Arvind Jain Notebooks, Vol 5

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author
Arvind Kumar Jain
year
Jan - Jun 1963
notes
A notebook, hardbound, with 254 pages.
The final book in a series of five.
see also
Notebooks Timeline Extraction
Arvind Jain Notebooks, Vol 1
Arvind Jain Notebooks, Vol 2
Arvind Jain Notebooks, Vol 3
Arvind Jain Notebooks, Vol 4


page no
original photo & enhanced photos
Hindi transcript
Dust cover (added later)
(5)
250 pages (actually 254 shown below)
Notes on Osho's Life Analysis
over Different Subjects
Meetings with Different
Personalities & Group
Discussion
_________________
Jan 63 to June 63
_________________


Original hardcover back and front
Page 1
( जनवरी का प्रथम पक्ष १९६३ ) (First Fortnight of January 1963)
एक जगत का अपना क्रम है | उसकी अपनी व्यवस्था है | कोई उसके क्षेत्र से बाहर नहीं हो सकता | कुछ इतनी महालीला है | यह अनादि है |
कभी युग की अपनी देन होती है कि एक प्रकाशमय दीप से आलोक जगमगाता है -- और अनेक जीवन बंधन-मुक्त होते हैं | सूर्य उगता है - और तिमिर चला जाता है | जीवन का सत्य - अपने से अभिव्यक्त हो जाता है | यह भी अनोखा है | इसकी भी अपनी शाश्वत सत्ता है |
जीवन जब अपने में अमृत लिए प्रगट होता है - तो देखते बनता है | अन्यथा तो विषाक्त है | जिसे निकट में अमृत पान करने को मिलता है - उसके भी महा-भाग्य को क्या कहें ! जगत में एक जन्म-मरण का घना चक्कर है और इससे मुक्ति का कोई मार्ग न हो तो जीवन तो सबसे बड़ा महाकैद हो जायगा | मुक्ति है - इसी से जीवन का विष भी पी लिया जाता है | अन्यथा क्या होता? ... कौन जानता ?
Pages 2 - 3
लिखने को कितना कुछ बिखरा पड़ा है | ज्यों समेटने चलता हूँ - पाता हूँ कि उसके बिखरने का कोई अंत नहीं | वह तो बिखरा ही था - बिखेरने वाला मिलते है तो उसकी अमृत वर्षा होती हैं | यह दुर्लभ है |
इस दुर्लभता को भी व्यक्ति समझता नहीं है - और मन की अपनी अंधी राहों पर चलता चला जाता है | यही एक आदमी का सनातन सुख है | एक प्रकृति के द्वारा दी गई गहरी मूर्छा है |
अनेक जीवन के प्रसंग - अनेक व्यक्तिगण ले आते हैं | मुझे तो बहुत कम में उपस्थित रहने का अवसर मिला | जिनमें मिला - उसे मैं यहाँ उल्लखित करता हूँ |
मानव के सनातन प्रश्न रहे हैं :
१. ' ब्रह्मचर्य की साधना कैसे हो ? '
सारा मानव इतिहास इस सत्य पर खोज करता रहा है और जो आधुनिक शोधें - मनोविज्ञान की हुई हैं - उनसे बहुत क्रांतिकारी परिणाम
सामने आए हैं | ब्रह्मचर्य को साधने अनेक व्यक्ति चलते हैं - लेकिन शायद ही किसी को ब्रह्मचर्य उपलब्ध होता हो | जब तक उसके विज्ञान से परिचित न हुआ जाये - साधना हो ही नहीं सकती | आप सारा कुछ बाहर से साध लें - लेकिन उसके कोई परिणाम आने को नहीं हैं | बाह्य साधना औपचारिक हैं और उसका व्यक्तित्व के एक-निष्ठ होने में कोई सहयोग नहीं है | अनेक साधक मिलेंगे - जो भ्रांत जीवन में उलझ जाते हैं - और भीतर रस बना रहता है | एक विकृति चलती रहती है - और जीवन सौंदर्य को उपलब्ध नहीं होता |
ब्रह्मचर्य एक जीवन-विज्ञान है | इसके लिए - आंतरिक परिवर्तन आवश्यक है | जब तक कोई व्यक्ति समस्त जो भी वेग उठते हैं - उनके पार नहीं हो जाता - तब तक ब्रह्मचर्य उपलब्ध नहीं हो सकता है | यह एक गहरी शांत चेतना की अवस्था में ही
Pages 4 - 5
संभव है | भीतर चेतना की शांत गहराई - होती चली जाती है और बाहर व्यक्तित्व का सृजन होता चला जाता है |
कैसे यह चेतना की शांत - गहराई की अवस्था उपलब्ध हो - इसे जान लेने से परिणाम में ब्रह्मचर्य आता है | ऐसा मेरा देखना है |
मेरा देखना है कि ध्यान के प्रयोग से - व्यक्ति भीतर शांत चेतना की गहराई में उतरता चला जाता है | जब यह शांत शून्य स्थिति २४ घंटों में फैल जाती हैं - तो अपने से व्यक्ति एक असीम और अनंत आनंद की शांति के बीच - दिव्य जीवन को या ब्रह्म निष्ठ चेतना को उपलब्ध होता है |
बिना विज्ञान को उपलब्ध किए केवल एक भ्रांत दौड़ में उलझ जाना
केवल व्यर्थता लाता है | अनेक मधुर दांपत्य जीवन केवल इस कारण टूट जाते हैं कि ग़लत जीवन-साधना में व्यक्ति उलझ जाता है |
मेरा देखना - इसके पार है | जीवन में कुछ भी छोड़ने और पकड़ने जैसा नहीं है | केवल शांत होते चला जाना, अपने में मूल्य का है - और शेष सब अपने से होता है | फिर ठीक जीवन के घनेपन के बीच - व्यक्ति दूसरा हो जाता है | ... इससे ही बाद फिर कुछ भी बाधा नहीं बनता - अपने-अपने मूल्य में तथ्य रूप में सारा कुछ हो जाता है | जीवन एक सुलभ पहेली हो जाती है |
अन्यथा जीवन की भ्रांत धारणाएँ - व्यक्ति को खूब गहरा उलझा देती हैं और मन का खेल ठीक वैसा का वैसा ही बना रहता है | इसी सब पर एक दिवस कहा गया :
धर्म ने व्यक्ति को दो लाभ दिए हैं :
१. झूठा धार्मिक होने का अहं भी पूरा हो गया :
और २. सही धार्मिक होने से बचा लिया |
इस तरह भ्रांति पूर्ण जीवन - का रहस्य है |
6 - 7
इस वैज्ञानिक विश्लेषण को आचार्य ने श्री राम दुबे को दिया - और कहा :
मैं कहीं भी विरोध में नहीं हूँ | जो ठीक लगे उसे करते चलो | केवा; जागरूकता बनाए रखना उससे ही तब फिर जो होगा - स्थायी होगा और जीवन परिवर्तित हो सकेगा | ज़ोर-ज़बरदस्ती से कुछ भी मन के साथ करने जैसे नहीं है |
२. 'क्या मांसाहार करना ग़लत है ? '
मांस खाना और न खाना उतना बड़ा प्रश्न नहीं है, जितना कि उस विज्ञान को जान लेना जिसमें से जीवन में अहिंसा और प्रेम घटित होता है | मेरा मांसाहार पर समझना और देखना - नैतिक नहीं है | यह कोई नैतिक बिंदु भी नहीं है | इस पर मेरा देखना भिन्न है | जैसे में देख पाता हूँ - उससे चेतना की एक विशिष्ट अवस्था में - सारे प्राणियों के प्रति गहरा प्रेम का बोध होता है - यह प्रेम का बोध ही - अहिंसा को प्रगट करता है | कैसे यह चेतना की विशिष्ट स्थिति को व्यक्ति जीवन में पा सकता है ? ठीक से इसका विज्ञान समझना ज़रूरी है | इसके अभाव में आप मांसाहार पर कितना भी विरोध करें और लोगों को समझाएँ - उससे कोई भी परिणाम जीवन में घटित होने को नहीं हैं | आज विश्‍व की आबादी का एक बड़ा हिस्सा - माँसाहार करता है - अनेक प्रयत्न समझाने के होते हैं लेकिन व्यर्थ जाते हैं | फिर - जो माँस नहीं खाते हैं - उनके न खाने में भी केवल संस्कार का भर भेद है - इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं | इनके द्वारा जो भी समझाया जाता है - वह घृणा से निकला होता है - और फलतः कोई भी परिणाम नहीं आते हैं |
एक बात उल्लेखनीय हैं कि इस युग में अब मांसाहार के विरोध में कोई बोलता है ,
8 - 9
तो उसका विरोध नहीं होता है और मांसाहार के समर्थन में दलीलें प्रस्तुत नहीं की जाती हैं | अभी पश्चिम में कुछ महान पुरुषों ने मांस लेने का विरोध किया और एक हवा का फैलना वहाँ भी प्रारंभ हुआ है | जार्ज बर्नार्ड शॉ ने लिखा कि ' मेरी सारी संस्कृति ईसा को ही श्रेष्ठतम कहती हैं - लेकिन सब तरह से विचार करने के बाद भी - मैं ईसा को बुद्ध के उपर नहीं रख पाता | ' इन अर्थों में अब एक वातावरण निर्मित हो रहा है -- जिससे कि पूरब की संस्कृति को फैलने का अवसर मिले | यहाँ यह उल्लेखनीय हैं कि - बर्नार्ड शॉ ने अपनी अस्वस्थ अवस्था में डाक्टरों की सलाह पर गो-मांस लेने की अस्वीकृति दी - जिससे कि बर्नार्ड शॉ को बचाया जा सकता था | सारे मित्रों ने विनोद किया लेकिन बर्नार्ड शॉ ने कहा : ' किसी प्राणी की मृत्यु से - मैं स्वयं मर जाना पसंद करूँगा | '
विचारशील वर्ग - माँस न खाने से प्रभावित हुआ है | लेकिन अभी तक उस विज्ञान से मानवीयता पूरी तरह से परिचित नहीं हुई हैं जिससे कि व्यक्ति उस स्थिति में पहुँच जाता है, जहाँ से जीवन में गहरी क्रांति घटित
होती है और व्यक्ति माँस न खाने की स्थिति में अपने से हो आता है | समस्त प्राणियों के प्रति एक गहरा प्रेम का बोध होता है जिससे कि जीवन में अहिंसा प्रगट होती है |
इस विज्ञान के अभाव में आप लाख नैतिक शिक्षण दीजिए लेकिन परिणाम वही के वही बने रहते हैं | बड़ा मज़ा यह है कि नैतिक विचारक इस भ्रांति में रहते हैं कि उनका नैतिक शिक्षण तो ठीक है लेकिन जो उसे मानके चलते हैं - वे ही ग़लत हैं | इसमें बुनियादी भूल है | कोई नैतिक विचार व्यक्ति को - ' प्रभु चेतना ' का दर्शन नहीं करा सकता और जब तक व्यक्ति प्रभु चेतना से संयुक्त न हो रहे, तब तक उसके जीवन में क्रांति घटित नहीं होती हैं | आज तक नैतिक विचार आपके सामने रहे हैं, क्या उनका परिणाम आया है - इससे आप भली-भाँति अवगत हैं |
मेरा देखना इस कारण भिन्न है | मेरा देखना है कि ' ध्यान ' की साधना से
10 - 11
… जीवन में एक गहरे आंतरिक स्त्रोत से व्यक्ति संबधित होता है – और अनंत शक्ति तथा आनंद के बोध से भर जाता है। वह संपूर्ण जगत की सत्ता से एक हो जाता है। तब फिर जगत में जो एक प्रभु की अभिव्यक्ति से सृजनात्मक बोध से भर जाता है – उससे ही जीवन में अहिंसा प्रगट होती है।
इससे कोई अहिंसा को साधके – अहिंसक नहीं हो सकाता है।... भीतर क्रांति घटित हो जाती है – उससे व्यक्ति के जीवन में हिंसा गिर जाती है – और वह अहिंसक हो जाता है।....
जीवन अपने में न कुछ है, इस कारण उसकी विभिन्न स्थितियाँ दीखने में आती हैं | आदमी है कि अपने को इस खेल में पूर्णतः उलझा लेता है और सोचता है कि वह एक वृहत कार्य में लगा है | लेकिन जब जीवन शक्ति क्षीण हो जाती है और सारे बंधन टूट जाते हैं - तो अपनी एकांत अवस्था में वह - दुखी और संतप्त होता है और उसे लगता है कि सारे जीवन भर एक व्यर्थ के खेल में उलझा था - जिसका कोई मूल्य न था | जिंदगी जब जाती लगती है तो यह प्रतीति और भी घनी होती जाती है | यह जीवन का अनंत आवर्त है - जो पुनः पुनः दोहराता है ओर आदमी गहरी मूर्छा में उलझा रहता है | नित प्रति जीवन के समक्ष सारे तथ्य व्यक्त होते हैं - लेकिन एक गहरी मूर्छा में व्यक्ति बना रहता है | देखता है -- जन्म को संसारिक विषाद और तनाव को, स्वार्थ की निकृष्ट भावनाओं को शरीर के गलन और सड़न को, मरण और जरा को - लेकिन गहरा नशा प्रकृति का है - जो उसे सुलाए रखने में सक्षम है | यह बहुत सूक्ष्म भी जो है |
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इन दिवसों में अनेक जन मिलन हेतु आए | बड़ा सुलभ होता है आचार्य श्री से मिलन | प्यास भी तो गहरी होती है -- आदमी की | उस प्यास को जब आदमी तृप्त होता पाता है - तो फिर गहरा आकर्षण उसका होता है |
अनेक प्रश्न होते हैं - आगंतुकों के | इनमें से जो भी प्रश्न होते हैं - कुछ तो सहज उत्सुकतावश पूछे गये होते हैं, कुछ साधना के बीच उठ आई स्थितियों से संबंधित होते हैं और कुछ जीवन के मूल परिवर्तन से संबंधित होते हैं |
पूछा गया : " क्या ' ध्यान ' की साधना से जीवन् में संसारिक कार्य रुक जाते हैं ? "
आचार्य श्री ने कहा : मन हमें रोकता है - इसी कारण वह कहता है : बड़ा जटिल है - संभव नहीं है | लेकिन यह केवल मन की सीमा है और कहीं वह टूट न जाए - इससे जहाँ वह घेरा बनाकर खड़ा है, वहीं खड़ा रहना चाहता है | ' ध्यान ' के गहरे प्रयोगों से जीवन में अपरिसीम शांति और आनंद का उदय होता है | पहिली बार जाना जाता है कि ' आनंद और शांति क्या है ? ' श्री अरविंद ने लिखा है ' जब जाना पहिली बार कि
आनंद क्या है तो अभी तक जिसे आनंद समझा था वह मृत हो आया और जिसे जीवन जाना था वह मृत्यु से भी बदतर हो आया | ' असीम आनंद में हो आना संभव है और वह ज़रा से यौगिक विज्ञान से संभव है | अन्यथा आप लाख प्रयास करें - आनंद और शांति को पा लेने के लिए, सब व्यर्थ होते है | बड़ा उलझा खेल प्रकृति का है | उसी में बंधन भी है और मुक्ति भी है | यह मानव के हाथ में है कि वह क्या चुनता है ? जिस दिशा को वह चुनेगा - उसी दिशा में उसके कदम बढ़ेंगे | इससे मेरा देखना है कि आप इस ओर हो आयें - फिर तो जीवन में अपने से विकास संभव होता है | इस ओर आएँ ही न, केवल उत्सुकता की हल्की झलक भर दिखाकर पार हो जाएँ - तो कोई परिणाम जीवन में आने को नहीं हैं | आपने पूछा संसारिक कार्यों को रुकने को, सो स्वाभाविक है | मेरा देखना है कि व्यर्थता जीवन से चली जाती है, जो भी आवश्यक है वह केवल होता चलता है और पूर्ण कुशलता से होता है | क्योंकि योगी कर्म कुशल हो जाता है |....
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श्री अचल जी पारख और उनके मित्र आ उपस्थित हैं | सारा जीवन क्रम निशा की गोद में खो आया है | दूर झिलमिल तारों का अपना सुंदर नृत्य हो रहा है | सब पूर्ण शांत और रात्रि की गहरी कालीमा में खो गया है |
शीत अपनी ठंडी हवाओं के साथ अपना परिचय दे रही है |
एक प्रसंग उठा था | आचार्य श्री ने कहा :
अभी मैं गुरुज्यिफ, एक काकेशीयन साधक, के संबंध में पढ़ता था | उसका साधना क्रम अनोखा था | ओगार्की ने लिखा कि हम १० जन थे | गुरुज्यिफ का पहला क्रम था : ‘Stop Exercise ' का | जिस अवस्था में ' रुकने ' ( Stop ) को कहा गया हो, उसी में रहना होता था | एक दिवस झील पार करते समय ' Stop ' किया गया | सभी खड़े हो गये | अचानक पानी बढ़ने लगा | धीरे-धीरे मेरे साथी निकल भागे | ओगर्की भर खड़ा रहा था | पानी नाक कान में भर गया | आख़िर ओगार्की को निकाला गया | वह बेहोश था | बाकी लोगों को गुरुज्यिफ ने विदा किया | बाद ओगर्की ने लिखा कि जब मैं होश में आया - तो उसी क्षण घटना घट गई थी | गुरुज्यिफ बोला : ' ठीक, ऐसे बहुत कम लोग आते हैं - ओगार्की | तुम मृत्यु को भी ले सकते हो तो मन के साथ तो प्रयोग एकदम संभव ही हैं | '
ठीक, मेरा भी जानना एसा ही है | १०० में से
९९ लोगों को तो समझाना केवल उनकी उत्सुकता को भर तृप्त करना है, इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं | कितना भागा हुआ जीवन का क्रम हमारा चलता रहता है | सब कुछ भागा जा रहा है, एक क्षण को भी स्थिर नहीं है | .... कुछ बहुत अजीब सा हैं |
एक और प्रसंग के अंतर्गत आचार्य श्री कह रहे थे कि : एक आश्रम में गुरुज्यिफ के - २ वर्ष से लोग रह रहे थे | ओगार्की ने लिखा कि एक दिवस उससे कहा गया और सभी मित्रों से कि : २ दिन के भीतर आश्रम आप लोग खाली करके जाइए मुझे रहना होगा | - सबने जाना कि : अभी तो कोई आत्मिक उपलब्धि भी नहीं हुई फिर जाने की बात से तो एक अजीब स्थिति निर्मित हुई | आख़िर बहुत से लोग चले गये | जो ३-४ लोग बच रहे - वे नहीं गए | गुरुज्यिफ बोला - ठीक, तुम लोग रह सकते हो - वे न भी जाते और बने रहते - तो वे कभी भी जा सकते थे | ...
गुरुज्यिफ का यह समझना - जीवन के गहरे तथ्यों को व्यक्त करता है
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इस माह तो जो घटित हो रहा है, वह अपने में मौलिक, चिरंतन सत्य की धारा को व्यक्त करता हुआ, अपने में जीवन के अनेक क्षेत्रों में स्पष्ट और सख़्त भावों को व्यक्त करता हुआ है | ... न जाने कितने मूल्य जो मानव ने बनाए हैं - उनको पूरी तरह से भ्रम को तोड़ने की जो गहरी प्रक्रिया घटित हुई है - वह उल्लेखनीय रही |
स्वामी विवेकानंद जयंती के आयोजनों में आपने कहा : ' मेरे मन में इस कारण विवेकानंद के प्रति सम्मान नहीं है कि उन्होंने राष्ट्र का गौरव बढ़ाया | जिस प्रकार व्यक्ति का ' अहंकार ' क्षुद्र होता है - ठीक वैसे ही राष्ट्र का ' अहंकार ' क्षुद्र होता है | और न ही यह घोषित करना कि भारत ने आध्यात्मिक विश्‍व गुरु का श्रेय प्राप्त हुआ - मेरे लिए कोई अर्थ का है | यह भी केवल मन की तृप्ति मात्र है | कोई भौतिक उन्नति संभव न हो सकी, इस कारण इसी क्षेत्र में उँचा कह के - हम अपने को तृप्त करने का सुख लें - यह भ्रांत होगा | फिर सत्य तो शाश्वत है - मानवीय इतिहास रहे या न रहे, सत्य तो है | उसके बोध में - कोई किसी का गुरु हो नहीं सकता है |
प्रत्येक को शाश्वत जीवन में हो आने में कहीं कोई रुकावट नहीं है | रुकावट हो नहीं सकती है - यदि आप भर बाधा न बनें | इस समग्र जीवन में बहुत घटनाएँ हैं और जो भी जन्म लेता है - वह मरता है | इस कारण मैं - स्वामी विवेकानंद के जीवन के संबंध में, उनकी यात्राओं के संबंध में, जीवन में घटित घटनाओं के संबंध में कोई महत्व नहीं देख पाता हूँ | वह सब सामान्य है | केवल एक घटना भर व्यक्ति के जीवन में महत्व की होती है कि एक अति सामान्य या क्षुद्र मानवीय जीवन से कैसे वह दिव्य चेतना को या भागवत चेतना को उपलब्ध हुआ | इस चाटना के प्रति ही मेरा सम्मान है और मैं इसी संबंध में आपसे चर्चा करने को हूँ |
विवेकानंद के मान में थोथि आस्तिकता के प्रति कहीं कोई झुकाव नहीं था | वे एक गहरे नास्तिक थे | समस्त प्रचलित धारणाओं का उनके मन में विरोध था | यह इतनी दूरी तक पहुँच गया था कि विवेकानंद ने लिखा कि यहदी कहीं मेरे जीवन में - प्रभु के जीवन से संयुक्त होने की घटना घटित न होती तो मैं पागल हो गया होता |
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उनकी गहरी नास्तिकता ही उन्हें प्रभु के शाश्वत जीवन में ले आई थी। एक-एक स्थान पर जाकर उन्होंने पूछा था: ‘प्रभु को देखा है?’ कोई उत्तर न मिलने पर उद्विग्न थे और जीवन के कोरेपन से भली भांति परिचित हो आये थे। पूछा था गहरी अंधेरी रातों में गंगा में कूदकर बजरा तोड़कर – महर्षि देवेंद्रनाथ ठाकुर से – पाया कि वहां भी झिझक थी और वापिस चले आये, बोले कि झिझक ने सारा उत्तर दे दिया। महर्षि की लिखने में कलम रुकती नहीं थी और न ही बोलने में वाणी रुकती थी, लेकिन उस दिवस न जाने क्या हुआ कि ‘झिझके’।... बाद उनका मिलना दक्षिणेश्वर के एक पागल पुजारी से हुआ, जिनकी गंध दूर-दूर तक फैल आई थी। मिलने पर उत्तर मिला: प्रभु को देखा है, तुम भी दर्शन करना चाहोगे तो करा दे सकता हूँ।‘ यह एक अद्भुत उत्तर था जिसे विवेकानंद ने पहले और कहीं नहीं पाया था। बाद रामकृष्ण देव से मिलकर उनकी समस्त नास्तिकता गिर गई।
मेरा देखना है कि ठीक प्रभु के प्रकाश में हो आने के लिए, पूर्व गहरी नास्तिकता का होना आवश्यक है। इससे गुजरना आवश्यक है। जैसे
घनी काली रात के बाद - सुबह का प्रकाश फूटता है - वैसे ही गहरी नास्तिकता के बाद जो घटना घटित होती है - उससे संपूर्ण जीवन प्रभु के प्रकाश से भर आता है और एक दिव्य जीवन दृष्टि में व्यक्ति हो आता है | ...
इससे ही थोथि आस्तिकता का जीवन में कोई अर्थ नहीं है | ...
बाद आपने जो विवेकानंद को उपलब्ध हुआ, उस उपलब्धि पर शाश्वत जीवन के मार्ग पर प्रकाश डाला | इसके अंतर्गत आपने कहा कि सत्य में हो आने के तीन शाश्वत केंद्र रहे हैं | ज्ञान योग, भक्ति योग और कर्म योग | आपने मौलिकता के सृजनात्मक आधार पर अनुभूतिपूर्ण प्रवचन दिया | कहा आपने ' ध्यान योग - याने विचार शून्यता | इस शून्य में जो ज्ञात होता है - उससे जीवन में एक गहरे आनंद का बोध होता है | एक नये जगत में व्यक्ति प्रवेश कर जाता है, जहाँ से वह अनंत जीवन दर्शन को उपलब्ध होता है | ज्ञान का अर्थ बहुत सूचनाओं के इकट्ठे कर लेने से नहीं है | न ही कोरा पान्डित्य और ग्रंथों का ज्ञान | ज्ञान का इस सबसे कोई अर्थ नहीं है |...
भक्ति योग का जानना है कि उस अनंत में भक्ति के माध्यम से भी हुआ जा
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सकता है | इसमें प्रचलित पूजा - पाठ और प्रार्थना का - कोई स्थान नहीं है | जब व्यक्ति अपने में इतना समर्पित होता है कि उसका क्षुद्र ' मैं ' गिर जाता है तो वह विराट की सत्ता से एक हो आता है | इस क्षुद्र ' अहं ' का गिर जाना - भीतर परिपूर्ण विचारों से खाली हो जाना है | यह भक्ति योग है |
कर्म योग का जानना है कि - शुद्ध कर्म ही केवल रह जाय - परिपूर्ण वर्तमान में - तो भी व्यक्ति सत्य को उपलब्ध हो जाता है | हमारी वर्तमान में सत्ता ही नहीं है - या हम अतीत की स्मृति से बँधे हुए होते है या फिर भविष्य की चिंता में या सुख में खोए होते हैं | जैसे ही हम ठीक इसी क्षण में होते हैं पाया जाता है कि मैं जो विचारों का पुंज था - वह समाप्त हो आया है और शुद्ध कर्म में होकर - मैं प्रभु से संयुक्त हो आया हूँ |
इस तरह देखने से ज्ञान, भक्ति और
कर्म - एक ही सत्य को देखने के तीन दृष्टिकोण हैं | उपर से पृथकता दीख सकती है, लेकिन वास्तव में तीनों केंद्र से संयुक्त होकर - एक हैं |
यह ' विचार शून्यता ' कैसे हो ? - इसका वैज्ञानिक मार्ग है | मन है - जब तक मूर्छा है - जागृति में मन पाया ही नहीं जाता है | मन - बेहोशी में है - जैसे ही सम्यक जागरूकता उपलब्ध होती है कि मन होता ही नहीं | जब तक प्रकाश नहीं है - तब तक अंधेरा है | इससे कोई कहे कि अंधेरे को धक्के देकर निकालो - तो व्यर्थ होगा | अंधेरे का कोई Positive existence नहीं है | जैसे ही प्रकाश आता है, अंधेरा अपने से चला जाता है | इससे मन को दमन नहीं - सम्यक जागृति में विसर्जित कर देना है | यह सुलभ है - और सम्यक जागृति का दिया जलते ही - सारा कुछ घटित हो आता है | व्यक्ति अपने केंद्र से संयुक्त होकर - आनंद और शांति को उपलब्ध होता है | ...
स्वामी विवेकानंद शताब्दी जयंती समारोह, १७ जनवरी ' ६३ [ गृह विज्ञान महिला महाविद्यालय और महकौशल कला महाविद्यालय में दिए गये - प्रवचनों में से]
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उत्तर का क्या पूछना - बस अपने में अद्वितीय | उनकी एसी झलक देखने मे भी नहीं आती | एकदम जीवंत और सुवासित | सारा कुछ देखा हुआ और संपूर्ण कला में अभिव्यक्तिकरण - एक परिपूर्ण शान और दिव्यता को लिए हुए | प्यासा कभी भी तृप्त न हो - ऐसा कुछ अनोखा रस रहता है | सुना है 15 सालों से - और जो जाना है - वह तो बस शाश्वत निधि है | अनेक जीवन के उतार-चढ़ाव - पर भीतर चलते चलने का क्रम सदा एक़्सा | कभी-भी जीवन में कुछ भी तोड़ नहीं सका |
एक दिवस श्री सरकार महोदय - आ उपस्थित थे | आप बहुत उद्दिग्नता और अशांति को लेकर बहुत पहीले आ उपस्थित हुए थे | बहुत हलकापन इस बीच आपके जीवन में आया है | अनेक घटनाओं का उल्लेख देते हुए आपने कहा कि : ' मुझे अभी तक ध्यान की परिपूर्ण गहराइयाँ उपलब्ध क्यों नहीं हुई हैं ? - ज़रा सा वेग तोड़ गया | ‘
आचार्य श्री ने कहा : ध्यान से परिवर्तन आप में आए हैं | ये परिवर्तन और भी गहरे जाकर चित्त की समस्त विकृतियों को विसर्जित कर देंगे | अभी जितना हुआ है - वह पर्याप्त है | बाकी अभी जो विकृत अशांत स्थिति को
आप देख पाते हैं - यह ही आपको पूर्ण मुक्त कर देगी | वास्तव में, परिवर्तन किस प्रकार भीतर आते रहते हैं - हमें ज्ञात नहीं होता है | प्रत्येक व्यक्तित्व के विकास में जो भी घटता है - यदि वह देखता रहे - परिपूर्ण सम्यक जागृति के साथ तो सारे जीवन के रोड़े सीढ़ी बन जाते हैं और व्यक्तित्व का अपरिसीम विकास होता चलता है | घटने दीजिए, घटने को तो सारा कुछ है - लेकिन उसके बीच परिपूर्ण शांत में सम्यक जागृति के होने से - सन अपने से विसर्जित होता चलता है |
आपमें इस असीम जीवन-दृष्टि का दिया जला है तो सारा कुछ अपने से हो रहेगा |
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जीवन के अनेक भागों में - आचार्य श्री की दिव्य जीवन दृष्टि उपलब्ध हुई है | धर्म की वैज्ञानिक शोध से जो भी जगत को मिल रहा है - वह अद्भुत है और जीवन का प्रशस्त मार्ग है | श्री शर्मा (M.B.B.S.) और श्री अब्दुल अज़ीज - इस माह एक अजीब सी उलझन से गुज़रे | आप दोनों की पूर्व साधना थी और उससे उन्हें कुछ मिला था - शक्ति की प्राप्ति हुई थी | भाई अब्दुल के जीवन में तो इस तरह की घटनाएँ भी घटित हुई थीं - जिनसे कि अब्दुल जी को बड़ा विश्वास हो आया था कि जो कुछ उनके द्वारा बोला जाता है - वह पूरा होता है - एसी खुदा की उन पर कृपा है |
बाद आप आचार्य श्री की साधना से गुज़रे | आपको शांति की स्थिति का बोध हुआ - तो पिछला सममस्त शक्ति से उपलब्ध खोता सा आपको लगा | चित्त एक दुविधा की स्थिति में हो आया | इस बीच आपमें एक जोश उभर आया और जीवन में आप तीव्र अशांति के बीच हो आए | आपका मन अनेक तरह के प्रश्न उठाने लगा | पूछा था
आपने : ' अनेक लोग जो प्रभु उपलब्धि के लिए चलते है, वे सारे लोग तो कुछ गहरे प्रयास करते नज़र आते हैं | पर आप तो सारा कुछ करना समाप्त करवा देते हैं | यह विरोध दिखता है | किसे ठीक कहा जाय ? '
आपको ठीक वीदित हुआ है | वास्तव में मन हमेशा कुछ करते रहने की चाल पर चलता है | वह सतत उलझा रहा है | इससे कुछ भी न करना उसे प्रिय नहीं है | जानना चाहिए कि जो मन को प्रिय है, उससे कैसे मन के पार हुआ जा सकता है | वह तो मन में ही रहना हुआ न |
फिर तुम्हारा जोश में हो आना - स्वाभाविक है | यह मन ही है - जो प्रतिक्रिया देता है और लौट-लौट कर अपने अस्तित्व को बनाये रहना चाहता है | इस बीच तुम ध्यान में गए हो | तो तुम्हारा जानना होगा कि मैं कुछ न करने को कहता नहीं हूँ - यदि आप कुछ न करने भी चले तो और गहरे उलझ जाएँगे | ध्यान में आप अपने को जागृत अवस्था में पाते हैं कि आप ' न करने में ' हो आए हैं | इसके
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लिए आवश्यक पद्धति का उपयोग मैं करता हूँ, जिससे आप पाते हैं कि आप ' न करने में हो आए हैं | ' इससे ' करना ' सब प्रयास जन्य है - और केवल मन के भीतर है -- जब सारे प्रयास छूट जाते हैं और अनायास पाया जाता है कि हम ‘ शून्य ‘ में हो आए हैं - वह वास्तव में अपने में हो आना है | जब सारे प्रयास छूट जाते है, मन परिपूर्ण शांत हो जाता है - उस अवस्था में जो अनुभूति होती है - वह ही केवल ' ईश्वर अनुभूति ' है | लेकिन मन हमें बीच ही उलझा लेता है और हमारे चित्त की एक अवस्था बने - इसके पूर्व अनेक बार तोड़ता है और उलझन खड़े करता है | इसे भी केवल जागरूक होकर देखना मात्र है - सब अपने से विसर्जित हो रहेगा और जीवन आनंद तथा शांति में हो आएगा |
एक दिवस श्री ' मानव ' ( श्री महेंद्र कुमार जी ' मानव ', छतरपुर ) जी आ उपस्थित थे | रात्रि अपने नीबिड - शांत - घने - गहरे अंधकार में खो गई थी | समस्त प्राणी जगत निद्रा में था | आदमी बड़े गहरे उलझे मन का है | वह खोजता फिरता है - अपने जीवन के मुक्ति द्वार - लेकिन वह अपने आपको पुनः पुनः और गहरे अंधेरे, उलझे पाठ पर पाता है | मैं तो उस सीमा की कल्पना भी नहीं कर सकता - जहाँ पर मैं कह सकूँ कि अब पूज्य बड़े भैया का ऋण पूरा हुआ | वह ऋण ही कुछ ऐसा है, जिसे कुछ भी करके चुकाया नहीं जा सकता है | जीवन में सारे ऋण अऋण हो जाते है - केवल जीवन-मुक्ति पथ दर्शक - का ऋण भर शाश्वत रह जाता है | सारा कुछ मिट जाता है - लीला टूट जाती है और व्यक्ति अपने से इस अनंत आवर्त के पार हो जाता है | कितना अनोखा है - यह सब | ...
नित्य प्रति जगत के मिटते क्रम को देखता हूँ, क्षण भर ठिठक सा जाता हूँ | क्या नहीं देखता - क्या नहीं सुनता - सारा कुछ जागृति देने के
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लिए है - इतने परिपूर्ण जागृत वातावरण में भी आदमी सोया रहे - उसे मूर्छा घेरे रहे तो जानना चाहिए कि मूर्छा की जड़ें गहरी हैं | जाना तो है - यह निश्चित है - क्योंकि बिना मूर्छा टूटे तो सारा कुछ स्वप्न है | यही स्वप्न दुहराता जाता है - मृगतृष्णा के समान सब केवल बहता जाता है -- इसी बहने में कभी आखरी सांस आती है और जीवन लीला टूट जाती है | ...
यह महालीला है - जगत का खेल है | एक गहरा सम्मोहन है | चर्चा के दौरान श्री मानव जी से कहा : ' Yoga is De-hypnotisation ' योग सम्मोहन को तोड़ने का विज्ञान है | आप हैरान होंगे कि जिसमें व्यक्ति का विवेक लाख बार घृणा करता है - उसी ( Sexual Satisfaction ) के लिए व्यक्ति परेशान है, पीड़ित है, दुखी है | यह दमन से तो तोड़ना संभव ही नहीं है | न भोग कर कुछ हो सकता है | यह तो केवल विज्ञान से संभव है | इसकी भी अपनी यौगिक विधियाँ हैं जिससे कि व्यक्ति अपरिसीम आनंद और शांति को उपलब्ध होता है | इस सबंध में चर्चा को विस्तार देते हुए, बाद आचार्य श्री
कहा कि : मैने अभी ध्यान की पद्धति विकसित की है - उसके प्रयोग भी किए हैं और परिणाम अदभुत आए हैं | हज़ारों व्यक्तियों ने किया और साधुओं ने भी किया - पाया कि अदभुत परिणाम हैं | जो वर्षों में संभव नहीं था और जन्म-जन्मान्तर की जिसके लिए चर्चा थी - वह सब थोड़ी सी ही ध्यान की साधना से संभव हो सका है |
इस प्रसंग में यह कहना भी उपयुक्त होगा कि आचार्य श्री अभी ( फ़रवरी' 63 का प्रथम सप्ताह ) जैन तेरापन्थ के अखिल भारतीय स्तर पर मनाए जाने वाले ' माघ महोत्सव ' में भाग लेकर लौटे हैं | श्री आचार्य तुलसी जिनके संरक्षण में एक विशाल साधु संघ को जन्म मिला है, से आचार्य श्री का मिलना हुआ | श्री तुलसी जी प्रभावित थे और तीन दिन में अनेक बार आग्रह था - Service - से मुक्त होकर हमारे साधु-साध्वियों को ' ध्यान योग ' की पद्धति का शिक्षण दीजिए - तो बड़ा हित होगा और सारे देश में ये साधु आपका संदेश पहुँचा देंगे | क्या आपको चाहिए - सब पूरा हो जायेगा | आचार्य श्री ने कहा : वह भी समय आएगा | आपका आग्रह स्वीकार है |
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जानना यह था कि सारा कुछ करने के बाद भी ' ब्रह्मचर्य ' उपलब्ध नहीं हुआ था | कहना था आचार्य श्री तुलसी का - किसी तरह ब्रह्मचर्य उपलब्ध हो जाय साधुओं को, तो बड़ा काम होगा | आचार्य श्री ने कहा : वह भी हो जायगा | ' ध्यान योग ' पूर्ण विज्ञान है | यह भीतर उस शाश्वत सत्ता से व्यक्ति को संयुक्त कर देता है जिसके होने से सारा कुछ विसर्जित हो जाता है | प्रकाश होने से जैसे अंधेरा नहीं पाया जाता - वैसे ही आत्म-ज्ञान के होते ही सारी मूर्छा विसर्जित हो जाती है |
अपने प्रवचनों में आचार्य श्री का कहना होता है : मन का या मूर्छा का कोई अस्तित्व नहीं है ( Positive Existence ) | यह नकारात्मक है - इससे इसे कुछ करके दूर नहीं किया जा सकता है | केवल ' आत्म-ज्ञान ' का न होना - मूर्छा का होना है - मन का होना है | आत्म ज्ञान के होते ही मन पाया नहीं जाता |
फिर मन का दमन कैसा ! इससे मन है ही नहीं - उसका कुछ करना नहीं होता | केवल आत्म ज्ञान का दिया जलाना होता है कि परिणाम में मन पाया नहीं जाता | तब फिर अपने से सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य, अचौर्य, संयम, शील - सारे कुछ श्रेष्ठ जीवन की अभिव्यक्ति होती है | व्यक्ति गहरी शांति और आनंद के बोध में हो आता है - तब फिर अपने से प्रेम और करुणा के बीच सारा दिव्य सौंदर्य प्रगट हो आता है | ...
यह जीवन दृष्टि अदभुत है और सर्व-सामान्य के लिए इस विषाक्त स्थिति में एक गहर आश्वासन है |
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श्री मानव जी से एक प्रसंग में जो वार्ता हुई - वह इस प्रकार थी कि सारा कुछ उसमें समा आया था | मानव जी योगी अरविंद का साहित्य अध्ययन कर रहे हैं | इसमें आपने पाया होगा कि : सत्य - सत्य और असत्य दोनों के पार है | बात समझ में नहीं आई थी, इस कारण आचार्य श्री से पूछा | आचार्य श्री ने कहा : इसे मैं आपको शंकर ने जो उदाहरण दिया, उससे स्पष्ट करता हूँ | शंकर कहते हैं कि दूर कहीं रस्सी लटकी हो - और भूल से उसे साँप समझा जाता हो तो साँप का दिख पड़ना सत्य है लेकिन पास जाकर देखे जाने पर भ्रम टूट जाता है और साँप का दिखना असत्य हो जाता है | इससे ही सत्य जो दिखता वह असत्य हो सकता है और इसे आप अब व्यक्त करें तो स्पष्ट होगा कि सत्य, सत्य और असत्य दोनों के पार है | (क्योंकि सत्य तो यह है कि वह एक रस्सी है )
चर्चा का विस्तार आगे हुआ - बाद यह स्पष्ट हुआ कि ' सम्यक दृष्टि का हो आना - सत्य है '-
शेष जिसे जैन-दर्शन ' मिथ्या-दृष्टि' कहता है - असत्य है | कैसे व्यक्ति इस सम्यक बोध को उपलब्ध हो - इसी पर धर्म की सारी बुनियाद है | इस बुनियाद को समझ लेना ही - धर्म को जान लेना है |
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चर्चा का दैनिक क्रम टूटकर - मेरे लिखने में अब यह एक स्मृति का अंश भर रह गया है | सब दिनों के बीच जो भी होता चलता है -उसे अवकाश के समय अपने में पूर्ण रूप में खोकर लिख डालता हूँ | पर लिखना स्मृति का अंश भर होता है - इसमें भाषा तो मेरी होती है ही - पर वाक्य रचना भी मेरी ही है | इस कारण इतना कम आचार्य श्री का अभिव्यक्त हो पाता है कि डर होता है और मन कभी-कभी रोकता है | पर यह जानकर कि थोड़ा बहुत भी स्मृति के आधार पर और अपनी भाषा में भी लिखा गया तो उसके परिणाम अदभुत आने को हैं | क्योंकि आचार्य श्री की चर्चा पूर्णतः वैज्ञानिक है | उसमें शब्दों और कल्पनाओं का खेल नहीं है - सीधा विज्ञान है, ठीक जान लेने पर फिर अभिव्यक्ति का उतना बड़ा प्रभाव नहीं होता है जितना जो लिख लेने का |
इस कारण ही साहस कर पाता हूँ।
श्री शर्मा जी (M. B. B. S.) एक उलझन में से गुजर रहे हैं। और आपको थोड़ा भय आ गया है कि ‘ध्यान योग’ गलत न हो। इस पर श्रद्धा नहीं आती।
आचार्य श्री ने कहा: मेरा जानना वैज्ञानिक है। और कोई भी इस प्रक्रिया से गुजरेगा – परिणाम में अद्भुत शान्त और आनन्द के बोध को उपलब्ध होगा। इसमें श्रद्धा की उपेक्षा नहीं है। क्योंकि जब आप श्रद्धा करके चलते हैं – तो मन से चलते हैं और मन में अश्रद्धा भी श्रद्धा के साथ दबी होती है। यह विरोध मन है। मैं किसी भी प्रकार से श्रद्धा की बात नहीं करता – क्योंकि यह सब मन की क्रियायें हैं। और मन में श्रद्धा रखने का मेरा जरा भी आग्रह नहीं है। मेरा जानना है कि सारी श्रद्धा इस कारण करने को कही
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जाती है – जिसमें कहीं वैज्ञानिक सत्य नहीं *(होता)। और जो भी वैज्ञानिक सत्य नहीं है – उस *(पर) श्रद्धा कभी हो सकती है तो कभी भी, *(श्रद्धा) टूटकर अश्रद्धा में परिणित हो सकती है। *(क्योंकि) श्रद्धा और अश्रद्धा दोनों ही मन के दो *(विरोधी) स्तर हैं – और दुविधा है – मेरा *(जानना) है – जहाँ भी विरोध है – दुविधा है – वहीं मन है। इससे मैं, मन से तो कहीं पहुंचने को कहता ही नहीं हूँ। केवल वैज्ञानिक *(पद्धति) है, ‘ध्यान योग’ की – करने पर जो *(दीखेगा) वह अनुभुति अपने में होगी। इस एकात्म बोध में कहीं भी कोई उपेक्षा नहीं है। बाद फिर जो श्रद्धा आए वह अपेक्षा *(में) नहीं होगी – वह बस अपने में होगी। यह श्रद्धा कुछ पाने के पूर्व की नहीं - वरन जो जाना गया है – उसके बाद की होगी – अपने में पूर्ण होगी।....
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विरोध से कोई मार्ग संभव नहीं है। इससे मैं मन के किसी भी विरोध से चलने को कहीं नहीं कहता हूँ। जब चित्त की एक स्थिति में यह विरोध पाया नहीं जाता है – तब फिर अपने से परिपूर्ण आनंद और शांति के बीच जो होता है – उससे जीवन में जो आता है – वही शाश्वत है – शेष सब व्यर्थता है और कभी भी टूटकर अलग हो सकता है।...
श्री शर्मा जी विचारशील हैं और आध्यात्मिक जीवन में हो आने को उत्सुक हैं। बाद आपने कहा: मैंने आपको कहते सुना है – वह दुनिया में कोई कहता दीखता नहीं है। एकदम मौलिक और वैज्ञानिक है।.....
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देखता हूँ – सारा कुछ मिट जाता है – कुछ भी *(रहता) नहीं है। आदमी इस अपेक्षा में जिए जाता *(है कि) वह महत्व के लिए जी रहा है और उसके बड़े म्हत्व के कार्य संपन्न हो रहे हैं। *(यह भ्रम) उसका चलता जाता है और जीवन के *(अंत) तक बना रहता है। कहीं टूटता है तो *(भी) फिर समझा देता है। ऐसा कुछ जगत का क्रम *(–) वह अपनी लीला को बनाए रखता है – ऐसी जीवन की विविधता है। आदमी की बुद्धि ही कितनी है – वह तो अपने को थोड़े से में ही तुष्ट (किया) करता है – और सारे खेल के बीच अपने (को) एक पात्र समझे रहता है। जैसे: कठपुतलियाँ नाचती हैं और नचाता कोई और है, ऐसे ही आदमी नाचता रहता है – संसार की इस (लीला) में। वह सिर फांस लेता है और जैसा भाग्य चक्र चलाता है – वह चलता जाता है। (कहीं) मुक्ति का पथ मिलता है तो मुंह फिर जाता (है)
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और जीवन की गाड़ी पुन: वैसी की वैसी ही चलने लगती है। न जाने कितनी गहरी इसकी जड़ें हैं और जीवन की अनंतता को कुंठित कर देने में बड़ी सक्षम हैं।... इसी कारण तो जागृत चेतनायें अपने में अपूर्व सौंदर्य, तेजस्विता, प्रखरता और भव्यता को ले अभिव्यक्त होती हैं – तो एक बार लगता है कि जीवन में ऐसा न हो रहा जाय तो जीवन व्यर्थ है। एक बार गहरा भाव भीतर से उस अमृत में हो आने का हो आता है और संसार की नश्वरता से उपर उठ व्यक्ति अपने को अमरता में ले आने को उन्मुख होता है।....... बुद्ध की शरण में जब लोग जाते और कुछ ही दिन ध्यान की साधना करते तो पिछले जीवन पर रोना हो आता और जानते कि उतना सब व्यर्थ गया। मुझे – परिवार में सभी को, यह धन्य भाग्य पहले से ही बिना खोजे मिल गया है – इसकी कृतज्ञता को कैसे व्यक्त करें।.....
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कुछ भी करके, कहके – कुछ किया नहीं जा सकता है। केवल जो मिला है – उसी को भर पूर्ण करके अपने में मुक्त हो आया जा सकता है। बस यह मुक्ति देना, जैसे – पूज्य बड़े भैया - एक शाश्व्त विज्ञान है – शेष अब आदमी *(पर) निर्भर है कि मिल जाने पर भी वह अपनी *(अंधी) राहों पर चलता रहे। इससे एक ओर से तो केवल महान् जीवन-मुक्ति विज्ञान का शाश्वत पथ निर्देशन है – बिना किसी अपेक्षा के – क्योंकि जानना रहा है मुक्त चेतनाओं का – ‘क्या दे सकते हो - जिसे मैं ले सकूँ और मैं दे क्या सकता हूँ – जिसे तुम ले सको।’ कोई देना-लेना किसी को संभव नहीं है। प्रत्येक को स्वयँ अपनी मुक्ति राह पर चलना होता है।
कितने प्रसंगो पर इस सत्य को नहीं कहा है – आपने। कहा है – जो देखा है। उसमें
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कुछ भी अपना मिलाया नहीं है। सारी सीमायें तोड़कर, जो दिखा है, अनुभूत किया है, उसे ही व्यक्त किया है। पूछा था पाल ब्रन्टन ने योगी अरविंद से – कि ‘आध्यात्मिक जीवन में गुरु आवश्यक है?’ तो उत्तर मिला था – एक घंटे तक विस्तार से, कि गुरु के बिना कुछ भी सम्भव नहीं है। लेकिन दक्षिण में महर्षि रमण से जब यह पूछा तो रमण ने कहा: ‘कुछ सीखना हो तो गुरु चाहिए। लेकिन यहाँ तो जो सीखा है – उसे भूलना होता है। तब फिर क्या आवश्यक्ता है।‘ अब यह है अनुभूत तथ्य जिसे महर्षि रमण व्यक्त करते हैं। पर इस तथ्य को जानने वाले कम होंगे कारण कि रमण का सारा विस्तार अनुभूति तक था और सीमित लेखन में – लेकिन योगी अरविंद का विशाल साहित्य है – जिसे पढ़कर मानव - प्राणी उनके प्रति आश्चर्य से भरकर देखता है और यह सोचकर कि वास्तविकता रही होगी – जीवन-पथ पर चलना शुरु कर देता है।
कोई सीमा आध्यात्मिक साधक की नहीं है। समस्त सीमायें बाह्य हैं और सत्य से उसका कोई सम्बन्धन नहीं है।...
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[चर्चा प्रसंगों का समय: जनवरी और फरवरी माह, ‘६३]
इस समय में अनेक बहुमूल्य और जीवन - विकास के अनेक प्रसंग उपस्थित हुए। जीवन – विकास कहें या जीवन की चरम सार्थकता – सारा कुछ अभिव्यक्त हो आया था। आचार्य श्री का देखना अनेक कोणों से होता है। उसमें सारे प्राणी जगत के लिए एक गहरा आश्वासन है। जागृति की प्रेरक साधना है।
धर्म की अभिव्यक्ति – वैज्ञानिक करने में आचर्य श्री का योग है। धर्म एक जीवन – विज्ञान है। इससे वह एक है। जैसे: दुनिया में कोई गणित किसी का अलग नहीं होता है – विज्ञान अलग नहीं होता है - वैसे ही धर्म भी एक है। जैसे ही कोई व्यक्ति जैन होने चलता है – उसका जैन होना गिर जाता है। ठीक इसी प्रकार ईसाइ का बोध भी धर्म में प्रतिष्ठित होते ही गिर जाता है। सारे बाह्य विशेषण औपचारिक हैं और ठीक वैज्ञानिक धर्म की यौगिक साधना विधियों का ज्ञान हो तो – ये विशेषण अपने से गिर जाते हैं। इसका धर्म के मूल से कोई संबंध नहीं है। भीतर जाकर सारे धर्म उस एक में प्रतिष्ठत हो जाते हैं – जिसकी व्याप्ति सारे जगत
में है। इससे जब यह आग्रह कोई दुहराता है कि केवल वह ठीक और सारे गलत हैं – तो जानना चाहिए कि वह धर्म के मूल स्रोत से परिचित नहीं हुआ है। अनेकों लोग होंगे, जो अच्छे तार्किक और दर्शनशास्त्री हों – लेकिन वे साधक न होने से सारा कुछ उलझ जाता है – और घूम फिरकर विचारों का उलझाव भर शेष रह जाता है। उससे मानवीयता विकसित नहीं होती – उस अनंत की अनुभूति में नहीं हो आती – वरन कुंठित और मृत हो जाती है। स्वामी दयानंद सरस्वती जी भी उनमें से थे।
धर्म मुक्ति का विज्ञान है। उसका कोई संबंध बाह्य आचरण से नहीं है। न ही छोटे – मोटे यज्ञ – हवन और पूजन – पाठ से – जिससे कोई मन का दुख दूर करने का आयोजन धर्म के माध्यम से होता है। यह केवल उलझाव है। जो धर्म जीवन की समस्त विकृतियों से व्यक्ति को दूर रखता है – उसका आयोजन मात्र भुलावा है। जीवन दुख है। इसे जानकर व्यक्ति आनन्द और शांति की ओर उन्मुख होता है। कैसे कोई व्यक्ति धर्म के माध्यम से आनन्द
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और शांति में होकर चेतना की अनन्त गहाराई में हो आए – और जीवन – मुक्त हो रहे – केवल इसका भर विज्ञान, धर्म है। कोई धर्म इसके विरोध में यदि कुछ कहे – तो जानना है कि, वह भ्रांत है। मेरा जानना है कि अनेक लोग बातें करेंगे – और उनको कोई ज्ञान – जीवन की भीतरी गहराईयों का न होने से – केवल बात निष्प्राण हो जाती है और जगह-जगह उसमें निष्प्राणता स्पष्ट परिलक्षित होती है। यह मुक्ति का पथ – प्रत्येक धर्म ने निर्देशित किया है – और जो भी उस पथ पर चला है – उसने अनन्तता उपलब्ध की है और चेतना के जगत में समृद्ध हो आया है। सारे धर्मों में जागृत चेतनायें हुई हैं – और जीवन के केंद्र से संयुक्त होकर – पुन: पुन: मानव जीवन को ज्योति प्रदान की है। अभी हमारे युग में स्वामी रामकृष्ण परमहंस देव हुये। उन्होंने सारे धर्मों पर चलके पाया कि – पहुंचना तो केंद्र पर ही हो जाता है। कहा उन्होंने ‘मेरे प्रभु की छत तक आगे के अनेक मार्ग हैं – कोई कहीं से चले – पहुंचना वहीं हो जाता है।‘ अब यह बात और है कि कोई ठीक पद्धति का उपयोग न करे और व्यर्थ की दौड़ में उलझा रहे और फिर कहे मेरी साधना में कमी थी – तो भ्रम
होगा। गांधीजी के साथ यही हुआ। उन्हें ब्रह्मचर्य उपलब्ध नहीं हो सका। इसके पीछे उनका ख्याल था कि वे गलत थे और साधना में कमी थी। ऐसा नहीं है – गांधीजी को ठीक विधि ज्ञात न थी। उसका ज्ञान नहीं था – जहाँ पर हो आने से अपने से अब्रह्मचर्य, असत्य, हिंसा, सब गिर जाती हैं और व्यक्ति ब्रह्मचर्य, सत्य, अहिंसा में प्रतिष्ठित हो आता है।..... अभी मैंने बम्बई जब कहा – तो लोगों को हैरानी हुई – पूछा भी गया – तो कहा मैंने: आप गांधीजी को पढ़ें – तो यह प्रतीति स्पष्ट होगी। उन्होंने उल्लेख किया है – और अपने को दोषी ठहराया है।
ये चर्चा प्रसंग एक इंजीनियरिंग कालेज के (B. E. Final Civil Engineering) युवक श्री चौरसिया जी के ‘श्री दयानंद सरस्वती और उनका जीवन धर्म’ इस प्रश्न पर से उठ खड़े हुए – जिनका आनंद श्री अचल जी पारख और उनके सहयोगी मित्र गण तथा उपस्थित सभी श्रोताओं ने लिया।.....
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आचार्य श्री का कहना है कि सारे धर्मों में एक ही सत्य अभिव्यक्ता हुआ है – इस पर एक युवक ने पूछा: ‘हिंदू परंपरा आवागमन मानती है, लेकिन इस्लाम में केवल एक ही जन्म स्वीकार किया है –इसमें सत्य कैसे एक हो सकता है?’ आचार्य श्री ने कहा: उपर से देखने में ये दोनों बातें विरोधी दीखती हैं – लेकिन इनसे एक ही सत्य अभिव्यक्त हुआ है। जब इस्लाम केवल एक ही जीवन को मानता – तो वह कह रहा है कि समय तो ठोड़ा ही शेष है – इसी में तुम्हे – अल्लाह को पाना है – समय गया कि सारा कुछ समाप्त है। इससे एक घबड़ाहट में होकर व्यक्ति – प्रभु उपलब्धि की ओर चलता है। हिंदू परंपरा में एक लम्बा जीवन का क्रम सामने रखा गया है – और इस जीवन के क्रम में – जन्म, जरा, मरण का दुख ही दुख है – तो स्वभाविक घबड़ाहट; व्यक्ति को प्रभु उपलब्धि की ओर मोड़ती है।
इस में कहने में अन्तर है, लेकिन मूल सत्य दोनों में एक ही अभिव्यक्त हुआ है।
जीवन की अपनी कितनी विविधता है – कि सब कुछ ठीक आभास होने के बाद भी, मन अपनी ओर खींच ही लेता है। लेकिन यह खिंचना धीरे-धीरे हल्का होता जाता है और वह हुआ है – तो इसके समाप्त हो आने का भी गहरा आश्वासन है। कितना सजीव और सुन्दर अभिव्यक्त हुआ है कि देखतेही बनता है। यह अद्भुत है। प्रभु का जगत ही कुछ ऐसा है कि इस में सारा कुछ रहस्य से भरा है। व्यक्ति का जीवन भी अपनें में बड़े रहस्यों को ले – प्रगट हुआ है। इससे एक व्यक्ति का जीवन ही उसके लिए काफी बड़ा है। लेकिन आदमी खुद अपने में कुछ भी न कर – सारे जगत के प्रति लोक-कल्याण के प्रति लग जाता है। इस लग जाने में भी एक, मन की तृप्ति है – और अपने प्रति मूर्छित रहता है। जगत में आदमी सब-कुछ जो भी करता है – उसमें वह भूला रहता है और अपने
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भीतर झांक कर भी नहीं देखता है। इसमें उसे बड़ा भय होता है - क्योंकि सारा कुछ विकृत उभर आता है – इससे अपने को छिपाये हुये चलता रहता है। कहीं भी देखने का अवसर आता है तो किनारा कर लेता है। यह भ्रम जीवन के अन्त तक बना रहता है – लेकिन आदमी इसी भ्रम में जीने में आनंद मानता है। ठीक से अपने भीतर के अज्ञान को देख लेना – ‘आत्म-ज्ञान’ के उदय का कारण बन जाता है। व्यक्ति जैसे ही अपने से ठीक से परिचय पाना शुरु करता है कि वह एक गहरे अज्ञान के बोध से भर जाता है। वह पाता है कि वह तो अपने से पूर्णत: अपरिचित है। इसी से उसमें अपने प्रति ज्ञान से भर आने की प्यास प्रारंभ होती है – जो उसे अपने से ‘स्व-बोध’ से परिचित कराती है। गहरी उत्पीड़न, गहरा दुख ही आदमी को गहरे आनन्द और परम शांति की राह पर ले आता है।
गहरी नास्तिकता से होकर व्यक्ति परम आस्तिकता में हो आता है। गहरी घनी काली रात के बाद प्रभात आता है – ठीक ऐसे ही मानव-मन में भी गहरे दुख के बोध से – प्रकाश का उदय होता है।
यह कहा गया अपने में इतना
मौलिक है कि व्यक्ति के भीतर एक गहरी उत्क्रांति को जन्म देता है और व्यक्ति को एक मनोवैज्ञानिक तथ्य के माध्यम से जागरण के प्रकाश में ले आता है। वास्तव में, नास्तिक वह है जो परम्परा से सहमत नहीं होता, परम्परा का कचरा उसे दीख आता है – लेकिन भीतर एक प्यास उसके होती है – जो उसे परम आस्तिकता में ले आती है। इस प्यास को यदि हमारी सदी तृप्त न कर सकी और धर्म के नाम पर केवल औपचारिक बातों में उलझी रही – तो परिणाम में सारी मानवता घने अंधेरे में डूब जाने को है। यह दायित्व है अब धर्म के साधकों पर कि वे ठीक यौगिक वैज्ञानिक विधियों को, सत्य में हो आने के लिए; इस सदी को दे सकें। अन्यथा धर्म का दीया बुझते ही – मानवता का भी बुझना हो सकेगा।.....
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जनवरी – मार्च, ६३ के पावन प्रसंग:
केन्द्रीय रूप से केवल ‘जीवन-मुक्ति और साधना’ पर आचार्य श्री ने अपने को केन्द्रित किया है। इससे एक तीव्र गति से इस दिशा में विकास हुआ है। जो तथ्य अनुभूति पूर्ण जीवन के मध्य व्यक्त होते – उनमें एक गहरा आत्म-विश्वास, सौंदर्य, आनन्द तथा शांति का दिव्य प्रकाश होता। इन माहों में अनेक चर्चा प्रसंग उठे – बाहर प्रवास भी हुआ – जिसमें राजनगर (राजस्थान) और दिल्ली तक जाना हुआ। राजनगर में अनेक साधु – दिव्य जीवन – दृष्टि का लाभ ले सके। ध्यान की अभूतपूर्व प्रक्रिया को कर सके और जीवन में आध्यात्मिकता के सही अर्थों को पा सके। राजनगर में आचार्य श्री तुलसी जी से भी मिलना हुआ और उन्होंने ‘ध्यान योग’ को समझा। जन – सभाओं में धर्म के संबंध में आधुनिक वैज्ञानिक आधारों पर अनुभूति पूर्ण तथ्यों को व्यक्त किया। इस पर
वहाँ के एक एडव्होकेट ने पत्र द्वारा लिखा:
"आपके प्रवचनों ने बहुत से समझदारों को ना-समझ किया और बहुत से ना-समझों को मार्ग-दर्शन दिया।"
ध्यान-योग के प्रयोग से साधु लाभान्वित हुए। बहुत बड़ी घटना घटित हुई कि आचार्य श्री तुलसी जी ने कहा कि ‘केवल दीक्षा लेकर साधु होना पर्याप्त नहीं है, वरन् योगी होना है।‘ आचार्य श्री को भी आग्रह था कि सब ओर से मुक्त होकर – ध्यान-योग में साधुओं को अपना समय दें।
यहाँ पर भारत के वित्त-मंत्री मोरार जी देसाई से भी आचार्य श्री का मिलना हुआ और यह मिलना अपने में अद्भुत था। मोरार जी भाई का पूछना था अचार्य श्री तुलसी जी से कि:
'मैंने तो आपको नमस्कार किया, लेकिन आपने आशीर्वाद दिया – मैं तो नमस्ते का उत्तर नमस्ते में ही चाहता था। फिर, हम लोग नीचे बैठे हैं – आप तख्त पर क्यों? उचित तो यही है कि आप भी साथ ही बैठा करें।'
इस पर आसपास उपस्थित साधु घबरा
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आये। एक साधु ने कहा: ये सब तो परम्परायें हैं।
मोरार जी भाई बोले: केवल परंपरा होने से सब ठीक नहीं होता। यदि गलत है तो परंपरा तोड़नी चाहिए।
आचार्य श्री ने कहा: यद्यपि, दो जन की वार्तालाप में बोलना ठीक नहीं – लेकिन मुझे बोलना आवश्यक प्रतीत होता है, इससे बोलता हूँ। आपने साधु को नमस्कार किया है, आचार्य तुलसी में जो साधुता है – उसको नमस्कार किया है, और तुलसी जी ने भी साधुता का प्रतिनिधित्व करके ही मात्र औपचारिक आशीर्वाद का संकेत किया है।
यदि आपने अपने ‘मैं’ में होकर और आचार्य तुलसी ने भी अपने ‘मैं’ में होकर आशीर्वाद दिया – तो न आपका नमस्कार हुआ और न आचार्य श्री तुलसी जी का आशीर्वाद। बाकी, साधु को हमारी संस्कृति में श्रेष्ठ जीवन का प्रतीत मानकर उँचा स्थान
दिया है – वह भी एक प्रतिनिधित्व संकेत मात्र है – कोई उँचा और छोटे होने का भाव उसमें नहीं है।
मोरार जी भाई बोले: ये ठीक, समझ में आता है। बाद उत्सुक हो आए हैं – वार्तालाप करने को।
आचार्य श्री का देखना है कि और कहा भी इसे जनसभाओं में: धर्म का नकार से कोई संबंध नहीं है। जो धर्म छोड़ने पर निर्भर होता है, उसके प्राण निकल गये होते हैं। छोड़ने से कोई अर्थ ही नहीं है। हिंसा को छोड़कर अहिन्सा नहीं आ सकती है, – अहिन्सा तो भीतर परिवर्तन होता है – आत्म-परिचय होता है – तो परिणाम में हिंसा पाई नहीं जाती – इसलिए अहिन्सा होती है। इससे धर्म तो आपको आपकी समृद्धि पा लेने को कहता है – यह स्मृद्धि होते ही – परिणाम में दरिद्रता अपने से नहीं पाई जाती है। यह विधायक जीवन-दृष्टिकोण है। इसके माध्यम से ही
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व्यक्ति – आनन्द, शांति में प्रतिष्ठित होकर – अपने में पूरा हो आता है और उसकी भटकन मीट जाती है।
दिल्ली यह आपका प्रथम प्रवास था। यहाँ आपने ‘ध्यान-योग’ पर वर्ग लिए और गोष्ठियों के मध्य अपने अनुभूतिपूर्ण विचार व्यक्त किए। श्री जैनेन्द्र जी – भारतीय हिंदी साहित्य के प्रथम श्रेणी के लेखक, विचारक – आचार्य रजनीश के कार्यक्रमों में भाग लिए और कहा: ‘रजनीश जी, जो भी व्यक्त करते हैं – वह उन्हें दिखाई पड़ रहा है – उसमें जीवन की अनुभूति है।‘ देश के अनेक भागों में जन-मानस पीड़ित है – और शांति तथा आनन्द इच्छुक है – पर केवल पढ़े-सुने – उधार विचारों से – एक गहरा द्वंद मानवीय पटल पर छा गया है। होगा जहाँ का जब संयोग तब जाना
सुनिश्चित होगा और मानवता अपनी समृद्धि में हो आ सकेगी।....
आदमी को आचार्य श्री ने गहराई से समझा है – उसके बाबत अजीब से तथ्य सामने आए हैं, जिन पर एकदम से तो विश्वास भी नहीं आता – लेकिन ये सारे तथ्य – आदमी की मूर्च्छा के साथ हैं – जब तक मूर्च्छा विसर्जित न हो तब तक ये साथ होते हैं।
एक अवसर पर चर्चा करते हुये – आचार्य श्री ने कहा: सुलभता से कुछ अद्भुत, व्यक्ति के जीवन में घतिट हो जाय तो व्यक्ति को कुछ हुआ ही नहीं – ऐसा लगता है। अभी मेरा इस बीच अनुभव आया, कि किसी को गहरी चिन्तायें थी – बड़ी अशान्त मन:स्थिति में लोग अपने को पाये हुये थे – एक उग्र, क्रोधित – मन:स्थिति थी ‌– ध्यान के परिणाम में जाना, कि उनकी उदासी – अपनी जटिलतायें दूर हो गई हैं – लेकिन उन सबका कहना था: अभी तो केवल शांति मिली है – और कुछ नहीं;
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अब यह जीवन दृष्टिकोण है – जिसमें हम अभाव की ओर देखते हैं – जो हो गया या मिल गया है, उसकी ओर से विमुख हो जाते हैं। इससे हमेशा दुख बना रहता है और भीतर खिंचाव चलता रहता है। जो भी जिसके पास है, उसे न देख जो उसके पास अभाव है – उसे देख कर हमेशा दुख उठाता रहता है। इससे मेरा जानना और देखना है कि सुलभता में मिल गया – बिना मूल्य दिए – व्यक्ति की दृष्टि में उसका महत्व ही नहीं हो पाता है। यह बड़े-बड़े लोगों के साथ है। जिन्हें हम विवेकवान और समझदार मानते हैं।......
यह मानव के साथ बुनियादी भूल है। इसी कारण – इस दृष्टि के व्यक्ति को – प्रभु भी मिल जाय और प्रभु सत्ता में वह हो जाए – तो उसका समझना यह होगा कि अभी तो प्रभु मिला है, और क्या
मिल गया। यह बड़ा दुखद दृष्टिकोण है – लेकिन यह आदमी के साथ संयुक्त है। इसी को ध्यान में रखकर – भागवत् चेतना में हो आने के लिए जन्म – जन्मांतर का उल्लेख किया गया। अनेको साधना – विधियों से गुजरने के बाद – तब कहीं सत्य की उपलब्धि। इससे आदमी को लगता है कि बहुत मूल्य चुकाना पड़ रहा है – और तब फिर मिलने पर उसकी दृष्टि में उसका महत्व होता है। लेकिन आदमी ठीक-ठीक मूल्यों को जानने लगे – तो सुलभतम यौगिक प्रक्रियाओं से कम समय में ही जीवन-सत्य में प्रतिष्ठित हो आता है – और इसकी अपनी वैज्ञानिकता है।
फिर, अभाव को देखकर कोई जीवन आनन्द से नहीं भरता है। विधायक जीवन दृष्टिकोण व्यक्ति को समग्रता में ले आता है। आज मेरे पास कुछ् भी नहीं है – कल कुछ हो आए तो कभी संपूर्ण भी हो आएगा – यह सार्थक जीवन-दृष्टि है। इसके माध्यम से जो उपलब्ध
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हुआ – उसे सीढ़ी बना – व्यक्ति मंजिल पर पहुँच जाता है। यह तो सामान्य तथ्य है। सामान्य जीवन के संबंध में भी लागू होता है। फिर मन तो सूक्ष्म है। उसमें थोड़ा परिवर्तन भी बड़ी बात है। देखता हूँ करोड़ों जीवन पूर्ण यांत्रिक क्रम में समाप्त हो आते हैं और कोई परिवर्तन संभव नहीं होता है। इससे यह तो बहुत बड़ा मनुष्य का सौभाग्य है, कि वह जीवन – मुक्ति पथ पर अपने को सक्षम पाता है और सुलभतम ध्यान के प्रयोग के माध्यम से जीवन में अनंतता में हो आता है।...


मार्च १४, शुक्रवार, '६३.
श्री बाबूलाल जी नायक, नगर के एक प्रमुख महाविद्यालय (P. S. M. College) में – व्याख्याता हैं। आपकी अपनी रूचि अनेक दिनों से आचार्य श्री के कार्यक्रम कराने की थी, लेकिन अन्य लोगों के विरोध के कारण, आचार्य श्री का जाना न हो सका था। पर आपके प्रयास चलते रहे – और इस बार आपने संयोग ला ही लिया। प्रार्थना के पश्चात् आचार्य श्री का कार्यक्रम – सांध्य की घिरती बेला में आयोजित किया गया। इसमें प्राचार्य, प्रोफेसर्स और शिक्षक, विद्यार्थी सभी उपस्थित थे।.....
साधारणत: भारत में एक धार्मिक व्यक्ति के संबंध में जो धारणायें होती हैं – वे तो आचार्य श्री के साथ सन्युक्त नहीं हैं। इस कारण एक विचार के लिए खुला अवसर तो वैसे ही मिलता है – फिर पूर्णत: वैज्ञानिक
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अनुभूति पूर्ण सत्य की अभिव्यक्ति – तो एक गहरा द्वन्द मानस-पटल पर छोड़ता है। क्योंकि व्यक्ति तो बहुत बाह्य रूप से अपने को चलाता है, उससे तृप्त वह भी नहीं है, पर अपने अंत: को भी जानना नहीं चाहता है। लेकिन जब कोई पथ-दृष्टा भीतर का जो भी है उसे व्यक्त करता है, तो उसे बहुत बाह्य अर्थों में गलत, वह जरूर करना चाहता है, लेकिन पूर्णत: विवेक उसका सहयोग करता है और उसे वह आंतरिक रूप से ठीक लगता है। यह प्रारंभिक वर्णन केवल इस कारण कि, अचार्य श्री का बोला जाना यहाँ पर इसी अर्थ को लेकर प्रगट हुआ।
आचार्य श्री ने कहा:
मैं धर्म-भीरू नहीं हूँ। भय में होकर मैं धार्मिक नहीं हूँ। भय – मात्र अधार्मिक है। जो
तुलसीदास ने कहा कि:
'भय बिना होई न प्रीति'
मैं इससे सहमत नहीं हूँ। मेरा देखना है कि ठीक धार्मिक व्यक्ति का अभय में हो आना प्राथमिक है – फिर और सब बाद में होता है।
मैं एक और अर्थ में धार्मिक नहीं हूँ। मेरा देखना है कि धर्म का संप्रदाय से, संगठन से, बाह्य क्रिया-कांड और औपराचिकता से कोई संबंध नहीं है। इस सबसे धर्म नहीं चलता, केवल मनुष्य का भ्रम भर चलता है। धर्म मात्र वैयक्तिक अनुभूति है – इससे धर्म व्यक्ति में प्रतिष्ठित होता है, – धर्म संगठन का या समुदाय का हो ही नहीं सकता है।.....
आपने फिर कहा: मैं श्रद्धा से भी धर्म का कोई संबंध नहीं देख पाता। गांधीजी से पूछा था: ईश्वर के संबंध में – तो उन्होंने कहा था: पहिले मानना होता है, फिर जानना होता है। मैं इससे इंच मात्र भी सहमत नहीं हूँ। श्रद्धा से – अधर्म का, अंधविश्वासों का जन्म होता
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है। भारत में इसके परिणाम स्पष्टत: हुये हैं – मेरा देखना है कि पहले जाना जाता है – ‘जो भी है’ – उसे जानना पूर्व में होता है – बाद तो अपने से श्रद्धा आती है। यह ठीक दृष्टिकोण है जिससे धर्म विज्ञान में प्रतिष्ठित होता है – और ठीक रास्ते मानव-जीवन के सामने आते हैं।
इस विश्लेषण को देते हुए आचार्य श्री ने धर्म के वैज्ञानिक तथ्यों को रखा। आपने कहा: मैं तीन स्थितियों में विकास के क्रम को देख पाता हूँ।
१. अंतर्मूच्छित – बाह्य मूर्च्छित.
२. अंतर्मूच्छित – बाह्य जागृत.
३. अंतर्जागृत – बाह्य जागृत्.
पहले क्रम में जड़ पदार्थ हैं। जिनमें चेतना नहीं है। दूसरा क्रम प्राणियों का है। वह बाह्य जागृत है – लेकिन अंतर्मूच्छित होने से एक गहरा तनाव है। इससे जब तक यह अंतर्जागरण न हो – तब तक
कोई व्यक्ति भागवत चेतना को या दिव्य चेतना को उपलब्ध नहीं होता। उसके प्रयास इस ओर होते हैं। लेकिन मैं स्पष्ट करना चाहता हूँ कि – बहुत से प्रचलित ख्याल हैं, जिन्हें धर्म समझा जाता रहा है – अब आधुनिक खोजों ने उनको व्यर्थ कर दिया है।
व्यक्ति खोज करता है सुख की। उसे वह भूल कर उपलब्ध कर लेता है। इससे Sex की इतनी पकड़ है – बाद तांत्रिकों में मैथुन को साधना का अंग बनाया गया। इस तरह Sex, मांस, मदिरा – इन सबसे आत्म-विस्मरण होता है – हम भूल जाते हैं – और नीचे के चेतना के केन्द्रों से सन्युक्त होकर – परिपूर्ण मूर्च्छा में सुख अनुभव करते हैं। साधु – गांजा, अफीम, अन्य मादक द्रव्यों का उपयोग इसी कारण करता रहा है। अभी पश्चिम में, मेक्सिको में एक साधु, जड़ी का उपयोग करता रहा था। जब उससे मेक्सालीन नामक इन्जेक्शन बनाया गया – और उसे प्रयोग किया गया – तो पाया गया कि उससे चेतना की एक मूर्च्छित अवस्था प्राप्त
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होती है – और वापिस आने पर व्यक्ति ठीक वैसी ही बातें करता है – जो भक्त गण और मस्ती के बाद लोग करते हैं। ठीक से जानें – तो हमारी प्रार्थनाओं में कहे गये शब्द भी एक भूल जाने का सुख देते हैं। पुरानी अरबी, प्राकृत, संस्कृत भाषा के मंत्र और ध्वनि से भी व्यक्ति आत्म-विस्मरण में खोता है – और वापिस लौटने पर सामान्य दुख अनुभव करता है। इससे खोकर – दुख का विस्मरण करके – दुख से मुक्ति नहीं मिलती है – वह ज्यों का त्यों बना होता है – केवल हम थोड़ी देर को खोकर भूल जाते हैं – इस भूलने के पीछे हमारी श्रद्धा कार्य करती है – और कभी व्यक्ति को वैज्ञानिक विश्लेषण करने का अवसर नहीं मिलता है। इससे सामान्यत: व्यक्ति असहमत हो सकता है – क्योंकि ये सारी बातें लोक-मानस में बहुत दिन से बैठी हैं – लेकिन ठीक वैज्ञानिक-साधना के दृष्टिकोण से और जीवन में उदात्त अवस्था में हो आने के दृष्टिकोण से तो बात स्पष्ट हो जाती है।
इससे मूर्च्छा में होकर तो व्यक्ति
परिपूर्ण चैतन्य को, भागवत् जीवन को उपलब्ध नहीं हो सकता है। कैसे यह अंत: की मूर्च्छा को तोड़ा जा सके – इसकी यौगिक-साधना पद्धतियाँ भारत में रही हैं। उन पर शोध और विश्लेषण किया जाना आवश्यक है। धर्म को अब केवल योग के माध्यम से ही पुनरुज्जीवित किया जा सकता है।
विश्लेषण आप करें – तो पायेंगे कि ‘मन’ मूर्च्छा है – जैसे ही ‘मन’ गया कि मूर्च्छा भी विसर्जित हो जाती है – और शुद्ध ज्ञान को व्यक्ति उपलब्ध होता है। अब मन का विसर्जन कैसे हो? इसकी, मैं आपसे चर्चा करूँगा।
मन – समस्त विचार-प्रक्रिया का जोड़ है। विचार न हों – तो मन, न हो जाता है। कैसे व्यक्ति विचार-शून्य हो सकता है। मन को दमित करके – मन से मुक्त नहीं हुआ जा सकता। उससे लड़के आज तक कोई मुक्त नहीं हो पाया है। फिर, उससे लड़ना अवैज्ञानिक है। वह तो कुछ न होने के कारण है। जैसे: अंधेरा हो, उससे आप लड़ें – तो
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व्यर्थ पागल बनेंगे। ठीक ऐसे ही – मन से लड़ना नहीं होता। प्रकाश लाना होता है – कि अंधेरा पाया नहीं जाता। व्यक्ति को भी मन के विसर्जन के लिए कुछ करना नहीं है – केवल ‘ध्यान का दिया’ जलाना होता है। यह ‘ध्यान’ एकाग्रता नहीं है। एकाग्रता में तो विचार है। फिर, ध्यान क्या है? ध्यान, समस्त विचारों के पार हो आना है। यह कैसे हो – इसके लिए ‘सम्यक जागरूकता’ मार्ग है। हर क्षण जो भी घट रहा है – उसके प्रति मात्र साक्षी हो जाना – विचारों से व्यक्ति को पृथक कर देता है। इस स्थिति में जो अनुभूत होता है – वह सत्य होता है। वहाँ आत्म-विस्मरण नहीं होता, परिपूर्ण आत्म-जागरूकता होती है। न वहाँ कोई – कल्पित तथ्य (पूर्व धारणायें) साकार होकर – प्रक्षेपित (Mental Projection) होती हैं। शुद्ध ज्ञान की अनुभूति मात्र होती है। इसमें हो आने पर ही व्यक्ति की चरम सार्थकता
है। अन्यथा शेष सब व्यर्थ है।
आपने – बहुत मौन से, प्रीति से मेरी बातों को सुना – उसके लिए धन्यवाद। अंत में आप सब, अपने भीतर बैठे परमात्मा के लिए मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
महाविद्यालय की ओर से प्रो. परिहार एवं प्रो. व्यास ने – आगन्तुक अतिथि का हृदय से स्वागत किया और कहा: रजनीश जी, हमारे लिए नए नहीं है – उन में मौलिकता है – पांडित्य है – अनुभूति के ज्ञान का प्रकाश है और विचारों को अभिव्यक्त करने की परिमार्जित शैली है। जबलपुर नगर में – योग और दर्शन पर इताना अध्ययन और अधिकार किसी का भी नहीं है। आपने धन्यवाद के साथ कार्यक्रम समाप्त किया।
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जीवन को निखारकर परिपूर्ण करने वाले जीवन-प्रसंग आचार्य श्री के निकट हमेशा अभिव्यक्त होते हैं। सृजन की गंगा हमेशा बहती है। इसमें कूदकर सृजन में हो आने वाला चाहिए।
मन, बीते कल और आने वाले कल के भार से दबा रहता है। जबकि ये, कभी होते ही नहीं। ठीक एक क्षण होता है और उसमें ही जो है – बस है। यह परिपूर्ण वर्तमान में हो आना – ध्यान से हो आता है। इसके प्रति परिपूर्ण जागरुक भी हुआ जा सकता है। फिर जो घटित होता है, वह अद्भूत होता है।.....
मैं जानता हूँ अनेकों लोगों को, जो बहुत दिन से मिलना चाहते थे – कुछ तो अभी भी होंगे – जो मिलना चाहते होंगे – लेकिन ‘कल’ पर यह टालना चलता है। यह मन की प्रवंचना है। मुझे एक व्यक्ति भले लगे – ध्यान में आते हैं – भट्टाचार्य जी – इंजीनियर हैं। आप मेरे कालेज में प्रो. चटर्जी और डा. बोस से परिचित हैं – आपने मेरे संबंध में
चर्चा सुनी – तो जाने की बात उठी। उन लोगों ने कहा – कभी चलेंगे। भट्टाचार्य जी बोले: आप लोग हो आना फिर कभी – मुझे तो अभी ख्याल उठा – मैं हो आता हूँ। भट्टाचार्य जी आए – तो मुझे भले लगे। यह वृत्ति कम होती है – सीधा ख्याल उठा तो हो आउँ – उसमें सोच-विचार क्या!
मेरा देखना है कि यह सोच-विचार, केवल श्रेष्ठतम स्थितियों के संबंध में भर होता है – शेष सारे निकृष्ट या मन की वृत्तियों के अनुकूल कार्य तो उसी समय व्यक्ति पूरा कर लेता है। यह जीवन को असंगत कार्यों से भर देता है और इसी में उलझ कर अपने को सुखी अनुभव करता है।.....
एक साधु हुआ – वह कहा करता था कि जीवन इतना छोटा है और उसमें भलाई करने के इतने अधिक अवसर हैं कि बुराई के लिए समय ही नहीं है। यह जीवन-दृष्टिकोण है, जो व्यक्ति को भलाई के लिए हर क्षण प्रेरित करता है।...
[इसी प्रसंग में कहा गया – एक साधु था – कभी कोई उसे गाली दे देता – तो वह कहता – तुम्हारा काम तो पुरा हुआ, लेकिन मैं तो आपको
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कल सोचकर उत्तर दूँगा। जिसने गाली दी होती – वह कहता: आप ना-समझ मालूम होते हैं, अरे, मैंने तो गाली दी है – क्या उसका उत्तर भी सोचकर देना होगा – उसमें तो भारी भूल है।
साधु हँसता और कहता: ठीक, मेरी भारी भूल ही रहने दो।....


आदमी का सारा आयोजन निकृष्ट के साथ चलता है। कुछ श्रेष्ठ में, विराट में हो आने के लिए उसे अवसर आता है – तो वह प्रचलित परंपराओं में उलझकर – केवल भ्रम में – भुलावे में बह जाता है और इस तरह जीवन का सारा कुछ अंधेरे में खो जाता है। यह अनादि क्रम है।....
मैं अपने को जानकर कहता हूँ – कि केवल एक दिशा से, एक ओर तड़फ से ही कुछ जीवन में संभव हो पाता है – अन्यथा सारा कुछ विभक्त होकर खो जाता है। पूज्य बड़े भैया जी कहा करते हैं:
एक फकीर हुआ बायजीद, उसके पास एक युवक आया – बोला, मैं प्रभु से मिलना चाहता हूँ। बायजीद – पास नदी में गया और युवक को जोर से पानी में डुबोया। उसकी गरदन वह पानी में डुबोये रखा – युवक तड़फड़ा गया और सोचा यह तो साधु नहीं, हत्यारा है। थोड़ी देर में युवक को उसने बाहर निकाला; और पूछा: जब तुम पानी के भीतर थे तो तुममें कौन-कौन से विचार चलते थे? युवक बोला: आप भी कैसी बात करते हैं – वहाँ तो सांस टूटने को थी – वहाँ कोई विचार न थे – केवल एक
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ही बात प्राण-मन में थी कि: बस, एक सांस हवा मिल जाये। साधु बोला: ठीक, मैं तो तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दे रहा था – जब ऐसी ही प्यास भीतर से उठ आये – तो प्रभु तो जो निरंतर है – उसमें व्यक्ति हो आता है।......
मेरे लिए आज के इस विविधता और अजीब से उलझे युग में – एक परिपूर्ण जागृत चेतना का जो सहारा मिला है – उससे न केवल मैं, वरन् सारे जन धन्य हो आए हैं।


व्यक्ति हमेशा अतिशयोक्ति पर चलता है। वह या तो भोग की अति पर चला जाता है – फिर भोग यदि छोड़ता है, तो त्याग की अति पर चला जाता है। यह दोनों मन की एकसी सीमायें हैं। इस में मन का सुख है – और अहँ की तृप्ति है। इससे कभी भी जीवन, भागवत चैतन्य को उपलब्ध नहीं होता है।
आप कुछ बहुत करके प्रभु को नहीं पा सकते हैं। आपके प्रयत्न ही आपके मार्ग में बाधा हो जाते हैं। केवल सम्यक मार्ग जो परिपूर्ण रूपसे सन्तुलित हो – वह जीवन-मुक्ति का मार्ग बनता है। कहीं कोई अतिशय जहाँ न हो। इससे मेरा कहना है: प्रभु को कहीं कोई खींच कर नहीं लाया जा सकता। उसमें तो आप अपने को कभी पाते हैं। जैसे मैं पौधे में फूल को देखना चाहता हूँ – तो मैं अच्छी खाद, पानी, प्रकाश का प्रबंध कर सकता हूँ – शेष, फूल तो अपने से कभी समय आता है तो खिल आता है। इसमें मेरी ओर से जो आवश्यक था – उतना किया,शेष तो प्रतिक्षा करने पर फूल का खिलना हुआ। मैं इससे कहता हूँ: प्रार्थना करो और आकांक्षा मत करो, वरन् प्रतीक्षा करो – अपने से सब होगा। इससे मैं ‘ध्यान’ को भी अधिक करने को नहीं कहता। सम्यक – जितना ठीक हो उतना करें – कहीं कोई खींचाव न आने दें – अन्यथा वह खींचाव ही बाधा बन जाता
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है। यह हमें दीखता नहीं है, लेकिन यह होता है।...
गौतम बुद्ध के पास एक व्यक्ति समस्त राजकीय वैभव छोड़कर भिक्षु हुआ। वह कठोर त्याग में उलझ गया। कांटों पर सोने लगा, जलती धूप में रहने लगा - ५ दिन में वह झुलस गया। ५ वे दिन गौतम बुद्ध पहुंचे; -- कहा पाहिले तुम्हें वीणा बजाना प्रिय था। तो तुम जानते हो कि विणा के तार एकदम ढीले हो तो स्वर नहीं निकलता -- ऐसे ही तार पूरी तरह से खिंचे हों तो भी स्वर नहीं निकलता। तार जब सम होते हैं तब स्वर निकलता है। भिक्षु बोलाः ठीक है। बुद्ध ने समझायाः अति भोग और त्याग से नहीं वरन् सम्यक् रूप से सन्तुलन जीवन दृष्टी से -- सहजता और सरलता में -- जीवन मुक्ति का मार्ग है।...
ठीक मेरा भी देखना है किः जो एकदम सरल, वैज्ञानिक और सम्यक् हो -- वह जीवन को संगीत और आनंद से भर देता है। अन्यथा जीवन - विरोध और विषमता से भर जाता है। उससे समता और आनन्द विलग हो जाता है।...
मैं, एक काल्पनिक कहानी पढ़ता था। जो नारद के साथ संयुक्त है। एक समय नारद--प्रभु तक जाते थे। रास्ते में एक साधु मिला, बोलाः पूछना भगवान् से ३० जन्मों से तपस्या करता हूँ, कब मिलना होगा -- प्रभु से। नारद बोलेः ठीक है। आगे जाते थे, तो एक दूसरा साधु मिला। जो अंपने नाचने में मस्त था। नारद मजाक में उससे भी बोलेः तुम्हें कुछ प्रभु से पूछना है -- वो बोलाः कुछ नहीं -- नारद ने बहुत आग्रह किया -- तो बोलाः फिर जा ही रहे हो तो पूछते आना- कब मुक्ति होगी। ...
नारद वापिस लौटे। पाहिले साधु से कहाः अभी -- ३ जन्म और लगेंगे। साधु तो सुनके आग हो गया -- इतना किया अभी ३ जन्म और। ... नारद आगे उस नाचते साधु के पास गए, बोलेः प्रभु ने कहा है, अभी जितने पत्ते इस पेड़ में हैं - उतने जन्म और लगने को हैं। ... वो बोलाः तब ठीक, पा लिया, बस केवल इतने से जन्म -- संसार में इतने वृक्ष हैं -- उनके अनंत पत्ते हैं -- केवल इस पेड़ के पत्ते भर जन्म। ... बस वह पुनः अपने नाच में मस्त हो गया। ...
ये केवल एक कहानी है। इसमें जो तथ्य व्यक्त किये गए हैं -- उसमे एक का तनाव - पूर्ण जीवन दृष्टिकोण है -- और दूसरे का सहज जीवन का आस्था पूर्ण -- सम्यक् वैज्ञानिक दृष्टिकोण है ।उसमें कोई बहुत आग्रह नहीं है। अब मैं जानता हूँ कि पहले साधु को हो सकता है ३० जन्म और लेने पड़ें -- लेकिन दूसरे साधु की बात उसी जन्म में पूरी हो जाती है। ...
इन वैज्ञानिक अनुभूति पूर्ण -- जीवन की दिक्षा को निर्धारित करने वाले अनमोल वचनों को -- आचार्य श्री ने जबलपुर में -- 'ध्यान केन्द्र ' में आए हुए
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साधकों के मध्य २६/३/६३ को व्यक्त किये। ...
जीवन का कोण ठीक विदित न हो तो व्यक्ति कहीं भी अपने को उलझा ले सकता है। प्रचलित जो ख्याल जीवन के संबंध में हैं, उनसे जीवन कहीं श्रेष्ठ चेतना की स्थिति में नहीं हो पाता-- यह सामान्य घटना आज दिखाई पड़ रही है। बुनियाद से ही आदमी गलत दिशा में उलझ जाता है और फिर गहरे अंधेरे के बीच चलता जाता है। यह भूल उसे भी समझ में आती है -- पर वह उसें छिपाये हुए चलता रहता है। एक अजीब सा उलझाव आदमी अपने साथ खड़ा कर लेता है। ....
नगर के पूर्ण बौद्धिक क्षमता के व्यक्ति-आचार्य श्री के समीप आकर अनुभव करते हैं कि जो जाना था -- उसका कोई मूल्य न था। एक संस्कृत की प्रोफ़ेसर का आना हुआ -- इस बीच। आप यहाँ एक ब्रहन - विद्द्या समाज की बैठकों में भी जाया करती हैं। बोलीः 'लोगों की रूचि नहीं है -- आते नहीं है।'
आचार्य श्री ने कहाः जब ऐसी स्थिति हो तो जानना चाहिए कि जो किया जा रहा है -- उसमें कुछ आनन्द ऐसा नहीं होगा कि जो कह सके कि सब छोड़कर पहले वहाँ जाना है। होता यह है कि जब भी श्रेष्ठतम स्थिति में हो आने की संभावना व्यक्ति को दिखाई नहीं पड़ती है - तो उसका मन स्वभावतः वहाँ जाने को नहीं होता है -- फिर उसके साथ जबरदस्ती तो की नहीं जा सकती है। इससे रूचि जब न रह जाये तो जानना चाहिए कि हमारा आयोजन प्राणहीन है -- उसमें आनंद का स्त्रोत नहीं है, अन्यथा आनन्द हो तो आकर्षण तो अपने से होता है।
एक दूसरे बिन्दु पर चर्चा हुईः उसमें आपने कहा कि हम जीवन के प्रति नकार से निषेध से चलते हैं। हम यह नहीं करेंगे - वह नहीं करेंगे --लेकिन इस न करने से जो भीतर का है, उसमें कोई भी परिवर्तन संभव नहीं होता है। आप इस दिशा में बहुत प्रयत्न भी करें -- तो कोई उपलब्धि संभव नहीं है। क्योंकि नकार से जीवन नहीं खड़ा होता, उससे वह टूटता है -- और आनंद तथा सौंदर्य को उपलब्ध होने की अपेक्षा वह विकृत तथा कुरूप हो जाता है। इससे नैतिक जीवन -- दृष्टी -- परम सत्ता तक आपको नहीं ले जा सकती। भीतर कुछ करना होता है -- उसके करने से बाहर परिणाम में जीवन की श्रेष्ठता अभिव्यक्त होती है। ईसा ने एक वाक्य कहा हैः
'Seek ye first the kingdom of God,
& all else shall be added unto you.'
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लेकिन मनुष्य के साथ उलटा घटित होता है। वह शेष सब को पहले करता है -- उससे प्रभु के राज्य में हो आना चाहता है। यह गलत दिशा है। पाहिले प्रभु के राज्य को पाना होता है -- फिर शेष सब अपने से होता है। ब्रम्हचर्य,सत्य,अपरिग्रह,संयम,शील सारा कुछ अपने से होता है। .....
बाद प्रोफ़ेसर का कहना थाः लेकिन सब तो हैः क्रोध,मोह,मान,माया,लोभ -- यह सब कैसे जायगा।
आचार्य श्री ने कहाः ये सब दिखते अलग-अलग हैं -- बाकी भीतर तो केवल एक ही पर चोट करने से-सब अपने से विसर्जित हो जाते हैं। ........
[ दिनांक २८/३/६३ को मध्यान्ह,श्री पंडया जी के साथ आगमन पर चर्चा ]
[महिला प्रो० -- बाद कृतज्ञता व्यक्त कीं और एक गहरे जीवन-परिवर्तन के भाव से भर आईं। .... आश्चर्य था आपको कि इतनी युवा वय में इतने परिपक्व जीवन अनुभूति के प्रेरणापूर्ण सद्- विचार -- आचार्य श्री से – व्यक्त हुए हैं -- इस पर। ]


मनुष्य के साथ बड़ा अजीब हुआ है। इतने आनन्द पूर्ण जीवन की संभावना के बीच -- वह दुख में अपने जीवन को काट देता है। सारी प्रकृति अपने आनन्द और संगीत से परिपूर्ण है। सब शान्त और अपने में पूर्ण है। सारा प्राणी जगत है -- लेकिन मनुष्य सब से दुखी और परेशान है। ... जबकि उसके आनन्द में हो आने की असीम क्षमतायें हैं। ...
बीच में श्री रजनीकान्त सरकार बोलेः लेकिन ऐसा क्यों है ? आचार्य श्री ने कहाः आदमी गहरे अज्ञान में है। उसे मूर्छा घेरे हुए है। उसे अपने अस्तित्व के संबंध में अजीब ख्याल हैं -- इस सब के पार वह कभी उठता नहीं है। अन्यथा जितना वह दुख उठाता है -- उतना ही नहीं वरन् असीम आनन्द में वह हो आए। ...
[ यह प्रसंग श्री सरकार के साथ -- प्रकृति और मानव जीवन के संबंध में आनन्द और वास्तविक सीमाओं के सन्दर्भ में था। ]
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मनुष्य की अलग-अलग प्रकार की प्रवृत्तियाँ होती हैं। उनके अनुसार उनका विभाजन किया जाता है। इस प्रकार सामान्यतः Extrovert और Introvert, इन दो प्रकारों में मनुष्य को रख सकते हैं। जो व्यक्ति सामन्यतः इसी-ख़ुशी से और विनोद में अपने को लगाए रखता है -- वह स्वभावतः अपने भीतर दुखी है -- उसको भूलने के लिए उसका बाहर का आयोजन चला करता है। जरा सा भी दुख उसे हिला देता है। ....
इसके विपरीत Introvert व्यक्ति अपने भीतर ही दुख में घुला जाता है। हमेशा उदासीन और गंभीर बना रहता है। उसे ख़ुशी का कोई अवसर ही नहीं दिख पड़ता है। सामान्यतः दुख आने पर उसकी स्थिति में अब और परिवर्तन संभव नहीं है - क्योंकि पहले से ही वह उस स्थिति में है। ....
ये दोनों ही विकृत स्थितियाँ हैं। इन दोनों को सम्यक् रूपेण होश को बनाए रखकर - अपने से विसर्जित होना होता है। तब फिर जो अनुभव होता है -- वह इन दोनों स्थितियों के पार होता है। एक असीम आनंद में व्यक्ति हो आता है।
[ श्री सरकार के एक प्रसंग में ]
असीम स्त्रोत है -- कभी यह ही मालूम नहीं होती। वैज्ञानिकता उसकी कसौटी है। हर तथ्य कोई अर्थ का नहीं जब तक उसकी वैज्ञानिकताप्रमाणित न हो। विवेचन यों अन्य जन भी किया करते हैं -- जो केवल अपने में कोरा और रिक्त होता है और उससे जीवन में कुछ भी घटित नहीं होता है। लेकिन आचार्य श्री का देखना है -- पूर्णतः वैज्ञानिक ही केवल जीवन में परिवर्तन को देख सकता है। उसमे एक विज्ञान है -- सत्य है -- जो परिणाम देता है। अनेक तथ्य जो केवल निर्मूल्य होते हैं -- और अंततः एकदम कोरे प्रमाणित होते हैं। उनसे सारे जीवन भर चलके कोई परिणाम आने को नहीं होते हैं। अंधेरे पथ पर कोई जीवन भर चलता रहे -- इससे क्या होने को है ? ठीक सम्यक्
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वैज्ञानिक मार्ग ही जीवन को आनन्द और शान्ति से भर सकता है। ....
अनेक प्रचलित ख्याल जो बड़े लोगों के साथ भी सन्युक्त हो जाते हैं उनका कोई अर्थ नहीं होता है। हर युग और समय में -- राष्ट्रों के अपने -अपने जीवन के मूल्य हुआ करते हैं -- उन मूल्यों को श्रेय मिलता है और प्रतिष्ठा होती है। इस कारण ही भारत में जो बड़ा होना चाहा -- वह त्याग के साथ खड़ा हो गया -- कोई उसे त्याग प्रिय न था - वरन् त्याग श्रेय और प्रतिष्ठा देगा -- इससे व्यक्ति त्यागी होने में गौरव मानने ने लगा। कहीं जीवन को भौतिक मूल्यों को श्रेष्ठ माना गया -- तो व्यक्ति भौतिकता के पीछे चलने लगा। इस तरह जिन मूल्यों को श्रेय, प्रतिष्ठा और आदर मिलने लगता है -- व्यक्ति उन मूल्यों पर चलने लगता है -- उसमें उसकी कोई वैज्ञानिकता नहीं होती है। .....
अब इस तरह का व्यक्ति कहीं अपने में नहीं होता है ... वह मूल्य जन होता है। जिस तरह के भी मूल्य गौरव देंगे -- उसमें वह अपने को ढालता चलता है। उसमें जीवन की वास्तविकता नहीं होती है। मेरा देखना है कि शुद्ध धार्मिक व्यक्ति चाहे कहीं भी हो -- वह अपने अनुसार होगा। उसका जीवन का अपना मूल्य होता है -- कोई बाहर के मूल्य उसके जीवन को नहीं बना सकते हैं। वह अपने शुद्ध वास्तविक स्वरूप में होता है। उसके अपने स्वयं के जीवन-मूल्य होते हैं और उसे उनमें परिपूर्ण जीवन-दृष्टी का बोध होता है। वह सत्य में होता है और अपनी अंतर्दृष्टि से जीवन में परम सत्ता के आनंद को अनुभूत करता है। केवल ऐसा व्यक्ति ही समस्त सीमाओं के बाहर होता है और सारे मूल्यों से अप्रभावित रहता है। वह अपने में होता है और उससे जीवन-मूल्य अपने से फूटते हैं। ......
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कितनी सहजता और सरलता से -- जीवन की श्रेष्ठ अभिव्यक्ति आचार्य श्री से होती है कि उसकी अपने में भव्यता है। …
एक सामान्य प्रश्न होता हैः पहले जब तक प्रारंभ की सीढियाँ व्यक्ति पार न करे -- वह अंतिम पर कैसे पहुँच सकता है -- 'ध्यान की परिपूर्णता' तो अंतिम है -- पर आप तो उसे प्रारंभ से ही चलना शुरू कर देते हैं -- यह दुविधा क्यों ?
आप जिन सीढ़ियों की बात करते हैं वह आपको ठीक से जानना होगा। व्यक्ति के पास एक तो इन्द्रियाँ हैं और इन्द्रियों से संयुक्त चेतना है। मैं आखों से आपको देखता हूँ -- तो एक तो बाह्य इन्द्रिय इसमें कार्यशील है -- दूसरी जो चेतना इसके पीछे है -- वह आपके देखने का कार्य पूर्ण करती है -- आपको देखे जाने वाले का बोध देती है। इसी तरह -- सारी इन्द्रियों और मन के पीछे चेतन सत्ता है। अब मैं इन्द्रियों को उपयोग करना चाहूँ - और उनके माध्यम से जो विशिष्ट कार्य संभव हैं - उस दिशा में लग जाऊँ -- तो मुझे प्रयोग करना होंगे। ये प्रयोग केवल जो व्यक्ति के साथ मन की अन्य (अचेतन मन की ) शक्तियाँ हैं -- उसमें व्यक्ति को ले आते हैं और व्यक्ति को कुछ असामान्य इन्द्रिय बोध होना शुरू होता है। जैसेः वह दूर तक के तथ्यों को जान सकेगा -- उन्हें देख सकेगा -- सुन सकेगा और इस तरह एक शक्ति उसके जीवन में आ जाती है। इससे लोगों की क्षुद्र वासनायें तृप्त होती हैं, वे उस व्यक्ति को आदर देने लगते हैं। परिणाम में एक चमत्कार की हवा फैलना शुरू हो जाती है। इस शक्ति के -- अतीन्द्रिय बोध के प्रयोग में अवश्य आपको सीढियाँ पार करनी होती हैं। इससे ऐसा लगने लगता है कि जो इन सबमें प्रगट हो रहा है -- उसमें हो आने के लिए भी सीढियाँ पार करना होंगी।यह भ्रान्त है।
सचेतन -- सप्राण तत्व तो हमेशा है। उसमें हो आने के लिए कोई सीढियाँ नहीं हैं। या तो हम उस सत्ता में होते हैं या नहीं होते हैं। जैसेः कोई आदमी मर गया है -- तो हम यह तो नहीं जानते कि अभी वह कम मरा है या कम जीवित है -- या तो वह जीवित होगा या मरा होगा। उसमें कोई सीढ़ी की बात नहीं है। ठीक ऐसे ही
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प्रभु - सत्ता में हो आने में कोई सीढ़ियाँ नहीं हैं। कुछ आपको वहाँ करके नहीं पहुँचाना होता है -- इससे उसमें सीढ़ियाँ नहीं हैं -- केवल छलांग है। जैसे ही -- बाहर इन्द्रियाँ अपनी शिथिल अवस्था में होतो हैं -- शरीर और मन की समस्त क्रियाये शान्त और मौन होती हैं -- उस अवस्था में व्यक्ति अपनी शुद्ध चेतना की अवस्था में होता है -- जो बाहर प्रगट होता है --उसमें व्यक्ति हो आता है। इन्द्रियों से जो प्रगट था, इन्द्रियों के अक्रिया में होते ही -- व्यक्ति उस चेतन सत्ता के बोध से भर आता है। इसमें सब कुछ छोड़ के आना होता है -- इससे यह सीढ़ी न होकर -- केवल छलांग है। एक बार आप ध्यान के माध्यम से इस स्थिति को बोध कर लेते हैं -- तो सारा कुछ अपने से स्पष्ट हो जाता है। ...
एक वैज्ञानिक तथ्य प्रस्तुत करते हुये आपने कहा किः पानी को आप उबालिए। एक तापक्रम पर पानी -- अपनी अवस्था में ही रहता है। लेकिन जैसे ही १००'से. ताप हुआ कि भाफ में परिणीति हो जाती है। अब यह नहीं कहा जायगा कि भाफ होने में कोई -- सीढ़ी पार करना है। या तो पानी है या फिर भाफ है। यह तो केवल एक तथ्य है -- जिससे आपको मेरी बात स्पष्ट हो सके। ......
पूर्णतः चेतना का बोध से भर आया व्यक्ति आपको जो जानकारी दे सकेगा -- आप उसकी जानकारी आपके जीवन के श्रेष्ठ में हो आने में सहायक हो सकेगी। अन्यथा केवल बातचीत का उलझाव है और उसका जीवन में कोई अर्थ नहीं है। सीढ़ियों की बात केवल बौद्धिक उलझाव है और उसमें पड़कर केवल समय भर खोया जा सकता है -- कुछ जीवन्त, चेतना की श्रेष्ठ स्थिति में नहीं हो जाया सकता है। ......
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रात्रि सघन अंधकार में हो आई है। उसकी तिमिरता सुखद और परिपूर्ण निस्तब्धता का बोध दे रही है। सब कुछ जागृति के प्रकाश में -- होकर ही जीवन्त होता है -- अन्यथा सारा कुछ तिमिर में खो जाता है और अधिकांश मानव - चेतनायें इस गहरे अंधकार में जन्म - जन्मांतर तक भटकती रहती हैं। प्रश्न भी जीवन में बड़े उलझाव को लेकर मानव -- मन पूछता रहता है। उसे अपने अस्तित्व से गहरा मोह है। वह मुक्ति की बातें भी करता है -- लेकिन केवल मनोरंजन के लिए। उससे जीवन में कोई परिवर्तन नहीं होता है। मैं देख पाता हूँ कि आधयात्मिक होना -- एक उदात्त साहस की बात है। उसमें गहरा जीवट साहस अपेक्षित है। अन्यथा मुक्ति हमारे दरवाजे पर खड़ी रहती है और हम उससे मुँह मोड़ लेते हैं। अनेक भागवत् चेतनाओं में हो आए व्यक्तियों के निकट भी जो अनेक लोग संपर्क में आकर और परिवर्तित नहीं हो पाते हैं -- उसके मूल में यही कारण है। ...
पूछा था ध्यान में आने वाले एक साधक ने :
'घर में तो ध्यान होता नहीं, बड़ा शोरगुल और एक अशान्त वातावरण में ध्यान कैसे हो?' आचार्य श्री ने कहाः मेरा देखना है कि जीवन की घनी अशान्ति के बीच ही ध्यान की परिपूर्णता में आपको हो आना है। दूर जंगल में अनेक बाधा ओं से विलग आप शान्त हो भी रहें - तो उसका कोई अर्थ नहीं हैं। जीवन के घनेपन के बीच इस तरह की शान्ति -- टूट सकती है और तब केवल एक भ्रम जो हम पाल लेते हैं -- उसका टूटना हो जाता है। मैं पढ़ा एक साधु के बाबत् -- वह दूर हिमालय वन प्रान्त में ३० वर्षों तक साधना किया। बाद भक्तों ने कहा -- अब तो आपको परिपूर्णता उपलब्ध हो आई है, आप पूर्णतः शान्त हैं -- अच्छा हो अब आप निचे गांव में चले और अपना लाभ दें। गांव में वह साधु नीचे आया, उस दिन गांव में मेला लगा था। भीड़ से जब वह गुजरता था -- तो अचानक उसे किसी का पैर लग गया उसकी तो क्रोधाग्नि भड़क उठी, एक क्रोध
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की लहर दौड़ आई। इससे वह अपूर्ण था और दूर रह कर पाई हुई पूर्णता जरा से जीवन के विचलन से -- खोई जा सकती है। ....
मेरा देखना है की पूर्णता -- तो सारे जीवन के भागते हुए क्रम के बीच ही आपको उपलब्ध करना है।कोई शर्त मैं नहीं रखता। मेरा देखना Non-conditional है। अन्यथा मन तो बचना चाहता है -- जरा सी भी ध्यान के साथ शर्त रख दीजिए -- तो बस लोग यह बहाना खोज लेंगे कि जब शर्त ही पूरी नहीं होती तो ध्यान कैसे हो? यह मन का खेल -- मुझे समझ आता है -- और इससे बिना किसी शर्त के -- आपको ध्यान की घटना अपने में घटाना है। जैसे ही घटना घटित होती है -- फिर पाया जाता है कि सारी जीवन की विषाक्त स्थितियों के बीच भी -- परम शान्ति में हो आया जा सकता है। मेरे लिए केवल इस पूर्ण समग्र जीवन-दृष्टी से ही -- मानवता को समग्र जीवन में हो आने देना -- उपादेय है।खंडित जीवन दृष्टी कोण जो जीवन में अधूरा हो, उससे कोई भी व्यक्ति परिपूर्णता को उपलब्ध हुआ -- ऐसा नहीं कहा जा सकता है। जीवन एक परिपूर्णता है और उसमें परिपूर्ण होकर ही -- श्रेष्ठ जीवन को व्यक्ति उपलब्ध होता है। ....
एक पश्चिमी विचारक -- रंगून ध्यान केन्द्र में ध्यान को समझने आया। वह रंगून पहुँचा, और एक ऐसे गंदे, अशान्त स्थान में ले जाया गया -- जहाँ पर कोई भी जाना पसन्द न करता। जब वह ऐसे स्थान पर स्थित ' ध्यान केन्द्र ' में पहुँचा - तो बड़े आश्चर्य में था,कारण कि उसने तो बड़ी - रमणीक कल्पनाये कीं थीं। उस ध्यान-केन्द्र के जिस कमरे में वह ठहराया गया -- वहाँ तो ऊपर ढेर से कौवे -- अपने कोलाहल में मस्त थे। ये बिचारा बहुत दूर से आया था -- लौट भी नहीं सकता था किसी तरह रुका -- रात गुजारी। दूसरे दिन सुबह वह गुरु से मिलने निमं-त्रित था। गुरु ने बताया कि यह सारा
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आयोजन जान के किया गया है। यह पूरा घना संसार का रूप है, इसमें ही तुम्हें ध्यान को उपलब्ध होना है। ठीक ध्यान को ऐसे स्थान में ही उपलब्ध करके व्यक्ति अपने में पूरा होता है।
आप देखते हैं कि खंडित जीवन -विज्ञान नहीं, वरन् परिपूर्ण जीवन विज्ञान ही -- सार्थक है - और विश्व की सामान्य तनावपूर्ण स्थिति में उपादेय है।


जब कुछ भी नहीं जानता था, तब लगता था कि सारा कुछ जानता हूँ। अब थोड़ा सा जाना है तो न जानने की सीमा विस्तार लेती जा रही है। मनुष्य को -- अपने भीतर के बैठे सीमा से घिरे पिंजड़े में बंद आदमी को जब जाना तो पहिली बार एक व्दंद उठा। अन्यथा क्या था -- अंधा आंख बंद किये जीवन भर चलता जाता -- तो भी क्या अन्तर आता था -- लाखों - करोड़ों जीवन जो चल रहे हैं। पर अब अमृत-और विष दीख आया है। इससे क्या चुनता हूँ -- उसी से जीवन निर्मित होने को है।
देखता हूँ जीवन की राहों को और उस पर चलने वाले पथिकों को -- चारों ओर एक निकृष्टता का आयोजन है -- बड़े - बड़े आदर्शों के पीछे भी मनुष्य का अपना अहँकार तृप्त करने का आयोजन चलता रहता है। इन अर्थों में मुक्त जीवन दृष्टी को समझ लेना और उसकी प्रतीति जीवन में पा लेना -- एक गहरे अर्थ को जीवन में पा लेना है। जहाँ कुछ भी रुकता नहीं है -- सब बहता चला
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जाता है -- उसमें अमृत आनंद के बोध को उपलब्ध हो आना -- सच में -- मानव के अपूर्व आनंद का मूर्त रूप है। मैं -- और अनेक मानवात्माये इस युग में एक प्रबुद्ध चेतना को पा सके -- इससे अधिक गौरव और क्या हो सकता है। एक पाश्चात्य प्रसिद्द विचारक ने लिखा कि यह मेरे लिए सबसे अधिक सौभाग्य की बात होती कि मैं आज से २५०० वर्ष पूर्व महावीर और बुद्ध के समय -- बिहार में पैदा हुआ होता। अब ये विचार हैं -- आज के वैज्ञानिक विकसित राष्ट्र के विचार-शील व्यक्तियों के। ठीक ऐसा ही अनुभव आज आचार्य श्री के निकट आये लोग कर पा रहे हैं -- और अपने को असीम आनन्द के स्त्रोत में पाकर -- २०वी शताब्दी के इस तनावपूर्ण वातावरण में -- महान् अनुभूति को कर पा रहे हैं। ....
कितना व्यक्तित्व का बहुमुखी विकास है की उसमें सारा कुछ समाहित होता है। नगर के एक नागरिक परिसंवाद की (महावीर जयंती ४अप्रेल ६३के अवसर पर)आचार्य श्री ने अध्यक्षता की और एक नविन दिशा - दृष्टी आज के इस उलझन भरे युग को दी। इसमें नगर के प्रतिष्ठित विचारशील नागरिक उपस्थित थे। प्राचार्य श्री महावीर प्रसाद जी अग्रवाल, श्री प्रो. जे.पी.व्यास,प्रो. श्री सुशिल कुमार जी दिवाकर,प्रो. श्री परिहार,श्रीमती विमला कलरैया, एवं एडवोकेट श्री रज्जाक, श्री फूलचंद जी जैन (Retd. Sub-Judge) भी भाग लिए थे।
वाद-विवाद में विषय थाः 'मानव को रक्षा एवं देश की वर्तमान समस्याओं का समाधान सच्ची अहिंसा से हो सकता है।' विषय के पक्ष और विपक्ष में आमंत्रित नागरिकों ने भाग लिया और यह कहा कि अहिंसा एक व्यक्तिगत आदर्श है -- लेकिन सामूहिक आधार पर तो हिंसा ही जीवन का एकमात्र अस्त्र है। कोई सम्यक् विचार--बोध -- नागरिकों की वाणी में अभिव्यक्त नहीं हुआ।
आचार्य श्री ने कहाः आज का युग एक गहरी विषाक्त स्थिति में है। हर व्यक्ति एक-दूसरे की हत्या और विनाश की तैयारी में सलग्न है। युग आज पहिली बार सामूहिक आत्म - हत्या के छोर पर आकर खड़ा हो गया है। आज के युद्ध की विभीषिका पर चर्चा करते हुए - आचार्य श्री ने कहा किः विश्व की जो आणविक शक्ति में जो विकास हुआ है -- वह विशाल है।आज सारे विश्व में ५०,००० अणु बम हैं। प्रत्येक बम -- १० करोड़ डिग्री ताप पैदा करेगा -- और ४५ हजार वर्ग - मील तक उसका प्रभाव होगा। लोहा १५००' डिग्री पर पिघलता और २५००' डिग्री पर भाफ
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बनकर उड़ जाता है। इस विस्फोट के ताप में कोई जीवन संभव नहीं होगा। केवल १५ ऐसे बम - इंग्लैण्ड जैसे देश को तबाह करने के लिए पर्याप्त होंगे। इस सारे विनाशक कार्य को देखके पहिली बार दुनियाँ के ९,२३५ वैज्ञानिकों ने सामूहिक रूप से यह प्रतिवेदन प्रस्तुत किया कि सारी विनाश की तैयारी एक आयोजन बन्द कर दिया जाय - अन्यथा मानवता अन्धेरे में चले जाने को है। इतनी बड़ी संख्या में वैज्ञानिकों का किसी बात पर सहमत होना -- पहिली घटना है -- जिससे कि बात की गहराई स्पष्ट है। फिर आज इस विनाश के आयोजन में सारी दुनियाँ में प्रति घंटा ५० करोड़ रूपये व्यय हो रहे हैं। अभी हमारी सभा २ घन्टे तक चलेगी और कोई १ अरब रूपया विनाश पर व्यय हो चुकेगा। भारत में अभी जो १५ अरब रुपयों का बजट बना -- उसमें ८ अरब रुपये प्रतिरक्षा व्यय पर -- खर्च होना है। इस भूमिका में -- अब मानव के सामने दो में से केवल एक को चुनना है -- 'युद्ध या बुद्ध' या 'महावीर या महाविनाश।' इस प्रारम्भिक पृष्ठ भूमि को आचार्य श्री ने प्रस्तुत किया और बाद प्रवक्ताओं को आमंत्रित किया।
प्रवक्ताओं को पूर्णतः स्पष्ट न था कि कौनसा मार्ग हो? हिन्सा या अहिन्सा -- सामान्य से तर्क दिए गए -- लेकिन कोई जीवन्त सत्य न था। तत्पश्चात् आचार्य श्री ने कहाः आज विश्व पहिली बार महावीर और बुद्ध की वाणी को पूरा किया है उनका कहना थाः हिन्सा -- मृत्यु तक ले आने को है। और आज हम समग्र मानवता की मृत्यु को निकट ले आए हैं। आज की हिंसा -- समग्र होगी। आंशिक नहीं। उसके बाद जीवन बचने को नहीं है। सारा कुछ क़यामत में समाप्त हो रहेगा। पिछले दो विश्व - युद्ध जैसा अब होने को नहीं है। यह युद्ध समग्र है (Total War)। इससे मानवता बचने को नहीं है। और ये सोचना भ्रम है और मूर्खता पूर्ण है कि अब युद्ध महाभारत और अन्य युद्धों के समान होगा। आज पहिली बार हम पूर्णतः विनाश के पथ पर हो आये हैं। कल्पना करें कि हिंसा
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के मार्ग पर चलकर हम एक ऐसे पर्वत शिखर पर आ गये हैं जिसके पार कोई मार्ग नहीं है -- केवल गहरा खड़्ढ़ है और गिरकर पूर्ण मृत्यु है। इस मृत्यु में आज हम खड़े हैं। इस विषाक्त स्थिति में भारत को आप हिंसा के साथ खड़ा करना चाहते हैं, जबकि हिंसा के साधन इतने अधिक विकसित हुये हैं कि भारत की कोई सामर्थ्य नहीं है। इस जैसे युद्ध के वैज्ञानिक साधन उपलब्ध करने में भारत को नहीं तो कमसे कम २०० वर्ष लगने को हैं। फिर भारत की कोई हिंसा के क्षेत्र में दौड़ नहीं है। केवल जोश में होकर -- तो कुछ भी होने को नहीं है। ......
एक और तथ्य प्रस्तुत करते हुए आपने कहा किः अब हिंसा से कोई मार्ग जीवन का संभव नहीं है। हिंसा और अहिंसा के बीच अब चुनाव का प्रश्न नहीं है। पहिली बार हिंसा अपने पुरे उत्कर्ष पर आकर - मृत्यु में परिणित हुई है -- इससे केवल अहिन्सा ही अब जीवन के साथ चलने को है। फिर -- आपने एक कहानी कहते हुए स्पष्ट किया किः खलील-जिब्रान ने एक कहानी कही है। एक गांव में एक जादूगर आया -- उसने गांव के कुएँ में एक दवा डाली जिसका पानी पीकर सारे लोग गांव के पागल हो गये। गांव में एक दूसरा कुँआ भी था जो राजा का था। सांझ गांव की सारी प्रजा -- राजा के निवास की ओर पहुँची। राजा ने देखा -- तो मंत्री से पूछाः ये सब पागल कैसे हो गए? -- मंत्री ने बतलाया और कहाः ये सारे लोग आपको पागल समझते हैं और अब बचने का एक ही रास्ता है कि हम भी उसी कुये का पानी पी लें। आखिर राजा ने भी पानी पी लिया और रात्रि गांव में उत्सव मनाया गया कि राजा का दिमाग ठीक हो गया है। ....
आज केवल भारत का दिमाग ठीक है। शेष सारे राष्ट्र हिंसा में पूर्णतः लगे हुए हैं। अब हम भी वैसे ही हो रहें -- तो फिर सारा कुछ भारत का और विश्व का खो जाता है। एक ही केवल मार्ग है कि भारत जैसा गरीब देश अहिन्सा पर चलकर मार्ग- दृष्टा बने। हो सकता है - इसमें क़ुरबानी हो, मुसीबत सहनी पड़े -- लेकिन
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समग्र मानवता का कल्याण इसी मार्ग में है।
बाकी अहिन्सा का प्रयोग एकदम अचान-क नहीं होता है। हिंसा के आयोजन में तो हम धन और शक्ति का अपार व्यय करते हैं। मनुष्य को पशु चेतना तक ले आने में तो इतनी विशाल तैयारियाँ हैं। फिर आज तो विचारकों ने लिखा कि मनुष्य को पशु कहने में भी दुख होता है -- कारण कि पशु तो आदमी से कई अर्थों में श्रेष्ठ है। जो आदमी प्रभु चेतना तक उठ आता है -- उसे हमने हिन्सा के आयोजन से - पशु से भी नीचा ला दिया है। मेरा देखना है कि आज अहिन्सा के बिना पूर्व - प्रशिक्षण के -- अहिन्सा से चीन को उत्तर दिया जाय तो -- मूर्खता होगी। हमारा देश बातें तो अहिन्सा की करता रहा -- लेकिन सारा प्रशिक्षण बुनियाद में हिन्सा का चलता रहा। अहिन्सा फिर कोई सीधी व्यवहार की बात नहीं है। भीतर योग से -- आतंरिक जीवन में व्यक्ति उदात्त प्रभु चेतना में होता है -- तो अभय को वह उपलब्ध होता है और परिणाम में अहिन्सा आती है। .....
अहिन्सा ही भारत की ओर से मार्ग है -- जिसका दिया महावीर,बुद्ध और गांधी ने जलाया। हम चाहें तो दिया को बुझाकर -- विश्व में पूर्ण अंधकार कर दें -- या उस दिया को जलाए रखकर विश्व को प्रकाश देने में समर्थ हो सकें। ...
इससे अणु का जवाब अणु नहीं है। अणु का उत्तर आत्मा है। अणु की शोध से यदि विनाश की ओर बढ़ा जा सकता है तो आत्मा की शोध से सृजन के असीम क्षेत्र में हो आया जा सकता है।
[ दिनांक ४/४/६३ को आयोजित 'नागरिक परिसंवाद' के आधार पर ]- महावीर जयंती, जबलपुर।
[ कोई भी हल मनुष्य को निम्न पाशविक प्रवृत्तियों में उतारकर जीवन में नहीं पाया जा सकता है। निकृष्टता से जिवन के कोई भी हल संभव नहीं हैं। केवल परिपूर्ण शान्त -- उदात्त चित्त की अवस्था में हो आया व्यक्ति ही जीवन की गहराइयों में जाकर -- जीवन में हल निकाल सकता है। अन्यथा कोई मार्ग जीवन में संभव नहीं है। ]
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आध्यात्मिकता का कोई संबंध अलौकिक चमत्कारों से नहीं है। चमत्कार में व्यक्ति -- मन की सीमाओं के भीतर उलझ जाता है और एक अवसर जो उसे अनंत आनन्द और शान्ति में हो आने का मिला था, उसे वह व्यक्ति खो देता है। चमत्कार से अंधी वासनायें तृप्त होती हैं -- लेकिन स्वयं जिसमें चमत्कार घटता है -- वह पीड़ित और परेशान रहता है। उसका जीवन अशान्त हो उठता है। केवल क्षुद्र अहँकार को तृप्ति मिलती है -- इस कारण ही पीड़ा उठाकर भी व्यक्ति चमत्कार के घेरे में उलझा रहता है। सच में ही ये सारी मनुष्य की शक्तियाँ हैं -- और इससे केवल मानविय जीवन को विषाक्त किया जा सकता है। कोई भी परम आनंद और शान्ति का इससे संबंध नहीं है। ....
पश्चिम में एक सन्त हुआ -- वह अपने शिष्य के साथ एक गांव जाता था। रास्ते में अंधड़, पानी से वे दोनों भीग गए। थोड़ी देर विश्राम किया -- इस बीच सन्त ने अपने शिष्य को कहाः कोई पानी को रोक दे, आग को ठंडा करदे, तूफान शान्त कर दे -- इससे वह व्यक्ति आध्यात्मिक नहीं होता। और जानना कि कोई मुर्दों को जिलादे,बीमारी ठीक कर दे, मनुष्य की सामान्य तक्लीफोंकों को और वासनाओं को तृप्त कर दे -- तो भी वह आध्यात्मिक नहीं होता। शिष्य ने पूछाः फिर आध्यात्मिक कौन है? सन्त ने कहाः अभी हम गांव में चलेंगे -- धर्म - शाला के बाहर खड़े होकर -- ठहरने का स्थान मांगेगे और जब चौकीदार कहे किः चलो हटो, कहाँ के आवारा हैं -- कोई जगह नहीं है। हम फिर कहें और वह डंडे से प्रत्युत्तर दे -- तो भी हमारे भीतर कोई प्रतिक्रिया न हो - भीतर अखंडित शान्ति और आनन्द घना बना रहे -- तो जानना की व्यक्ति आध्यात्मिक है। यह घटना आचार्य श्री ने कहीः जो जीवन की श्रेष्ठतम अभिव्यक्ति है -- और परिपूर्ण जीवन के श्रेष्ठ स्वरुप को व्यक्त करती है -- जिसमें पूर्णता है। ....
एक और प्रसंग में आचार्य श्री ने कहाः ईश्वर कोई आकाश में बैठा व्यक्ति नहीं है। न कोई हमारा हिसाब-किताब रखने वाला मुनीम है। ईश्वर--एक परिपूर्ण जागृत स्थिति में सम्यक् अनुभूति है। जिसमे हो आने से - व्यक्ति असीम सौंदर्य के बोध से भर आता है। फिर जो दृश्य में अदृश्य सत्ता है -- उसके आनन्द से वह अपने को पूर्ण पाता है। या जो सारा जगत है -- ठीक ऐसा ही होता है -- लेकिन उसके लिए वह बदले हुए अर्थों में प्रगट होता है। कली - कली में, पत्ती -
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पत्ती में,फूल-फूल में, आकाश,तारे और प्रकृति की इस महालीला में वह आनन्द, सौन्दर्य तथा शान्ति के प्रकाश से भर आता है। जब वायु के झोके,समुद्र की लहरें और पक्षियों का संगीत, रात्रि की निस्तब्धता -- सारे आयोजन में वह अपने को भीतर से एक हो आया अनुभूत करता है -- तो जो असीम आनन्द के स्त्रोत फूटते हैं -- वह जीवन्त सत्य -- ईश्वर की अनुभूति है। ......


जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में -- आचार्य श्री का देखना है कि सम्यक् वैज्ञानिक दृष्टी में हो आना प्राथमिक है। बिना इसमें हो आए -- सारा कुछ अज्ञान में चलता रहता है। इसके अभाव में व्यक्ति कुछ भी पढ़के, सुनके करता रहता है -- लेकिन कोई प्रभाव जीवन में उसके नहीं होते हैं। सारा जीवन व्यक्ति का व्यर्थ की बातों में निकल जाता है और कोई सार्थकता जीवन से प्रगट नहीं होती है। इस अर्थ में आचार्य श्री की जीवन -- साधना से -- ‘ध्यान के प्रयोग से !’ व्यक्ति पूर्व सम्यक् वैज्ञानिक दृष्टी को उपलब्ध होता है और बाद फिर उसके जीवन में अपने से जो सम्यक् वैज्ञानिक परिवर्तन - आने होते हैं -- वे आते हैं। उनमें कोई प्रयास नहीं होता है -- वे अपने से होते हैं। इस स्वाभाविक आतंरिक जीवन क्रम में -- जीवन की दिव्यता अपने से अभिव्यक्त होती है। इससे ही बहुत आग्रह केवल 'ध्यान-योग' पर है -- शेष सब अपने से होता है। आचार्य श्री की जीवन साधना में ईसा की वाणी का एक सूत्र केन्द्रीय रूप से समाहित होता है कि:
'seek ye first the kingdom of God.
& all else shall be added unto you.'
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सुनना और बोलना दोनों अपने में एक परिपूर्ण जीवन दृष्टी हैं। जो बोला जाता है -- तब भीतर से व्यक्ति के सुनने वाले के विचार प्रवाह चलता है वह बाधा बनता है। इससे हम सुनते नहीं -- केवल बातचीत के नियम भर पालते हैं। एक कहानी कहते हुए आचार्य श्री ने कहाः एक पागलखाने में एक विचारक पहुँचा। उसने दो पागलों को बात करते सुना। दोनों संगत-असंगत कुछ भी बोल रहे थे -- लेकिन एक बात थी कि जब एक बोलता -- तो दूसरा चुप रहता था। पूछा गया तो विदित हुआ किः उनको Conversation के (बातचीत के )नियम मालूम हैं।
सामान्यतः जो बोला जा रहा है -- उसके क्या अर्थ दूसरी ओर लिए जा रहे होंगे--यह कहना मुश्किल है। या तो भीतर, जब बोला जाता -- तब निरंतर विचार प्रवाह इतना तीव्र होता कि कुछ भी सुनना नहीं होता। या फिर जो बोला जाता उसके पक्ष में या विरोध में हमारे भीतर दलीलें चला करती हैं। इस कारण सुनना तो होता ही नहीं है। केवल दूसरी ओर जब समस्त विचार प्रक्रिया शान्त होती है -- तब ही सुनना होता है। यह स्थिति ध्यान के प्रयोग से हो आती है। सम्यक् जागृति के प्रकाश में भी यह स्थिति हो आती है। सम्यक् जागृति का अर्थ यह है बिना अच्छा और बुरे का भेद किए केवल साक्षी होकर देखना। इस देखने में व्यक्ति जो निरंतर विचार के बाहर है,उसमें हो आता है और तब ही सुना जाता है -- जो व्यक्ति के भीतर गहरे अर्थों को प्रगट करता है। .....
बोलना -- व्यक्ति अनेक कारण से करता है। प्रधानतः व्यक्ति भीतर से बहुत -- अशान्त है, उस अशान्ति में होने से वह उसे देख न पाये -- कुछ भी संगत-असंगत बातचीत में लगा रहता है। फिर कुछ लोग जो तृप्त नहीं होते हैं - अपने अहँ को सन्तुष्ट करने -- बातचीत किया करते
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हैं। इससे उनको गौरव मिलता है और मात्र अहँ तृप्ति होती है। उनको सम्यक् वैज्ञानिक बोलने का कोई बोध नहीं होता है। मेरा देखना है कि व्यक्ति जब परिपूर्ण शान्त होता है -- और बोलने से उसमें कुछ भी घटित नहीं होने को है -- केवल आनन्द में उसका बोलना होता है -- तो सार्थक होता है। इसमें फिर वह अपने लिए नहीं बोलता है, वरन् दूसरा जो सुनता है जिसके लिए बोला जाता है -- उसके लिए अर्थ हो -- इस सम्यक् वैज्ञानिक दृष्टी से बोला जाता है। तब ही मात्र बोला गया सार्थक होता है। ....
[यह प्रसंग प्रो. कुमारी रूबी के समक्ष ५ अप्रेल ६३ की रात्रि -- उठा, रूबी जी का कहना थाः बोलना क्यों सुखद होता है?]


गौतम बुद्ध को जब बुद्धत्व हुआ -- तो वे ७ दिन तक परिपूर्ण मौन हो आए। गहरी शान्ति में उनका खोना हो गया। उनका अब जीवन का अर्थ पूरा हो गया था, जीवन का अब कोई अर्थ न था ! तभी उल्लेख है कि देवताओं ने उनको प्रार्थना की -- तो 'बहुजन सुखाय,बहुजन हिताय' बुद्ध ४० वर्ष तक सारे भारत में घूमे और निर्वाण में हो आने का प्रेरक अमूल्य सन्देश विश्व को दिया इसमें उनकी केवल करुणा थी और कुछ न था।
[पिछले प्रसंग के साथ।]
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जीवन पूर्ण यांत्रिकता से बंधा है। सारा प्राणी जगत मूर्छा में होकर--यांत्रिक है। वह जो भी करता है -- उसमें जागृत चैतन्य की सरलता नहीं है। सारा कुछ पूर्ण यांत्रिक है। जीवन की समस्त श्रेष्ठता उससे विलग हो गई है। सारे जीवन के सप्राण प्रेम में हो आने के बाद अपने से हुए काम -- अब केवल मुर्दा होकर औपचारिक रह गये हैं। आज जो भी कुछ -- किया जाता है वह केवल भार स्वरुप और 'करना है' केवल इस कारण कर लिया जाता है। उसमें से प्राण तत्व विलग हो गया है। ऐसी औपचारिक मनः स्थिति में -- व्यक्ति नियम लेता है -- जब भीतर तो उसके कुछ और होता है। भीतर तो वह निरंतर संघर्ष में उलझा है और गहरा विरोध तथा तनाव चलता रहता है। इससे ही -- जीवन आज विकृति, दुख और विरोध को उपलब्ध हुआ है। उसमें सौंदर्य,आनन्द और संगीत विलग हो गया है। इसे खींच कर नहीं लाया जा सकता है। जैसे पौधे को खींचकर कोई फूल खिलता नहीं -- ठीक ऐसे ही सारा श्रेष्ठ -- खींचने से नहीं आता है भीतर कुछ वैज्ञानिक प्रयोग करना होते हैं -- तब विरोध समाप्त होता है -- और परिणाम में अपने से बाहर सप्राण, सौंदर्य की आनंद की और संगीत की अभिव्यक्ति अपने से होती है। ऐसी स्थिति में होकर नियम नहीं लेना होते हैं, नियम अपने से सरलता से व्यवहार में आते हैं। तब ही केवल व्यक्ति यांत्रिकता के बंधन से मुक्त होता है और चैतन्य स्वरुप में हो आने से -- पूर्ण सरलता में सारा कुछ घटित होता है। उसमें सप्राणता होती है,गहरा प्रेम होता है और कार्य भार स्वरूप न होकर आनन्द हो आता है। ....
युग की यांत्रिकता को आचार्य श्री
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ने एक व्यंग कथा से स्पष्ट किया। एक अंग्रेज का अपने देश को वापिस लौटना हुआ -- तो अपने सहायक भारतीय को जिसे वह स्नेह करता था, एक अच्छी नस्ल का तोता भेंट कर गया। घर जब तोता रहा तो उन्हें कुछ सिखाने की सूझी। उनहोंने, ' हैल्लो, हैल्लो, हैल्लो ' कई बार कहा - (सिखाने के लिए) तो तोता बोला 'Line engage' (लाइन एंगेज )। तोता ने यह इस कारण कहा कि अंग्रेज के यहाँ जब तोता था और फोन पर हैल्लो करने पर कई बार लाइन एंगेज की सूचना मिलती थी। उसे वह ख्याल था, तो कहना हुआ। अब इसमें कोई कम नहीं, लेकिन एक यांत्रिकता का स्पष्टीकरण है। ऐसे ही युग - चेतना यांत्रिक हो जाती है, उसमें चैतन्य स्वरूप प्राण है -- वह नहीं होता -- तब फिर मूर्च्छा में केवल विषाक्त राहों पर जीवन की दौड़ चलती है। इससे मुक्त हुए बिना कोई श्रेष्ठता जीवन में घटित नहीं होने को है। इस कारण केवल सम्यक् वैज्ञानिक मार्ग में हो आने पर ही -- सारा कुछ केंद्रित है -- अन्यथा भटकन लंबी है और अनंत जन्म -- मरण का चक्कर है।....
[यह प्रसंग श्री त्रिपाठी जी, आशिक अली जी, नगर के अन्य विद्द्यार्थियों के समक्ष, ११/४/६३ की रात्रि उठा, जिसमें पूछा गया थाः ' कैसे व्यक्ति जीवन में श्रेष्ठता को उपलब्ध हो सकता है?']
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पहिले ज्ञान : परिणाम अहिंसा
चारों ओर निस्तब्ध गहरी शांति है। चांद दूर खिल आया है। उसका शीतल प्रकाश धरा को -- आलोकित कर रहा है। चारों ओर रात - रानी से हवा सुवासित है। ऐसे मनोहारी प्राकृतिक वैभव के बीच मधुर -- जीवन को दिव्यता में प्रतिष्ठित करा देने वाली वार्ता का रस पान करने को मिल रहा है। ....
प्रान्त के प्रतिष्ठित नागरिक श्री प्रद्दुम्न सिंह लाल (Member-Public INDORE Service Commission), अन्य श्रोतागण और एक टीकमगढ़ के जैन पंडित का आना हुआ।
'ध्यान योग' का प्रयोग पूर्ण हुआ। बाद जैन पंडित ने पूछाः 'इसे क्या मांसाहारी भी कर सकते हैं?'
मांसाहार और -- गैर मांसाहार का कोई अर्थ नहीं है। मेरा देखना है कि कोई भी आचरण जो लादा गया होता है -- वह व्यर्थ होता है। ध्यान के सम्यक् प्रयोग से एक गहरी घनी शान्ति में व्यक्ति उतरता चलता है -- वह अपने में उतरता चलता है। जब परिपूर्ण शान्त गहराई में वह अपने केन्द्रों पर हो आता है, तब परिणाम में वह ज्ञान को उपलब्ध होता है। पहिले उसे दर्शन होता है, इस अनुभूति का ज्ञान होने पर तद्नुकूल आचरण होता है। यह आचरण सहज (spontaneous ) होता है। उसमें कोई प्रयत्न नहीं होता है। तब ही केवल मांस का खाना छूट सकता है -- उसमें वह छोड़ा नहीं गया वरन् भीतर पाया जाता है कि अब उसका खाना मुश्किल हो गया। वह छूट जाता है। अनेक व्यक्तियों ने इस पर प्रयोग किया और मुझे बताया कि अब जो भी पहिले मूर्च्छा में घटित होता था, आत्म -- जागरण में हो आने पर वह अपने से समाप्त हो गया। यह सहज आतंरिक घटना है।
आप सारे लोग पहिले आचरण के सुधार के प्रयास में लग जाते हैं -- और उससे आतंरिक जीवन में हो आना चाहते हैं - वह भ्रम है। कोई भी व्यक्ति Cultivate करके
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Morality को नहीं ला सकता है। अभी मैं बंबई था - वहाँ एक जैन मुनि के उपाश्रय में (श्री चन्दन मुनि जी के यहाँ) था। बोलने को कहा गया, पास ही महावीर का एक वचन लिखा थाः 'ज्ञान पहिले है, बाद अहिंसा है '(मेरे देखने के अर्थ में) इस पर मैंने पहिले उनको बोलने को कहा। खूब सुन्दर बोले, बड़े ग्रंथों से उद्दहरण दिए। कहा अहिंसा ही धर्म है और अहिंसा को नियम में लाने से व्यक्ति आत्म-ज्ञानी होता है। अब यह उल्टा ही हुआ। मैं बोला तो कहाः ज्ञान की घटना पहिले घटित होती है -- जब तक व्यक्ति अपने में होकर आत्म-बोध में नहीं हो आता है (ज्ञान में नहीं हो आता) तब तक अहिंसा व्यवहार में नहीं आ सकती है। ज्ञान में हो आने पर व्यक्ति अभय में होता है और अभय से परिणाम में अहिंसा अपने से आती है। इसी ज्ञान में हो आने से -- जीवों पर दया का भाव सहज होता है -- तब अहिंसा भी सहज होती है।
['व्यक्ति के साथ बड़ी गहरी मूर्च्छा है। पंडित जी ने -- वैज्ञानिक ध्यान के प्रयोग और सम्यक् वैज्ञानिक चर्चा को बिल्कुल भी नहीं सुना। वे तो भीतर से अपनी बात की पुष्टि करने में लगे थे और बीच - बीच में अनेक बार अपने पांडित्य को व्यक्त करते। उनकी अपनी धारणायें थीं - और उन्ही धारणाओं में उनका उलझना चलता रहा। सम्यक् दर्शन,ज्ञान, चरित्र -- इस पर भी आपने जिज्ञासा की -- लेकिन उनका सुनना नहीं हो सका। बाद बोलेः मैं आपको पूरी तरह समझ गया हूँ, आप पूर्ण जैन तत्व को कहते हैं। मुझे बड़ा आनन्द हुआ।'
'अब पंडित जी जैसे अनेक लोग गलत धारणाओं में जीवन खो देते हैं। मेरा देखना है किः अज्ञानी तो मुक्त हो जाता है, लेकिन ज्ञानी का ज्ञान उसके मुक्त होने में सबसे बड़ी बाधा है।'
[रात्रि ११/४/६३ गुरवार योगेश भवन जबलपुर]
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आचार्य श्री के करीब जितने भी परिचित जन चर्चा का लाभ उठा पाये हैं, उन सबमें एक अभिनव जीवन क्रान्ति घटित हुई है। प्रोफेसर्स के बीच भी -- यह बोध प्रारंभ हुआ है कि जो भी आप बोला करते हैं, वह इतना बहुमूल्य है कि सारा का सारा लिखा जाना चाहिए। यह भी जानना है कि आप जो भी कहते हैं -- उसमें यदि हो रहा जाय तो सच में एक बड़े साहस की बात है।
आचार्य श्री का देखना है कि धर्म के औपचारिक रूप में व्यक्ति पूर्ण करके, अपने भीतर के सारे निकृष्ट रूप को ढांक लेता है। इस औपचारिकता में जीवन चलता रहता है, और व्यक्ति अपने भीतर की निकृष्टता से कभी भी परिचित नहीं होता। बड़े - बड़े बाहर से नैतिक साधना करने वाले साधु भी केवल अपनी वृत्तियों को दमन करके चलते हैं और बाहर इतने अधिक अपने को व्यस्त रखते है कि उन वृत्तियों का उठना उनको विदित नहीं होता है। अन्यथा सामान्य साधक जो दमन की साधना से चलता है -- वह ४५ वर्ष की उम्र के बाद अपने को बहुत पीड़ित अनुभव करता है। आचार्य श्री का देखना है कि इस सबसे कोई भी व्यक्ति जीवन में शान्ति और आनंद को उपलब्ध नहीं होता है। जब तक आदमी अपनी पूरी निकृष्टता को उघाड़कर नहीं देख लेता है -- तब तक जीवन का कोई श्रेष्ठता में हो आना संभव नहीं है। इससे मनोवैज्ञानिक जीवन दृष्टी से जीवन अनिष्ठ घटित होना है -- तो उसके लिए परिपूर्ण निकृष्टता को जानना आवश्यक है। बिना ठीक से अपने मन से परिचित हुए -- उसके चेतन और अचेतन हिस्सों से, व्यक्ति को कोई मार्ग मिलना कठिन है। इससे परिचय पाने के बाद -- इनसे मुक्ति का वैज्ञानिक मार्ग खोजना होता है। इस तरह ये पूरा वैज्ञानिक क्रम है। मुक्त होने का भी 'योग' है। लेकिन
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साधक बिना इस वैज्ञानिक पृष्ट भूमि में जाये, अपना कार्य शुरू कर देता है; इस कारण जिस आनन्द और शान्ति की तलाश में वह निकलता है, उसे तो वह पा नहीं पाता -- केवल परिणाम में और अधिक पीड़ा तथा तनाव मिलता है। इससे आनन्द, सौंदर्य, और शान्ति के सारे विचार केवल स्वप्निल हो जाते हैं। यदि विज्ञान न मालूम हो तो फिर सारा कुछ ही स्वप्निल हो जाता है....
आचार्य श्री का इस जीवन-दृष्टी को देखना वैज्ञानिक है -- लेकिन लोक-मानस के प्रतिकूल होने से -- युग-दृष्टा की अपनी मुश्किलें हो जाती हैं। लेकिन आज तक कोई भी युग-दृष्टा इन मुश्किलों से रुका नहीं है और न रुका जा सकता है। जितने भी वैज्ञानिक हुए और कुछ भी लोक-मानस के प्रतिकूल उन्होंने प्रयोग दिए -- जो उन्हें दिखाई पड़ा -- उसे कहा -- तो प्रारंभ में उससे उनको परेशानियाँ हुईं -- लेकिन जो भी आज हम हैं -- उन वैज्ञानिकों के कारण ही हैं।
१२/४/६३
['एक वैज्ञानिक और लोक--मानस' इस सन्दर्भ में आधारित चर्चा ओं से]
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व्यक्ति की समझ इतनी यांत्रिक है कि उसके मन में जो बैठ गया है, उसी को वह बार - बार दुहराता है। मन को शान्त करना है, इसका अर्थ वह मन को एकाग्र करना है, ऐसा लेता है। 'Theosophical Lodge' (ब्रह्न विद्द्या समाज) के डा० पुरी, श्रीमती डूंगाजी और एक महोदय -- मध्यान्ह उपस्थित थे। श्री डा० पुरी, अपने मन को शान्त करने का मार्ग पूछने आए थे।
आचार्य श्री ने कहाः बहुत आसान है। इससे सरल और कुछ भी नहीं है। भारत से एक बौद्ध साधु -- बोधि धर्म -- चीन अपने भ्रमण में गया। पहुँचा--तो राजा उसके स्वागत को आया था। बोधि धर्म से पूछाः मैं अपने मन को शान्त करना चाहता हूँ। बोधि धर्म ने कहाः ठीक, कल सुबह ४ बजे मन को लेकर आ जाना -- शान्त हो जायगा। राजा आश्चर्य में था, जो मन वर्षों में शान्त नहीं हुआ, उसे कैसे शान्त किया जा सकेगा -- एकदम। सुबह राजा पहुँचा, बोधि धर्म बोलाः कहाँ है -- तुम्हारा मन -- ले आये उसे? देखो -- मन कहाँ है? राजा आश्चर्य में था, उसने कहा देखता हूँ तो मन नहीं होता। और एक अद् भुत घटना घटित हुई कि राजा को मन को देखने के विज्ञान के विदित होने से -- मन विलीन हो गया।
इतना ही सरल है। सम्यक् जागरूक होना है और सब अपने से होता है। मैं पढता था जापान के एक आश्रम में कोई ५०० साधु थे -- उनका एक गुरु था। एक दिवस एक व्यक्ति आया बोला दीक्षित होना चाहता हूँ। गुरु ने कहाः साधु केवल दिखना चाहते हो, या होना चाहते हो। दिखना हो तो इतने सारे साधु हैं -- होना हो तो आश्रम के चौके में चांवल कूटने का कार्य करो। बीच अब मत आना। जब जरुरत होगी, बुला लूँगा।
गुरु बूढ़ा था, एक दिवस उसने अपने अधिकार को सौपने के लिए घोषणा की कि जो व्यक्ति ४ लाइनों में धर्म के सार
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को लिख देगा, उसे यह गद्दी दे दूँगा। सारे आश्रम में खबर थी। बड़े पंडित थे, लेकिन साहस नहीं होता था। आखिर एक पंडित ने साहस किया और रात्रि गुरु के दरवाजे पर लिख आयाः
'मन एक दर्पण है,
जब उसपर धूल जम जाती है,
जो इस धूल को झड़ा देता है,
वह धर्म में हो जाता है।'
सुबह गुरु उठा -- देखा पंक्तियों को -- बोलाः कचरा है। सारे आश्रम में खबर फैल गई, एक युवक साधु चौके में बात चला रहा था, तो चांवल कूटने वाले ने भी कहाः एकदम कचरा है। तो उस युवक साधु ने कहाः फिर तूम तो जानते हो - लिख दो न। उसने कहाः लिखना नहीं आता। तो युवक बोलाः आप बोल दें -- लिख दूँगा। उसने लिखवाया थाः
'मन दर्पण है नहीं,
उसपर धूल जमेगी कैसे,
जो इस सत्य को जानता है,
वह धर्म को जानता है।'
अब बिना साधना में हो आए -- कुछ भी संभव नहीं है। सुबह गुरु उठा बोलाः ये ठीक -- मैं जानता था -- सिवाय् (हु-यांग पो) चांवल कूटने वाले के अतिरिक्त और कोई नहीं हो सकता। गुरु ने चांवल कूटने वाले व्यक्ति हु-आंग-पो को बुलाया। प्रसन्नता और आनन्द में भरकर बोलाः ठीक,मैं तुम्हें अपना स्थान देना चाहता हूँ। जानना हो गया है।...
इससे मैं हैरान हूँ यह देखकर कि मन को शान्त करने की जो प्रक्रियायें प्रचलित हैं -- वे बहुत औपचारिक हैं और उनसे कोई परिणाम जीवन भर घटित नहीं होता है। मेरे पास इस बिच अनेक जन आये हैं और उनमें अद् भुत परिणाम घटित हुए हैं। ठीक विधि हो तो अपने से बहुत कुछ जीवन में होता चलता है।
डा० पुरी, श्रीमती डूँगाजी, और साथ आए महानुभावों ने -- 'ध्यान योग' में आने की उत्सुकता व्यक्त की और कृतज्ञता पूर्वक विदा ली।.....
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(१५/४/६३ -- रात्रि -- मौन शान्त बेला)
सामान्यतः जीवन के जिस क्रम में व्यक्ति चलता है, उससे जब वह साधना के जीवन में आता है -- तो उसे एक प्रश्न बहुत ही प्रत्यक्ष उठ खड़ा होता है -- जो सभी जगह पूछा जाता रहा है। इसके मूल में कारण रहा है कि साधना के जीवन के साथ -- भारत में लोगों ने घर छोड़ते देखा है और एकाकी जीवन बिताते देखा है। यह बात लोगों के मन में बैठी है और इसी कारण शंका भी उठा करती है। पूछते हैं -- नव -- आगुन्तक साधक गणः 'ध्यान योग से -- क्या जीवन के प्रति उदासीनता आती है और क्या घर छोड़ना होता है?'
अभी तक जो प्रचलित ख्याल रहे हैं -- उससे ऐसा सोचना स्वाभाविक है। लेकिन मेरा देखना है कि यह भ्रांत है। ध्यान से चित्त की जो स्थिति बनती है -- वह पृष्ठ भूमि है। परिपूर्ण शान्त चित्त से जीवन का कोई विरोध नहीं है। पूर्णतः घनी शान्ति व्यक्तित्व को सम्पूर्ण (Intergrated personality) करती है। इससे मेरा देखना है कि आप कुछ भी कर रहे होंगे -- 'ध्यान योग' से चित्त की जो भूमिका निर्मित होती है -- उससे आप कर्म में कुशल हो रहेंगे। आप पाएंगे कि केवल क्रिया मात्र शेष रह गई है और भीतर एक गहरी शांति है। यह क्रिया एक पृथकता के बोध में होती है। गीता में जो कहा हैः योगी कर्म -कुशल हो जाता है -- यह ध्यान से संभव होता है। इससे ध्यान जीवन से तोड़ता नहीं -- वरन् जो अभी तक हम भागे हुए, परेशान, टूटे हुए कार्य में थे -- यह स्थिति विसर्जित होती है और व्यक्ति जीवन से जुड़ जाता है। ठीक अर्थों में वह जीना जानता है।
फिर, घर से भी और जीवन के प्रति कोई उदासीनता नहीं आती। वरन् समग्र जीवन दृष्टी उपलब्ध होतो है। फिर विचरना नहीं होता, वरन् सारे कार्य सहजता में (Spontaneous) अपने से होते चलते हैं। ध्यान से यह संभव होता है। मेरा देखना है परिपूर्ण जागरूक सम्यक् सहज अवस्था में सहज रूप में जो भी होता
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है, उसमें ही परिपूर्णतः है। इससे फिर प्रेम करना नहीं होता, वरन् पाया जाता है कि मैं तो प्रेम-में हूँ और तब फिर प्रेम अपने से निखरता है। अब सारा कुछ अपना हो आता है। इससे जीवन के प्रति उदासीनता नहीं -- पहिली बार -- हम जानते हैं कि जीवन तो अलौकिक -- आनन्द, शान्ति और सौन्दर्य की घटना थी। तब फिर सहज में -- सबके प्रति प्रेम अपने से हो आता है। तब फिर कोई भी हो -- प्रेम सहज है -- वह उससे निकलता है। ठीक अर्थॉं में हम घर वालों से प्रेम करने में हो आते हैं। पाया जाता है कि अब ही केवल प्रेम शेष है -- और सब औपचारिक पर्दा अपने से दूर हो गया है।
मेरा देखना है कि -- बुद्ध, महावीर, ईसा या कोई भी आध्यात्मिक जीवन को उपलब्ध हुअे व्यक्ति -- योगी पहले नहीं थे -- इस कारण घर छोड़ना पड़ा। बाद जब परम शान्ति और आनन्द को उपलब्ध हुए तो फिर घर कोई बाधा न था -- लेकिन फिर घर लौटने का कोई कारण न था। इसे आप देखें तो स्पष्ट होगा कि बुद्ध जब बुद्धत्व में होकर -- अपने गांव वापिस लौटे पहिली बार, तो सारा नगर उपस्थित था, लेकिन बुद्ध जानते थे कि यशोधरा नहीं होगी -- तो बुद्ध यशोधरा से मिलने गये। रास्ते में अपने भिक्षुओं से बुद्ध बोलेः यशोधरा के मान को मैं जानता हूँ -- फिर मैं कोई ७ वर्षों बाद लौटता हूँ -- संभव है यशोधरा एकान्त चाहे -- तो यशोधरा को एकान्त दे देना, उसका अपना मिलना होगा। बुद्ध जब यह कहे तो भिक्षु आश्चर्य में थे। लेकिन बुद्ध एकान्त में मिले और कहाः 'यशोधरा, अब ही मैं तुझे पहिली बार ठीक अर्थों में प्रेम कर पाया हूँ। अब प्रेम मुझमें हो आया है -- और कोई हो -- वह उपस्थित है।'
यह अद् भुत है। इसमें एक पूर्ण जीवन है। कहीं भी जीवन से टूटना नहीं है, वरन् एक अभिनव आनन्द, शान्ति सौन्दर्य और प्रेम के बीच जीवन में परिपूर्ण हो आना है। इससे 'ध्यान योग' की साधना का जीवन से कोई भी विरोध हो नहीं सकता। वरन् यह एक पृष्ठ भूमि है -- जिसमें होकर व्यक्ति जीवन के किसी भी क्षेत्र में हो -- वह समग्र जीवन को उपलब्ध हो आता है।....
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१६ अप्रेल ६३ से १९ अप्रेल ६३ तक
अनेक व्यक्ति साधना में जाने के पूर्व ही--अनेक बातें साधना से अनुभूत हुई जानना चाहते हैं। और केवल सूचना मात्र जान लेने तक ही -- उनका जानना सीमित हो रहता है। इससे अनेक जीवन में भटकन डाल लेते हैं। आचार्य श्री का देखना रहा है और अब इस तरह के प्रश्नों के उत्तर देने की इच्छा भी विलीन होती जा रही है -- जो तथ्य केवल अनुभूति के हों। इससे ही नवयुवक जो जानने की इस सम्बन्ध में अभिरुचि रखते हैं -- उनसे केवल एक ही कहना होता है -- 'ध्यान की गहराइयाँ उपलब्ध होने पर अपने से सब दीखेगा।' इससे केवल सूचना मात्र जानने का कोई अर्थ नहीं है। फिर जो साधना से ही संभव है, उसको सूचना से जानकर भी करियेगा क्या।
ध्यान में हो आने पर और केवल थोड़े ही दिन के परिणाम में -- बहुत कुछ अपने से संभव होता है। बुद्ध के पास नव - दीक्षित भिक्षु होते - उनके अनेक प्रश्न होते, बुद्ध पहले उनसे कहते पूर्व छः माह ध्यान की साधना में हो रहो -- बाद अपने से सब हो रहेगा। भिक्षु ध्यान की साधना में जाते और पाते कि उनके सारे प्रश्न समाप्त हो आये हैं।.... प्रश्न फिर होते नहीं -- पाया जाता है कि प्रश्न गिर गए। इतनी घनी शान्ति होती है कि फिर कुछ भी शंकायें रहती नहीं है। सारा कुछ स्पष्ट दीख आता है।...
इतना सुलभ मार्ग है कि जीवन में जो भी अनदेखे के संबंध में सारे जन केवल बातों में उलझे रहते हैं, उतनी देर में सारा कुछ स्पष्ट देखा जा सकता है। इससे बातों में नहीं -- ध्यान में हो आना ही केवल सम्यक् मार्ग है।
[श्री राम दुबे के जिज्ञासा पूर्ण स्वाभाव के प्रसंग पर -- जिसमें केवल जिज्ञासा होती है।]
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आदमी का मन -- परिपूर्ण शान्त हो आये व्यक्तित्व को कई तंरह से परीक्षण करता है। बात यह होती है कि परिपूर्ण शान्त चित्त व्यक्ति, दूसरों के अहँ पर चोट करता है -- ऐसा दूसरों को विदित होता है। इससे ही -- अनेक घटनायें दिव्य चेतना में हो आए व्यक्तियों पर सामान्य जन घटित करते हैं -- लेकिन उन सारी घटनाओं का उदात्त चेतना में हो आए व्यक्ति पर कोई प्रभाव नहीं होता है। यह ठीक सम्यक् ध्यान की अवस्था में होता है। इससे -- बाहर की घटनायें जो भी घटती हैं, उन पर आज तक कुछ भी नहीं किया जा सका है -- केवल व्यक्ति ही अपने को घटनाओं के बाहर कर लेता है। अपनी चेतना के केन्द्र पर होकर -- वह सारे बन्धनों से, घटनाओं से पार हो जाता है। तब फिर समस्त घटनाओं के बीच व्यक्ति पूर्ण शान्त बना रहता है। वह गहरी शान्ति में होता है। ....
मेरा देखना है कि बाहर तो दुनिया ठीक ऐसी ही रहने को है, लेकिन व्यक्ति अपने को भीतर के केन्द्र से सन्युक्त करके,परिपूर्ण शान्त चैतन्य अवस्था में प्रतिष्ठित होकर,बाहर से अप्रभावित होने की स्थिति में ले आता है। यह घटना जीवन में शाश्वत है। इससे मेरा देखना है कि बाहर की स्थितियों और सब प्रकार से दूषित स्थितियों के बीच ही -- व्यक्ति को ध्यान की साधना करनी है -- कोई स्थिति की अपेक्षा नहीं करना है। और जानना है कि जीवन के घने झगड़ों, व्दंदों के बीच ही पूर्ण शान्त हो आना अखंडित योग है शेष किसी स्थिति विशेष में उपल - ब्ध हुई शान्ति खंडित हो सकती है। इससे आप किसी भी तरह की स्थिति को लक्ष करके -- ध्यान में हो आने की कोशिश न करें। वरन् सारी स्थितियों के बीच अपने को सतत् जागरूक बनाये रखें इससे ही जो भीतर घटित होगा -- वह नित्य होगा। फिर मेरा देखना है कि आप ध्यान में एकाग्रता नहीं साधते हैं -- वरन् समस्त विचारों का विसर्जन करते हैं जिससे कि बाहर की कोई बाधा आपकी बाधा नहीं हो सकती है। सारी बाधायें केवल सीढ़ियों का काम आपको देंगी। .....
इससे केवल ध्यान के इस प्रयोग
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को करते चलिए, भीतर अखंडित शान्ति अपने से हो रहेगी।…
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[....२२/४/६३ 'ध्यान योग ' वर्ग में एक साधिका के प्रश्न के प्रसंग पर कि 'क्या ध्यान के लिए एकान्त चाहिए और बाहर के लोग ईश्वर स्मरण में व्याघात दें -- तो क्या करना चाहिए ?]


ध्यान योग का वर्ग २० अप्रेल से २७ अप्रेल के मध्य हुआ। अभिनव जीवन -- क्रान्ति की घटना -- घटित हुई। इतने शीघ्रगामी परिणाम जीवन में आ रहेंगे, और जीवन का क्रम एक शान्ति और आनन्द का संगीत हो रहेगा, यह कुछ साधकों के साथ घटित हुआ। सामान्यतः भी, चेतना का अपने केन्द्र से सन्युक्त होकर आनन्द और शान्ति को झलका देना और साधकों में जीवन--दृष्टी निर्मित कर देना -- यह हुआ। अविरल प्रवाह आचार्य श्री का था -- प्रश्न साधक पूछते और उनके उत्तर देने में। एक तीव्र आकर्षण निर्मित हुआ -- जिसके वैज्ञानिक परिणाम दृष्टिगत हुए। यह अनोखा हुआ। २० वी शदी में, या चाहे कोई सदी में -- समुद्र हो -- तो सारा कुछ अपने से आता चलता है। ठीक ऐसा ही आचार्य श्री के निकट रहकर अनुभूत हुआ है। एक गहराई है -- जिसमें ओज है, दिव्यता है, वैज्ञानिकता है, अनुभूति है, तेज है, आकर्षण है, संगीत है, लय की मधुरता है -- और
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सचैतन्य भागवत् प्रसाद है।
प्रश्नों के निरंतर बढ़ते क्रम को देखकर आचार्य श्री ने कहाः
'मैं आपके प्रश्नों के उत्तर नहीं देता, उत्तर देने से आजतक कोई हल नहीं हुए हैं। आप जैसे यहाँ प्रवेश किए थे, ठीक ऐसे ही आदमी आप बहार लौटते हैं। कोई परिवर्तन आपमें नहीं होता है। इससे आज तक कोई प्रश्नों के उत्तर नहीं दे सका। - जिससे कि तृप्ति संभव हो। प्रश्नों का उठना --बीमार -- या विकृत चेतना का स्वभाव है। इससे इस विकृति को ही विसर्जित करने का विज्ञान विदित न हो तो लाख आप समझाइए, प्रवचन कीजिए, परिणाम केवल यह होता है कि अतृप्ति और बढ़ने लगती है। उल्टा होता है। कोई उत्तर आज तक कभी नहीं दिए गए। एक स्थिति में होकर जाना कि प्रश्न अब रहे ही नहीं, उनकी मृत्यु हो गई। इससे प्रश्नों का हल नहीं होता, प्रश्नों की मृत्यु होती है प्रश्न -- आप जितने भीतर से शान्त और आनन्द के बोध से भरते चलते हैं, गिरते जाते हैं और पाया जाता है -- परिपूर्ण जागृत चैतन्य अवस्था में कि अब प्रश्न रहे ही नहीं। इससे मेरा देखना है कि आप केवल ध्यान के इस प्रयोग को करें--'करना' जैसा इसमें कुछ भी नहीं है--केवल 'न करने' में हो आने के लिए प्रारंभिक प्रक्रिया है -- शेष सब अपने से होता है।
बुद्ध के पास भिक्षु दीक्षित होते, उनके अनेक प्रश्न हुआ करते। बुद्ध उनको सुन लेते और कहते -- कि छ माह इस ध्यान की प्रक्रिया में रहो -- बाद प्रश्न जो पूछना हो तो पूछ लेना। बुद्ध का निकट रहने बाल भिक्षु, आनन्द था। आनन्द ने हमेशा -- यही कहते सुना था। लेकिन आनन्द ने छः माह के बाद किसी भी साधक को प्रश्न पूछते हुए नहीं पाया था। इससे जब सारीपुत्त नाम का भिक्षु दीक्षित हुआ और बुद्ध ने सारीपुत्त से वही कहा
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तो आनन्द पास था तो उसने कहाः सारिपुत्त, भगवन् प्रश्नों का उत्तर बाद फिर देते नहीं है। इससे अभी ही पूछ लो। बुद्ध ने कहाः आनन्द, प्रश्नों के उत्तर लेने को फिर भिक्षु कहते ही नहीं है, उनके प्रश्न बचते ही नहीं हैं -- उनकी मृत्यु हो जाती है -- फिर मैं क्या उत्तर दूँ।..........
ठीक एक स्थिति पर पहुँचकर आप पायेंगे कि सारा कुछ खुल गया है -- जो अभी तक रहस्य था -- वही अब स्पष्ट दीख आया है। इससे कोई भी उत्तर देना मैं पसंद नहीं करता। फिर कोई उत्तर दिए भी नहीं जा सकते -- सारे उत्तर देना -- ना समझी है।
मेरा देखना है -- केवल ध्यान के सम्यक् प्रयोग को चलने दें -- शेष सब अपने से होता जाने को है।
आप अभी पूछें कि 'जीवन क्यों है?' तो इसके उत्तर में आप को बहुत कुछ कहा हुआ या सुना हुआ, लिखा हुआ उपलब्ध हो जायगा -- लेकिन उससे कोई हल होने को नहीं है। न आप उससे कहीं पहुँच पाते हैं। ठीक भीतर से आप उतने ही दरिद्र और अशान्त बने रहते हैं जितने पहिले कभी आप थे। इससे एक रास्ता और है और उसमें होकर आप देखते है कि जीवन क्यों है? आपसे फिर कहना और समझाना नहीं होता है, वरन् आप उसमें खड़े होकर देखते हैं और सारा अर्थ अपने से स्पष्ट हो जाता है। सारे अर्थ अपने से खुल आते हैं। इससे मेरा देखना है कि प्रश्नों के उत्तर खोजने न जायें, वरन् उस स्थिति में हो रहें -- जहाँ से उत्तर अपने से आते हैं और प्रश्न गिर जाते हैं।.....
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साधकों में एक स्वाभाविक जिज्ञासा होती है और उस स्थिति में हो आने के पूर्व -- अनेक बातें जानने को उत्सुक होते हैं। आचार्य श्री के माध्यम से उनको अपनी उत्सुकता को शान्त करने का पूरा अवसर प्राप्त होता है और ध्यान में भी गति होती है। 'ध्यान-केन्द्र' के माध्यम से ध्यान का प्रसार सारे जन -- मानस में हुआ है।
'आत्मा के जीवन को सर्वोच्च क्यों कहते हैं?'
स्वभावतः आदमी जिस दौड़ में चल रहा है -- उससे वह तृप्ति पाना चाहता है। उसकी स्वाभाविक दौड़ बाह्य उपकरणों और साधनों में ले आती है। वह खोजता है तृप्ति -- लेकिन पाता है कि परिणाम उल्टा हुआ -- जितनी तृप्ति चाही -- उतनी अतृप्ति की आग बढ़ती गई। प्ररिणाम यह हुआ कि एक गहरी विषाक्त स्थिति में मानवीय जीवन उलझ गया। आज एक गहरी परेशानी, खिचाव और तनाव सारी मानवता पर है -- और पश्चिम में जो हुआ वह बड़ा अजीब है। इतनी पीड़ा और दुख में आदमी है कि उसने भुलावे के मार्ग खोज निकाले और गहरे Sex में, सूरा में, संगीत में अपने को बहला लिया। मात्र वासनाओं की तृप्ति और थोड़े समय के लिए अपनी पीड़ा को भूलने का सुख। पश्चिम से अभी मेरे एक मित्र हेम्बर्ग स्थान से लौटे। हिन्दी के प्रसिद्ध विचारक श्री जैनेन्द्र जी -- अभी हेम्बर्ग में थे। लौटकर बोलेः बड़ा अजीब और बेहूदा हुआ है। शाम हुई नहीं कि सारा हेम्बर्ग जग-मगा उठता है, हॉटल्स में, और जगह--जगह नारी को नग्न--प्रदर्शित किया जाता है, पानी मांगिये तो शराब उपलब्ध होती है। एक विचित्र-ता है। आदमी ने अपने सांस्कृतिक वैभव को खो दिया है और पूर्ण उत्श्रृंखल तस्वीर सामने आती है -- तो बड़ा दुख और हैरानी होती है।......
मनुष्य ने शरीर से अपने को तादात्म्य करके -- सारे बाह्य साधन जो भी वह बना सकता है -- बनाता रहा और भीतर से वह खोखला होता गया। केवल प्रवृत्तियों का जोड़


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मात्र वह रह गया। ये प्रवृत्तियाँ उसकी दिव्यता से संबंधित न होकर पाशविकता से संबंधित हो गई और वह मन की पूर्ण निकृष्टता को लेकर प्रगट हो आया। यह सब प्राकृतिक हुआ। यह केवल उसकी दौड़ का परिणाम है। इसमें भला--बुरा कुछ भी नहीं है। यह केवल एक तथ्य है -- जो शरीर के साथ चलने से अपने चरम रूप में व्यक्त हुआ है। और अब आदमी बाहर से तो सम्पन्न दीखता है, लेकिन भीतर से रुग्णता स्पष्ट है। उसी के परिणाम में गहरा दुःख, तनाव और पीड़ा है। इसी पीड़ा को भूलने के सारे आयोजन बाहर से मनुष्य -- जो भी उसे दीखता है -- करता है। परिणाम में -- Sex, सूरा और संगीत के गहरे नशे में आदमी खोता चला गया है। यह सब सहज हुआ है। ....
भारत में भी भीतर अंतर्चेतना में ठीक वैसा ही दुख व्याप्त है। इसे भी भारत ने भुलाने के मार्ग आदमी के साथ सन्युक्त कर लिए। यह भुलावा भारत ने धर्म के औपचारिक रूप के साथ कर लिया। उसका आतंरिक विज्ञान खो गया और केवल थोथे आचरण भर शेष रह गए। परिणाम में दुख और दारिद्रय वैसा का वैसा ही बना रहा। इस तरह संपूर्ण विश्व में आज दुख की विषाक्त स्थिति है। इस दुख को भूलकर व्यक्ति अपने को सुख में मान लेता है - लेकिन यह भुलावा देर तक नहीं चल सकता है और कभी भी टूट कर जीवन में अपने पुरे वेग से उभर आता है।........
ठीक वैज्ञानिक विधियों के माध्यम से जो व्यक्ति जीवन मुक्त हुए हैं और दुख का जिनके जीवन से निरोध हो गया है -- उनके जीवन से सौंदर्य, आनन्द और शान्ति का स्त्रोत्र अपने से प्रगट हुआ है। ठीक आत्मिक जीवन को उपलब्ध हुआ व्यक्ति पूर्ण जागरूक होता है और उसकी समस्त क्रियायें अभिनव आनंद, शान्ति तथा सौंदर्य से भर आती हैं। जीवन से दुख का निरोध हो जाता है और ठीक अर्थों में पूर्ण जागरूक अवस्था में
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व्यक्ति आनन्द तथा शान्ति से भर आता है। इसकी भर केवल शाश्वत् सत्ता होती है और कोई भूल जाने का सुख नहीं होता है। परिपूर्ण जागरूक अवस्था में पूर्ण आनन्द में व्यक्ति होता है। इससे ही आत्मिक जीवन में हो आया व्यक्ति अपने श्रेष्ठ स्थिति में होता है -- और मानवीय इतिहास में या इतिहास के बाहर जो भी चेतनायेँ -- दुख और सुख के आवरण से मुक्त हुईं -- उनने परम आनन्द और शान्ति को अनुभूत किया। .
आज मनुष्य की इतनी अशान्त और पीड़ित अवस्था है कि भुलाने की मादकता में पड़कर केवल बाह्य उत्श्रृंखलता भर प्रगट हो सकती है -- शेष सब आंतरिक समृद्धि विनष्ट हो जाने को है। केवल एक ही मार्ग है कि धर्म की सम्यक् वैज्ञानिक विधियों को विकसित किया जाय और पूर्ण शान्त अवस्था में व्यक्ति हो आये -- तो ही केवल जीवन को उदात्त मूल्यों में प्रतिष्ठित किया जा सकता है।
'ध्यान योग' की यह वैज्ञानिक पद्धति इसी दिशा एक वैज्ञानिक प्रयोग है जिसके माध्यम से व्यक्ति अपने आंतरिक जीवन में प्रतिष्ठित हो आता है। और पूर्ण व्यक्तित्व (Integrated Personality)को व्यक्ति उपलब्ध होता है।....
['ध्यान योग' के सत्र में रखा गया सम्यक् वैज्ञानिक विवेचन -- जिसे एक मेरठ के तपिस्वी साधक के पूछने पर, दिया गया।
(२० अप्रेल से २७ अप्रेल '६३ के मध्य)
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उदासीन हो रहना, कम बोलना, एकान्त प्रियता – ये सारी बातें साधु होने के लक्षण हैं। मेरा देखना है कि जब तक मन का रस बना हुआ है, तब तक आप लाख बाह्य प्रयत्न करिये -- कुछ भी होने का नहीं है। बाहर रस आता है तो इसे रोकने के लिए वह बाहर से ही अपने को उदासीन कर लेता है, अधिक बोलना मन को भितर से अच्छा लगता है तो बाहर से व्यक्ति कम बोलने लगता है, भीतर भीड़ से मन बंधा होता है तो बाहर से वह एकान्त में जा उठता है। इससे भीतर का रस तो टूटता नहीं है -- बाहर से अपने साथ व्यक्ति एक आवरण खड़ा कर लेता है और संघर्ष में उलझ जाता है। इस संघर्ष से व्यक्तित्व टूटता है, व्यक्तित्व का सृजन और सौंदर्य विकसित नहीं होता हैं, ये सारी बातें बाहर से साधने की नहीं है, वरन् जब भीतर अपरिसीम शान्ति में व्यक्तित्व हो आता है तो अपने से बाहर क्रान्ति घटित होती हैऔंर परिणाम में जीवन के प्रति उपेक्षा और उदासीनता नहीं आती है वरन् पूर्णता आती है। तब फिर उदासीनता नहीं आती है -- वरन् जो भी व्यर्थ है वह अपने से छूट जाता है। ठीक अर्थों में हम पहिली बार सक्रिय होते हैं और मात्र क्रिया रह जाती है -- कर्ता का भाव अपने से विसर्जित हो जाता है। इस सम्यक् स्थिति में होकर ही व्यक्ति पृथक भाव को अनुभव करता है और निष्काम कर्म योगी हो आता है। फिर कम बोलना नहीं होता है -- बोलने में रस ही चला जाता है -- बोलने के प्रति कंजूसी हो जाती है और व्यक्ति अपनी सम्यक् शान्त, आनन्द की गहराइयों में रहा आता है। एकान्त फिर खोज कर लाना नहीं होता है, वरन् अपने से भीतर पाया जाता है कि सारे घनेपन के बीच भी एकान्त घिर आया है। ये सारे परिणाम हैं -- जो केन्द्र पर व्यक्ति के चेतना में हो आने से अपने से घटित होते हैं। इन्हें लाना नहीं होता है, वरन् भीतर उस असीम स्त्रोत से संबंधित होने पर अपने से परिणाम में बाह्य अभिव्यक्ति होती है।.......
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समस्त 'पर' का इकट्ठा जोड़ मन है। यह प्रकृति से मनुष्य को दी गई मूर्च्छा है। इससे प्रकृति अपने विकास को और जीवन को खींचती है। सारा आयोजन चलता है। यह क्रम अनन्त है। इस समस्त 'पर' की प्रतीतियाँ जो हमारे शरीर में मस्तिष्क नामक तंतु हैं, उनमें होती हैं। यही मन के होने का बोध है। बाकी मन NON-SPACEOUS है -- वह कहीं है नहीं। उसका होना स्थान में नहीं है -- स्थान के बाहर है। वह केवल है। इससे मस्तिष्क पर जो उसके अनुभव हैं -- वे केवल इस कारण हैं कि हम अपनी चेतना के केन्द्र से सन्युक्त नहीं हैं। भीतर जैसे--जैसे व्यक्ति शान्त होता चलता है -- परिणाम में मन पाया ही नहीं जाता। बस व्यक्ति जीवन-मुक्त हो आता है।....
मन के साथ चलके,और मन से लड़कर -- कोई भी व्यक्ति आज तक मन से मुक्त नहीं हुआ है। ठीक जागरूक अवस्था में जाना जाता है कि 'मन' है ही नहीं। चौबीसों घंटे परिपूर्ण जागरूक अवस्था में रहने से -- व्यक्ति ठीक 'जो है' उसमें या हम कहें कि 'Being' में हो आता है।...
बिना ठीक विज्ञान के जाने मन के साथ कुछ भी कर बैठना -- विकृत परिणाम लाता है।.....
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नित्य प्रति अनेक साधकों ने 'ध्यान केन्द्र' में आकर 'ध्यान योग' पर वैज्ञानिक प्रयोग जाना। वार्ता की पूर्ण तन्मयता को भी अनुभूत किया। यह आज के युग में दुर्लभ होता गया है। धर्म का पूर्ण वैज्ञानिक स्वरुप आचार्य श्री की जीवन-साधना से अभिव्यक्त हुआ है -- वह आज के अशांत और पीड़ित विश्व में -- शान्ति, आनन्द और श्रेष्ठ उदात्त मूल्यों में मानव को प्रतिष्ठित कर सकेगा -- ऐसा सत्य प्रगट हो रहा है।......
'ध्यान योग' के परिणाम क्या हैं और 'ध्यान' में क्या घटित होता है?'
परिणामों की चिन्ता मत कीजिए और न ही मैं इस सम्बन्ध में कहता हूँ -- क्योंकि कुछ भी मेरा कहा हुआ आपके मन को पकड़ लेगा और मन फिर ठीक वैसा ही करने लगेगा। उससे 'ध्यान' के प्रयोग में बाधा होती है और व्यक्ति बीच में ही उलझ जाता है। यह होगा कि 'जीवन से दुख निरोध होगा।' कुछ मिलेगा -- ऐसा मैं नहीं कहता -- क्योंकि मिलने की भाषा मन को बांध लेती है और मन वैसी क्रियायें करने लगता है। इससे दुख का निरोध होगा।
ध्यान में क्या घटित होता है, इसे भी जो घटित होता है उस ओर से नहीं कहा जा सकता है। हाँ जो नहीं होता उसे जाना जा सकता है। विचार नहीं होंगे और मूर्च्छा नहीं होगी। यह घटित होगा। इसके होने से भीतर क्या होगा -- यह तो आप अनुभूत करेंगे -- उसके कहने का कोई अर्थ नहीं है।......
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'मृत्यु का भय होता है -- यह क्यों?'
असल में आदमी अपने से परिचित नहीं होता है, इस कारण सारी उलझने हैं। वह बाहर के जगत से संबंधित होता है और मृत्यु में उसे सारा कुछ टूटता लगता है जिससे भी वह परिचित है -- इस कारण भय होता है। भय अज्ञात का होता है। जो भी मनुष्य को अज्ञात है, उसका भय उसे होता है। इस भय से बचने के लिए मनुष्य तरह-तरह के शब्द रचता है। कोई कहेगाः मृत्यु तो परम सुख है, परम मित्र है -- लेकिन इससे कुछ भी नहीं होता है। मृत्यु की चपेट में ये सारे मन को समझाये शब्द काम नहीं देते हैं और आदमी गहरे भय से भर आता है। इससे कुछ भी बचाव का मार्ग कोई ढूंढ़े -- उसका कोई अर्थ नहीं है।
ठीक से आन्तरिक विज्ञान से परिचित होना प्राथमिक है। बिना अपने भीतर उतरे कोई भी मार्ग नहीं है। ठीक से व्यक्ति अपने से परिचित हो -- इसके लिए सम्यक् वैज्ञानिक योग की पद्धति हैं। 'ध्यान योग' एक ऐसी ही वैज्ञानिक पद्धति है जिसके माध्यम से व्यक्ति मृत्यु में जो घटित होता है -- उससे ध्यान में होकर गुजरता है -- इससे मृत्यु का भय अपने से विसर्जित हो जाता है। योगी रोज ही मृत्यु में जाता है और मृत्यु की घटना में वह अंतिम बार अपने भीतर चला जाता है -- इससे कोई भय उसे शेष नहीं होता। वह जीवन के बीच जीवन -- मुक्त अवस्था में होता है और अभय को उपलब्ध होता है। .....
'ध्यान के इस प्रयोगं को सम्यक् रूप से आप करते रहें, अपने से जो भी होना है -- वह होता चला जायगा। आप अपने से सारे परिणामों को स्पष्ट अनुभव कर सकेंगे। इसके एक परिणाम में आप 'अभय' में हो रहेंगे।.....
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भय व्यक्ति के अहंकार को चोट करता है और इस कारण अनेक कार्य केवल अहँकार को तृप्त करने के लिए व्यक्ति करता है। अनेक आत्म-हत्यायें केवल इस भय के कारण होती हैं -- देखें -- मृत्यु में क्या होता है? हिमालय पर चढ़ना -- व्यक्ति के अहँकार को चोट करता है और इस कारण अनेक मृत्यु होने के बाद भी आदमी चढ़ता रहा -- आखिर सफल हुआ। इससे अविवेक से गलत होने की संभावना हमेशा रहती है। ठीक जागरूक स्थिति में होकर अभय को उपलब्ध होने के बाद फिर जो भी सहज होता है, वह होता चलता है।


'बाह्य सारी घटनाओं की प्रतिक्रिया मन पर होती है -- क्या इस दुख के पार मनुष्य हो सकता है?'
अभी व्यक्ति का सारा कुछ बाहर से बंधा है। उसका पूरा संबंध बाहर से है। जरा सा कुछ घटा नहीं कि मन में और मन के माध्यम से शरीर में एक उत्पीड़न और अशान्ति फ़ैल जाती है। इस कारण व्यक्ति को हमेशा दुख उठाना पड़ता है। वह बाहर की स्थितियों का गुलाम हो जाता है। सारा दुख - सुख उसका बाहार की घटनाओं से बंध जाता हैं। यह प्रतिक्रिया है। समस्त प्रतिक्रियायें मन -- अवलंबित हैं। जब तक व्यक्ति मन की परिधि पर है, तब तक वह पीड़ित और परेशान होता रहेगा। मन के बाहर होना होता है जहाँ पर दुख - सुख दोनों विसर्जित होते हैं, और एक तीसरी आनन्द की अवस्था में व्यक्ति होता है -- जहाँ होकर -- बाहर कुछ भी घटा आरपार हो जाता है और कोई निशान व्यक्ति पर नहीं होते।
बुद्ध के जीवन में एक घटना आती। बुद्ध एक गांव से निकलते थे, गांव के लोगों ने बुद्ध को गाली देना शुरू किया। बुद्ध खड़े होकर सुनने लगे। जब लोग गाली दे चुके, तो बुद्ध ने कहाः बात
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पूरी हुई अब मैं चलूँ। लोगों ने कहाः हम बात नहीं कर रहे हैं -- गाली देते हैं -- कुछ उत्तर चाहते हैं। बुद्ध बोलेः मैं गांव में होता और लोग मिठाई के थाल लाते,मुझे भूख नहीं होती--तो मिठाई स्वीकार नहीं करता। तुम गालियाँ देते, लेकिन मैं स्वीकार नहीं करता, तो उत्तर कैसा? बुद्ध कहकर आगे प्रवास किए।.....
अब बुद्ध को क्या हुआ जो गाली कहीं भी असर न की। बुद्ध उस परिधि से बाहर खड़े थे, जहाँ पर गाली प्रभाव करती है। ठीक सम्यक् जागरूक स्थिति में व्यक्ति भागवत् चैतन्य में होता और बाहर का कुछ भी उस पर प्रभाव नहीं छोड़ता। कैसे कोई व्यक्ति अपनी इस स्थिति में हो आ सकता है -- इसके लिए ही योग है। इसके माध्यम से व्यक्ति अपने अंतःकेन्द्र से सन्युक्त हो आता है और जीवन मुक्त स्थिति में होकर प्रतिक्रिया शून्य हो जाता है।
ध्यान के इस सम्यक् प्रयोग को आप करते रहें -- अपने से परिणाम में आप जीवन--मुक्त अवस्था में होकर प्रतिक्रिया के बाहर हो रहेंगे।.....


जीवन में गहरी पीड़ा और तनाव है। इतनी अशान्त स्थिति में आदमी का जीवन चलता है और जीवन की व्यर्थता व्यक्ति को इतनी स्पष्ट होती जाती है कि व्यक्ति इससे बाहर निकलने का मार्ग खोजता है। कोई मार्ग न पाकर, अनेकों व्यक्ति आत्म--हत्या कर लेते हैं। इससे जीवन का कोई हल नहीं होता है। नित्य प्रति आत्म--हत्याओं की संख्या बढ़ती जाती है, मानसिक स्वास्थ्य घटता जाता है और अनेकों व्यक्ति इस सीमा पर जीते हैं कि जरा सी भी मानसिक चोट या आघात उन्हें पागल कर सकती है। इस दारिद्रय और अभाव में मानवीय जीवन चल रहा है। नींद लेना मुश्किल हो गया है और नशा के अभाव में नींद पूरी नहीं होती है। युग जब इतनी पीड़ा में हो तो इसका कोई ऊपरी उपचार कार्यशील नहीं हो सकता है। गहरे वैज्ञानिक आतंरिक प्रयोगों से व्यक्ति को ले जाना आवश्यक है।.......
'ध्यान-योग' शीघ्रतम परिणाम व्यक्ति को दे सके, इस दिशा में एक वैज्ञानिक
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प्रयोग है। ध्यान-योग के विस्तार को आपने समझाया और कहाः इसके व्दारा हम व्यक्ति के आंतरिक केन्द्र पर आ रहते हैं -- शरीर, प्राण और मन के शून्य होने पर व्यक्ति शुद्ध चेतना के ज्ञान में होकर अपने आनंद के केन्द्रों से सन्युक्त होकर -- मानवीय जीवन की श्रेष्ठता में हो आता है। चरम सार्थकता को पा लेता है।...
ध्यान योग पर साधकों के 'ध्यान वर्ग' में प्रश्न हुआ करते। पूछा गयाः 'बुद्ध ने केवल सांस के आने - जाने को देखने से - ध्यान में हो आना बताया -- इसी तरह 'अजपा - जप' का प्रयोग भी सन्तों ने किया - ये सब क्या आपके 'ध्यान' से एक हैं?'
बुद्ध ने जिस ध्यान की विधि का प्रयोग दिया, वह पूर्णतः वैज्ञानिक है। ठीक आप अकेले बैठकर -- सांस के जाने - आने को देखा करे -- तो आप पायेँगे कि आप समस्त विचारों से पार होकर -- शून्य में हो आये हैं। 'अजपा जप' का भी अर्थ है कुछ भी जपने को न रहा है -- सब छूटकर व्यक्ति निःशब्द में हो आया है। जब सब जप छूटता है तब व्यक्ति ठीक जप में होता है। कहने में विरोधी दीखता है -- लेकिन वास्तविकता ऐसी ही है। भारत में जप शब्द का इतना मोह था कि 'अजपा - जप' कहना पड़ा।
ये दोनों भी 'ध्यान' में हो आने के मार्ग रहे हैं। इनसे भी आप जिस ध्यान की पद्धति का 'मैं' प्रयोग दे रहा हूँ, उसका अनुभव कर सकेंगे। ठीक सम्यक् पद्धति व्यक्ति को ठीक स्थिति तक पहुँचा देती है। वैज्ञानिक योगिक विधियों के अंतर्गत आप जिस पद्धति से ध्यान में यहाँ जा रहे हैं -- वह और भी सुलभ है और शीघ्र गामी परिणाम देती है।.....
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आत्म विस्मरणः आत्म जागरण
व्यक्ति की दृष्टी बड़ी सिमित होती है और अनेकों सीमाओं के बीच वह जीवन जिए जाता है जो भी प्रचलित परंपरायें रही हैं और जिन पर चलकर व्यक्ति आज तक कही नहीं पहुँचा है -- उन्हीं को वह जीवन भर दुहराये चलता है। मात्र यांत्रिकता होती है -- लेकिन जैसे व्यक्ति इस सारी यांत्रिक व्यवस्था में ही जीकर अपने को संतुष्ट मानता है।
चले आये इस यांत्रिक क्रम में अर्चनायें, पूजायें, मंत्रोंच्चारण, विधिं-विधान आदि हैं। लेकिन इन सबका कोई परिणाम जीवन पर नहीं होता है। ये केवल मात्र भुलावा व्यक्ति को देते हैं और जीवन का क्रम ठीक वैसा ही -- दुख का क्रम यथाविधि बना रहता है। इन सबमें एक भुलावे का सुख होता है और शब्दों में, उनकी स्वर-लहरी में व्यक्ति अपने को खो देता है। यह मात्र भूलना है और भुलावे में केवल सुख लेना है। दुख के निरोध से और परिणाम में जीवन की श्रेष्ठता से -- इसका कोई भी अर्थ नहीं होता है।
न केवल धर्म में व्यक्ति ने भुलावा को जन्म दिया, और भी जीवन में भूलने के मार्ग व्यक्ति ने खोज निकाले। प्राचीन काल से ही व्यक्ति संगीत, सुरा और लैङ्गिक प्रक्रियांओं में अपने को खोकर भूलता रहा है। ये सारे आयोजन मादकता देते हैं और व्यक्ति थोड़ी देर को भूला रहे -- इसका सुख देते हैं। इन तीनों में व्यक्ति आत्म-विस्मरण में होता है और मूर्च्छा का जो भुलावे का सुख है -- उसे लेता है। इसमें कभी तृप्ति नहीं होती -- इस सुख को लेने की व्यक्ति की बार-बार इच्छा हुआ करती है और यह अतृप्ति आग बढ़ती जाती है। भीतर लेकिन मनुष्य जैसा होता है, ठीक वैसा ही बना रहता है। कोई परिवर्तन उसके जीवन में नहीं आते हैं। वरन् नशे को और तीव्र वह करता चलता है -- बंगाल में कुछ साधु रहे हैं जो प्रारंभ में केवल गांजे के नशे में हो आते थे, लेकिन बाद जब तक जीभ पर सांप न कटाया
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जाये कोई नशा नहीं आता था। यह केवल भूलना हैः आत्म - विस्मरण है।
संगीत में अपने तरह का भूलने का सुख, मादकता और sexuality होती। इसी तरह सुरा और sex में भी अपने तरह का भूलने का सुख, मादकता और संगीत होता है। यह केवल पलायन है। अब इस पलायन में चाहे गांधीजी हों, बड़े- साधु - संत हों या अन्य कोई व्यक्ति हों -- वे सारे जन इस विज्ञान के अंतर्गत आते हैं।
आज जैसे-जैसे युग की दौड़ चल रही है -- सभ्यता के गहरे तनाव से और आत्म- उत्पीड़न से विश्व का वातावरण दूषित होता जाता है और आदमी अपनी पूरी नंङ्गी तस्वीर में सामने आया है -- वैसे-वैसे संगीत हजारों रूपों में सुरा और sex नित्य नविन रूपों में व्यक्ति को भूलने के लिए आयोजित किए जाते हैं। इस सबसे कोई मार्ग नहीं है। केवल एक पीड़ा और अशान्ति को बढ़ाकर खड़ा कर लेना है।
ठीक से वैज्ञानिक शोध से -- आत्म - जागरण की यौगिक प्रक्रियाओं को खोज लेना है -- ताकि अशान्त,बैचेन और उत्पीड़ित मानव समाज को अपरिसीम आनन्द और शान्ति के केन्द्रों में प्रतिष्ठित किया जा सके। 'ध्यान-योग' पर वैज्ञानिक पद्धति का अभी मैं अनेकों स्थानों पर अनेकों लोगों को प्रयोग दिया और परिणाम में एक आत्म-जागरण की दिशा में मानव-समाज उत्सुक हुआ है - जिससे भविष्य आनन्द और शान्ति के बीज को विकसित करने में समृध्द दिखता है।
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इसी प्रसंग में एक श्रोता ने प्रश्न कियाः :'साधारण मनुष्य तो अपनी सीमाओं से घिरा है, Sex से तो उसकी प्रारंभ में मुक्ति संभव नहीं है -- फिर क्या Sex के माध्यम से भी व्यक्ति परम -- सत्ता में हो सकता
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हैं?'
वास्तव में साधारण और असाधारण मनुष्यों का -- मन के क्षेत्र में ऐसा कोई विभाजन नहीं है। सभी साधारण हैं। इससे मैं जीवन में कहीं भी विरोध से चलने को ठीक नहीं समझता और न ही कुछ छोड़ने - पकड़ने जैसे संघर्ष में मानव उलझे -- इसका कोई अर्थ है। प्रकृति के सहज Sex के प्रवाह में भी अपने को और अपनी सह धर्मिणी को ठीक सम्यक् जागरूक (Right Awareness) स्थिति में रखकर - मानव -- प्राणी सहज जीवन में जीवन - मुक्त हो रहते हैं। जीवन के विरोध में आपको नहीं चलना है -- मैं जीवन के विरोध में कहीं भी अपने को नहीं देख पाता हूँ -- इस कारण विरोध से भागना नहीं है, केवल विरोध में जो मन का रस है -- उसे विसर्जित करना है और जीवन -- मुक्त स्थिति में हो आना है। फिर सारे संयोग विरोध न होकर जीवन में सीढ़ी बन जाते हैं और व्यक्ति अपनी श्रेष्ठ अवस्था में हो आता है।...


सामान्यतः साधारण व्यक्ति से हमारा आशय होता है -- कम बुद्धि को लिया हुआ, सीधा -सादा, और दूसरे जिन्हें हम सामान्य से ऊपर लेते हैं -- वे पढ़े -लिखे समझदार जिनने ज्यादा सूचनायें इकठ्ठी की हैं, उनको लिया करते हैं। मेरा देखना है कि सामान्य व्यक्ति ही -- शीघ्र जीवन की चरम-सार्थकता में हो आते हैं। ईसा ने कहा हैः
'जो यहाँ पर अंतिम हैं, वे मेरे प्रभु के राज्य में प्रथम होंगे।'
ज्ञानी का ज्ञान ही बाधक होता है और वह अनन्त भटकन के बीच खो जाता है। इससे साधारण और सामान्य जीवन क्रम ही श्रेष्ठ स्थिति में सुलभता से हो आते हैं।.....
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'चैतन्य बोध क्या है?'
अभी हम मन की सत्ता से घिरे हैं। इससे चेतना - विचारों में डूबी होती है। जैसे ही व्यक्ति विचार - शून्य होता कि उसमें जिससे वह एक क्षण भी पृथक नहीं है -- हो आता है। यह अनुभूति ही विचार - शून्य स्थिति में चैतन्य की अनुभूति है। सम्यक् बोध जो व्यक्ति में अनुप्राणित है -- उसका व्यक्ति को हो आता है। जैसे ही व्यक्ति मन से पृथक खड़ा होता कि वह समस्त चेतन - सत्ता में होकर असीम आनन्द में हो आता है। चौबीस घन्टों में व्यक्ति जब पूर्ण जागृत रहता- तो उसकी प्रत्येक क्रिया आत्म - जागरण के प्रकाश से भर जाती है। इस स्थिति में होकर जब व्यक्ति सोता भी तो सम्यक् बोध चैतन्य का अपने से बना रहता है।
'या निशा सर्व भूताना,तस्या संयमी जागृति ' इसका और कुछ अर्थ नहीं है -- केवल आत्म-बोध को हो आंया व्यक्ति सोने में भी सम्यक् चैतन्य-बोध में होता है।... यह स्थिति ध्यान की पूर्णता है। चौबीस घन्टे में जब ध्यान होता है -- तो यह स्थिति रहती है।..
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पूर्व धारणायें केवल जैसी धारणा है उसके अनुसार प्रक्षेप देती हैं। कोई भी 'नाम स्मरण' करो -- तो अच्छा तो लगता है, बाकी फिर केवल नाम -- स्मरण ही चलता है और उसी क्रिया में मजा आने लगता है। मैं पूर्व से कुछ भी स्मरण करूँ -- जो स्मरण के बाहर है -- उसे मैं स्मरण से कैसे जानूँगा। और स्मरण से जो जाना जायगा -- वह मात्र केवल स्मरण से बंधी धारणा के अनुसार प्रक्षेपित होगा। आत्म-साधक को यह भेद जान लेना बहुत आवश्यक है। अन्यथा भ्रान्त जीवन-साधना में चले जाने से मन का रस पूरा होता रहता और व्यर्थ की प्रशंसा में जीवन खो जाता है। इससे प्रक्षेपों में व्यक्ति को नहीं उलझना है -- सीधे जहाँ कोई प्रक्षेप नहीं हैं -- केवल शून्य है - इससे भर व्यक्ति को परिचित होना है।
आप अपने नाम- स्मरण को चलने दें -- उसे मैं छोड़ने को नहीं कहता। केवल अलग से 'ध्यान योग' को करते रहे -- अपने से परिणाम में मन का जो भी अशांत है छूट रहेगा। कोई प्रयत्न उसके लिए नहीं करना है।आराम से ध्यान के प्रयोग को चलने देना है और प्रतीक्षा करनी है। अपने से आनन्द, शान्ति और दिव्यता अवतरित होगी।....
[अप्रेल के अन्तिम दिवसों में -- श्रीमाती डूँगाजी के साथ आए एक नवयुवक के साथ हुआ चर्चा-प्रसंग। नवयुवक को नाम-स्मरण में आनंद और रस आता था -- और इस सबमें प्रक्षेपित अनुभव भी हुए।.....]
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जीवन के उद्देश्य और महत्वाकांक्षा में विरोध क्यों होता है? महत्वाकांक्षा उद्देश्य के प्रतिकूल जाती है -- ऐसा क्यों?
महत्वाकांक्षा और उद्देश्य -- ये दोनों केवल व्यक्ति के बनाये और अपने पर थोथे श्रेष्ठ आवरण हैं। इनका कोई भी अर्थ - वास्त - विकता में नहीं है। आप सोच सकते कि जो उद्देश्य आपने बनाये हैं -- वे महत्वाकांक्षा की सीमा में नहीं आते हैं और दोनों में विरोध चलता है। ठीक आप विश्लेषण करेंगे - तो ज्ञात होगा कि ये दोनों ही मन के बनाए हुए हैं। उद्देश्य आप सरल और सीधे बनालें, तो आप अपने को आदर्शों पर चलते हैं -- लेकिन महत्वाकांक्षा उद्देश्य के प्रतिकूल चलती -- तो लगता कि उद्देश्य तो पूरा ही नहीं होता -- क्या महत्वाकांक्षा बाधा बन रही है? ऐसा प्रतीत होना स्वा-भाविक है।
तो मेरा देखना है कि उद्देश्य और महत्वाकांक्षा दोनों ही एक हैं। कोई उनमें भेद नहीं है। भेद केवल दृष्टी का और सोचने का हो सकता है।
सम्यक् ध्यान के प्रयोग से यह आपको स्पष्ट होगा की जहाँ भी कहीं 'बनना' है (Becoming) वह दिशा भ्रान्त है -- केवल मन की सीमा की है। इससे 'बनने' में नहीं -- 'होने' में (Being) हो आना है। यह आपको साफ -- साफ 'ध्यान' के प्रयोग से दीखेगा और जब दीखेगा तब बात आपको स्पष्ट समझ में आ जायगी।....
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प्रश्न थाः 'मन का न हो जाना, क्या फिर मन के विस्तार में ही तो नहीं खो जाना है?'
ऐसा भ्रम मनुष्य को पकड़ सकता है। ठीक अभी साफ-साफ समझ न आने से -- ऐसा लग सकता। बाकि -- जैसे ही सम्यक् ध्यान के प्रयोग के परिणाम में आप स्पष्ट देख पा सकेंगे -- यह सारी प्रतीति अपने से विलग हो जायगी। मेरा आग्रह कहीं भी कुछ सामान्यतः मान लेने को नहीं है, वरन् जब पूरा साफ प्रतीत हो -- तभी कुछ देखकर मानने का है।....
बुद्ध ने आज से २५०० वर्ष पूर्व कहा थाः पदार्थ और चित्त दोनों भ्रम हैं। आज विज्ञान ने यह स्पष्ट कर दिया है कि पदार्थ की जैसी प्रतीति है -- वह वास्तव में वैसी नहीं है। अणुओं का एक तीव्र दौड़ता प्रवाह है और उसका इकठ्ठा रूप पदार्थ दीखता है। फिर कोई दो अणु एक दूसरे को छू भी नहीं सकते वे अलग- अलग हैं। इससे हम पदार्थ को छूते तो नहीं -- केवल एक छूने का भ्रम भर होता है।....
ठीक जिसे हम विचारों की चलती प्रक्रिया को चित्त जानते हैं -- वह भी केवल भ्रम है। आत्म - बोध में होने पर जाना जाता वह तो प्रकृति की दी गई केवल एक मूर्च्छा थी -- मूर्च्छा टूटी तो जाना चित्त जैसा कुछ रहा ही नहीं।
यह केवल इस कारण कहा कि स्पष्ट हो सके सम्यक् चित्त की क्या स्थिति है -- वह केवल भ्रम दे सकता -- जब तक चेतना विचारों से घिरी है। विचार मुक्त होकर जाना जाता -- जो भ्रम था -- वह टूट गया।.. प्रयोग को आप चलने दें -- सब अपने से होता चला जायगा।....
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प्रश्नः 'कुछ साधु -- शरीर को काटों पर गलाते, धूप में एक पैर से खड़े होकर वर्षों तप करते -- यह सब क्यों प्रचलित है?'
सब मन की सीमा है। हम कुछ मूल्य देकर -- प्रभु को पाना चाहते हैं। मैंने इतना किया -- इससे प्रभु मिलेगा -- यह बात एक Bargain की -- व्यापार की प्रभु-मिलन में भी आदमी सोच लेता है। कोई मूल्य तुम प्रभु में हो आने के लिए चुका नहीं सकते हो। तुम जिस क्षण प्रभु - सत्ता में होते -- जानते कि मैं तो हमेशा उसकी सत्ता में था, व्यर्थ ही कुछ करके उसे पाना चाहता था। करना सारा व्यर्थ जाता और सब करना व्यर्थ चला जाता है। अभी एक प्रथम श्रेणी के न्यायाधीश मुझे ब्यावर मिले। पूछा उन्होंनेः मुझे देखकर आपको लगता कि मैं सत्य को उपलब्ध हो गया हूँ। मैं कहाः जिसे उपलब्ध हो गया होता, उसकी गवाह देना नहीं होती। वह जानता और बात समाप्त हो जाती। उसके लिए कोई भी गवाह नहीं चाहिए। फिर मैं पूछाः आप क्या करते हैं? बोले साब, मैं ३ घंटे पूजन -- अर्चन करता हूँ। अब मैं जाना कि यह पूजन -- अर्चन करके पाने की बात है। तो सौदा है। सौदा से और प्रभु-- मिलन का विरोध है। कोई उससे जानना नहीं होता है। फिर सारा कुछ मन का आयोजन चलता है और मन कहता कि ऐसा करो तो ऐसा होगा। शायद शरीर की गलाने, तपाने से कुछ संबंध हो -- वह सब भ्रान्त और व्यर्थ है। प्रभु को पाना और पाने के भाषा ही गलत है, केवल प्रभु में हो आना -- सीधे एक विज्ञान की बात है -- विज्ञान को जानकार व्यक्ति सुलभता से प्रभु - सत्ता में हो आ सकता है।.....
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प्रश्नः 'मदारीगिरी और चमत्कार कैसे घटित होते? मुझे एक मदारी ने मथुरे का पेड़ा खिलाया - यह कैसे संभव है? इसी तरह गांव में एक कुंआँ था -- उसमें पूरा पानी आने के पूर्व - एक साधु निकला, उसने पानी माँगा: पानी उसे न दिया, परिणाम में उसने शॉप दिया कि कुयें में काई होगी -- बात ठीक निकली और कुयें में काई पाई गई -- ऐसा क्यों?'
बहुत से चमत्कार और घटनायें -- मात्र सांयोगिक होती हैं। अभी मैं ब्यावर पहुँचा -- पूर्व तार प्रेषित किया -- १.४० दोपहर पहुँच रहा हूँ। कोई भी ट्रेन १.४० को नहीं पहुँचती थी, १.१० को ट्रेन पहुँचती थी। संयोग की बात उस दिवस ट्रेन ३० मिनिट लेट पहुँची और १.४० पर ही मैं पहुँचा। बस लोगों में तो बात फ़ैल गई कि मैंने तो पूर्व ही सूचित किया था -- साधु पुरुष के वचन गलत, नहीं होते। अब यह केवल यहाँ के Railway - Enquiry के गलत सुचना देने पर सांयोगिक था, लेकिन लोग तो क्यों मानने चले। तब फिर कहना पड़ाः 'सब प्रभु के व्दारा होता है।' अब इस तरह Co-insidence हुआ करते जिनसे चमत्कार घटा -- ऐसा प्रतीत होता है। अब साधु ने भी जो काई कुयें में रहने की बात कही -- उसमें हो सकता है कि काई आने के बाद, कथा प्रचलित हुई हो। ९५ प्रतिशत संभावनायें इसी तरह की हैं। केवल ५ प्रतिशत संभावना यह है कि कुछ पूर्व देखने की क्षमता हो Telepathic और उसके माध्यम से जाना जाकर पूर्व से कुछ कहा जा सके। लेकिन ये सारी घटनायें - मात्र घटनायें ही हैं -- उनमें प्रभाव जैसा कुछ भी नहीं है।' पर जन -- सामान्य की बुद्धि में यही सब प्रभाव देता पड़ता है।
बाकि Magic में विशेष कर Tricks होती है, कुछ सम्मोहन Hypnosis होता है और कुछ Mes-merisom (mesmerise) होता है जो आपने मथुरा का और साथ के लोगों ने भी मथुरे के पेड़े खाये उसमें Mass-Hypnosis का प्रयोग है। फिर
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आपसे कुछ भी कराया, कहा या प्रभावित करके - ठीक वैसा अनुभव कराया जा सकता है।.... मैं Individual Hypnosis के अभी प्रयोग किया और परिणाम में पाया कि ठीक जैसा भी कहा गया था -- बाद सम्मोहन से लौटने पर वैसा पाया गया। बच्चों पर सम्मोहन करके - उनसे बाद में इच्छित परिणाम पाए गये। लार्ड कर्जन के समक्ष भारतीय जादूगरों ने (वैसेः जादू जैसा कुछ भी नहीं है) Rope-tricks दिखाये। उसमें रस्से को फेककर -- उसका खड़ा हो जाना, फिर रस्से पर व्यक्ति का चढ़ना -- बाद रस्से का और व्यक्ति का खो जाना और फिर रस्से से व्यक्ति का उतरता हुआ दिखाई पड़ना -- ये सब प्रयोग दिए गए। ये सब Lost-tircks कहलाती हैं। इसकी रिपोर्ट कर्जन ने दी तो यूरोप में इसकी बड़ी चर्चा हुई।
इन सब पर वैज्ञानिक शोध होना आयश्यक है। और कहा जा सके कि इसमें केवल सीधा विज्ञान है, इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं है। जगह-जगह इसके प्रयोग दिये जा सकें और सीधे-सीधे तथ्य सामने आ सकें -- इसके लिए मेरा मन है कि एक युवकों का ग्रुप जो संपर्क में आता है -- वह इस दिशा में कार्य करे -- तो एक महत्व की बात हो सकती है।
[श्री त्रिपाठी जी,सेन जी, नायक जी और अन्य परिवार के व्यक्तियों के समक्ष दी गई चर्चाओं से -- ७-५-६३ रात्रि मंगलवार]
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गहरी खोई हुई मनस्थिति में सारा काव्य और कला सृजित होती है। जब तक व्यक्ति पूरी तरह से भीतर नहीं हो जाता तब तक श्रेष्ठ कृति सृजित होना संभव नहीं होता है। सारे बड़े कवि, कलाकार शिल्पकार अपने भीतर की पूर्ण गहराइयों में होकर ही कुछ सृजन करते हैं। अभी पश्चिम में इस संबंध में शोध हुई और पाया गया कि इस तरह के व्यक्तियों में कुछ नशे के तत्व पाये जाते -- जिससे उनका बाहर से सारा संबंध टूटकर -- भीतर खो जाना होता और उस खोई हुई अवस्था में कुछ श्रेष्ठ सृजन संभव होता है। विन्सेट वान्गो एक उच्च पेंटर हुआ -- सारे जीवन कला में खोया रहा -- अद् भुत पेंटिंग्स् उसने बनाईं। कोई उन पेंटिंग्स को खरीदने वाला और प्रंशसा करने वाला न मिला। अंत में उसे आंत्म – हत्या करनी पड़ी। आज उसकी सारी पेंटिंग्स की की कीमत कोई ४ करोड़ रूपये है। जिसने भी उसके पेंटिंग्स को उस समय रख लिया आज वे लखपति हो गये। रवि बाबू ने जो गीत लिखे -- वे गहरे भीतर के केन्द्रों से सन्युक्त होकर लिखे। उनसे काव्य फूटा और वे काव्य में जिये। गुरुदयाल मल्लिक जो रवि बाबू के साथ प्रारंभ में शांति-निकेतन थे -- उनने एक संस्मरण लिखा है। लिखा किः शान्ति निकेतन में एक सांझ हम लोग (सारे शिक्षक गण )रवि बाबू के घर चाय पीने आमंत्रित थे। रवि बाबू चाय बना कर लाए -- प्यालियों में ढालने लगे। देखते-देखते रवि बाबू मौन हो गए और आंख बन्द होने लगीं। सारे लोग बाहर आ गए। मैं पास ही खड़ा रहा -- देखूँ क्या होता? थोड़ी देर में रवि बाबू कुछ गुन गुनाने लगे -- देखा मैंने कवि को और लगा कि काव्य आ रहा है -- वह उतर रहा है। बाद एक गीत लिखा -- जाना उस दिन कि काव्य कैसा उतरता है।
यह श्रेष्तम अभिव्यक्ति है -- जो व्यक्ति के खो जाने पर अपने से फूटती है।
[कला काव्य पर श्री रजनी कान्त सरकार को किया गया उल्लेख -- ७.५.६३]
182 - 183
मनुष्य जितनी अपनी प्राकृतिक अवस्था में था - उसके सारे जीवन-कृत्य अवैज्ञानिक थे। धीरे--धीरे प्रत्येक क्षेत्र में विज्ञान आता गया और मनुष्य ने अपने बाह्य साधनों को वैज्ञानिक कर लिया। अभी पश्चिम में पिछले २००-३०० वर्षों में -- मनोविज्ञान का विकास हुआ -- और व्यक्ति के बहुत से पुराने चले आये विश्वास टूट गये। अब पश्चिम का कोई व्यक्ति मानसिक रूप से पीडित होने पर पादरी के पास न जाकर Psychoanalysit का पास जाता है। इससे पहिली बार अब पश्चिम के पादरियों के समक्ष मनोविज्ञान को और धर्म को वैज्ञानिक ढ़ंग से जानने की आवश्यकता हुई। लेकिन जैसे ही तथ्यों को जाना कि सारा बाह्य लादा हुआ पादरी का ढांचा गिर जाता है और व्यक्ति शुद्ध विज्ञान में हो आता है।
भारत में अभी साधु नई -- जमीन पर खड़ा ही नहीं हुआ है। उसके वही पुराने ख्याल चलते आते हैं और जानना यह है कि अब कोई भी तथ्य बिना वैज्ञानिक आधार के टिकने को नहीं है। मन को भी अब विज्ञान की दृष्टी से और उससे मुक्त होने के मार्ग को भी विज्ञान की दृष्टी से देखना होगा। शुद्ध धर्म अब पूर्णतः वैज्ञानिक होने को है -- उसका और कोई आधार हो नहीं सकता है।...
८/५/६३
184 - 185
विभिन्न संप्रदाय, स्थिति, मत को मानने वाले व्यक्ति आचार्य श्री की आध्यात्मिक उपलब्धि से लाभ लेने चले आया करते हैं। श्री पणिगर जी और उनकी पत्नि श्रीमती पणिगर जी पारसी परिवार आज सांध्य आ उपस्थित थे। 'ध्यान योग' को और प्रभु चेतना में हो आने के लिए उत्सुक थे।
कहा गयाः दो तत्व हैं -- एक करने का DOING और दूसरा अपने में होने का BEING। मनुष्य बाह्य करने में उलझ जाता है - और धीरे-धीरे जो करने वाला है -- उसे वह भूल जाता है। इस में फिर जीवन्त सत्य से वह वंचित हो जाता है। इस Being में हो आने के लिए भी व्यक्ति करना Doing प्रारंभ करता -- तो बस भूल प्रारंभ हो जाती है। कुछ नहीं करना है -- केवल सब छोड़कर थोड़ी देर को न करने में हो आना है। इस न करने के लिए -- या इस स्थिति में हो आने के लिए आपने सम्यक् ध्यान प्रयोग कहा। बाद कहाः कमरे में छप्पर से प्रकाश की किरण आती, उसमें धूल कण भी तैरते -- अब धूल -- कण इतने प्रमुख हो जायें कि प्रकाश किरण का ध्यान ही न रहे -- तो फिर एक बड़ी भूल होगी। धूल तो केवल बाह्य है, भूल तो प्रकाश किरण है। इस धूल को अलग करने के लिए कुछ करना नहीं होता -- अपने से वह बैठ जाये और शुद्ध सूर्य की प्रकाश किरण रहे -- तो बात पूरी हो जाती है।
मनुष्य भी शुद्ध चेतना में है -- प्रतिक्षण - निरंतर वह उसमें है -- केवल विचारों ने उसे ढक दिया है। विचार शान्त हुये कि अपने से व्यक्ति शुद्ध चेतना में हो आता है।
९/५/६३.
186 - 187
जप एक मानसिक संतुष्टि देता। एक लय का बोध होता -- उससे मानसिक शान्ति आती है। लेकिन जप पर ही साधना की समाप्ति नहीं है। ठीक सद्गुरु होता वह इस तरह जप से भी मुक्ति देता और जप से मुक्त होने का मार्ग बताता है। तब फिर व्यक्ति शून्य होता और उस स्थिति में होकर जो जानता -- वह सत्य -- दर्शन होता है।....
जप के माध्यम से चलने पर केवल एक बड़ा उलझाव है कि फिर कभी -- कभी व्यक्ति को वह जप ही इतना आनंद या रस देने लगता कि उसे जप छोड़ना मुश्किल हो जाता है।... इससे मैंने प्रयोग कर देखे -- और जो सुलभतम पद्धति 'ध्यान योग' की विकसित की -- उससे शीघ्र परिणाम आये हैं।...
९/५/६३
सारे बड़े हिंसक -- भय से भरे होते हैं। भय उनमें अत्याधिक होता है। अन्यथा तलवार और शस्त्र लेने का कोई कारण न था। रक्षा का प्रश्न ही - भय से आता है। बहुत से ऐतिहासिक तथ्यों को सामने रखते हुए आचार्य जी ने कहाः स्टालिन और हिटलर ने अपनी सुरक्षा के लिये बाद में डबल रोल (अपने जैसे व्यक्तियों को) में व्यक्ति को रखा। चंगेज-खां - कत्ले आम करने के बाद -- रात्रि सोता तो बार-बार उठता और देखता कि पहरा ठीक है। अंत में वह भय के बीच ही मृत हुआ। सारे हिंसक भय से ग्रसित होते है। केवल अहिंसक भर जो अभय को उपलब्ध हुआ है -- वह भर भय मुक्त होता है। गांधीजी -- सारे देश में घूमे, खतरनाक स्थलों पर नौ आखाली में खुले रूप में काम किया। राज्य से सुरक्षा देने की बात उठी (सरदार पटेल ने कहा) तो गाँधी बोलेः 'मुझे प्रभु पर आस्था है, बिना उसकी मर्जी के मुझे कोई उठा नहीं सकता है।' यह एक अभय को उपलब्ध हुये व्यक्ति से ही संभव है। सब जगह पूर्ण रक्षित, शान्त और निश्चिन्त हैं। कोई भय मृत्यु का नहीं है।
188 - 189
मृत्यु का भय केवल जो हमसे परिचित है -- उससे संबंध टूट जाने का भय है। सब अज्ञात और अंधेरा दिखाई देता है। पूर्ण ध्यान को उपलब्ध हुये व्यक्ति को दीखता कि शरीर पृथक और चेतना पृथक -- तो दीखता कि चेतना की कोई मृत्यु नहीं और तब फिर वह सबसे परिचित होता और अभय को उपलब्ध हो जाता है।
मनुष्य को तो इस अभय में हो आने का विज्ञान विदित है, लेकिन पशुओं को जिनको कोई बोध नहीं -- बिचारे मूक अपने गहरे दुख में खोये रहते हैं। उनकी जान लेने पर एक गहरी पीड़ा तो निश्चित होती -- क्योंकि सब अज्ञात होता -- और अज्ञात का ही भय होता है।...
योगी अपने भीतर नित्य मृत्यु को अनुभव करता और मृत्यु के भय से मुक्त हो जाता है।
अभी दक्षिण में एक योगी हुये – १९५२ मे मृत हुए। योगी ब्रह्नानन्द। उन्होंने यूरोपीय मुल्कों में प्रयोग दिए और भारत में भी कलकत्ता प्रयोग दिए। १० मि० को शरीर पूर्ण मृतक पड़ा रहता -- C. V. Raman ने और १० बड़े वैज्ञानिकों ने लिखा कि मृत्यु के सारे लक्षण पूर्ण हुए -- और यदि इसको ही हम मृत्यु कहके जानते हैं -- तो भ्रम था। वे १० मि० बाद फिर चैतन्य हुए -- नाड़ी आई, स्वांस आई, गर्मी आई और जीवन्त हुए। बतायाः कि मैं शरीर के बाहर जाना और आना जानता हूँ। अब यह आदमी मृत्यु से परिचित था और अभय में था।
जीवन में अभय में होकर ही व्यक्ति जानता कि जीवन क्या है और पहिली बार ठीक अर्थों में जीता है अन्यथा सब मृत है।....
190 - 191
अनेक प्रसंग हमेशा उठते ही रहते जो दिव्य जीवन से संबंधित हुआ करते। जैसेः समुद्र में तरंगे उठा करतीं और उनका क्रम अनन्त होता -- ठीक ऐसे ही आचार्य श्री के जीवन से अभिनव सत्य अभि-व्यक्त हुआ करते। उनका क्रम भी अनंत है। धन्य है प्रभु -- तेरे प्रकृति और चैतन्य के संयोग को। सारे आयोजन तेरे -- देखते ही बनते हैं।.....
मानव जीवन में सारा कुछ हो -- लेकिन एक जीवन्त सत्य न हो तो शेष सब व्यर्थ हो जाता है। एक जीवन्त सत्य और शेष सब सार्थक हो जाता है।.....
देश के कोने -- कोने में आचार्य श्री का भ्रमण हो रहा है और एक शाश्वत दिव्य अनुभूति को बिखराने का योग मिल रहा है। जगत में जीवन में जो भी अमृत है -- उसे ही वितरण किया जा रहा है। सारा कुछ होता है -- और केन्द्र पर एक अपरिसीम शान्त जीवन -- तत्व है -- और पूर्ण भव्यता निखर आई है। ऐसा दुर्लभ है।....
अभी १ मई से ७ मई के मध्य आचार्य श्री ब्यावर थे. जो राजस्थान का एक प्रसिद्ध जैन साधुओं का स्थल है। यहाँ श्री पारख जी और श्रीमती पारख जी चांदा -- दोनों साथ थे। श्री पारख जी के एक बहुत प्रसिद्ध मुनि श्री मधुकर जी महाराज गुरु हैं। उनसे और अन्य महा-सतियों, साधुओं और नागरिकों से भेंट ली। सार्वजानिक सभाओं, संगोष्ठियों, वार्ताओं का व्यस्त क्रम चला। परिणाम बहुत सुखद रहे। सभी वर्ग के लोग, सभी वय के -- आयोजनों में उपस्थित रहे। सारा कुछ अलौकिक क्रम चला।...
श्री मधुकर जी ने आचार्य श्री के जीवन-दृष्टी कोण को समझा और कहाः आप शुद्ध जैन -- तत्व को ही हमें बता रहे हैं। आपकी बाह्य आचरण से जो साम्यता -- या बाह्य आचरण पर जो आपका प्रारंभ में अपनाने का आग्रह नहीं है -- वह वैज्ञानिक है। भीतर से व्यक्ति आत्म - स्थित होता है -- तो बाह्य आचरण अपने से श्रेस्ठ अभिव्यक्त होता है।....
गहराई से आपने तथ्यों को सहज समझा और कहाः पापों को कोई काटकर मुक्त होना चाहे तो असंभव है, कारण कि पाप तो
192 - 193
अनन्त हैं और जब तक जीवन है तब तक पाप हैं। इस कारण ही -- पहले ही जीवन के बीच व्यक्ति को मोक्ष - स्थित होना होता है -- तब ही जीवन - मुक्त व्यक्ति होता है। इससे आपने जो कहा किः अंधेरे का होना नहीं है -- केवल प्रकाश का न होना -- अंधेरा है। प्रकाश हुआ कि परिणाम में अंधेरा पाया नहीं जाता है। मुझे बहुत भला लगा और आपने जीवन--सत्य की ओर दिशा दी -- उससे उपकृत हुआ।
{ब्यावर का कार्यक्रम में:आचार्य श्रीः १.५.६३ से ७.५.६३ तक}


अनेक बिन्दुओं पर चर्चा होती -- परिणाम केन्द्र में ध्यान आता है। आचार्य श्री का देखना है कि अस्वास्थ्य कई तरह का होता है लेकिन स्वास्थ्य तो केवल बस स्वास्थ्य होता -- उसके कोई प्रकार नहीं होते। भीतर स्वास्थ्य होता तो फिर अस्वास्थ्य कैसा भी हो -- अपने से चला जाता है।....
ध्यान के परिणाम में बाहर सारा खेल ठीक वैसा का वैसा ही बना रहता है और लेकिन उसके प्रति रस विसर्जित हो जाता है। मुझे स्त्री तो दिखे -- ठीक -- लेकिन कोई वासना न उठे -- सहज भीतर शान्त और आनन्द अपने में होता है। सारे जीवन से संबंधित पदार्थ तो होंगे -- घटनायें होंगी -- लेकिन सारा कुछ ठीक -- ठीक और तथ्य रूप में होगा।...
सामान्यतः अभी हम बीते हुए कें प्रति जागृत होते हैं, लेकिन उससे कोई परिणाम नहीं -- क्यों जो बीत गया, उसके प्रति अब जागृत होने का क्या अर्थ? ध्यान से हम ठीक उसी क्षण जब मनः स्थिति
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विकृत होती, होश में होते और बाहार विकृति न फूटती -- धीरे -धीरे आने वाली विकृति के पूर्व ही हम होश में हो आते और परिणाम में चित्त - विकृति शून्य होकर - स्वास्थ्य तथा आनंद एवं शान्त होता।
[१०/५/६३ रात्रि की दिया गया चर्चा प्रसंग - बंगाली इंजीनियर्स के समक्ष – और कहा गया (आगन्तुकों ने): भारत में जो इन्द्रियों को जितने का अर्थ था वह यही था लेकिन भ्रान्त प्रचलन हुआ कि दमन करो -- तब इन्द्रियों पर विजय होगी।]


आज के इस अस्वस्थ युग में -- एक अस्वस्थ्य विचार प्रक्रिया है। कोई स्वास्थ्य -- व्यक्तित्व में दिखाई नहीं पड़ता है। सब एक गहरी पीड़ा और तनाव में चलता रहता है -- सुमन सहजता, सौन्दर्य, आनन्द तथा शान्ति विलीन हो गई है। गहरे वैज्ञानिक दृष्टा हमारे बीच दृष्टिगत नहीं होते हैं, अन्यथा यह स्थिति - दारिद्रय को और उलझन की कभी भी होना नहीं थी। आज दिखाई पड़ती है तो इसका सम्यक् वैज्ञानिक जीवन-दृष्टिकोण होना आवश्यक है -- जिससे एक स्वस्थ्य, आनन्द, शान्ति और सौन्दर्य को लिए हुये मानवीय चेतना विकसित हो।......
'मानवीय मूल - वृत्तियाँ - काम-वासना की। लोभ की, क्रोध की, घृणा की, ईर्ष्या की, और भी अनेक जीवन की विकृतियाँ हैं या पाप हैं -- उनसे कैसे निवृत्ति हो?'
आपने जो पूछा, वह व्यक्ति की सहज जिज्ञासा होती है। मूलतः सारे धार्मिक चिन्तन का केन्द्रीय विषय यही रहा है। सब कुछ आदमी
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कर लेता लेकिन व्यक्ति अपनी इन वृत्तियों से मुक्त नहीं हो पाता है -- तो सोचता कि वह बड़ा पापी, अज्ञानी और नर्क में जाने को है। ये सारे विचार उसके भीतर काम करते हैं -- वह अपने को एक गहरी पीड़ा में, व्दंद में, संघर्ष में और एक मूर्च्छा में अपने को अनुभव करता है। जितना वह इन सबको अलग करने के प्रयत्न करता है -- परिणाम में वेग और गहरे बढ़ते हैं। ये वेग बढ़ते चलते हैं और फिर जीना कठिन हो जाता है। यह सब व्यक्ति अनजाने, बिना किसी दृष्टी के -- अन्धेपन में करता चलता है। वह पुरा अवैज्ञानिक और गलत दृष्टी को लिए चलता होता है। मैं अभी अनेक साधु ओं से मिलाः कहा उन्होंनेः 'धन में, पुत्र में, पत्नी में कुछ भी न था -- संसार में कोई अर्थ न था -- इससे छोड़ दिया।'
मैं पूछाः यह आप जानते हैं कि कोई अर्थ न था -- कि केवल ग्रन्थों से पढ़ा और छोड़ दिया। क्योंकि जब अर्थ ही न था तो छोड़ने का प्रश्न ही नहीं होता है -- जब तक भी अर्थ है - तब तक ही छोड़ना और कुछ पकड़ना होता है। संसार छोड़ा तो प्रभु को पकड़ा -- पहले अर्थ संसार में था -- अब अर्थ प्रभु में हो गया - केवल दिशा परिवर्तन है -- भीतर बात ठीक वैसी की वैसी ही बनी हुई है। ठीक से आप समझेंगे तो स्पष्ट होगा कि ऐसा व्यक्ति संसार में अपने 'मैं' को या 'अहँ' को तृप्त नहीं कर सका तो प्रभु में अपने अहँको तृप्त करना चाहता है - और बड़ा अहँकारी होता है। सीमा के घेरे में अपने को तृप्त न पा और बड़े--घेरे खड़ा करता है -- और बात भीतर से पूर्णतः तृप्त करने की बनी रहती है।......
मेरा देखना है कि वृत्तिओं से लड़ियें मत उनको लड़कर केवल मजबूत किया जा सकता है - मुक्त नहीं हुआ जा सकता है । व्यक्ति को
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उन वृत्तियों से परेशान होने का, अपने को पापी समझने का और लड़ने का कोई कारण नहीं है। जानना है कि ये सारी वृत्तियाँ मुझे मिली हैं -- प्रकृति से उनका मिलना हुआ है। सब निसर्ग से है और प्रकृति से मिला है। इसमें कुछ भी भला और बुरा नहीं है। ये केवल मानवीय स्वाभाविक वेग हैं। केवल प्राकृतिक है। इसमें भला और बुरा कुछ भी जोड़ने जैसा नहीं है। पीड़ा का प्रारंभ तब शुरू होता है -- जब इसमें हम भला और बुरा सयुंक्त करते हैं -- अन्यथा कोई कारण नहीं है। इस व्यर्थ की उलझन में पड़कर ही भारत ने अपना सब आन्तरिक स्वास्थ्य खो दिया है। आज जैसी पीड़ा और परेशानी का बोध लाखों चेहरों से होता है -- ऐसा केवल ठीक से मामले को न समझने से हुआ है। सारे नैतिक साधक और धर्म को केवल बाहरी सतहों पर देखने वाले साधक इसी भ्रम में चलते और उपदेश करते कि यह बुरा है, इसे छोड़ो, वह अच्छा है उसे पकड़ो। यह मात्र अवैज्ञानिक है। और व्यक्तिव को व्दन्द में उतारकर केवल उसे तोडना है, सृजित नहीं करना है। ठीक से आप समझें तो स्पष्ट होगा किः वृत्तियों को केवल सहज स्वीकार करना है यह जानकर कि ये सारी वृत्तियें मात्र प्राकृतिक हैं और सहज हैं। जैसे ही आप इनको सहज स्वीकार करते कि अपने से एक मुक्त बोध या एक सुलझाव मालूम होता है। इस सुलझाव का मालूम होना ही बड़ी बात है -- कारण कि लाख - लाख लोग प्रयत्न करते लेकिन जरा भी Release अनुभव नहीं करते -- वरन् गांठें और गहरी बंधती जाती हैं।
बाद -- जैसे ही आपने पूर्ण स्वीकृति वृत्तियों को दी कि सम्यक् जागरण का दिया जलाना होता है। इस जागृति के प्रकाश में -- अपने से वृत्तियाँ विसर्जित होती हैं। जैसे ही व्यक्ति पूर्ण जागृति में हुआ कि पाया जाता कि वह वृत्तियों के पार हो गया है। इस सम्यक् वैज्ञानिक दृष्टी में जब व्यक्ति हमेशा हो आता -- तो वह सहज समाधी में होता है। हर क्षण सम्यक् जागृति का दिया जलता रहे -- तो परिणाम
200 - 201
में व्यक्ति जीवन - मुक्त अवस्था में होकर -- वृत्तियों के पार हो आता है। इसे पूर्णतः शुद्ध विज्ञान की दृष्टी से समझना होता है और परिणाम अपने से प्रभावशील होते हैं।....
[११/५/६३रात्रि को आये हुए उत्सुक व्यक्तियों के बीच दिया गया प्रवचन जिसे श्री राम मिश्रा के प्रसंग पर कहा गया।]


जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में -- कला में, काव्य में, सौंदर्य में, रस में, वार्तालाप में, विनोद में, चिन्तन में, साहित्त्य में, दर्शन में, विज्ञान में, जीवन के हर छोटे -- मोटे कार्य में जो एक सहज सम्यक् स्थिति है--परिपूर्ण आनन्द और शान्ति की पृष्ठभूमि में -- उसे प्रभु की अनोखी कृति कहकर भी मैं कुछ नहीं व्यक्त कर पा रहा हूँ -- सब अनोखा होते हुये भी सहज है और मूर्त रूप है। मैं नहीं जानता -- मेरे में और निकट आये व्यक्तियों में क्या घटने को है -- क्योंकि जीवन्त सत्य अपनी पूर्ण आभा पर झरता हो और सब अतृप्त रहें -- यह तो संभव ही नहीं है। केवल एक ही संभावना है कि व्यक्ति का समग्र व्यक्तित्व खिल उठे और इस महाकृति का एक - एक अंग बन रहे।.. ऐसा ही होना है -- लाखों मूर्त चेहरे उस महाकृति के अंग होकर एक अभिनव रूप में अपना सारा कुछ समर्पित करने को हैं।
202 - 203
अपने समय पर वह भी चेतना के इस बाह्य आवरण में अपने पूर्ण विकसित रूप में जब सारा कुछ उदित होता तो उस असीम के वैभव को क्या कोई जान सकेगा -- दृष्टि होगी तो देख लिया जायगा, समवेदनायें होंगी तो अनुभूत कर लिया जायगा। सारा कुछ अद् भुत और अनोखा होने को है। जगत सत्ता के दर्शन के बाद जो भी कहा जाता उसमें एक अलौकिकता और अनुभूति की असीमता होती -- केवल बुद्धि का संजोया खेल नहीं होता है।...
जीवन में कहीं भी टूटना नहीं हैं, वरन् समग्र में हो आना है। इसीसे भेड़ाघाट के संगमर्मर की भव्यता को अनेकों प्रसंगों पर कहा है। आज भी कहाः
बिना पूर्णिमा के चांद के भेड़ाघाट देखा ही नहीं जा सकता। पूरा चांद हो और मध्य रात्रि का समय -- उस समय -- सारा संगमर्मर का वैभव खिल उठता है -- सब धवल हो जाता है। सौंदर्य की पूर्णता वहाँ होती। इस समय आप बीच संगमर्मर की चट्टानों को काटती नर्मदा में -- नाव से चलिए -- सारे संसार से टूटकर थोड़े समय को आप वहाँ ही केवल हो आते हैं। निचे चट्टानों का बिम्ब होता और ऊपर दूर - दूर तक खड़ी संगमर्मर कीचट्टानें चांद की रोशनी में -- पूरी स्वप्निल हो आतीं -- सब स्वप्न सा हो आता और लगता कि जैसे स्वप्न घट रहा है -- यथार्थ में तो यह क्या होगा! इतना भव्य और सौंदर्य युक्त स्थल दिन में देख लिया जाय तो कुछ भी देखने जैसा नहीं होता और एक गलत भाव - बोध मन पर बनता है। भेड़ाघाट की मानो यह हत्या है। हुकूमत की रोक होना चाहिए कि केवल चांद के पुरे होने के आसपास ही रात्रि को ही यह केवल स्थल देखा जा सके। पश्चिमी मुल्कों में इस तरह की व्यवस्था की है। मेरे एक प्रोफेसर थे -- उन्होंने भेड़ाघाट २-३ बार देखा था। मेरे साथ रात्रि मैं दिखाने ले गया। उन्होंने यूरोप और अमरीका के मुल्कों में
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अनेक स्थल देखे हैं -- लेकिन बाद उस दिन देखकर बोलेः 'मैं इसे रात्रि न देखता, तो इतना स्वप्न सा, भव्य और सौंदर्य स्थल ही न देख पाता और ऐसा तो विश्व में -- मैं अपने भ्रमण में आज तक न देखा था।'
लेकिन देखने में -- समय तो ठीक रखा ही हों -- पर साथ में सौंदर्य समवेदना युक्त व्यक्ति हों -- तो ही देखना पूरा हो पाता है। अन्यथा सौन्दर्य - बोध हीन व्यक्ति हों तो कुछ भी अर्थ नहीं होता है।....


चर्चा किसी एक बिन्दु पर हो -- लेकिन उसमें से अनेक उप - प्रश्न निकला करते और उन पर भी चर्चा होती -- और इस तरह अपने पूर्ण रूप में चर्चा पूरी होती है।....
पूछा गयाः 'साथ सौन्दर्य समवेदना युक्त व्यक्ति हों -- ऐसा क्यों?
व्यक्ति की उपस्थिति आप पर प्रभाव डालती है। आप अभी बाहर से बंधे हैं और इस से सारे प्रभाव आप पर बाहर के आते हैं -- आप अकेले रास्ते पर जाते होते -- तो कुछ और होते, पास से कोई निकल जाये तो आप कुछ और होते हैं। मेरे समीप होकर -- मैं आपसे कुछ बोलूँ भी न -- तो भी आप अपने में कुछ और हो जाते हैं। सारा आपका होना बाह्य निर्भर है। इससे ही उपस्थिति का महत्व है।...
सौन्दर्य बोध में हो आये - व्यक्ति आप पर सहज ही सौन्दर्य के प्रभाव को छोड़ते हैं और आप सौन्दर्य - बोध को कर पाते हैं। अन्यथा आप भीतर से बिनाँ किसी भाव के
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कोरे ही बने रहते हैं।....
अभी यहाँ गांधीजी हों तो आप कुछ और ही हो जायेंगे। आप अपने सारे समय में कुछ न कुछ होते ही हैं। सारे समय आपका अभिनय चलता है। आप अपने Bath में जो गाना-गुनगुनाते होते -- कोई आ रहे तो आपका गुनगुनाना बन्द हो जाता है। ठीक अपने में -- पूर्ण आंतरिक जागरण में -- सम्यक् चैतन्य के बोध में हो आया व्यक्ति -- आपसे या किसी और के होने न होने से किसी भी तरह से बंधा नहीं है -- वह ठीक एकसा है -- आप चाहे हों या न हों -- उसके कार्य आपसे प्रभावित नहीं हैं -- वह जो करता होता -- अपने में होकर पूर्ण रूप से वह करता रहता -- कोई भी स्थिति उसके आंतरिक स्थिति में भेद नहीं लाती। साथ ठीक सौन्दर्य को उपलब्ध हुए व्यक्ति हों -- तो ठीक है -- अन्यथा कोई और व्यक्ति भी उसके लिए कोई अन्तर नहीं लाते हैं।


'साधु तो समवेदना शून्य होता -- फिर उसे जगत के सारे सौंदर्य का बोध कैसे होता?'
एक अजीब सी अस्वस्थ भ्रान्ति साधु के जीवन के सम्बन्ध में है। उसका कारण है कि स्वस्थ्य आध्या-त्मिक व्यक्ति का मिलना -- दुर्लभ हो गया है। मेरा देखना है कि साधु ठीक अर्थों में समवेदनाओं को अनुभूत करता है। समवेदनायें तो होती हैं -- लेकिन उसकी प्रतिक्रियायें नहीं होतीं। अभी आप बाहर कुछ भी देखते तो उसकी प्रतिक्रिया आप पर होती है। कुछ भी घटित होता भला - बुरा आप पर घटित होता। ये प्रतिक्रियायें न हों -- इससे सूरदास जैसे लोग आंख फोड़ते, लेकिन इससे हल नहीं होता है -- भीतर और वेंग से प्रतिक्रियाएँ होना शुरू होती हैं। बाहर से जो भी आपके मन पर गलत प्रभाव डालता हो -- उसके प्रति आप अपने को बन्द कर लें -- यह कोई हल नहीं है। गांधीजी ने तीन प्रतिक चिन्हों का बन्दर रख छोड़ाः बुरा मत देखो, बुरा मत बोलो, बुरा मत सुनो। इस निमंत्रण से कुछ भी होने को नहीं है। इसका तो अर्थ है -- अभी आप पर प्रतिक्रियायें होती हैं -- बुरा आप में शेष है -- अन्यथा नियंत्रण किस बात का।
208 - 209
मैं नहीं देख पाता कि कहीं भी कुछ बुरा और भला है। कुछ भी बुरा और भला कहीं नहीं है। सारा कुछ केवल मात्र तथ्य है। मैं भीतर से -- पूर्ण चैतन्य में -- जागृत हूँ -- तो अब जगत के ठीक ऐसा ही रहने को है -- उसमें कोई परिवर्तन नहीं होना है -- वरन् मेरी सारी इन्द्रियाँ पूर्ण स्वस्थ्य होंगी -- उनसे सारा कुछ स्पष्ट दिखेगा -- समवेदनायें होंगी -- लेकिन उनकी प्रतिक्रिया नहीं होगी। स्त्री तो होगी, सब कुछ स्पष्ट दिखेगा -- लेकिन प्रतिक्रिया विसर्जित होगी। सारा आयोजन होगा -- लेकिन मैं मात्र दृष्टा ही होने को हूँ। पातंजलि ने कहाः 'चित्त - वृत्तियों का निरोध योग है।' एक समय राज्य के राजा का यज्ञ समाप्त हुआ -- पातंजलि भी बाद -- वेश्या ओं के नृत्य में उपस्थित थे। कुछ शिष्य देखने गए। बाद एक शिष्य जब पातंजलि, योग पर समझाते थे, पूछाः और क्या वेश्या ओं का नृत्य देखना ही चित्त-वृत्तियों का निरोध है? पातंजलि ने कहाः ठीक, मैं राह देखता था -- आज तुमने पूछ ही लिया -- मैं जानना चाहता था -- कौन पूछता है? पातंजलि बाद बोलेः मैं नृत्य बाहर देखता था, लेकिन मेरे भीतर कोई नृत्य न होता था। कोई प्रतिक्रिया न थी। मैं मात्र दृष्टा था, साक्षी चैतन्य में था। इस पृथक बोध में हो आना -- ठीक आध्यात्मिकता है। अन्यथा सारा कुछ कचरा है और उसका कोई आन्तरिक जीवन से अर्थ नहीं है।...
बाहर से ठोक कर अपने को जड़ कर लेना मात्र व्यक्तित्व को विकृत कर लेना है। मुझे कोई प्रेम से हाथ मिलाए -- और हैं जड़ रहूँ -- तो अजीब सा है! हाथ तो मैं मिलाऊँगा, सहज प्रेम की अनुभूति भी होगी -- लेकिन उसके प्रति कुछ और अपेक्षा न होगी।...
मैं बगीचे में फूल के करीब से निकलूँ, तो सौन्दर्य बोध पूर्ण होगा -- लेकिन कुछ और कि मैं -- उसे तोड़कर अपनी मिल्कियत बना लूँ, या फिर मैं उसके सौंदर्य से अपने को बन्द कर लूँ, आंख बन्द कर लूँ। ये दोनों ही ना-समझी की स्थितियाँ हैं। तीसरी स्थिति ही कि सौन्दर्य - बोध तो पूरा है -- लेकिन उसके प्रति कोई प्रतिक्रिया नहीं है -- सहज ज्ञान की सम्यक्
210 - 211
स्थिति है।
बुद्ध इस अर्थ में एकदम वैज्ञानिक थेः और कहाः न भोग की अतिशयता और न त्याग की अतिशयता -- दोनों विकृत हैं -- सहज मध्य की न ज्यादा भोग और न ज्यादा त्याग -- सम्यक् सन्तुलित स्थिति जीवन का मार्ग है।
इन आधारों पर चर्चा का क्रम चला हुआ था कि बीच श्री त्रिपाठी जी बोलेः
'दया की मन में प्रतिक्रिया हो -- तो फिर दया करना चाहिए या नहीं?'
प्रतिक्रिया हो -- तो जानना है कि यह मन की सामान्य स्थिति है। इसमें सोचना पड़े और तब दया हो -- तो दया हुई नहीं। मुझे दया के लिए भी सोचना पड़े -- तो जानना चाहिए -- मन में अभी सीमायें हैं। मन असंदिग्ध और सहज नहीं है। वह संदिग्ध है और सोचता है। घटना सहज जिसे हम Spontaneous कहें -- वैसी नहीं है। उसमें में भी मन का खेल है। अभी मैं सफर पर था, साथ दो लखपति थे। एक भिखारी आया -- दोनों सोचते थे - देना अच्छा या नहीं। भिखारी चला गया। मैं पूछाः आप जो ये सब सिद्धान्त की बातें किए -- तो क्या केवल इस कारण कि देने से बच जायें - तो आप अपने को धोखा दे रहे हैं -- इससे बड़ा खतरा है -- और यों मनुष्य बड़े सिंद्धातों के पीछे अपने को बहुत धोखा देता रहता है। इसे आप समझे -- स्थिति स्पष्ट होगी।...
आज तक बहुत कम लोग हुए -- जिनने दया की, प्रेम किया, आनंद बहाया -- यें सब सहज आन्तरिक घटनायें हैं। ये होती तो ही होती हैं -- अन्यथा विचार के -- खींच कर कुछ भी नहीं किया जा सकता है। आज तो स्थिति विचित्र है -- नमस्ते भी आप विचार कर करते हैं -- या केवल यंत्रवत् कर लेते हैं। सहज कुछ भी नहीं है -- सब उलझा और प्रतिक्रिया जन्य है। इससे भिखारी भी जानता --
212 - 213
अकेले में भिक्षा मांगना ठीक नहीं, चार लोग हों तो भिक्षा मांगू -- भिक्षा मिल जायगी -- क्योंकि आप भिक्षा देने को बाध्य होते -- कारण कि और लोग क्या सोचेंगे? इसमें दया कुछ भी नहीं है -- केवल एक व्दन्द है।
मेरा देखना है कि दया सहज है। जैसेः प्रेम सहज है। कोई पानी में डूबता हो, तो उसका डूबना नहीं और आपका कूदना नहीं -- सहज दया है। इसमें भी आप सोचें - तो उसका अर्थ आप जान सकेंगे। फिर खींच कर आपने कुछ किया भी तो सबमें आप प्रचार करेंगे -- क्योंकि दया अपने में कुछ अर्थ न रखती थी -- और अपेक्षा होगी कि एक Reporter साथ होता और Photo-grapher भी साथ होता -- अख़बारों में नाम होता। ये सब मात्र औपचारिक मन की स्थिति है। लेकिन सामान्यतः ऐसी ही दया, दान, का आज कल प्रसार है -- उसका आतंरिक सहज अनुभूति में अपने में होने से कोई अर्थ नहीं है। इससे आज का सारा शिक्षण चिल्ला-चिल्ला कर कहताः आदर दो, प्रेम दो, दया दो, सत्य बोलो जैसेः सब ऊपर से लाद कर आ जायगा। यदि आना होता तो हजारों वर्षों से शिक्षण चल रहा है -- कभी की सारी शिक्षण जीवन में आ गई होती, ऊपर से चिपकाया कुछ काम नहीं देने का -- कभी भी वह टूटता है और क्षण- क्षण में टूटता है।
भीतर सहज जीवन के सत्य में जब व्यक्ति होता तो उससे फिर अपने से Action होता Reaction नहीं। सहज Spontaneous क्रिया होती -- उसमें दया, प्रेम, करुणा, सहानुभूति सारा कुछ होता है। कुछ और लादना नहीं होता है -- सब सहज होता है -- उसका अपना श्रेष्ठ आन्तरिक अनुभूति का आनन्द होता और बात समाप्त हो जाती है।....
214 - 215
इस मई माह में अनेक प्रसंग उपस्थित हुये। सारे प्रसंग केन्द्रीय रूप से -- 'शुद्ध चेतना' की स्थिति में हो आने से संबंधित होते हैं। अनेक प्रश्न कर्ता हैं -- 'ध्यान योग' पर भीतर कार्य भी करते हैं -- और अपने मन को साफ -- साफ समझते हैं। कितना भी सुनें -- एक सतत् उसका क्रम बना रहता है और ठीक केन्द्रीय बिन्दु पर हो आने की उत्सुकता व्यक्ति की अपने से होती है। साधक गण -- जीवन के सामान्य क्षेत्रों से हैं -- सभी विभिन्न स्थिति और क्रम में हैं -- लेकिन अपने 'स्व केन्द्र' में हो आने में सतत् जागरूक हैं। यह जागरूकता ही उनको अपने -- केन्द्र में ले आने को है। २० वी शताब्दी में यह सब एकदम अद् भुत है। आदमी इतना संदिग्ध और तनाव में हो आया है कि भीतर से उसकी गहरी आस्था और शान्त जीवन दृष्टि में हो आना -- एकदम आश्चर्य जनक है। फिर यह सब भीतर से होता है -- बाहर से नहीं जो कभी भी टूट सकता है। सारे जीवन को देखता हूँ -- और एक दृष्टि डालता हूँ -- तो अजीब विस्मय से भर आता हूँ -- सब होता पर केन्द्र पर व्यक्ति सोया रहता, पहिली बार केन्द्र में होकर व्यक्ति अपने अमृत स्वरूप में होता है।
इस माह भगवान -- बुद्ध जयन्ती समारोह में भाग लेना हुआ। भगवान बुद्ध की वैज्ञानिक जीवन -- दृष्टि को समझाया। एक अभिनव प्रकाश का स्त्रोत वाणी से अभिव्यक्त हुआ। लगता है -- अपने से हजारों - लाखों जीवन -- केन्द्र में अपनी सत्ता में होकर जीवन -- मुक्त हो रहेंगे। यह घटना अपने में अद् भुत होगी। एक शाश्वत क्रान्ति है -- जो अपने से होने को है।
बुद्ध का धर्म पूर्ण वैज्ञानिक है। उसमें आस्था, श्रद्धा, अंधविश्वास को स्थान नहीं है। जहाँ बुद्ध खड़े हुये -- वहाँ प्रत्येक व्यक्ति हो रहे -- इसकी ओर उनकी सम्यक् वैज्ञानिक जीवन - साधना की देन् विश्व को है। जो बुद्ध को दिखा-- वह सबको दिख सकता है -- इस अर्थ में प्रत्येक मानवीय चेतना की महिमा को बुद्ध ने स्वीकार किया है। कोई भी उनकी जीवन - साधना में होकर -- उनका मित्र हो आ सकता है। यह सहज घटना है। इसमें कोई कठिनाई या उलझाव नहीं है।...
बुद्ध ने 'भय' को धर्म का आधार नहीं माना। भय पर खड़ा कोई भी धर्म
216 - 217
व्यक्ति को पूर्णता नहीं देता -- और न ही जीवन -- मुक्त करता है। जहाँ भी भय है -- वहाँ केवल बाह्य आचरण है -- भीतर कुछ भी दिव्य वहाँ नहीं है। इससे ही लाख - लाख लोग पुरे जीवन दौड़ते -- लेकिन कहीं भी पहुँचना नहीं हो पाता है। ठीक -- व्यक्ति जब -- जीवन मुक्त होता है तो अभय में होकर -- पूर्ण आनन्द तथा शान्ति में हो आता है। भय से बंधना है -- अभय मुक्ति है।....
बुद्ध ने सारे जीवन को देखा -- सारे वैभव की, ज्ञान की उनको - उनके समय के अनुसार प्राप्ति थी। लेकिन फिर भी देखा -- जन्म है - जरा है - मृत्यु है -- और दुख ही दुख है। कहा उन्होंनेः मेरे गृह में आग लगी है -- और इसे जाना -- बाद मुक्ति पथ पर चले। बुद्ध ने कहाः 'जीवन दुख है।' इस तथ्य को उन्होंने जाना, ठीक से दुख का बोध होना व्यक्ति को दुख के पार ले चलता है। सामान्य जीवन दुख में होता -- लेकिन व्यक्ति उसे भूल जाता है। वह उसे भूलता है और इस आशा में कि आगे सुख होगा -- वह जीता चलता है। यह आत्म - विस्मरण की प्रकृति ने व्यक्ति को गहरी मूर्च्छा दी है। जिस दुख को व्यक्ति ठीक से जानकर -- उसके पार हो आता -- भूलकर व्यक्ति अपने को पुनः सीमाओं में घेर लेता है। कहा हैः 'दुख वरदान है।' वह इसी कारण कि दुख को जानकार व्यक्ति दुख के पार हो आता है। लेकिन आदमी के अज्ञान में घनी जीवेष्णा है -- जीवन को बनाने रखने का उसका गहरा मोह है -- इससे ही सारी विषाक्त स्त्थितियों में व्यक्ति जीता चलता है।.... बुद्ध ने यह जाना -- और मुक्त -- जीवन - पथ पर बढे।...
बुद्ध अपने समय के सारे धार्मिक गुरुओं के मार्ग पर चले, अथक प्रयास किये और शरीर की ६ वर्षों तक कृश किया। परिणाम में -- कुछ भी उपलब्ध न हुआ। भीतर से अतृप्ति बनी रही। एक सुबह -- रात्रि आराम से सोकर -- जब बुद्ध उठे -- आकाश में भोर का तारा था -- समस्त तनाव और प्रयास को छोड़कर -- एकदम शांत बैठे थे -- उसी क्षण उनको बुद्धत्व हुआ। सत्य की अनुभूति हुई और गहरे आनन्द तथा शान्ति से भर आये। इससे बुद्ध ने नहीं कहा कि 'कुछ करके प्रभु को पाया जा सकता है, वरन् जब सब करना छूटता है -- तो उस प्रयास शून्य स्थिति में -- व्यक्ति असीम से
218 - 219
एक हो जाता है।' बुद्ध का यह जीवन - दर्शन अद् भुत क्रान्ति का है और एक वैज्ञानिक तथ्य को उद्घाटित करता है। इस सत्य अनुभूति में -- प्रत्येक को अपने भीतर होकर होना होता है, कोई परम्परा, ग्रन्थ, गुरु, या अनुगमन इसमें सहायक नहीं है -- वरन् ये सारी बाधायें हैं और व्यक्ति को 'स्व' तक पहुँचने में रुकावट हैं। सत्य -- परम्परा से या दुहराने से नहीं मिलता उसमें प्रत्येक को होना होता है। यह जीवन -- दृष्टि समझ में न आये -- तो बुद्ध को समझा नहीं जा सकता है।.....
बुद्ध ने चलते आये विश्वासों को नहीं दुहराया। कहा उन्होंनेः 'ईश्वर नहीं है।' इसमें उनका विशेष अर्थ था। कोई भी धारणा ईश्वर की करना -- केवल एक मानसिक प्रक्षेप (Mental Projection) होगी। इससे ही ईश्वर के संबंध में व्यक्ति कोई धारणा न कर सके तो कहा ईश्वर नहीं है। ठीक से सम्यक् वैज्ञानिक आधारों पर धर्म को बुद्ध ने प्रतिष्ठित किया। आज अब Mental Projection पर बहुत काम हुआ है और स्पष्ट हुआ है कि धारणा को अपने में देख पाना आसान है। इससे अब कल्पित आधार पर जो भी प्रभु को मानता है, वह एक बड़े भ्रम में चलता है। प्रभु के संबंध में कोई धारणा नहीं, विचार नहीं -- 'शून्य मनः - स्थिति में जो भी जाना जाय -- वह ही केवल वास्तविक है। अपने में पूर्ण और अनुभूति मय है।.
बुद्ध ने फिर कहाः 'आत्मा नहीं है।' यह भी एक अद् भुत क्रान्ति का कदम था। व्यक्ति यह मानकर कि आत्मा है और अमर है -- अपने को समझाये चलता है और जो मिट जाने का भय है -- उसके स्थान पर रखकर अपने को भुलाये रखता है। यह भी मन का एक सुख है -- जिसे व्यक्ति लेता चलता है। इसे भी बुद्ध ने तोड़ा और जानकर तोड़ा और केवल कहाः 'निर्वाण है।' सब समाप्त है और जीवन - मुक्ति है।......
इस अद् भुत धार्मिक क्रान्ति दृष्टा ने जो कहा आज से २,५०० वर्ष पूर्व -- आज वह वैज्ञानिक आधारों पर प्रमाणित है और नविन शोधें पश्चिम में तीव्रता लिए हुये है। जिनसे बुद्ध की बात प्रमाणित होने को है।...
220 - 221
बुद्ध ने कहाः पदार्थ और चित्त जिस पर विचारों का प्रवाह है -- ये दोनों भ्रम हैं। आज विज्ञान ने प्रमाणित किया कि पदार्थ नहीं है -- केवल -- तीव्र गति से घूमते हुए अणु हैं -- जो ठोस रूप में पदार्थ का निर्माण करते हैं। ठीक से समाधी में होकर जाना जाता की विचार की भी कोई सत्ता नहीं है -- केवल शुद्ध चेतना है -- और यह अद् भुत है। बुद्ध का यह वैज्ञानिक दृष्टिकोण है।....
कौनसा मार्ग है -- जो व्यक्ति को शुद्ध चेतना में ले आता है। बुद्ध ने कहाः केवल क्षण का अस्तित्व है। सारा अतीत मृत है और भविष्य अज्ञान में है। मात्र एक क्षण है। ठीक क्षण में होकर हम स्मृति और कल्पनाओं के बाहर होकर -- शुद्ध जागृत चेतना में होते हैं। यह होना ही व्यक्ति का श्रेष्ठ जीवन में होता होना है। जब कुछ नहीं रहता -- केवल जों क्षण है हम उसीमें होते -- तो सहज चैतन्य के बोध से भर आते हैं। इसे आप अभी करें -- और बात आपको स्पष्ट होगी।
इन क्षणों में आपको अपना होश बनाए रखना है और कुछ नहीं करना है। बस केवल होश मात्र शेष रह जाये और सब कुछ मिट जाये तो घटना पूरी हो जाती है। चौबीस घन्टे, उठते, जागते, सोते, चलते -- समस्त क्रियाओं के क्षणों में होश (जागरूकता) बनी रहे -- तो जो भी अज्ञात चैतन्य का जगत है -- उसके बोध से व्यक्ति भर आता है -- और अभिनव आनन्द तथा शान्ति में होता है। सारे दुख -- सुख उसके विसर्जित होते हैं और वह एक निष्ठ चेतना में हो आता है।…
बुद्ध ने कहाः कुछ पाना नहीं है, वरन् जो भी जाना है -- उसे रिक्त करना है। केवल शून्य हो रहना है। मात्र शून्यता और कुछ भी नहीं। इस शून्य में होने पर व्यक्ति प्रबुद्ध होता, अपने केन्द्र में होता और जीवन -- मुक्त होता है।....
*
[जबलपुर १२ और १५ मई' ६३ -- बुद्ध जयन्ती की चर्चाओं से]
222 - 223
प्रभु -- तेरे जगत का क्या कहना! तूने बहुत अद् भुत रचना की है -- जो भी है -- अलौकिक है। अगम्य प्रेरणा स्त्रोत, असीम प्रेम, करुणा, का महासागर, पवित्रता की उज्जवलता,व्यक्तित्व की गरिमा, ज्ञान का तेज, आकर्षण का पुंज -- फिर भी -- अकृतघ्न अतृप्त रहें -- प्यासे रहें -- तो एक दुख है। जानना है कि प्रकाश हो तो अंधेरा विलीन होता है -- फिर जागृत चैतन्य का प्रकाश हो तो क्या कोई भी अंधेरे में रह सकता है। मैं और सारे जन (जब लिखता हूँ तो लगता है कि यह लिखने का कोई अर्थ नहीं -- क्योंकि जो है वह तो है।) जीवन के इस अंधेपन को देख पा रहे हैं -- और यह देखना ही अंधेपन से मुक्ति देगा -- तो अपने से तेरे प्रति कृतज्ञ बोध को कैसे भी व्यक्त करें -- कुछ भी न कर सकेंगे। तेरे संबंध में कुछ भी कहकर जाना नहीं जा सकता है। कितना अटूट तेरा जीवन दृष्टिकोण है -- जिसमें जीवन का सारा कुछ अभिव्यक्त है।
पूछा था ध्यान योग के साधक नेः
'किसी को एक क्षण में ध्यान की घटना घटती है तो किसी को वर्षों लगते हैं -- ऐसा क्यों हैं?'
हमारा सारा सोचना कारण और कार्य पर चलता है। जो भी सोचना कारण और कार्य पर है -- वह केवल सीमा में बंधा है। यह मनुष्य की सीमा में है। वह कारण खोजता फिरता है। 'ऐसा क्यों?' जानना है कि सारे कारण -- केवल क्षुद्रता के संबंध में होते हैं -- और सारी महानता के पीछे कोई कारण नहीं होते हैं। बस केवल तथ्य हैं। स्वयं जीवन अपने में बिना कारण का है -- बस जीवन है। हम कारण खोजते हैं और कारण जानकर अपने को बचा लेना चाहते हैं। आपको ठीक यही होगा कि कोई कहे कि यह तो अपने पूर्व संचित कर्मों का फल है। यह भ्रान्त है। इससे आप अपने को समझा ले सकते हैं। मेरा देखना है कि कोई कर्म और संस्कार बाधा नहीं हैं -- केवल आप ही बाधा हैं। यदि आप कारण पर जाते हैं तो जानना चाहिए कभी तो व्यक्ति और सारे साथ के व्यक्ति -- शुद्ध रूप में अपने प्रारंभ में प्रकृति से संयोग करके -- एक रहे होंगे -- फिर कर्मों में पृथकता क्यों?
224 - 225
सभी चेतना के जगत में एक जैसे हैं -- और जैसे ही ठीक बोध हुआ कि उसी क्षण घटना घटित होती है। मैं नहीं कहता कि पूर्व जन्म और संस्कार बाधा हैं -- सब मात्र भुलावा है -- ठीक से जानो तो बात इसी क्षण घटित हो जाने को है।
केवल हमारी इच्छा पाने की होती है। हम प्रभु को भी पाना चाहते हैं -- जैसे हम बाहर सौदा करके -- श्रम करके -- कुछ पा लेते हैं -- ठीक ऐसे ही हम प्रभु को भी पाना चाहते हैं। पाना जैसा वहाँ कुछ भी नहीं है -- बस केवल अपने को खोना है। कुछ तैरके नहीं पाना है -- केवल अपने को शान्त बहाव में छोड़ देना है - अपने से जो होना है -- होगा। एक डबरे में हमने अपने को बन्द रखा है -- इसे खोल देना है -- कुछ और नहीं करना है। जैसे ही मुक्त व्दार खोला कि अपने से प्रकाश आता है। कोई कहे कि प्रकाश को बांधकर लाना होता है -- तो भ्रान्ति होगी। मुक्त खोलना होता है -- अपने से प्रकाश आता है। हम पाने की आकांक्षा में कुछ नहीं गति कर पाते। अभी एक जन अपने दूसरे साधक से पूछते थेः क्या अनुभव हुआ? यह भ्रान्त है -- हम पाना चाहते हैं -- कुछ भी पाने को नहीं है। पाने जाओगे तो खो दोगे। यह पाने की आकांक्षा ही बाधा बनकर खड़ी होने को है। अम-रीका में स्वामी विवेकानन्द का एक बुढ़िया ने प्रवचन सुना। उसने बाईबल का एक वाक्य सुना कि 'Faith can move mountains.' अब यह बुढ़िया अपने घर के पीछे की पहाड़ी को दूर हटाकर बाग़ लगाना चाहती थी। ४-५ बार प्रभु से प्रार्थना की -- और जानती थी कि अरे! कुछ होना है! लेकिन कहना चलता रहा। अब इस भ्रान्त और संदिग्ध मनःस्थिति में कुछ होने को नहीं। आप यहाँ १५ मि० बैठते हैं - तो कुछ चमत्कार होगा, स्वर्ग, नर्क और ईश्वर - दर्शन होगा -- यदि ये सारी धारणायें
226 - 227
हों -- तो आप भ्रान्त हैं। जानना है कि आप कुछ नहीं कर रहे हैं -- केवल शान्त ही बैठ भर रहे हैं और अपने को मुक्त छोड़ रहे हैं। इस मुक्त छोड़ने में जो अपने से होगा - होगा -- उसकी कोई फिक्र आपको नहीं करना है।...
ठीक सम्यक् बोध में हो आयें - तो दूसरा क्षण नहीं लगता और बात पूरी हो जाती है। कोई अंधेरा प्रकाश को नहीं मिटा सका कोई अज्ञान -- ज्ञान को नहीं छिपा सका -- केवल आपके सम्यक् मनः स्थिति में होने की बात है और अपने से सारा कुछ होगा।
[ध्यान योग सत्रः २५/५/६३ जबलपुर]


हमारा सामान्यतः देखना समय के साथ चलता है। किसी को कम समय का लगना और किसी को अधिक लगना -- समय का यह सापेक्ष (Relative) विचार मन का है। सारी घटनायें हमारी समय के भीतर घटा करती हैं और स्वभावतः व्यक्ति को कम या अधिक समय कां भाव बना रहता है। ठीक से ध्यान में होकर या जागृति में होकर या समाधी में होकर जाना जाता कि केन्द्र पर तो समय का प्रश्न ही न था। वहाँ तो यह कम समय का और अधिक समय का प्रश्न ही नहीं है। वहाँ तो मात्र केवल सत्ता में होना होता है, और समय के पार होने का स्पष्ट बोध होता है। समाधी कालातीत है। यह सम्यक् बोध व्यक्ति को मुक्ति का बोध है। यह निरपेक्ष होना है। जहाँ किसी भी तरह का कोई संबंध नहीं है। बस केवल होना मात्र रह गया है।....
228 - 229
अनेक प्रसंगों पर नीति और योग पर आचार्य श्री ने स्पष्ट विवेचन किया है। नीति या केवल नैतिक होना -- अशुभ को छोड़कर शुभ को पकड़ना है। बाह्य आचरण साधना है। इससे कोई साधु होने का और आध्या-त्मिक होने का संबंध नहीं है। नैतिक साधना से व्यक्तित्व में व्दैत होता है। बाहर से व्यक्ति आचरण पालता है लेकिन भीतर विरोध बना रहता है। बाहर वह शील का आचरण करेगा -- लेकिन भीतर कुशीलता बनी रहेगी। सत्य बाहर से थोपेगा - लेकिन भीतर असत्य होगा। ब्रम्हचर्य बाहर से पालन करेगा -- लेकिन भीतर रस बना रहेगा। एक संघर्ष में व्यक्ति चलेगा -- और विकृत तथा कुरूप हो रहेगा।...
ठीक सम्यक् योग के प्रयोग से -- भीतर जैसे -- जैसे व्यक्ति शालीन और आनंद में होकर -- शुद्ध चैतन्य में होगा -- वह पायेगा कि अपने शुद्ध रूप में होकर वह बाहर की सारी विकृतियों से मुक्त हो गया है। भीतर का विरोध विसर्जित हो रहेगा और व्यक्ति एक निष्ठ चेतना को उपलब्ध होकर परिणाम में अपने से नैतिक होगा। इससे ही मेरा देखना है कि बाहर से कुछ भी छोड़ना पकड़ना नहीं है -- केवल भीतर सम्यक् ध्यान के प्रयोग को करना है -- जैसे ही व्यक्ति शुद्ध चैतन्य में होगा -- अपने से वह परिणाम में विरोध से मुक्त होकर -- जो भी सार्थक है -- संगत है -- सहज आचरण उससे घटेगा। उसे कुछ करना नहीं होगा -- वरन् अपने से सारा कुछ होगा। भीतर संतत्व की घटना घटित होती है परिणाम में अपने से दिव्य आचरण बाह्य अभिव्यक्ति का माध्यम बनता है।
आपने नागार्जुन का उल्लेख किया। एक चोर गया था। उसे प्रतीक्षा न करनी पड़े -- इस कारण सोने का पात्र भेंट किया।
230 - 231
चोर मिला जाकर। बोला चोरी न छोड़ना पड़े -- तो आप जैसे आनन्द और शान्ति को मैं भी पाना चाहता हूँ। नागार्जुन बोलाः ठीक, चोरी छोड़ने को कहता कौन है? केवल उसने ध्यान का प्रयोग करवाया - और ७ वे दिन चोर बोलाः आप भी खूब हैं -- बड़ा धोखा किया -- मेरी चोरी जाती रही। मैं इतना शान्त हो गया कि अब चोरी करना असंभव हो गया है। नागार्जुन बोलाः वह तू जान -- इसमें मेरा कुछ भी नहीं -- जो तुझे चोरी करने से रोकता।...
अब यह ध्यान की साधना का परिणाम है। भीतर आनन्द और शान्ति की घटना घटती है -- परिणाम में अपने से सहज दिव्यता आती है। यह निति और योग में अन्तर दीख आये -- तो एक स्पष्ट जीवन -- दृष्टि मिलती है।....
--२६/५/६३ ध्यान योग सत्र जबलपुर


मेरा सामान्य धार्मिक शिक्षण से विरोध है। धर्म के सामान्य साधक केवल दमन करते हैं। मेरा अभी साधकों से मिलना हुआ है और पूरे जीवन की साधना के पश्चात् कहा गया -- कुछ भी मिला नहीं। आपको अपमान पहुँचाया जाय तो आप सहज में क्रुद्द होंगे, आपको सम्मान दिया जाये तो आप प्रसन्न होंगे। सामान्यतः कहा जायेगा कि अपमान को पी जाओ या सहन करो और सम्मान की उपेक्षा करो। यह भ्रान्त है। मेरा देखना है कि चेतना की एक स्थिति होती है, जब मन प्रतिक्रि - या शून्य होता है। यह स्थिति ही -- भीतर से आती है -- तो सामान्य घटनाओं और असामान्य घटनाओं के बीच व्यक्ति स्थिर होता है। यह स्थिर प्रज्ञा की स्थिति है। इससे मूलतः परिवर्तन भीतरी है। यह सम्यक् ध्यान के प्रयोग से अपने से होता है।
ऑस्पेन्स्की एक रुसी सन्त हुआ। व्यक्तित्व से वह पूर्ण साधु था। आदर और सम्मान भी खूब मिलता। लेकिन जब गांव में उसकी बात पूरी समझी जाती तो अनेक लोग अपमान करते और गांव से निकालते। उसके शिष्य ने लिखा -- सम्मान तक तो ठीक -- आत्म - गौरव होता पर अपमान में और गांव से निकाले जाने में तो आत्म--हत्या का मन होता।लेकिन ऑस्पेन्स्की को कभी पीड़ित न देखा। वह पूर्ण मौज में ही होता।
232 - 233
ईसा को सूली दी। साथ में दो चोर और थे। यह प्रदर्शित करने को कि ईसा भो चोर की श्रेणी से ज्यादा नहीं हैं। आखिरी रात जो भोज लिया - तो ईसा ने अपने शिष्यों से कहाः तुममें से ही कोई सुबह होते -- होते धोखा देने को है। सुबह होने के पूर्व ही ईसा को पकड़ा गया और बन्दी बनाकर ले जाया गया -- साथ के शिष्य से पूछाः 'तुम तो ईसा के शिष्य हो -- उत्तर में 'न' निकला।' ईसा ने कहाः देखते हो -- सुबह होने के पूर्व ही धोखा दिया। सूली पर ईसा गये -- तो शान्त थे और कोई प्रतिक्रिया न थी। सामान्य मनःस्थिति जरा में गड़बड़ा जाती है। उसमें प्रतिक्रिया चलती रहती है। इस प्रतिक्रिया से मुक्त होना कोई बाह्य प्रयोग से संभव नहीं है। प्रतिक्रिया शून्य होना -- एकदम आंतरिक घटना है। यह चेतना की एक विशेष अवस्था में ही -- पूर्ण जागृत चेतना की अवस्था में संभव है। ठीक से भीतर से जब यह स्थिति हो आती है तो आपको यह बात अपने से समझ में आ जायगी।...
२७/५/६३ [एक साधक के पूछने पर कि यदि प्रतिक्रिया शून्य हो रहें तो समाज में न रह सकेंगे। इस प्रसंग पर]


२८ एवं २९ मई '६३ 'ध्यान योग' वर्ग
प्रश्नः 'आप कहते हैं कि सुनना तो केवल सुनना, यह ध्यान के इस वातावरण में संभव है, लेकिन सामान्य जीवन में तो यह संभव नहीं है -- उसमें तो सोचना -- विचारना पड़ना आवश्यक ही है?'
सामान्यतः यह सामान्य जीवन में चलता है। ठीक सम्यक् सुनना होता ही नहीं है। अभी मैं बोलता हूँ आप २० लोग यहाँ सुन रहे हैं, लेकिन ठीक से जानियेगा तो स्पष्ट होगा कि में बोलता हूँ तो आप २० जन भी अपने भीतर बोल रहे हैं -- फिर सुनना कैसा? इससे बड़ा अजीब हुआ है -- मैं कुछ बोलता, आपके मन में चलते विचारों से जो कुछ आपके मन में अर्थ लिया जाता -- वह मेरा न होकर -- आपका होता है। सतत् चलते आये विचार -- प्रवाह के बीच -- कभी आप थोड़ा शान्त होते और कुछ बीच -- बीच में सुन लेते हैं। ठीक सुनने की घटना घट आये -- तो जानना है की आप सम्यक् जागृति में हैं। केवल सुनना हो -- तो आनन्द ही सुनने का कुछ और होता है। यह सहज ध्यान के प्रयोगों से और मन के प्रति जागरण से अपने से होगा। कोई जबरदस्ती इसके साथ नहीं करना है।
234 - 235
मेरा देखना है कि सुनना सम्यक् हो तो फिर सोचना नहीं पड़ता -- सुनना पूरा होते ही सहज उतर आता है। इससे सुनना एक पूर्ण वैज्ञानिक मनःस्थिति में होता है। जब चित्त पर समस्त विचार - प्रवाह शान्त होता है -- उस शान्त स्थिति में ही केवल सुनना शेष होता है। यह श्रवण है। इस सम्यक् श्रवण से अपने से परिणाम आता है। भीतर स्थिति स्पष्ट होती है। और फिर बाह्य आचरण अपने से होता है, सम्यक् सुनना हो -- तो फिर और करना शेष नहीं रहता है -- अपने से क्रिया पूर्ण होती है। बात भीतर दिखती है और परिणाम अपने से होते हैं। इससे ही सम्यक् सुनना महत्व का है और ठीक जीवन के घनेपन के बीच सम्यक् क्रिया का बोध व्यक्ति को होता चलता है। आज तो स्थिति उल्टी ही है। आदमी यांत्रिक हो गया है। जो सुनता चला आया है -- केवल उसे छोड़ वह अन्य जीवन की गहरी बातों को सुन ही नहीं पाता है। उस ओर से आदमी अंधा होकर -- अपने जीवन के प्रति पूर्ण उपेक्षा से भर गया है -- परिणाम से वह आत्म-ग्लानी, घृणा, हिंसा और प्रतिशोध से गहरा भर आया है। यह विचित्र हुआ है। हम सोच सकते कि जो तथ्य एक विशेष स्थल पर विशेष स्थिति में ही संभव है -- तो फिर जानना है कि वह तथ्य भीतर से क्रान्ति नहीं देता -- अन्यथा बात फिर समान होती। ऐसा सोचना भ्रान्त है। आप ठीक से मन के प्रति जागरण के और ध्यान के सम्यक् प्रयोग करते चलें -- तो सारा कुछ आपको स्पष्ट दिखेगा और मन की उथल -- पुथल की जो स्थिति है -- वह समाप्त होकर -- विसर्जित होकर -- आप ठीक शान्त स्थिति में होकर -- हर स्थिति में पूर्ण जागृत स्थिति में सुनना मात्र हो सके -- इसे अनुभूत कर पायेंगे।
236 - 237
मात्र औपचारिक केवल बुद्धि से समझा गया -- कोई अर्थ का नहीं है। केवल कह देना -- जानना नहीं होता है। जानना ही -- अनुभूत कर लेना सम्यक् वैज्ञानिक है। अनेक मन केवल बुद्धि से समझकर और एक नई उलझन खड़े कर लेते हैं। यह भ्रान्ति एक गलत मनः स्थिति को जन्म देती है। कहने मात्र से कि 'वही है' या 'सब तू ही है' -- कोई सार्थकता नहीं है। भारत में मात्र शब्दों के खेल में मानवीय मन उलझ गया है और शब्दों के पार जो प्राण तत्व था -- वह विनष्ट हो गया है। यह कहना कि 'नारी मां है' या' समस्त नारियां मां हैं' केवल आप को एक भाव -- बोध देगा -- लेकिन मन में तो भेद गिरता नहीं है। सारा कुछ होने के बाद भी मन के भेद ठीक वैसे के वैसे ही बने रहते हैं। इससे केवल एक भ्रान्त स्थिति है -- कोई अभेद - सत्ता के परिणाम दृष्टिगत नहीं हैं। ठीक से उस शाश्वत् चैतन्य के बोध में व्यक्ति न हो आये तो सारा कुछ मन की परिधि पर वैसा का वैसा ही चलता रहता है और कोई अंतः में क्रान्ति घटित नहीं होती है। यह आज के युग में हुआ है। इससे ठीक से यह निर्णय करना कि जो भी सुना गया है, या पढ़ा गया है -- उसे केवल मैं बुद्धि से ही समझा हूँ या अंतर में एक क्रान्ति घटित हुई है और जो सुना -- समझा है, उसे अनुभूत भी किया है। जानना कि मैं किन स्थितियों में अज्ञानी हूँ -- या मैं कितना नहीं जानता -- सम्यक् ज्ञान के उदय की प्राथमिक स्थिति है। यह स्थिति ही व्यक्ति को अज्ञान के बाहर ले आती है। अभी मेरा अनेक साधुओं से मिलना हुआ, जाना कि उनका रुकना -- केवल बुद्धि पर हो गया -- कोई आध्यात्मिक जीवन -- दृष्टि उपलब्ध उन्हें नहीं हुई। इसके मूल में केवल पढ़ना -- सुनना रहा है -- ठीक भीतर डूबना नहीं हुआ है। भीतर उतरना हो जाये तो स्थिति एकदम स्पष्ट होती है और जीवन अपने में चरम -- सार्थकता में हो आता है। मेरी दृष्टि में यह भीतर हो आना ही मूल है -- शेष सब परिणाम में अपने से होता है। सारा कुछ अनुभूत होकर -- जान लिया जाता है।....
238 - 239
मन का भेद बना रहता है। वह केवल बातचीत करने मात्र से मिटता नहीं है। उसकी प्रतिक्रिया चलती रहती है। अभी आपको रास्ते में दो कुत्ते दिखें -- दोनों कुत्ते ही हैं -- पर एक कुत्ता उसमें मालिक का हो तो आप पर प्रतिक्रिया उसके प्रति कुछ और होगी, लेकिन दूसरे के प्रति आपमें कोई विचार न उठेगा। एक को आप प्रेम से पुचकारेंगे - लेकिन दूसरे को आप दूर हटायेंगे। अब कुत्ता से आपको कोई अर्थ नहीं -- किसका है यह बात आपके लिए महत्व की हो जाती है। यह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में घटित होता है। कौन का है, क्या है, किस पद पर है -- जो भी बाह्य है -- अभी वह मानव को प्रभावित करता है। ठीक से भीतर व्यक्ति पूर्ण चैतन्य के बोध में हो आये तो ही केवल भेद गिरते हैं और समस्त भेदों के बीच व्यक्ति अभेद में होकर -- जीवन की श्रेष्ठता को उपलब्ध होता है।...
*


प्रश्नः जब तक ध्यान के प्रयोग से जाना नहीं हुआ था, तब तक सोचा था कि कुछ पाना कठिन है, लेकिन ध्यान के प्रयोग में होकर, पहिली बार जाना कि छोड़ना कितना कठिन है? अब तो छोड़ा भी नहीं जाता।
*
छोड़ने के पीछे भी व्यक्ति को पाने की आकांक्षा होती है -- इससे वह ठीक से अपने को छोड़ भी नहीं पाता है। जानें की सारी पकड़ छूट गई है और मात्र दृष्टा बोध में व्यक्ति हो आया है। सब छोड़कर जो भी होता है, उसके प्रति केवल साक्षी बोध रखें -- तो अपने से जो भी मन की पकड़ है, वह छूट जायगी। तब भीतर से एक मुक्त स्थिति का बोध होना प्रारम्भ होगा और सारा कुछ भीतर से क्रान्ति में हो रहेगा। यह हो रहना ही -- मूल है। सम्यक् ध्यान योगके प्रयोग आपको इस दिशा में अपने से ले आयेंगे -- आपको कुछ भी नहीं करना है। बहुत थोड़ा आपको करना है - और ठीक से समझें तो बस आपको मृत छोड़ देना है। जानना है कि सब मुर्दा हो गया है और सब शान्त और शून्य है। ठीक से आपने ध्यान योग के प्रयोग को चलाया तो अपने से बात पूर्ण हो जाने को है।....
240 - 241
३०/५/६३
'ध्यान योग' वर्ग
सन्तोष से भीतर दमन चलता है और ऐसा सन्तोष केवल बाह्य होता है। सन्तोष करना पड़े तो वह दमित है। जहाँ भी दबाब है, दमन है, संघर्ष है -- वहाँ कुछ भी आनन्द और शान्ति से निकला नहीं है। सब वहाँ पीड़ा और परेशानी से निकला है। ऐसे व्यक्तित्व कुरूप और विकृत हो जाते हैं और कोई आनंद तथा सौन्दर्य व्यक्तित्व में नहीं निखरता है। बहुत से साधुओं से अभी मेरा मिलना हु आ और सब कुछ साध - साधके -- लाद लिया है। परिणाम में बड़ी पीड़ा और निराशा है। सब टूट गया है और कोई सृजन नहीं रहा है। ऐसा अजीब हुआ है। बाह्य सन्तोष से जीवन में केवल एक औपचारिकता आती है -- भीतर मूल्य भेद बना होता है। धूल और महल का अन्तर शेष रहता है। भीतर एक अंर्तव्दन्द होता है।...
मेरा देखना है कि सन्तोष को लाना नहीं है। सम्यक् ध्यान और मन के प्रति जागरण के प्रयोग से -- जब चेतना परिपूर्ण शान्त स्थिति में होती है -- तो उस अखण्ड आनन्द और शान्ति में होकर -- परिणाम में अपने से सन्तोष आता है। इस चेतना की स्थिति में हो आया व्यक्ति आनंद में होकर प्रत्येक स्थिति में सन्तुष्ट होता है और निष्क्रिय न होकर शान्त भाव से अपने कार्य में लगा होता है। काम के प्रति वह पुरे होश से भरा होता है।....
ऐसा व्यक्ति विराट से सन्युक्त होता है और उसके जीवन से आनन्द में होकर कार्य निकलते हैं। आनन्द और सन्तुष्टि में तो वह होता ही है -- फिर जो भी बाहर घटित होता -- उसमें भी उसका अखण्ड आनन्द टूटता नहीं है। वह भीतर स्थित होकर - जीवन के मूल स्त्रोत में हो आता है।
सामान्यतः व्यक्ति अपने केन्द्र में न होने से -- भीतर से असन्तुष्ट होता है और प्रकृति के सम्मोहन में होता है। इससे ही -- वह कार्य में आनन्द में न हो -- कार्य के बाद फल में आनन्द और सन्तुष्टि को खोजता है -- परिणाम में दुख -- सुख उठाता है। ठीक आनन्द से कर्म निकले तो फिर आनन्द को बाद पाने की आकांक्षा नहीं
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रहती है। काम तो उसका मौज है। कबीर - चादर बिनते - मस्त नाचते और गाते -- सांझ उनका कपड़ा लेने काफी भीड़ होती। जिसे कपड़ा देते -- नमस्कार करते और आनन्द से भरे होते। उनका आनन्द अखण्ड -- प्रत्येक क्षण में था। इससे ही आनन्द और प्रेम में होकर -- कार्य जब उनसे निकलता -- तो सहज होता था। यह बात ही और है। सहजता और जीवन की श्रेष्ठता उसमें समाहित है।....


प्रश्नः 'ध्यान में जाने के बाद -- क्या नींद में नहीं हुआ जा सकता है?'
आप ठीक से सम्यक् विश्लेषण करें तो स्पष्ट होगा कि -- कभी भी नींद को प्रयास से नहीं लाया जा सका है। नींद आपको पकड़ती है और आप नींद में होते हैं। सामान्यतः नींद में भी अपने से शरीर ढीला छुटता है, स्वांस भी धीमी होती है और एक सिमा तक विचार भी बन्द होते हैं -- लेकिन यह सब बिना प्रयास के होता है। आप प्रयास करके नींद में नहीं जा सकते हैं। यहाँ जो आप ध्यान में -- विचार-शून्यता में प्रवेश कर रहे हैं -- वह अपनी स्वेच्छा से कर रहे हैं। एक सम्यक् योग के वैज्ञानिक आधार पर आप अपने केन्द्र से सन्युक्त हो रहे हैं।....
ठीक अन्य जीवन की प्रवृत्तियों में भी यथाः क्रोध में आप अपनी स्वेच्छा से नहीं जा सकते हैं। क्रोध को आप अभिनय करके -- नहीं ला सकते हैं। जागरण भीतर हो, अमूर्च्छा हो, तो कोई भी मूर्च्छित क्रिया में आप नहीं जा सकते हैं।
ध्यान में, योग में पूर्ण जागृति में
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कोई भी मूर्च्छित क्रिया -- नींद में होने की, क्रोध में होने की -- या अन्य कोई भी स्थिति व्यक्ति को नहीं पकड़ सकती है। इससे आप शुद्ध चेतना की स्थिति में होकर -- सहज समाधिस्थ अवस्था में होकर -- मानवीय जीवन की चरम सार्थकता में होते हैं।


ध्यान केन्द्र में अनेक नवीन साधक अपने से आते रहते हैं। उनकी अपनी स्वाभाविक जिज्ञासा होती है और इसे पूर्ण करने उन्हें आचार्य श्री की अमृत वाणी का पान करने अनायास ही उपलब्ध होता है। यह एक अनन्त आनन्द का संयोग है।....
ध्यान योग की वैचारिक पृष्ठ भूमि को अपने दृष्टा स्वरूप में होकर -- आचार्य श्री को जिसने समझाते देखा है -- उन दिव्य क्षणों की अनुभूति उसे अपने से होती है। इस सहज सुलभ जीवन की श्रेष्ठता में होने का आनंद साधकों को अपने से प्राप्त होता है। आज के इस मूल्य - शून्य जगत में यह अद् भुत है।
कहा गयाः 'दर्शक फिल्म देखते। तो पर्दे पर प्रकाश और छाया से कुछ चित्र बनते। वहाँ पर्दे पर चित्र होते -- पीछे Projector कार्य करता है। अब कोई चाहे कि पर्दा केवल खाली हो -- और इस कारण चित्रों को रोके -- उनसे संघर्ष करे तो एक भ्रम होगा। ठीक चित्त में भी विचारों का प्रवाह होता -- यह मन से
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होता -- अब कोई चित्त को शून्य करना चाहे और विचारों से लड़े -- तो भ्रम होगा। ठीक जैसे Projector बन्द हुआ की पर्दे पर चित्र नहीं होते -- ऐसे ही मन शान्त हुआ कि चित्त पर विचारों का प्रवाह नहीं होता है। 'ध्यान योग' ऐसी ही एक मन -- शान्त करने की अद् भुत प्रक्रिया है जिसके माध्यम से चित्त -- शून्य होकर व्यक्ति अपने 'स्व - बोध' में हो आता है।
प्रसंग को एक अन्य भांति समझाते हुए आपने कहा किः
दर्शक -- पर्दे पर हो रही घटनाओं में इतना तल्लीन होता कि उसका तादा-त्मय -- घटनाओं से हो रहता है। वह वह दुख में दुखी होता और आंसू बहाता-सुख में वह हँसता और प्रसन्न होता। लेकिन आप जानते है कि यह दर्शक पुरे समय पृथक है। केवल तादात्मय बोध के कारण उसने अपने को उलझा रखा था -- अलग होते ही वह हंसी -- मजाक और चर्चा करता हुआ -- उसके बाहर हो जाता है।... ठीक व्यक्ति जब भीतर चेतना की परिपूर्ण शान्ति में होता -- तो वह पाता कि पुरे समय वह मन से पृथक था, केवल उसके साथ तादात्मय करके वह सुख और दुख से बंधा था। यह उसे दीखता है और दीखते ही वह बंधन - मुक्त होकर -- मन के तादात्मय बोध पर हंसता है। यह बोध सम्यक् ध्यान के प्रयोग से अपने से होता है। यह घटना अपने में इतने अर्थ की है -- कि जगत में कुछ और अर्थ का नहीं है। सबसे सुलभ भी है, कारण मनुष्य का स्वरुप है। चाहे कोई कितना भी गिर जाये -- तो भी उसकी संभावना -- मिटती नहीं है और सम्यक् जागृति की साधना से वह अपने मुक्त स्वरूप में हो आता है।... यह मन्युष्य की सबसे बड़ी उपलब्धि है -- और हमेशा संभावना है कि व्यक्ति अपने मुक्त स्वरुप में हो आये।....
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साधक जितना आचार्य श्री की दिव्य वाणी को सुनता है, उसकी पिपासा सहज में और बढ़ती जाती है। यह भी साधक के लिए -- एक महान जीवन क्रम में या सहज सुलभ जो श्रेष्ठ जीवन है -- उसमें हो आने में, प्रकाश-पुंज का कार्य करती है। सच में -- दिव्यता हो तो उसे कौन छोड़ेगा? मूलतः सामान्य जीवन -- मात्र कहीं अपने को लगा देना चाहते हैं, और जो तृप्ति उनको कहीं नहीं मिली वह जब वे धार्मिक जगत में खोजते हैं - तो सब कचरा हो जाता है -- दिव्यता तो दूर होती है। इससे दिव्यता कोई पाने से नहीं, अपने से आती है। जैसेः फूल खिले और सुगंध उससे बिखरे। आचार्य श्री के निकट आकर ठीक ऐसी ही अनुभूति -- साधक को होती है। इससे ही हँसी के लिए साधक कहतेः 'ध्यान पूरा होगा जब यहाँ का आना भी छूट रहेगा।' साधकों को ध्यान वर्ग योग के अन्तिम दिवस आचार्य श्री ने कहाः 'शान्त जीवन -- दृष्टि में हो आने से, एक शान्त -- जीवन में व्यक्ति अपने से हो आता है। सारा खेल चलता है और भीतर सब शान्त चेतना में व्यक्ति होता है। जीवन के बीच -- व्यक्ति एक स्वाभाविक जीवन -- क्रम में होकर -- अमृत में होता है। वह तो 'ध्यान योग' से अपने से होता है। इसमें होकर व्यक्ति अपने चरम -- आनन्द, शान्ति और सौन्दर्य में होता है।....
ध्यान को करने के लिए कोई शर्त नहीं है। कोई खास समय भी नहीं है। जब मौज हो - तो ही कर लीजिए। कोई प्रतिज्ञा का बंधन नहीं है। अनेक परिचित मित्रों ने पूछाः 'क्या ध्यान को करने के लिए, प्रतिज्ञा लेनी होगी?' मैंने कहाः मैं प्रतिज्ञा के पक्ष में नहीं हूँ, प्रतिज्ञा टूटती तो फिर बड़ा दुख होता है और हीनता का बोध होता है। न हुआ ध्यान -- तो किसी भी तरह की -- विकृति में या तनाव में नहीं पड़ना है। सब सहजता से लेना है।और जब मौज हो तो कर लेना है। इससे ही मेरा देखना है कि ध्यान के साथ कोई भी शर्त उचित नहीं है। सब सहजता में करना है और
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किसी भी तरह का तनाव खड़ा नहीं करना है। अन्यथा नियम लोग लेते और टूटते रहते हैं और भीतर एक दुख चलता है। इस सबका कोई अर्थ नहीं है। ठीक जब लगे तब ही कर लेना है। उचित होता है व्यक्ति रात्रि सोने के पूर्व और सुबह उठने के पूर्व - दोनों संधिकाल में ध्यान का प्रयोग करे। नींद में व्यक्ति जैसी मनःस्थिति में जाता है -- वह रात्रि को सरकती है -- यदि शान्त मनः स्थिति में व्यक्ति नींद में जाता -- तो भीतर शान्ति की स्थिति बनती है। इससे मैं जानके ध्यान को नींद के साथ सन्युक्त किया हूँ ताकि आज के व्यस्त युग में व्यक्ति रात्रि भर ध्यान का लाभ उठा सके। इस तरह सहज ६-७ घंटे का ध्यान हो जाता है और एक सामान्य गृहस्थ भी योगी के बराबर ध्यान का लाभ उठा पाता है।......
ध्यान से अपने से भीतर एक स्थिति बनती है, जबकि व्यक्ति समस्त क्रियाओं के बीच ठीक जागृति के बोध से भर आता है। तब वह सोता -- तो सोने का सम्यक् बोध उसे होता है। बुद्ध ने कहाः मैं करवट लेता तो जानता की करवट ली। हर क्रिया का सम्यक् बोध भीतर होता रहता है। यह सब ध्यान से होगा।
प्रारम्भ में ही ध्यान के परिणाम आना शुरू होंगे। नींद के लिए तो मित्रों ने कहा -- पहिली बार आज जाना की सोना कैसे होता है। पूर्ण नींद की गहराई उपलब्ध होती है। आज तो स्थिति बड़ी विचित्र है। नींद के लिये भी नशा लेना होता है। इस सारी उलझन में आज अमरीका का औसत व्यक्ति है। भारत में भी धीरे -- धीरे यह स्थिति बन रही है -- और व्यक्ति पीड़ित हो रहा है। सम्यक् ध्यान का प्रयोग -- इस सबसे मुक्ति देता और परिणाम में स्वास्थ्य तथा शांति, एक नये जीवन को ले आती है। प्रभु मिलन हो या न हो -- यह सब तो अपने से होगा। ठीक सम्यक् ध्यान का प्रयोग यदि हुआ और भीतर शान्त मनः स्थिति रही -- तो यही प्रयोग -- व्यक्ति को प्रभु -- चेतना में ले आता है।.....
[ध्यान योग सत्रः ३१/५/६३ जबलपुर ध्यान केन्द्र]
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to be transcribed
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के विकास की। बाद कोई आकांक्षा शेष नहीं रहती और अमृत जीवन में व्यक्ति हो आंता है। यह व्यक्ति के जीवन की विशेषता है कि उसमें दिव्य और पाशविक दोनों संभावनायें हैं।...
सामान्यतः व्यक्ति अपनी चेतना को नीचे केन्द्रों पर उलझा लेता और परिणाम में मानवीय जीवन की दिव्य संभावना को खो देता है। यह बीच का सेतु है जो व्यक्ति के आंतरिक चेतना से संबंधित है -- चेतना अपने में पूर्ण शुद्ध है -- उसमें हो आने पर ही व्यक्ति सारे विषाक्त जगत से मुक्त होता है।....


सम्यक् वैज्ञानिक होना -- व्यक्ति के पूर्ण स्वस्थ्य होने का प्रतिक है। हम कुछ भी करें -- अपनी पूर्व धारणाओं से बंधकर करते हैं -- इससे ही सत्य के बीच धारणाओं का पर्दा होता है -- जो व्यक्ति को सत्य - बोध से वंचित रखता है। आप शास्त्र पढ़ें तो जो अर्थ आप अपने में लिये हुये हैं -- वह अर्थ आप उसमें खोज लेंगे। ठीक चित्त की शान्त अवस्था में -- धारणा शून्य होकर जब पढ़ा जाता -- तो अर्थ भीतर दीखता है, उसे ही सम्यक् पढ़ना जानना चाहिए। शेष जो भी मन का है, उसका कोई अर्थ नहीं है। मन विजातीय है। इससे सम्यक् वैज्ञानिक स्थिति में होकर जो भी 'स्व' के बोध में विजातीय है या बाहरी तत्व है, उसके प्रति केवल साक्षी बोध को बनाये रखा जाये तो सारा का सारा विजातीय विसर्जित होकर, मात्र 'स्व' में होना मात्र शेष रह जाता है। यह ‘स्व' में होना व्यक्ति को पूर्ण आनन्द तथा शान्ति में प्रतिष्ठित करता है। मेरा देखना
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है कि 'स्व -- बोध' में जो भी विजातीय है - उसको मात्र विसर्जित करना है -- शेष सब अपने से होता है। आदमी केवल इतना सा मात्र करे, और परिणाम में अपने से दिव्यता आती है। कुछ और इतने से अल्प जीवन में करने जैसा नहीं है। यही जीवन को पूर्णता देता है। इस एक को करने से सब अपने से होता चलता है। अन्यथा सब किया हुआ भी इस एक के अभाव में व्यर्थ हो जाता है।