Letter written on 11 Feb 1963 am: Difference between revisions

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This is one of hundreds of letters Osho wrote to [[Ma Anandmayee]], then known as Madan Kunwar Parakh. It was written on 11 Feb 1963 in the morning.
 
This letter has been published in ''[[Krantibeej (क्रांतिबीज)]]'' as letter 74 (edited and trimmed text) and later in ''[[Bhavna Ke Bhojpatron Par Osho (भावना के भोजपत्रों पर ओशो)]]'' on p 199 (2002 Diamond edition).
 
In 2nd last paragraph of this letter Osho says: "In one assembly I said this yesterday. God is not a person. Any experience of God doesn't happen. But it is the name of a realization. 'His' direct incarnate is not there : but it is the name of the obvious."
 
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रजनीश
 
११५, नेपियर टाउन<br>
जबलपुर (म. प्र.)
 
प्रभात<br>
११ फरवरी १९६३
 
प्रिय मां,<br>
मनुष्य के साथ क्या हो गया है?
 
मैं सुबह उठता हूँ। देखता हूँ : गिलहरियों को दौड़ते : देखता हूँ सूरज की किरणों में फूलों को खिलते : देखता हूँ संगीत से भर गई प्रकृति को। रात्रि सोता हूँ : देखता हूँ तारों से झरते मौन को : देखता हूँ सारी सृष्टि पर छागई आनंद-निद्रा को। और फिर फिर अपने से पूछने लगता हूँ कि मनुष्य को क्या होगया है?
 
सब कुछ आनंद से तरंगित है केवल मनुष्य को छोड़कर। सब कुछ संगीत से आंदोलित है केवल मनुष्य को छोड़कर। सब दिव्य शांति में विराजमान है केवल मनुष्य को छोड़कर।
 
क्या मनुष्य इस सब का भागीदार नहीं है? क्या मनुष्य कुछ पराया है : अजनबी है?
 
यह परायापन अपने हाथों लाया गया है। यह टूट अपने हाथों पैदा कीगई है। स्मरण आती है बाइबिल की एक पुरानी कथा। मनुष्य ‘ज्ञान का फल’ खाकर आनंद के राज्य से बहिष्कृत होगया है। यह कथा कितनी सत्य है! ‘ज्ञान’ ने, बुद्धि ने, मन ने मनुष्य को जीवन से तोड़ दिया है। वह सत्ता में होकर सत्ता से बाहर होगया है।
 
‘ज्ञान’ को छोड़ते ही, मन से पीछे हटते ही एक नये लोक का उदय होता है। उसमें हम प्रकृति से एक होजाते हैं। कुछ अलग नहीं होता है, कुछ भिन्न नहीं होता है। सब एक शांति के संगीत में स्पंदित होने लगता है।
 
यह अनुभूति ही ‘ईश्वर’ है।
 
कल एक सभा में यह कहा हूँ। ईश्वर कोई व्यक्ति नहीं है। ईश्वर की कोई अनुभूति नहीं होती है। वरन्‌, एक अनुभूति का नाम ही ईश्वर है। ‘उसका’ कोई साक्षात्‌ नहीं है : वरन्‌ एक साक्षात्‌ का ही वह नाम है।
 
इस साक्षात्‌ में मनुष्य स्वस्थ होजाता है। इस अनुभूति में वह अपने घर आजाता है। इस प्रकाश में वह फूलों और पक्षियों के सहज स्फूर्त आनंद का साझीदार होजाता है। इसमें एक ओर से वह मिट जाता है और दूसरी ओर से सत्ता को पालेता है। यह उसकी मृत्यु भी है और उसका जीवन भी है।


This is one of hundreds of letters Osho wrote to [[Ma Anandmayee]], then known as Madan Kunwar Parakh. It was written on 11 Feb 1963 in the morning.
रजनीश के प्रणाम


This letter has been published, in ''[[Bhavna Ke Bhojpatron Par Osho (भावना के भोजपत्रों पर ओशो)]]'' on p 199 (2002 Diamond edition). We are awaiting a transcription and translation.
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;See also
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:[[Krantibeej ~ 074]] - The event of this letter.
:[[Letters to Anandmayee]] - Overview page of these letters.
:[[Letters to Anandmayee]] - Overview page of these letters.

Revision as of 07:49, 5 April 2020

This is one of hundreds of letters Osho wrote to Ma Anandmayee, then known as Madan Kunwar Parakh. It was written on 11 Feb 1963 in the morning.

This letter has been published in Krantibeej (क्रांतिबीज) as letter 74 (edited and trimmed text) and later in Bhavna Ke Bhojpatron Par Osho (भावना के भोजपत्रों पर ओशो) on p 199 (2002 Diamond edition).

In 2nd last paragraph of this letter Osho says: "In one assembly I said this yesterday. God is not a person. Any experience of God doesn't happen. But it is the name of a realization. 'His' direct incarnate is not there : but it is the name of the obvious."

रजनीश

११५, नेपियर टाउन
जबलपुर (म. प्र.)

प्रभात
११ फरवरी १९६३

प्रिय मां,
मनुष्य के साथ क्या हो गया है?

मैं सुबह उठता हूँ। देखता हूँ : गिलहरियों को दौड़ते : देखता हूँ सूरज की किरणों में फूलों को खिलते : देखता हूँ संगीत से भर गई प्रकृति को। रात्रि सोता हूँ : देखता हूँ तारों से झरते मौन को : देखता हूँ सारी सृष्टि पर छागई आनंद-निद्रा को। और फिर फिर अपने से पूछने लगता हूँ कि मनुष्य को क्या होगया है?

सब कुछ आनंद से तरंगित है केवल मनुष्य को छोड़कर। सब कुछ संगीत से आंदोलित है केवल मनुष्य को छोड़कर। सब दिव्य शांति में विराजमान है केवल मनुष्य को छोड़कर।

क्या मनुष्य इस सब का भागीदार नहीं है? क्या मनुष्य कुछ पराया है : अजनबी है?

यह परायापन अपने हाथों लाया गया है। यह टूट अपने हाथों पैदा कीगई है। स्मरण आती है बाइबिल की एक पुरानी कथा। मनुष्य ‘ज्ञान का फल’ खाकर आनंद के राज्य से बहिष्कृत होगया है। यह कथा कितनी सत्य है! ‘ज्ञान’ ने, बुद्धि ने, मन ने मनुष्य को जीवन से तोड़ दिया है। वह सत्ता में होकर सत्ता से बाहर होगया है।

‘ज्ञान’ को छोड़ते ही, मन से पीछे हटते ही एक नये लोक का उदय होता है। उसमें हम प्रकृति से एक होजाते हैं। कुछ अलग नहीं होता है, कुछ भिन्न नहीं होता है। सब एक शांति के संगीत में स्पंदित होने लगता है।

यह अनुभूति ही ‘ईश्वर’ है।

कल एक सभा में यह कहा हूँ। ईश्वर कोई व्यक्ति नहीं है। ईश्वर की कोई अनुभूति नहीं होती है। वरन्‌, एक अनुभूति का नाम ही ईश्वर है। ‘उसका’ कोई साक्षात्‌ नहीं है : वरन्‌ एक साक्षात्‌ का ही वह नाम है।

इस साक्षात्‌ में मनुष्य स्वस्थ होजाता है। इस अनुभूति में वह अपने घर आजाता है। इस प्रकाश में वह फूलों और पक्षियों के सहज स्फूर्त आनंद का साझीदार होजाता है। इसमें एक ओर से वह मिट जाता है और दूसरी ओर से सत्ता को पालेता है। यह उसकी मृत्यु भी है और उसका जीवन भी है।

रजनीश के प्रणाम


See also
Krantibeej ~ 074 - The event of this letter.
Letters to Anandmayee - Overview page of these letters.