Letter written on 6 Mar 1963 om

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This is one of hundreds of letters Osho wrote to Ma Anandmayee, then known as Madan Kunwar Parakh. It was written on 6th March 1963 in the afternoon. The letterhead has a simple "रजनीश" (Rajneesh) in the top left area, in a heavy but florid font, and "115, Napier Town, Jabalpur (M.P.) in the top right, in a lighter but still somewhat florid font.

The salutation is "प्रिय मां", Priya Maan, Dear Mom, The letter's hand-written marks are an interesting mix of old and new style, with both black and red tick marks and a pale mirror-image number (172) in the bottom right corner. This letter has been published in Krantibeej (क्रांतिबीज) as letter 75 (edited and trimmed text) and later in Bhavna Ke Bhojpatron Par Osho (भावना के भोजपत्रों पर ओशो) on p 206.

The PS reads: "Yesterday when I returned from Delhi; your letter is received. Delhi tour has been blissful. I am healthy and pleased."

रजनीश

११५, नेपियर टाउन
जबलपुर (म. प्र.)

प्रिय मां,

कोई पूछता थाः ‘आत्मा को कैसे पाया जावे? ब्रह्म-उपलब्धि कैसे होसकती है?’

आत्मा को पाने की बात ही मेरे देखे गलत है। वह प्राप्तव्य नहीं है। वह तो नित्य प्राप्त है। वह कोई वस्तु नहीं जिसे लाना है। वह कोई लक्ष्य नहीं जिसे साधना है। वह भविष्य में नहीं है कि उस तक पहुँचना है। वह है। ‘है’ का ही वह नाम है। वह वर्तमान है : नित्य वर्तमान। उसमें अतीत और भविष्य नहीं है। उसमें ‘होना’ नहीं है। उसे न खोना संभव है और न पाने की बात ही सार्थक है। वह शुद्ध - नित्य - अस्तित्व है।

‘फिर खोना किस स्तर पर होगया है या खोने का आभास और पाने की प्यास कहां आगई है?’

‘मैं’ को समझलें तो जो आत्मा खोई नहीं जासकती है उसका खोना समझ में आसकता है। ‘मैं’ आत्मा नहीं है। न ‘स्व’ आत्मा है, न ‘पर’ आत्मा है। यह द्वैत वैचारिक है। यह द्वैत मन में है। मन आभास सत्ता है। वह कभी वर्तमान में नहीं होता है। वह या तो अतीत है या भविष्य है। न अतीत की सत्ता है, न भविष्य की। एक न होगया है; एक अभी हुआ नहीं है। एक स्मृति में है, एक कल्पना में है। सत्ता में दोनों नहीं हैं। इस असत्ता से ‘मैं’ का जन्म होता है। ‘मैं’ विचार की उत्पत्ति है। काल भी विचार की उत्पत्ति है। विचार के कारण, ‘मैं’ के कारण आत्मा आवरण में है। वह है पर खोई मालुम होती है। फिर यही ‘मैं’ – यही विचार-प्रवाह – इस तथाकथित खोई आत्मा को खोजने चलता है! यह खोज असंभव है क्योंकि इस खोज से ‘मैं’ और पुष्ट होता है, सशक्त होता है। ‘मैं’ के द्वारा आत्मा को खोजना स्वप्न के द्वारा जाग्रति को खोजने जैसा है। ‘मैं’ के द्वारा नहीं, ‘मैं’ के विसर्जन से उसको पाना है। स्वप्न जाते ही जाग्रति है : ‘मैं’ के जाते ही आत्मा है। आत्मा शून्यता है क्योंकि पूर्णता है। उसमें ‘स्व’ ‘पर’ नहीं है। वह अद्वैत है। वह कालातीत है। विचार के, मन के जाते ही जाना जाता है कि उसे कभी खोया नहीं था।

इसलिए, उसे खोजना नहीं है। खोज छोड़नी है और खोजनेवाले को छोड़ना है और खोज और खोजी के मिटते ही खोज पूरी हो जाती है। ‘मैं’ को खोकर उसे पालिया जाता है।

दोपहर:
६ मार्च १९६३

रजनीश के प्रणाम


पुनश्च: कल दिल्ली से लौटा तो तुम्हारा पत्र मिला है। दिल्ली यात्रा आनंदपूर्ण हुई है। मैं स्वस्थ और प्रसन्न हूँ।


See also
Krantibeej ~ 075 - The event of this letter.
Letters to Anandmayee - Overview page of these letters.