Letter written on 16 Jan 1963

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This is one of hundreds of letters Osho wrote to Ma Anandmayee, then known as Madan Kunwar Parakh. It was written on 16th January 1963. The letterhead has a simple "रजनीश" (Rajneesh) in the top left area, in a heavy but florid font, and "115, Napier Town, Jabalpur (M.P.) in the top right, in a lighter but still somewhat florid font.

The salutation is a simple "मां", Maan, Mom, There are two hand-written marks, a black tick mark in the upper right and a pale mirror-image number in the bottom right corner. And actually, there are two numbers there, 161 and one crossed out, which could be 15 something or 25 something. And even the 161 is an altered number, with its last digit having started as a 0.

This letter has been published in Krantibeej (क्रांतिबीज) as letter 64 (edited and trimmed text) and later in Bhavna Ke Bhojpatron Par Osho (भावना के भोजपत्रों पर ओशो) on p 190-191. The PS has some information about upcoming events, it reads:

"The letter and telegram both were received yesterday. Blessings for the Sharda's child. You are going to Bhusawal, I won't be able to come. Two letters of Fakirchand Ji did come - the insistence is very much - but I don't feel to go in the crowd. I am going straight to Rajnagar (Rajasthan) by train. Will stay there on 31 Jan, 1st and 2nd Feb. Starting from here on 29 Jan night by Bilaspur - Indore Express. Sunderlal Bhai and Jaya Bahin of Bombay would be travelling with me. Also the invitation of Acharya Tulsi has come from Udaipur. Rest OK. Let the type writer be delivered through Railway Parcel. And here, people are enthusiastic to listen the lectures of Bombay - so it would be nice if you send them too, for 15 days."

It can be seen here again that Ma did visit to Bombay with Osho, as observed at Letter written on 4 Jan 1963 pm - and Osho's lectures and meditation program must have been tape recorded - which are kept with Ma at Chanda.

रजनीश

११५, नेपियर टाउन
जबलपुर (म. प्र.)

मां,

एक प्रोफेसर हैं। धर्म में उनकी अभिरुचि है। धर्म ग्रंथों के अध्ययन में जीवन लगाया है। धर्म की बात उठे तो उनके विचार-प्रवाह का अंत नहीं होता है। एक अंतहीन फीते के भांति उनके विचार निकलते आते हैं। कितने उद्धरण और कितने सूत्र उन्हें याद हैं, कहना कठिन हैं। कोई भी उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रहता है। वे एक चलते फिरते विश्वकोष हैं : ऐसी ही उनकी ख्याति है। कई बार मैंने उनके विचार सुना हूँ और मौन रहा हूँ। एक बार उन्होंने मुझसे पूछा : कि मेरे मेरा उनके सम्बंध में क्या ख़याल है? मैंने जो सत्य था वही कहा। कहा कि ‘ईश्वर के सम्बंध में विचार इकठ्ठा करने में उन्होंने ईश्वर को गंवा दिया है।‘ वे निश्चित ही चौंक गये मालुम हुए थे। फिर बाद में आये भी। उसी सम्बंध में पूछने आये थे। आकर कहा कि ‘अध्ययन और मनन्‌ से ही तो सत्य को पाया जासकता है। और तो कोई मार्ग भी नहीं है। ज्ञान ही तो सबकुछ है।‘

यह भ्रान्त विचार कितनों का नहीं है!

मैं ऐसे सारे लोगों से एक ही प्रश्न पूछता हूँ। वही उनसे भी पूछा था कि अध्ययन क्या है और उससे आपके भीतर क्या हो जाता है? क्या कोई नयी दृष्टि का आयाम पैदा होता है – क्या चेतना किसी नये स्तर पर पहुँच जाती है – क्या सत्ता में कोई क्रांति होजाती है – क्या आप जो हैं उससे कुछ भिन्न और अन्यथा हो जाते हैं? या कि आप वही रहते हैं और केवल कुछ और विचार और सूचनायें आपकी स्मृति का अंग बन जाती हैं? अध्ययन से केवल स्मृति प्रशिक्षित होती है और मन की सतही पर्त पर विचार की धूल जम जाती है। इससे ज्यादा उससे कुछ भी न होता है, न होसकता है। केन्द्र पर उससे कोई परिवर्तन नहीं होता है। चेतना वही की वही रहती है। अनुभूति के आयाम वही के वही रहते हैं। सत्य के सम्बंध में कुछ जानना और सत्य को जानना दोनों बिल्कुल भिन्न बातें हें। ‘सत्य के सम्बंध में जानना’ बुद्धिगत है : ‘सत्य को जानना’ चेतनागत है। सत्य को जानने के लिए चेतना की परिपूर्ण जागृति – उसकी अमूर्च्छा आवश्यक है। स्मृति-प्रशिक्षण और तथाकथित ज्ञान से यह नहीं होसकता है। जो स्वयं नहीं जाना गया है, वह ज्ञान नहीं है। सत्य के, अज्ञात सत्य के सम्बंध में जो बौद्धिक जानकारी है वह ज्ञान-आभास है। वह मिथ्या है और सम्यक्‌ ज्ञान के मार्ग में बाधा है। असलियत में जो अज्ञात है उसे जानने का ज्ञात से कोई मार्ग नहीं है। वह तो बिल्कुल नया है – वह तो ऐसा है जो पूर्व कभी नहीं जाना गया है; इसलिए स्मृति उसे देने या उसकी प्रत्यभिज्ञा में भी समर्थ नहीं है। स्मृति केवल उसे ही दे सकती है – उसकी ही प्रत्यभिज्ञा भी उससे आ सकती है जो कि पहले भी जाना गया है। वह ज्ञात की ही पुनरुक्ति है। लेकिन जो नवीन है; एकदम अभिनव, अज्ञात और पूर्व-अपरिचित उसके आने के लिए तो स्मृति को हट जाना होगा – स्मृति को, समस्त ज्ञात विचारों को हटाना होगा ताकि नये का जन्म होसके, ताकि ‘जो है’, वह वैसा ही जाना जासके जैसा कि है। मनुष्य की समस्त धारणायें और पूर्व-पक्ष उसके आने के लिए हटने आवश्यक हैं। विचार, स्मृति और धारणा शून्य मन ही अमूर्च्छा है, जाग्रति है। इसके आने पर ही केन्द्र पर परिवर्तन होता है और सत्य का द्वार खुलता है। इसके पूर्व सब भटकन है और जीवन अपव्यय है।

१६ जनवरी १९६३

रजनीश के प्रणाम


पुनश्च : कल पत्र और तार दोनों मिले हैं। शारदा के बच्चे के लिए शुभाशीष। आप भुसावल जारही हैं : मैं तो नहीं आसकूँगा। फकीरचंद जी के दो पत्र जरूर आये हैं : बहुत आग्रह है पर मेरा भीड़ भाड़ में जाने का मन नहीं है। राजनगर (राजस्थान) मैं ट्रेन से सीधा ही जा रहा हूँ। ३१ जन., १ और २ फर. वहां रुकूँगा। २९ जन. की रात्रि बिलासपुर - इंदौर एक्सप्रेस से यहां से निकल रहा हूँ। बम्बई के सुन्दरलाल भाई और जया बहिन मेरे साथ यात्रा करने को हैं। आचार्य श्री तुलसी का निमंत्रण भी उदयपुर से आया है। शेष शुभ। टाइप राइटर आप रेल्वे पार्सल से पहुँचा दें और बम्बई के व्याख्यान यहां लोग सुनने को बहुत उत्सुक हैं : १५ दिन के लिए उन्हें भी भेजदें तो अच्छा है।


See also
Krantibeej ~ 064 - The event of this letter.
Letters to Anandmayee - Overview page of these letters.