Letter written on 16 Jun 1963

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This is one of hundreds of letters Osho wrote to Ma Anandmayee, then known as Madan Kunwar Parakh. It was written on 16th June 1963. The letterhead has "Acharya Rajneesh" in a large, messy font to the right of and above the rest, which reads:

Darshan Vibhag [Department of Philosophy]
Mahakoshal Kala Mahavidyalaya [Mahakoshal Arts University]
115, Napier Town
Jabalpur (M.P.)

Osho's salutation in this letter is a simple "मां", Maan, Mom or Mother. There are none of the hand-written marks seen in other letters except a black tick mark in the top right corner. Numbers written on the back side of most other letters, which show through faintly in mirror-image form, could not be found, though this could also be due to the dense writing. This letter has been published in Jeevan-Darshan (जीवन दर्शन) (letters) as letter #3, Krantibeej (क्रांतिबीज) as letter 11 (edited and trimmed text) and later in Bhavna Ke Bhojpatron Par Osho (भावना के भोजपत्रों पर ओशो) on p 226.

The PS reads: "Now my health is good. 'Hope you are not worrying? Send letter - I am awaiting. And incase if someone is coming this side send the type writer along with him."

आचार्य रजनीश

दर्शन विभाग
महाकोशल कला महाविध्यालय
११५, नेपियर टाउन,
जबलपुर (म. प्र.)

१६ जून १९६३

मां,
एक अंधेरी राह में घूमने निकला था। बहुत दिन हुए तबकी बात है। गांव का ऊबड-खाबड़ रास्ता था। साथ एक साधु थे। बहुत उन्होंने यात्रा की थी। शायद ही कोई तीर्थ था जहां वे नहीं हो आयेथे। प्रभु को पाने का वे मार्ग खोज रहे थे।

उस रात्रि उन्होंने मुझसे भी पूछा था : ‘प्रभु को पाने का मार्ग क्या है?’ यह प्रश्न उन्होंने ओरों से भी पूछा था। मार्ग भी धीरे धीरे उन्हें बहुत ज्ञात हो गयेथे। पर प्रभु से दूरी जितनी थी वह उतनी ही बनी थी। ऐसा भी नहीं था कि इन मार्गों पर वे चले नहीं थे। यथाशक्ति प्रयास भी किया था। पर हाथ आया था केवल चलना ही, पहुँचना नहीं हुआ था। लेकिन अभी मार्गों से ऊबे नहीं थे और नयों की तलाश चल रही थी!

मैं थोड़ी देर चुप ही रहा था। फिर कहा था : “जो निकट है – निकट ही नहीं स्वयं मैं ही हूँ उसे पाने का कोई भी मार्ग नहीं है। मार्ग दूर को और पर को पाने को होते हैं। फिर, जिसे खोया ही नहीं है उसे पाने की बात ही कहां उठती है? जो कभी बंधन में ही नहीं पड़ा है उसे मुक्ति दिलाने का प्रश्न ही कहां उठता है? इसलिए कुछ करने को नहीं है। केवल जानना है और जानना ही पहुँचना है। जानना है कि ‘मैं कौन हूँ?’ ओर यह ज्ञान ही प्रभु उपलब्धि है। एक दिन जब सारे प्रयास व्यर्थ हो जाते हैं। और सारे मार्ग कहीं लेजाते हुए नहीं प्रतीत होते हैं। जब जाना जाता है कि जो भी मैं कर सकता हूँ वह मुझे ‘मैं’ के रहस्य तक नहीं लाता है। कोई क्रिया सत्ता तक नहीं लाती है। तब अनयास ही समाधि उपलब्ध हो जाती है। तब बिना बुलाए ही प्रज्ञा का अवतरण होजाता है। और इस प्रकाश में एक क्षण में ही सब बदल जाता है। जो संसार था वही मोक्ष होजाता है। इस भ्रम के ऊपर उठना है कि क्रिया सत्ता तक ले जासकती है। इस अज्ञान के ऊपर उठना है कि सत्य तक पहुँचने के लिए कोई मार्ग होसकता है। कोई क्रिया उसे नहीं देगी क्योंकि वह क्रियाओं के भी पूर्व है। कोई मार्ग वहां के लिए नहीं है क्योंकि वह तो यहीं है।

रजनीश के प्रणाम


पुनश्च: मेरा स्वास्थ्य अब अच्छा है। चिन्ता तो नहीं कर रही हैं न? पत्र देना। मैं प्रतीक्षा में हूँ। और कोई इधर आरहा हो तो उसके साथ टाइपराइटर पहुँचा दें।


See also
Krantibeej ~ 011 - The event of this letter.
Letters to Anandmayee - Overview page of these letters.