Letter written on 18 Nov 1962 pm

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This is one of hundreds of letters Osho wrote to Ma Anandmayee, then known as Madan Kunwar Parakh. It was written on 18th November 1962 in the evening. The letterhead has a simple "रजनीश" (Rajneesh) in the top left area, in a heavy but florid font, and "115, Napier Town, Jabalpur (M.P.)" in the top right, in a lighter but still somewhat florid font.

Osho's salutation in this letter is a fairly typical "प्रिय मां", Priya Maan, Dear Mom. There are a few of the hand-written marks that have been observed in other letters: red and black tick marks in the upper right corner and a mirror-image number in the bottom right corner. There is additionally a third almost-tick mark near the red one, but this looks too accidental to have significance, especially as we can see it from both sides of the paper.

Having images of both sides also allows us to see clearly the mirror-image number dynamic. And here, there is yet another variation on that scenario, a single digit crossed out so that an apparent 147 becomes 149.

The letter has been published, in Bhavna Ke Bhojpatron Par Osho (भावना के भोजपत्रों पर ओशो) (2002 Diamond edition, p 174-5).

While concluding the letter Osho writes: "Your letter has been received. Will talk in that regard when I would meet. My feelings are quite different. Rest, OK. Convey my humble pranam to all."

रजनीश

११५, नेपियर टाउन
जबलपुर (म.प्र.)

प्रिय मां,
एक मकड़ी ने पतंगा पकड़ लिया है। पतंगे के चारों ओर उसके पैर कसते गये हैं और....... और मैं देख रहा हूँ कि मनुष्य के चारों ओर भी ऐसे ही घृणित और घिनौने पैर कसते जारहे हैं। एक विषाक्त हिंसा चारों ओर फैलती जाती है। मनुष्य अपने ही हाथों – अपने अंधेपन और अपनी अचेतन घृणा और हिंसा से आत्मघात की ओर चल रहा है। इस आत्मघाती हिंसा के रूप अनेक हैं – और अक्सर रूप सुन्दर होते हैं और रूप शांति और प्रेम की चादर से ढंके होते हैं – स्वतंत्रता, समाजवाद, लोकतंत्र – पर पीछे, पीछे सबके पशु बैठा है।

मनुष्य का, व्यक्ति का पशु नहीं जाता है तो विश्व से पशुता नहीं जासकती है। प्रत्येक व्यक्ति अपने अचेतन में आक्रमक और हिंसक वृत्तियों से भरा है। वे वृत्तियां स्वाभाविक हैं। उनका समग्र जोड राष्ट्रीय आक्रमण और हिंसा का रूप लेता हैं। व्यक्ति ही विस्तृत होकर राष्ट्र है। व्यक्ति का अहं ही जुड़कर राष्ट्र-अहं बन जाता है। यह राष्ट्रीय अहं ही समस्त युद्धों का मूल कारण है। इसका सीधा कोई उपचार नहीं है। व्यक्ति – इकाई से ही क्रांति करनी है। यह क्रांति व्यक्ति को अहं से मुक्त करती है और परिणाम में वह किसी राष्ट्रीय-अहं का अंग नहीं रह जाता है। जबतक ऐसे व्यक्तियों का जन्म नहीं होता है जो कि किसी भी राष्ट्र के न हों – जो केवल विश्व नागरिक हों – तबतक युद्ध से मुक्ति संभव नहीं है। राष्ट्र, धर्म और जाति की समस्त क्षुद्रतायें हिंसक हैं। किसी भी सीमा और संगठन में बंधना हिंसक होता है। संगठन मात्र हिंसात्मक है।

इस देश से विश्व को अहिंसा की आशा है लेकिन गांधीजी के बाद कोई अहिंसक नेतृत्व देश में नहीं रहा है। अहिंसा की कोई शिक्षा और तैयारी नहीं है। बातें अहिंसा की है; तैयारी और आस्था हिंसा की है। अहिंसा साहस की बात है और वह साहस इस बात से प्रारंभ होता है कि अहिंसा के ऊपर कोई मूल्य नहीं है। हिंसा किसी भी कारण वांछनीय नहीं है। समस्त विश्व जब हिंसा की आस्था से भरा है तब अगर कोई भी अहिंसा की दिशा में चलने को राजी नहीं है तो मानवता का भविष्य सुरक्षित नहीं कहा जासकता है। पर, झूठी अहिंसा काम नहीं दे सकती है। उसके फट जाने में देर नहीं लगती है। झूठी अहिंसा केवल सैद्धांतिक विश्वास से पैदा होती है। वह बौद्धिक आस्था मात्र है। वह चेतना में परिवर्तन नहीं है। इसका पर्याप्त प्रमाण अभी मिल रहा है। मैं जिस अहिंसा की बात कर रहा हूँ वह योग-साधना के परिणाम में उपलब्ध होती है। उस तरह की साधना को सार्वजनिक बनाना आवश्यक है। उसके अभाव में हम एक अहिंसक विश्व की नींव नहीं रख सकते हैं।

xxx

आपका पत्र मिल गया है। उस संबंध में जब मिलूँगा तब बातें करूँगा। मेरी धारणायें बहुत भिन्न हैं। शेष शुभ। सबको मेरे विनम्र प्रणाम कहें।

रात्रि:
१८ नव. १९६२

रजनीश के प्रणाम


See also
Bhavna Ke Bhojpatron ~ 100 - The event of this letter.
Letters to Anandmayee - Overview page of these letters.