Letter written on 4 Nov 1961

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This is one of hundreds of letters Osho wrote to Ma Anandmayee, then known as Madan Kunwar Parakh. It was written on 4th November 1961 from Gadarwara. The letterhead is the first example of a long-awaited replacement for the one used from late 1960 through Mar 1961, his "professional" letterhead. This new version has "Rajneesh" changed to "Acharya Rajneesh", a "115" added to his home address, replacing the non-numerical style of address he had before, and Madhya Pradesh spelled out in full as one word. It now reads:

Top left corner: Acharya Rajneesh / Darshan Vibhag (Philosophy Dept) / Mahakoshal Mahavidhalaya (Mahakoshal University). Top right: Nivas (Home) / 115, Napier Town / Jabalpur (Madhyapradesh).

Osho's salutation in this letter is "प्रिय मां" (Priya Maan, Dear Mom). It has a few of the hand-written marks that have been observed in other letters: a blue number (31) in a circle in the top right corner, a red tick mark, and a second number (57) in the bottom right corner.

And it is a long letter, continuing onto the back of the page and filling that, with a few extra words written at the top of the first page, between the two halves of the letterhead: स्मृतिग्रंथ मे दिया है - "given in Reminiscence Book". This is not part of the letter.

(स्मृतिग्रंथ मे दिया है)

आचार्य रजनीश
दर्शन विभाग
महाकोशल महाविद्यालय

निवास,
११५, नेपियर टाउन
जबलपुर (मध्यप्रदेश)

गाडरवारा.
४ नवम्बर १९६१

प्रिय मां,
चांद ऊपर उठ आया है : रात्रि भोर के निकट है। आम्र पंक्तियों के नीचे स्वप्न सा धुंधला प्रकाश फैला हुआ है।

कोयल कूक कर चूप हो गई है। निर्जन राह पर स्व-पद-चाप भर सुनाई पड़ते हैं।

एक मित्र साथ हैं : उदास, खिन्न और अशांत। युवा हैं, स्वस्थ दीखते हैं, दुख का कारण नहीं है पर जीवन का अर्थ खोगया है। मनुष्य शरीर है – जगत्‌ चेतना-विहीन है। कोई ईश्वर नहीं है ऐसी उनकी धारणा है। मार्क्स की एक पंक्ति दुहाराते हैं : धर्म अफीम का नशा है।

मैं सुनता हूँ और दया से भर आता हूँ। निषेधात्मक विचार कितनी रुग्णता लारहे हैं। सारा मनुष्य समाज रुग्ण होता जा रहा है। अपने ही हाथों अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारी जारही है। एक सत्य जैसे आज भूल ही गया है कि जो हम सोचते हैं, धीरे धीरे वही होजाते हैं। मनुष्य की धारणायें मनुष्य को बनाती हैं। धारणायें सत्य है या असत्य, श्रेय हैं या अश्रेय इसे तर्क में जाकर देखने की आवश्यकता नहीं होती है: मनुष्य पर उनका परिणाम ही उन्हें प्रमाणित या अप्रमाणित कर देता हैं।

मैं उनसे कहता हूँ कि धर्म तो आनंद और शांति का विज्ञान है। जो विचार जीवन को पूर्णता के आनंद बोध से भर सकते हैं वे ही विचार धार्मिक है। ईश्वर को मानने न मानने का प्रश्न नहीं है। आनंद, पूर्ण आनंद और शांति नास्तिकता से नहीं आती है। इससे वह गलत है। तुम ही अपने को देखो : अशांत और उदास हो। यूं क्या अपने ही विचारों का यह पर्याप्त खंड़न नहीं है? शांत हो जाओ, निष्कम्प आनंद से भर जाओ, फिर तुम जो कहोगे मैं मान लूंगा। इस स्थिति को ही मैं आस्तिकता कहता हूँ।

स्व- आस्था ही आस्तिकता है। स्व-उपलब्धि ही ईश्वर उपल्ब्धि है। स्व में


आजाना ही धर्म है। इसे विज्ञान की भाषा में कहें तो स्वरूप-प्रतिष्ठा स्वास्थ्य है। नास्तिकता को मैं गलत नहीं कहता : वह तो बीमारी है। बीमारी को गलत कह देने से ही काम नहीं चलता है। सहानुभूति से उसे समझना आवश्यक है। इससे नास्तिक को देखकर मुझे विवाद नहीं सूझता केवल दया भर आती है। बीमार से कोई विवाद करता है!

मैं इतना कहता हूँ कि आत्म-वंचना न करो। आंखें खोलो और देखो। बीमारीको देख लेना उससे आधा मुक्त होजाना है। अशांति देखो, भीतर उपस्थित तनाव देखो, आंखों में भरी निराशा देखो, इस रुग्णता को देखो और समझो। इसे समझते ही निषेध्मातक आस्था का विचार दीखेगा। नास्तिकता जीवन निषेध है। उस मार्ग की परिसमाप्ति आत्म हत्या में है। वह मार्ग कहीं लेनहीं जाता, वह सड़न और कुंठा है। वह मनुष्य को तोड़ देता है जिसके परिणाम आज पूरी मानवता पर स्पष्ट हैं।

ईश्वर को अस्वीकार करके अब मनुष्य अपने आत्मघात में लगा है। यह उस अस्वीकार का तार्किक निष्कर्ष है।

जीवन की पुनर्प्रतिष्ठा के लिए उन श्रेय-मूल्यों की वापिसी आवश्यक है जिसका इकठ्ठा नाम आस्तिकता है।

ईश्वर का पुनर्जन्म हो तो ही मनुष्य का जीवन बचाया जा सकता है।

रजनीश के प्रणाम

(पुनश्च:
मैं ६ नव. को जयपुर के लिए निकल रहा हूँ। ८ और ९ वहां रहूंगा। ११ तक जबलपुर वापिस आने को हूँ। सबको मेरे विनम्र प्रणाम कहें।)

Partial translation
"PS:
I am starting on 6th Nov for Jaipur. I will stay there on 8th and 9th – till 11th would be returning back to Jabalpur. Convey my humble pranam to all."
See also
Letters to Anandmayee ~ 28 - The event of this letter.
Letters to Anandmayee - Overview page of these letters.