Letter written on 4 Jan 1963 pm

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This is one of hundreds of letters Osho wrote to Ma Anandmayee, then known as Madan Kunwar Parakh. It was written in the evening of 4th January 1963. The letterhead has a simple "रजनीश" (Rajneesh) in the top left area, in a heavy but florid font, and "115, Napier Town, Jabalpur (M.P.) in the top right, in a lighter but still somewhat florid font.

The salutation is his commonest one for her, "प्रिय मां", Priya Maan, Dear Mom. There are two hand-written marks, a black tick mark in the upper right and a pale mirror-image number in the bottom right corner. And actually, there are two numbers there, 158 and one crossed out, which looks like 156.

The PS reads:

"How the journey was? Hope, I didn't trouble you?"

This is the first letter of 1963 written after 15 Dec 1962 as per the wiki records. It appears from the PS that Ma joined Osho on the suggested tour program for the talks during 22-28 Dec at Nandurbar and Mumbai , as per Letter written on 12 Dec 1962.

This letter has been published in Krantibeej (क्रांतिबीज) as letter 68 (edited and trimmed text) and later in Bhavna Ke Bhojpatron Par Osho (भावना के भोजपत्रों पर ओशो) on p 185 and 186.

रजनीश

११५, नेपियर टाउन
जबलपुर (म. प्र.)

रात्रि:
४ जनवरी १९६३

प्रिय मां,
सत्य पर कुछ चर्चा चल रही थी कि मैं भी आ गया हूँ। सुनता हूँ : जो बात कर रहे हैं, वे अध्ययन शील हैं। विभिन्न दर्शनों से परिचित हैं। कितने मत हैं और कितने विचार हैं सब उन्हें ज्ञात मालुम होते हैं। बुद्धि उनकी भरी हुई है : सत्य से तो नहीं, सत्य के सम्बंध में औरों ने जो कहा है उससे। जैसे औरों ने जो कहा है उस आधार से भी सत्य जाना जासकता है! सत्य जैसे कोई मत है – विचार है और कोई बौद्धिक – तार्किक निष्कर्ष है! विवाद उनका गहरा होता जा रहा है और अब कोई भी किसी की सुनने की स्थिति में नहीं है। प्रत्येक बोल रहा है पर कोई भी सुन नहीं रहा है।

मैं चुप हूँ। फिर, किसी को मेरा स्मरण आता है और वे मेरा मत भी जानना चाहते हैं। मेरा तो कोई मत नहीं है : मुझे तो दीखता है कि जहां तक मत हैं वहां तक सत्य नहीं है। विचार की जहां समाप्ति है सत्य का वहां प्रारंभ है।

मैं क्या कहूँ? वे सभी सुनने को उत्सुक हैं। एक कहानी कहता हूँ :

“एक साधु था : बोधिधर्म। वह ईसा की छटवीं सदी में चीन गया था। कुछ बर्ष वहां रहा फिर उसने घर लौटना चाहा और अपने शिष्यों को इकठ्ठा किया। वह जानना चाहता था कि सत्य में उनकी कितनी गति हुई है।

“उसके उत्तर में डोफुकू ने कहाः ‘मेरे मत से सत्य स्वीकार-अस्वीकार के अतीत है – न कहा जा सकता है कि है, न कहा जा सकता है कि नहीं है क्योंकि ऐसा ही उसका स्वरूप है।’

बोधिधर्म बोलाः ‘तेरे पास मेरी चमढ़ी है।’

सोजी ने कहा : ‘मेरे विचार में सत्य अंतर्दृष्टि है – उसे एक बार पालिया तो पालिया फिर उसका खोना नहीं है।’

बोधिधर्म बोलाः ‘तेरे पास मेरा मांस है।’

दोइकू ने कहाः ‘मैं मानता हूँ कि पंच महाभूत शून्य हैं और पंच स्कंध भी अवास्तविक हैं। यह शून्यता ही सत्य है।’

बोधिधर्म बोला : ‘तेरे पास मेरी हड्डियां हैं।’

और अंततः, इका उठा। उसने गुरु के चरणों में सिर रख दिया और मौन रहा। वह चुप था और उसकी आंखें शून्य थी।

बोधिधर्म बोला : ‘तेरे पास मेरी मज्जा है – मेरी आत्मा है।“

और यही कहानी मेरा उत्तर है!

रजनीश के प्रणाम


पुनश्च: यात्रा कैसी हुई? राह में मैंने सताया तो नहीं?


See also
Krantibeej ~ 068 - The event of this letter.
Letters to Anandmayee - Overview page of these letters.