Letter written on Nov 1960: Difference between revisions

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This is one of hundreds of letters Osho wrote to [[Ma Anandmayee]], then known as Madan Kunwar Parakh. It is undated, written on his letterhead stationery of the day: The top left corner reads: Rajneesh / Darshan Vibhag (Philosophy Dept) / Mahakoshal Mahavidhalaya (Mahakoshal University). The top right reads: Nivas (Home) / Yogesh Bhavan, Napiertown / Jabalpur (M.P.). Most others of this letterhead class have a handwritten "115" before Yogesh Bhavan. This one has nothing.
 
This is one of hundreds of letters Osho wrote to [[Ma Anandmayee]], then known as Madan Kunwar Parakh. It is undated, written on his letterhead stationery of the day: The top left corner reads: Rajneesh / Darshan Vibhag (Philosophy Dept) / Mahakoshal Mahavidhalaya (Mahakoshal University). The top right reads: Nivas (Home) / Yogesh Bhavan, Napiertown / Jabalpur (M.P.). Most others of this letterhead class have a handwritten "115" before Yogesh Bhavan. This one has nothing


In addition to the text of the letter, there is a blue handwritten "2" in a circle above the top right stationery block, and a red tick mark below the top left block.
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This letter has been published, in ''[[Bhavna Ke Bhojpatron Par Osho (भावना के भोजपत्रों पर ओशो)]]'' on p 63 (2002 Diamond edition).
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रजनीश<br>
दर्शन विभाग<br>
महाकोशल महाविद्यालय
 
निवास:<br>
योगेश भवन, नेपियरटाउन<br>
जबलपुर (म. प्र.)
 
प्रिय मां,<br>
पद-स्पर्श। आपका आशीष पत्र। बहुत खुशी हुई।
 
मेरा चित्र मांगा है। चांदा जब आउँ तब उसे लेने की व्यवस्था करलें। वैसे, वह चित्र तो आपके हृदय में हैं। कागज पर तो मृत चित्र ही होते हैं : हृदय में जीवित प्रति-छवि बन जाती है। उससे बोला जासकता है – उसे छुआ जासकता है – उससे प्रत्युत्तर पाये जासकते हैं। आंखें बंद करें और देखें। क्या मैं भीतर ही नहीं हूँ?
 
एक बात और – मृत चित्र में ‘मैं’ कहां मिल सकूँगा? शरीर मैं नहीं हूँ। कोई भी शरीर नहीं है। हमारी सत्ता शरीर में है पर शरीर पर ही समाप्त नहीं है। “शरीर से प्रथक्‌ और पार मेरी सत्ता है” – ऐसा बोध मन में जगायें। उस बोध के बिना दुख निरोध नहीं होता है।
 
शरीर और आत्मा का मिथ्या-तादात्म्य छोड़ देना जीवन की सार्थकता और आनंद को पालेना है। शरीर के साथ अपने को एक जानने से दूसरों से हम प्रथक्‌ दीखने लगते हैं। यह असत्य-विचार गया कि जैसे बूँद को सागर मिल जाता है: वैसे आत्मा को परमात्मा मिल जाता है। तब प्रतीत होता है कि मैं सबके साथ एक हूँ। फूलों के आनंद और तारों के मौन में, घास के तिनकों और पर्वत के शीखरों में – सब में मैं ही हूँ। मैं ही जीवन हूँ। मैं आपसे अलग नहीं हूँ। अलग कोई है नहीं – हो ही नहीं सकता है। कोई पर नहीं है। जो आपकी हृदय की धड़कन में बैठा है वही मेरी बांस की बांसुरी से भी अपने गीत गारहा है। हम सब एक ही जिवन-संगीत के सम्मिलित स्वर हैं।
 
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मैं दिसम्बर की छुट्टियों में आने की सोचता हूँ। छुट्टियां २५ दिस. के करीब होंगी। पर आपका बुलावा निरन्तर अनुभव होरहा है। उठते बैठते आप मुझे बुला रही हूँ। जो आपके भीतर होरहा है वह सब मुझे ठीक से सुनाई पड़ रहा है। इसलिए यदि दिसम्बर के पूर्व ही छिट्टियां पासका तो आनेका प्रयास करूँगा। शेष शुभ। सबको मेरे प्रणाम। बहिनों को मेरा बहुत बहुत स्नेह।
 
रजनीश के प्रणाम
 
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Revision as of 03:43, 7 April 2020

This is one of hundreds of letters Osho wrote to Ma Anandmayee, then known as Madan Kunwar Parakh. It is undated, written on his letterhead stationery of the day: The top left corner reads: Rajneesh / Darshan Vibhag (Philosophy Dept) / Mahakoshal Mahavidhalaya (Mahakoshal University). The top right reads: Nivas (Home) / Yogesh Bhavan, Napiertown / Jabalpur (M.P.). Most others of this letterhead class have a handwritten "115" before Yogesh Bhavan. This one has nothing.

In addition to the text of the letter, there is a blue handwritten "2" in a circle above the top right stationery block, and a red tick mark below the top left block.

Osho addresses her with "प्रिय मां", Priya Maan, Dear Mom.

This letter has been published, in Bhavna Ke Bhojpatron Par Osho (भावना के भोजपत्रों पर ओशो) on p 63 (2002 Diamond edition).

रजनीश
दर्शन विभाग
महाकोशल महाविद्यालय

निवास:
योगेश भवन, नेपियरटाउन
जबलपुर (म. प्र.)

प्रिय मां,
पद-स्पर्श। आपका आशीष पत्र। बहुत खुशी हुई।

मेरा चित्र मांगा है। चांदा जब आउँ तब उसे लेने की व्यवस्था करलें। वैसे, वह चित्र तो आपके हृदय में हैं। कागज पर तो मृत चित्र ही होते हैं : हृदय में जीवित प्रति-छवि बन जाती है। उससे बोला जासकता है – उसे छुआ जासकता है – उससे प्रत्युत्तर पाये जासकते हैं। आंखें बंद करें और देखें। क्या मैं भीतर ही नहीं हूँ?

एक बात और – मृत चित्र में ‘मैं’ कहां मिल सकूँगा? शरीर मैं नहीं हूँ। कोई भी शरीर नहीं है। हमारी सत्ता शरीर में है पर शरीर पर ही समाप्त नहीं है। “शरीर से प्रथक्‌ और पार मेरी सत्ता है” – ऐसा बोध मन में जगायें। उस बोध के बिना दुख निरोध नहीं होता है।

शरीर और आत्मा का मिथ्या-तादात्म्य छोड़ देना जीवन की सार्थकता और आनंद को पालेना है। शरीर के साथ अपने को एक जानने से दूसरों से हम प्रथक्‌ दीखने लगते हैं। यह असत्य-विचार गया कि जैसे बूँद को सागर मिल जाता है: वैसे आत्मा को परमात्मा मिल जाता है। तब प्रतीत होता है कि मैं सबके साथ एक हूँ। फूलों के आनंद और तारों के मौन में, घास के तिनकों और पर्वत के शीखरों में – सब में मैं ही हूँ। मैं ही जीवन हूँ। मैं आपसे अलग नहीं हूँ। अलग कोई है नहीं – हो ही नहीं सकता है। कोई पर नहीं है। जो आपकी हृदय की धड़कन में बैठा है वही मेरी बांस की बांसुरी से भी अपने गीत गारहा है। हम सब एक ही जिवन-संगीत के सम्मिलित स्वर हैं।

xxx

मैं दिसम्बर की छुट्टियों में आने की सोचता हूँ। छुट्टियां २५ दिस. के करीब होंगी। पर आपका बुलावा निरन्तर अनुभव होरहा है। उठते बैठते आप मुझे बुला रही हूँ। जो आपके भीतर होरहा है वह सब मुझे ठीक से सुनाई पड़ रहा है। इसलिए यदि दिसम्बर के पूर्व ही छिट्टियां पासका तो आनेका प्रयास करूँगा। शेष शुभ। सबको मेरे प्रणाम। बहिनों को मेरा बहुत बहुत स्नेह।

रजनीश के प्रणाम


See also
(?) - The event of this letter.
Letters to Anandmayee - Overview page of these letters.