कुछ भी करके, कहके – कुछ किया नहीं जा सकता है। केवल जो मिला है – उसी को भर पूर्ण करके अपने में मुक्त हो आया जा सकता है। बस यह मुक्ति देना, जैसे – पूज्य बड़े भैया - एक शाश्व्त विज्ञान है – शेष अब आदमी *(पर) निर्भर है कि मिल जाने पर भी वह अपनी *(अंधी) राहों पर चलता रहे। इससे एक ओर से तो केवल महान् जीवन-मुक्ति विज्ञान का शाश्वत पथ निर्देशन है – बिना किसी अपेक्षा के – क्योंकि जानना रहा है मुक्त चेतनाओं का – ‘क्या दे सकते हो - जिसे मैं ले सकूँ और मैं दे क्या सकता हूँ – जिसे तुम ले सको।’ कोई देना-लेना किसी को संभव नहीं है। प्रत्येक को स्वयँ अपनी मुक्ति राह पर चलना होता है।
कितने प्रसंगो पर इस सत्य को नहीं कहा है – आपने। कहा है – जो देखा है। उसमें
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कुछ भी अपना मिलाया नहीं है। सारी सीमायें तोड़कर, जो दिखा है, अनुभूत किया है, उसे ही व्यक्त किया है। पूछा था पाल ब्रन्टन ने योगी अरविंद से – कि ‘आध्यात्मिक जीवन में गुरु आवश्यक है?’ तो उत्तर मिला था – एक घंटे तक विस्तार से, कि गुरु के बिना कुछ भी सम्भव नहीं है। लेकिन दक्षिण में महर्षि रमण से जब यह पूछा तो रमण ने कहा: ‘कुछ सीखना हो तो गुरु चाहिए। लेकिन यहाँ तो जो सीखा है – उसे भूलना होता है। तब फिर क्या आवश्यक्ता है।‘ अब यह है अनुभूत तथ्य जिसे महर्षि रमण व्यक्त करते हैं। पर इस तथ्य को जानने वाले कम होंगे कारण कि रमण का सारा विस्तार अनुभूति तक था और सीमित लेखन में – लेकिन योगी अरविंद का विशाल साहित्य है – जिसे पढ़कर मानव - प्राणी उनके प्रति आश्चर्य से भरकर देखता है और यह सोचकर कि वास्तविकता रही होगी – जीवन-पथ पर चलना शुरु कर देता है।
कोई सीमा आध्यात्मिक साधक की नहीं है। समस्त सीमायें बाह्य हैं और सत्य से उसका कोई सम्बन्धन नहीं है।...
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[चर्चा प्रसंगों का समय: जनवरी और फरवरी माह, ‘६३]
इस समय में अनेक बहुमूल्य और जीवन - विकास के अनेक प्रसंग उपस्थित हुए। जीवन – विकास कहें या जीवन की चरम सार्थकता – सारा कुछ अभिव्यक्त हो आया था। आचार्य श्री का देखना अनेक कोणों से होता है। उसमें सारे प्राणी जगत के लिए एक गहरा आश्वासन है। जागृति की प्रेरक साधना है।
धर्म की अभिव्यक्ति – वैज्ञानिक करने में आचर्य श्री का योग है। धर्म एक जीवन – विज्ञान है। इससे वह एक है। जैसे: दुनिया में कोई गणित किसी का अलग नहीं होता है – विज्ञान अलग नहीं होता है - वैसे ही धर्म भी एक है। जैसे ही कोई व्यक्ति जैन होने चलता है – उसका जैन होना गिर जाता है। ठीक इसी प्रकार ईसाइ का बोध भी धर्म में प्रतिष्ठित होते ही गिर जाता है। सारे बाह्य विशेषण औपचारिक हैं और ठीक वैज्ञानिक धर्म की यौगिक साधना विधियों का ज्ञान हो तो – ये विशेषण अपने से गिर जाते हैं। इसका धर्म के मूल से कोई संबंध नहीं है। भीतर जाकर सारे धर्म उस एक में प्रतिष्ठत हो जाते हैं – जिसकी व्याप्ति सारे जगत
में है। इससे जब यह आग्रह कोई दुहराता है कि केवल वह ठीक और सारे गलत हैं – तो जानना चाहिए कि वह धर्म के मूल स्रोत से परिचित नहीं हुआ है। अनेकों लोग होंगे, जो अच्छे तार्किक और दर्शनशास्त्री हों – लेकिन वे साधक न होने से सारा कुछ उलझ जाता है – और घूम फिरकर विचारों का उलझाव भर शेष रह जाता है। उससे मानवीयता विकसित नहीं होती – उस अनंत की अनुभूति में नहीं हो आती – वरन कुंठित और मृत हो जाती है। स्वामी दयानंद सरस्वती जी भी उनमें से थे।
धर्म मुक्ति का विज्ञान है। उसका कोई संबंध बाह्य आचरण से नहीं है। न ही छोटे – मोटे यज्ञ – हवन और पूजन – पाठ से – जिससे कोई मन का दुख दूर करने का आयोजन धर्म के माध्यम से होता है। यह केवल उलझाव है। जो धर्म जीवन की समस्त विकृतियों से व्यक्ति को दूर रखता है – उसका आयोजन मात्र भुलावा है। जीवन दुख है। इसे जानकर व्यक्ति आनन्द और शांति की ओर उन्मुख होता है। कैसे कोई व्यक्ति धर्म के माध्यम से आनन्द
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और शांति में होकर चेतना की अनन्त गहाराई में हो आए – और जीवन – मुक्त हो रहे – केवल इसका भर विज्ञान, धर्म है। कोई धर्म इसके विरोध में यदि कुछ कहे – तो जानना है कि, वह भ्रांत है। मेरा जानना है कि अनेक लोग बातें करेंगे – और उनको कोई ज्ञान – जीवन की भीतरी गहराईयों का न होने से – केवल बात निष्प्राण हो जाती है और जगह-जगह उसमें निष्प्राणता स्पष्ट परिलक्षित होती है। यह मुक्ति का पथ – प्रत्येक धर्म ने निर्देशित किया है – और जो भी उस पथ पर चला है – उसने अनन्तता उपलब्ध की है और चेतना के जगत में समृद्ध हो आया है। सारे धर्मों में जागृत चेतनायें हुई हैं – और जीवन के केंद्र से संयुक्त होकर – पुन: पुन: मानव जीवन को ज्योति प्रदान की है। अभी हमारे युग में स्वामी रामकृष्ण परमहंस देव हुये। उन्होंने सारे धर्मों पर चलके पाया कि – पहुंचना तो केंद्र पर ही हो जाता है। कहा उन्होंने ‘मेरे प्रभु की छत तक आगे के अनेक मार्ग हैं – कोई कहीं से चले – पहुंचना वहीं हो जाता है।‘ अब यह बात और है कि कोई ठीक पद्धति का उपयोग न करे और व्यर्थ की दौड़ में उलझा रहे और फिर कहे मेरी साधना में कमी थी – तो भ्रम
होगा। गांधीजी के साथ यही हुआ। उन्हें ब्रह्मचर्य उपलब्ध नहीं हो सका। इसके पीछे उनका ख्याल था कि वे गलत थे और साधना में कमी थी। ऐसा नहीं है – गांधीजी को ठीक विधि ज्ञात न थी। उसका ज्ञान नहीं था – जहाँ पर हो आने से अपने से अब्रह्मचर्य, असत्य, हिंसा, सब गिर जाती हैं और व्यक्ति ब्रह्मचर्य, सत्य, अहिंसा में प्रतिष्ठित हो आता है।..... अभी मैंने बम्बई जब कहा – तो लोगों को हैरानी हुई – पूछा भी गया – तो कहा मैंने: आप गांधीजी को पढ़ें – तो यह प्रतीति स्पष्ट होगी। उन्होंने उल्लेख किया है – और अपने को दोषी ठहराया है।
ये चर्चा प्रसंग एक इंजीनियरिंग कालेज के (B. E. Final Civil Engineering) युवक श्री चौरसिया जी के ‘श्री दयानंद सरस्वती और उनका जीवन धर्म’ इस प्रश्न पर से उठ खड़े हुए – जिनका आनंद श्री अचल जी पारख और उनके सहयोगी मित्र गण तथा उपस्थित सभी श्रोताओं ने लिया।.....
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आचार्य श्री का कहना है कि सारे धर्मों में एक ही सत्य अभिव्यक्ता हुआ है – इस पर एक युवक ने पूछा: ‘हिंदू परंपरा आवागमन मानती है, लेकिन इस्लाम में केवल एक ही जन्म स्वीकार किया है –इसमें सत्य कैसे एक हो सकता है?’ आचार्य श्री ने कहा: उपर से देखने में ये दोनों बातें विरोधी दीखती हैं – लेकिन इनसे एक ही सत्य अभिव्यक्त हुआ है। जब इस्लाम केवल एक ही जीवन को मानता – तो वह कह रहा है कि समय तो ठोड़ा ही शेष है – इसी में तुम्हे – अल्लाह को पाना है – समय गया कि सारा कुछ समाप्त है। इससे एक घबड़ाहट में होकर व्यक्ति – प्रभु उपलब्धि की ओर चलता है। हिंदू परंपरा में एक लम्बा जीवन का क्रम सामने रखा गया है – और इस जीवन के क्रम में – जन्म, जरा, मरण का दुख ही दुख है – तो स्वभाविक घबड़ाहट; व्यक्ति को प्रभु उपलब्धि की ओर मोड़ती है।
इस में कहने में अन्तर है, लेकिन मूल सत्य दोनों में एक ही अभिव्यक्त हुआ है।
जीवन की अपनी कितनी विविधता है – कि सब कुछ ठीक आभास होने के बाद भी, मन अपनी ओर खींच ही लेता है। लेकिन यह खिंचना धीरे-धीरे हल्का होता जाता है और वह हुआ है – तो इसके समाप्त हो आने का भी गहरा आश्वासन है। कितना सजीव और सुन्दर अभिव्यक्त हुआ है कि देखतेही बनता है। यह अद्भुत है। प्रभु का जगत ही कुछ ऐसा है कि इस में सारा कुछ रहस्य से भरा है। व्यक्ति का जीवन भी अपनें में बड़े रहस्यों को ले – प्रगट हुआ है। इससे एक व्यक्ति का जीवन ही उसके लिए काफी बड़ा है। लेकिन आदमी खुद अपने में कुछ भी न कर – सारे जगत के प्रति लोक-कल्याण के प्रति लग जाता है। इस लग जाने में भी एक, मन की तृप्ति है – और अपने प्रति मूर्छित रहता है। जगत में आदमी सब-कुछ जो भी करता है – उसमें वह भूला रहता है और अपने
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भीतर झांक कर भी नहीं देखता है। इसमें उसे बड़ा भय होता है - क्योंकि सारा कुछ विकृत उभर आता है – इससे अपने को छिपाये हुये चलता रहता है। कहीं भी देखने का अवसर आता है तो किनारा कर लेता है। यह भ्रम जीवन के अन्त तक बना रहता है – लेकिन आदमी इसी भ्रम में जीने में आनंद मानता है। ठीक से अपने भीतर के अज्ञान को देख लेना – ‘आत्म-ज्ञान’ के उदय का कारण बन जाता है। व्यक्ति जैसे ही अपने से ठीक से परिचय पाना शुरु करता है कि वह एक गहरे अज्ञान के बोध से भर जाता है। वह पाता है कि वह तो अपने से पूर्णत: अपरिचित है। इसी से उसमें अपने प्रति ज्ञान से भर आने की प्यास प्रारंभ होती है – जो उसे अपने से ‘स्व-बोध’ से परिचित कराती है। गहरी उत्पीड़न, गहरा दुख ही आदमी को गहरे आनन्द और परम शांति की राह पर ले आता है।
गहरी नास्तिकता से होकर व्यक्ति परम आस्तिकता में हो आता है। गहरी घनी काली रात के बाद प्रभात आता है – ठीक ऐसे ही मानव-मन में भी गहरे दुख के बोध से – प्रकाश का उदय होता है।
यह कहा गया अपने में इतना
मौलिक है कि व्यक्ति के भीतर एक गहरी उत्क्रांति को जन्म देता है और व्यक्ति को एक मनोवैज्ञानिक तथ्य के माध्यम से जागरण के प्रकाश में ले आता है। वास्तव में, नास्तिक वह है जो परम्परा से सहमत नहीं होता, परम्परा का कचरा उसे दीख आता है – लेकिन भीतर एक प्यास उसके होती है – जो उसे परम आस्तिकता में ले आती है। इस प्यास को यदि हमारी सदी तृप्त न कर सकी और धर्म के नाम पर केवल औपचारिक बातों में उलझी रही – तो परिणाम में सारी मानवता घने अंधेरे में डूब जाने को है। यह दायित्व है अब धर्म के साधकों पर कि वे ठीक यौगिक वैज्ञानिक विधियों को, सत्य में हो आने के लिए; इस सदी को दे सकें। अन्यथा धर्म का दीया बुझते ही – मानवता का भी बुझना हो सकेगा।.....
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जनवरी – मार्च, ६३ के पावन प्रसंग:
केन्द्रीय रूप से केवल ‘जीवन-मुक्ति और साधना’ पर आचार्य श्री ने अपने को केन्द्रित किया है। इससे एक तीव्र गति से इस दिशा में विकास हुआ है। जो तथ्य अनुभूति पूर्ण जीवन के मध्य व्यक्त होते – उनमें एक गहरा आत्म-विश्वास, सौंदर्य, आनन्द तथा शांति का दिव्य प्रकाश होता। इन माहों में अनेक चर्चा प्रसंग उठे – बाहर प्रवास भी हुआ – जिसमें राजनगर (राजस्थान) और दिल्ली तक जाना हुआ। राजनगर में अनेक साधु – दिव्य जीवन – दृष्टि का लाभ ले सके। ध्यान की अभूतपूर्व प्रक्रिया को कर सके और जीवन में आध्यात्मिकता के सही अर्थों को पा सके। राजनगर में आचार्य श्री तुलसी जी से भी मिलना हुआ और उन्होंने ‘ध्यान योग’ को समझा। जन – सभाओं में धर्म के संबंध में आधुनिक वैज्ञानिक आधारों पर अनुभूति पूर्ण तथ्यों को व्यक्त किया। इस पर
वहाँ के एक एडव्होकेट ने पत्र द्वारा लिखा:
"आपके प्रवचनों ने बहुत से समझदारों को ना-समझ किया और बहुत से ना-समझों को मार्ग-दर्शन दिया।"
ध्यान-योग के प्रयोग से साधु लाभान्वित हुए। बहुत बड़ी घटना घटित हुई कि आचार्य श्री तुलसी जी ने कहा कि ‘केवल दीक्षा लेकर साधु होना पर्याप्त नहीं है, वरन् योगी होना है।‘ आचार्य श्री को भी आग्रह था कि सब ओर से मुक्त होकर – ध्यान-योग में साधुओं को अपना समय दें।
यहाँ पर भारत के वित्त-मंत्री मोरार जी देसाई से भी आचार्य श्री का मिलना हुआ और यह मिलना अपने में अद्भुत था। मोरार जी भाई का पूछना था अचार्य श्री तुलसी जी से कि:
'मैंने तो आपको नमस्कार किया, लेकिन आपने आशीर्वाद दिया – मैं तो नमस्ते का उत्तर नमस्ते में ही चाहता था। फिर, हम लोग नीचे बैठे हैं – आप तख्त पर क्यों? उचित तो यही है कि आप भी साथ ही बैठा करें।'
इस पर आसपास उपस्थित साधु घबरा
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आये। एक साधु ने कहा: ये सब तो परम्परायें हैं।
मोरार जी भाई बोले: केवल परंपरा होने से सब ठीक नहीं होता। यदि गलत है तो परंपरा तोड़नी चाहिए।
आचार्य श्री ने कहा: यद्यपि, दो जन की वार्तालाप में बोलना ठीक नहीं – लेकिन मुझे बोलना आवश्यक प्रतीत होता है, इससे बोलता हूँ। आपने साधु को नमस्कार किया है, आचार्य तुलसी में जो साधुता है – उसको नमस्कार किया है, और तुलसी जी ने भी साधुता का प्रतिनिधित्व करके ही मात्र औपचारिक आशीर्वाद का संकेत किया है।
यदि आपने अपने ‘मैं’ में होकर और आचार्य तुलसी ने भी अपने ‘मैं’ में होकर आशीर्वाद दिया – तो न आपका नमस्कार हुआ और न आचार्य श्री तुलसी जी का आशीर्वाद। बाकी, साधु को हमारी संस्कृति में श्रेष्ठ जीवन का प्रतीत मानकर उँचा स्थान
दिया है – वह भी एक प्रतिनिधित्व संकेत मात्र है – कोई उँचा और छोटे होने का भाव उसमें नहीं है।
मोरार जी भाई बोले: ये ठीक, समझ में आता है। बाद उत्सुक हो आए हैं – वार्तालाप करने को।
आचार्य श्री का देखना है कि और कहा भी इसे जनसभाओं में: धर्म का नकार से कोई संबंध नहीं है। जो धर्म छोड़ने पर निर्भर होता है, उसके प्राण निकल गये होते हैं। छोड़ने से कोई अर्थ ही नहीं है। हिंसा को छोड़कर अहिन्सा नहीं आ सकती है, – अहिन्सा तो भीतर परिवर्तन होता है – आत्म-परिचय होता है – तो परिणाम में हिंसा पाई नहीं जाती – इसलिए अहिन्सा होती है। इससे धर्म तो आपको आपकी समृद्धि पा लेने को कहता है – यह स्मृद्धि होते ही – परिणाम में दरिद्रता अपने से नहीं पाई जाती है। यह विधायक जीवन-दृष्टिकोण है। इसके माध्यम से ही
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व्यक्ति – आनन्द, शांति में प्रतिष्ठित होकर – अपने में पूरा हो आता है और उसकी भटकन मीट जाती है।
दिल्ली यह आपका प्रथम प्रवास था। यहाँ आपने ‘ध्यान-योग’ पर वर्ग लिए और गोष्ठियों के मध्य अपने अनुभूतिपूर्ण विचार व्यक्त किए। श्री जैनेन्द्र जी – भारतीय हिंदी साहित्य के प्रथम श्रेणी के लेखक, विचारक – आचार्य रजनीश के कार्यक्रमों में भाग लिए और कहा: ‘रजनीश जी, जो भी व्यक्त करते हैं – वह उन्हें दिखाई पड़ रहा है – उसमें जीवन की अनुभूति है।‘ देश के अनेक भागों में जन-मानस पीड़ित है – और शांति तथा आनन्द इच्छुक है – पर केवल पढ़े-सुने – उधार विचारों से – एक गहरा द्वंद मानवीय पटल पर छा गया है। होगा जहाँ का जब संयोग तब जाना
सुनिश्चित होगा और मानवता अपनी समृद्धि में हो आ सकेगी।....
आदमी को आचार्य श्री ने गहराई से समझा है – उसके बाबत अजीब से तथ्य सामने आए हैं, जिन पर एकदम से तो विश्वास भी नहीं आता – लेकिन ये सारे तथ्य – आदमी की मूर्च्छा के साथ हैं – जब तक मूर्च्छा विसर्जित न हो तब तक ये साथ होते हैं।
एक अवसर पर चर्चा करते हुये – आचार्य श्री ने कहा: सुलभता से कुछ अद्भुत, व्यक्ति के जीवन में घतिट हो जाय तो व्यक्ति को कुछ हुआ ही नहीं – ऐसा लगता है। अभी मेरा इस बीच अनुभव आया, कि किसी को गहरी चिन्तायें थी – बड़ी अशान्त मन:स्थिति में लोग अपने को पाये हुये थे – एक उग्र, क्रोधित – मन:स्थिति थी ‌– ध्यान के परिणाम में जाना, कि उनकी उदासी – अपनी जटिलतायें दूर हो गई हैं – लेकिन उन सबका कहना था: अभी तो केवल शांति मिली है – और कुछ नहीं;
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अब यह जीवन दृष्टिकोण है – जिसमें हम अभाव की ओर देखते हैं – जो हो गया या मिल गया है, उसकी ओर से विमुख हो जाते हैं। इससे हमेशा दुख बना रहता है और भीतर खिंचाव चलता रहता है। जो भी जिसके पास है, उसे न देख जो उसके पास अभाव है – उसे देख कर हमेशा दुख उठाता रहता है। इससे मेरा जानना और देखना है कि सुलभता में मिल गया – बिना मूल्य दिए – व्यक्ति की दृष्टि में उसका महत्व ही नहीं हो पाता है। यह बड़े-बड़े लोगों के साथ है। जिन्हें हम विवेकवान और समझदार मानते हैं।......
यह मानव के साथ बुनियादी भूल है। इसी कारण – इस दृष्टि के व्यक्ति को – प्रभु भी मिल जाय और प्रभु सत्ता में वह हो जाए – तो उसका समझना यह होगा कि अभी तो प्रभु मिला है, और क्या
मिल गया। यह बड़ा दुखद दृष्टिकोण है – लेकिन यह आदमी के साथ संयुक्त है। इसी को ध्यान में रखकर – भागवत् चेतना में हो आने के लिए जन्म – जन्मांतर का उल्लेख किया गया। अनेको साधना – विधियों से गुजरने के बाद – तब कहीं सत्य की उपलब्धि। इससे आदमी को लगता है कि बहुत मूल्य चुकाना पड़ रहा है – और तब फिर मिलने पर उसकी दृष्टि में उसका महत्व होता है। लेकिन आदमी ठीक-ठीक मूल्यों को जानने लगे – तो सुलभतम यौगिक प्रक्रियाओं से कम समय में ही जीवन-सत्य में प्रतिष्ठित हो आता है – और इसकी अपनी वैज्ञानिकता है।
फिर, अभाव को देखकर कोई जीवन आनन्द से नहीं भरता है। विधायक जीवन दृष्टिकोण व्यक्ति को समग्रता में ले आता है। आज मेरे पास कुछ् भी नहीं है – कल कुछ हो आए तो कभी संपूर्ण भी हो आएगा – यह सार्थक जीवन-दृष्टि है। इसके माध्यम से जो उपलब्ध
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हुआ – उसे सीढ़ी बना – व्यक्ति मंजिल पर पहुँच जाता है। यह तो सामान्य तथ्य है। सामान्य जीवन के संबंध में भी लागू होता है। फिर मन तो सूक्ष्म है। उसमें थोड़ा परिवर्तन भी बड़ी बात है। देखता हूँ करोड़ों जीवन पूर्ण यांत्रिक क्रम में समाप्त हो आते हैं और कोई परिवर्तन संभव नहीं होता है। इससे यह तो बहुत बड़ा मनुष्य का सौभाग्य है, कि वह जीवन – मुक्ति पथ पर अपने को सक्षम पाता है और सुलभतम ध्यान के प्रयोग के माध्यम से जीवन में अनंतता में हो आता है।...


मार्च १४, शुक्रवार, '६३.
श्री बाबूलाल जी नायक, नगर के एक प्रमुख महाविद्यालय (P. S. M. College) में – व्याख्याता हैं। आपकी अपनी रूचि अनेक दिनों से आचार्य श्री के कार्यक्रम कराने की थी, लेकिन अन्य लोगों के विरोध के कारण, आचार्य श्री का जाना न हो सका था। पर आपके प्रयास चलते रहे – और इस बार आपने संयोग ला ही लिया। प्रार्थना के पश्चात् आचार्य श्री का कार्यक्रम – सांध्य की घिरती बेला में आयोजित किया गया। इसमें प्राचार्य, प्रोफेसर्स और शिक्षक, विद्यार्थी सभी उपस्थित थे।.....
साधारणत: भारत में एक धार्मिक व्यक्ति के संबंध में जो धारणायें होती हैं – वे तो आचार्य श्री के साथ सन्युक्त नहीं हैं। इस कारण एक विचार के लिए खुला अवसर तो वैसे ही मिलता है – फिर पूर्णत: वैज्ञानिक
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अनुभूति पूर्ण सत्य की अभिव्यक्ति – तो एक गहरा द्वन्द मानस-पटल पर छोड़ता है। क्योंकि व्यक्ति तो बहुत बाह्य रूप से अपने को चलाता है, उससे तृप्त वह भी नहीं है, पर अपने अंत: को भी जानना नहीं चाहता है। लेकिन जब कोई पथ-दृष्टा भीतर का जो भी है उसे व्यक्त करता है, तो उसे बहुत बाह्य अर्थों में गलत, वह जरूर करना चाहता है, लेकिन पूर्णत: विवेक उसका सहयोग करता है और उसे वह आंतरिक रूप से ठीक लगता है। यह प्रारंभिक वर्णन केवल इस कारण कि, अचार्य श्री का बोला जाना यहाँ पर इसी अर्थ को लेकर प्रगट हुआ।
आचार्य श्री ने कहा:
मैं धर्म-भीरू नहीं हूँ। भय में होकर मैं धार्मिक नहीं हूँ। भय – मात्र अधार्मिक है। जो
तुलसीदास ने कहा कि:
'भय बिना होई न प्रीति'
मैं इससे सहमत नहीं हूँ। मेरा देखना है कि ठीक धार्मिक व्यक्ति का अभय में हो आना प्राथमिक है – फिर और सब बाद में होता है।
मैं एक और अर्थ में धार्मिक नहीं हूँ। मेरा देखना है कि धर्म का संप्रदाय से, संगठन से, बाह्य क्रिया-कांड और औपराचिकता से कोई संबंध नहीं है। इस सबसे धर्म नहीं चलता, केवल मनुष्य का भ्रम भर चलता है। धर्म मात्र वैयक्तिक अनुभूति है – इससे धर्म व्यक्ति में प्रतिष्ठित होता है, – धर्म संगठन का या समुदाय का हो ही नहीं सकता है।.....
आपने फिर कहा: मैं श्रद्धा से भी धर्म का कोई संबंध नहीं देख पाता। गांधीजी से पूछा था: ईश्वर के संबंध में – तो उन्होंने कहा था: पहिले मानना होता है, फिर जानना होता है। मैं इससे इंच मात्र भी सहमत नहीं हूँ। श्रद्धा से – अधर्म का, अंधविश्वासों का जन्म होता
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है। भारत में इसके परिणाम स्पष्टत: हुये हैं – मेरा देखना है कि पहले जाना जाता है – ‘जो भी है’ – उसे जानना पूर्व में होता है – बाद तो अपने से श्रद्धा आती है। यह ठीक दृष्टिकोण है जिससे धर्म विज्ञान में प्रतिष्ठित होता है – और ठीक रास्ते मानव-जीवन के सामने आते हैं।
इस विश्लेषण को देते हुए आचार्य श्री ने धर्म के वैज्ञानिक तथ्यों को रखा। आपने कहा: मैं तीन स्थितियों में विकास के क्रम को देख पाता हूँ।
१. अंतर्मूच्छित – बाह्य मूर्च्छित.
२. अंतर्मूच्छित – बाह्य जागृत.
३. अंतर्जागृत – बाह्य जागृत्.
पहले क्रम में जड़ पदार्थ हैं। जिनमें चेतना नहीं है। दूसरा क्रम प्राणियों का है। वह बाह्य जागृत है – लेकिन अंतर्मूच्छित होने से एक गहरा तनाव है। इससे जब तक यह अंतर्जागरण न हो – तब तक
कोई व्यक्ति भागवत चेतना को या दिव्य चेतना को उपलब्ध नहीं होता। उसके प्रयास इस ओर होते हैं। लेकिन मैं स्पष्ट करना चाहता हूँ कि – बहुत से प्रचलित ख्याल हैं, जिन्हें धर्म समझा जाता रहा है – अब आधुनिक खोजों ने उनको व्यर्थ कर दिया है।
व्यक्ति खोज करता है सुख की। उसे वह भूल कर उपलब्ध कर लेता है। इससे Sex की इतनी पकड़ है – बाद तांत्रिकों में मैथुन को साधना का अंग बनाया गया। इस तरह Sex, मांस, मदिरा – इन सबसे आत्म-विस्मरण होता है – हम भूल जाते हैं – और नीचे के चेतना के केन्द्रों से सन्युक्त होकर – परिपूर्ण मूर्च्छा में सुख अनुभव करते हैं। साधु – गांजा, अफीम, अन्य मादक द्रव्यों का उपयोग इसी कारण करता रहा है। अभी पश्चिम में, मेक्सिको में एक साधु, जड़ी का उपयोग करता रहा था। जब उससे मेक्सालीन नामक इन्जेक्शन बनाया गया – और उसे प्रयोग किया गया – तो पाया गया कि उससे चेतना की एक मूर्च्छित अवस्था प्राप्त
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होती है – और वापिस आने पर व्यक्ति ठीक वैसी ही बातें करता है – जो भक्त गण और मस्ती के बाद लोग करते हैं। ठीक से जानें – तो हमारी प्रार्थनाओं में कहे गये शब्द भी एक भूल जाने का सुख देते हैं। पुरानी अरबी, प्राकृत, संस्कृत भाषा के मंत्र और ध्वनि से भी व्यक्ति आत्म-विस्मरण में खोता है – और वापिस लौटने पर सामान्य दुख अनुभव करता है। इससे खोकर – दुख का विस्मरण करके – दुख से मुक्ति नहीं मिलती है – वह ज्यों का त्यों बना होता है – केवल हम थोड़ी देर को खोकर भूल जाते हैं – इस भूलने के पीछे हमारी श्रद्धा कार्य करती है – और कभी व्यक्ति को वैज्ञानिक विश्लेषण करने का अवसर नहीं मिलता है। इससे सामान्यत: व्यक्ति असहमत हो सकता है – क्योंकि ये सारी बातें लोक-मानस में बहुत दिन से बैठी हैं – लेकिन ठीक वैज्ञानिक-साधना के दृष्टिकोण से और जीवन में उदात्त अवस्था में हो आने के दृष्टिकोण से तो बात स्पष्ट हो जाती है।
इससे मूर्च्छा में होकर तो व्यक्ति
परिपूर्ण चैतन्य को, भागवत् जीवन को उपलब्ध नहीं हो सकता है। कैसे यह अंत: की मूर्च्छा को तोड़ा जा सके – इसकी यौगिक-साधना पद्धतियाँ भारत में रही हैं। उन पर शोध और विश्लेषण किया जाना आवश्यक है। धर्म को अब केवल योग के माध्यम से ही पुनरुज्जीवित किया जा सकता है।
विश्लेषण आप करें – तो पायेंगे कि ‘मन’ मूर्च्छा है – जैसे ही ‘मन’ गया कि मूर्च्छा भी विसर्जित हो जाती है – और शुद्ध ज्ञान को व्यक्ति उपलब्ध होता है। अब मन का विसर्जन कैसे हो? इसकी, मैं आपसे चर्चा करूँगा।
मन – समस्त विचार-प्रक्रिया का जोड़ है। विचार न हों – तो मन, न हो जाता है। कैसे व्यक्ति विचार-शून्य हो सकता है। मन को दमित करके – मन से मुक्त नहीं हुआ जा सकता। उससे लड़के आज तक कोई मुक्त नहीं हो पाया है। फिर, उससे लड़ना अवैज्ञानिक है। वह तो कुछ न होने के कारण है। जैसे: अंधेरा हो, उससे आप लड़ें – तो
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व्यर्थ पागल बनेंगे। ठीक ऐसे ही – मन से लड़ना नहीं होता। प्रकाश लाना होता है – कि अंधेरा पाया नहीं जाता। व्यक्ति को भी मन के विसर्जन के लिए कुछ करना नहीं है – केवल ‘ध्यान का दिया’ जलाना होता है। यह ‘ध्यान’ एकाग्रता नहीं है। एकाग्रता में तो विचार है। फिर, ध्यान क्या है? ध्यान, समस्त विचारों के पार हो आना है। यह कैसे हो – इसके लिए ‘सम्यक जागरूकता’ मार्ग है। हर क्षण जो भी घट रहा है – उसके प्रति मात्र साक्षी हो जाना – विचारों से व्यक्ति को पृथक कर देता है। इस स्थिति में जो अनुभूत होता है – वह सत्य होता है। वहाँ आत्म-विस्मरण नहीं होता, परिपूर्ण आत्म-जागरूकता होती है। न वहाँ कोई – कल्पित तथ्य (पूर्व धारणायें) साकार होकर – प्रक्षेपित (Mental Projection) होती हैं। शुद्ध ज्ञान की अनुभूति मात्र होती है। इसमें हो आने पर ही व्यक्ति की चरम सार्थकता
है। अन्यथा शेष सब व्यर्थ है।
आपने – बहुत मौन से, प्रीति से मेरी बातों को सुना – उसके लिए धन्यवाद। अंत में आप सब, अपने भीतर बैठे परमात्मा के लिए मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
महाविद्यालय की ओर से प्रो. परिहार एवं प्रो. व्यास ने – आगन्तुक अतिथि का हृदय से स्वागत किया और कहा: रजनीश जी, हमारे लिए नए नहीं है – उन में मौलिकता है – पांडित्य है – अनुभूति के ज्ञान का प्रकाश है और विचारों को अभिव्यक्त करने की परिमार्जित शैली है। जबलपुर नगर में – योग और दर्शन पर इताना अध्ययन और अधिकार किसी का भी नहीं है। आपने धन्यवाद के साथ कार्यक्रम समाप्त किया।
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जीवन को निखारकर परिपूर्ण करने वाले जीवन-प्रसंग आचार्य श्री के निकट हमेशा अभिव्यक्त होते हैं। सृजन की गंगा हमेशा बहती है। इसमें कूदकर सृजन में हो आने वाला चाहिए।
मन, बीते कल और आने वाले कल के भार से दबा रहता है। जबकि ये, कभी होते ही नहीं। ठीक एक क्षण होता है और उसमें ही जो है – बस है। यह परिपूर्ण वर्तमान में हो आना – ध्यान से हो आता है। इसके प्रति परिपूर्ण जागरुक भी हुआ जा सकता है। फिर जो घटित होता है, वह अद्भूत होता है।.....
मैं जानता हूँ अनेकों लोगों को, जो बहुत दिन से मिलना चाहते थे – कुछ तो अभी भी होंगे – जो मिलना चाहते होंगे – लेकिन ‘कल’ पर यह टालना चलता है। यह मन की प्रवंचना है। मुझे एक व्यक्ति भले लगे – ध्यान में आते हैं – भट्टाचार्य जी – इंजीनियर हैं। आप मेरे कालेज में प्रो. चटर्जी और डा. बोस से परिचित हैं – आपने मेरे संबंध में
चर्चा सुनी – तो जाने की बात उठी। उन लोगों ने कहा – कभी चलेंगे। भट्टाचार्य जी बोले: आप लोग हो आना फिर कभी – मुझे तो अभी ख्याल उठा – मैं हो आता हूँ। भट्टाचार्य जी आए – तो मुझे भले लगे। यह वृत्ति कम होती है – सीधा ख्याल उठा तो हो आउँ – उसमें सोच-विचार क्या!
मेरा देखना है कि यह सोच-विचार, केवल श्रेष्ठतम स्थितियों के संबंध में भर होता है – शेष सारे निकृष्ट या मन की वृत्तियों के अनुकूल कार्य तो उसी समय व्यक्ति पूरा कर लेता है। यह जीवन को असंगत कार्यों से भर देता है और इसी में उलझ कर अपने को सुखी अनुभव करता है।.....
एक साधु हुआ – वह कहा करता था कि जीवन इतना छोटा है और उसमें भलाई करने के इतने अधिक अवसर हैं कि बुराई के लिए समय ही नहीं है। यह जीवन-दृष्टिकोण है, जो व्यक्ति को भलाई के लिए हर क्षण प्रेरित करता है।...
[इसी प्रसंग में कहा गया – एक साधु था – कभी कोई उसे गाली दे देता – तो वह कहता – तुम्हारा काम तो पुरा हुआ, लेकिन मैं तो आपको
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कल सोचकर उत्तर दूँगा। जिसने गाली दी होती – वह कहता: आप ना-समझ मालूम होते हैं, अरे, मैंने तो गाली दी है – क्या उसका उत्तर भी सोचकर देना होगा – उसमें तो भारी भूल है।
साधु हँसता और कहता: ठीक, मेरी भारी भूल ही रहने दो।....


आदमी का सारा आयोजन निकृष्ट के साथ चलता है। कुछ श्रेष्ठ में, विराट में हो आने के लिए उसे अवसर आता है – तो वह प्रचलित परंपराओं में उलझकर – केवल भ्रम में – भुलावे में बह जाता है और इस तरह जीवन का सारा कुछ अंधेरे में खो जाता है। यह अनादि क्रम है।....
मैं अपने को जानकर कहता हूँ – कि केवल एक दिशा से, एक ओर तड़फ से ही कुछ जीवन में संभव हो पाता है – अन्यथा सारा कुछ विभक्त होकर खो जाता है। पूज्य बड़े भैया जी कहा करते हैं:
एक फकीर हुआ बायजीद, उसके पास एक युवक आया – बोला, मैं प्रभु से मिलना चाहता हूँ। बायजीद – पास नदी में गया और युवक को जोर से पानी में डुबोया। उसकी गरदन वह पानी में डुबोये रखा – युवक तड़फड़ा गया और सोचा यह तो साधु नहीं, हत्यारा है। थोड़ी देर में युवक को उसने बाहर निकाला; और पूछा: जब तुम पानी के भीतर थे तो तुममें कौन-कौन से विचार चलते थे? युवक बोला: आप भी कैसी बात करते हैं – वहाँ तो सांस टूटने को थी – वहाँ कोई विचार न थे – केवल एक
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ही बात प्राण-मन में थी कि: बस, एक सांस हवा मिल जाये। साधु बोला: ठीक, मैं तो तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दे रहा था – जब ऐसी ही प्यास भीतर से उठ आये – तो प्रभु तो जो निरंतर है – उसमें व्यक्ति हो आता है।......
मेरे लिए आज के इस विविधता और अजीब से उलझे युग में – एक परिपूर्ण जागृत चेतना का जो सहारा मिला है – उससे न केवल मैं, वरन् सारे जन धन्य हो आए हैं।


व्यक्ति हमेशा अतिशयोक्ति पर चलता है। वह या तो भोग की अति पर चला जाता है – फिर भोग यदि छोड़ता है, तो त्याग की अति पर चला जाता है। यह दोनों मन की एकसी सीमायें हैं। इस में मन का सुख है – और अहँ की तृप्ति है। इससे कभी भी जीवन, भागवत चैतन्य को उपलब्ध नहीं होता है।
आप कुछ बहुत करके प्रभु को नहीं पा सकते हैं। आपके प्रयत्न ही आपके मार्ग में बाधा हो जाते हैं। केवल सम्यक मार्ग जो परिपूर्ण रूपसे सन्तुलित हो – वह जीवन-मुक्ति का मार्ग बनता है। कहीं कोई अतिशय जहाँ न हो। इससे मेरा कहना है: प्रभु को कहीं कोई खींच कर नहीं लाया जा सकता। उसमें तो आप अपने को कभी पाते हैं। जैसे मैं पौधे में फूल को देखना चाहता हूँ – तो मैं अच्छी खाद, पानी, प्रकाश का प्रबंध कर सकता हूँ – शेष, फूल तो अपने से कभी समय आता है तो खिल आता है। इसमें मेरी ओर से जो आवश्यक था – उतना किया,शेष तो प्रतिक्षा करने पर फूल का खिलना हुआ। मैं इससे कहता हूँ: प्रार्थना करो और आकांक्षा मत करो, वरन् प्रतीक्षा करो – अपने से सब होगा। इससे मैं ‘ध्यान’ को भी अधिक करने को नहीं कहता। सम्यक – जितना ठीक हो उतना करें – कहीं कोई खींचाव न आने दें – अन्यथा वह खींचाव ही बाधा बन जाता
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है। यह हमें दीखता नहीं है, लेकिन यह होता है।...
गौतम बुद्ध के पास एक व्यक्ति समस्त राजकीय वैभव छोड़कर भिक्षु हुआ। वह कठोर त्याग में उलझ गया। कांटों पर सोने लगा, जलती धूप में रहने लगा - ५ दिन में वह झुलस गया। ५ वे दिन गौतम बुद्ध पहुंचे; -- कहा पाहिले तुम्हें वीणा बजाना प्रिय था। तो तुम जानते हो कि विणा के तार एकदम ढीले हो तो स्वर नहीं निकलता -- ऐसे ही तार पूरी तरह से खिंचे हों तो भी स्वर नहीं निकलता। तार जब सम होते हैं तब स्वर निकलता है। भिक्षु बोलाः ठीक है। बुद्ध ने समझायाः अति भोग और त्याग से नहीं वरन् सम्यक् रूप से सन्तुलन जीवन दृष्टी से -- सहजता और सरलता में -- जीवन मुक्ति का मार्ग है।...
ठीक मेरा भी देखना है किः जो एकदम सरल, वैज्ञानिक और सम्यक् हो -- वह जीवन को संगीत और आनंद से भर देता है। अन्यथा जीवन - विरोध और विषमता से भर जाता है। उससे समता और आनन्द विलग हो जाता है।...
मैं, एक काल्पनिक कहानी पढ़ता था। जो नारद के साथ संयुक्त है। एक समय नारद--प्रभु तक जाते थे। रास्ते में एक साधु मिला, बोलाः पूछना भगवान् से ३० जन्मों से तपस्या करता हूँ, कब मिलना होगा -- प्रभु से। नारद बोलेः ठीक है। आगे जाते थे, तो एक दूसरा साधु मिला। जो अंपने नाचने में मस्त था। नारद मजाक में उससे भी बोलेः तुम्हें कुछ प्रभु से पूछना है -- वो बोलाः कुछ नहीं -- नारद ने बहुत आग्रह किया -- तो बोलाः फिर जा ही रहे हो तो पूछते आना- कब मुक्ति होगी। ...
नारद वापिस लौटे। पाहिले साधु से कहाः अभी -- ३ जन्म और लगेंगे। साधु तो सुनके आग हो गया -- इतना किया अभी ३ जन्म और। ... नारद आगे उस नाचते साधु के पास गए, बोलेः प्रभु ने कहा है, अभी जितने पत्ते इस पेड़ में हैं - उतने जन्म और लगने को हैं। ... वो बोलाः तब ठीक, पा लिया, बस केवल इतने से जन्म -- संसार में इतने वृक्ष हैं -- उनके अनंत पत्ते हैं -- केवल इस पेड़ के पत्ते भर जन्म। ... बस वह पुनः अपने नाच में मस्त हो गया। ...
ये केवल एक कहानी है। इसमें जो तथ्य व्यक्त किये गए हैं -- उसमे एक का तनाव - पूर्ण जीवन दृष्टिकोण है -- और दूसरे का सहज जीवन का आस्था पूर्ण -- सम्यक् वैज्ञानिक दृष्टिकोण है ।उसमें कोई बहुत आग्रह नहीं है। अब मैं जानता हूँ कि पहले साधु को हो सकता है ३० जन्म और लेने पड़ें -- लेकिन दूसरे साधु की बात उसी जन्म में पूरी हो जाती है। ...
इन वैज्ञानिक अनुभूति पूर्ण -- जीवन की दिक्षा को निर्धारित करने वाले अनमोल वचनों को -- आचार्य श्री ने जबलपुर में -- 'ध्यान केन्द्र ' में आए हुए
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साधकों के मध्य २६/३/६३ को व्यक्त किये। ...
जीवन का कोण ठीक विदित न हो तो व्यक्ति कहीं भी अपने को उलझा ले सकता है। प्रचलित जो ख्याल जीवन के संबंध में हैं, उनसे जीवन कहीं श्रेष्ठ चेतना की स्थिति में नहीं हो पाता-- यह सामान्य घटना आज दिखाई पड़ रही है। बुनियाद से ही आदमी गलत दिशा में उलझ जाता है और फिर गहरे अंधेरे के बीच चलता जाता है। यह भूल उसे भी समझ में आती है -- पर वह उसें छिपाये हुए चलता रहता है। एक अजीब सा उलझाव आदमी अपने साथ खड़ा कर लेता है। ....
नगर के पूर्ण बौद्धिक क्षमता के व्यक्ति-आचार्य श्री के समीप आकर अनुभव करते हैं कि जो जाना था -- उसका कोई मूल्य न था। एक संस्कृत की प्रोफ़ेसर का आना हुआ -- इस बीच। आप यहाँ एक ब्रहन - विद्द्या समाज की बैठकों में भी जाया करती हैं। बोलीः 'लोगों की रूचि नहीं है -- आते नहीं है।'
आचार्य श्री ने कहाः जब ऐसी स्थिति हो तो जानना चाहिए कि जो किया जा रहा है -- उसमें कुछ आनन्द ऐसा नहीं होगा कि जो कह सके कि सब छोड़कर पहले वहाँ जाना है। होता यह है कि जब भी श्रेष्ठतम स्थिति में हो आने की संभावना व्यक्ति को दिखाई नहीं पड़ती है - तो उसका मन स्वभावतः वहाँ जाने को नहीं होता है -- फिर उसके साथ जबरदस्ती तो की नहीं जा सकती है। इससे रूचि जब न रह जाये तो जानना चाहिए कि हमारा आयोजन प्राणहीन है -- उसमें आनंद का स्त्रोत नहीं है, अन्यथा आनन्द हो तो आकर्षण तो अपने से होता है।
एक दूसरे बिन्दु पर चर्चा हुईः उसमें आपने कहा कि हम जीवन के प्रति नकार से निषेध से चलते हैं। हम यह नहीं करेंगे - वह नहीं करेंगे --लेकिन इस न करने से जो भीतर का है, उसमें कोई भी परिवर्तन संभव नहीं होता है। आप इस दिशा में बहुत प्रयत्न भी करें -- तो कोई उपलब्धि संभव नहीं है। क्योंकि नकार से जीवन नहीं खड़ा होता, उससे वह टूटता है -- और आनंद तथा सौंदर्य को उपलब्ध होने की अपेक्षा वह विकृत तथा कुरूप हो जाता है। इससे नैतिक जीवन -- दृष्टी -- परम सत्ता तक आपको नहीं ले जा सकती। भीतर कुछ करना होता है -- उसके करने से बाहर परिणाम में जीवन की श्रेष्ठता अभिव्यक्त होती है। ईसा ने एक वाक्य कहा हैः
'Seek ye first the kingdom of God,
& all else shall be added unto you.'
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लेकिन मनुष्य के साथ उलटा घटित होता है। वह शेष सब को पहले करता है -- उससे प्रभु के राज्य में हो आना चाहता है। यह गलत दिशा है। पाहिले प्रभु के राज्य को पाना होता है -- फिर शेष सब अपने से होता है। ब्रम्हचर्य,सत्य,अपरिग्रह,संयम,शील सारा कुछ अपने से होता है। .....
बाद प्रोफ़ेसर का कहना थाः लेकिन सब तो हैः क्रोध,मोह,मान,माया,लोभ -- यह सब कैसे जायगा।
आचार्य श्री ने कहाः ये सब दिखते अलग-अलग हैं -- बाकी भीतर तो केवल एक ही पर चोट करने से-सब अपने से विसर्जित हो जाते हैं। ........
[ दिनांक २८/३/६३ को मध्यान्ह,श्री पंडया जी के साथ आगमन पर चर्चा ]
[महिला प्रो० -- बाद कृतज्ञता व्यक्त कीं और एक गहरे जीवन-परिवर्तन के भाव से भर आईं। .... आश्चर्य था आपको कि इतनी युवा वय में इतने परिपक्व जीवन अनुभूति के प्रेरणापूर्ण सद्- विचार -- आचार्य श्री से – व्यक्त हुए हैं -- इस पर। ]


मनुष्य के साथ बड़ा अजीब हुआ है। इतने आनन्द पूर्ण जीवन की संभावना के बीच -- वह दुख में अपने जीवन को काट देता है। सारी प्रकृति अपने आनन्द और संगीत से परिपूर्ण है। सब शान्त और अपने में पूर्ण है। सारा प्राणी जगत है -- लेकिन मनुष्य सब से दुखी और परेशान है। ... जबकि उसके आनन्द में हो आने की असीम क्षमतायें हैं। ...
बीच में श्री रजनीकान्त सरकार बोलेः लेकिन ऐसा क्यों है ? आचार्य श्री ने कहाः आदमी गहरे अज्ञान में है। उसे मूर्छा घेरे हुए है। उसे अपने अस्तित्व के संबंध में अजीब ख्याल हैं -- इस सब के पार वह कभी उठता नहीं है। अन्यथा जितना वह दुख उठाता है -- उतना ही नहीं वरन् असीम आनन्द में वह हो आए। ...
[ यह प्रसंग श्री सरकार के साथ -- प्रकृति और मानव जीवन के संबंध में आनन्द और वास्तविक सीमाओं के सन्दर्भ में था। ]
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मनुष्य की अलग-अलग प्रकार की प्रवृत्तियाँ होती हैं। उनके अनुसार उनका विभाजन किया जाता है। इस प्रकार सामान्यतः Extrovert और Introvert, इन दो प्रकारों में मनुष्य को रख सकते हैं। जो व्यक्ति सामन्यतः इसी-ख़ुशी से और विनोद में अपने को लगाए रखता है -- वह स्वभावतः अपने भीतर दुखी है -- उसको भूलने के लिए उसका बाहर का आयोजन चला करता है। जरा सा भी दुख उसे हिला देता है। ....
इसके विपरीत Introvert व्यक्ति अपने भीतर ही दुख में घुला जाता है। हमेशा उदासीन और गंभीर बना रहता है। उसे ख़ुशी का कोई अवसर ही नहीं दिख पड़ता है। सामान्यतः दुख आने पर उसकी स्थिति में अब और परिवर्तन संभव नहीं है - क्योंकि पहले से ही वह उस स्थिति में है। ....
ये दोनों ही विकृत स्थितियाँ हैं। इन दोनों को सम्यक् रूपेण होश को बनाए रखकर - अपने से विसर्जित होना होता है। तब फिर जो अनुभव होता है -- वह इन दोनों स्थितियों के पार होता है। एक असीम आनंद में व्यक्ति हो आता है।
[ श्री सरकार के एक प्रसंग में ]
असीम स्त्रोत है -- कभी यह ही मालूम नहीं होती। वैज्ञानिकता उसकी कसौटी है। हर तथ्य कोई अर्थ का नहीं जब तक उसकी वैज्ञानिकताप्रमाणित न हो। विवेचन यों अन्य जन भी किया करते हैं -- जो केवल अपने में कोरा और रिक्त होता है और उससे जीवन में कुछ भी घटित नहीं होता है। लेकिन आचार्य श्री का देखना है -- पूर्णतः वैज्ञानिक ही केवल जीवन में परिवर्तन को देख सकता है। उसमे एक विज्ञान है -- सत्य है -- जो परिणाम देता है। अनेक तथ्य जो केवल निर्मूल्य होते हैं -- और अंततः एकदम कोरे प्रमाणित होते हैं। उनसे सारे जीवन भर चलके कोई परिणाम आने को नहीं होते हैं। अंधेरे पथ पर कोई जीवन भर चलता रहे -- इससे क्या होने को है ? ठीक सम्यक्
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वैज्ञानिक मार्ग ही जीवन को आनन्द और शान्ति से भर सकता है। ....
अनेक प्रचलित ख्याल जो बड़े लोगों के साथ भी सन्युक्त हो जाते हैं उनका कोई अर्थ नहीं होता है। हर युग और समय में -- राष्ट्रों के अपने -अपने जीवन के मूल्य हुआ करते हैं -- उन मूल्यों को श्रेय मिलता है और प्रतिष्ठा होती है। इस कारण ही भारत में जो बड़ा होना चाहा -- वह त्याग के साथ खड़ा हो गया -- कोई उसे त्याग प्रिय न था - वरन् त्याग श्रेय और प्रतिष्ठा देगा -- इससे व्यक्ति त्यागी होने में गौरव मानने ने लगा। कहीं जीवन को भौतिक मूल्यों को श्रेष्ठ माना गया -- तो व्यक्ति भौतिकता के पीछे चलने लगा। इस तरह जिन मूल्यों को श्रेय, प्रतिष्ठा और आदर मिलने लगता है -- व्यक्ति उन मूल्यों पर चलने लगता है -- उसमें उसकी कोई वैज्ञानिकता नहीं होती है। .....
अब इस तरह का व्यक्ति कहीं अपने में नहीं होता है ... वह मूल्य जन होता है। जिस तरह के भी मूल्य गौरव देंगे -- उसमें वह अपने को ढालता चलता है। उसमें जीवन की वास्तविकता नहीं होती है। मेरा देखना है कि शुद्ध धार्मिक व्यक्ति चाहे कहीं भी हो -- वह अपने अनुसार होगा। उसका जीवन का अपना मूल्य होता है -- कोई बाहर के मूल्य उसके जीवन को नहीं बना सकते हैं। वह अपने शुद्ध वास्तविक स्वरूप में होता है। उसके अपने स्वयं के जीवन-मूल्य होते हैं और उसे उनमें परिपूर्ण जीवन-दृष्टी का बोध होता है। वह सत्य में होता है और अपनी अंतर्दृष्टि से जीवन में परम सत्ता के आनंद को अनुभूत करता है। केवल ऐसा व्यक्ति ही समस्त सीमाओं के बाहर होता है और सारे मूल्यों से अप्रभावित रहता है। वह अपने में होता है और उससे जीवन-मूल्य अपने से फूटते हैं। ......
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कितनी सहजता और सरलता से -- जीवन की श्रेष्ठ अभिव्यक्ति आचार्य श्री से होती है कि उसकी अपने में भव्यता है। …
एक सामान्य प्रश्न होता हैः पहले जब तक प्रारंभ की सीढियाँ व्यक्ति पार न करे -- वह अंतिम पर कैसे पहुँच सकता है -- 'ध्यान की परिपूर्णता' तो अंतिम है -- पर आप तो उसे प्रारंभ से ही चलना शुरू कर देते हैं -- यह दुविधा क्यों ?
आप जिन सीढ़ियों की बात करते हैं वह आपको ठीक से जानना होगा। व्यक्ति के पास एक तो इन्द्रियाँ हैं और इन्द्रियों से संयुक्त चेतना है। मैं आखों से आपको देखता हूँ -- तो एक तो बाह्य इन्द्रिय इसमें कार्यशील है -- दूसरी जो चेतना इसके पीछे है -- वह आपके देखने का कार्य पूर्ण करती है -- आपको देखे जाने वाले का बोध देती है। इसी तरह -- सारी इन्द्रियों और मन के पीछे चेतन सत्ता है। अब मैं इन्द्रियों को उपयोग करना चाहूँ - और उनके माध्यम से जो विशिष्ट कार्य संभव हैं - उस दिशा में लग जाऊँ -- तो मुझे प्रयोग करना होंगे। ये प्रयोग केवल जो व्यक्ति के साथ मन की अन्य (अचेतन मन की ) शक्तियाँ हैं -- उसमें व्यक्ति को ले आते हैं और व्यक्ति को कुछ असामान्य इन्द्रिय बोध होना शुरू होता है। जैसेः वह दूर तक के तथ्यों को जान सकेगा -- उन्हें देख सकेगा -- सुन सकेगा और इस तरह एक शक्ति उसके जीवन में आ जाती है। इससे लोगों की क्षुद्र वासनायें तृप्त होती हैं, वे उस व्यक्ति को आदर देने लगते हैं। परिणाम में एक चमत्कार की हवा फैलना शुरू हो जाती है। इस शक्ति के -- अतीन्द्रिय बोध के प्रयोग में अवश्य आपको सीढियाँ पार करनी होती हैं। इससे ऐसा लगने लगता है कि जो इन सबमें प्रगट हो रहा है -- उसमें हो आने के लिए भी सीढियाँ पार करना होंगी।यह भ्रान्त है।
सचेतन -- सप्राण तत्व तो हमेशा है। उसमें हो आने के लिए कोई सीढियाँ नहीं हैं। या तो हम उस सत्ता में होते हैं या नहीं होते हैं। जैसेः कोई आदमी मर गया है -- तो हम यह तो नहीं जानते कि अभी वह कम मरा है या कम जीवित है -- या तो वह जीवित होगा या मरा होगा। उसमें कोई सीढ़ी की बात नहीं है। ठीक ऐसे ही
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