Letter written on 3 Jun 1962

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This is one of hundreds of letters Osho wrote to Ma Anandmayee, then known as Madan Kunwar Parakh. It was written on 3rd June 1962. The letterhead has a simple "रजनीश" (Rajneesh) in the top left area, in a heavy but florid font, and "115, Napier Town, Jabalpur (M.P.) in the top right, in a lighter but still somewhat florid font.

Osho's salutation in this letter is his normal "प्रिय मां", Priya Maan, Dear Mom, Beloved Mother. It has a couple of the hand-written marks that have been observed in other letters: a black tick mark in the top right corner and a pale mirror-image number in the bottom right. And there are actually two numbers there, a 108 crossed out with a red pen and replaced by a red 110.

This letter has been published in Krantibeej (क्रांतिबीज) as letter 92 (edited and trimmed text).

रजनीश

११५, नेपियर टाउन
जबलपुर (म.प्र.)

प्रिय मां,
संध्या उतर आई है। आकाश में तारे फूट रहे हैं। और सान्ध्य-कुसुमों की गंध उड़ने लगी है।

एक कोयल दोपहर भर कूकती रही है और अब चुप हो गई है। वह गाती थी तो इतनी ख़याल में नहीं थी, अब मौन क्या हुई है कि और ख़याल में होआई है! मैं उसके फिर से स्वर उठाने की प्रतीक्षा कर रहा हूँ कि इसी बीच एक साधु का आगमन हुआ है। बाल-ब्रह्मचारी हैं : सूखी, कृश, अस्वस्थ सी देह है। चेहरा बुझा-बुझा, फ़ीका और निस्तेज है। आंखों का पानी उड़ गया है। देख उन्हें, मुझे बहुत दया आई है। शरीर पर अनाचार किया है। यह मैं उनसे कहा हूँ। वह तो कुछ चौंक से गये हैं। इसे ही त्याग मानते हैं। अस्वास्थ्य जैसे आध्यात्मिक है : कुरूपता और विकृति जैसे योग है। असौंदर्य को साधना ही साधना है। एक जर्मन दार्शनिक काउन्ट कैसरलिंग ने कहीं लिखा है : ‘स्वास्थ्य आध्यात्म-विरोधी आदर्श है।’ उनकी इस पंक्ति में इसी अज्ञान की गूंज है। यह विचार प्रतिक्रिया जन्य है। कुछ हैं जो शरीर के पीछे हैं। शरीर ही उन्हें सब कुछ है। यह एक अति है फिर इसकी प्रतिक्रिया से दूसरी अति पैदा होती है। पर दोनों ही अतियां शरीरवादी हैं। शरीर को न तो उबालते फिरना है, न उसे तोड़ते फिरना है। वह तो कुल जमा आवास है : उसका स्वस्थ और स्वच्छ होना आवश्यक है। आध्यात्मिक जीवन स्वास्थ्य विरोधी नहीं है। वह तो परिपूर्ण स्वास्थ्य है। वह तो एक लययुक्त, संगीतपूर्ण सौंदर्य की स्थिति का ही पर्यायवाची है।

शरीर-दमन आध्यात्म नहीं है : वह तो केवल भोगवादी वृत्तियों का शीर्षासन है; वह तो भोग की प्रतिक्रिया मात्र है। उसमें ज्ञान नहीं, अज्ञान और आत्म हिंसा है। वह वृत्ति हिंसक है। उसमें कोई कहीं नहीं पहुँचता है। शरीर को दमन नहीं करना है। वह तो बेचारा केवल उपकरण है और अनुगामी है। वह तो मैं जैसा हूँ वैसा होजाता है। मैं वासना में हूँ तो वह वहां साथ देता है। मैं साधना में होजाऊं तो वह वहां साथी होजाता है। वह मेरे पीछे है : परिवर्तन उसमें नहीं है, वह जिसके पीछे है उसमें करता है।

३ जून १९६२

रजनीश के प्रणाम


See also
Krantibeej ~ 092 - The event of this letter.
Letters to Anandmayee - Overview page of these letters.