Letter written on 1 Oct 1962: Difference between revisions

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The letter is dated 1st October 1962 and addressed to [[Lala Sundarlal Jain]], a son of Lala Motilal Jain, the founder of the major Indological publishing house, [[Motilal Banarsidass]]. The salutation is his customary one of those times, "प्रिय आत्मन", or "Beloved Soul".  
The letter is dated 1st October 1962 and addressed to [[Lala Sundarlal Jain]], a son of Lala Motilal Jain, the founder of the major Indological publishing house, [[Motilal Banarsidass]]. The salutation is his customary one of those times, "प्रिय आत्मन", or "Beloved Soul".  


The wiki has no image of the letter but we have made a transcription of the text from its only known publication, in the Oct 1 1969 issue of ''[[Yukrand (युक्रांद, Indian magazine)]]'', image right, text below. That issue of ''Yukrand'' has five letters addressed to Sundarlalji, introduced thusly:  
The wiki has no image of the letter but we have made a transcription of the text from its only known publication, in the Oct 1 1969 issue of ''[[Yukrand (युक्रांद)]]'', image right, text below. That issue of ''Yukrand'' has five letters addressed to Sundarlalji, introduced thusly:  
::<big>पत्र प्रेरणा</big>
::<big>पत्र प्रेरणा</big>
:(ला० सुन्दरलाल जी, बंगलो रोड-जवाहर नगर दिल्ली-७ को प्राचार्य रजनीश जी द्वारा लिखे गये कुछ पत्र)  
:(ला० सुन्दरलाल जी, बंगलो रोड-जवाहर नगर दिल्ली-७ को प्राचार्य रजनीश जी द्वारा लिखे गये कुछ पत्र)  
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:प्रणाम आपका पत्र पढ़ कर अत्यन्त प्रसन्नता हुई । मैं अभी तो कुछ भी नहीं लिखा है। एक ध्यान केन्द्र जरूर यहां बनाया है, जिसमें कुछ साथी प्रयोग कर रहे हैं। इन प्रयोगों से उपलब्ध नतीजों से परिपूर्ण रूप से सुनिश्चित हो जाने पर अवश्य ही कुछ लिखने की संभावना है। मैं अपने स्वयं के प्रयोगों पर निश्चित निष्कर्षों पर पहुंचा हूं। पर उनकी अन्यों के लिए उपयोगिता को भी परख लेना चाहता हूं। मैं शास्त्रीय ढंग से कुछ भी लिखना नहीं चाहता -- मेरी दष्टि वैज्ञानिक है। मनो-वैज्ञानिक और पार-मनोवैज्ञानिक प्रयोगों के आधार पर योग के विषय में कुछ कहने का विचार है। इस संबंध में बहुत सी भ्रांत धारणायें प्रचलित हैं-उनका खंडन भी आवश्यक है-इसलिए उन पर भी प्रयोग करके देख रहा हूं। इस कार्य में मेरी दष्टि में कोई संप्रदाय या पक्ष का अनुमोदन भी नहीं है। इस और कभी आवे तो बहुत सी चर्चा हो सकती है।
:प्रणाम आपका पत्र पढ़ कर अत्यन्त प्रसन्नता हुई । मैं अभी तो कुछ भी नहीं लिखा है। एक ध्यान केन्द्र जरूर यहां बनाया है, जिसमें कुछ साथी प्रयोग कर रहे हैं। इन प्रयोगों से उपलब्ध नतीजों से परिपूर्ण रूप से सुनिश्चित हो जाने पर अवश्य ही कुछ लिखने की संभावना है। मैं अपने स्वयं के प्रयोगों पर निश्चित निष्कर्षों पर पहुंचा हूं। पर उनकी अन्यों के लिए उपयोगिता को भी परख लेना चाहता हूं। मैं शास्त्रीय ढंग से कुछ भी लिखना नहीं चाहता -- मेरी दष्टि वैज्ञानिक है। मनो-वैज्ञानिक और पार-मनोवैज्ञानिक प्रयोगों के आधार पर योग के विषय में कुछ कहने का विचार है। इस संबंध में बहुत सी भ्रांत धारणायें प्रचलित हैं-उनका खंडन भी आवश्यक है-इसलिए उन पर भी प्रयोग करके देख रहा हूं। इस कार्य में मेरी दष्टि में कोई संप्रदाय या पक्ष का अनुमोदन भी नहीं है। इस और कभी आवे तो बहुत सी चर्चा हो सकती है।
::१ अक्टूबर-१९६२ ।
::१ अक्टूबर-१९६२ ।
[[Category:Individual Letters (hi:व्यक्तिगत पत्र)|Letter 1962-10-01]]

Latest revision as of 16:11, 9 August 2021

The letter is dated 1st October 1962 and addressed to Lala Sundarlal Jain, a son of Lala Motilal Jain, the founder of the major Indological publishing house, Motilal Banarsidass. The salutation is his customary one of those times, "प्रिय आत्मन", or "Beloved Soul".

The wiki has no image of the letter but we have made a transcription of the text from its only known publication, in the Oct 1 1969 issue of Yukrand (युक्रांद), image right, text below. That issue of Yukrand has five letters addressed to Sundarlalji, introduced thusly:

पत्र प्रेरणा
(ला० सुन्दरलाल जी, बंगलो रोड-जवाहर नगर दिल्ली-७ को प्राचार्य रजनीश जी द्वारा लिखे गये कुछ पत्र)

Transcription:

प्रिय आत्मन्
प्रणाम आपका पत्र पढ़ कर अत्यन्त प्रसन्नता हुई । मैं अभी तो कुछ भी नहीं लिखा है। एक ध्यान केन्द्र जरूर यहां बनाया है, जिसमें कुछ साथी प्रयोग कर रहे हैं। इन प्रयोगों से उपलब्ध नतीजों से परिपूर्ण रूप से सुनिश्चित हो जाने पर अवश्य ही कुछ लिखने की संभावना है। मैं अपने स्वयं के प्रयोगों पर निश्चित निष्कर्षों पर पहुंचा हूं। पर उनकी अन्यों के लिए उपयोगिता को भी परख लेना चाहता हूं। मैं शास्त्रीय ढंग से कुछ भी लिखना नहीं चाहता -- मेरी दष्टि वैज्ञानिक है। मनो-वैज्ञानिक और पार-मनोवैज्ञानिक प्रयोगों के आधार पर योग के विषय में कुछ कहने का विचार है। इस संबंध में बहुत सी भ्रांत धारणायें प्रचलित हैं-उनका खंडन भी आवश्यक है-इसलिए उन पर भी प्रयोग करके देख रहा हूं। इस कार्य में मेरी दष्टि में कोई संप्रदाय या पक्ष का अनुमोदन भी नहीं है। इस और कभी आवे तो बहुत सी चर्चा हो सकती है।
१ अक्टूबर-१९६२ ।