Manuscripts ~ Bindu-Bindu Vichar, Bhag 2 (बिंदु-बिंदु विचार, भाग 2)

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Point to Point Thought

year
1967
notes
13 sheets plus 2 written on reverse.
Page numbers showing "R" and "V" refer to "Recto and Verso".
Missing Sheet 3V with 1,5 sentenses of the end of Osho's quote 8 and all quote 9.
Published as ch.1-20 of Naye Sanket (नये संकेत) (we assume that missing sheet 3V contains quote 9, which should matches ch.9).
The transcripts below are not true transcripts, but copies from Naye Sanket (नये संकेत).
see also
Osho's Manuscripts


sheet no original photo enhanced photo Hindi
1R Naye Sanket (नये संकेत), chapters 1 - 3
१. मैं किस धर्म का हूं? किसी भी धर्म का नहीं। वस्तुतः धर्म तो है, लेकिन धर्मों का कोई, अस्तित्व ही नहीं है। धर्मों के मिथ्या अस्तित्व ने, धर्म की अभिव्यक्ति को अवरुद्ध कर रखा है। धर्म के आविर्भाव के लिए धर्मों की मृत्यु आवश्यक है। इसीलिए मैं किसी भी धर्म का नहीं हूं। जिसे धर्म का होना है, उसे धर्मों का होने की सुविधा ही नहीं है। धर्मों का आविष्कार निश्चय ही अधर्म का सहयोगी है। इस भांति धर्म के नाम पर अधर्म जीता है, और फलता फूलता है। धर्म के अधर्म को चिंता हो सकती है। धर्मों से प्रसन्नता है। मैं किसी धर्म में नहीं हूं, क्योंकि मैं अधर्म के पक्ष में नहीं हूं। मैंने सुना हैः एक प्रभात की बात है। शैतान अपने शिष्यों सहित किसी व्यक्ति का पीछा कर रहा था। वह व्यक्ति सत्य की खोज में था और इसीलिए शैतान को चिंता होनी स्वाभाविक ही थी। फिर शैतान के शिष्यों ने आकर शैतान को खबर दी कि उस व्यक्ति को सत्य उपलब्ध हो गया है। वे शिष्य बहुत ही घबड़ाए हुए थे। लेकिन शैतान ने उनसे कहाः ‘अभी चिंता न करो। नगर नगर में जाकर इस बात की खबर कर दो और लोगों को उसके पास इकट्ठा होने दो। कोशिश करो कि जल्दी ही वे शास्त्र बना लें और संगठित हो जावें। फिर चिंता का कोई कारण नहीं है।’
२. मैं और मेरे का सत्य से क्या संबंध? धर्म से क्या संबंध? सत्य, मेरा सत्य कैसे हो सकता है? धर्म, मेरा धर्म कैसे हो सकता है? सत्य, मेरा सत्य नहीं हो सकता है और मेरा सत्य, सत्य नहीं हो सकता है।
३. विचार ज्ञात का अतिक्रमण नहीं कर सकता है। वह कितनी ही ऊंची उड़ान भरे लेकिन ज्ञात की सीमा को पार करना उसके लिए असंभव है। वह ज्ञात की उत्पत्ति है और ज्ञात की सीमा ही उसका जीवन भी है। वह है अतीत अनुभवों का सारभूत अंश और स्मृति है उसका आवास। फिर स्मृति मृत है। विचार भी अतीत और मृत है। लेकिन सत्य है अज्ञात। और सत्य है जीवन। विचार इसीलिए ही सत्य तक ले जाने में असमर्थ है। अज्ञात में और जीवंत में उसका प्रवेश निषिद्ध है। मछलियां तो सागर के बाहर थोड़ी देर जी भी लेती हैं लेकिन विचार मृत स्मृति और ज्ञात के घेरे के बाहर एक भी कदम नहीं रख सकता है।
1V Naye Sanket (नये संकेत), chapters 4 - 5
४. अस्तित्व के अनुभव के लिए अनस्तित्व का साक्षात आवश्यक है। उससे घिर कर ही अस्तित्व जाना, पहचाना और जिया जा सकता है। चारों ओर अनस्तित्व का सागर हो तो ही स्वयं के बिंदु पर अस्तित्व की प्रगाढ़ अनुभूति हो सकती है। इसीलिए जो सत्य को जानने के लिए प्यासे हैं, उन्हें शून्य में जाना पड़ेगा, और जो जीवन को उसकी पूर्णता में जीने के अभीप्सु हैं, उन्हें मृत्यु को वरण करना होगा। मैं एक संध्या का स्मरण करता हूं। एक छोटे से गांव में था। संध्या हुई तो मिट्टी का दीया जलाया गया था। पर अभी अंधेरा नहीं हुआ था, इसीलिए दीये में कोई प्रकाश नहीं मालूम पड़ता था। यदि दीये में कोई चेतना होती तो वह पाता कि उसमें तो कोई प्रकाश ही नहीं है। भरी दोपहर के सूरज के समक्ष तो उसे स्वयं के ज्योतिर्मय होने की स्मृति भी नहीं आ सकती थी। किंतु फिर जैसे जैसे अंधेरा बढ़ने लगा, वैसे-वैसे उस दीये में प्रकाश आने लगा। उसकी ज्योति क्रमशः घनी होती जा रही थी। रात्रि का अंधकार बढ़ रहा था तो उसकी ज्योति भी सजग हो रही थी। अमावस की रात्रि थी वह। धीरे-धीरे अंधकार घना से घना हो गया और मैं उस दीये की लौ में आते प्राणों को देखता रहा। अब यदि वह दीया स्वयं को जान सकता तो पाता कि वह तो सूरज ही है। फिर एक बात और विचार में आई थी। दीया तो वही थी। ज्योति भी वही थी। अंतर तो दीये में किंचित भी न हुआ था। अंतर हुआ था अंधकार में। लेकिन घने होते अंधकार की पृष्ठभूमि में दीये की ज्योति खूब स्पष्ट होकर प्रकट हो गई थी। अंधकार ने दीये को पूर्णरूप से अभिव्यक्त होने में भी सत्य है। अस्तित्व के घिरे रहने पर उसका बोध नहीं होता। चित्त जब सब भांति शून्य होता है, तभी आत्मा की पूर्ण ज्योति प्रकट होती है। अनस्तित्व के द्वार से ही अस्तित्व को जाना जाता है।
५. धन की, यश की, त्याग की, ज्ञान की दौड़ मनुष्य को कहां ले जाती है? दौड़ने वाला महत्वाकांक्षी चित्त मनुष्य को कहां ले जाता है? इस संबंध में सोचता हूं तो एक स्वप्न की याद आ जाती है। उस स्वप्न को मैं कभी नहीं भूल पाता हूं। जब स्वप्न देखता था तो उसे एक बार नहीं, बहुत बार देखा भी है। स्वप्न में एक सीढ़ी दिखाई पड़ती थी। उसका ऊपर का छोर दूर बादलों में खोया रहता था। ऐसा लगता था कि जैसे वह सीढ़ी आकाश में ही ले जानेवाली हो। फिर आकाश में पहुंचने की अदम्य आकांक्षा से उस सीढ़ी पर चढ़ना शुरू करता था। उसके एक डंडे को पार करना भी बड़ा कठिन होता था। श्वास फूल जाती थी और माथे से पसीना गिरने लगता था। फिर भी आकाश में पहुंचने की आकांक्षा के बल चढ़ता जाता था। धीरे-धीरे श्वासें घुटने लगती थीं और हृदय जवाब देने लगता था। लेकिन तभी ज्ञात होता था कि मैं अकेला ही नहीं चढ़ रहा हूं और मेरी सीढ़ी ही अकेली सीढ़ी नहीं है। मेरी ही जैसी अनंत सीढ़ियां हैं और अनंत लोग उनपर
2V Naye Sanket (नये संकेत), chapters 5 - 6 (Please note that the original sheet labels are out of sync.)
चढ़े जा रहे हैं। उन्हें चढ़ते देख कर प्रतिस्पर्धा भी जाग उठती थी और मैं और भी गति से चढ़ने लगता था। प्राणों की पूरी शक्ति लगा कर चढ़ने की दौड़ होती थी और फिर स्वप्न का अंत सदा ही एक ही जैसा होता था। अंततः एक ऐसा सोपान आता था कि उसके आगे कोई सोपान ही नहीं था! और पीछे देखने पर ज्ञात होता था कि वहां तो कोई सीढ़ी ही नहीं है? उस ऊंचाई से गिरना शुरू होता जो कि चढ़ने के कष्ट से भी बदतर था। लगता कि मृत्यु ही हो गई है और वह मृत्यु थी ही। उस मृत्यु के आघात से ही नींद टूट जाती थी। उस स्वप्न ने एक बड़े सत्य के दर्शन मुझे कराए। फिर तो हमारा तथाकथित जीवन ही पूरा का पूरा उस स्वप्न का विस्तार मालूम होने लगा। क्या स्वप्न में मनुष्य की सभी दौड़ों के अंत में मृत्यु नहीं आ जाती है? और मृत्यु का क्या अर्थ है? क्या यही अर्थ नहीं है कि सीढ़ी पर अब आगे कोई सोपान नहीं है। मृत्यु दौड़ का अंत है। मृत्यु भविष्य की समाप्ति है। मृत्यु और संभावनाओं का असंभव हो जाना है। दौड़ने वाला चित्त ऊंचाई पर ले जाता है, मृत्यु उस ऊंचाई से गिरने के अतिरिक्त और क्या है? जहां दौड़ है, वहां मृत्यु है। फिर वह दौड़ चाहे धन की हो, चाहे धर्म की, चाहे भोग की हो, चाहे त्याग की। और जहां दौड़ है, वहां स्वप्न है। सत्य है वहां, जहां दौड़ नहीं है--दौड़ने वाला मन नहीं है। जीवन भी वही है, ऐसा जीवन जिसकी कि कोई मृत्यु नहीं है।
६. शब्द, शास्त्र, संप्रदाय और सिद्धांत मनुष्य की आत्मा को तट के बांध रखना चाहते हैं। तट है दासता। उस दासता की सुरक्षा में जो बंध जाता है, वह अनंत सागर की स्वतंत्रता से वंचित हो जाता है। सागर की यात्रा के लिए तटों से तो मुक्त होना ही होगा। स्वतंत्रता के लिए बंधन तो तोड़ने ही पड़ते हैं। मछलियों को पकड़ने के लिए कांटे में आटा लगा देते हैं। मछली आटा खाने के मोह में कांटे से बिंध जाती है। ऐसे ही मानसिक दासताओं के कांटे सुरक्षा के आटे में लिपटे रहते हैं। सुरक्षा के नाम पर स्वतंत्रता सदा ही छीनी जाती रही है। यह शड्यंत्र बहुत पुराना है। इस पड्यंत्र के प्रति जो नहीं जागता है, वह उस जीवन को और उस आनंद को कभी नहीं पा सकेगा जो कि चेतना की स्वतंत्रता में अंतर्निहित है। स्वतंत्रता से बड़ा न कोई मूल्य और न कोई अनुभूति ही। स्वतंत्रता से बड़ी कोई उपलब्धि भी नहीं है, क्योंकि स्वतंत्रता से ही सत्य का साक्षात्कार संभव है। मनुष्यात्मा की स्वतंत्रता के विरोध में जो भी हैं, वही उसका शत्रु है।
2R Naye Sanket (नये संकेत), chapters 6 - 7 (Please note that the original sheet labels are out of sync.)
सुरक्षा का मोह प्रमुख शत्रु है। सुरक्षा की अतिचाह ही आत्मा के लिए कारागृह बन जाती है। इसी सुरक्षा की चाह के कारण अंधविश्वास और अंधी परंपराएं चित्त को जकड़े रहती है। उन्हें छोड़ने में भय मालूम होता है क्योंकि उन्हें छोड़ते ही परिचित भूमि छूटती है और अपरिचित प्रदेशों में प्रवेश करना पड़ता है। यही कारण है कि सभी तरह के शोषक फिर चाहे वे राजनैतिक अधिनायक हों, चाहे धार्मिक पुरोहित, मनुष्य के हृदय को भय से मुक्त कभी भी नहीं देखना चाहते। भय ही तो उनके शोषक का मूलाधार है। भय के कारण व्यक्ति जो परिचित है और बहुप्रचारित है, उससे बंधा रहता है, चाहे वह असत्य ही क्यों न हो। और सुरक्षा की दृष्टि से वह भीड़ और समूह की मान्यताओं से ईंच भर भी हिलने का साहस नहीं करता है, चाहे वे मान्यताएं कितनी ही अंधी और अज्ञानपूर्ण क्यों न हों। अंततः भय विचार करने की क्षमता को ही कुंठित कर देता है, क्योंकि विचार विद्रोह में ले जाता है। विचार के समक्ष व्यक्ति की स्वतंत्रता को बचाने के अतिरिक्त और कोई महत्वपूर्ण कार्य भी नहीं है, जब कि उसके चारों ओर शोषण के जाल बिछे हैं और उसके व्यक्तित्व को नष्ट करने की एक सुनियोजित साजिश चल रही है। आर्थिक और राजनैतिक दासताएं तो उस दासता के सामने कुछ भी नहीं हैं, जो कि व्यक्ति की अंतरात्मा को ही सत्य के नाम पर शब्दों और शास्त्रों में बांध लेति है। यह दासता इतनी सूक्ष्म है कि दिखाई भी नहीं पड़ती, और इतनी गहरी है कि व्यक्ति उसे अपने रक्त या हड्डियों की भांति ही अपना मान लेता है। मैं इस दासता के विरोध में खड़ा हूं क्योंकि इसके कारण ही अरबों आत्माएं सत्य के सूर्य के वंचित रही हैं। उनके हृदय उस मुक्ति को नहीं जान पाए जिसके अभाव में कि मनुष्य स्वयं के होने से आनंद और संगीत को ही अनुभव नहीं कर पाता है। परतंत्र चित्त और परमात्मा में कभी भी मिलन नहीं होता क्योंकि परमात्मा प्रकाश है और परतंत्र चित्तता से घना कोई अंधकार नहीं है।
७. मैं एक बार एक ऐसे मकान में ठहरा था जिसमें कि कोई खिड़कियां ही नहीं थीं। बहुत पुराना मकान था। गृहपति से मैंने कहाः ‘आपका मकान तो मनुष्य के मन जैसा है। न इसमें कोई खिड़कियां हैं, न उसमें प्रकाश के आने के लिए, खुले आकाश के प्रवेश के लिए, ताजी हवाओं के लिए आपने कोई सुविधा ही नहीं रखी है।’ वह बोलेः ‘मकान बहुत पुराना है।’ मैंने कहाः ‘ऐसा ही मनुष्य का
3 Naye Sanket (नये संकेत), chapters 7 - 8 (incomplete)
मन भी बहुत पुराना है। असल में पुराना होने से ही जीवन के प्रति खुलापन बंद हो जाता है। बंद होते जाना मृत्यु है। वह सदा के लिए कब्र में होने की तैयारी है। फिर भी आप चाहें तो क्या दीवालें तोड़ कर आकाश से संबंधित होने का कोई मार्ग नहीं निकाल सकते? क्या यह उचित नहीं कि जो दीवालों में है, वह उससे संबंधित है, जो कि दीवालों के बाहर है? क्या दीवालें इतनी बहुमुल्य हैं कि उन्हें तोड़ कर आकाश को पाना महंगा होगा? वस्तुतः तो दीवारों से घिरा व्यक्ति स्वयं के जीवन के वास्तविक क्षितिज को ही नहीं जान पाता। पुरानी दीवालों के कारण आकाश से टूटना कितना घातक है? पुराने मन के कारण आत्मा से टूटना कितना आत्मघातक है? ’
८. वह व्यक्ति जीवित ही नहीं है जो कि स्वयं की सत्ता को संकट में अनुभव नहीं करता। वह तो किसी भांति जीए जाता है या कि किसी भांति मरे जाता है। वह स्वयं के होने के प्रति अभी विमर्श से ही नहीं भरा है। जीवन के प्रति विमर्श सबसे पहले तो मनुष्य को मृत्यु के तथ्य के प्रति जगाता है। मृत्यु की संभावना संकट बन जाती है। और संकट स्वयं की खोज का शुभारंभ है। संकट सत्य की दिशा में अनुसंधान का जन्म है। संकट मृत्यु से अमृत की ओर जाने के लिए संक्रांति का क्षण है। इसीलिए पूछता हूं कि क्या जीवन का संकट आ गया है? यदि नहीं तो अभी सत्य की खोज कैसे प्रारंभ हो सकती है? मनुष्य चेतना को संकट पर आना ही होता है। संकट का अर्थ हैः स्वयं के न हो जाने की संभावना का साक्षात्कार। उससे ही परमसत्ता की अभीप्सा पैदा होती है और उसकी उपलब्धि का अभियान शुरू होता है। मृत्यु की आंखों में झांके बिना जीवन की खोज में न कोई कभी गया है, और न ही जा सकता है। जीवन खोज है, लेकिन जब तक मृत्यु पर दृष्टि नहीं पड़ती तब तक यह खोज स्वयं जीवन की ही खोज नहीं बनती। उस समय तक तो मनुष्य क्षुद्र को ही खोजता रहता है और क्षुद्र की खोज में व्यर्थ ही मरता रहता है। वह क्षुद्र में उलझा रहता है और मृत्यु उसे खोजती रहती है। किंतु जैसे ही मृत्यु पर उसकी दृष्टि उसे खोजती रहती है। किंतु जैसे ही मृत्यु पर उसकी दृष्टि जाती है, वैसे ही एक अभूतपूर्व संकट उपस्थित हो जाता है। यह संकट उसकी क्षुद्र की दौड़ को तोड़ देता है। यह आघात उसकी स्वप्न तंद्रा में बाधा बन जाता है। अब और सोए रहना असंभव होता है। यही घड़ी संकट की यही घड़ी जीवन के प्रति जगाती है। और चेतना मृत्यु के अतिक्रमण में संलग्न होती है। इसीलिए मैं कहता हूंः जाओ और मृत्यु को खोजो। इसके पहले कि वह तुम्हें खोजे, अच्छा है कि
- - (The manuscript for Naye Sanket (नये संकेत), chapter 9 has possibly been lost.)
4 Naye Sanket (नये संकेत), chapter 10
१०. मैं अंधविश्वास का विरोधी हूं। और वस्तुतः तो विश्वासमात्र ही अंधे होते हैं। विश्वासों के कारण ही विवेक सतेज नहीं हो पाता। उनके कारण उसके जागरण की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। जैसे किसी व्यक्ति को बचपन से ही पैरों की जगह वैशाखियों के सहारे चलाया जाए, तो उसके पैर पंगु हो जावेंगे, ऐसे ही विश्वास के सहारे चलने से बुद्धि पंगु हो जाती है। और बुद्धि के पंगु होने से बड़ी मनुष्य के जीवन में और कौन सी दुर्घटना हो सकती है? किंतु, विश्वास यही करते हैं। असल में समाज या राष्ट्र चाहता ही नहीं कि व्यक्ति में विचार की शक्ति हो। विचार की शक्ति से सभी चुस्त स्वार्थी सत्ताधिकारियों और शोषकों को खतरा है। विचार जहां है, वहां विद्रोह की संभावना हैं। और विचार जहां है, वहां सत्य की खोज के जन्म होने का डर है। जब कि तथाकथित समाज, धर्म और राज्य बहुत से असत्यों को अपने भवन की नींव बनाए हुए हैं। इसीलिए ही व्यक्ति के पैदा होते ही उसे विश्वास की परतंत्रता में बांधने के सामूहिक प्रयास शुरू हो जाते हैं। आज तक की सारी शिक्षा भी यही करती रही है। शिक्षा है तो मनुष्य को मुक्त करने के लिए। ऐसा कहा भी जाता है। किंतु वह जो वस्तुतः करती है, वह है व्यक्ति के चित्त में सूक्ष्म मानसिक बंधनों और दासता का निर्माण। वह विचार नहीं, विश्वास सिखाती है। वह भी संदेह और विद्रोह नहीं सिखाती और इसीलिए तथाकथित रूप से शिक्षित व्यक्ति स्वतंत्रता से चिंतन करने में करीब असमर्थ ही हो जाता है। सत्य की जीवंत खोज विश्वास से नहीं, संदेह से होती है। सत्य की खोज में स्वस्थ संदेह से बड़ी और कोई शक्ति नहीं है। श्रद्धा खोज का आरंभ नहीं, अंत है। आरंभ तो संदेह ही है। सम्यक अनुसंधान संदेह से प्रारंभ और श्रद्धा पर परिपूर्ण होता है। असम्यक अनुसंधान श्रद्धा से यात्रा शुरू करता और संदेह में ही जीता और संदेह में ही समाप्त होता है। क्योंकि ऐसी श्रद्धा वास्तविक ही नहीं हो सकती। विश्वास से आई हुई श्रद्धा सत्य कैसे होगी? सत्य श्रद्धा का जन्म तो ज्ञान से होता है। ज्ञान ही श्रद्धा है। अज्ञान है विश्वास, ज्ञान है श्रद्धा। लाई हुई श्रद्धा विश्वास है। थोपी हुई श्रद्धा विश्वास है। सीधी हुई श्रद्धा विश्वास है। जागी हुई श्रद्धा ज्ञान के आलोक में सहज और स्वतः आई हुई श्रद्धा ही वास्तविक श्रद्धा है। ऐसी श्रद्धा न तो लानी ही पड़ती है और न सीखनी ही। वह तो आती है। सीखना पड़ता है संदेह- समयक संदेह ठिळसर्हीं ऊेीर्लींें सम्यक संदेह सत्य श्रद्धा को पाने की विधि है।
5 Naye Sanket (नये संकेत), chapter 10
संदेह अविश्वास नहीं है। क्योंकि अविश्वास तो विश्वास का ही नकारात्मक पहलू है। संदेह अविश्वास हो तो असम्यक और अस्वस्थ हो जाता है। संदेह न तो विश्वास है, न अविश्वास। वह है मुक्त जिज्ञासा। वह है खोज की अदम्य वृत्ति। वह है ज्ञान की अभीप्सा। वह है सतत अनुसंधान। वह है, सत्य के पूर्व, स्वानुभूति सत्य के पूर्व, कहीं भी न ठहरने का दृढ़ संकल्प। मेरे देखे विश्वास भी बाधक हैं और अविश्वास भी। साधक है संदेह। संदेह ही अंततः सत्य तक पहुंचा सकता है। एक सत्य का खोजी था। वह वर्षों की खोज के बाद एक ऋषि के पास पहुंचा। ऋषि की गुफा शास्त्रों ही शास्त्रों से भरी थी। अनंत शास्त्र थे। गुफा में जहां तक द्दष्टि जाती थी वहां तक शास्त्र ही शास्त्र थे। ऋषि ने उससे कहाः ‘इन शास्त्रों में विश्व का सारा ज्ञान है। सत्य को खोजते जो यहां तक आ जाते हैं, उनके लिए ही ये रहस्यपूर्ण गुप्त शास्त्र संग्रथित किए गए हैं। प्रत्येक खोजने वाला कोई भी एक शास्त्र ले सकता है। तुम कौन सा शास्त्र चाहते हो? ’ उस युवक खोजी ने शास्त्रों की अंतहीन श्रंखला को देखा, फिर बहुत सोचा और कहाः ‘वह शास्त्र मुझे दें जिसमें यह सब उपलब्ध हो जो कि शेष सारे शास्त्रों में है।’ वृद्ध ऋषि इस पर हंसा और बोलाः ‘ऐसा शास्त्र भी निश्चित ही है लेकिन उसे खोजने मुश्किल से ही कभी कोई यहां आता है।’ और उसने सत्य के उस खोजी को एक शास्त्र दिया जिस पर लिखा थाः ‘परम संदेह का शास्त्र।’ मैं भी सभी को यही शास्त्र देना चाहता हूं, क्योंकि यह शास्त्र ही शेष सब शास्त्रों से मुक्त कर व्यक्ति को सत्य तक पहुंचा देता है।
6 Naye Sanket (नये संकेत), chapter 11
११. मैं नदी तट पर खड़ा था। छोटी सी नदी थी। संध्या हो रही थी। गांव की युवतियां गागरों में पानी भर अपने घरों को लौट रही थीं। मैंने देखाः नदी से पानी भरना हो तो थोड़ा नीचे झुकना पड़ता है। जीवन से पानी भरने के लिए भी झुकने का कला आनी चाहिए। लेकिन झुकना तो जैसे मनुष्य भूलता ही जाता है। उसका अहंकार उसे झुकने ही नहंी देता। इससे ही प्रेम और प्रार्थना सभी विलीन होते जा रहे हैं। वस्तुतः जो भी महत्वपूर्ण है, वह सभी विलीन होता जाता है। और जीवन संगीत और सौंदर्य की जगह निपट संघर्ष ही बन गया है। जहां झुकने का रहस्य ज्ञात न हो, वहां संघर्ष ही शेष रह जाता है। और जहां झुकने की हार्दिक संवेदनशीलता अपरिचित हो, वहां कठोर और अनंत अहंकार असहनीय पीड़ा का स्रोत हो जाता हो तो कोई आश्चर्य नहीं। झुकना व्यक्ति को समस्त से जोड़ता है। न झुकने का आग्रह उसे सर्वसत्ता से तोड़ देता है। निश्चय ही यह झुकना सहज और स्वयंस्फूर्त होना चाहिए। अन्यथा वह भी अहंकार की ही एक अभिव्यक्ति बन जाता है। विचार मात्र से जो झुकना आता है, वह न यथार्थ होता है और न समग्र क्योंकि उसके पीछे किसी न किसी तल पर प्रतिरोध बना ही रहता है और मात्र बौद्धिक सतह से जन्मने के कारण वह अयथार्थ भी होता है, क्योंकि प्राणों की समग्रता उसकी गवाही में नहीं होती है। फिर ऐसा झुकना पश्चात्ताप भी लाता है, क्योंकि उससे अहंकार को चोट लगती है। वह अहंकार के विरोध में किया गया कृत्य है, इसीलिए अहंकार पश्चात्ताप के रूप में उसका बदला भी लेता है। मनुष्य हृदय जब अहंकार-शून्य होता है, तभी वह सहजता से और समग्रता से झुकता है। यह झुकना वैसे ही सहज और समग्र होता है जैसे कि आंधियों में घास के छोटे पौधे झुक जाते हैं। वे जैसे आंधियों के साथ एक ही हो जाते हैं। उनका आंधियों से कोई विरोध ही नहीं है और उन्हें स्वयं की अहंता का भी कोई बोध ही नहीं है और उन्हें स्वयं की अहंता का भी कोई बोध नहीं है। मनुष्य जिस दिन इस भांति के झुकने को जान लेता है, उसी दिन परमात्मा के सारे रहस्य उसके समक्ष स्पष्ट हो जाते हैं। एक फकीर से किसी युवक ने पूछा थाः ‘पुराने दिनों में ऐसे लोग थे जिन्होंने परमात्मा को स्वयं अपनी आंखों से देखा था। अब ऐसे लोग क्यों नहीं है।’ उस वृद्ध ने उत्तर में कहा थाः ‘क्योंकि, आजकल इतना नीचा झुकने को कोई राजी ही नहीं।’ निश्चय ही परमात्मा की नदी से पानी भरने के लिए झुकना आवश्यक है। जो नदी तट पर अकड़े खड़े हैं, वे कैसे उस पानी को भर सकते हैं?
7 Naye Sanket (नये संकेत), chapter 12
१२. ज्ञान की उपलब्धि के लिए विनम्र और मुक्त मस्तिष्क से अधिक अनिवार्य और आवश्यक और कुछ भी नहीं है। लेकिन साधारणतः मस्तिष्क होता है अहंकारग्रस्त और पूर्वाग्रहों और पक्षपातों की सख्त कारागृह में आबद्ध। अहंकार भीतर से बांधे रहता है और पक्षपात और पूर्वाग्रह बाहर से। इन दोनों की कैद में मनुष्य की प्रज्ञा ढंके हुए सत्य को उघाड़ने की सारी क्षमता ही धीरे-धीरे खो देती है। अलबर्ट आइंस्टीन से किसी ने पूछाः ‘वह सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व कौन सा है, जिसके बिना कि विज्ञान की खोज असंभव है? ’ और ज्ञात है कि आइंस्टीन ने क्या कहा? जो उसने कहा, पूछने वाले ने स्वप्न में भी उसकी कल्पना न की होगी। उसने कहाः ‘अहंकार-शून्यता।’ निश्चय ही ज्ञान की कुंजी अहंकार-शून्यता है। अहंकार है अज्ञान। मैं से भरा हुआ मन इतना भरा हुआ होता है कि उसमें सत्य के अतिथि के आने योग्य स्थान ही नहीं होता है। मैं से मुक्ति हो तो सत्य आ सकता है। हृदय का घर छोटा है। उसमें दो नहीं समा सकते हैं। मित्र, कबीर ने गलत नहीं कहा। वह गली निश्चय ही संकरी है। और यह अहंकार ही है जो कि पूर्वाग्रहों और पक्षपातों का संग्रह कर लेता है। अज्ञान में होते हुए भी ज्ञानी दीखने के लिए इससे सुगम विधि और हो भी क्या सकती है? अहंकार अपनी पुष्टि के लिए ही ज्ञान इकट्ठा करता है। उसे पाकर वह स्वयं को सुरक्षित अनुभव करता है। परिग्रह मात्र अहंकर की सुरक्षा के उपाय हैं और इसीलिए ही विचारों का विवाद बहुत शीघ्र ही अहंकारों का युद्ध बन जाता है। फिर सत्य नहीं, मेरे सत्य के केंद्र पर सारी शक्ति लग जाती है। मेरा सत्य, मेरा धर्म, मेरा शास्त्र, मेरा भगवान। क्या इन सबमें- सबके केंद्र में मैं ही नहीं है? और जहां मैं है, वहां सत्य कहां? धर्म कहां? ज्ञान कहां? मैं जितना आक्रमक होता है, सत्य उतना ही दूर हट जाता है। इस स्थिति में अहंकार सिद्धांतों और शब्दों को ही सत्य मान कर तृप्ति कर लेता है। इस तृप्ति में भय तो होता ही है, जिसे सत्य माना है, उसके असत्य होने की संभावना और संदेह तो होता ही है। इसीलिए ही अहंकार स्वयं को ही विश्वास दिलाने के लिए माने सत्य की जोर से दुहाई देने लगता है। वह उसके लिए मरने को भी तैयार हो जाता है। वह माने हुए सत्य के विरोध में कुछ भी सुनने तक से भय खाता है, क्योंकि सदा ऐसे तथ्यों के प्रकट होने की संभावनाएं बनी रहती हैं जो कि उसके सत्य को असत्य कर सकते हैं। ऐसी स्थिति में न वह सुनना
8 Naye Sanket (नये संकेत), chapters 12 - 13
चाहता है, न सोचना चाहता है। वह तो जो उसने मान लिया है, उसमें, अंधेपन से संतुष्ट रहना चाहता है। सत्य की खोज में यह वृत्ति बहुत घातक है। सस्ती संतुष्टि को जो खोजता है, वह सत्य को नहीं खोज सकता। सत्य के लिए तो ऐसी संतुष्टि को भी खोना पड़ता है। संतुष्ट नहीं, लक्ष्य सत्य है और सत्य जब मिलता है तो संतुष्टि तो छाया की भांति उसके पीछे चली आती है। सत्य को किसी भी मूल्य पर खोजने के लिए जो कटिबद्ध है, वह सतुष्टि को तो अवश्य ही पा लेता है लेकिन जो संतुष्टि को ही खोजने लगता है, वह सत्य से तो वंचित रहता ही है, अंततः संतुष्टि से भी वंचित रह जाता है।
१३. प्रेम मुक्ति है। प्रेम का बंधन ही मुक्ति है। अनंत प्रेम के अनंत बंधनों में बंध जाता है, वह मुक्त हो जाता है। मैं खोज अहंकार का बंधन भी हो सकती है, जब कि प्रेम की खोज तो अहंकार की मृत्यु के बिना प्रारंभ ही नहीं हो सकती है। प्रेम की खोज का अर्थ अहंकार की मृत्यु। और अहंकार की मृत्यु ही तो मुक्ति है। अहंकार संसार को पाने के स्वप्न देखने लगता है। संसार की दौड़ में भी वही था। मोक्ष की दौड़ में भी वही है। इस सत्य को जो नहीं देखता, वह बहुत गहरी आत्मवंचना में पड़ जाता है। अहंकार जहां है, वहीं संसार है, वहीं अमुक्ति है। वही तो है बंधन। वही तो है सारे बंधनों की मातृभूमि उस भूमि में ही मोक्ष के बीज कैसे समा सकते हैं? अहंकार की मुक्त होने की अभीप्सा से ज्यादा मूढ़तापूर्ण बात और क्या हो सकती है? मुक्ति के लिए अहंकार को नहीं, वरन अहंकार से ही मुक्त होना है। इसीलिए अहंकार न तो संन्यास से डरता है, न त्याग से, न धर्म से, न ज्ञान से, न मोक्ष से। वह डरता है प्रेम से। संन्यास में, त्याग में, मोक्ष की साधना में सबमें वह बच सकता है लेकिन प्रे्रम में उसका बचना असंभव है। प्रेम उसकी मृत्यु है। प्रेम उसकी नहीं, उससे ही मुक्ति है।
9 Naye Sanket (नये संकेत), chapters 14 - 15
१४. मैं किसी भिन्न जगत में नहीं हूं। उसी जगत में हूं, जहां सब हैं। किंतु जीवन को देखने की दृष्टि की निश्चय ही आमूलतः बदल गई है। और उस दृष्टि का बदल जाना कैसे कि इस जगत का ही बदल जाना है। क्योंकि हम वही देखते हैं जो कि हम हैं। हमारी दृष्टि ही हमारा जगत और जीवन है। जैसी दृष्टि है, वैसी ही सृष्टि हो जाती है। जीवन दुख मालूम होता हो तो जानें कि सृष्टि दुख की है, और जीवन को नहीं, दृष्टि को बदलने में संलग्न हो जावें। दृष्टि को बदलने का अर्थ है स्वयं को बदलना। स्वयं पर ही निर्भर है। स्वयं में ही नरक है और स्वयं में ही स्वर्ग। स्वयं में ही संसार है और स्वयं में ही मोक्ष। जो है, वह तो सदा वही है किंतु एक दृष्टि उसे बंधन बना देती है और दूसरी मुक्ति। अहंकार के बिंदु से देखने पर जीवन नरक हो जाता है। क्योंकि वह दृष्टि सर्वविरोधी है। सर्व सत्ता से भिन्न और विरोध में होकर ही तो मैं ‘मैं’ हो सकता हूं। मैं होने की चेष्टा सर्व से संघर्ष और प्रतिरोध की साधना है। ऐसी चेष्टा से ही चिंता फलित होती है और संताप का जन्म होता है। इससे ही मिटने का और मृत्यु का भय पैदा होता है। फिर जो असत्य है और असंभव है उसके लिए प्रयासरत होने से दुख आता हो तो आश्चर्य भी नहीं है। अहंकार-शून्यता का भी एक बिंदु है। जगत को उस बिंदु से भी देखा जा सकता है। ‘मैं’ सर्व से विरोध है, संघर्ष है। ‘न मैं’ सर्व से सम्मिलन है। वह सम्मिलन सत्य है क्योंकि सत्ता अखंड और अविभाज्य है। सब खंड़ और विभाजन मनुष्य कल्पित हैं। मैं हूं, तो खंड में हूं। मैं नहीं हूं, तो अखंड में हूं। और खंड में होना बंधन है, अखंड में होना मुक्ति है। मैं हूं, तो दुख में हूं क्योंकि वह होना ही सतत द्वंद्व है, युद्ध है, संघर्ष है। मैं नहीं हूं, तो आनंद में हूं क्योंकि न हो जाना अनंत शांति है। मैं से मुक्त होते ही चेतना परंपरा से मुक्त हो जाती है। मैं से वियोग, परमात्मा से योग है।
१५. प्रकृति से विरोध मूर्खतापूर्ण है। परमात्मा को प्रकृति के विरोध में नहीं पाया जात सकता। वह जो प्रकृति में ही छिपा है। इसीलिए प्रकृति से लड़ना नहीं है, वरन प्रकृति को उघाड़ना है। वह तो पर्दा है, उसे उठाना है। प्रकृति उसका ही अंग है, उसकी ही अभिव्यक्ति है। उसमें ही गहरे केंद्र पर वह बैठा है। प्रकृति से लड़ कर हम उसके निकट नहीं और दूर ही पहुंच सकते हैं। किंतु सदा से यह लड़ाई ही सिखाई गई है। परमात्मा को प्रकृति के विरोध में खड़ा किया गया है। मनुष्य की आध्यात्मिक दीनता इस विरोध का ही परिणाम है। उसे प्रकृति से लड़ कर परमात्मा को खोजने के लिए कहा गया है। जब कि प्रकृति परमात्मा में है और परमात्मा प्रकृति में। प्रकृति से मुक्त
10 Naye Sanket (नये संकेत), chapters 15 - 16
होकर परमात्मा नहीं है। प्रकृति से पूर्णतया संयुक्त होकर ही परमात्मा है। प्रकृति विरोधी शिक्षाओं ने मनुष्य के जीवन से परमात्मा से मिलन की सीढ़ी ही छीन ली है। प्रकृति तो सेतु है। उस पर रुकना नहीं है। पर उस पर से जाना जरूर है। उससे लड़ना नहीं है। वह तो सहयोगी है। वह तो पहुंचने वाला मार्ग है। उसके अतिरिक्त तो और कोई मार्ग ही नहीं है। प्रकृति को प्रेम करना है। समग्र मन से प्रेम करना है। प्रेम ही उसका द्वार खोलता है। और उस द्वार से ही उसके दर्शन होते हैं जो कि परमात्मा है। किंतु हमें तो बताया गया है कि प्रकृति बंधन है। वह कारागृह है। वह पाप है। इन गलत सिखावनों ने मनुष्य के मन को विषाक्त कर दिया है और प्रकृति के प्रति उसके प्रेम और ज्ञान की संभावना को गहरी चोट पहुंचाई है। और यह चोट उसके और परमात्मा के बीच दूरी और अलगाव का कारण हो गई है। परमात्मा को मनुष्य के जीवन में वापस लाना हो तो उसके पूर्व प्रकृति को उसके जीवन में वापस लाना आवश्यक है। मनुष्य हृदय में प्रकृति की प्रतिष्ठा के बिना परमात्मा की प्रतिष्ठा भी नहीं हो सकती। प्रकृति का प्रेम ही अंततः परमात्मा की प्रार्थना में रूपांतरित होता है। प्रकृति से मुक्ति नहीं, प्रकृति में ही मुक्ति है।
१६. एक पहाड़ी झरने के पास हम बैठे थे। झरने के नीचे ही छोटा सा कुंड था। उसमें बहुत सी मछलियां थीं। उन्हें मैंने हाथ में उठा लिया था और जो साथ थे उनसे कहा थाः ‘देखो इन सीपों में अजन्मे जीव हैं। जब वे सीपों को तोड़ने में समर्थ हो जावेंगे, उनका जन्म होगा। और क्या ऐसे ही हमारे भीतर भी अजन्मा जीवन नहीं है? क्या सीप जैसी ही कोई सख्त चीज हमें नहीं घेरे हुए हैं? क्या हमारी अहंताएं सीपों की भांति ही नहीं हैं? और क्या इन्हें तोड़ कर हम भी उस जीवन को जन्म नहीं दे सकते हैं जो कि हमारे भीतर अभी अजन्मा है? ‘मैं’ उस जीवन के जन्म के विरोध में है और यह ‘मैं’ भलीभांति जानता है कि स्वयं की रक्षा कैसे की जाए। संपत्ति से, यश से, पद से तो वह अपनी रक्षा करता ही है। किंतु और भी सूक्ष्मरूपों में धर्म, नीति, पुण्य, आदर्श, मोक्ष आदि से भी वह अपनी रक्षा करता है। वह जीना चाहता है, बढ़ना चाहता है, समृद्ध होना चाहता है। किंतु स्मरण रहे कि वह जितना सुद्दढ़ होता जाएगा, उतनी ही उस जीवन के विकास की संभावना क्षीण होती जाएगी, जिसके लिए कि वह एक खोलमात्र है। अहंकार की कठोरता से अंततः अजन्मी आत्मा की भ्रूणहत्या हो जाती है। आत्मा के जन्म के लिए अहंकार की मृत्यु आवश्यक है।’
11 Naye Sanket (नये संकेत), chapters 17 - 18
१७. मैं क्या बोल रहा हूं? शब्द? नहीं। नहीं। शब्दों को ही जो सुनेंगे, वे उसे नहीं समझ सकेंगे जो कि मैं बोल रहा हूं। क्या किन्हीं विचारों पर हम विचार कर रहे हैं? नहीं। नहीं। विचारों पर विचार नहीं कर रहे हैं। वस्तुतः विचार ही नहीं कर रहे हैं। वरन जीवन की एक अवस्था को, अस्तित्व की एक स्थिति को खोज रहे हैं। सखा में... शुद्ध सत्ता में प्रवेश खोज रहे हैं। लेकिन तब निश्चय ही समझने का अर्थ मात्र समझना नहीं है, वरन प्रवेश है। जीवन में प्रवेश करके ही जीवन को समझा जा सकता है। प्रेम में होकर ही प्रेम को जाना जा सकता है। विचार में यात्रा नहीं करनी है। अपितु अस्तित्व में छलांग लगानी है। क्या मैं अपनी बात समझा पा रहा हूं- उसे समझने की चिंता न करें। वैसी चिंता उलटे समझने ही न देगी। विचार करें। देखें। वृक्षों पर फूल खिले हैं। बाहर देखें। गुलमुहर पर कैसे फूल छाए हैं? क्या उन्हें सोचते हैं कि देखते हैं? यह कोयल बोले जा रही है। उसे सोचते हैं या कि सुनते हैं? ऐसे ही जो मैं कह रहा हूं उसे सुनें और देखें। विचार नहीं, गहरी और पैनी दृष्टि ही उसके अर्थ में ले जा सकती है। विचार, शब्द पर ठिठक जाता है, दृष्टि निःशब्द को भेद देती है। विचार व्यर्थ विचारने लगता है, दृष्टि अर्थ को उघाड़ देती है। और दृष्टि उतनी ही गहरी होती है, जितनी विचारों से मुक्त होती है। विचार में समय लगता है। वह क्रिया है। ज्ञान में, अंतर्दृष्टि में समय नहीं है। वह तो बोध की अत्यंत प्रगाढ़ दशा है। क्या सौंदर्यानुभूति के किसी क्षण में, प्रेम या आनंद की किसी अनुभूति में इसे नहीं जाना है? क्या उस समय प्रगाढ़ चेतना ही शेष नहीं रह जाती है और विचार विदा नहीं हो जाते हैं? जीवन में जो भी सत्य है, सुंदर है, शिव है, वह विचारों की तरंगों में नहीं वरन निर्विचार की निस्तरंग शांति में ही जाना जाता है।
१८. मैं तथाकथित संन्यास को अज्ञान मानता हूं। मेरे देखे, जहां ज्ञान है, वहां कैसा संन्यास? अज्ञान में त्याग है, क्योंकि अज्ञान में भोग है। अज्ञान में पुण्य है, क्योंकि अज्ञान में पाप है। जो जानता है, वह पाप और पुण्य दोनों से मुक्त हो जाता है। जो जानता है, उससे भोग और योग दोनों ही विदा ले लेते हैं। ज्ञान में राग और विराग का द्वंद्व नहीं है। वह स्थिति तो अद्वंद्व की है। वहां न संसार है, न संन्यास है। वहां तो केवल सत्य है। वहां तो केवल सत्ता है। अज्ञान द्वंद्व में जीता है। द्वंद्व ही उसका प्राण है। इसीलिए वह चित्त को एक अति से दूसरी अति पर भटकाता रहता है। भोग छूटता है तो त्याग पकड़ जाता है। और त्याग क्या है? क्या त्याग भोग का ही विरोध नहीं है? विराग क्या है? क्या विराग राग से ही शत्रुता नहीं है? और संन्यास क्या है? क्या वह संसार से ही विपरीत
12 Naye Sanket (नये संकेत), chapters 18 - 20
दिशा में भागना नहीं है? लेकिन स्मरण रहे कि चित्त जिसके भी विरोध में होता है, उससे ही बंध जाता है। इसीलिए विरोध नई दासता तो हो सकती है, स्वतंत्रता वह नहीं है। स्वतंत्रता असत्य से विरोध में या पलायन में नहीं है। स्वतंत्रता तो सत्य के ज्ञान में है। सत्य ही और केवल सत्य ही मुक्त करता है।
१९. सत्य क्या है? कोई सिद्धांत? कोई संप्रदाय? कोई संगठन? कोई शास्त्र? कोई शब्द? नहीं। सत्य सिद्धांत नहीं है क्योंकि सिद्धांत है मृत और सत्य है स्वयं जीवन। सत्य संप्रदाय नहीं है, क्योंकि उस तक पहुंचने का कोई मार्ग ही नहीं है। अज्ञात और ज्ञात मार्ग अज्ञात तक कैसे ले जा सकते हैं? सत्य संगठन भी नहीं है, क्योंकि वह है कालातीत अनुभूति- अत्यंत वैयक्तिक और निजी- उसे काल के प्रवाह में संगठित कैसे किया जा सकता है? सत्य शास्त्र नहीं है क्योंकि सब शास्त्र मनुष्य कृत हैं, ‘और सत्य अकृत है, असृष्ट है, अनादि है और अनंत है। सत्य शब्द भी नहीं है, क्योंकि शब्द पैदा होते हैं और विलीन हो जाते हैं जब कि सत्य सदा है, सदैव है, सनातन और शाश्वत है। फिर सत्य क्या है? वस्तुतः ‘क्या’ की भाषा में सत्य है ही नहीं। वह तो है, जो है, वही वह है। उसे सोचा- विचारा नहीं जा सकता, यद्यपि उसमें हुआ जा सकता है। सोच-विचार ही उसमें होने में बाधा है। संगीत की लयबद्धता में, प्रेम की परिपूर्णता में, प्रकृति के सौंदर्य में जब व्यक्ति न होने जैसा ही हो जाता है, तब जो है, वही सत्य है। व्यक्ति असत्य है। अव्यक्ति सत्य है। अहं असत्य है। ब्रह्म सत्य है।
२०. व्यक्ति उलझा हुआ है, इसीलिए समाज उलझा हुआ है। व्यक्ति की समस्या ही विश्व की समस्या है। और व्यक्ति क्यों समस्या में है? व्यक्ति समस्या में नहीं, अपितु व्यक्ति ही समस्या है। उसकी व्यक्ति चेतना ही समस्या है, उसकी अहं चेतना ही समस्या है। ‘मैं हूं’... इसमें से ‘मैं’ नहीं हो जाए और मात्र ‘हूं’ की अनुभूति हो सके तो समस्या विलीन हो जाती है और समाधान द्वार आ जाता है। वस्तुतः जीवन होना मात्र है। वह तो सहज प्रवाह है। उस प्रवाह पर मैं आरोपण है। ‘मैं’ को खोजो। वह कहां है? मैं कहां है? कहीं भी तो नहीं। जीवन है, होना है, पर मैं कहां है। किंतु हम तो सारा जीवन ही मैं पर खड़ा करते हैं, तब कौनसा आश्चर्य है यदि इस जीवन में शांति के दर्शन न होते हों? हमारा धर्म, हमारी सभ्यता सभी तो मैं पर खड़े हैं, तब क्या यह स्वाभाविक ही नहीं है कि उन सबसे
13 Naye Sanket (नये संकेत), chapter 20
चिंता तनाव, उन्माद और विक्षिप्तताएं पैदा होती हों? मैं की भूमि पर जो भी निर्मित है, वह सब अस्वस्थ है और अस्वस्थ ही हो सकता है। मैं के केंद्र पर बनाया गया जीवन ही जन्म और मृत्यु की यात्रा करता है। मैं का ही जन्म है। मैं की ही मृत्यु है। स्वप्न ही पैदा होते हैं और स्वप्न ही विलीन हो जाते हैं। जो है, उसका न तो जन्म है और न मृत्यु है। वह तो बस है... है... है... ‘मैं’ को भूलो- छोड़ो। और ‘है’ में जागो- जीओ। ‘मैं’ ‘है’ में नहीं जागने देता, नहीं जीने देता। वह या तो अतीत में होता है या उसकी ही प्रतिध्वनि भविष्य में। जब कि जीवन है सदा वर्तमान- सदा अभी और यहीं। ‘मैं’ से मुक्त होकर जो इस वर्तमान में जाग जाता है, वह पाता है कि जीवन का अमृत, सत्य, सौंदर्य और संगीत उसे सब ओर से, सब दिशाओं से, बाहर से, भीतर से... वैसे ही घेरे हुए हैं जैसे मछली को सागर घेरे रहता है।