Letter written on 15 May 1962

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This is one of hundreds of letters Osho wrote to Ma Anandmayee, then known as Madan Kunwar Parakh. It was written on 15 May 1962 from Kanpur while on return journey.

This letter has been published in Krantibeej (क्रांतिबीज) as letter 83 (edited and trimmed text) and later in Bhavna Ke Bhojpatron Par Osho (भावना के भोजपत्रों पर ओशो) on p 120-121 (2002 Diamond edition).

PS reads: "Returning back from Kanpur today. The conference of 'Akhil Vishva Jain Mission' has been pleasant. My talks have been understood. It is settling in the minds of people. It is visible that some people could surely be agreeable to accept and do what I am saying. Rest, OK. Your remembrance prevailed all the time in Kanpur. My humble pranam to all. Will be going to Gadarwara after 2-3 days - will stay for 7-8 days there."

रजनीश

११५, नेपियर टाउन
जबलपुर (म.प्र.)

(यात्रा से
कानपुर
१५ मई १९६२)

प्यारी मां,
एक साल हुई तब कुछ बीज बोये थे। अब उनमें फूल आगये हैं। कितना चाहा कि फूल सीधे आजावें पर फूल सीधे नहीं आते हैं। फूल लाना हो तो बीज बौने पड़ते हैं, पौधा सम्हालना पड़ता है और तब अंत में प्रतीक्षित का दर्शन होता है।

यह प्रक्रिया फूलों के सम्बंध में ही नहीं, जीवन के सम्बंध में भी सत्य है। अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा सम्मेलन में यही कहा हूँ।

अहिंसा, अपरिग्रह, अचौर्य, सत्य, ब्रह्मचर्य – ये सब जीवन साधना के फूल हैं। कोई इन्हें सीधे नहीं लासकता है। इन्हें लाना है तो आत्म ज्ञान के बीज बौने पड़ते हैं। उसके आते ही ये सब अपने आप चले आते हैं।

आत्म ज्ञान मूल है; शेष सब उसका परिणाम है।

यह कहना गलत है कि हिंसा, विद्वेष, विग्रह ने आत्म जीवन को नष्ट कर दिया है। बात उल्टी ही सच है। आत्म जीवन नहीं रहा है – उसका विज्ञान खोगया है इसलिए इन सबकी उत्पत्ति हुई है।

जीवन के बाह्य रूप का कुरूप होना; आंतरिक सड़न का प्रतीक है।

इससे लक्षणों को बदलने और परिवर्तन करने से कुछ भी नहीं होसकता है। मूलतः जहां विकार की जड़े हैं वहीं बदलाहट करनी है।

आत्म-अज्ञान विकार की जड़ है। मैं कौन हूँ – यह जानना है। यह जानते ही अभय और अद्वैत की उपलब्धि होती है। अद्वैत-बोध – यह बोध कि जो मैं हूँ वही दूसरा भी है – समस्त हिंसा को जड़ से दग्ध कर देता है। और परिणाम में आती है अहिंसा। पर को पर जानना हिंसा है : पर में स्व के दर्शन अहिंसा है।

रजनीश के प्रणाम


(पुनश्च: आज कानपुर से वापिस लौट रहा हूँ। अखिल विश्व जैन मिशन का सम्मेलन सुखद रहा है। मेरी बात को समझा गया है। वह लोगों के मन में बैठ रही है। यह दीखता है कि कुछ लोग अवश्य ही जो मैं कह रहा हूँ उसे मानने और करने को राजी होसकेंगे। शेष शुभ। कानपुर में पूरे समय तुम्हारी स्मृति बनी रही है। सबको मेरे विनम्र प्रणाम। दो-तीन दिन बाद गाड़रवारा जारहा हूँ। सात-आठ दिन वहां रुकूँगा।)


See also
Krantibeej ~ 083 - The event of this letter.
Letters to Anandmayee - Overview page of these letters.