Letter written on 31 May 1962

From The Sannyas Wiki
Jump to navigation Jump to search
The printable version is no longer supported and may have rendering errors. Please update your browser bookmarks and please use the default browser print function instead.

This is one of hundreds of letters Osho wrote to Ma Anandmayee, then known as Madan Kunwar Parakh. It was written on 31 May 1962.

This letter has been published in Krantibeej (क्रांतिबीज) as letter 91 (edited and trimmed text) and later in Bhavna Ke Bhojpatron Par Osho (भावना के भोजपत्रों पर ओशो) on p 130 (2002 Diamond edition).

रजनीश

११५, नेपियर टाउन
जबलपुर (म.प्र.)

३१ मई १९६२

मां,
दोपहर जाने को है। आकाश अभी अभी खुला था फिर जोर की हवायें आई और अब काली बदलियों में वह ढंका जा रहा है।

सूरज छिप गया है और हवाओं में ठंडक है।

एक फकीर द्वार पर आया है। उसके हाथ में एक तोता है। पींजरा नहीं है पर तोता दीखता है कि उड़ना भूल चुका है। आते ही फकीर नहीं, तोता ही बोला है : “राम कहो। राम कहो। राम.. राम... राम...।“ मैंने कहा : ‘तोता तो अच्छा बोलता है।’ फकीर बोला : ‘महाराज, यह तोता बड़ा पंडित है।’ यह सुन मुझे हंसी आगई : मैंने कहा : “होना ही चाहिए, क्योंकि सभी पंडित तोते ही होते हैं!”

यह मुझे बहुत स्पष्ट दीखता है कि ज्ञान सीखने से नहीं आता है और जो सीखने से आता है वह ज्ञान नहीं है। ज्ञान बुद्धि की उपलब्धि नहीं है। बुद्धि स्मृति है और स्मृति से नहीं, स्मृति के हट जाने से ज्ञान आता है। जो सीखा जाता है वह तोता बनाता है। इस तोता रटन्न का नाम पांडित्य है। ज्ञान के मार्ग में इससे बड़ी और कोई बाधा नहीं है। पांडित्य मृत तथ्यों का संग्रह है। ये तथ्य सब उधार होते हैं : अनुभूति में इनकी कोई जड़ें नहीं होती हैं। इन मृत तथ्यों से घिरा चित्त उसके दर्शन नहीं कर पाता है जो कि है। ये तथ्य पर्दा बन जाते हैं। इस पर्दे के हटाने पर अज्ञात का उदघाटन होता है। यह दर्शन ही ज्ञान है। सीखना नहीं, दर्शन ज्ञान है। ग्रन्थ नहीं, तथ्य नहीं, सत्य दृष्टि उस उपलब्धि का मार्ग है।

सत्य दर्शन जब होता है तब पाया जाता है कि ज्ञान तो था ही, केवल उसे देख पाने की दृष्टि हमारे पास नहीं थी और इस दृष्टि को पांडित्य के संग्रह से नहीं पाया जासकता था। इससे आत्म प्रवंचना भर हो सकती थी और कुछ भी नहीं। बिना जाने ही यह अहं-तृप्ति हो सकती थी कि मैं जानता हूँ। इसलिए कहा है कि यह जानना कि मैं जानता हूँ अज्ञान है। क्यों? क्योंकि जानने पर पाया जाता है कि मैं हूँ ही नहीं : केवल ज्ञान है : न ज्ञाता है, न ज्ञात है।

यह अद्वैत-दर्शन तब होता है जब सब छोड़कर मैं शून्य होजाता हूँ।

रजनीश के प्रणाम


See also
Krantibeej ~ 091 - The event of this letter.
Letters to Anandmayee - Overview page of these letters.