Letter written on 20 Jun 1963

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This is one of hundreds of letters Osho wrote to Ma Anandmayee, then known as Madan Kunwar Parakh. It was written on 20th June 1963. The letterhead has "Acharya Rajneesh" in a large, messy font to the right of and above the rest, which reads:

Darshan Vibhag [Department of Philosophy]
Mahakoshal Kala Mahavidyalaya [Mahakoshal Arts University]
115, Napier Town
Jabalpur (M.P.)

Osho's salutation in this letter is a simple "मां", Maan, Mom or Mother. There are a couple of the hand-written marks seen in other letters, a black tick mark up top and a faint but readable mirror-image number in the bottom right corner, 189. This letter has been published in Krantibeej (क्रांतिबीज) as letter 23 (edited and trimmed text) and later in Bhavna Ke Bhojpatron Par Osho (भावना के भोजपत्रों पर ओशो) on p 227.

The PS reads: "Your letter is received. I am healthy and I am in bliss."

आचार्य रजनीश

दर्शन विभाग
महाकोशल कला महाविध्यालय
११५, नेपियर टाउन,
जबलपुर (म. प्र.)

मां,

विचार – विचार – और विचार। विचार की श्रंखला ही मन है। मन केवल विचार-प्रक्रिया है। विचार से और केवल विचार से ही वह निर्मित है। विचार के अतिरिक्त वहां कुछ और नहीं है। कुछ भी अन्यथा वहां सत्तावान्‌ नहीं है। श्री रमण ने किसी से कहा था : ‘विचारों को रोक दो और फिर मुझे बतलाओ कि मन कहां है?’

विचार-शून्यता में मन नहीं होता है। विचार-शून्यता और मन-मृत्यु एक ही घटना के दो नाम है। अनुभव से दीखता है कि जहां विचार नहीं है, वहां जिसे हम ‘मन’ कहते हैं वैसा कुछ भी नहीं बचता है। लेकिन क्या कुछ भी नहीं बचता है? क्या मन के साथ जीवन की इति है? नहीं, वरन्‌ विपरीत वहीं से उसका प्रारंभ है जिसे जीवन कहा जासकता है। मन मिटता है पर कुछ खोता नहीं, वरन्‌ पाया जाता है। मन के हटते ही उसका रिक्त स्थान चैतन्य से भर जाता है। कोडी खोकर हीरे उपलब्ध होजाते हैं। चैतन्य का अवतरण जीवन को एक नया आयाम दे देता है। इस प्रकाश में उसे जाना जाता है जो सत्य है, जो अमृत है, जो सत्ता है। विचार से इसे कभी नहीं जाना गया है। विचार कभी सीमित छोड़ असीम तक उड़ान नहीं ले सके हैं। विचार पर को छोड़ स्व तक पहुँचने के कभी साधन नहीं बने हैं। क्योंकि स्व तो उनके पूर्व और उनके पीछे जो है। विचार जहां हैं वह रूप और नाम का जगत्‌ है। रूपातीत चैतन्य उस ढांचे में, उस जाल में नहीं फंसता है। उसे जानना हो तो सीमायें और सब बंधन छोड़कर ऊपर उठना होता है। विचार के, मन के जाते ही यह शर्त पूरी होजाती है। क्योंकि मन ही एकमात्र सीमा है। वह सब सीमाओं का जनक है। उसके हटते ही असीम का, अनंत का, अनादि का उद्‌घाटन है।

सुबह सुबह आज यही कहा हूँ। कहा हूँ : ‘मन छोड़ो और सत्य को पालो। और यह सौदा बहुत सस्ता है।‘

२० जून १९६३

रजनीश के प्रणाम


पुनश्च:
आपका पत्र मिला है। मैं स्वस्थ हूँ और आनंद में हूँ।


See also
Krantibeej ~ 023 - The event of this letter.
Letters to Anandmayee - Overview page of these letters.