Letter written on 3 Apr 1963

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This is one of hundreds of letters Osho wrote to Ma Anandmayee, then known as Madan Kunwar Parakh. It was written on 3rd April 1963. The letterhead has "Acharya Rajneesh" in a large, messy font to the right of and above the rest, which reads:

Darshan Vibhag [Department of Philosophy]
Mahakoshal Kala Mahavidyalaya [Mahakoshal Arts University]
115, Napier Town
Jabalpur (M.P.)

Osho's salutation in this letter is "प्रिय मां", Priya Maan, Dear Mom. Of the hand-written marks seen in other letters, it has a black tick mark and a faint, not entirely readable mirror-image number in the bottom right corner, which could be 178, what it "should" be in a hypothesized sequence (see Talk:Letters to Anandmayee). This letter has been published in Krantibeej (क्रांतिबीज) as letter 1 (edited and trimmed text) and later in Bhavna Ke Bhojpatron Par Osho (भावना के भोजपत्रों पर ओशो) on p 212.

आचार्य रजनीश

दर्शन विभाग
महाकोशल कला महाविध्यालय
११५, नेपियर टाउन,
जबलपुर (म. प्र.)


प्रिय मां,

एक गांव में गया था। किसी ने कहा : ‘धर्म त्याग है। त्याग बड़ी कठिन और कठोर साधना है।‘

मैं सुनता था तो एक स्मरण हो आया। छोटा था। बहुत बचपन की बात होगी। कुछ लोगों के साथ नदी तट पर वन-भोज को गया था। नदी तो छोटी थी पर रेत बहुत थी और रेत में चमकीले रंगों भरे पत्थर बहुत थे। मैं तो जैसे खजाना पा गया था। सांझ तक इतने पत्थर बीन लिये थे कि उन्हें साथ लाना असंभव था। चलते क्षण जब उन्हें पीछे छोड़ना पड़ा तो मेरी आंखें भींग गई थी और साथ के लोगों की उन पत्थरों की ओर विरक्ति देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ था। उस दिन वे मुझे बड़े त्यागी लगे थे!

और आज सोचता हूँ तो दीखता है कि पत्थरों को पत्थर जान लेने पर त्याग का कोई प्रश्न ही नहीं है।

अज्ञान भोग है : ज्ञान त्याग है।

त्याग क्रिया नहीं है। वह करना नहीं होता है। वह होजाता है। वह ज्ञान का सहज परिणाम है। भोग भी यांत्रिक है। वह भी कोई करता नहीं है। वह अज्ञान की सहज परिणति है।

फिर, त्याग के कठिन और कठोर होने की बात भी व्यर्थ है। एक तो वह क्रिया ही नहीं है। क्रियायें ही कठिन और कठोर हो सकती हैं। वह तो परिणाम है। फिर, उसमें जो छूटता मालुम होता है वह निर्मूल्य और जो पाया जाता है वह अमूल्य होता है।

ए. हार्न ने कहा है : ‘त्याग जैसी कोई वस्तु ही नहीं है; क्योंकि जो हम छोड़ते हैं, उससे बहुत शेष्ठ को पा लेते हैं।

सच तो यह है कि हम केवल बंधनों को छोड़ते हैं और पाते हैं मुक्ति। छोड़ते हैं कौड़ियां और पाते हैं हीरे। छोड़ते हैं मृत्यु और पाते हैं अमृत। छोड़ते हैं अंधेरा और पा लेते हैं प्रकाश – शाश्वत और अनंत।

इसलिए, त्याग कहां है? न कुछ को छोड़कर सब कुछ को पालेना त्याग नहीं है।

और तब कहता हूँ कि जो अपने जीवन को छोड़ता है वह जीवन को पालेता है।

३ अप्रेल १९६३

रजनीश के प्रणाम


See also
Krantibeej ~ 001 - The event of this letter.
Letters to Anandmayee - Overview page of these letters.