Letter written on 25 Jul 1963

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This is one of hundreds of letters Osho wrote to Ma Anandmayee, then known as Madan Kunwar Parakh. It was written on 25th July 1963 from Nepanagar (Dist. Burhanpur, M.P.) while on return journey to Jabalpur. The letterhead is the earliest known specimen of a new, simpler variety resembling those he has been using for a few months but which omits his university title and just has his home address. It has "Acharya Rajneesh" in a large, messy font to the left of and oriented 90º to the rest, which reads:

115, Napier Town
Jabalpur (M.P.)

Osho's salutation in this letter is "प्रिय मां", Priya Maan, Dear Mom. Only one of the hand-written marks seen in other letters, a black tick mark up top, is seen; there are some faint marks bottom right but they are too faint to make out.

Osho's experiments with coloured inks seen in other recent letters has been dropped for this one. It is all black. The PS mentions events 3-5 Aug + contact info for Prafulla Chandra. It has been published in Jeevan-Darshan (जीवन दर्शन) (letters) as letter #7, Krantibeej (क्रांतिबीज) as letter 12 (edited and trimmed text) and later in Bhavna Ke Bhojpatron Par Osho (भावना के भोजपत्रों पर ओशो) on p 233-234.

आचार्य रजनीश

११५, नेपियर टाउन,
जबलपुर (म. प्र.)

(प्रवास से:
नेपानगर
२५ जुलाई १९६३)

प्रिय मां,
एक संध्या की बात है। गेलीली की झील पर तूफान आया हुआ था। एक नौका डूबती-डूबती हो रही थी। बचाव का कोई उपाय नहीं दीखता था। यात्री और माझी घबड़ा गये थे। आंधियों के थपेड़े प्राणों को हिला रहे थे। पानी की लहरें भीतर आना शुरू हो गई थी और किनारे पहुंच से बहुत दूर थे। पर इस गरजते तूफान में भी नौका के एक कोने में एक व्यक्ति सोया हुआ था : शांत और निश्चिंत। उसके साथियों ने उसे उठाया। सबकी आंखों में आसन्न मृत्यु की छाया थी।

उस व्यक्ति ने उठकर पूछा : “इतने भयभीत क्यों हो?” जैसे भय की कोई बात ही न थी; उसके साथी अवाक्‌ रह गये। उनसे कुछ कहते भी तो नहीं बना। तभी उसने पुनः कहा : “क्या अपने आप पर बिल्कुल भी आस्था नहीं है?” इतना कहकर वह शांति और धीरज से उठा और नाव के एक किनारे पर गया। तूफान आखरी चोटें कर रहा था। उसने उस विक्षुब्ध होगई झील से जाकर कहा : “शांति। शांत होजाओ।” (Peace, Be still!)

तूफान जैसे कोई नटखटी बच्चा था ऐसे ही उसने कहा थाः “शांत हो जाओ!”

यात्री समझे होंगे कि यह क्या पागलपन है। तूफान क्या किसी की मानेगा! लेकिन उनकी आंखों के सामने ही तूफान सोगया था और झील ऐसी शांत होगई थी कि जैसे कुछ हुआ ही नहीं है!

उस व्यक्ति की बात मानली गई थी!

यह व्यक्ति था : जीसस क्राइस्ट। और यह बात है : दो हजार बर्ष पुरानी। पर मुझे यह घटना रोज ही घटती हुई मालुम होती है!

क्या हम सब ही निरंतर एक तूफान – एक अशांति से नहीं घिरे हुए हैं? क्या हमारी आंखों में भी निरंतर आसन्न मृत्यु की छाया नहीं है? क्या हमारे भीतर चित्त की झील बिक्षुब्ध नहीं है? क्या हमारी जीवन-नौका भी प्रतिक्षण डूबती-डूबती नहीं मालुम होती है?

तब क्या उचित नहीं है कि हम अपने से पूछें : “इतने भयभीत क्यों हो? क्या अपने आप पर बिल्कुल भी आस्था नहीं है?” और फिर अपने भीतर झील पर जा कर कहें : “शांति, शांत होजाओ।”

मैं यह कहकर देखा हूँ और पाया है कि तूफान सो जाता है। केवल शांत होने के भाव करने की ही बात है और शांति आजाती है। अपने भाव से प्रत्येक अशांत है : अपने भाव से शांत भी होसकता है। शांति उपलब्ध करना अभ्यास की बात नहीं है। केवल सद्‌भाव ही पर्याप्त है। शांति तो हमारा स्वरूप है। घनी अशांति के बीच भी एक केंद्र पर हम शांत हैं। एक व्यक्ति वहां तूफान के बीच भी निश्चिंत सोया हुआ है! इस शांत, निश्चल, निश्चिंत केंद्र पर ही हमारा वास्तविक होना है। उसके होते हुए भी हम अशांत होसके हैं यही आश्चर्य है! उसे वापिस पालेने में तो कोई आश्चर्य नहीं है।

शांत होना चाहते हो तो इसी क्षण – अभी और यहीं – शांत होसकते हो। अभ्यास भविष्य में फल लाता है : सद्‌भाव वर्तमान में ही। सद्‌भाव अकेला वास्तविक परिवर्तन है।

xxx

(कल यात्रा में एक अपरिचित सहयात्री से हुई बातचीत का एक टुकड़ा।)

रजनीश के प्रणाम


पुनश्च: तुम्हारा पत्र मिल गया था, यथासमय। मैं ४ अगस्त को नागपुर बोल रहा हूँ। ३ अगस्त की रात्रि वहां पहुँचूंगा। किस समय यह जबलपुर पहुँचकर लिखूंगा। तुम्हें पहुँचना है। मुझे बस स्टैंड पर ही मिलना। ४ की संध्या मीटिंग है। सुबह चाहो तो पारिल जी या अन्य लोगों से मिलने का कार्यक्रम रख सकती हो। ५ अग. की सुबह मैं वापिस लौटूँगा। नागपुर का पता है : श्री प्रफुल्ल चन्द्र पुगालिया,

मंत्री, जैन सेवा मंडल, महावीर भवन,
इतवारी,
नागपुर – २.
Partial translation
"(A part of the conversation with one co-traveler yesterday during the journey.)
PS: Your letter was received, right in time. I would (deliver) talk on 4 August at Nagpur. I will reach at night of 3 August, there - at what time, this I will inform after reaching Jabalpur. You should reach - meet me at the Bus Stand itself. There is a meeting in the evening on 4th. If desired you can keep program to meet Paril Ji or others, in the morning. I will be returning back in the morning of 5 Aug. Address at Nagpur: Shree Praful Chandra Pugaliya, Secretary, Jain Seva Mandal, Mahavir Bhavan, Itwari, Nagpur - 2."
See also
Krantibeej ~ 012 - The event of this letter.
Letters to Anandmayee - Overview page of these letters.