Letter written on 23 Feb 1963 pm

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This is one of hundreds of letters Osho wrote to Ma Anandmayee, then known as Madan Kunwar Parakh. It was written in the evening of 23rd February 1963. The letterhead has a simple "रजनीश" (Rajneesh) in the top left area, in a heavy but florid font, and "115, Napier Town, Jabalpur (M.P.) in the top right, in a lighter but still somewhat florid font.

The salutation is "प्रिय मां", Priya Maan, Dear Mom, The letter's hand-written marks are few: in the new style, there is a black tick mark in the upper right corner and in the old style, a faint possible mirror-image 3-digit number in the bottom right corner. It looks like "170", which is partially confirmed by the next letter clearly being #171. This letter has been published in Krantibeej (क्रांतिबीज) as letter 55 (edited and trimmed text) and later in Bhavna Ke Bhojpatron Par Osho (भावना के भोजपत्रों पर ओशो) on p 202 and 203.

रजनीश

११५, नेपियर टाउन
जबलपुर (म. प्र.)

प्रिय मां,
महावीर ने पूछा हैः ‘किं भया पाणा समाउणो?’ (श्रमणो, प्राणियों को भय क्या है?) कल कोई यही पूछता था और कोई पूछे या न पूछे; प्रश्न तो यही प्रत्येक की आंखों में है। शायद, यह सनातन प्रश्न है और शायद, यह अकेला ही प्रश्न है जो पूछना सार्थक भी है।

प्रत्येक भयभीत है। ज्ञात में, अज्ञात में भय सरक रहा है। उठते-बैठते, सोते-जागते, भय बना हुआ है। प्रत्येक क्रिया में, व्यवहार में, विचार में भय है। प्रेम में, घृणा में, पुण्य में, पाप में – सब में भय है। जैसे हमारी पूरी चेतना ही भय से निर्मित है। हमारे विश्वास, धारणायें, धर्म और ईश्वर भय के अतिरिक्त और क्या हैं?

यह भय क्या है? भय के रूप अनेक हैं पर भय एक ही है। वह मृत्यु है। वह मूल भय है। मिटने की, न होजाने की संभावना ही समस्त भय के मूल में है। भय यानी न होजाने की, मिटने की आशंका। इस आशंका से बचने को पूरे जीवन प्रयास चलता है। सब प्रयास इस मूल असुरक्षा से बचने को हैं। पर पूरे जीवन दौड़कर भी ‘होना’ सुनिश्चित नहीं होपाता है। दौड़ हो जाती है समाप्त : असुरक्षा वैसी ही बनी रहती है। जीवन होजाता है पूरा और मृत्यु टल नहीं पाती है। उल्टे, जो जीवन दीखता था, वह पूरा होकर मृत्यु में परिणित होजाता है! तब ज्ञात होता है कि जीवन जैसे था ही नहीं, केवल मृत्यु विकसित होरही थी। जन्म और मृत्यु जैसे मृत्यु के ही दो छोर हैं!

यह मृत्यु का भय क्यों है? मृत्यु तो अज्ञात है : वह तो अपरिचित है। उसका भय कैसे होगा? जो ज्ञात ही नहीं है, उससे सम्बंध भी क्या होसकता है? वस्तुतः, मृत्यु का भय जिसे हम कहते हैं वह मृत्यु का न होकर, जिसे हम जीवन जीवन जानते हैं, उसके खोने का डर है। जो ज्ञात है उसके खोने का भय है। जो ज्ञात है उससे हमारा तादात्म्य है। वही हमारा ‘होना’ बन गया है। वही हमारी सत्ता बन गई है। मेरा शरीर, मेरी संपत्ति, मेरी प्रतिष्ठा, मेरे सम्बंध, मेरे संस्कार, मेरे विश्वास, मेरे विचार – यही मेरे ‘मैं’ के प्राण बन गये हैं। यही ‘मैं’ होगया हूँ। मृत्यु इस ‘मैं’ को छीन लेगी : यही भय है। इस सबको इकट्ठा किया जाता है भय से बचने को, सुरक्षा पाने को और होता उल्टा है : इसे खोने की आशंका ही भय बन जाती है। मनुष्य साधारणतः जो कुछ भी करता है वह सब जिसके लिए किया जाता है उसके विपरीत चला जाता है! आज्ञान में आनंद के लिए उठाये गये सब कदम दुख में ले जाते हैं : अभय के लिए चला गया रास्ता और भय में लेजाता है। जो ‘स्व’ की प्राप्ति मालुम होता है वह ‘स्व’ नहीं है। यदि इस सत्य के प्रति जागना होजाये – यदि मैं यह जान सकूँ कि जिसे मैंने ‘मैं’ जाना है वह ‘मैं’ नहीं हूँ और इस क्षण भी मेरे तादात्म्यों से मैं भिन्न और प्रथक्‌ हूँ तो भय विसर्जित हो जाता है। मृत्यु में जो पर है वही खोता है।

इस सत्य को जानने के लिए कोई क्रिया, कोई उपाय नहीं करना है। केवल उन उन तथ्यों को जानना है – उन उन तथ्यों के प्रति जागना है जिन्हें मैं समझता हूँ कि ‘मैं’ हूँ : जिनसे मेरा तादात्म्य है। जागरण तादात्म्य तोड़ देता है : जागरण स्व और पर को प्रथक्‌ कर देता है। स्व - पर का तादात्म्य भय है; प्रथक्‌ बोध भय-मुक्ति है, अभय है।

(रात्रि: २३ फरवरी १९६३)

रजनीश के प्रणाम


See also
Krantibeej ~ 055 - The event of this letter.
Letters to Anandmayee - Overview page of these letters.