Letter written on 14 Jun 1963

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This is one of hundreds of letters Osho wrote to Ma Anandmayee, then known as Madan Kunwar Parakh. It was written on 14th June 1963. The letterhead has "Acharya Rajneesh" in a large, messy font to the right of and above the rest, which reads:

Darshan Vibhag [Department of Philosophy]
Mahakoshal Kala Mahavidyalaya [Mahakoshal Arts University]
115, Napier Town
Jabalpur (M.P.)

Osho's salutation in this letter is a simple "मां", Maan, Mom or Mother. There are none of the hand-written marks seen in other letters except a black tick mark in the top right corner. Numbers written on the back side of most other letters, which show through faintly in mirror-image form, could not be found, though this could also be due to the dense writing. This letter has been published in Krantibeej (क्रांतिबीज) as letter 40 (edited and trimmed text) and later in Bhavna Ke Bhojpatron Par Osho (भावना के भोजपत्रों पर ओशो) on p 225.

आचार्य रजनीश

दर्शन विभाग
महाकोशल कला महाविध्यालय
११५, नेपियर टाउन,
जबलपुर (म. प्र.)

१४ जून १९६३

मां,
मनुष्य का मन अद्‌भुत है। वही है रहस्य संसार का और मोक्ष का। पाप और पुण्य, बंधन और मुक्ति, स्वर्ग और नर्क – सब उसमें ही समाए हुए हैं। अंधेरा और प्रकाश – सब उसी का है। उसमें ही जन्म है, उसमें ही मृत्यु है। वही है द्वार वाह्‌य जगत्‌ का, वही है सीढ़ी अंतर की और उसका ही न हो जाना दोनों के पार होजाना होजाता है।

मन सब कुछ है। सब उसकी लीला और कल्पना है। वह सोजाये तो सब लीला विलीन होजाती है।

कल कहीं यह कहा था। कोई पूछने लगा : ‘मन तो बड़ा चंचल है; वह सोये कैसे? मन तो बड़ा गंदा है, वह निर्मल कैसे हो?’

मैं, फिर, एक कहानी कहा। बुद्ध जब वृद्ध हो गये थे तब एक दोपहर एक वन में एक वृक्ष तले विश्राम को रुके थे। उन्हें प्यास लगी तो आनंद पास के पहाड़ी नाले पर पानी लेने गया था। पर नाले में से अभी अभी गाडियां निकलीं थीं और पानी सब गंदा होगया था। कीचड़ ही कीचड़ और सडे पत्ते उसमें उभर कर ऊपर आगये थे। आनंद उसका पानी बिना लिये ही वापिस लौट आया। उसने बुद्ध से कहा : नाले का पानी निर्मल नहीं है। मैं पीछे लौट कर नदी से पानी ले आता हूँ। नदी बहुत दूर थी। बुद्ध ने उसे नाले का पानी ही लाने को वापिस लौटा दिया। आनंद थोड़ी देर में फिर खाली लौट आया। वह पानी उसे लाने जैसा नहीं लगा। यह तीन बार हुआ। पर बुद्ध उसे हर बार वापिस लौटा देते। और तीसरी बार जब आनंद नाले पर पहुँचा तो चकित होगया। नाला अब तक निर्मल और शांत हो गया था! कीचड़ बैठ गई थी और जल बिल्कुल निर्मल था!

यह कहानी मुझे बड़ी प्रीतिकर है। यही स्थिति मन की भी है। वासना की गाड़ियां उसे विक्षुब्ध कर जाती हैं। पर कोई यदि शांति और धीरज से उसे बैठा देखता रहे तो कीचड़ अपने से नीचे बैठ जाती है और सहज निर्मलता का आगमन होजाता है। मन की निर्मलता में जीवन नया होजाता है। केवल धीरज की बात है और शांत प्रतीक्षा की और ‘बिना कुछ किये’ मन की कीचड़ बैठ सकती है। केवल साक्षी होना है और मन निर्मल हो जाता है।

रजनीश के प्रणाम


See also
Krantibeej ~ 040 - The event of this letter.
Letters to Anandmayee - Overview page of these letters.