Arvind Jain Notebooks, Vol 5

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author
Arvind Kumar Jain
year
Jan - Jun 1963
notes
250 pages (only 73 pages are here)
Osho's Life Analysis over Different Subjects
Meetings with Different Personalities & Groups
Discussion
by Arvind Jain
see also
Notebooks Timeline Extraction


page no
original photo & enhanced photos
Hindi transcript
cover
(5)
250 pages (only 73 pages are here)
Notes on Osho's Life Analysis
over Different Subjects
Meetings with Different
Personalities & Groups
Discussion
Jan 63 to June 63
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1
( जनवरी का प्रथम पक्ष १९६३ ) (First Fortnight of January 1963)
एक जगत का अपना क्रम है | उसकी अपनी व्यवस्था है | कोई उसके क्षेत्र से बाहर नहीं हो सकता | कुछ इतनी महालीला है | यह अनादि है |
कभी युग की अपनी देन होती है कि एक प्रकाशमय दीप से आलोक जगमगाता है -- और अनेक जीवन बंधन-मुक्त होते हैं | सूर्य उगता है - और तिमिर चला जाता है | जीवन का सत्य - अपने से अभिव्यक्त हो जाता है | यह भी अनोखा है | इसकी भी अपनी शाश्वत सत्ता है |
जीवन जब अपने में अमृत लिए प्रगट होता है - तो देखते बनता है | अन्यथा तो विषाक्त है | जिसे निकट में अमृत पान करने को मिलता है - उसके भी महा-भाग्य को क्या कहें ! जगत में एक जन्म-मरण का घना चक्कर है और इससे मुक्ति का कोई मार्ग न हो तो जीवन तो सबसे बड़ा महाकैद हो जायगा | मुक्ति है - इसी से जीवन का विष भी पी लिया जाता है | अन्यथा क्या होता? ... कौन जानता ?
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2 - 3
लिखने को कितना कुछ बिखरा पड़ा है | ज्यों समेटने चलता हूँ - पाता हूँ कि उसके बिखरने का कोई अंत नहीं | वह तो बिखरा ही था - बिखेरने वाला मिलते है तो उसकी अमृत वर्षा होती हैं | यह दुर्लभ है |
इस दुर्लभता को भी व्यक्ति समझता नहीं है - और मन की अपनी अंधी राहों पर चलता चला जाता है | यही एक आदमी का सनातन सुख है | एक प्रकृति के द्वारा दी गई गहरी मूर्छा है |
अनेक जीवन के प्रसंग - अनेक व्यक्तिगण ले आते हैं | मुझे तो बहुत कम में उपस्थित रहने का अवसर मिला | जिनमें मिला - उसे मैं यहाँ उल्लखित करता हूँ |
मानव के सनातन प्रश्न रहे हैं :
१. ' ब्रह्मचर्य की साधना कैसे हो ? '
सारा मानव इतिहास इस सत्य पर खोज करता रहा है और जो आधुनिक शोधें - मनोविज्ञान की हुई हैं - उनसे बहुत क्रांतिकारी परिणाम
सामने आए हैं | ब्रह्मचर्य को साधने अनेक व्यक्ति चलते हैं - लेकिन शायद ही किसी को ब्रह्मचर्य उपलब्ध होता हो | जब तक उसके विज्ञान से परिचित न हुआ जाये - साधना हो ही नहीं सकती | आप सारा कुछ बाहर से साध लें - लेकिन उसके कोई परिणाम आने को नहीं हैं | बाह्य साधना औपचारिक हैं और उसका व्यक्तित्व के एक-निष्ठ होने में कोई सहयोग नहीं है | अनेक साधक मिलेंगे - जो भ्रांत जीवन में उलझ जाते हैं - और भीतर रस बना रहता है | एक विकृति चलती रहती है - और जीवन सौंदर्य को उपलब्ध नहीं होता |
ब्रह्मचर्य एक जीवन-विज्ञान है | इसके लिए - आंतरिक परिवर्तन आवश्यक है | जब तक कोई व्यक्ति समस्त जो भी वेग उठते हैं - उनके पार नहीं हो जाता - तब तक ब्रह्मचर्य उपलब्ध नहीं हो सकता है | यह एक गहरी शांत चेतना की अवस्था में ही
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4 - 5
संभव है | भीतर चेतना की शांत गहराई - होती चली जाती है और बाहर व्यक्तित्व का सृजन होता चला जाता है |
कैसे यह चेतना की शांत - गहराई की अवस्था उपलब्ध हो - इसे जान लेने से परिणाम में ब्रह्मचर्य आता है | ऐसा मेरा देखना है |
मेरा देखना है कि ध्यान के प्रयोग से - व्यक्ति भीतर शांत चेतना की गहराई में उतरता चला जाता है | जब यह शांत शून्य स्थिति २४ घंटों में फैल जाती हैं - तो अपने से व्यक्ति एक असीम और अनंत आनंद की शांति के बीच - दिव्य जीवन को या ब्रह्म निष्ठ चेतना को उपलब्ध होता है |
बिना विज्ञान को उपलब्ध किए केवल एक भ्रांत दौड़ में उलझ जाना
केवल व्यर्थता लाता है | अनेक मधुर दांपत्य जीवन केवल इस कारण टूट जाते हैं कि ग़लत जीवन-साधना में व्यक्ति उलझ जाता है |
मेरा देखना - इसके पार है | जीवन में कुछ भी छोड़ने और पकड़ने जैसा नहीं है | केवल शांत होते चला जाना, अपने में मूल्य का है - और शेष सब अपने से होता है | फिर ठीक जीवन के घनेपन के बीच - व्यक्ति दूसरा हो जाता है | ... इससे ही बाद फिर कुछ भी बाधा नहीं बनता - अपने-अपने मूल्य में तथ्य रूप में सारा कुछ हो जाता है | जीवन एक सुलभ पहेली हो जाती है |
अन्यथा जीवन की भ्रांत धारणाएँ - व्यक्ति को खूब गहरा उलझा देती हैं और मन का खेल ठीक वैसा का वैसा ही बना रहता है | इसी सब पर एक दिवस कहा गया :
धर्म ने व्यक्ति को दो लाभ दिए हैं :
१. झूठा धार्मिक होने का अहं भी पूरा हो गया :
और २. सही धार्मिक होने से बचा लिया |
इस तरह भ्रांति पूर्ण जीवन - का रहस्य है |
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6 - 7
इस वैज्ञानिक विश्लेषण को आचार्य ने श्री राम दुबे को दिया - और कहा :
मैं कहीं भी विरोध में नहीं हूँ | जो ठीक लगे उसे करते चलो | केवा; जागरूकता बनाए रखना उससे ही तब फिर जो होगा - स्थायी होगा और जीवन परिवर्तित हो सकेगा | ज़ोर-ज़बरदस्ती से कुछ भी मन के साथ करने जैसे नहीं है |
२. 'क्या मांसाहार करना ग़लत है ? '
मांस खाना और न खाना उतना बड़ा प्रश्न नहीं है, जितना कि उस विज्ञान को जान लेना जिसमें से जीवन में अहिंसा और प्रेम घटित होता है | मेरा मांसाहार पर समझना और देखना - नैतिक नहीं है | यह कोई नैतिक बिंदु भी नहीं है | इस पर मेरा देखना भिन्न है | जैसे में देख पाता हूँ - उससे चेतना की एक विशिष्ट अवस्था में - सारे प्राणियों के प्रति गहरा प्रेम का बोध होता है - यह प्रेम का बोध ही - अहिंसा को प्रगट करता है | कैसे यह चेतना की विशिष्ट स्थिति को व्यक्ति जीवन में पा सकता है ? ठीक से इसका विज्ञान समझना ज़रूरी है | इसके अभाव में आप मांसाहार पर कितना भी विरोध करें और लोगों को समझाएँ - उससे कोई भी परिणाम जीवन में घटित होने को नहीं हैं | आज विश्‍व की आबादी का एक बड़ा हिस्सा - माँसाहार करता है - अनेक प्रयत्न समझाने के होते हैं लेकिन व्यर्थ जाते हैं | फिर - जो माँस नहीं खाते हैं - उनके न खाने में भी केवल संस्कार का भर भेद है - इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं | इनके द्वारा जो भी समझाया जाता है - वह घृणा से निकला होता है - और फलतः कोई भी परिणाम नहीं आते हैं |
एक बात उल्लेखनीय हैं कि इस युग में अब मांसाहार के विरोध में कोई बोलता है ,
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8 - 9
तो उसका विरोध नहीं होता है और मांसाहार के समर्थन में दलीलें प्रस्तुत नहीं की जाती हैं | अभी पश्चिम में कुछ महान पुरुषों ने मांस लेने का विरोध किया और एक हवा का फैलना वहाँ भी प्रारंभ हुआ है | जार्ज बर्नार्ड शॉ ने लिखा कि ' मेरी सारी संस्कृति ईसा को ही श्रेष्ठतम कहती हैं - लेकिन सब तरह से विचार करने के बाद भी - मैं ईसा को बुद्ध के उपर नहीं रख पाता | ' इन अर्थों में अब एक वातावरण निर्मित हो रहा है -- जिससे कि पूरब की संस्कृति को फैलने का अवसर मिले | यहाँ यह उल्लेखनीय हैं कि - बर्नार्ड शॉ ने अपनी अस्वस्थ अवस्था में डाक्टरों की सलाह पर गो-मांस लेने की अस्वीकृति दी - जिससे कि बर्नार्ड शॉ को बचाया जा सकता था | सारे मित्रों ने विनोद किया लेकिन बर्नार्ड शॉ ने कहा : ' किसी प्राणी की मृत्यु से - मैं स्वयं मर जाना पसंद करूँगा | '
विचारशील वर्ग - माँस न खाने से प्रभावित हुआ है | लेकिन अभी तक उस विज्ञान से मानवीयता पूरी तरह से परिचित नहीं हुई हैं जिससे कि व्यक्ति उस स्थिति में पहुँच जाता है, जहाँ से जीवन में गहरी क्रांति घटित
होती है और व्यक्ति माँस न खाने की स्थिति में अपने से हो आता है | समस्त प्राणियों के प्रति एक गहरा प्रेम का बोध होता है जिससे कि जीवन में अहिंसा प्रगट होती है |
इस विज्ञान के अभाव में आप लाख नैतिक शिक्षण दीजिए लेकिन परिणाम वही के वही बने रहते हैं | बड़ा मज़ा यह है कि नैतिक विचारक इस भ्रांति में रहते हैं कि उनका नैतिक शिक्षण तो ठीक है लेकिन जो उसे मानके चलते हैं - वे ही ग़लत हैं | इसमें बुनियादी भूल है | कोई नैतिक विचार व्यक्ति को - ' प्रभु चेतना ' का दर्शन नहीं करा सकता और जब तक व्यक्ति प्रभु चेतना से संयुक्त न हो रहे, तब तक उसके जीवन में क्रांति घटित नहीं होती हैं | आज तक नैतिक विचार आपके सामने रहे हैं, क्या उनका परिणाम आया है - इससे आप भली-भाँति अवगत हैं |
मेरा देखना इस कारण भिन्न है | मेरा देखना है कि ' ध्यान ' की साधना से
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… जीवन में एक गहरे आंतरिक स्त्रोत से व्यक्ति संबधित होता है – और अनंत शक्ति तथा आनंद के बोध से भर जाता है। वह संपूर्ण जगत की सत्ता से एक हो जाता है। तब फिर जगत में जो एक प्रभु की अभिव्यक्ति से सृजनात्मक बोध से भर जाता है – उससे ही जीवन में अहिंसा प्रगट होती है।
इससे कोई अहिंसा को साधके – अहिंसक नहीं हो सकाता है।... भीतर क्रांति घटित हो जाती है – उससे व्यक्ति के जीवन में हिंसा गिर जाती है – और वह अहिंसक हो जाता है।....
जीवन अपने में न कुछ है, इस कारण उसकी विभिन्न स्थितियाँ दीखने में आती हैं | आदमी है कि अपने को इस खेल में पूर्णतः उलझा लेता है और सोचता है कि वह एक वृहत कार्य में लगा है | लेकिन जब जीवन शक्ति क्षीण हो जाती है और सारे बंधन टूट जाते हैं - तो अपनी एकांत अवस्था में वह - दुखी और संतप्त होता है और उसे लगता है कि सारे जीवन भर एक व्यर्थ के खेल में उलझा था - जिसका कोई मूल्य न था | जिंदगी जब जाती लगती है तो यह प्रतीति और भी घनी होती जाती है | यह जीवन का अनंत आवर्त है - जो पुनः पुनः दोहराता है ओर आदमी गहरी मूर्छा में उलझा रहता है | नित प्रति जीवन के समक्ष सारे तथ्य व्यक्त होते हैं - लेकिन एक गहरी मूर्छा में व्यक्ति बना रहता है | देखता है -- जन्म को संसारिक विषाद और तनाव को, स्वार्थ की निकृष्ट भावनाओं को शरीर के गलन और सड़न को, मरण और जरा को - लेकिन गहरा नशा प्रकृति का है - जो उसे सुलाए रखने में सक्षम है | यह बहुत सूक्ष्म भी जो है |
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12 - 13
इन दिवसों में अनेक जन मिलन हेतु आए | बड़ा सुलभ होता है आचार्य श्री से मिलन | प्यास भी तो गहरी होती है -- आदमी की | उस प्यास को जब आदमी तृप्त होता पाता है - तो फिर गहरा आकर्षण उसका होता है |
अनेक प्रश्न होते हैं - आगंतुकों के | इनमें से जो भी प्रश्न होते हैं - कुछ तो सहज उत्सुकतावश पूछे गये होते हैं, कुछ साधना के बीच उठ आई स्थितियों से संबंधित होते हैं और कुछ जीवन के मूल परिवर्तन से संबंधित होते हैं |
पूछा गया : " क्या ' ध्यान ' की साधना से जीवन् में संसारिक कार्य रुक जाते हैं ? "
आचार्य श्री ने कहा : मन हमें रोकता है - इसी कारण वह कहता है : बड़ा जटिल है - संभव नहीं है | लेकिन यह केवल मन की सीमा है और कहीं वह टूट न जाए - इससे जहाँ वह घेरा बनाकर खड़ा है, वहीं खड़ा रहना चाहता है | ' ध्यान ' के गहरे प्रयोगों से जीवन में अपरिसीम शांति और आनंद का उदय होता है | पहिली बार जाना जाता है कि ' आनंद और शांति क्या है ? ' श्री अरविंद ने लिखा है ' जब जाना पहिली बार कि
आनंद क्या है तो अभी तक जिसे आनंद समझा था वह मृत हो आया और जिसे जीवन जाना था वह मृत्यु से भी बदतर हो आया | ' असीम आनंद में हो आना संभव है और वह ज़रा से यौगिक विज्ञान से संभव है | अन्यथा आप लाख प्रयास करें - आनंद और शांति को पा लेने के लिए, सब व्यर्थ होते है | बड़ा उलझा खेल प्रकृति का है | उसी में बंधन भी है और मुक्ति भी है | यह मानव के हाथ में है कि वह क्या चुनता है ? जिस दिशा को वह चुनेगा - उसी दिशा में उसके कदम बढ़ेंगे | इससे मेरा देखना है कि आप इस ओर हो आयें - फिर तो जीवन में अपने से विकास संभव होता है | इस ओर आएँ ही न, केवल उत्सुकता की हल्की झलक भर दिखाकर पार हो जाएँ - तो कोई परिणाम जीवन में आने को नहीं हैं | आपने पूछा संसारिक कार्यों को रुकने को, सो स्वाभाविक है | मेरा देखना है कि व्यर्थता जीवन से चली जाती है, जो भी आवश्यक है वह केवल होता चलता है और पूर्ण कुशलता से होता है | क्योंकि योगी कर्म कुशल हो जाता है |....
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14 - 15
श्री अचल जी पारख और उनके मित्र आ उपस्थित हैं | सारा जीवन क्रम निशा की गोद में खो आया है | दूर झिलमिल तारों का अपना सुंदर नृत्य हो रहा है | सब पूर्ण शांत और रात्रि की गहरी कालीमा में खो गया है |
शीत अपनी ठंडी हवाओं के साथ अपना परिचय दे रही है |
एक प्रसंग उठा था | आचार्य श्री ने कहा :
अभी मैं गुरुज्यिफ, एक काकेशीयन साधक, के संबंध में पढ़ता था | उसका साधना क्रम अनोखा था | ओगार्की ने लिखा कि हम १० जन थे | गुरुज्यिफ का पहला क्रम था : ‘Stop Exercise ' का | जिस अवस्था में ' रुकने ' ( Stop ) को कहा गया हो, उसी में रहना होता था | एक दिवस झील पार करते समय ' Stop ' किया गया | सभी खड़े हो गये | अचानक पानी बढ़ने लगा | धीरे-धीरे मेरे साथी निकल भागे | ओगर्की भर खड़ा रहा था | पानी नाक कान में भर गया | आख़िर ओगार्की को निकाला गया | वह बेहोश था | बाकी लोगों को गुरुज्यिफ ने विदा किया | बाद ओगर्की ने लिखा कि जब मैं होश में आया - तो उसी क्षण घटना घट गई थी | गुरुज्यिफ बोला : ' ठीक, ऐसे बहुत कम लोग आते हैं - ओगार्की | तुम मृत्यु को भी ले सकते हो तो मन के साथ तो प्रयोग एकदम संभव ही हैं | '
ठीक, मेरा भी जानना एसा ही है | १०० में से
९९ लोगों को तो समझाना केवल उनकी उत्सुकता को भर तृप्त करना है, इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं | कितना भागा हुआ जीवन का क्रम हमारा चलता रहता है | सब कुछ भागा जा रहा है, एक क्षण को भी स्थिर नहीं है | .... कुछ बहुत अजीब सा हैं |
एक और प्रसंग के अंतर्गत आचार्य श्री कह रहे थे कि : एक आश्रम में गुरुज्यिफ के - २ वर्ष से लोग रह रहे थे | ओगार्की ने लिखा कि एक दिवस उससे कहा गया और सभी मित्रों से कि : २ दिन के भीतर आश्रम आप लोग खाली करके जाइए मुझे रहना होगा | - सबने जाना कि : अभी तो कोई आत्मिक उपलब्धि भी नहीं हुई फिर जाने की बात से तो एक अजीब स्थिति निर्मित हुई | आख़िर बहुत से लोग चले गये | जो ३-४ लोग बच रहे - वे नहीं गए | गुरुज्यिफ बोला - ठीक, तुम लोग रह सकते हो - वे न भी जाते और बने रहते - तो वे कभी भी जा सकते थे | ...
गुरुज्यिफ का यह समझना - जीवन के गहरे तथ्यों को व्यक्त करता है
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16 - 17
इस माह तो जो घटित हो रहा है, वह अपने में मौलिक, चिरंतन सत्य की धारा को व्यक्त करता हुआ, अपने में जीवन के अनेक क्षेत्रों में स्पष्ट और सख़्त भावों को व्यक्त करता हुआ है | ... न जाने कितने मूल्य जो मानव ने बनाए हैं - उनको पूरी तरह से भ्रम को तोड़ने की जो गहरी प्रक्रिया घटित हुई है - वह उल्लेखनीय रही |
स्वामी विवेकानंद जयंती के आयोजनों में आपने कहा : ' मेरे मन में इस कारण विवेकानंद के प्रति सम्मान नहीं है कि उन्होंने राष्ट्र का गौरव बढ़ाया | जिस प्रकार व्यक्ति का ' अहंकार ' क्षुद्र होता है - ठीक वैसे ही राष्ट्र का ' अहंकार ' क्षुद्र होता है | और न ही यह घोषित करना कि भारत ने आध्यात्मिक विश्‍व गुरु का श्रेय प्राप्त हुआ - मेरे लिए कोई अर्थ का है | यह भी केवल मन की तृप्ति मात्र है | कोई भौतिक उन्नति संभव न हो सकी, इस कारण इसी क्षेत्र में उँचा कह के - हम अपने को तृप्त करने का सुख लें - यह भ्रांत होगा | फिर सत्य तो शाश्वत है - मानवीय इतिहास रहे या न रहे, सत्य तो है | उसके बोध में - कोई किसी का गुरु हो नहीं सकता है |
प्रत्येक को शाश्वत जीवन में हो आने में कहीं कोई रुकावट नहीं है | रुकावट हो नहीं सकती है - यदि आप भर बाधा न बनें | इस समग्र जीवन में बहुत घटनाएँ हैं और जो भी जन्म लेता है - वह मरता है | इस कारण मैं - स्वामी विवेकानंद के जीवन के संबंध में, उनकी यात्राओं के संबंध में, जीवन में घटित घटनाओं के संबंध में कोई महत्व नहीं देख पाता हूँ | वह सब सामान्य है | केवल एक घटना भर व्यक्ति के जीवन में महत्व की होती है कि एक अति सामान्य या क्षुद्र मानवीय जीवन से कैसे वह दिव्य चेतना को या भागवत चेतना को उपलब्ध हुआ | इस चाटना के प्रति ही मेरा सम्मान है और मैं इसी संबंध में आपसे चर्चा करने को हूँ |
विवेकानंद के मान में थोथि आस्तिकता के प्रति कहीं कोई झुकाव नहीं था | वे एक गहरे नास्तिक थे | समस्त प्रचलित धारणाओं का उनके मन में विरोध था | यह इतनी दूरी तक पहुँच गया था कि विवेकानंद ने लिखा कि यहदी कहीं मेरे जीवन में - प्रभु के जीवन से संयुक्त होने की घटना घटित न होती तो मैं पागल हो गया होता |
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18 - 19
उनकी गहरी नास्तिकता ही उन्हें प्रभु के शाश्वत जीवन में ले आई थी। एक-एक स्थान पर जाकर उन्होंने पूछा था: ‘प्रभु को देखा है?’ कोई उत्तर न मिलने पर उद्विग्न थे और जीवन के कोरेपन से भली भांति परिचित हो आये थे। पूछा था गहरी अंधेरी रातों में गंगा में कूदकर बजरा तोड़कर – महर्षि देवेंद्रनाथ ठाकुर से – पाया कि वहां भी झिझक थी और वापिस चले आये, बोले कि झिझक ने सारा उत्तर दे दिया। महर्षि की लिखने में कलम रुकती नहीं थी और न ही बोलने में वाणी रुकती थी, लेकिन उस दिवस न जाने क्या हुआ कि ‘झिझके’।... बाद उनका मिलना दक्षिणेश्वर के एक पागल पुजारी से हुआ, जिनकी गंध दूर-दूर तक फैल आई थी। मिलने पर उत्तर मिला: प्रभु को देखा है, तुम भी दर्शन करना चाहोगे तो करा दे सकता हूँ।‘ यह एक अद्भुत उत्तर था जिसे विवेकानंद ने पहले और कहीं नहीं पाया था। बाद रामकृष्ण देव से मिलकर उनकी समस्त नास्तिकता गिर गई।
मेरा देखना है कि ठीक प्रभु के प्रकाश में हो आने के लिए, पूर्व गहरी नास्तिकता का होना आवश्यक है। इससे गुजरना आवश्यक है। जैसे
घनी काली रात के बाद - सुबह का प्रकाश फूटता है - वैसे ही गहरी नास्तिकता के बाद जो घटना घटित होती है - उससे संपूर्ण जीवन प्रभु के प्रकाश से भर आता है और एक दिव्य जीवन दृष्टि में व्यक्ति हो आता है | ...
इससे ही थोथि आस्तिकता का जीवन में कोई अर्थ नहीं है | ...
बाद आपने जो विवेकानंद को उपलब्ध हुआ, उस उपलब्धि पर शाश्वत जीवन के मार्ग पर प्रकाश डाला | इसके अंतर्गत आपने कहा कि सत्य में हो आने के तीन शाश्वत केंद्र रहे हैं | ज्ञान योग, भक्ति योग और कर्म योग | आपने मौलिकता के सृजनात्मक आधार पर अनुभूतिपूर्ण प्रवचन दिया | कहा आपने ' ध्यान योग - याने विचार शून्यता | इस शून्य में जो ज्ञात होता है - उससे जीवन में एक गहरे आनंद का बोध होता है | एक नये जगत में व्यक्ति प्रवेश कर जाता है, जहाँ से वह अनंत जीवन दर्शन को उपलब्ध होता है | ज्ञान का अर्थ बहुत सूचनाओं के इकट्ठे कर लेने से नहीं है | न ही कोरा पान्डित्य और ग्रंथों का ज्ञान | ज्ञान का इस सबसे कोई अर्थ नहीं है |...
भक्ति योग का जानना है कि उस अनंत में भक्ति के माध्यम से भी हुआ जा
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20 - 21
सकता है | इसमें प्रचलित पूजा - पाठ और प्रार्थना का - कोई स्थान नहीं है | जब व्यक्ति अपने में इतना समर्पित होता है कि उसका क्षुद्र ' मैं ' गिर जाता है तो वह विराट की सत्ता से एक हो आता है | इस क्षुद्र ' अहं ' का गिर जाना - भीतर परिपूर्ण विचारों से खाली हो जाना है | यह भक्ति योग है |
कर्म योग का जानना है कि - शुद्ध कर्म ही केवल रह जाय - परिपूर्ण वर्तमान में - तो भी व्यक्ति सत्य को उपलब्ध हो जाता है | हमारी वर्तमान में सत्ता ही नहीं है - या हम अतीत की स्मृति से बँधे हुए होते है या फिर भविष्य की चिंता में या सुख में खोए होते हैं | जैसे ही हम ठीक इसी क्षण में होते हैं पाया जाता है कि मैं जो विचारों का पुंज था - वह समाप्त हो आया है और शुद्ध कर्म में होकर - मैं प्रभु से संयुक्त हो आया हूँ |
इस तरह देखने से ज्ञान, भक्ति और
कर्म - एक ही सत्य को देखने के तीन दृष्टिकोण हैं | उपर से पृथकता दीख सकती है, लेकिन वास्तव में तीनों केंद्र से संयुक्त होकर - एक हैं |
यह ' विचार शून्यता ' कैसे हो ? - इसका वैज्ञानिक मार्ग है | मन है - जब तक मूर्छा है - जागृति में मन पाया ही नहीं जाता है | मन - बेहोशी में है - जैसे ही सम्यक जागरूकता उपलब्ध होती है कि मन होता ही नहीं | जब तक प्रकाश नहीं है - तब तक अंधेरा है | इससे कोई कहे कि अंधेरे को धक्के देकर निकालो - तो व्यर्थ होगा | अंधेरे का कोई Positive existence नहीं है | जैसे ही प्रकाश आता है, अंधेरा अपने से चला जाता है | इससे मन को दमन नहीं - सम्यक जागृति में विसर्जित कर देना है | यह सुलभ है - और सम्यक जागृति का दिया जलते ही - सारा कुछ घटित हो आता है | व्यक्ति अपने केंद्र से संयुक्त होकर - आनंद और शांति को उपलब्ध होता है | ...
स्वामी विवेकानंद शताब्दी जयंती समारोह, १७ जनवरी ' ६३ [ गृह विज्ञान महिला महाविद्यालय और महकौशल कला महाविद्यालय में दिए गये - प्रवचनों में से]
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22 - 23
उत्तर का क्या पूछना - बस अपने में अद्वितीय | उनकी एसी झलक देखने मे भी नहीं आती | एकदम जीवंत और सुवासित | सारा कुछ देखा हुआ और संपूर्ण कला में अभिव्यक्तिकरण - एक परिपूर्ण शान और दिव्यता को लिए हुए | प्यासा कभी भी तृप्त न हो - ऐसा कुछ अनोखा रस रहता है | सुना है 15 सालों से - और जो जाना है - वह तो बस शाश्वत निधि है | अनेक जीवन के उतार-चढ़ाव - पर भीतर चलते चलने का क्रम सदा एक़्सा | कभी-भी जीवन में कुछ भी तोड़ नहीं सका |
एक दिवस श्री सरकार महोदय - आ उपस्थित थे | आप बहुत उद्दिग्नता और अशांति को लेकर बहुत पहीले आ उपस्थित हुए थे | बहुत हलकापन इस बीच आपके जीवन में आया है | अनेक घटनाओं का उल्लेख देते हुए आपने कहा कि : ' मुझे अभी तक ध्यान की परिपूर्ण गहराइयाँ उपलब्ध क्यों नहीं हुई हैं ? - ज़रा सा वेग तोड़ गया | ‘
आचार्य श्री ने कहा : ध्यान से परिवर्तन आप में आए हैं | ये परिवर्तन और भी गहरे जाकर चित्त की समस्त विकृतियों को विसर्जित कर देंगे | अभी जितना हुआ है - वह पर्याप्त है | बाकी अभी जो विकृत अशांत स्थिति को
आप देख पाते हैं - यह ही आपको पूर्ण मुक्त कर देगी | वास्तव में, परिवर्तन किस प्रकार भीतर आते रहते हैं - हमें ज्ञात नहीं होता है | प्रत्येक व्यक्तित्व के विकास में जो भी घटता है - यदि वह देखता रहे - परिपूर्ण सम्यक जागृति के साथ तो सारे जीवन के रोड़े सीढ़ी बन जाते हैं और व्यक्तित्व का अपरिसीम विकास होता चलता है | घटने दीजिए, घटने को तो सारा कुछ है - लेकिन उसके बीच परिपूर्ण शांत में सम्यक जागृति के होने से - सन अपने से विसर्जित होता चलता है |
आपमें इस असीम जीवन-दृष्टि का दिया जला है तो सारा कुछ अपने से हो रहेगा |
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24 - 25
जीवन के अनेक भागों में - आचार्य श्री की दिव्य जीवन दृष्टि उपलब्ध हुई है | धर्म की वैज्ञानिक शोध से जो भी जगत को मिल रहा है - वह अद्भुत है और जीवन का प्रशस्त मार्ग है | श्री शर्मा (M.B.B.S.) और श्री अब्दुल अज़ीज - इस माह एक अजीब सी उलझन से गुज़रे | आप दोनों की पूर्व साधना थी और उससे उन्हें कुछ मिला था - शक्ति की प्राप्ति हुई थी | भाई अब्दुल के जीवन में तो इस तरह की घटनाएँ भी घटित हुई थीं - जिनसे कि अब्दुल जी को बड़ा विश्वास हो आया था कि जो कुछ उनके द्वारा बोला जाता है - वह पूरा होता है - एसी खुदा की उन पर कृपा है |
बाद आप आचार्य श्री की साधना से गुज़रे | आपको शांति की स्थिति का बोध हुआ - तो पिछला सममस्त शक्ति से उपलब्ध खोता सा आपको लगा | चित्त एक दुविधा की स्थिति में हो आया | इस बीच आपमें एक जोश उभर आया और जीवन में आप तीव्र अशांति के बीच हो आए | आपका मन अनेक तरह के प्रश्न उठाने लगा | पूछा था
आपने : ' अनेक लोग जो प्रभु उपलब्धि के लिए चलते है, वे सारे लोग तो कुछ गहरे प्रयास करते नज़र आते हैं | पर आप तो सारा कुछ करना समाप्त करवा देते हैं | यह विरोध दिखता है | किसे ठीक कहा जाय ? '
आपको ठीक वीदित हुआ है | वास्तव में मन हमेशा कुछ करते रहने की चाल पर चलता है | वह सतत उलझा रहा है | इससे कुछ भी न करना उसे प्रिय नहीं है | जानना चाहिए कि जो मन को प्रिय है, उससे कैसे मन के पार हुआ जा सकता है | वह तो मन में ही रहना हुआ न |
फिर तुम्हारा जोश में हो आना - स्वाभाविक है | यह मन ही है - जो प्रतिक्रिया देता है और लौट-लौट कर अपने अस्तित्व को बनाये रहना चाहता है | इस बीच तुम ध्यान में गए हो | तो तुम्हारा जानना होगा कि मैं कुछ न करने को कहता नहीं हूँ - यदि आप कुछ न करने भी चले तो और गहरे उलझ जाएँगे | ध्यान में आप अपने को जागृत अवस्था में पाते हैं कि आप ' न करने में ' हो आए हैं | इसके
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लिए आवश्यक पद्धति का उपयोग मैं करता हूँ, जिससे आप पाते हैं कि आप ' न करने में हो आए हैं | ' इससे ' करना ' सब प्रयास जन्य है - और केवल मन के भीतर है -- जब सारे प्रयास छूट जाते हैं और अनायास पाया जाता है कि हम ‘ शून्य ‘ में हो आए हैं - वह वास्तव में अपने में हो आना है | जब सारे प्रयास छूट जाते है, मन परिपूर्ण शांत हो जाता है - उस अवस्था में जो अनुभूति होती है - वह ही केवल ' ईश्वर अनुभूति ' है | लेकिन मन हमें बीच ही उलझा लेता है और हमारे चित्त की एक अवस्था बने - इसके पूर्व अनेक बार तोड़ता है और उलझन खड़े करता है | इसे भी केवल जागरूक होकर देखना मात्र है - सब अपने से विसर्जित हो रहेगा और जीवन आनंद तथा शांति में हो आएगा |
एक दिवस श्री ' मानव ' ( श्री महेंद्र कुमार जी ' मानव ', छतरपुर ) जी आ उपस्थित थे | रात्रि अपने नीबिड - शांत - घने - गहरे अंधकार में खो गई थी | समस्त प्राणी जगत निद्रा में था | आदमी बड़े गहरे उलझे मन का है | वह खोजता फिरता है - अपने जीवन के मुक्ति द्वार - लेकिन वह अपने आपको पुनः पुनः और गहरे अंधेरे, उलझे पाठ पर पाता है | मैं तो उस सीमा की कल्पना भी नहीं कर सकता - जहाँ पर मैं कह सकूँ कि अब पूज्य बड़े भैया का ऋण पूरा हुआ | वह ऋण ही कुछ ऐसा है, जिसे कुछ भी करके चुकाया नहीं जा सकता है | जीवन में सारे ऋण अऋण हो जाते है - केवल जीवन-मुक्ति पथ दर्शक - का ऋण भर शाश्वत रह जाता है | सारा कुछ मिट जाता है - लीला टूट जाती है और व्यक्ति अपने से इस अनंत आवर्त के पार हो जाता है | कितना अनोखा है - यह सब | ...
नित्य प्रति जगत के मिटते क्रम को देखता हूँ, क्षण भर ठिठक सा जाता हूँ | क्या नहीं देखता - क्या नहीं सुनता - सारा कुछ जागृति देने के
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लिए है - इतने परिपूर्ण जागृत वातावरण में भी आदमी सोया रहे - उसे मूर्छा घेरे रहे तो जानना चाहिए कि मूर्छा की जड़ें गहरी हैं | जाना तो है - यह निश्चित है - क्योंकि बिना मूर्छा टूटे तो सारा कुछ स्वप्न है | यही स्वप्न दुहराता जाता है - मृगतृष्णा के समान सब केवल बहता जाता है -- इसी बहने में कभी आखरी सांस आती है और जीवन लीला टूट जाती है | ...
यह महालीला है - जगत का खेल है | एक गहरा सम्मोहन है | चर्चा के दौरान श्री मानव जी से कहा : ' Yoga is De-hypnotisation ' योग सम्मोहन को तोड़ने का विज्ञान है | आप हैरान होंगे कि जिसमें व्यक्ति का विवेक लाख बार घृणा करता है - उसी ( Sexual Satisfaction ) के लिए व्यक्ति परेशान है, पीड़ित है, दुखी है | यह दमन से तो तोड़ना संभव ही नहीं है | न भोग कर कुछ हो सकता है | यह तो केवल विज्ञान से संभव है | इसकी भी अपनी यौगिक विधियाँ हैं जिससे कि व्यक्ति अपरिसीम आनंद और शांति को उपलब्ध होता है | इस सबंध में चर्चा को विस्तार देते हुए, बाद आचार्य श्री
कहा कि : मैने अभी ध्यान की पद्धति विकसित की है - उसके प्रयोग भी किए हैं और परिणाम अदभुत आए हैं | हज़ारों व्यक्तियों ने किया और साधुओं ने भी किया - पाया कि अदभुत परिणाम हैं | जो वर्षों में संभव नहीं था और जन्म-जन्मान्तर की जिसके लिए चर्चा थी - वह सब थोड़ी सी ही ध्यान की साधना से संभव हो सका है |
इस प्रसंग में यह कहना भी उपयुक्त होगा कि आचार्य श्री अभी ( फ़रवरी' 63 का प्रथम सप्ताह ) जैन तेरापन्थ के अखिल भारतीय स्तर पर मनाए जाने वाले ' माघ महोत्सव ' में भाग लेकर लौटे हैं | श्री आचार्य तुलसी जिनके संरक्षण में एक विशाल साधु संघ को जन्म मिला है, से आचार्य श्री का मिलना हुआ | श्री तुलसी जी प्रभावित थे और तीन दिन में अनेक बार आग्रह था - Service - से मुक्त होकर हमारे साधु-साध्वियों को ' ध्यान योग ' की पद्धति का शिक्षण दीजिए - तो बड़ा हित होगा और सारे देश में ये साधु आपका संदेश पहुँचा देंगे | क्या आपको चाहिए - सब पूरा हो जायेगा | आचार्य श्री ने कहा : वह भी समय आएगा | आपका आग्रह स्वीकार है |
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जानना यह था कि सारा कुछ करने के बाद भी ' ब्रह्मचर्य ' उपलब्ध नहीं हुआ था | कहना था आचार्य श्री तुलसी का - किसी तरह ब्रह्मचर्य उपलब्ध हो जाय साधुओं को, तो बड़ा काम होगा | आचार्य श्री ने कहा : वह भी हो जायगा | ' ध्यान योग ' पूर्ण विज्ञान है | यह भीतर उस शाश्वत सत्ता से व्यक्ति को संयुक्त कर देता है जिसके होने से सारा कुछ विसर्जित हो जाता है | प्रकाश होने से जैसे अंधेरा नहीं पाया जाता - वैसे ही आत्म-ज्ञान के होते ही सारी मूर्छा विसर्जित हो जाती है |
अपने प्रवचनों में आचार्य श्री का कहना होता है : मन का या मूर्छा का कोई अस्तित्व नहीं है ( Positive Existence ) | यह नकारात्मक है - इससे इसे कुछ करके दूर नहीं किया जा सकता है | केवल ' आत्म-ज्ञान ' का न होना - मूर्छा का होना है - मन का होना है | आत्म ज्ञान के होते ही मन पाया नहीं जाता |
फिर मन का दमन कैसा ! इससे मन है ही नहीं - उसका कुछ करना नहीं होता | केवल आत्म ज्ञान का दिया जलाना होता है कि परिणाम में मन पाया नहीं जाता | तब फिर अपने से सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य, अचौर्य, संयम, शील - सारे कुछ श्रेष्ठ जीवन की अभिव्यक्ति होती है | व्यक्ति गहरी शांति और आनंद के बोध में हो आता है - तब फिर अपने से प्रेम और करुणा के बीच सारा दिव्य सौंदर्य प्रगट हो आता है | ...
यह जीवन दृष्टि अदभुत है और सर्व-सामान्य के लिए इस विषाक्त स्थिति में एक गहर आश्वासन है |
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श्री मानव जी से एक प्रसंग में जो वार्ता हुई - वह इस प्रकार थी कि सारा कुछ उसमें समा आया था | मानव जी योगी अरविंद का साहित्य अध्ययन कर रहे हैं | इसमें आपने पाया होगा कि : सत्य - सत्य और असत्य दोनों के पार है | बात समझ में नहीं आई थी, इस कारण आचार्य श्री से पूछा | आचार्य श्री ने कहा : इसे मैं आपको शंकर ने जो उदाहरण दिया, उससे स्पष्ट करता हूँ | शंकर कहते हैं कि दूर कहीं रस्सी लटकी हो - और भूल से उसे साँप समझा जाता हो तो साँप का दिख पड़ना सत्य है लेकिन पास जाकर देखे जाने पर भ्रम टूट जाता है और साँप का दिखना असत्य हो जाता है | इससे ही सत्य जो दिखता वह असत्य हो सकता है और इसे आप अब व्यक्त करें तो स्पष्ट होगा कि सत्य, सत्य और असत्य दोनों के पार है | (क्योंकि सत्य तो यह है कि वह एक रस्सी है )
चर्चा का विस्तार आगे हुआ - बाद यह स्पष्ट हुआ कि ' सम्यक दृष्टि का हो आना - सत्य है '-
शेष जिसे जैन-दर्शन ' मिथ्या-दृष्टि' कहता है - असत्य है | कैसे व्यक्ति इस सम्यक बोध को उपलब्ध हो - इसी पर धर्म की सारी बुनियाद है | इस बुनियाद को समझ लेना ही - धर्म को जान लेना है |
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चर्चा का दैनिक क्रम टूटकर - मेरे लिखने में अब यह एक स्मृति का अंश भर रह गया है | सब दिनों के बीच जो भी होता चलता है -उसे अवकाश के समय अपने में पूर्ण रूप में खोकर लिख डालता हूँ | पर लिखना स्मृति का अंश भर होता है - इसमें भाषा तो मेरी होती है ही - पर वाक्य रचना भी मेरी ही है | इस कारण इतना कम आचार्य श्री का अभिव्यक्त हो पाता है कि डर होता है और मन कभी-कभी रोकता है | पर यह जानकर कि थोड़ा बहुत भी स्मृति के आधार पर और अपनी भाषा में भी लिखा गया तो उसके परिणाम अदभुत आने को हैं | क्योंकि आचार्य श्री की चर्चा पूर्णतः वैज्ञानिक है | उसमें शब्दों और कल्पनाओं का खेल नहीं है - सीधा विज्ञान है, ठीक जान लेने पर फिर अभिव्यक्ति का उतना बड़ा प्रभाव नहीं होता है जितना जो लिख लेने का |
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