There is also another letter to Yoga Kranti on the same date.
acharya rajneesh
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प्यारी मौनू,
प्रेम। आंखों के सामने है मार्ग - और दिखाई नहीं पड़ता है।
कानों के पास है पुकार - और सुनाई नहीं पड़ती है।
लेकिन क्यों? क्योंकि, देखने वाला देखने के लिये अति - आग्रहशील है और इसलिये आंखें खुल नहीं पाती हैं।
और सुनने वाला स्वयं में इतना केन्द्रित है कि कान बहरे हो जाते हैं।
एक सदगुरु से पूछता है कोई : "मार्ग कहां है?"
कहा गया उससे : "ठीक आंखों के सामने!"
लेकिन पूछा उसने पुन : "फिर मुझे दिखाई क्यों नहीं पड़ता है?"
कहा गया : "क्योंकि तुम अतिशय हो - अत्यधिक हो इसलिये! (Because, you are too much!)"
पर वह माना नहीं और बोला : "आपके संबंध में पूछना चाहता हूं - क्या आपको दिखाई पड़ता है वह?"
उत्तर आया : "आह! जबतक देखोगे दो को - मैं और तू को तबतक आंखों में धुआं है!"
पर नहीं - वह फिर भी नहीं माना और बोला : "क्या जब न मैं है, न तू है तब वह दिखाई पड़ेगा?"
प्रत्युत्तर में मौन रहा बड़ी देर और फिर कहा गया : "पागल! जब न मैं है न तू तब उसे देखना ही कौन चाहता है?"