Letter written on 7 Jan 1971 (Kranti)

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Letter written by Osho on 7th of Jan 1971 to his cousin Ma Yoga Kranti. It has been published in Pad Ghunghru Bandh (पद घुंघरू बांध) as letter #13 in 1974 and also in Tera Tujhko Arpan... (तेरा तुझको अर्पण…) in 2001 (letter #2). There are English and Gujarati translations which available in the latter book.

acharya rajneesh

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प्यारी मौनू,
प्रेम | जीवन को कल के लिये स्थगित करने से और कोई बड़ी भूल नहीं है।
क्योंकि, कल जीवन नहीं, मृत्यु है।
एक कृपण व्यक्ति ने सारा जीवन गंवाकर तीन लाख रूपये बचाये थे।
उसी आशा में गंवाया था उसने भी जीवन जिस आशा में कि सभी गंवाते हैं।
सोचा था उसने कि अंत में आनंद मनाऊँगा।
आह ! मनुष्य भी कैसा एक-सा ही सोचते हैं ! या कि सोचते ही नहीं इसलिये ही एक-सा सोचते हुए प्रतीत होते हैं ? पर जिस रात उस कृपण व्यक्ति ने तय किया कि अब कल से कमाई बंद करता हूं और आनंद शुरु-उसी रात मौत ने उसका द्वार खटखटाया !
यद्यपि अभी भी वह कल पर ही टाल रहा था फिर भी मौत आ गई !
कृपण ने बहुत हाथ-पैर जोड़े और प्रार्थना की कि कल भर तो और जी लेने दो लेकिन मौत ने उसकी एक न सुनी !
उल्टे मौत ने उससे कहा: "जिसे जीना है, वह आज जीता है- जीने के लिये आज काफी है; हां, जिसे मरना ही है बस उसके लिये आज काफी नहीं है - वह सदा कल के लिये और कल में ही जीता है।"
कृपण ने कोई राह न देख अपनी सारी संपत्ति मौत के चरणों में रख दी और कहा यह है मेरा सारा जीवन- इसे ले लो और मुझे बस एक दिन जीने के लिये और दे दो ?
लेकिन मौत राजी न हई !
जीवन को द्वार से हटाया जा सकता है, लेकिन मौत को नहीं! जीवन को मिटाया जा सकता है, लेकिन मौत को नहीं!
तब कृपण ने कहा कि मुझे बस इतना ही समय दे दो कि मैं एक छोटा-सा संदेशा उनके लिये लिख सकूं जो कि मेरी ही राह पर मौत के मुंह में जा रहे हैं?
मौत ने कहा: "यह तुम कर सकते हो क्योकिं तुम्हारे संदेशे को कोई भी पढ़ेगा नहीं और यदि कोई पढ़ेगा भी तो समझेगा नहीं और समझा भी तो उस पर आचरण नहीं करेगा।
फिर भी कृषण ने अपने खून से लिखा: "मनुष्यों! जीवन अमूल्य है। एक एक पल अमूल्य है। मैं ३ लाख रुपये देकर भी एक घंटा नहीं खरीद पाया हूं। जीवन को जी लो जब समय है और कल पर जीना कभी न टालो - क्योंकि जीने को टालते - टालते मेरे हाथ में सिवाय मृत्यु के और कुछ भी नहीं लगा है।"
इस संदेशे को लिखे गये अनगिनत वर्ष बीत गये हैं; लेकिन न तो उसे कोई पढ़ता ही है, न कोई समझता ही है और तब उस पर आचरण करने का तो सवाल ही नहीं उठता है।

रजनीश के प्रणाम

७/१/१९७१

See also
Pad Ghunghru Bandh ~ 013 - The event of this letter.