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प्यारी मौनू,
प्रेम। जीवन को बचाने में ही छोग जीवन को गंवा देते हैं।
सुरक्षा की अति-आतुरता ही असुरक्षा ही बन जाती है।
एक सम्राट स्वयं ही ज्योतिष का ज्ञाता था।
उसने जाना कि शीघ्र ही एक निश्चित तिथि पर एक विशेष घड़ी में उसके लिये कोई बड़ा दुर्भाग्य प्रतीक्षा कर रहा है।
उसने शीघ्र ही मजबूत चट्टानों से एक छोटा सा कक्ष निर्मित करवाया।
कक्ष में एक ही द्वार था, वह भी उसने दुर्भाग्य-आगमन के निश्चित दिन पर स्वयं भीतर हो चट्टानों से ही भरवा दिया।
बाहर उस कक्ष के तोपें लगीं थीं और विशाल सेना का पहरा था।
फिर जब निश्चित घड़ी निकट आने लगी तो सम्राट ने देखा कि एक छोटे से छेद से सूर्य का प्रकाश भीतर आ रहा है।
उसने उसे भी मिट्टी से बंद करवा दिया।
दुर्भाग्य के लिये इतना सा मार्ग भी तो छोड़ना खतरनाक है न?
लेकिन, उस सम्राट को पता नहीं था कि जहां दुर्भाग्य नहीं पहुंचता है, वहां सौभाग्य का मार्ग भी अवरुद्ध हो जाता है। और जहां मृत्यु की गति नहीं है, वहां जीवन का भी कोई उपाय नहीं है।
दुर्भाग्य की घड़ी बीत गई।
फिर दुर्भाग्य का दिवस भी बीत गया।
राजधानी में खुशियां मनाई जाने लगीं।
राजमहल स्वागत-संगीत से गूंजने लगा।
लेकिन, जब उस सुरक्षा-कक्ष का द्वार पुन: तोड़ा गया तो सम्राट वहां नहीं था, बस केवल उसकी मृतदेह ही थी।